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सहजानंद समग्र/ खंड-2

 
स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-2

मेरा जीवन संघर्ष : उत्तर भाग-उत्तर खण्ड I

मुख्य सूची खंड - 1 खंड-2 खंड - 3 खंड - 4 खंड - 5 खंड - 6
(1) जमींदारी खत्म हो
(2) धर्म की बात
(3) आल इण्डिया किसान-सभा और किसान बुलेटिन
(3) बिहटा की चीनी-मिल
(4) केन्द्रीय असेम्बली का चुनाव
(5) बैनामी सूबा
(6) किसानों की माँगें-फैजपुर का कार्यक्रम
(7) बिहार की किसान जाँच कमिटी
(4) असेम्बलियों का चुनाव
(9) मसरख कॉन्फ्रेंस तथा कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल
(10) काश्मीर यात्रा

अगला पृष्ठ : उत्तर भाग-उत्तर खण्ड II


    (1)जमींदारी खत्म हो 

जिस ईमानदारी और नेकनीयती के साथ विश्वासपूर्वक मैंने जमींदारी और जमींदारों के सुधारने और किसानों एवं उनके बीच सद्भाव लाने की कोशिश की थी, उसका परिणाम सिवाय परेशानी और भयंकर निराशा के दूसरा कुछ न हुआ। उलटे जमींदारों का कुचक्र दिन-रात बढ़ता ही गया। भूकम्प के बाद जिस हृदय-हीनता का परिचय उन्होंने दिया, वह मेरी ऑंखों के भी सामने आज नाचता है। बिहार में सरकार के ही कथनानुसार गल्ले का दाम साठ फीसदी गिर गया। फलत:, किसानों को ढाई रुपये की जगह सिर्फ एक रुपया दाम मिलने लगा। भूकम्प ने अच्छी जमीनें बालूमय कर दी थीं, जिससे पैदावार भी मारी गयी। उसके बाद ही ऐसी बाढ़ आयी कि किसान तबाह हो गये। भूकम्प के करते जमीन की सतह ऐसी खराब हो गयी कि बरसात और बाढ़ का पानी बह जाने के बजाय स्थान-स्थान पर जमा होकर खेतों को चौपट करने लगा। इसी के साथ हमने आन्दोलन करने में कोई भी कसर नहीं उठा रखी। मगर सरकार और जमींदार दोनों ही वज्र बहरे हो गये। दूसरे प्रान्तों ने किसानों को आराम देने के लिए कुछ-न-कुछ किया। बहुतों ने तो ज्यादा किया। मगर बिहार की सरकार ने, यहाँ के जमींदारों ने और कौंसिल ने भी गोया कसम खा ली कि वह टस से मस न होंगे। सचमुच उनके कान पर जूँ तक न रेंगी।

    फलस्वरूप, मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि जमींदार नाम की चीज ही बुरी है। वह रहने लायक नहीं। उसे खत्म करना चाहिए। मनुष्य के नाम से या और नामों से कोई, रहे भले ही। मगर इस नाम से नहीं। मेरी धारणा हो गयी कि यदि मिट्टी का भी जमींदार हो तो वह भी उतना ही खतरनाक होगा। इसलिए तय कर लिया कि जमींदारी का खात्मा करना ही होगा और समय आ गया है कि किसान-सभा इस मामले में अपनी आवाज बुलन्द करे। सन् 1935 ई. के बीतने के पहले ही मैं इस नतीजे पर पहुँचा। आखिर, दुनिया में और खास कर बम्बई आदि प्रान्तों में बिना जमींदारी के ही लोग खाते-पीते रहें। तो फिर, यहाँ जमींदार बन के क्यों किसानों की छाती पर कोदो दलते रहें? रोजगार, व्यापार करके क्यों न खायें-पियें? शैतान से आदमी क्यों ने बन जाये?

    उस साल मुजफ्फरपुर जिले के हाजीपुर में तृतीय बिहार प्रान्तीय किसान सम्मेलन होने वाला था। नवम्बर का महीना निश्चित था। मैं ही सभापति चुना गया था। इसलिए मौका अच्छा मिला। मैंने साथियों से कहा कि अब जमींदारी मिटाने की बात साफ़-साफ़ बोलिए। मैंने अपने भाषण में, जो छपा था, यद्यपि इस बात को साफ़-साफ़ नहीं कहा। तथापि इशारा जरूर किया। मेरा खयाल था और आज भी है कि महत्त्व पूर्ण सैध्दान्तिक बातों के बारे में कोई व्यक्ति न बोलें। इस बारे में किसान-सभा या ऐसी संस्थाएँ ही पहले पहल निर्णय करें तो ठीक हो। खास कर सभापति के बोल देने पर और लोगों पर एक भार हो जाता है और उन्हें स्वतन्त्र निर्णय करने में दिक्कत होती है। यों तो प्रचार के लिए सभी लोग बोल सकते हैं। यही कारण था कि भाषण में मैंने स्पष्ट बात नहीं कही।

    यों तो हाजीपुर का इलाका छोटे-मोटे जमींदारों का है। अतएव किसानमय नहीं कहा जा सकता, जैसा कि दरभंगा, गया आदि के अनेक इलाकों को कह सकते हैं। मुजफ्फरपुर में भी ऐसे अनेक भाग हैं। फिर भी सम्मेलन अच्छा जमा और उसने एक क्रान्तिकारी कदम आगे बढ़ाया जो किसान-सभा के इतिहास में अमर रहेगा। यह तो कही चुका हूँ कि मेरा भाषण छपा था। हमारे सम्मेलन को यह पहला ही अवसर ऐसा मिला था। जब मैंने वह भाषण लिख लिया तो छपने के पहले साथियों को उसे दिखला दिया। केवल यह जानने के लिए कि वह उसे पसन्द करते हैं या नहीं। तभी से एक रूढ़ि सी हमारी किसान-सभा में हो गयी है कि सम्मेलनों के सभापतियों के भाषण हम पहले ही देख लेते हैं। शायद कभी-कभी कुछ संशोधन भी उनमें करते हैं। इससे नीति में सामंजस्य बना रहता है और कोई गैर-जवाबदेही की बात सभापति जैसे उत्तरदायी व्यक्ति के मुँह से नहीं निकल पाती।

    हाँ, तो मेरा भाषण साथियों ने पसन्द किया, केवल समाजवाद के बारे में एक अंश उन्हें कुछ जरूरी न जँचा और मुझे कहा गया कि उसे निकाल दूँ तो अच्छा हो। मगर मैंने ऐसा नहीं किया। असल में मैंने अपने व्यक्तिगत विचारों के सिलसिले में लिखा कि मेरे जानते समाजवाद में धर्म का स्थान नहीं हो सकता। चाहे, उसका विरोध वह भले ही न करें। धर्म का सम्मिश्रण होते ही उसमें गड़बड़ियाँ आयँगी और अपने लक्ष्य से वह च्युत हो जायगा। मैंने यह भी लिखा कि भौतिक दर्शन जितने हैं, उनमें यही सबसे सही है। मगर धर्म को उसमें स्थान न होने से मेरे जैसों के लिए उसमें जगह नहीं है। इस अंश को हटाने को मैं तैयार न था। यदि समाजवाद या मार्क्सवाद पर कोई आक्षेप रहता तो जरूर हटा लेता। मगर यह तो उसके एक पहलू पर मेरे निजी विचार थे जो किसी को खटक नहीं सकते थे। धर्म के मामले में आज भी मेरे विचार बहुत कुछ वैसे ही हैं। फिर भी उस कारण से उसमें शरीक होने में मुझे तो अब कोई बाधा नजर नहीं आती, हालाँकि, अब तक शरीक हूँ नहीं और इसके दूसरे ही कारण हैं।

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(2)धर्म की बात

 यह धर्म का प्रश्न इतना पेचीदा और खतरनाक है कि लोगों को इससे भ्रम हो सकता है। उस भाषण से कई लोग भ्रम में पड़े भी हैं, यह मैं जानता हूँ। इसलिए प्रसंगवश यहीं उसके बारे में दो-चार शब्द कह देना चाहता हूँ। कहते हैं कि आत्मा की भूख की शान्ति के लिए धर्म का आविष्कार हुआ। फिर उसके दो आकार हुए&एक वैज्ञानिक और दूसरा व्यावहारिक। पहले में दर्शन और दार्शनिक विचार आ जाते हैं। उन्हीं विचारों को अमली जामा पहनाने के सिलसिले में बाहरी तथा व्यावहारिक पूजा-पाठ आदि आते हैं।

    चाहे, शुरू में इसका कुछ भी रूप क्यों न रहा हो, इसका उद्देश्य भी कितना ही पवित्र और ऊँचा क्यों न रखा गया हो और कुछ लोगों ने ठीक वैसा ही अमल भी क्यों न किया हो, लेकिन इन सब बातों का हमें आज कतई पता नहीं है। उन्हें न हमने पहले देखा था और न आज ही देखते हैं। प्रत्यक्ष तो यही देखते हैं कि धर्म में तर्क, दलील और विचार को स्थान नहीं है। यही उसका व्यावहारिक रूप है। पण्डित, मौलवी और धार्माचार्य जो कहें, उसे ऑंख मूँद कर मानो। नहीं तो तुम्हारे विरुध्द फतवा निकल जायगा। चीं-चपड़ मत करो। ''ऊँट बिलाई ले गयी तो हाँजी हाँजी कहना!'' ये धर्माचार्य, गुरु, पण्डित वगैरह भी कैसे, कि अक्ल से उन्हें ताल्लुक ही नहीं। और ये चीजें पुश्तैनी हो जाने से उनके लिए पढ़ना-लिखना भी जरूरी नहीं। फलत:, वे लोग प्राय: निरक्षर भट्टाचार्य ही होते हैं। मगर मन्तर और दीक्षा देकर बैकुण्ठ भेजने का, बहिश्त पहुँचाने का दावा जरूर रखते हैं। यहाँ तक कि सर्वाधिकार संरक्षित! फलत:, धर्म के नाम पर सबसे ज्यादा ऍंधोर खाता देखते हैं। वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो गया है। भेड़ों की ही तरह हिन्दू, मुसलिम, क्रिस्तान आदि के समूह होते हैं। इस प्रकार धर्म दिल की चीज न होकर बाहरी और दिखावटी वस्तु हो गयी है। हम शिखा और दाढ़ी से ही प्राय: हिन्दू और मुसलमान का परिचय करते हैं।

    मगर मैं इस धर्म को कतई नहीं मानता। बल्कि कह सकते हैं कि मैं ऐसे धर्म को समाज, देश और मानवता का शत्रु मानता हूँ। यह हमारी आजादी का भी बन्धक है। जहाँ विवेक को स्थान नहीं और फतवा या आदेश चले, मैं उस चीज को नहीं मानता। यदि बुध्दि ही कुण्ठित कर दी गयी और विवेक को ही स्थान न रहा, तो फिर सब खत्म ही हो गया! मैं विवेक के ऊपर लगाम और जाब चढ़ाना बर्दाश्त नहीं कर सकता और जो बात बुध्दि में न समाये, विवेक में न आये, उसे धर्म के नाम पर मानने, मनवाने का मैं सख्त दुश्मन हूँ। इसीलिए बच्चों को धार्मिक शिक्षा&जिस मानी में आज धर्म कहा जाता है, उसकी शिक्षा&देने का विरोधी हूँ। धर्म तो मेरे विचार से सोलहों आने व्यक्तिगत वस्तु है, जैसे अक्ल, दिल, ऑंख, नाक आदि। दो आदमियों की एक ही बुध्दि या ऑंख नहीं हो सकती। तो फिर धर्म कैसे दो आदमियों का एक होगा? और जैसे रोगग्रस्त शरीर में अन्न की भूख नहीं होती उसी तरह पराधीन तथा विवेकहीन आत्मा में धर्म या अध्ययात्म की भूख कहाँ, कि उसकी शान्ति का यत्न हो? इसीलिए मेरा धर्म विचित्र है। उसके सम्बन्ध में लोगों को भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए।

    साथ ही साथ, मैं यह भी मानता हूँ कि जिस धर्म को आज हम देखते हैं। उसका भी सीधे विरोध करना बड़ी भारी भूल है। उसके विकृत पहलुओं का एक- एक करके विरोध किया जा सकता है, न कि सामान्य रूप से धर्म का ही। इसमें बड़ी हानि हो सकती है। पहलुओं का विरोध भी तर्क और दलील के बल पर होना चाहिए और जिन्हें धर्म के मामले में कहने और बोलने का अधिकार है, जिनके बारे में लोग ऐसा मानते हों, वही यदि यह विरोध और खण्डनमण्डन करें तो अच्छा हो। दूसरों को प्राय: इसमें नहीं पड़ना चाहिए। उन्हें इससे बचना चाहिए। हाँ, अमल तो सभी कर सकते हैं, ठीक उसी प्रकार का जैसी कि उनकी धारणा है। उसमें कोई खतरा या बाधा नहीं। परन्तु समूह के ऊपर सहसा भयंकर प्रतिघात जिससे हो, वह काम बचाया जाय, खासकर समूह की जानकारी में। जहाँ ऐसा खतरा न हो वहाँ वह भी किया जा सकता है, अगर उसे ठीक मानते हों। जो लोग जनता में काम करते हैं, उन्हीं के लिए मेरा यह विचार है। बाकी लोग जो भी चाहें, कहें या करें। मुझे उनकी फिक्र नहीं।

    हाँ, तो जमींदारी मिटाने के प्रस्ताव के साथ ही अनेक महत्त्व पूर्ण निश्चय करके वह हाजीपुर वाला सम्मेलन सम्पन्न हुआ। यह समझ लेना चाहिए बकि उसके पहले कई बार ऐसा मौका आया जब कि साधारण किसान-सभाओं और जिला किसान सम्मेलनों में जमींदारी के विरुध्द प्रस्ताव आये थे और पास भी हुए थे। इस प्रकार वायुमण्डल तैयार किया गया था। विशेष रूप से मुजफ्फरपुर के मनियारी मौजे में जो सम्मेलन जिले के किसानों का हुआ था, उसमें तो इस बारे में खूब चहल-पहल रही। वहाँ पहले-पहल यह सवाल उठाया गया था। कांग्रेस के कुछ ख्यातनामा लीडरों ने, जो जमींदारों के दोस्त और खुद नाममात्र के जमींदार हैं, इस प्रस्ताव के विरुध्द सारी शक्ति भी लगायी थी। मगर फिर वे बुरी तरह असफल रहे जिसका उन्हें सपने में भी खयाल न था। मैं भी वहाँ था और मेरे विचार से वे लोग फायदा उठाना चाहते थे। मगर वह भूलते थे कि मेरे विचारों के क्या मानी हैं।

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 (3)आल इण्डिया किसान-सभा और किसान बुलेटिन

 सन् 1935 ई. के बीतते-न-बीतते एक और महत्त्व पूर्ण घटना किसान-सभा के इतिहास में हुई। वामपक्ष के अनेक प्रमुख नेता मेरठ में एकत्र हुए और अन्य बातों के सिवाय उन्होंने यह भी तय किया कि अखिल भारतीय किसान-सभा का संगठन होना चाहिए। उनमें बिहार के भी कुछ मेरे साथी थे, जो आखिरकार इस बात में सहमत हो गये।वहाँ इस काम के लिए जो संगठन-समिति बनी, उसके मन्त्री, उन्होंने, मुझे, श्री एन. जी. रंगा को और श्री मोहनलाल गौतम को नियुक्त कर दिया। जिस परिस्थिति ने हमें जमींदारी के मामले में खामख्वाह आगे बढ़ाया उसी परिस्थिति ने और भी आगे जाने को विवश किया। मैं तो इसका विरोधी था। लेकिन किसान-सभा में अब तक मेरी बराबर नीति यही रही है कि साथियों की राय के बिना कुछ न करना और जिसमें वे सहमत हो जाये, उसमें ज्यादा आगा-पीछा न करना, र्बशत्तो कि कुछ पेचीदा पहेली जैसी बात न हो, जिसका बुरा असर हमारी सभा पर पड़ने का खतरा हो। इसलिए मैंने मान लिया कि आल इण्डिया सभा भी बने। देखा जायगा।

    इसके बाद अप्रैल के महीने में सन् 1936 ई. में लखनऊ में कांग्रेस के अधिवेशन के समय ही पहला आल इण्डिया किसान सम्मेलन करने का भी फैसला उन लोगों ने कर लिया। शायद यह बात मेरठ में ही तय पायी हो। सिर्फ आखिरी निश्चय पीछे कर लिया गया हो। लेकिन यह बात हुई और अखबारों में खबरें भी निकल गयीं। कुछ खास प्रबन्ध तो करना न था। कांग्रेस की तैयारी थी ही। विषय-समिति के पण्डाल में ही सम्मेलन करना तय करके स्वागत समिति से इस कार्य के लिए आज्ञा ले ली गयी थी। यह भी उन्हीं लोगों ने तय कर लिया था कि उसका सभापति मैं ही बनाया जाऊँ। इसकी सूचना भी तार द्वारा मुझे दी गयी। मगर तार मिलने के पहले ही मैं लखनऊ जा पहुँचा था। क्योंकि कांग्रेस की विषय-समिति आदि में सम्मिलित होना था। और लोग भी पहुँचे ही थे। वहाँ जाने पर ही मुझे सब बातें मालूम हो गयीं। हरेक प्रान्त के वामपक्षी लोगों से खास तौर से वहाँ परिचय प्राप्त किया।

    तब से लेकर आज तक के मेरे पक्के साथी प्रो. रंगा और श्री इन्दुलाल याज्ञिक से पहले मुलाकात वहीं हुई। यों तो एक बार रंगा जी दो मास पूर्व बिहार आने को थे। पर न आ सके। श्री इन्दुलाल जी से तो लिखा-पढ़ी पहले ही से चलती थी। असल में वह बम्बई में एक प्रचार संस्था बना के किसानों के सम्बन्ध की एक विज्ञप्ति कभी-कभी उसी संस्था के द्वारा प्रकाशित करते थे। मुझे भी उसे कुछ दिन से भेजने लगे थे। उन्होंने वहाँ मिलने पर उसके भेजने का कारण यह बताया कि कभी किसी अंग्रेजी अखबार में मेरे किसी भाषण का वह अंश उन्हें पढ़ने को मिला, जिसमें मैंने और बातों के साथ यह कहा था कि रोटी भगवान् से बड़ी है। इसी से आकृष्ट हो के उनने मुझे पत्र लिखा और पीछे वह अंग्रेजी विज्ञाप्ति भेजने लगे।

    मैं तो सशंक था कि यह कैसा आदमी है। मगर साथियों ने बताया कि वह तो हमारा ही आदमी है। तब मुझे विश्वास हो गया। पीछे तो लखनऊ में और उसके बाद हम दोनों में वह घनिष्ठता हो गई जो शायद ही और किसी के साथ हो? किसान-सभा इस बात की चिरऋणी रहेगी कि श्री इन्दुलाल जी ने शुरू में अपने ही उद्योग से आल इण्डिया किसान बुलेटिन अंग्रेजी में निकाल कर किसान आन्दोलन की अपूर्व सेवा की। वह पन्द्रहवें दिन निकलती है।

    हाँ, तो सम्मेलन तो सम्पन्न हुआ अनेक महत्त्व पूर्ण प्रस्ताव भी पास हुए। आल इण्डिया किसान कमिटी का जन्म भी वहीं हुआ। उसमें हर प्रान्त के तात्कालिक उत्साही किसान कार्यकर्ता लिये गये। उसका काम और अधिकार यही रहा कि जब किसान-सभा न मिल सके तो उसकी जगह वही समझी जाय। पीछे तो नियमावली बना के सम्मेलन को ही आल इण्डिया किसान-सभा का वार्षिक अधिवेशन नाम दे दिया गया। उस समय आल इण्डिया किसान-सभा के तीन मन्त्री चुने गये। स्थायी सभापति रखने की बात उस समय तय नहीं पाई। सोचा गया कि अधिवेशन के समय के ही लिए सभापति का पद हो, न कि स्थायी। हालाँकि, पीछे तो विधान में सभापति का पद स्थायी हो गया। वे तीनों मन्त्री थे, वही पुराने तीन&मैं, प्रो. रंगा और गौतम। गौतम जी के जिम्मे ऑफिस सौंपा गया। मगर थोड़े ही दिनों बाद वह बीमार पडे र ऑफिस मेरे जिम्मे आ गया। तब से बराबर मैं ही उस सभा का जेनरल सेक्रटेरी रहा हूँ और ऑफिस मेरे पास ही रह गया है। सिवाय सन् 1938-39 ई. के, जब मैं कोमिला के अधिवेशन में फिर सभापति चुना गया और प्रो. रंगा प्रधानमन्त्री। उसी दरम्यान में केवल एक साल ऑफिस रंगा जी के साथ रहा। लखनऊ के बाद फैजपुर में ही श्री इन्दुलाल याज्ञिक अन्य साथियों के साथ उसके संयुक्तमन्त्री चुने गये। तब से बराबर उस पद पर हैं।

    लखनऊ में ही सोचा गया कि आल इण्डिया किसान दिवस मनाया जाय। लेकिन तैयारी के लिए कुछ समय चाहिए। इसलिए पहली सितम्बर ठीक हुई। तब से बराबर ही भारत भर में पहली सितम्बर को आल इण्डिया किसान दिवस मनाया जाता है। यों तो 'मे डे' में हम बराबर ही मजदूरो का साथ देते हैं।

    आल इण्डिया किसान-सभा का ऑफिस ज्योंही मेरे हाथ में सन् 1936 में आया कि मैं उसे दृढ़ बनाने में लग गया। बिहार प्रान्तीय किसान-सभा के कार्य से जितना समय बच पाता, उसी में लगाता। प्राय: सभी प्रान्तों में दौरे भी किये&कहीं एक बार और कहीं तो अनेक बार। ज्यादातर जगहों में अनेक बार ही गया। इस मामले में मैंने श्री इन्दुलाल याज्ञिक को बहुत ही मुस्तैद पाया। वे मुझसे जबर्दस्ती काम लेते। उन्हीं के करते मुझे खामख्वाह समय निकालना पड़ता। जब मैं दूसरी बार सभापति चुना गया तब भी यह मेरी कोशिश पूर्ववत् रही। अभी-अभी तो गत वर्ष इतनी कोशिश के बाद दो-एक को छोड़ सभी प्रान्तों में बाकायदा किसान-सभा के मेम्बर बनवा के उनसे आल इंडिया का हिस्सा वसूल किया है। इसके पहले प्राय: व्यक्तिगत चन्दे से, तथा कुछ प्रान्तों से यों ही वसूल किए पैसों से ही किसी प्रकार ऑफिस चलता था।

    मगर मैं इस बात का विरोधी हूँ। जनता की संस्थाएँ और गण-आन्दोलन, जिन्हें किसानों, मजदूरों और अन्य शोषितों के हाथ में पूर्ण-रूपेण राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकार दिलाना है या यों कहिये, कि जिन्हे लड़ के औरों से उनके द्वारा ये अधिकार छीनना है, वह तब तक मजबूत नहीं हो सकती हैं, और न अपने लक्ष्य को ही प्राप्त कर सकती हैं, जब तक दूसरों के चन्दे से बाहरी आदमियों के द्वारा उनका संचालन होता है। इसीलिए कभी-कभी साथियों के कोप का भाजन बन के भी मुझे जबर्दस्ती यह काम करना पड़ा है। फलत:, स्वावलम्बी बनने के रास्ते पर कुछ दूर तक भारतीय किसान-सभा को लाने में मैं समर्थ भी हुआ हूँ।

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 (3)बिहटा की चीनी-मिल

 यों तो सन् 1932 ई. में ही बिहटा में चीनी बनाने की मिल का सूत्रपात हुआ। मिल के संचालक श्री रामकृष्ण डालमिया आदि ने मुझसे थोड़ी-बहुत मदद भी शुरू से कुछ दिनों तक ली। मगर उस मिल से मैंने जो कुछ सीखा और वहाँ जो कुछ मुझे करना पड़ा, वह मेरे जीवन-संघर्ष का एक महत्त्व पूर्ण अंग है। वहीं मैंने सीखा है कि मालदार और स्थिर स्वार्थ वाले पूँजीपति किस प्रकार चालाकी से जनता का शोषण करते हैं। बडे-बडे नेता और महात्मा उनके शिकंजे में किस प्रकार फँस के उनकी मदद भी इस शोषण में करते हैं! फिर भी समझ नहीं सकते कि वह ऐसा कर रहे हैं! प्रत्युत, उलटे यह मानते हैं कि वे पूँजीपतियों का प्रयोग जनता के लाभार्थ कर रहे हैं! हालाँकि, दरअसल पूँजीपति ही उनका प्रयोग अपने लाभ तथा पीड़ितों के शोषण के लिए करते हैं!

    सबसे पहले मिल के लिए जमीन मिलने में उन्हें दिक्कत हुई। असल में बिहटा के जमींदार बड़े काइयाँ हैं। वे किसी की सुनते नहीं। मेरे पास मिलवाले पहुँचे कि सहायता करे। मैंने कहा, देखा जायगा। इतने में एक दिन एक भलेमानस ने, जो दानापुर लोकलबोर्ड के वाइसचेयरमैन थे, मुझसे बात-बात में यों ही कह दिया कि आप आश्रम के लिए चन्दे के पीछे हैरान क्यों हैं? मिलवालों को जमीन दिलवा दीजिए। फिर तो आपको पैसे की कमी न रहेगी! मेरे खून में यह सुनते ही आग लग गयी। बस, चट उन्हें सुना दिया कि ''तो क्या मिलवालों की नौकरी या गुलामी कर लूँ? या कि उनकी दरबारदारी करूँ?'' वे बेचारे तो सकपका गए और उस बात का और ही मतलब लगाना शुरू किया। मैंने फिर कहा कि यदि मैं उचित यार् कर्तव्य समझ के न कर सकूँगा, तो पैसों के लोभ से नहीं ही कर सकता। ऐसे पैसों पर पेशाब करता हूँ।

    इस आखिरी बात का सिर्फ यह पहला ही मौका न था। 'लोक-संग्रह' के प्रेस के सिलसिले में ऐसी बात सुनाने का मौका आया था, जिसका उल्लेख हो चुका है। उसी प्रेस के सिलसिले में पटने के एक अच्छे जमींदार ने मुझे छ: सौ रुपये दिये थे। मगर मैंने उन्हें बचा रखा था। जब वह प्रेस मैंने कार्यी जी को सौंपा तो किसी के कहने-सुनने पर कुछ रंज होकर उलाहना देते हुए उन्होंने मुझे पत्र लिखा कि प्रेस में मैंने रुपये इसलिए नहीं दिये थे कि वह गैरों को दिया जाय। मैंने उन्हें भी यही लिखा था कि ऐसे रुपयों पर पेशाब करता हूँ, जो मुझ पर किसी प्रकार का दबाव डालें और मेरी आजादी संकुचित करें। आप जब चाहें, सूद सहित आपके रुपये लौटा दूँ। आपने जिस प्रेम से उपकार के लिए, दिया था, उसी प्रेम से मैंने उन्हें बचा रखा और इस आश्रम को सौंप दिया है। यह बात आश्रम की रिपोर्ट में आप देख सकते हैं। इस पर वह बुरी तरह झेंपे और मुझसे क्षमा माँगी।

    खैर, मैंने जमींदारों से कह के जमीन तो दिलवा दी। उन्होंने कीमत आदि के लिए ज्यादा झमेला भी छोड़ दिया। मैंने समझा कि चीनी की मिलें तो अब विलायती चीनी पर प्राय: साढ़े छ: रुपये मन टैक्स लग जाने के कारण् यहाँ खुलेंगी ही। लेकिन यदि कोई विदेशी आकर खोले तो उससे कहीं अच्छा यह डालमिया है, जो गांधीटोपी तो पहनता और अपने को कांग्रेसी तो बताता है! लोग भी उसे ऐसा मानते हैं। मगर इसका परिणाम अच्छा नहीं हुआ। उसे इससे हिम्मत हुई। फिर तो मुझे फँसाने के लिए उसने अनेक उपाय किये। शायद लोगों ने उसे कह दिया कि यह स्वामी विचित्र है। यों न सुनेगा। जाओ और धीरे-धीरे उससे हेलमेल करो, तो शायद चकमे में आ जाये। यों तो रुपये-पैसे का नाम लेने पर जूते से ही बातें करेगा।

    यही हुआ और डालमिया परिवार ने धीरे-धीरे आश्रम में आना-जाना शुरू किया। फिर प्रस्ताव किया कि मेरी बहन का यह लड़का यहीं आश्रम में ही रहे। मैंने कहा, देखा जायगा। बाद में लड़के की माँ और दादी से भी कहलवाया। मगर मैं टालता गया। एक दिन तो यहाँ तक बात उनने कह डाली कि मैं उसके लिए अलग मकान यहीं बनवा दूँगा। फिर आश्रम के एकाधा शुभचिन्तकों से यह कह दिया कि अब लड़के को रखवाइये। उन्होंने 'हाँ' भी कह दिया। इस पर मैंने कह दिया कि ''लेकिन बिना मेरी आज्ञा के वह यहाँ नहीं आ सकता।'' इस पर वे लोग चकराये कि यह क्या? और जब एक दिन उन्होंने पूछा तो मैंने साफ कह दिया कि यहाँ गरीबों के लड़के रहते हैं, बारह मास सवेरे ही उठते हैं और आश्रम का सारा काम अपने हाथों ही करते हैं। यहाँ कोई नौकर है नहीं। आपका लड़का यह कर नहीं सकता। मैं उसके साथ रियायत करके परलोक में या दुनिया को क्या उत्तर दूँगा? मैं ऐसा कर नहीं सकता। इसलिए उसे यहाँ रख नहीं सकता। इस प्रकार यह बला टली।

    फिर भी आना-जाना जारी रहा। वे लोग दस-बीस दिनों के बाद पाँच-छ: रुपये लड़कों के लिए दे जाते कि इनका भोज कर दीजिये। ये ब्रह्मचारी लोग खायेंगे। कारण बताते कि आज अमुक पूजा है, आज अमुक आदमी का जन्मदिन है, आज घर में ब्याह है, आज भोज है, आदि-आदि। मैंने सोचा कि यह दूसरी बला आयी और अगर ऐसे ही महीने-पन्द्रह दिन बाद बराबर इनके रुपये आते रहे तो अच्छा न होगा। क्योंकि इन रुपयों में बड़ी मोहनी शक्ति है। फलत:, मुझमें इनके प्रति मुरव्वत और रियायत धीरे-धीरे आ जायगी। इन्हें यहाँ मिल में मजदूरों से काम लेना और किसानों से ऊख लेनी है। उस समय जब ये मजदूरों और किसानों को कष्ट देंगे, उन पर ज्यादतियाँ करेंगे तो मेरे लिए ये रुपये खतरनाक और जाल सिध्द होंगे। इन्हीं के करते मुरव्वत के मारे बोलने की हिम्मत न होगी। कहते हैं कि चोर जब चोरी करने चलते हैं तो साथ में गुड़ ले लेते हैं और जब कहीं रास्ते में कुत्ते भूँकते हैं, तो वही गुड़ उनके आगे फेंक देने पर उनका भूँकना रुक जाता है। वे गुड़ खाने में फँस जो जाते हैं। ठीक यही बात ये पूँजीपति करते हैं। ये हमें भूँकने वाले समझ पहले ही से गुड़ डालते हैं। इसलिए मैंने एक दिन बेमुरव्वत हो के कह दिया कि आप आइये, जाइये खुशी से। मगर खुदा के लिए वे रुपये न दिया कीजिये। नहीं तो एक दिन आप यहाँ गरीबों पर जुल्म करेंगे और इन रुपयों की मोहनी मेरा मुँह उस समय बन्द कर देगी। उन्हें यह सुनकर आश्चर्य तो हुआ। मगर फिर उनने रुपये कभी न दिये। इस प्रकार यह दूसरी बला भी खत्म हुई।

    मिल के संचालकों ने बाबू राजेन्द्र प्रसाद को भी मिल का एक डायरेक्टर बना दिया। उसका उद्धाटन पं. मदनमोहन मालवीय करेंगे यह भी घोषणा हो गयी। उधर यह भी प्रचार किया गया कि यहाँ तो मिल के मजदूरों के लिए आदर्श निवास स्थान बनेंगे। उनके बच्चों के पढ़ने के लिए स्कूल आदि का पूरा प्रबन्ध होगा। मुझ से बातों में वे यह भी कहा करते थे कि वेग सदरलैण्ड आदि अंग्रेजों की जो मिलें हैं उनमें खर्च ज्यादा होता है। हम तो खर्च कम करेंगे। फलत: किसानों को काफी पैसे देकर ऊख लेंगे, मजदूरों को पर्याप्त वेतन देंगे और इतने पर भी हमारी चीनी उनकी चीनी से सस्ती होगी। खैर, मालवीय जी तो नहीं आये।

    इधर जब मिल बहुत कुछ बन गयी तो एक दिन बातचीत में बोले किसान तो तीन आने मन की दर से ऊख देंगे! क्योंकि उन्हें पैसे की जरूरत जो है। हमने कहा कि वेग सदरलैण्ड तो छ: आने देता है। आप तीन ही आने की बात कैसे करते हैं? कहने लगे कि इतने ही में परता पड़ेगा। मेरे यह कहने पर, कि अभी तो कुछ दिन पूर्व कहते थे कि हमारा खर्च कम होने से हम काफी पैसे देकर भी सस्ती चीनी बेचेंगे। तो फिर आज क्या हो गया? बोले कि आमद और माँग (Supply and demand) का सिध्दान्त भी तो देखना है। मैंने कहा, कि सिर्फ ऊख के बारे में ही यह वसूल लागू होगा या चीनी के बारे में भी? विदेशी चीनी पर गहरा टैक्स लगाने पर ही तो आपकी मिल खुल सकी है! यह बात भूल गये इतनी जल्दी? चीनी के बारे में भी यही सिध्दान्त लगाकर मिल खोल लें तो देखूँगा। और अगर आपकी यही नीयत है तो मैं अभी से किसान को तैयार करूँगा कि मिल में ऊख न दें। तब कहने लगे आपकी कौन सुनेगा? वह तो गर्ज का बावला, खामख्वाह जिस दाम पर हम चाहें उसी दाम पर ऊख देगा ही। मैंने कहा, मैं मानता हूँ आपके पास पैसे हैं। इसलिए सरकार और पुलिस भी आपकी सहायता करेगी। आपको ऐसे लोग भी मिलेंगे जो किसानों को फुसलायेंगे। आप नोटिसें आदि छपवाकर और अखबारों के द्वारा भी अपना काम निकाल लेंगे और शुरू में ऊख पा जायेगे। फिर भी मैं अपना यत्न न छोडेगा। तब हँसकर कह बैठे कि, तो फिर यत्न से लाभ ही क्या, जब मुझे ऊख मिल ही जायगी? इस पर मैंने सुना दिया कि पचास वर्ष पूर्व जब कांग्रेस बनी तो उसे कोई पूछता न था। मगर लगे रहने का फल हुआ कि आज सरकार को वह चैलेंज देती और झुकाती है। यदि किसी के घर में लगातार दस-पाँच बार लोग बीमार हों और डॉक्टर, वैद्यादि के यत्न होने पर भी मर जाये, तो इसका अर्थ यह थोड़े ही होगा कि उसके बाद कोई बीमार पड़े तो डॉक्टर वगैरह बुलाये ही न जाये। इस पर वे चुप हो गये और मैं चला आया।

    लेकिन बाघ के जबड़े का पता चल गया। और मैं पूरा सजग हो गया। मेरा प्रचार किसानों में खूब हुआ। बीसियों नोटिसों और सैकड़ों सभाओं के द्वारा मैंने उन्हें आगाह किया कि खतरा है। उधर उनने भी जोर लगाया। गुड़ बनाना किसान बन्द कर दें तो मिल के गुलाम बन जाये, इस चाल से उन्होंने उनमें झूठे प्रचार करने में सारी ताकत लगा दी कि गुड़ न बनाओ। मैंने पूँजीवाद का नग्न रूप वहाँ देखा। ऐसे-ऐसे गन्दे और झूठे प्रचार किसानों को धोखा  देने के लिए किये गये कि मैं दंग रह गया। अन्त में यह भी प्रचार हुआ कि मैं मिल से दो हजार रुपये माँगता था और न मिलने पर ही विरोधी बन गया। मगर ''यहाँ कुम्हड़ बतिया कोउ नाहीं''। किसान तो मुझे खूब जानते हैं। फलत: उसकी एक न चली और गुड़ बनाना जारी रहा। यह मेरी पहली जीत पहले ही वर्ष हो गई। उसके बाद तो मैंने, उसी साल, और आगे भी, मिल वालों को मजबूर करवा के सात और आठ आने मन तक ऊख का दाम किसानों को दिलवाया। जबकि पाँच और छही आने दूसरी जगह मिलते थे। सरकार ने भी इतना ही नियत किया था। इस प्रकार, जानें कितने लाख रुपये मिल से छीनकर किसानों को दिलाया। यों मेरी जीत पर जीत रही। उनके साथ मेरी लड़ाई जारी हो गई। मैंने उनसे साफ कह दिया कि चैन से न रहने दूँगा।

    उसके बाद वहाँ तीन हड़तालें हुईं, सन् 1936 की जनवरी में पहली, सन् 1938 की पहली जनवरी को दूसरी और सन् 1938-39 में तीसरी। पहली तो सिर्फ किसानों की थी। उसमें महीनों ऊख बन्द रही! लाखों रुपये उनके (मिल के) स्वाहा हो गये। बारह और चौदह आने मन ऊख की कीमत उन्हें दूर से मँगाने में पड़ी! फिर भी सूख गयी! फलत: उनकी सब गर्मी उतर गयी! किसानों के पाँव पड़ते-पड़ते बीता। तब कहीं हड़ताल टूटी। किसानों के साथ जो बदसलूकी मिल वाले करते थे, वह बहुत कुछ जाती रही। हालाँकि, वह हड़ताल सफल नहीं हुई। असल में मेरी अनुपस्थिति में बिना मुझसे पूछे ही एकाएक किसानों ने मिल की शैतानियत से ऊबकर वहीं मारपीट की और ऊख बन्द कर दी। जब मैं लौटा तो हालत देखी। आखिर करता क्या? किसानों का साथ तो देना ही था। फलत: ऐसा संगठन, ऐसी पिकेटिंग और ऐसी मुस्तैदी महीनों रही कि पुलिस की मदद से गाँवों से ऊख की गाड़ियाँ मँगानी पड़ीं कितने ही स्वयंसेवक पिकेटिंग में पकड़े गये। हमने भी हड़ताल की पहली शिक्षा पायी।

    दूसरी हड़ताल तो किसानों और मजदूरों&दोनों&की ऐसी सफल हुई कि 48 घण्टे में मिल वाले थर्रा गये और मजदूर संघ के सभापति श्री श्यामनन्दन सिंह एम.एल.ए. से सुलह करके मजदूरों की सभी शत्र्तों उनने मान लीं। मजदूरों की बात लेकर ही हड़ताल थी। मगर किसानों ने पूरा साथ दिया। जब हुक्म मिला तभी फिर मिल में ऊख आने लगी।

    मगर इसके बाद भीतर-ही-भीतर मिलवालों ने बदला चुकाने की बन्दिश की। कुछ नामधारी नेताओं को, जो गांधीवादी और सोशलिस्ट सब कुछ बनते हैं और असेम्बली एवं कौंसिल के कांग्रेसी मेम्बर तथा पार्लिमेण्टरी सेक्रेटरी भी हैं, बुलाकर एक नकली यूनियन खड़ी कर ली। इसके बाद दूसरी हड़ताल के बाद की गयी शत्र्तों धीरे-धीरे तोड़ने लगे। टालमटूल में नाकों दम कर दिया। जब 1938-39 का सीजन (ऊख पेरने का समय) शुरू हुआ तो हमारी यूनियन के नेता लोगों ने केवल मजदूरों की हड़ताल कराई। मगर भीतर-ही-भीतर मार-पीट दबाव के करते सिर्फ दो-ढाई सौ के सिवाय और मजदूर हड़ताल न कर सके। फलत: वह विफल हुई। मुझे बड़ा कष्ट हुआ। यूनियन के काम से मेरा ताल्लुक न रहने से और उसके लिए समय न दे सकने के कारण मैं सारी बातें जानता न था। दूसरे साथी तो उसमें थे ही और उन्हीं पर मेरा विश्वास था, मगर वे लोग काम ठीक-ठीक करते न थे। इसी से गड़बड़ी हुई। अब तो शर्म के मारे वे लोग भागने को तैयार हो गये।

    मुझे यह बात बर्दाश्त न हो सकी। मैंने कहा कि किसानों की ऊख बन्द करवा के और रेल से आने वाली ऊख की पिकेटिंग करके मिलवालों को दुरुस्त करूँगा। मगर दोस्तों को इसमें विश्वास न था। वे इतने पस्त थे कि कहने लगे कि आप भी बेइज्जत होंगे। कोई सुनेगा नहीं और पचीस-पचास आदमी जेल में जाने के बाद टाँय-टाँय फिस हो जायगा! मैंने दिन भर उनसे दलीलें करके उन्हें विश्वास दिलाना चाहा कि किसान ऐसा न करेंगे, मेरा विश्वास है। मगर मानने को वे लोग तैयार न थे। बड़ी दिक्कत के बाद शाम को माना। और मैंने घोषणा कर दी? फिर तो बिजली दौड़ गयी और 48 घण्टे के भीतर पिकेटिंग में दो-ढाई सौ आदमी जेल गये, ऊख की गाड़ियाँ कतई बन्द हो गयीं। मिलवालों ने फिर तो थर्रा कर सुलह की। वे मेरे पास दौड़े आये और सुलह की बात चलाकर मामला तय किया। इस प्रकार जैसे-जैसे मजदूरों की रक्षा पुनरपि किसानों ने की। सबकी इज्जत रख ली। पीछे तो साथी लोग भी शर्माये।

    जनसमूह का काम करने वालों को जनता में, अपने लक्ष्य में और अपने आप में अपार विश्वास रहना चाहिए। तभी सफलता मिलती है। मुझे तो किसानों में अमिट विश्वास है। फलत:, कभी भी मुझे निराश होना नहीं पड़ा है। उन्होंने बराबर साथ दिया है। पहली हड़ताल के समय तो बड़े-बड़े दलाल मिल की तरफ से मुझे ठगने आये। एक ने तो जरा गुस्ताखी भी की। गो बाकी लोग चालाकी से ही बातें करते रहे। उसने ज्यों ही कहा कि आश्रम को दस हजार रुपये एकमुश्त और दो सौ मासिक दिये जायेगे, कि मैं गुस्से में आकर तड़पा कि जबान खींच लूँगा रे नीच, नहीं तो भाग जा। मुझे ठगने आया है? किसानों के खून का पैसा लेने वाला मैं? फिर तो सिटपिटाकर वह भाग गया।

    मैंने मिल के साथ संघर्ष करके अनुभव किया है कि स्थिर स्वार्थ वाले बड़े ही कमजोर होते हैं। यदि हिम्मत करके डटिये तो शीघ्र बम बोल जाते हैं। मैंने यह भी देखा किसानों और मजदूरों के परस्पर सहयोग के बिना सफलता नहीं मिल सकती। सबसे बड़ा अनुभव यह हुआ है कि नेताओं को ठगने का उनका तरीका मालूम हो गया! वह मीठी छुरी जैसा है। अगर मैं जरा सा ढीला पड़ता तो दो-चार सौ रुपये महीने और कुछ हजार एकमुश्त लेकर आश्रम में सुन्दर मकान बनवा देता, कई पण्डित रख के सैकड़ों लड़कों को पढ़वाता, सुन्दर पुस्तकालय बनवा देता। फिर तो चारों तरफ इसका शोर हो जाता कि स्वामी जी बड़ा काम कर रहे हैं! मगर असल में क्या होता? यही न, कि मिलवाले आठ और बारह आने के बजाय तीन ही चार आने फी मन के हिसाब से ऊख खरीदते और मजबूरन किसान उन्हें देते। क्योंकि गुड़ बनना बन्द हो जाने से उनके लिए दूसरा चारा रही नहीं जाता। चाहे सरकार कुछ भी दाम ठीक करती, मगर तिकड़मबाजी से मिलवाले बहुत कम पैसे देते। और मैं? मैं तो चुप रह के टुकटुक देखा करता, यह सारी लूट, यह सारी तबाही! मुझे हिम्मत न होती कि जीभ खोलूँ। क्योंकि फिर वे पैसे बन्द हो जाते जो! अनेक लीडर वहीं यही बात कर भी रहे हैं। फल यही होता कि एक ही साल में किसानों के कितने ही लाख पैसे लुटकर मिलवालों को मिल जाते और उसी खून में से दो-चार बूँदें वे हमें देते रहते! यही बात सब जगह होती है। जो धनियों एवं पूँजीपतियों से पैसे लेकर सार्वजनिक सेवा का ढोंग रचते हैं वह गरीबों का खून इसी प्रकार लुटवाकर उसी में से दो-चार बूँदे पाते हैं। यह ध्रुव सत्य है।

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 (4)केन्द्रीय असेम्बली का चुनाव

 मिलवालों के साथ जो मेरा संघर्ष शुरू हो गया उसका परिणाम सभी दृष्टि से अच्छा हुआ। हमारे कांग्रेसी नेता ऐसे संघर्षों से बहुत डरते और इन्हें होने देना नहीं चाहते। इनमें मुल्क की, कांग्रेस की और जनता की भी हानि का भूत उन्हें नजर आता है। मगर यहाँ हमने उलटा ही पाया। सन् 1935 ई. में जो केन्द्रीय असेम्बली का चुनाव हुआ और जिसने लार्ड विलिंगटन का 'कांग्रेस खत्म हो गयी' वाला हिसाब गलत ठहरा दिया, उसमें पटना और शाहाबाद इन दो जिलों से कांग्रेस की तरफ से बाबू अनुग्रह नारायण सिंह खड़े थे। उनके विरोध में रुपयों के बल पर श्री रामकृष्ण डालमिया और हिन्दू हितों की ठेकेदारी के बल पर हिन्दू महासभा के मन्त्री और योध्दा बाबू जगतनारायण लाल डँटे थे। डालमिया का यह भी खयाल था कि बिहटा और डेहरी-आन सोन की दो मिलें और उनके हजारों आदमी भी उसकी मदद करेंगे। इधर इन दो जिलों से अनुग्रह बाबू का कोई खास ताल्लुक न था। इसीलिए कांग्रेसी लीडर डरते थे। मगर फिर भी वह जीते और बहुत अच्छी तरह जीते। उधर दोनों ही प्रतिद्वन्द्वी न सिर्फ हारे, प्रत्युत बाबू जगतनारायण लाल की जमानत तक जब्त हो गयी! पटने में जो वोट डालमिया को मिले उनसे तो उसकी भी जमानत जब्त हो जाती, यदि शाहाबाद में भी उसी हिसाब से मिलते। मगर वहाँ कुछ ज्यादा वोट मिल गये। इसलिए राम-राम करके उसकी जमानत रह गयी!

    इस चुनाव में कुछ मजेदार बातें हो गयीं। बिहटा से दक्षिण पालीगंज में एक सभा थी। उसमें अनुग्रह बाबू और बाबू श्रीकृष्ण सिंह मौजूद थे। लेक्चर हुए। किसानों ने सुना। उसके बाद एक किसान ने मुझसे साफ कहा कि आपकी बात तो हम मानेंगे ही और अनुग्रह बाबू को ही वोट देंगे। मगर यह तो बताइये कि यह भी जमींदार ही तो नहीं है? मैं सहमा। लेकिन अन्त में जैसे-तैसे करके उसे विश्वास दिलाया। नहीं कह सकता कि उसे मैं सन्तुष्ट कर सका या नहीं। मगर इस घटना से मुझे अपार खुशी हुई कि किसानों में यह चेतना आ गयी। अब आसानी से जमींदारों के चकमे में वह आ नहीं सकते।

    मगर उसका भय तो ठीक ही था। क्योंकि वह जानता था कि यह भी जमींदार ही हैं। पीछे तो मुझे उलाहने भी मिले। कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल के जामने में अट्ठारह वर्ष के एक उसी इलाके के कोइरी के जवान लड़के ने अजीब चेहरा बना के मुझे सुना दिया कि आप ही के कहने से तो वोट दिया और अब यह हालत? मैंने उससे स्वीकार किया कि वोट लेकर धोखा  जरूर दिया है। मगर उस परिस्थिति में दूसरा होई नहीं सकता था। हाँ, अब आगे ऐसा हर्गिज नहीं होगा।

    दूसरी बात यह थी मिस्टर डालमियाँ ने जैसा, कि पीछे अनेक जरियों से पता चला, प्राय: एक लाख रुपया चुनाव में खर्च कर डाला! इतनी बसें, मोटरें और दूसरी सवारियाँ लाई गयीं कि औरों को उस समय सवारियाँ मिलना कठिन हो गया! बनारस तक की बसें उनके काम में आई थीं। रुपये पानी की तरह बहाये जाते थे। जैसा कि धनी आदमियों का होता ही है, कुछ जी-हुजूरों की दरबारदारी वाली बातों पर ही उनने विश्वास कर लिया था कि जीतेंगे। यह भी अभिमान उन्हें था ही कि रुपये से जो चाहें कर सकते हैं। लोगों ने उनसे रुपये भी, वोट दिलाने के बहाने, खूब ही कमाये। मगर मेरा विरोध तो तेज था। फलत:, वे अंटाचित्ता गिरे। अगर मेरा संघर्ष उनसे न रहता तो यह बात कदापि न हो पाती। उनके कांग्रेस विरोध का नतीजा यह हुआ कि श्री राजेन्द्र बाबू को मैं बिहटा मिल की डाइरेक्टरी से हटाने से समर्थ हुआ। जब उस मिल की नीति किसान विरोधी हो गयी, तभी मैंने भूकम्प के बाद ही उन्हें हट जाने को कहा था। पर टालमटूल कर रहे थे। लेकिन अब क्या करते?

    हिन्दू महासभा के महारथी को बड़ा गर्व था कि जरूर जीतेंगे। उस इलाके से वे एक बार डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मेम्बर चुने जा चुके थे। साथ ही उधर उनका बराबर आना-जाना और सट्टापट्टा रहा करता था। नमक सत्याग्रह में वहीं पकड़े भी गये थे। इसलिए कई बार दृढ़तापूर्वक राजेन्द्र बाबू से उनने कह भी दिया था कि अनुग्रह बाबू जरूर हारेंगे, आप उन्हें हटा लें। मगर हमने विश्वास दिलाया था। इसलिए वे डँटे रहे। उस समय जो गन्दी नोटिसें कांग्रेस के विरुध्द वे निकालते रहे, वह उन्हीं का काम था। कांग्रेस का सीमाप्रान्त की पठान जातियों के साथ एक करके उन्होंने दिखलाया और कहा कि कांग्रेस की जीत होने पर न गाय बचेगी न मन्दिर, न बहू-बेटियाँ, न किसी का शिखासूत्र और न हिन्दूपन का एक भी चिद्द! मन्दिरों में घड़ियाल भी बजने न पायेगा! मगर उनकी एक न चली। न जाने पीछे कैसे फिर कांग्रेस की ही पूँछ पकड़ के प्रान्तीय असेम्बली में पहुँचने की उन्हें हिम्मत हुई! किस विचार से नेताओं ने, न सिर्फ उन्हें मेम्बर बनाया, प्रत्युत पार्लिमेंटरी सिक्रेटरी भी! यह तो रहस्य ही रह जायेगा। कम-से-कम जनसाधारण के लिए तो खामख्वाह।

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(5)बैनामी सूबा 

पहले पहल मुझे बम्बई की कांग्रेस में एक अजीब बात सुनने को मिली। लोगों ने मुझे गांधी जी और राजेन्द्र बाबू आदि का विरोध करते देख कई बार यह कहा कि आप तो बैनामी सूबे के हैं! वहाँ तो राजेन्द्र बाबू की आज्ञा चलती है और अपना विचार ताक पर रखा जाता है। मतलब यह कि बिहार प्रान्त उनके हाथ बैनामा किया हुआ या बिका है। मुझे हँसी आयी सही। मगर यह बात चुभी बुरी तरह से। लेकिन आखिर करता क्या? इल्जाम लगाने वालों ने ऐसा ही अनुभव किया था। बात भी कुछ ऐसी ही थी। तब तक बिहार का एक भी आदमी उनके विरोध में जबान न हिलाता था। सभी एक साथ ही वोट करते थे।

    इसके बाद लखनऊ कांग्रेस में युक्त प्रान्त के तथा अन्यत्र के प्रतिनिधियों तक ने वही ताना मारा। वहाँ भी तो हमने उनका विरोध किया था। आल इण्डिया कांग्रेस कमिटी के सदस्यों के चुनाव में जो आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional representation) का नियम था उसे लीडर लोग निकालकर फिर पूर्ववत् बहुमत से चुनाव रखना चाहते थे। हमने इसका सख्त विरोध किया। और भी बातें थीं जिनका विरोध करना पड़ा था। और बातों में तो हम लोग हारे। मगर आनुपातिक प्रतिनिधित्व में जीते। इतने पर भी लोगों को यह कहते पाया कि बिहार बैनामी सूबा है! हालाँकि लखनऊ के बाद फिर यह ताना न सुना गया। शायद यह कलंक धुल गया।

    लेकिन फिर भी मेरे लिए यह पहेली ही रह गयी कि इतना बड़ा कलंक इस सूबे के मत्थे क्यों मढ़ा गया! विचारों का संघर्ष तो जरूरी है। सो भी कांग्रेस जैसी संस्था में। जहाँ सभी विचार के लोगों को आने और बोलने का न सिर्फ मौका है, प्रत्युत वे सभी बार-बार नेताओं के द्वारा आमन्त्रित किये जाते हैं कि आयें, अपने खयाल जाहिर करें और कोशिश करके बहुमत अपने पक्ष में करें। इसीलिए तो आनुपातिक प्रतिनिधित्व कांग्रेस में रखा गया था कि सभी विचार के लोग आ सकें। शुध्द बहुमत के नियम से तो उनका आना असम्भव था।

    मगर लखनऊ के बाद, जो श्री कृष्णवल्लभ सहाय का एक लम्बा पत्र मिला, खास लखनऊ में जो घटनाएँ हुईं और उसके बाद भी जो बराबर जारी रहीं उनने इस पहेली को सुलझा दिया। फिर तो मुझे मानना पड़ा कि यह कलंक सही था। श्री कृष्णवल्लभ बाबू हजारीबाग के नेता और राजेन्द्र बाबू के भक्त हैं। उन्होंने मुझे लिखा कि बिहार जो भी आगे बढ़ा है, उसे जो भी प्रतिष्ठा मिली है वह सिर्फ इसलिए कि हम लोगों ने उनकी प्रतिष्ठा की है और ऑंख मूँद कर उनका साथ दिया है। मगर अब वह बात नहीं रही, इसकी वेदना मुझे है। यह बड़े ही दर्द की बात है कि आप एक ओर और राजेन्द्र बाबू दूसरी ओर हों और कांग्रेस में यह कुश्ती हो! यह बात बन्द हो जाय तो अच्छा। मुझे इसे पढ़कर ताज्जुब हुआ। मैंने उन्हें उत्तर दिया कि प्रतिष्ठा और प्रेम तो दिल की चीजें हैं। वह हाट में खरीदी नहीं जाती हैं। मैं आज भी राजेन्द्र बाबू से प्रेम रखता तथा उनकी वैसी ही प्रतिष्ठा करता हूँ। मगर बम्बई या लखनऊ में जो कुछ बोला या विरोध किया, वह तो सिध्दान्त की बात थी। विचारों का संघर्ष तो अच्छा है। उसके स्वागत के बजाय विचारों को कुचलने की यह चेष्टा बहुत ही बुरी है, आदि-आदि। लेकिन उसी के साथ मेरी ऑंखें भी खुल गयीं।

    लखनऊ में आनुपातिक प्रतिनिधित्व हटाने की जो कोशिश नेताओं की तरफ से की गयी और वहाँ हारने पर भी जो कोशिश बराबर जारी रही, जब तक कि गत वर्ष बम्बई में वे सफल न हो गये, उसने साफ बताया कि वे लोग असल में प्रगतिशील विचारों को कांग्रेस में देखना नहीं चाहते! उनसे उनके नेतृत्व और अस्तित्व के लिए खतरा मालूम हो रहा है! दिल्ली की आल इण्डिया कांग्रेस कमिटी के बाद, जो सन् 1937 के मार्च में हुई, तो गांधी जी ने साफ ही लिख दिया कि कांग्रेस में एक राय और एक मत चाहिए। उसके बाद से तो यह 'एक ही खयाल और एक ही राय' वाली बात ऐतिहासिक बन गयी है। इसी को लेकर त्रिपुरी में और उसके बाद बड़े-बड़े काण्ड हुए और श्री सुभाषचन्द्र बोस के विरुध्द जेहाद बोला गया! इससे पता लगता है कि शुरू से ही अन्धानुसरण तो नेता लोग चाहते ही थे और बिहार इसमें आगे था। मगर लोगों को शक न हो इसलिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व दिया। लेकिन जब उसके करते खतरा नजर आया तो चट करवट बदली।

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 (6)किसानों की माँगें-फैजपुर का कार्यक्रम

 सन् 1936 के अगस्त में आल इण्डिया कांग्रेस कमिटी की बैठक बम्बई में हुई। उसमें आगे के असेम्बली चुनाव के लिए घोषणा-पत्र तैयार किया गया। बेशक चुनाव को दृष्टि में रख के जो बातें उसमें लिखी गयीं, वह मुल्क के लिए बहुत कुछ प्रगतिशील थीं। मगर किसानों और मजदूरों के लिए जो कुछ और खास बातें रखी जाने का आग्रह प्रगतिशील विचारवालों ने किया वह न मानी गयीं! फलत: सारा यत्न बेकार गया! फिर भी वही हमारी आल इण्श्निडया किसान कमिटी की बैठक में विधान के सिवाय हमने भारत के किसानों की जो माँगें (Gharter of rights) तैयार कीं, वह महत्त्व पूर्ण हैं और सदा हमारी सभा के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेंगी। उस दृष्टि से वह बम्बई की बैठक ऐतिहासिक है।

    लेकिन जब फैजपुर में सन् 1936 के दिसम्बर में कांग्रेस हुई और पं. जवाहर लाल फिर सभापति चुने गये तो एक बार हमने फिर कोशिश की कि किसानों की बातें कांग्रेस खास तौर से उठाये। लखनऊ में एक प्रस्ताव के द्वारा कांग्रेस ने प्रान्तीय कांग्रेस कमिटियों को हिदायत की थी कि अपने-अपने सूबे में किसानों की दशा की जाँच करके सिफारिशें आल इण्डिया कांग्रेस को लिख भेजें, ताकि उसी के अनुसार कोई कार्यक्रम भारत भर के लिए तैयार किया जाय। यह लखनऊ कांग्रेस में हमारी लड़ाई और वहाँ पर आल इण्डिया किसान-सभा करने का ही फल था और आल इण्डिया सभा की यह पहली जीत थी। उसके अनुसार बिहार प्रान्त में एक जाँच कमिटी बनी भी थी। और उसने हर जिले में जाँच भी की थी, मगर उसकी रिपोर्ट नहीं छापी गयी थी! इसका विवरण आगे मिलेगा।

    इसलिए ज्योंही आल इण्डिया कमिटी का काम पूरा करके सभापति विषय समिति के आरम्भ की घोषणा करने उठे त्योंही मैंने उनका ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट किया कि फैजपुर के बाद ही असेम्बली चुनाव होने वाला है और ज्यादातर वोटर किसान ही हैं। मगर उनके बारे में कांग्रेस का कोई खास प्रोग्राम न होने के कारण हम क्या लेकर उनके पास वोट के लिए जायेगे? लखनऊ में जो प्रस्ताव हुआ था उसके अनुसार जाँच होने पर भी कम-से-कम बिहार में तो कोई रिपोर्ट न निकली और न वहाँ से सिफारिश ही आयी कि किसानों की क्या माँगें हों और उनके लिए क्या किया जाय। अधिकांश प्रान्तों की यही दशा है।

    इस पर बिहार के कुछ नेता बिगड़ पड़े। मगर मैंने उनका मुँहतोड़ उत्तर दे दिया। फिर सभापति जी ने इस महत्त्व पूर्ण बात की ओर ध्यान दिलाने के लिए मुझे धन्यवाद देकर आश्वासन दिया कि हम लोग इस कांग्रेस में कुछ-न-कुछ प्रोग्राम किसानों के लिए खास तौर पर बनायँगे। फलत: वर्किंग कमिटी की ही ओर से एक प्रस्ताव आया जिसमें लखनऊ के प्रस्ताव का हवाला देते हुए जिन प्रान्तीय कमिटियों ने अब तक जाँच करके रिपोर्ट न तैयार की उनके काम पर खेद प्रकट किया गया और फौरन रिपोर्ट भेजने की ताकीद की गयी। मर जब तक रिपोर्ट नहीं आ जाती तब तक के लिए उसी प्रस्ताव के अन्त में एक विस्तृत कार्यक्रम किसानों के सम्बन्ध में जोड़ा गया वह 'फैजपुर किसान कार्यक्रम' के नाम से पीछे प्रसिध्द हो गया। बेशक उसमें अनेक महत्त्व पूर्ण बातें किसानों के हकों के सम्बन्ध में हैं। मगर पीछे कांग्रेस की मिनिस्ट्री बनने पर उन बातों के बारे में प्राय: लीपापोती ही की गयी। उनके अनुसार ठीक-ठीक अमल न हुआ।

    फैजपुर में आल इण्डिया किसान-सभा का दूसरा वार्षिक अधिवेशन हुआ।
प्रो. रंगा अध्यक्ष थे। अहमद नगर के श्री महादेव विनायक भुसकुटे स्वागताध्यक्ष थे। वहाँ महाराष्ट्र के कुछ जवान सोशलिस्टों की सरगर्मी के करते और डाक्टर भुनेकर की स्वभाव सिध्द स्पष्टवादिता के फलस्वरूप कुछ गड़बड़ी होते-होते बची और हमारा काम निर्विघ्न सम्पन्न हुआ। वहीं हमने तय कर लिया कि कांग्रेस का पुछल्ला बनाने से हमारी सभा शक्तिमती नहीं हो सकती। कांग्रेस के अधिवेशन के समय मुख्य काम उसी का होने के कारण न तो सभा के काम को महत्त्व  ही मिलता है और न हम उसमें पर्याप्त समय ही दे सकते हैं। फलत: स्वतन्त्र रूप से आल इण्डिया किसान-सभा का वार्षिक अधिवेशन करना तय पाया गया।

    फैजपुर में जो सबसे महत्त्व पूर्ण काम हुआ और जो उसके बाद बराबर कांग्रेस अधिवेशन के समय चालू है, वह था किसानों की लम्बी पैदल यात्रा और प्रदर्शन (Kisan marchs and procession)। श्री भुसकुटे के अथक परिश्रम से दो और तीन सौ माइल से पैदल चलकर किसानों के जत्थे फौजी ढंग से मार्च करते हुए ठीक समय पर फैजपुर आ गये। श्री रंगा, श्री याज्ञिक आदि के साथ मैं तीन-चार मील आगे ही जाकर जत्थे से मिला। हमारे साथ स्त्री-पुरुषों का एक खासा दल उन लोगों की अगवानी करने गया। वहाँ से पैदल ही सब लोग लौटे। गये भी पैदल ही थे। कांग्रेस नगर के झण्डा चौक में बड़ी जबर्दस्त सभा हुई। उसके सभापति प्रो. रंगा थे। हम सभी ने अवसर के अनुसार ही भाषण दिया। अपार भीड़ थी। राष्ट्रपति पं. जवाहरलाल नेहरू भी थोड़ी देर के लिए वहाँ आये और शामिल हुए। दो-चार शब्द कह के चले भी गये।

    लखनऊ में हमने कोशिश करके किसानों के लिए कांग्रेस में जो मुफ्त टिकट खुले अधिवेशन के लिए प्राप्त किये गये थे, वह बात यहाँ न हो सकी। लाख कोशिश करने पर भी हमें निराश होना पड़ा। देहात में यह पहली कांग्रेस थी। किसानों के ही बल पर कांग्रेस की ताकत बनी और बनने वाली थी। फैजपुर के बाद ही फौरन किसानों के ही वोट से कांग्रेस को विजयी होना भी था। कई सौ मील से पैदल चल के किसान आये भी थे। मगर उनकी कतई परवाह नहीं की गयी! कांग्रेस और उसकी स्वागत समिति के नेताओं की मनोवृत्ति पर इससे अच्छा प्रकाश पड़ता है। देहात की कांग्रेस किसके लाभार्थ है, इस बात की कुंजी वहीं इस बात से मिल गयी।

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 (7)बिहार की किसान जाँच कमिटी

 फैजपुर के बाद जो असेम्बलियों का चुनाव हुआ उसका उल्लेख करने के पहले, जैसा कि पूर्व में जिक्र किया गया है, बिहार की किसान जाँच कमिटी का हाल देना जरूरी है। क्योंकि उसका सम्बन्ध फैजपुर के प्रोग्राम से है। और भी अनेक बातें हैं। पहले कह चुका हूँ कि लखनऊ कांग्रेस के समय हमारी कोशिशों के फलस्वरूप जाँच का प्रस्ताव पास हुआ था। वहाँ हमने वर्किंग कमिटी की कई बातों का खासा विरोध किया था और हम खूब लड़े थे। मुझे याद है, लाहौर में ज्यादा सर्दी के कारण गरीब दर्शकों और प्रतिनिधियों को बड़ा कष्ट हुआ था। इसलिए गांधी जी के जोर देने पर वहीं तय पाया कि फरवरी-मार्च में ही गर्मियों के शुरू में ही कांग्रेस हुआ करे। पाँच रुपये से एक रुपया प्रतिनिधि शुल्क भी उन्होंने ही किया और कहा कि गरीबों की कांग्रेस है। गरीब पाँच रुपये कहाँ से देंगे? मगर लखनऊ में फिर दिसम्बर में कांग्रेस करने का प्रस्ताव नेताओं ने ही किया। सो भी गांधी जी की राय से ही! प्रतिनिधि शुल्क भी पाँच रुपया कर दिया और कांग्रेस के चुने मेम्बरों एवं पदाधिकारियों को खद्दर पहनना भी जरूरी किया गया।

    इस पर मैंने कहा कि ठीक ही है। अब तो कांग्रेस को गरीबों से काम हई नहीं। इसीलिए तो फिर दिसम्बर में होने की बात है। अब तो कौंसिल की गद्दी तोड़ने वालों का जमाना है और फरवरी, मार्च में उन्हें फुर्सत नहीं रहती! पाँच रुपये भी वही दे सकते हैं। खद्दर तो महँगा होने से गरीब पहन ही नहीं सकते! फलत: कांग्रेस धनियों और महाजनों के हाथ में जायगी! सो भी गांधी जी की राय से! वे अच्छे दरिद्रनारायण के पुजारी निकले! इस पर डॉ. पट्टाभिसीतारमैया ने मुझसे धीरे से कहा कि आप भयंकर स्वामी हैं “You are a terrible swami”!

    खैर, लखनऊ के बाद पटने में बिहार कांग्रेस की कार्यकारिणी की मीटिंग हुई और लखनऊ के प्रस्ताव के अनुसार किसानों के सम्बन्ध में जाँच कमिटी बनाने का प्रस्ताव तय पाया। कमिटी में कौन-कौन मेम्बर रहें, जब यह बात आयी तो स्वभावत: किसानों के दृष्टिकोण से मैं ही रह सकता था। मैं कार्यकारिणी का मेम्बर तो था ही। मगर मेम्बर होना तो जरूरी था भी नहीं। इस पर राजेन्द्र बाबू ने कहा और बाकी लोगों ने उसी की हामी भरी कि आपके रहने से हो सकता है कमिटी की रिपोर्ट सर्वसम्मत न हो और हम चाहते हैं कि वह हो सर्वसम्मत। ताकि उसकी कीमत हो, उसका वजन हो। एक बात और। आपके रहने से जमींदारों की और सरकार की भी चिल्लाहट होगी कि यह रिपोर्ट तो किसान-सभा की है! अत: आप न रहें तो अच्छा हो।

    मगर मुझे यह दलील समझ में न आयी। रिपोर्ट सर्वसम्मत हो, यह अजीब चीज थी! ऐसा तो कहीं देखा नहीं। शायद बिहार की 'बैनामी' वाली बीमारी यहाँ भी काम कर रही हो! लेकिन मेरे अकेले ही के करते सारी रिपोर्ट किसान-सभा की कही जायगी, यह भी निराली दलील थी! क्या मैं इतना खतरनाक और प्रभावशाली था कि बिहार कांग्रेस के आठ बड़े नेता मेरे असर में आ जाते और नौ मेम्बरों की लिखी रिपोर्ट किसान-सभा की बन जाती? फिर भी देखा कि इस बात पर बहुत जोर दिया जा रहा है और अगर नहीं मानता तो शायद सारा काम ही रुक जाय।

    लेकिन मुझे पता भी न चले और कांग्रेस कमिटी की रिपोर्ट छप जाय खास किसानों के बारे में, यह भी असह्य बात थी। यह कैसे होगा? न जानें क्या ऊलजलूल लिख मारा जाय? गारंटी क्या? मैंने यह भय बताया। इस पर कहा गया कि रिपोर्ट लिखने के पूर्व आपको कमिटी मौका देगी कि सारी बातों पर उसके साथ बहस कर लें। रिपोर्ट प्रकाशित होने के पूर्व भी आपको देखने तथा उसमें संशोधान सुझाने का मौका दिया जायगा। इस पर मैंने स्वीकार कर लिया और राजेन्द्र बाबू की अध्यक्षता में नौ सज्जनों की जाँच कमिटी बनी। मगर पटना, गया का कोई जरूर रहे, इसलिए हमारे सोशलिस्ट दोस्त श्री गंगा शरण भी उसके एक मेम्बर बनाये गये। यह भी बात निराली थी कि एक सोशलिस्ट किसान-सभावादी के रहने पर भी अब जो रिपोर्ट तैयार होगी वह किसान-सभा की न कही जायगी।

    कमिटी ने सारे सूबे में घूम-घूम कर पूरी जाँच की। पटने में तो मैं भी कई जगह रहा। उसकी जाँच की बातें अखबारों में भी छपती रहीं। कई जगहों में बहनों और लड़कियों को बेच कर जमींदार का लगान देने के बयान किसानों ने दिये, जो अखबारों में भी छपे थे। दरभंगे में तो एक औरत ने यहाँ तक कहा कि महाराजा दरभंगा के तहसीलदार ने मुझे और मेरे ससुर को बुलाकर लगान माँगा। न दे सकने पर हुक्म दिया कि इसके कपड़े छीनकर इसे नंगी करो और ससुर की टाँग में इसकी टाँग बाँध दो! पीछे जो लोग मिनिस्टर बने उन्हीं के सामने यह बयान दिया गया! सारांश यह कि, जमींदारी जुल्म का कच्चा चिट्ठा सामने आ गया। किसानों की जो माँगें थीं वह भी साफ हो गयीं।

    पीछे कमिटी के मन्त्री ने मुझे पत्र लिखा कि रिपोर्ट तैयार हो रही है। उसकी एक प्रति आपके पास जायगी। मुझे आश्चर्य हुआ कि तैयार होने के पूर्व मुझे मौका क्यों न दिया गया, जैसा कि बात तय पायी थी। फिर भी दूसरे मौके को भी मैंने गनीमत समझा। लेकिन आज तक उस रिपोर्ट का दर्शन न हुआ और मैं ताकता ही रह गया! सुना है कि रिपोर्ट लिखी गयी और उसकी प्रतियाँ मेम्बरों के पास भेजी भी गयीं! मगर मैं वंचित ही रहा! तकाजे भी किये। मगर अब तब की बात होती रही। आखिर नहीं ही छपी। इसीलिए तो मैंने फैजपुर में साफ-साफ सुना दिया था। क्योंकि जला-भुना तो था ही। और इसीलिए दो-एक हजरत ने झल्ला कर कुछ कहना भी चाहा। मगर कहते क्या? कांग्रेस के प्रस्ताव, बिहार की कार्यकारिणी के प्रस्ताव एवं अपने वचनों पर पानी फेरने और बार-बार वादाखिलाफी करने वालों को मुँह था ही क्या कि बोलें? यदि फैजपुर की कांग्रेस के प्रस्ताव के बाद भी वह रिपोर्ट छाप देते तो भी एक बात थी। मगर सो भी न कर सके। इस प्रकार लगातार दो कांग्रेसों के प्रस्तावों को पाँव तले बेमुरव्वती से रौंदा। फिर भी गैरों को कांग्रेस के बागी कहने की हिम्मत करते हैं।

    बात असल यह है कि उन लोगों ने एक बार सन् 1931 ई. में भी तो जाँच की थी। मगर रिपोर्ट न छापी। क्यों? कहा गया कि सत्याग्रह छिड़ गया और रिपोर्ट छापने का मौका ही न लगा! क्योंकि बीच में ही पुलिस सब कागज पत्र उठा ले गयी जो फिर वापस न मिली। और जब दोबारा कांग्रेस के प्रस्तावों के अनुसार जाँच हुई तब? तब तो पुलिस का बहाना था नहीं। फिर क्या बात थी? बात तो बहुत बड़ी थी और है। बिहार के कांग्रेसी लीडर जमींदार और जमींदारों के पक्के आदमी हैं। एक-एक के बारे में गिन-गिन के कहा जा सकता है। और वे आखिर रिपोर्ट लिखते भी क्या? जमींदारी प्रथा के चलते जमींदारों ने इतने पाप और अत्याचार किसानों पर किए हैं और अभी भी करते हैं कि इन्सान का कलेजा थर्रा जाता और मनुष्यता पनाह माँगती है। अब अगर वे सारी बातें लिखी जातीं तो अपनी, अपने सम्बन्धियों की और अपने दोस्तों की ही छीछालेदर करनी पड़ती। फलत: अपने ही मुँह में कालिख पोतना होता! अगर ये बातें न लिखते तो किसानों में और बाहरी दुनियाँ में मुँह दिखाना असम्भव हो जाता! साथ ही, असेम्बली के चुनाव में कांग्रेस के वोट भी किसान नहीं ही देते। फिर मन्त्रिमण्डल कैसे बनता? यही दोनों ओर की आफत थी जिसने उनकी कलई खोल दी।

    एक बात और भी थी। गो कांग्रेस ने निश्चय नहीं किया था। फिर भी भीतर-ही-भीतर मन्त्रिमण्डल बनाने की सारी तैयारी हो चुकी थी। ऐसी दशा में यदि उस रिपोर्ट में यह साफ सिफारिश होती कि किसानों के लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए तो वे लोग बन्धान में पड़ जाते। क्योंकि अगर केवल छोटी-मोटी सिफारिशें रखते तो किसान लोग उस रिपोर्ट को उठा कर लीडरों के मुँह पर ही बेमुरव्वती से फेंक देते। और अगर किसानों की मनचाही सिफारिशें करते तो किसान तो खुश होते और वोट भी देते। मगर पहले से ही भावी मन्त्रियों का हाथ बँधा जाता। फिर तो वह सभी बातें पूरा किये बिना गुजर न होती।

    लेकिन ऐसी दशा में 'किसान-जमींदार' समझौता के नाम से जमींदारों से इन नेताओं की गुटबन्दी और गँठजोड़ा कैसे होता? इसीलिए सोचा गया कि कुछ मत लिखो। सारी चीजें गोलमटोल रखो। चुनाव की घोषणा में राजबन्दियों की रिहाई की बात साफ लिखने के कारण ही तो इस्तीफे की नौबत आ गयी! किसानों की बातों को लेकर तो प्रलय ही मच जाती! किसानों से जो वोट लेना था। सो तो काम चुनाव के पहले जाँच करने से होई गया। अब रिपोर्ट छाप कर नादानी क्यों की जाती?

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 (4)असेम्बलियों का चुनाव

 सन् 1937 ई. के शुरू में ही नये विधान के अनुसार, प्रान्तीय असेम्बलियों का चुनाव हुआ। बिहार में प्रान्तीय कांग्रेस की कार्यकारिणी के ही माथे कांग्रेसी उम्मीदवारों को नामजद करने का काम था। मैं भी उसका एक सदस्य था। फलत:, उम्मीदवारों की नामजदगी और चुनाव में जो कटु अनुभव मुझे हुए वह उल्लेखनीय है। बहुत पहले से बातें चलती थीं और कभी-कभी गांधीवादी लोगों में किसी-किसी ने, जो प्रान्त की पूरी खबर आज भी रखते हैं और पहले भी रखते थे, मुझसे कहा था कि आपको तो मिनिस्टर बनना और खेती वगैरह का चार्ज लेना चाहिए। क्योंकि किसानों की बात आप ही समझते हैं।

    साथ ही एक बात और थी। पटना के बिहटा वाले इलाके से अब तक जो हजरत चुने जाते थे उन्हें तथा गया के श्री रामेश्वर प्रसाद सिंह को हराना भी जरूरी था। मगर किसी को भी हिम्मत न थी कि वहाँ खड़ा हो। बड़े-बड़े लीडर आज चढ़ा-बढ़ा के बातें भले ही करें। मगर सबों की रूह काँपती थी। इसलिए एक जगह तो मैं ही खड़ा होऊँ यह इशारा भी होता था। लेकिन मेरा सदा उत्तर यही होता कि मैं वैसे कामों के सर्वथा अयोग्य हूँ। मुझे तो जनता में काम करना चाहिए।

    फिर भी मैं चौंक पड़ा था कि मौके पर दबाव पड़े और कहीं मुझमें कमजोरी आ जाय तो ठीक न होगा। इसलिए जब वोटरों की लिस्ट बन रही थी तभी मैंने बड़ी ताकीद के साथ अपना नाम उस लिस्ट में न आने दिया। हालाँकि, साथियों का बड़ा हठ था। मेरी धारणा यही है कि मेरा नाम वोटर लिस्ट में कभी न आये। फिर भी लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि कांग्रेसी मन्त्रियों के जमाने में जब मुझसे और प्रान्तीय कांग्रेस के लीडरों से तनातनी चली तो सत्य और अहिंसा के पुजारियों ने चम्पारन, सारन और दूसरे जिलों में यहाँ तक प्रचार कर डाला कि मैं तो मिनिस्टर बनना चाहता था और जब ऐसा न हो सका तो कांग्रेस का शत्रु बन गया!

    हाँ, तो प्रान्तीय कार्यकारिणी जब कांग्रेसी उम्मीदवार चुनने लगी तो मैंने गजब का तमाशा देखा! मुझे पता ही न चला कि किस सिध्दान्त पर उम्मीदवार नामजद हो रहे हैं। कहीं तो खाँटी कांग्रेसी जो जेल गये और तबाह हुए, छोड़ दिये गये और बड़े जमींदार एवं उनके दोस्त ले लिये गये, जो न जेल गये और न कल तक खद्दर ही पहनते थे? कहीं ऐसे लग लिये गये जो अपने जुल्म के लिए किसानों में मशहूर थे। कहीं जो खद्दर तक न पहनते थे एवं गवर्नर के स्वागत एवं दरबार में शामिल रहते थे तथा आगे भी रहे उनको भी लेने की सिरतोड़ कोशिशें बड़े-बड़े नेता करते थे। कहीं ऐसी गुटबन्दी की गयी कि वैसों के खिलाफ कोई उम्मीदवार मिलने न पाये, ताकि वही लिये जाये! मुझसे तो कइयों ने, जो पूरे जवाबदेह थे, यहाँ तक कहा डाला कि 'लाला' के खिलाफ कोई खड़ा न होगा। 'लाला' एक निराले सज्जन का नाम है जो बड़े महाभारत के बाद कांग्रेस उम्मीदवार बनने से वंचित रहे। कहीं जाति-पाँति की बात चलती थी, तो कहीं अपने प्रिय पात्रो और सगे-सम्बन्धियों की।

    ऐसी पैंतरेबाजी मैंने कभी न देखी थी। इसलिए हैरान था। रह-रह के सोचता था कि क्या यही लोग मुल्क को आजाद करेंगे और क्या इसे ही राष्ट्रीयता कहते हैं? असल में जातीयता (Communalism) और राष्ट्रीयता (Nationalism) इनमें बहुत ही कम अन्तर है, जो एक दशा में जाकर लापता सा हो जाता है!

    मेरे सामने तो तीन कसौटियाँ थीं और तीनों पर खरे उतरने वाले ही मेरे लिए सबसे अच्छे थे। नहीं तो दो पर और अन्त में एक पर भी। मैं चाहता था कि उम्मीदवार लोग सबसे पहले तो कांग्रेस और देश के लिए जेल जुर्माने की सजा आदि काफी भुगत चुके हों, गरीब हों या गरीबों के पूरे हिमायती और किसान-सभावादी हों। यदि ये तीनों गुण न मिलें तो किसान-सभावादी होना छोड़ देता और दो भी न मिलने पर गरीब होना भी छोड़ता था। जो मुल्क के लिए तबाह बर्बाद न हुआ तो उसे तो मैं देख भी न सकता था। मगर दिक्कत यही थी कि मैं अकेला ही इस विचार का था। फलत: बार-बार जहर के घूँट पीने पड़ते थे। सोचता था, कांग्रेस की प्रतिष्ठा की बात है। यदि कहीं विरोध करके इस झगड़े से अलग हो जाऊँ तो गड़बड़ हो सकती है। इसीलिए बर्दाश्त करता गया। लेकिन आते-आते जब अति हो गयी तो मैंने साफ कह दिया कि अब नहीं चलने का। मामला यहीं बिगड़ेगा। ‘I have reached here the breaking point’ फिर भी दोस्तों के गले के नीचे बात न उतरी और मैं इस्तीफा दे के कार्यकारिणी से अलग हो गया। उसमें साफ लिख दिया कि इसका मतलब यह नहीं कि मैं कांग्रेस का विरोध करूँगा या उसकी मदद न करूँगा। विरोध की तो बात ही नहीं। मदद भी करूँगा। मगर इन नामजदगियों की जवाबदेही नहीं ले सकता और जहाँ-जहाँ उचित समझूँगा वहीं मदद करूँगा। इस्तीफा देकर उत्कल चला गया। पुरी में उत्कल प्रान्तीय किसान सम्मेलन का सभापतित्व करना था।

    जब वहाँ से लौटा तो बाबू राजेन्द्र प्रसाद की सात पृष्ठ की चिट्ठी मिली। उसमें नामजदगियों को ठीक ठहराने की कोशिश के साथ ही मुझसे इस्तीफा वापस लेने का आग्रह किया गया था। मैंने कभी बहुत पहले उनसे कहा था कि इस साल आप प्रान्तीय कांग्रेस के अध्यक्ष बनें तो हमारे साथ न्याय होने के साथ ही कांग्रेस की जीत की आशा भी हमें है। इसी बात की याद उनने दिलाई और कहा कि आप ही के कहने से सभापति बना और आपने बीच में ही साथ छोड़ दिया! मैं बीमार हूँ। अब सोचिये मुझ पर क्या गुजरती होगी। इस इस्तीफे का असर बुरा होगा। मुझे यह भी पता चला कि जिस दिन मैंने इस्तीफा दिया उस दिन वे सारी रात सोये नहीं। फलत: मैंने उन्हें लिखा कि आपकी दलीलों का तो मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। लेकिन यदि आप सोचते हैं कि मेरे इस्तीफे का असर कांग्रेस की सफलता पर जरूर पड़ेगा तो लीजिये उसे लौटाये लेता हूँ। और इस्तीफा वापस ले लिया।

    उसके बाद चुनाव में मैंने सारी ताकत लगा दी। जिन जमींदारों के विरुध्द मैंने किसान को काफी लड़ाया था और उन्हें उन जमींदारों के शत्रु बनाया था जब उन्हीं जमींदारों को वोट दिलाने के लिए मैं स्वयं गया, क्योंकि अन्यथा हार जाने की नौबत थी, तो मेरे सामने पहेली खड़ी हो गयी। विरोधियों के उकसाने से और स्वभावत: भी किसानों ने मुझसे पूछा कि इस जल्लाद को ही वोट दें, ऐसा आप कहते हैं? क्यों इसे भूल गये? जमींदारों के सामने ही ऐसा सुनाया। मैंने उन्हें बड़ी कठिनाई से समझा कर राजी किया। कहा कि बातें तो ठीक हैं। किसान-सभा की दृष्टि भी वही है। मगर यहाँ तो कांग्रेस की बात है न और कांग्रेस बड़ी है। वे मान गये और कहा कि आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।

    मैं आज सोचता हूँ कि मैंने ठीक किया था या उन्हें धोखा  दिया। क्योंकि वह जमींदार आज तो कई गुना भयंकर बन गये हैं और वे किसान रो-रो के मेरे पास आते हैं। लेकिन बात असल यह है कि हमें उस परिस्थिति से गुजरना बहुत जरूरी था। एक-न-एक दिन वैसी बात करनी ही पड़ती। चलो अच्छा हुआ और पहले ही वह बात गुजर गयी। अब वैसा मौका नहीं ही आयेगा, यह ध्रुव सत्य है। फिर भी हमारी इतनी भूल तो जरूर थी कि हमने किसान-सभा के कुछ गिने-चुने भी स्वतन्त्र उम्मीदवार खड़े न किये।

    कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल बनने के पहले इस चुनाव के सिलसिले में ही, बीच की चन्द किसान आन्दोलन सम्बन्धी जरूरी बातों को छोड़, कुछ दूसरी बातें यहाँ कहना जरूरी है। बीच की और बातें पीछे लिखी जायेगी। चुनाव में कांग्रेस का बहुमत हुआ। एकाध को छोड़ सभी उम्मीदवार जीत गये। गया के रामेश्वर बाबू को, जो ललकारते रहते थे, हमने एक मध्यम कोटि के उम्मीदवार को ही खड़ा करके बुरी तरह हराया और उनकी बुरी गत की। उन्हें अन्त में कहना पड़ा कि किसान-सभा ने सब मामला चौपट कर दिया। नहीं तो देखते कि कांग्रेस कैसे जीतती। बिहटा के इलाके मे श्री रजनधारी सिंह इस तरह हारे कि होश न रहा! जमानत बची यही गनीमत! हालाँकि, उन्हें अत्यधिक विश्वास था कि खामख्वाह जीतेंगे। जिन पर उनका पूरा विश्वास था वह भी उनके विरोधी हो गये! सबसे अच्छा अनुभव हमें उस चुनाव में यह हुआ कि जो लोग पैसे के लोभ से जाली (bogus) वोट उनकी ओर से देने गये थे उनमें भी तीन चौथाई ने कांग्रेसी उम्मीदवार श्री श्याम नन्दन सिंह को ही वोट दिया। उनमें जो पकड़े जाते थे वह हाथ जोड़ के कहते थे कि हम गरीब हैं पैसे के लिए जाते हैं। जाने और खाने दीजिये। मत रोकिये। उसी चुनाव में यह गीत भी खूब ही प्रचलित हुई कि 'मगर कोठरी में जाकर बदल जायेगे।' इसका मतलब है कि अगर दबाव के करते विरोधी की ओर से ही जाना पड़े, वही खिलाये, पिलाये और सवारी पर चढ़ाये तो कबूल कर लो। मगर वोट देने की कोठरी में जाकर कांग्रेस को ही वोट देना। इसका असर खूब ही हुआ। वह उसी वक्त से ऐतिहासिक चीज बन गयी है।

    गया के जहानाबाद इलाके से बड़ी मुश्किल से हमारे पुराने किसान-सभावादी डॉ. युगल किशोर नामजद किये जा सके। कांग्रेस के लीडरों ने तो औरों से यहाँ तक कह डाला कि डॉ. युगल किशोर को नामजद करवाया जो जिद्द करके। मगर वह हारेंगे जरूर और कांग्रेस एक जगह खो बैठेगी! पता नहीं, उनकी ऑंखें नतीजा देखकर भी खुलीं या नहीं कौन बताये? जहानाबाद के इलाके में तो किसान-सभा का कुत्ता भी जीत सकता था। मगर हमारे दोस्तों के दिमाग ही निराले हैं! अन्य सभी जगह हजारों हजार रुपये कांग्रेस के चुनाव कोष से फूँके गये। मगर जहानाबाद में एक कौड़ी भी न दी गयी! यह दूसरा जुल्म था। मगर किसानों ने जिताया ही और बहुत अच्छी तरह जिताया।

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 (9)मसरख कॉन्फ्रेंस तथा कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल

 चुनाव खत्म होते ही सारन (राजेन्द्र बाबू के) जिले के मसरख में प्रान्तीय राजनीतिक सम्मेलन हुआ। उसमें एक प्रस्ताव था कि कीमत देकर जमींदारी खत्म की जाय। उस पर जो संशोधान किसान-सभा वालों का था कि बिना कीमत दिये ही जमींदारी खत्म की जाय वही पास हुआ। असली प्रस्ताव गिर गया! अजीब जोश था। लोग हमारा भाषण सुनने को आतुर थे। कुछ जमींदारों ने पुरानी पोथियों से जमींदारी सिध्द करनी चाही। मैंने मुँहतोड़ उत्तर दिया! मगर नेता लोगों ने उस प्रस्ताव को अमल में ठुकरा दिया। यह भी देखा कि मन्त्री बनने के पूर्व किसानों की सभाओं और कॉन्फ्रेंसों में भावी मन्त्री लोग जाते थे और जमींदारी मिटाने का प्रस्ताव पास करवाते थे! हालाँकि, सभी जानते हैं कि दिल से वे लोग नहीं चाहते थे। पर, किसानों पर मोहनी डालने का यह अच्छा रास्ता था। लेकिन मन्त्री होते ही जमींदारों से समझौते पर समझौते होने लगे! ऐसी पैंतरेबाजी! ऐसी नटलीला!

    चुनाव के बाद कुछ ही दिन के लिए दूसरा मन्त्रिमण्डल बन पाया था। क्योंकि हमारे दोस्तों के लिए कुछ अड़चनें थीं। पीछे वे हट गयीं और कांग्रेसी लोग गद्दी पर आ विराजे। पहले तो कांग्रेस का फैसला कुछ हुआ न था। इसीलिए सन् 1937 के मार्च में दिल्ली में आल इण्डिया कांग्रेस कमिटी की मीटिंग हुई। वहीं इसका फैसला हो गया कि कांग्रेसी लोग मन्त्री पद स्वीकार कर सकते हैं! उस बैठक में जो दलीलें मन्त्रीपद के लिए दी जाती थीं उन्हें सुन के हँसी आती थी। खद्दर का खूब प्रचार होगा। सरकारी इमारतों पर राष्ट्रीय झण्डे उड़ेंगे। गोया, राजनीति और आजादी की लड़ाई का यही अर्थ है। ''किसानों और मजदूरों को कानून आदि के जरिये आराम देंगे। वह थक गये हैं। परेशान हैं। कुछ राहत उन्हें देना जरूरी है। हमीं यह काम बखूबी कर सकते हैं''। आदि की लेक्चरबाजी खूब ही हुई! असल में थके थे तो लीडर लोग और उनके दोस्त। मगर किसानों के मत्थे पार हो रहे थे। यही आसान बहाना जो था!

    लेकिन हुआ क्या? सरकारी मकानों पर राष्ट्रीय झण्डे उड़े? क्या गवर्नर के मकान, सेक्रेटेरियट, असेम्बली के मकान और कचहरियों पर ये झण्डे दीखे भी? और जगह तो, तथा खासकर युक्त प्रान्त में कॉलेजों पर ये झण्डे उड़े भी। मगर बिहार में वह भी नहीं हुआ! कचहरियों आदि का तो कहना ही नहीं। प्राइवेट स्कूलों वगैरह की बात छोड़िये। वहाँ भी कहीं-कहीं उड़े। मगर पीछे तो खटाई में पड़ गये। कहा गया कि मैनेजिंग कमिटी चाहे तो तिरंगे झण्डे लगा सकती है। तो फिर कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल को क्या करना था? दिल्ली में तो भावी मन्त्रियों ने ही यह बीड़ा उठाया था। अब मैनेजिंग कमिटी के मत्थे वह बला फेंकी गयी। सो भी यदि लड़कों में मतभेद न हो तभी! सारांश, जितनी ज्यादा राष्ट्रीय झण्डे की अप्रतिष्ठा कांग्रेसी मन्त्रियों के काल में हुई, उतनी कभी न हुई थी! जलाये और पाँव तले रौंदे तक गये वही झण्डे, जिनकी शान के लिए मुल्क ने पहले बड़े-से-बड़ा त्याग किया था! कहीं-कहीं तो हमारे लीडरों ने अपने हाथों स्कूल से यह झण्डा उतारा, जब कि और कोई तैयार न हुआ! इस तरह झण्डे वाली बात तो यों गयी।

    रह गयी किसानों और मजदूरों की बात। सो तो बम्बई और कानपुर की गोली और ऑंसू लाने वाली गैस के प्रयोग आदि ही बताते हैं कि मजदूरों ने क्या पाया। उनकी हड़ताल को तोड़ने, विफल बनाने में बम्बई में सारी ताकत लगा दी गयी। कानून भी ऐसा बना कि मजदूरों को उसका खुले आम विरोध करना पड़ा और जब उनने उसके विरोध में हड़ताल की तो कांग्रेसी सरकार और कांग्रेस की सारी ताकत उसे तोड़ने में लगी! हालाँकि, फिर भी उनकी हड़ताल सफल हो के ही रही! जमशेदपुर, झरिया, डेहरी, बिहटा आदि के मिलों के मजदूर बिहार मन्त्रिमण्डल को क्या कभी भूलेंगे?

    किसानों की सेवा की बात तो कुछ कहिये मत। मन्त्रिमण्डल की तारीफ के पुल तो बहुत बाँधो गये कि यह किया, वह किया। मगर इस सम्बन्ध में मैंने दो पुस्तिकाएँ अंग्रेजी में लिखकर सारा पर्दाफाश कर दिया है। उनका हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है। उनके नाम हैं (1) ‘The other side of the shield’ (2) ‘Rent reduction in Bihar : How it works.’ दोनों में एक की भी एकाध बातका भी उत्तर न तो अब तक मन्त्री लोग ही दे सके हैं और न उसके पृष्ठपोषक ही।

    जमींदारों से इस बीच में दो-दो बार गठबन्धन करके किसानों के गले पर जो भोथरी छुरी चलाई गयी उसे कौन नहीं जानता? खड़ी फसल की जब्ती को कानून के जरिये आसान करके किसानों को जो लाभ पहुँचाया गया उसे तो वे पुश्त दर पुश्त न भूलेंगे। लगान घटाने में जो गोलमाल मचा तथा सब मिलाकर अन्त में किसानों के हाथ कुछ भी न लगा, वह कभी भूलने का नहीं! जो भी कानून की एकाध बातें किसानों के फायदे की बनी, उनकी भी शब्दावली ऐसी बनी कि जमींदारों ने सब कुछ मिट्टी में मिला दिया। भावली जमीन की नगदी में आसानी की गयी। मगर हजार चिल्लाने पर भी फसल के काटने की मजदूरी और दूसरी बातों का कोई निर्णय न करने से किसानों को लेने के देने पड़ गये।

    इन बातों का तो लम्बा इतिहास है, जो बिहार प्रान्तीय किसान-सभा के इतिहास का एक महत्त्व पूर्ण अंग है। मगर संक्षेप में ये सभी और दूसरी बातें उक्त दोनों पुस्तिकाओं में लिखी गयी हैं।

    लोग कहते हैं कि मैंने तो शुरू से ही तय कर लिया था कि मन्त्रियों का विरोध और उनकी बदनामी करूँगा। मगर मेरे विचार का पक्का सबूत तो यह है कि जुलाई के अन्त में, मन्त्रिमण्डल बनने के बाद ही, मैं पंजाब होता विश्राम के लिए काश्मीर चला गया। साथियों से विश्वासपूर्वक कहता गया कि फैजपुर का प्रोग्राम और कांग्रेस की चुनाव घोषणा ये दोनों तो हईं। वे लोग इन पर अमल करेंगे ही। आप लोग सलाह देते रहेंगे। फिलहाल मेरा काम ही क्या है? थोड़ा विश्राम कर आऊँ।

    इतना ही नहीं। वहाँ से आकर प्रीमियर से दो बार मिला और मैंने साफ कहा कि एक-दो वर्ष या जितने दिनों के भीतर, एके बाद दीगरे जो कुछ करना चाहते हैं वह हमें साफ बता दें। ताकि हम किसानों को समझा दें कि कब क्या होगा। क्योंकि किसान घबराये हुए हैं। हमें भी कोई जानकारी न होने से हम भी उन्हें क्या कह के समझायें? मगर कुछ उत्तर न पा सके। तब आखिर करते क्या? हमें तो उनके साथ डूबना न था। हमारी मजबूरी थी। फिर भी जिस ठण्डक से हमने काम लिया उसे लोग जानते हैं। यों तो बदनाम करने का काम कुछ लोगों ने उठा ही लिया है।

    हम तो दिल्ली होते हुए पंजाब गये। वहाँ लाहौर तथा रावलपिण्डी में सभाएँ करके श्रीनगर चले गये। एक महीने के बाद ही कई कारणों से वहाँ से वापस आना पड़ा। काश्मीर यात्रा की बात दिलचस्प होने से आगे उसे लिखेंगे। लौटने पर हमें मालूम हुआ कि मन्त्रियों पर प्रभाव डालने के लिए हमारे साथियों ने 23-8-37 को पचास हजार किसानों का एक अच्छा प्रदर्शन किया खास पटने के मैदान में। किसानों को लेकर असेम्बली भवन तक भी गये! मगर परिणाम कुछ न हुआ! जरा-सा आगे बढ़के मन्त्री लोग किसानों से मिले तक नहीं और न उन्हें ढाँढ़स ही दिया! उलटे बदनाम किया! इन प्रदर्शनों का भी संक्षिप्त जिक्र आगे मिलेगा। इससे क्षोभ होना जरूरी था।

    इसी बीच में 24-8-37 को काश्मीर से लौट आया। देखा कि न कुछ हुआ और नहीं लक्षण ही अच्छे हैं। इसलिए मुझे गुस्सा जरूर आया। मैं घबराया और सोचने लगा कि समूचे कार्यक्रम पर कहीं पानी तो न फिरेगा। आखिर मन्त्रियों को जानता तो खूब ही था। जमींदारों से उनका सट्टापट्टा पहले से था ही। इधर और भी चलने लगा था। इसलिए पहली सितम्बर को सन् 1937 ई. में जो आल इण्डिया किसान दिवस मनाया गया उस समय मैंने गया में किसानों के एक बहुत बड़े जमाव में कस के सुनाया और साफ कह दिया कि हम यों न मानेंगे। अगर यही रवैया रहा तो नतीजा बुरा होगा! इससे मन्त्री दोस्तों और उनके पिट्ठुओं को बहुत बुरा लगा कि खुले आम शिकायत की गयी। मगर करता क्या? मेरी तो मजबूरी थी।

    खैर, उसके बाद साथियों की राय और आग्रह से मन्त्रियों से बातें हुईं। मैंने उनसे साफ कहा कि मैं सरकारी आदमियों से मिलता शायद ही हूँ। इसी से अब तक न मिला। फिर भी जब जरूरत होगी और आप लोग चाहेंगे आ सकता हूँ। मेरे स्वभाव की मजबूरी ही तो ठहरी। उनने कहा कि हम सरकारी आदमी हैं? मैंने कहा कि जरूर!

    खैर बातें हुईं और कह दिया कि जो कुछ पूछना हो मेरे साथियों से पूछ लें। यह भी बात तय हुई कि कास्तकारी कानून में संशोधान करने का बिल मुझे दिखा कर बातें करने के बाद यदि उसे प्रकाशित करें तो दिक्कत कम होगी। नहीं तो खुल के विरोध करना पड़ेगा। मगर क्या कुछ किया गया? उलटे संशोधान में लगान वसूली के केसों को दिवानी अदालतों से हटाकर माल महकमे के अफसरों के जिम्मे करने की कोशिश की गयी! ऐसा बिल बन भी गया! पीछे बड़ी दिक्कत से वह रुक सका!

    पार्लिमेंटरी सेक्रेटरी श्रीकृष्ण वल्लभ सहाय ने दलील में कहा कि मालमहकमा तो हमारे अधीन होगा! इसलिए अफसरों से जो चाहें करवा लेंगे। मगर अदालतें तो स्वतन्त्र हैं! मैंने उत्तर दिया कि क्या स्वराज्य मिल गया? सदा गद्दी पर बैठे ही रहियेगा? अब आजादी के लिए लड़ना नहीं है? और अगर आप गद्दी पर हों तो क्या होगा? जरा सोचिये तो भला। इस पर चुप रहे। मगर उनकी बात से यह भी पता चला कि अब उन लोगों ने लड़ने का खयाल छोड़ ही दिया है।

    एक और सुन्दर घटना हो गयी और मैंने उन लोगों के दृष्टिकोण का अन्दाज पा लिया। जब एक-दो बार बड़े-बड़े प्रदर्शन पटने में हो गये जिनमें लाखों किसान आये तो बाद में मुलाकात होने पर प्राइम मिनिस्टर ने मुझसे कहा कि स्वामी जी, इस हंगामे (Mob) से सजग रहिये! मैं चुप सुनता रहा! मगर भीतर-ही-भीतर सोचा कि एक दिन इसी किसान समूह को मास (Mass) कहते थे यही लोग। आज वही माब (Mob) हो गया! ये किसान समूह पहले भी माब ही थे। बीच में प्रयोजनवश मास बने! फिर वही माब के माब रह गये! क्योंकि शायद अब इनकी जरूरत इन नेताओं को नहीं और जिनकी जरूरत न हो उन्हें इसी नाम से स्थिर स्वार्थ वाले सदा से पुकारते ही चले आते हैं! सरकार भी इन्हें सदा माब कहती है और अब हमारे मन्त्री लोग भी सरकार बने हैं! शायद इसलिए भी यह माब शब्द आ गया है! लेकिन किमाश्चर्यमत: परम्।

    जो सबसे पहला संशोधान काश्तकारी कानून में किया गया और उसके लिए जो बिल पेश हुआ वह कांग्रेस पार्टी के सामने मंजूरी के लिए कभी आया ही नहीं! यह विचित्रा बात थी! इस पर हमने श्री यमुनाकार्यी एम.एल.ए. के द्वारा असेम्बली के दो तिहाई (69) सदस्यों के हस्ताक्षर के द्वारा प्रार्थना करवाई कि वह पार्टी में पेश किया जाय। मगर नतीजा कुछ न हुआ! इन्हीं मेम्बरों ने उसी प्रार्थना में फैजपुर प्रोग्राम और कांग्रेस की चुनाव घोषणा के आधार पर किसानों की माँगों को गिनाकर उनकी पूर्ति की माँग भी की। मगर कौन सुने?

    कर्ज के बारे में जो कानून बना वह किसानों के लिए तो खास तौर से बना ही नहीं! मगर उसमें सूद की दर जो दस्तावेजी और गैर दस्तावेजी कर्जों के लिए 9 और 12 फीसदी रखी गयी थी उसे कांग्रेस पार्टी ने यद्यपि 6 और 7 कर दिया। फिर घुमाफिराकर वही रखी गयी। वह कानून तो इतना रद्दी बना कि दो-दो बार हाईकोर्ट को उसकी जरूरी धाराएँ गैर-कानूनी बतानी पड़ीं। तीसरी बार तो उसकी ऐसी टीका उसने की है कि शर्म मालूम पड़ती है!

    वे लोग (मन्त्रीगण और उनके साथी) फैजपुर के प्रोग्राम को तो भूल ही गये। कई बातें उन्हें याद दिलानी पड़ीं। फिर भी आश्चर्य है कि 'ऐसा है?' कह के भी कोई परवाह न की! आखिरकार विवश होकर टेनेन्सी कानून के संशोधानों में दो-तीन मौके ऐसे आये जब कांग्रेस पार्टी के किसान-सभावादी सात-आठ सदस्यों ने किसान कौंसिल की राय से पार्टी की आज्ञा के विरुध्द भाषण किया और पार्टी के साथ वोट नहीं किया! मगर उनके विरुध्द कुछ करने की हिम्मत वे लोग कर न सके!

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 (10)काश्मीर यात्रा 

काश्मीर यात्रा की बात कह चुका हूँ। उसका कुछ हाल यहाँ देकर और बातें लिखने का विचार है। पहले तो दो दिनों में रावलपिण्डी से श्रीनगर बस ले जाती थी। मगर अब एक ही दिन में रात होते-होते वहाँ पहुँच जाते हैं। सो भी प्रात:काल ही चल कर। पहाड़ों की चढ़ाई और उतराई खूब है! मरी होकर जाना पड़ता है। मरी पहुँचने पर मेघ से मुलाकात जरूर होती है। यात्रा बड़ी ही मनोरम होती है। दोनों तरफ खड़े पहाड़ और हरे-भरे जंगल चित्ता को मोह लेते हैं। अधिकांश तो झेलम के किनारे-किनारे ही सड़क बनी है। उसका कलरव खूब दिलचस्प होता है।

    बीच में दो मेल नामक स्थान है। यहीं से काश्मीर राज्य शुरू होता है। बड़ी सख्ती से हर चीजों की जाँच करके तब कहीं लोग और बसें आगे बढ़ने पाती हैं! हर आदमी से पूछते हैं कि किसलिए जाते हैं। कोई लेक्चर देना हो तो जाने में दिक्कतें हैं। मुझसे भी सवाल हुआ कि वहाँ लेक्चर तो न देंगे? मैंने 'नाहीं' किया। क्योंकि पूर्ण विश्राम करना था। असल में पंजाब की खुफिया पुलिस की खबर उन्हें न मिली थी। तभी तक हम वहाँ पहुँचे। नहीं तो दिक्कत होती ही। श्रीनगर पहुँचते ही खुफिया वाले दूसरे दिन सुबह हाजिर आये। फिर तो बराबर एक-दो बार दिन में आते ही रहते थे। जब हम पहलगाँव होते हुए अमरनाथ के लिए रवाना हो गये तो एकाएक वे बड़े ही घबराये। मगर जब हम लौटे तब उन्हें शान्ति मिली!

    हमें वहाँ की वे खास-खास बातें लिखनी हैं जिनका हमारे ऊपर असर हुआ। हमने सर्वत्र गन्दगी बहुत ज्यादा पायी। यहाँ तक कि तबीयत ऊब जाती थी। वहाँ वादी (वायु) की बहुतायत ऐसी थी कि पेट अफड़ता रहता और हर चीज फीकी लगती। नीबू बहुत महँगा था। बाहर से ही आता था। मगर टमाटो वगैरह सभी साग-तरकारियाँ काफी और सस्ती मिलती थीं।

    जो लोग वहाँ चाय नहीं पीते उन्हें वादी की तकलीफ खूब ही भोगनी पड़ती है। मैं तो चाय पीता नहीं। इसीलिए बराबर यह कष्ट रहा। वहाँ के निवासी गरीब-से-गरीब भी चाय दिन-रात में पाँच बार पीते हैं। दूध और चीनी तो उनके लिए दुर्लभ है। इसलिए नमक डाल के ही पीते हैं। हम चलाने वाले खेतों में ही ले जाते और वहीं पीते हैं।

    स्त्री और पुरुष की पोशाक तो एक सी होती है। हाँ, यदि टोपी पहने तो पुरुषों में विशेषता होती है। वहाँ समूचे काश्मीर में 95 प्रतिशत मुसलमान बसते हैं, और हैं वे बड़े ही गरीब। यदि शिकारें (नावें) और ताँगे न चलायें, हाउस बोट (नाव के ही घर) किराये पर यात्रियों को न दें, ऊनी कपड़े न तैयार करें और फल वगैरह न पैदा करें, तो वे भूखों मर जाये!

    और जब कभी हिन्दू मुसलिम दंगे हों तो भूखों मरने की नौबत आ ही जाती है। क्योंकि उस दशा में बाहर से यात्री जाते नहीं। फिर किराये पर किसे दें और सब चीजों को खरीदे कौन? इसीलिए दंगे से वहाँ की मुसलमान जनता बहुत डरती और खार खाती है! मैंने पहलगाँव से लौटते हुए 'बस' में एक मुसलमान जवान के, जो ऊनी कपड़े बेचने गया था, इस सम्बन्ध के उद्गार सुने और गद्गद हो गया। वह भुक्तभोगी था। क्योंकि ऊनी कपड़े बनाता था।

    वहाँ किसानों को महाजन बहुत सताते हैं जो कर्ज पर रुपये देते हैं। किसानों की भाषा तो समझना कठिन था। मगर उनसे बातें करके देखा कि सूदखोरों के नाम पर वे उबल पड़ते थे। राज्य का कर और लगान भी भरपूर है। फिर भी किसानों के लिए विशेष रूप से कुछ किया नहीं जाता। प्राय: ढाई करोड़ की आय में साठ लाख तो सिर्फ महाराजा को ही अकेले चाहिए। फिर शिक्षा और स्वास्थ्य की कौन पूछे? उसके लिए पैसे आये भी कहाँ से?

    वहाँ मुसलमानों की दो पार्टियाँ पाईं। एक तो मुहम्मद अब्दुल्ला साहब की। वह अब काश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस को चलाती है। जातीयता की बात उसने छोड़ दी है। यही वहाँ आज जबर्दस्त पार्टी है। दूसरे एक मौलवी साहब हैं। मगर एक बार सत्याग्रह शुरू करके पीछे राज्य से माफी माँग लेने के कारण वह दब गये हैं। पर, अब्दुल्ला साहब तो बराबर डटे हैं। दो-एक अच्छे और काम के सिख और हिन्दू भी इनके साथ हैं। इसीलिए इनका प्रभाव अच्छा है। सरदार बुधा सिंह की बड़ी तारीफ सुनी। मगर उनसे मिल न सका। वहाँ आजादी का आन्दोलन प्रारम्भिक दशा में है। फलत: मध्यम श्रेणी के हाथ में ही है।

    दो-तीन नौजवानों से, जो या तो ग्रेजुएट थे या कॉलेज में पढ़ते थे तथा एक मौलवी साहब से, जो एक उर्दू अखबार के सम्पादक थे, बातें करके तबीयत बहुत खुश हुई। देखा कि वे लोग जमाने को खूब ही समझते हैं। उनमें धर्म की कट्टरता हई नहीं। यह भविष्य की अच्छी निशानी है। मौलवी साहब वहाँ के किसानों की समस्याओं को समझते थे यह भी खुशी की बात थी।

    श्रावण की पूर्णिमा को बाबा अमरनाथ का दर्शन करते हैं। उसी दिन वहाँ के साधुओं का बड़ा सा दल अन्य लोगों के साथ वहाँ पहुँचता है। उसे छड़ी कहते हैं। असल में जब वह दल रवाना होता है तो उसके आगे-आगे एक सुन्दर छड़ी या लाठी लेकर एक आदमी चलता है। उस पर फूल आदि चढ़ाये रहते हैं। इसी से उस दल को ही छड़ी कहने लगे। मैं और मेरे साथी कुछ पहले ही रवाना हो गये। क्योंकि छड़ी के साथ जाने में पड़ावों पर जगह और सामान आदि मिलना असम्भव हो जाता।

    पहलगाँव तक तो मोटरें और बसें चलती हैं। वहाँ से या तो पैदल चलना पड़ता है, या टट्टुओं पर। सामान लादने के लिए टट्टू रहते ही हैं। प्राय: 8-10 मील पर एक पड़ाव (चट्टी) रहती है। वहीं लोग टिक जाते हैं। पहली चट्टी चन्दनबाड़ी है। हम वहाँ टिके। अगले दिन प्राय: सीधो दो-ढाई मील की चढ़ाई पार की और शेषनाग की चट्टी पर जाकर दोपहर खाया-पीया। शाम को पंचतरणी पहुँच गये।

    बीच में सबसे ज्यादा ऊँचाई पर जाते ही पानी और छोटे-छोटे ओले से भेंट हो गयी! पंचतरणी से कुछ ही पहले यह स्थान है। प्राय: रोज ही ऐसा होता है। एक मील के फासले पर टिन के दो कमरे बने हैं। जिनमें दौड़ के छिप जाते हैं। हम भी छिपे।

    पंचतरणी के पहले, बल्कि चन्दनबाड़ी के आगे ही पहाड़ों पर बर्फ ही बर्फ नजर आती है। हवा खूब तेज चलती है। न पेड़, न पत्तो। नीचे से (चन्दनबाड़ी से) ही लकड़ी ले जाकर उधर जलाते हैं। थोड़ी दूर तक भोजपत्र के वृक्ष थे। फिर वह भी गायब! मगर काई जैसी घास थी जिसे भेड़ें चरती थीं उसे ही धीरे-धीरे चरती हुई पहाड़ों पर चढ़ जाती थीं। भेड़ों वाले खेमे डालकर रात-दिन पड़े रहते हैं। कभी-कभी रात में ज्यादा बर्फ पड़ने से खतरा होता है और मर भी जाते हैं। हमने देखा, उस भयंकर सर्दी में भी टट्टू रात भर वही घास चरते रहते थे!

    रास्ते में सर्दी ऐसी कि जो ही अंग न ढका हो वही सुर्ख हो जाता है। पीछे वहाँ से लौटने पर सुर्ख भाग के ऊपर से पपड़ी सूखकर छूटती है। हमारे मुँह की यही दशा हुई। हमने एक पंगु को सो के घिसकते हुए जाते देखा! वाह-री हिम्मत! वह नजदीक तक जा चुका था।

    अमरनाथ की गुफा में एक बगल में एक बिहारी बाबा थे। यह रात-दिन वहीं रहते थे! और तो कोई रात में वहाँ ठहरता नहीं। जो जाते वही उन्हें कुछ खाने का सामान और लकड़ियाँ दे जाते। रात-दिन लकड़ियाँ जलाते रहते थे और उन्हीं के आधार पर पड़े थे।

    गुफा चौड़े द्वार की है। उसके कोने में कुछ बर्फ जमी रहती है। उसी पर पानी की बूँदें रह-रह के टपकती हैं, शायद पहाड़ पर बर्फ गलने के कारण ही। इसी से वह बर्फ बराबर बनी रहती है और कुछ भी नहीं देखा। वही बर्फ बाबा अमरनाथ के नाम से ख्यात है।

    नहाने-धोने के लिए पास में ही सुन्दर, पर, सर्द जल का कुण्ड है। मैना या चकोर के ढंग के कुछ पक्षी नजर आये। सो भी बहुत कम। मन्दिर में कुछ कबूतर दीखे। रास्ते में कौओं की ही शकल के पक्षी मिले। मगर टाँग का निचला हिस्सा और चोंच सफेद थी। आवाज भी अजीब सी थी। सामान ले चलने वाले तो गरीब मुसलमान थे। दूसरे उधर हई कौन? मगर उनमें स्वाभिमान देखकर दिल खुश हो आया।

    श्री भीष्म जी साहनी, एम.ए. नाम के एक युवक ने श्रीनगर और उस यात्रा में हमारी सबसे ज्यादा फिक्र की और हमें आराम से रक्खा। वे रावलपिण्डी के रहने वाले हैं। वहाँ अपनी नातेदारी में थे।

    जब वहाँ से हम लौटे तो रावलपिण्डी से ही खुफिया वाले हमारे पीछे थे। लाहौर में तो आधो दर्जन गाड़ी के सामने खड़े रहे जब तक ट्रेन न छूटी। एक-दो तो बराबर ट्रेन में चलते थे। यहाँ तक कि मेरठ के बाद भी जब हमने बार-बार उन्हें स्टेशनोंपर आते देखा, यहाँ तक कि हाथरस के आगे बढ़ने पर भी, तो गुस्सा आया कि कांग्रेसी मिनिस्ट्री भी क्या चीज है, जो ये पुलिसवाले हमें चैन से रहने नहीं देते! फिर जब मैं ऊपर वाले बर्थ पर जाकर सवेरे ही सो गया, तब कहीं उनसे पिण्ड छूटा।

 

 

 

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