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सहजानंद समग्र/ खंड-2

 
स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-2

किसान सभा के संस्मरण- I

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जब पहले-पहले किसान-सभा और किसान-संगठन का खयाल हमारे और हमारे कुछ साथियों के दिमाग में आया तो वह धुँधला सा ही था। उसकी रूपरेखा भी कुछ साफ नजर न आ रही थी। यह हमारा आकस्मिक प्रयास था, ऐसे अथाह समुद्र में जहाज चलाने का जिसमें न तो दिशाओं का ज्ञान था और न किनारे का पता। पास में दिग्दर्शक यन्त्रा (कुतुबनुमा) भी न था कि ठीक-ठीक जहाज को चलाते। इतने दिनों बाद याद भी नहीं आता कि किस प्रेरणा ने हमें उस ओर अग्रसर किया। बेशक, कुछ उद्देश्य लेकर तो हमने श्रीगणेश किया ही था। मगर वह था निरा गोल-मोल। फिर भी उस ओर हमारी प्रेरणा एकाएक कैसे हुई यह एक पहेली ही है और रहेगी। ऐसा मालूम होता है कि अकस्मात् हम उस ओर बह गये! मगर जरा इस बात की सफाई कर लें तो अच्छा हो।

किसान-सभा के स्थापन का पहला विचार सन् 1927 ई. के अन्तिम दिनों में हुआ था। उस समय मैं कांग्रेस की स्थानीय नीति से, या यों कहिये कि बिहार के कुछ बड़े नेताओं के कारनामों से झल्लाया-सा था, जो उन्होंने सन् 1926 ई. के कौंसिल चुनाव के सिलसिले में दिखलाये थे। इसीलिए तो स्वराज्य पार्टी के उम्मीदवारों का समर्थन न कर लाला लाजपतराय और पं. मदनमोहन मालवीय की इंडिपेंडेण्ट पार्टी का ही समर्थक रहा। जो उम्मीदवार बिहार में थे उन्हें लाला जी तथा मालवीय जी के आशीर्वाद प्राप्त थे। साथ ही गांधीवादी भी मैं खाँटी था। इसलिए कांग्रेस से एक प्रकार की विरक्ति के साथ ही गांधीवाद में अनुरक्ति भी पूरी थी। यह भी नहीं कि मैं गांधीवादी ढंग की किसान-सभा बनाने का खयाल न रखता था। उस समय तो यह सवाल कतई था ही नहीं। जब किसान-सभा की ही बात उससे पहले न थी तो फिर गांधीवादी सभा की कौन कहे? फिर भी किसान-सभा का सूत्रपात हुआ।

ठीक कुछ ऐसी ही बात सन् 1932-33 में भी हुई। उस समय भी मैं, सन् 1930 ई. की लड़ाई के बाद, कांग्रेस से विरागी था; राजनीति से अलग था, किसान-सभा से सम्बन्ध रखता न था। इस बार के विराग का कारण भी कुछ अजीब था। मैंने सन् 1922 ई. और 1930 में भी जेलों में जाने पर देखा था कि जो लोग गांधी जी के नाम पर ही जेल में गये हैं, वही उनकी सभी बातें एक-एक करके ठुकराते हैं और किसी की भी सुनते नहीं। इससे मुझे बेहद तकलीफ हुई, मैंने सोचा कि जहाँ कोई व्यवस्था और नियम-पालन नहीं, अनुशासन नहीं, ‘डिसिप्लीन’ नहीं, वह संस्था बहुत ही खतरनाक है। इसीलिए विरागी बन गया और 1932 की लड़ाई से अलग ही रहा। मगर ठीक उसी समय, हजार अनिच्छा के होते हुए भी, जबर्दस्ती किसान-सभा में खिंच ही तो गया। जहाँ सन् 1927 ई. किसान-सभा के जन्म का समय था, तहाँ सन् 1933 ई. उसके पुनर्जन्म का। क्योंकि दरम्यान के दो-तीन वर्षों में वह मरी पड़ी थी।

इस प्रकार जब देखता हूँ तो राजनीति के विराग के ही समय मैं किसान-सभा में खिंच गया नजर आता हूँ। यह भी एक अजीब-सी बात है कि राजनीति का वैराग्य किसान-सभा से विरागी न बना सका। दोनों बार के वैराग्य के भीतर प्रायः एक ही बात थी भी, और वह यह कि जो लोग कांग्रेस और गांधी जी को धोखा दे सकते हैं, भुलावे में डाल सकते हैं, वह जनता के साथ क्या न करेंगे? फलतः उनसे मेरा साथ, मेरा सहयोग नहीं हो सकता है। फिर भी किसान-सभा में वही आये और रहे। लेकिन इसकी कोशिश मैंने उस समय की ही नहीं कि वे लोग उसमें आने न पायें। मुझे आज यह पहेली सी मालूम हो रही है कि मैंने ऐसा क्यों न किया। इसी से तो कहता हूँ कि किस प्रेरणा ने मुझे उसमें घसीटा यह स्पष्ट दीखता नहीं। यह कहा जा सकता है कि यह वैराग्य शायद अज्ञात सूचना थी भविष्य के लिए और इस बात की ओर इशारा कर रही थी कि ऐसे लोगों से किसानों का हित नहीं हो सकता-फलतः उनसे एक न एक दिन किनाराकशी करनी ही होगी। यह बात कुछ जँचती-सी है।

उस समय एक और बात भी थी, जो ऊपर से ऐसी ही बेढंगी लगती है। आखिर किसान-सभा भी तो राजनीतिक वस्तु ही है आज तो यह स्पष्ट हो गया है। यह तो सभी मानते हैं, फिर राजनीति का निचोड़ है रोटी, और उसी सवाल को किसान-सभा के द्वारा हल करना है। फिर राजनीति से होने वाला वैराग्य, जिसके भीतर कम से कम 1932-33 में किसान-सभा के प्रति अरुचि भी शामिल है। मुझे उस सभा में पुनरपि कूदने से क्यों न रोक सका जो कि कांग्रेस से रोके रहा, यह समझ में नहीं आता। किसान-सभा की राजनीति निराली ही होगी, वह अर्थनीति (रोटी) मूलक ही होगी, शायद वह इस बात की सूचना रही हो। राजनीति हमारा साधन भले हो, मगर साध्य तो रोटी ही है, यही दृष्टि सम्भवतः भीतर-ही-भीतर, अप्रकट रूप से काम करती थी, जो पीछे साफष् हुई। लेकिन इतने से उस समय की परिस्थिति की बाहरी पेचीदगी खत्म तो हो जाती नहीं। वह तो साफ ही नजर आती है। मेरी आन्तरिक भावना किसानों के रंग में रँगी थी, इतना तो फिर भी स्पष्ट होई जाता है।

लेकिन गांधीवाद के वर्ग सामंजस्य (Class-collaboration) का किसान-सभा से क्या ताल्लुक, यह प्रश्न तो बना ही है। मैं तो उन दिनों पूरा-पूरा गांधीवादी था। राजनीति को धर्म के रूप में ही देखता था। यद्यपि इधर कई साल के अनुभवों ने बार-बार बताया है कि राजनीति पर धर्म का रंग चढ़ाना असम्भव है, बेकार है, खतरनाक है इसीलिए विराग भी हुआ। फिर भी धुन वही थी और धर्म में तो वर्ग सामंजस्य हई। वहाँ वर्ग-संघर्ष (Class-struggle) की गुंजाइश कहाँ? फलतः किसान-सभा भी उसी दृष्टिकोण को लेकर बनी। लेकिन उसमें भी एक विचित्रता थी जो भविष्य की सूचना देती थी। गोया उस ओर कोई इशारा था।

असल में सन् 1927 ई. के आखिरी दिनों में पहले पहल किसान-सभा का आयोजन और श्रीगणेश होने पर और तत्सम्बन्धी कितनी ही मीटिंगें करने पर भी जब सन् 1928 ई. के 4 मार्च को नियमित रूप से किसान-सभा बनायी गयी तो उसकी नियमावली में एक यह भी धारा जुटी कि ‘‘जिन लोगों ने अपने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कामों से अपने को किसान-हित का शत्रु सिद्ध कर दिया है वे इस सभा के सदस्य नहीं हो सकते।’’ एक ओर तो मेल-मिलाप और सामंजस्य का खयाल और दूसरी ओर किसान-सभा की ऐसी गढ़बन्दी कि किसानों में भी वही उसके मेम्बर हों जो असली तौर पर किसान-हित के शत्रु साबित न हों। यह एक अजीब बात थी। आखिर ऐसे लोग किसान-सभा में आ के क्या करते? जब जमींदारों से कोई युद्ध करना न था तब इतनी चौकसी का मतलब क्या? जमींदारों के खुफिष्या और ‘फिफ्थकौलम’ उसमें रह के भी क्या बिगाड़ डालते? खूबी तो यह कि शुरू वाली सभा में जो यह बात तय पायी वह ठेठ बिहार प्रान्तीय किसान-सभा तथा आल-इण्डिया किसान-सभा की नियमावली में भी जा घुसी। मेरे दिमाग में वह बात जमी तो थी ही। फलतः सर्वत्र मैं उसकी जरूरत सुझाता गया। इस प्रकार हम अनजान में ही हजार न चाहने पर भी, या तो वर्ग संघर्ष की तैयारी शुरू से ही करते थे या उस ओर कम-से-कम अन्तर्दृष्टि से देख तो रहे थे ही, ऐसा जान पड़ता है।

जो पहली सभा बनी वह प्रान्त भर की नहीं ही थी। पटना जिले भर की भी न थी। उसका सूत्रपात बिहटा-आश्रम में ही हुआ था और यह बिहटा पटना जिले के पश्चिमी हिस्से के प्रायः किनारे पर ही है। वहाँ से तीन मील पच्छिम के बाद ही शाहाबाद जिला शुरू हो जाता है। उस समय प्रान्तीय कौंसिल के लिए दो मेम्बर चुने जाते थे-एक पूर्वी भाग से और दूसरा पश्चिमी से। इसी चुनाव के खयाल से पटना जिला दो हिस्सों में बँटा था और यह सभा पश्चिमी भाग की ही थी। इसीलिए उसे पश्चिम पटना किसान-सभा नाम दिया गया था। कोई क्रान्तिकारी भावना तो काम कर रही थी ही नहीं। वैधानिक ढंग से जोर डालकर किसानों का कुछ भला करवाने और उनकी तकलीफें मिटवाने का खयाल ही इसके पीछे था। अन्यथा वर्ग सामंजस्य नहीं रह जाता। सोचा गया था कि जो ही वोट माँगने आयेगा उसे ही विवश किया जायगा कि किसानों के लिए कुछ करने का स्पष्ट वचन दे।

पश्चिम पटना में भरतपुरा, धरहरा आदि की पुरानी जमींदारियाँ हैं। उस समय उनका किसानों पर होने वाला जुल्म बिहार प्रान्त में अपना सानी शायद ही रखता हो। किसान पशु से भी बदतर बना दिये गये थे और छोटी-बड़ी कही जाने वाली जातियों के किसान एक ही लाठी से हाँके जाते थे। इस दृष्टि से वहाँ पूरा साम्यवाद था। यद्यपि उनके जुल्मों की पूरी जानकारी हमें उस समय न थी; वह तो पीछे चलकर हुई। उस समय विशेष जानने की मनोवृत्ति थी भी नहीं। फिर भी वे इतने ज्यादा, ज्वलन्त और साफ थे कि छन-छन के कुछ-न-कुछ हमारे पास भी पहुँच ही जाते थे। हमें यह भी मालूम हुआ था कि सन् 1921 ई. के असहयोग युग में पटने के नामधारी नेता उन जमींदारियों में सफल मीटिंग एक भी न कर सके थे। जमींदारों के इशारे से उन पर गोबर आदि गन्दी चीजें तक फेंकी गयीं। सभा में लाठी के बल से किसान आने से रोक दिये गये। वे इतने पस्त थे कि जमींदार का नाम सुनते ही सपक जाते थे। हमने सोचा, एक-न-एक दिन यह जुल्म दोनों में भिड़न्त करायेगा और इस प्रकार के गृह-कलह से आजादी की लड़ाई कमजोर हो जायगी। फलतः आन्दोलन के दबाव से जुल्म कम करवाने और इस तरह गृृह-कलह रोकने की बात हमें सूझी। धरहरा के ही एक जमींदार हाल में ही कौंसिल में चुने गये थे। उनका काफी दबदबा था। हमने सोचा कि संगठित रूप से काम करने पर वोट के खयाल से वे दबेंगे और काम हो जायगा। बात कुछ थी भी ऐसी ही। वे जमींदार साहब इस सभा से बेहद चौंके और इसके खिलाफ उनने प्रचार-कोशिश भी की। शोषक तो खटमल की तरह काफी काइयाँ होते हैं। इसी से वे सजग थे। हमें भी यह बात बुरी लगी कि वे इतने सख्त दुश्मन क्यों बनें। मगर बात तो ठीक ही थी। हम उस समय असल में जमींदारी को ऐसा समझते न थे जैसा पीछे समझने लगे। फिर भी यह झल्लाहट बनी ही रही और वे सन् 1930 ई. में हजारीबाग जेल में इसी की सफाई देने हमारे पास आये थे। बहुत डरे से मालूम होते थे। मगर उनका डर अन्ततोगत्वा सच्चा निकला, गो देर से। क्योंकि किसान-सभा ने ही उन्हें सन् 1936-37 के चुनाव में बुरी तरह पहले असेम्बली में पछाड़ा और पीछे डिस्ट्रिक्टबोर्ड में भी। मालदार लोग दूरंदेश होते हैं। फलतः इस खतरे को वे पहले से ही ताड़ रहे थे कि हो न हो एक दिन भिड़न्त होगी।

सभा जो जिले भर की भी नहीं बनी उसका कारण था हमारा फूँक-फूँक के पाँव देना ही। जितनी शक्ति हो उतनी ही जवाबदेही लो, ताकि उसे बखूबी सँभाल सको, इसी वसूल ने हमें हमेशा जल्दबाज़ी से रोका है। इसी खयाल से हम आल-इण्डिया किसान-सभा बनाने में बहुत आगा-पीछा करते रहे। इसी वजह से ही हमने प्रान्तीय किसान-सभा में पड़ने से भी-उसकी जवाबदेही लेने से भी-बहुत ज्यादा हिचक दिखाई थी। यही कारण था कि जिले भर की जवाबदेही लेने को हम उस समय तैयार न थे। मगर पता किसे था कि दो वर्ष बीतते-बीतते बिहार प्रान्तीय किसान-सभा बन के ही रहेगी और न सिर्फ उसके स्थापनार्थ हमें आगे बढ़ना होगा, बल्कि उसकी पूरी जवाबदेही भी लेनी होगी? आखिरकार सन् 1929 ई. के नवम्बर महीने में यही हुआ और सोनपुर मेले में प्रान्तीय किसान-सभा बनी।

(शीर्ष पर वापस)

2

सन् 1929 ई. के दिसम्बर का महीना था। लाहौर कांग्रेस के पूर्व और हमारी बिहार प्रान्तीय किसान-सभा बन जाने के बाद ही सरदार बल्लभभाई का दौरा बिहार में हुआ। दौरा प्रान्त के सभी मुख्य-मुख्य स्थानों में हुआ। राय हुई कि नवजात किसान-सभा इससे लाभ क्यों न उठाये। श्री बल्लभभाई हाल में ही किसान आन्दोलन और लड़ाई के नाम पर ही सरदार बने थे। बारदौली के किसानों की लड़ाई के संचालक की हैसियत से ही उन्हें सरदार की पदवी मिली थी। हमने सोचा कि हमारा किसान आन्दोलन उनसे प्रोत्साहन प्राप्त करे। हुआ भी ऐसा ही। जहाँ-जहाँ उनके दौरे का प्रोग्राम था तहाँ-तहाँ ठीक उनके पहले हम किसान-सभा कर लेते और पीछे उसी सभा में वह बोलते जाते थे। कहीं-कहीं उनने हमारा और हमारी किसान-सभा का नाम भी लिया था और उसे सहायता देने को कहा था। मगर हम तो सभा की तैयारी और लोगों की उपस्थिति से लाभ उठा के किसान का पैगाम लोगों को सुना देना ही बहुत बड़ा फायदा मानते थे।

मुजफ्फरपुर जिले के सीतामढ़ी कसबे में भी एक बड़ी सभा हुई। हमने अपना काम कर लिया था। वह बोलने उठे तो दूसरी-दूसरी बातों के साथ जमींदारी प्रथा पर उनने बहुत कुछ कहा और उसकी कोई जरूरत नहीं है, यह साफ-साफ सुना दिया। उनका कहना था कि सुना है, ये जमींदार बहुत जुल्म करते हैं। ये लोग गरीब किसानों को खूब ही सताते हैं, ये भलेमानस अपने को जबर्दस्त माने बैठे हैं। लोग भी इन्हें ऐसा ही मानते हैं। इसीलिए डरते भी इनसे हैं। मगर ये तो निहायत ही कमजोर हैं। यदि एक बार कसके इनका माथा दबा दिया जाय तो भेजा (दिमाग की गुदी) बाहर निकल आये। फिर इनसे क्या डरना? इनकी ज़रूरत भी क्या है? ये तो कुछ करते नहीं ! हाँ, रास्ते में अड़ंगे जरूर लगाते हैं, पता नहीं, आज वही बदल गये, दुनिया ही बदल गयी या जमींदार ही दूसरे हो गये। क्योंकि अब वह ये बातें बोलते नहीं, बल्कि जमींदारों के समर्थक बन गये हैं, ऐसा कहा जाता है। समय-समय पर परिवर्तन होते ही रहते हैं और नेता इस परिवर्तन के अपवाद नहीं हैं। शायद वे अब संजीदा और दूरंदेशी बन गये हैं, जब कि पहले सिर्फ आन्दोलनकारी agitator थे। मगर, गुस्ताखी माफ हो। हमें तो संजीदा के बदले ‘एजीटेटर’ ही चाहिए। अपनी-अपनी समझ और जरूरत ही तो ठहरी।

हाँ, तो उसी सभा से हम लोग रात में लौरी के जरिये मुजफ्फरपुर रवाना हुए। हमें आधी रात की गाड़ी पकड़ के छपरा जाना था। बा. रामदयालु सिंह, पं. यमुना कार्यी और मैं, ये तीनों ही उस लौरी में बैठे थे। मैं था प्रान्तीय किसान-सभा का सभापति और कार्यी जी उसके संयुक्त मन्त्री (डिविजनल सेक्रेटरी) थे। बाबू रामदयालु सिंह ने प्रान्तीय किसान-सभा की स्थापना में बहुत बड़ा भाग लिया था। वे उसकी प्रगति में लगे थे। इस तरह हम तीनों ही सभा के कर्त्ता-धर्त्ता थे-सब कुछ थे। हमीं तीनों ने उसे बनाया था और अगर हम तीनों खत्म होते तो सभा का खात्मा ही हो जाता यह पक्की बात थी।

लौरी रवाना हो गयी। रात के दस बजे होंगे। बाबू रामदयालु सिंह ड्राइवर की बगल में आगे वाली सीट पर थे और हम लोग भीतर थे। लौरी चलते-चलते एक तिहाई रास्ता पार करके रुनीसैदपुर में लगी। ड्राइवर उसे छोड़ कहीं गया और थोड़ी देर बाद वापस आया। हम चल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद ड्राइवर को ऊँघ सी आने लगी। नतीजा यह हुआ कि लौरी डगमग करती जाती थी। कभी इधर फिसल पड़ती तो कभी उधर। ड्राइवर उसे ठीक सँभाल न सकता था। वह सड़क भी ऐसी खतरनाक है कि कितनी ही घटनाएँ (accidents) हो चुकी हैं, कितनी ही मोटरें उलट चुकी हैं। और कई मर चुके हैं। था भी रात का वक्त। खतरे की सम्भावना पद-पद-पर थी।

बाबू रामदयालु सिंह बात ताड़ गये। उनने ड्राइवर को ऊँघता देख पहले दो-चार बार उसे सँभाला था सही। मगर वह नींद में थोड़े ही था। उस पर नींद की सवारी न होकर नशा की सवारी थी। रुनीसैदपुर में उसने शराब पी ली थी। अब तो वे घबराये। मारे डर के वे पसीने-पसीने थे। हालाँकि दिसम्बर की कड़ाके की सर्दी थी। सो भी उस इलाके में तो और भी तेज होती है। वे बार-बार ड्राइवर को सजग करते थे। मगर वह नशा ही क्या कि सर पर न चढ़ जाय और बेकार न बना दे? आखिर उनसे रहा न गया और उनने लौरी जबर्दस्ती रुकवाई। तब कहीं हमें पता चला कि कुछ बेढंगा मामला है। अब तक हम भी बेखबर थे।

हम सभी उतर पड़े और उनने कहा कि रास्ते में शराब पी के हम सबों को यह मारना चाहता है। देखिये न, मैं पसीने-पसीने हो रहा हूँ हालाँकि इस कड़ाके के जाड़े में लौरी पर हवा भी लगती है। फलतः काँपना चाहिए। हम सबों की जान पद-पद पर खतरे में देख के मैं थर्रा रहा था। मगर जब देखा कि अब कोई उपाय नहीं है तो रोका है। यदि कोई घटना हो जाती और लौरी उलट जाती या नीचे जा गिरती तो सारी की सारी बिहार प्रान्तीय किसान-सभा ही खत्म हो जाती। हम सभी इसी पर बैठे जो हैं। कल हमारे शत्रुओं के घर घी के चिराग जलते। इसलिए मैं तो इसका नाम-धाम नोट करके जिला मजिस्ट्रेट को इस बात की रिपोर्ट करूँगा। ताकि आइन्दा इस प्रकार की शैतानियत ये ड्राइवर न करें और नाहक लोगों की जानें जोखिम में न डालें।

उनने उसका नाम-वाम लिखा सही और वह डर भी गया। इससे हम सभी सकुशल मुजफ्फरपुर स्टेशन पर पहुँच गये। हमने ट्रेन भी पकड़ ली। न जाने मजिस्ट्रेट के यहाँ रिपोर्ट हुई या नहीं। मगर ‘समूची किसान-सभा ही खत्म हो जाती’ यह बात मुझे भूलती नहीं! इसकी स्मृति कितनी मधुर है। (5-8-41)

(शीर्ष पर वापस)

3

कुछ लोगों की धारणा है कि उनने कभी भूल की ही नहीं और न उनके विचारों में विकास हुआ। उनके विचार तो पके-पकाये शुरू से ही थे। इसीलिए जिनके विचारों का क्रम विकास हुआ है उनकी वे लोग मौके-मौके पर, अपनी जरूरत के मुताबिक, हँसी भी उड़ाया करते हैं। इधर उन्हीं दोस्तों ने यह भी तरीका अख्तियार किया है कि जिस प्रगतिशील कार्य पर उनकी मुहर न हो वह नाकारा और रद्दी है। वह यह भी कहने की हिम्मत करते हैं कि बिहार प्रान्तीय किसान-सभा को बनाया कांग्रेस ने ही। या यों कहिये कि उसके स्थापक कट्टर (Orthodox) कांग्रेसी ही हैं। उनका मतलब उन कांग्रेसियों से है जो गांधीवादी कहे जाते हैं। यह आवाज अभी-अभी निकलने लगी है। इसके पीछे क्या रहस्य है कौन जाने?

मगर असल बात तो यही है कि मैं, पं. यमुना कार्यी और बाबू रामदयालु सिंह, यही तीन उसकी जड़ में थे-इन्हीं तीन ने उसका विचार किया, कैसे वह शुरू की जाय यह सोचा, सोनपुर के मेले में ही सुन्दर मौका है ऐसा तय किया, लोगों के पास दौड़-धूप की, नोटिसें छपवाईं और बँटवाईं और मेले में इसका पूरा आयोजन किया। कोई बता नहीं सकता कि इसमें चौथा आदमी भी था। यह तो कठोर सत्य है, अडिग बात है। और इन तीनों में रामदयालु बाबू ही एक गांधीवादी कहे जा सकते हैं। ऐसी हालत में बेबुनियाद बातों की गुंजाइश ही कहाँ है?

यह ठीक है कि नाममात्र के लिए प्रमुख कांग्रेसी सभा के साथ थे, या यों कहिये कि उसके मेम्बर थे। मगर यह मेम्बरी तो कोई बाकायदा थी नहीं। किसान-सभा के लक्ष्य पर दस्तखत करके और सदस्य शुल्क दे के कितने लोग मेम्बर रहे क्या यह बात कोई बतायेगा? ऐसे मेम्बर बनने के लिए उनमें एक भी तैयार न था। बल्कि बनने के बहुत पहले ही उनमें प्रमुख लोगों ने विरोध शुरू कर दिया। यहाँ तक कि इसमें शामिल होने के विरुद्ध सूचना बाँटी गयी प्रान्तीय कांग्रेस कमिटी की ओर से। इतना ही नहीं। सोनपुर के बाद ही जब उन लोगों की सम्मति चाही गयी तो बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद ने, जो उस समय कांग्रेस के दिमाग माने जाते थे, इसका सख्त विरोध किया और साफ कह दिया कि यह खतरनाक चीज बनने जा रही है। अतः मैं इसके साथ नहीं हूँ। यह ठीक है कि और लोगों ने उस समय इनकार नहीं किया। सच तो यह है कि ऐसा करने का मौका ही उन्हें नहीं मिला। वे समझी न सके कि किसान-सभा ऐसी चीज बन जायगी। क्योंकि पीछे यह बात समझते ही कुड़बुड़ाहट और विरोधी प्रोपैगैण्डा शुरू हो गया। यह भी ठीक है कि औरों का नाम देख एकाध ने उलाहना भी दिया कि हमारा नाम क्यों नहीं दिया गया। इसीलिए उनका नाम पीछे जोड़ा गया भी। मगर इससे वस्तुस्थिति में कोई फर्क नहीं आता। नाम दे देने से कोई भी सभा का स्थापक नहीं कहा जा सकता। सौ बात की एक बात तो यह है कि यदि सभा की स्थापना का श्रेय कोई चौथा भी लेना चाहता है तो उसका नाम क्यों बताया नहीं जाता? क्योंकि तब तो स्पष्ट पूछा जा सकता है कि उसने इस सम्बन्ध में कब क्या किया? यह तो उसे बताना ही होगा। इसलिए केवल गोल-गोल बातों से काम नहीं चलेगा। नाम और काम बताना होगा।

मगर हमें तो इसमें भी झगड़ा नहीं है कि किसने यह काम किया। इतना तो असलियत के लिहाज से ही हमने कहा है। फिर भी यदि किसी को वैसा दावा हो तो हम उसकी खुशी में गड़बड़ी क्यों डालें? हमें क्या? सभा चाहे किसी ने बनाई। मगर वह जिस सूरत में या जिस प्रकट विचार से पहले बनी अब वह बात नहीं रही। धीरे-धीरे अनुभव के आधार पर वह आगे बढ़ी है और अब उसमें सोलहों आने रूपान्तर आ गया है। यह ठीक है कि वह किताबी ज्ञान के आधार पर न तो बनी ही थी और न वर्तमान रूप में आयी ही है। इसीलिए इसका आधार बहुत ही ठोस है। संघर्ष के मध्य में वह जन्मी और संघर्ष ही में पलते-पलते सयानी हुई है। इसीलिए वह काफी मजबूत है भी। शोषित जनता की वर्ग संस्थाओं को इसी प्रकार बनना और बढ़ना चाहिए, यही क्रान्तिकारी मार्ग है। लेनिन ने कहा भी है कि हमें जनता से और अपने अनुभवों से सीखकर ही जनता का पथ-प्रदर्शन करना चाहिए। जनता अपने ही अनुभव से सीखकर जब नेताओं की बातों पर विश्वास करती है और उन्हें मानने लगती है तभी वह हमारा साथ देती है, ऐसा स्तालिन ने चीन के सम्बन्ध के विवरण में कहा है-

"The masses themselves should become convinced from their own experience of the correctness of the instructions, policy and slogans of the vanguard."

इसीलिए बजाय शर्म के खुशी की बात है कि अनुभव के बल पर ही हम आगे बढ़े हैं और इसमें किसानों को भी साथ ले सके हैं।

मगर हमारे क्रान्तिकारी नामधारी दोस्तों की एक बात तो हमारे लिए पहेली ही रहेगी। जब हम उसे याद करते हैं तो एक अजीब घपले में पड़ जाते हैं। हमारे दोस्तों का दावा है कि किसान-सभा को वही क्रान्तिकारी मार्ग पर ला सके हैं; उन्होंने ही उसे क्रान्तिकारी प्रोग्राम दिया है आदि-आदि। जब हम पहली और ठेठ आज की उनकी ही कार्यवाहियों का खयाल करते हैं तो उनका यह दावा समझ में नहीं आता। उनमें एक भाई का दावा है-और बाकष्ी उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं-कि उनने ही जमींदारी मिटाने का प्रस्ताव पहले-पहल किसान-सभा में पेश किया था। शायद उन्हें यह बात याद नहीं है कि उनकी पार्टी के जन्म के बहुत पहले युक्त प्रान्त में श्री पुरुषोत्तमदास टण्डन ने एक केन्द्रीय किसान संघ बनाया था और दूसरी-दूसरी अनेक बातों के साथ ही जमींदारी मिटाने की बात उस संघ ने मान ली थी। जब सन् 1934 ई. की गर्मियों में वे द्वितीय प्रान्तीय किसान सम्मेलन का सभापतित्व करने गया में आये थे। तो वहाँ भी उनने वह प्रस्ताव पास कराना चाहा था। मगर हम सबने-जिनमें सोशलिस्ट नेता भी शामिल थे-उसका विरोध किया था। फलतः वह गिर गया। उनके प्रस्ताव की खूबी यह थी कि मुआविजा (मूल्य) देकर ही जमींदारी मिटाने की बात उसमें थी।

टण्डन जी भी इस बात के साक्षी हैं कि मैंने दूसरे दिन सम्मेलन में जो भाषण दिया था उसमें स्पष्ट कह दिया था कि जहाँ तक बिहार प्रान्तीय किसान-सभा का ताल्लुक है, उसने जमींदारी मिटाने का प्रस्ताव अभी तक नहीं माना है; क्योंकि इसमें अभी उसे हानि नजर आती है। मगर जहाँ तक मेरा व्यक्तिगत सवाल है, मैं उसके मिटाने का पूर्ण पक्षपाती हूँ। लेकिन मूल्य देकर नहीं किन्तु यों ही छीन कर। यही हमारे सामने सबसे बड़ी दिक्कत है इसके सम्बन्ध में। टण्डन जी को इस बात से आश्चर्य भी हुआ था कि छीनने के पक्ष में तो हैं। मगर मुआविजा दे के खत्म करने के पक्ष में नहीं।

एक बात और। सन् 1934 ई. के आखिर में सिलौत (मनियारी-मुजफ्फरपुर) में जो किसान कॉन्फ्रेंस हुई थी उसमें कहा जाता है, जमींदारी मिटाने का प्रस्ताव एक किसान लीडर ने, जो अपने को इस बात के लिए मसीहा घोषित करते हैं पेश किया था। मैं भी वहाँ मौजूद था। प्रस्ताव का वह अंश यों था कि किसान और सरकार के बीच में कोई शोषक वर्ग न रहे इस सिद्धान्त को प्रान्तीय किसान-सभा स्वीकार करे। यहाँ विचारना है कि टण्डन जी वाले प्रस्ताव में इसमें विलक्षणता क्या है? मुआविजा की बात पर यह चुप है। इसलिए ज्यादा-से-ज्यादा यही कहा जाता है कि गोल-मोल बात ही इसमें कही गयी है, जबकि टण्डन जी ने स्पष्ट कह दिया था। मगर असल बात तो यह है कि जमींदारी का नाम इसमें है नहीं। यह भी खूबी ही है। शोषक कहने से जमींदार भी आ जाते हैं, मगर स्पष्ट नहीं। यहाँ भी गोल बात ही है। फलतः गांधी जी के-ट्रस्टी वाले सिद्धान्त की भी इसमें गुंजाइश है। क्योंकि ट्रस्टी होने पर तो जमींदार शोषक रहेगा नहीं। फिर जमींदारी मिटाने का क्या सवाल? यही कारण है कि खासमहाल में, जहाँ सरकार ही जमींदार है, जमींदारी मिटाने की बात इस प्रस्ताव के पास होने पर भी नहीं उठती। अतएव जो लोग जमींदारी को सर्वत्र ही खासमहाल बना देना चाहते हैं उनके लिए यह प्रस्ताव स्वागतम् है। फिर भी इसी पर दोस्तों की इतनी उछल-कूद है।

उस सभा में जमींदारों के दोस्त काफी थे। वहीं पर एक चलते-पुर्जे जमींदार हैं जो एक मठ के महन्त हैं। उनके इष्ट-मित्रों की संख्या काफी थी और जी-हुजूरों की भी। उनने उसका खूब ही विरोध किया। मगर सफलता की आशा न देख यह प्रश्न किया और करवाया कि स्वामी जी भी यहीं हैं। अतः उनसे भी इस प्रस्ताव के बारे में राय पूछी जाए कि वे इसके पक्ष में हैं या नहीं और यह प्रस्ताव प्रान्तीय किसान-सभा के सिद्धान्त के विपरीत है या नहीं। उन लोगों का खयाल था कि मैं तो इसका विरोध करूँगा ही और प्रान्तीय सभा के मन्तव्य का विरोधी भी इसे जरूरी ही बताऊँगा। मगर मैं नहीं चाहता था कि बीच में पड़ईँ। मैं चाहता था कि मेरे या किसी दूसरे के प्रभाव के बिना ही लोग खुद स्वतन्त्रा रूप से राय कायम करें। मुझे तो किसानों की और जनता की भी मनोवृत्ति का ठीक-ठीक पता लगाना था, जो मेरे कुछ भी कहने से नहीं लग सकता था। कारण, लोग पक्ष या विपक्ष में प्रभावित हो जाते।

परन्तु विरोधियों ने इस पर जोर दिया हालाँकि प्रस्ताव वाले शायद डरते थे कि मेरा बोलना ठीक नहीं। जब मैंने देखा कि बड़ा जोर दिया जा रहा है और न बोलने पर यदि कहीं प्रस्ताव गिर गया तो बुरा होगा, तो अन्त में मैंने कह दिया कि मैं व्यक्तिगत रूप में इस प्रस्ताव का विरोधी तो नहीं हूँ। साथ ही, प्रान्तीय किसान-सभा के सिद्धान्त के प्रतिकूल भी यह है नहीं। क्योंकि यह तो सभा से सिफारिश ही करता है कि यह बात मान ले। बस, फिर क्या था, बिजली सी दौड़ गयी और बहुत बड़े बहुमत से प्रस्ताव पास हुआ। मैंने यह भी साफ ही कह दिया कि यह प्रस्ताव तो लोकमत तैयार करता है और उसे जाहिर भी करता है, जहाँ तक जमींदारी या शोषण मिटाने का सवाल है। ऐसी हालत में हमारी सभा इसका स्वागत ही करेगी। क्योंकि हम लोकमत को जानना तो चाहते ही हैं। साथ ही, उसे तैयार करना भी पसन्द करते हैं। हमें खुद लोगों पर किसी सिद्धान्त को लादने के बजाय लोकमत के अनुसार ही सिद्धान्त तय करना पसन्द है। यही कारण है, कि अब तक हमारी प्रान्तीय किसान-सभा इस बारे में मौन है। वह अभी तक अनुकूल लोकमत जो नहीं पा रही है।

इस प्रसंग से एक और भी बात याद आती है। हमारे कुछ दोस्त जमींदारी मिटाने के अग्रदूत अपने को मानते हैं-कम-से-कम यह दावा आज वे और उनके साथी करते हैं। मगर इस सम्बन्ध में कुछ बातें स्मरणीय हैं। जब सन् 1929 ई. के नवम्बर में सोनपुर के मेले में बिहार प्रान्तीय किसान-सभा की स्थापना हो रही थी, और उन लोगों के मत से आज के गांधीवादी ही उसे कर रहे थे तो उनने खुली सभा में उसका विरोध किया था। उनकी दलील थी कि किसान-सभा की जरूरत ही नहीं। कांग्रेस से ही वह सभी काम हो जायँगे जिनके लिए यह सभा बनायी जाने को है। उनने यह भी कहा कि किसान-सभा बनने पर किसान उसी ओर बहक जायँगे और इस प्रकार कांग्रेस कमजोर हो जायगी। मैं ही उस समय सभापति था और मैंने ही उनका उचित उत्तर भी दिया था। इसीलिए ये बातें मुझे याद हैं! इन दलीलों को पढ़ के कोई भी कह बैठेगा कि कोई गांधीवादी आज (सन् 1941 ई. में) किसान-सभा का विरोध कर रहा था। वह यह समझी नहीं सकता कि भावी क्रान्तिकारी (क्योंकि पता नहीं कि वे उस समय क्रान्तिकारी थे या नहीं) यह दलीलें पेश कर रहा है जो आगे चलकर जमींदारी मिटाने का अग्रदूत बनने का दावा करेगा।

शायद कहा जाय कि उस समय उन्हें इतना ज्ञान न था और क्रान्तिकारी पार्टी भी पीछे बनी! खैर ऐसा कहने वाले यह तो मानी लेते हैं कि ये मसीहा लोग भी एक दिन कट्टर दकियानूस थे। क्योंकि उनकी नजरों में आज जो एकाएक दकियानूस दीखने लगे हैं वही जब किसान-सभा के विरोध के बजाय उसके समर्थक थे तब मसीहा लोग विरोधी थे! यह निराली बात है।

लेकिन लखनऊ का ‘संघर्ष’ नामक साप्ताहिक हिन्दी-पत्र तो क्रान्तिकारी ही है। उसने जब सन् 1938 में अपने अग्रलेख में यहाँ तक लिख मारा कि हमें किसान-सभा का भी उपयोग करना चाहिए, तो मुझे विवश हो के सम्पादक महोदय को पटना में ही उलाहना देना पड़ा और इसके लिए सख्त रंजिश जाहिर करनी पड़ी। यह अजीब बात है कि क्रान्ति के अग्रदूत बनने के दावेदार कांग्रेस के मुकाबिले में किसान-सभा जैसी वर्ग संस्थाओं को गौण मानें। उनने हजार सफाई दी। मगर मैं मान न सका।

6-8-41

आगे चलिये। कुछ महीने पूर्व एक सर्क्यूलर देखने को मिला था। उसमें और और बातों के साथ लिखा गया है कि ‘‘आज तक किसान-सभाओं का संगठन स्वतन्त्रा होते हुए भी राजनीतिक क्षेत्र में वह कांग्रेस की मददगार मात्र और उसके नीचे रही है! यहाँ ‘मददगार मात्र’ में ‘मात्र’ शब्द बड़े काम का है। जो लोग किसान-सभाओं को सन् 1941 ई. के शुरू होने तक राजनीतिक बातों में कांग्रेस की सिर्फ मददगार और उसके नीचे मानते रहे हैं वही जब दावा करते हैं कि किसान-सभा में जमींदारी मिटाने का प्रस्ताव पहले-पहल लाने वाले वही हैं तो हम हैरत में पड़ जाते हैं। जमींदारी मिटाने की बात तो जबर्दस्त राजनीति है। कांग्रेस ने आज तक खुल के इस बात का नाम नहीं लिया है। प्रत्युत उसका नीति-निर्धारण जिस पुरुष के हाथ में है वह तथा कांग्रेस के दिग्गज नेता एवं कर्णधार-सब-के-सब-जमींदारी का समर्थन ही करते हैं। गांधी जी ने तो यहाँ तक किया कि सन् 1934 ई. में युक्त प्रान्त के जमींदारों के प्रतिनिधि मण्डल ;कमचनजंजपवदद्ध को खुले शब्दों में कह दिया था कि ‘‘Better relations between the landlords and tenants could be brought about by a change of heart on both sides. He was never in favour of abolition of the Taluqdari or zamindari system.’’ (‘Mahratta’, 12-8-1934)

‘‘किसानों और जमींदारों के पारस्परिक सम्बन्ध अच्छे हो जायँगे दोनों के हृदय परिवर्तन से ही। मैं नहीं चाहता कि जमींदारी या ताल्लुकेदारी मिटा दी जाय।’’ ऐसी दशा में एक ओर तो किसान-सभा को कांग्रेस के नीचे और उसकी मददगार मात्र मानना और दूसरी ओर सभा के जरिये ही जमींदारी मिटाने का दावा करना ये दोनों बातें पहेली सी हैं। इनका रहस्य समझना साधारण बुद्धि का काम नहीं है! कुछ ऐसा मालूम पड़ता है कि शुरू में ही किसान-सभा की स्थापना के विरोध से लेकर आज तक जो नीति हमारे ये क्रान्तिकारी दोस्त अपने लिए निश्चित करते आ रहे हैं। उसमें मेल है-कोई विरोध नहीं है। और अगर जमींदारी मिटाने जैसी बात की चर्चा देख के विरोध मालूम भी पड़ता हो, तो वह सिर्फ ऊपरी या दिखावटी है। क्योंकि राजनीति तो पेचीदा चीज है और हमारे दोस्त लोग इस पेचीदगी में पूरे प्रवीण हैं! यह तो एक कला है और बिना कलाबाजी के सबको खुश करना या सर्वत्र वाहवाही लूटना गैर-मुमकिन है।

लेकिन जब मैं खुद आज तक की बातों का खयाल करता हूँ तो मेरे दिमाग में यह बात आती ही नहीं कि कैसे किसान-सभा कांग्रेस के नीचे और उसकी मददगार मात्र रही है। हमने तो कभी ऐसा सोचा तक नहीं। हमारे इन दोस्तों ने भी आज तक किसी भी मौके पर यह बात नहीं कही है। मुझे तो हाल के उनके इस सर्क्यूलर से ही पहले-पहल पता चला कि वे ऐसा मानते रहे हैं। यह जानकर तो मैं हैरत में पड़ गया। आखिर कभी भी तो वे इस बात का जिक्र हमारी मीटिंगों में करते। इतनी महत्त्वपूर्ण बात यों ही क्यों गुपचुप रखी गयी यह कौन कहे? कांग्रेस मिनिस्ट्री के जमाने में हमने बकाश्त संघर्ष सैकड़ों चलाये और दो हजार से कम किसानों या किसान सेवकों को इस तरह जेल जाना नहीं पड़ा! मिनिस्ट्री इसके चलते बेहद परेशान भी हुई। इसीलिए तो सन् 1939 ई. के जून में बम्बई में ऐसी लड़ाइयाँ रोकी गयीं और न मानने वालों को कांग्रेस से निकालने की धमकी दी गयी। फिर भी हमने न माना। जिसके फलस्वरूप हम कितनों को ही कांग्रेस से अलग होना पड़ा। इतने पर भी किसान-सभा को कांग्रेस के नीचे और उसकी मददगार मात्र बना देने की समझ और हिम्मत की तारीफ है।

चाहे पहले किसी को ऐसा खयाल करने की गुंजाइश रही भी हो; क्योंकि शुरू में जान-बूझकर किसान-सभा इसी प्रकार चलाई गयी थी कि किसी को शक न हो कि यह सोलहों आने स्वतन्त्रा चीज है, संस्था है; इससे इसके प्रति बाल्यावस्था में ही भयंकर विरोध जो हो जाता इसीलिए एक प्रस्ताव के द्वारा यह कहा गया था कि राजनीतिक मामलों में सभा कांग्रेस का विरोध न करेगी। मगर फिर भी यह कभी न कहा गया कि उसकी मातहत है या उसकी मदद करेगी। मगर जब हमने

सन् 1935 ई. के बीतते-न-बीतते हाजीपुर वाले सम्मेलन में जमींदारी मिटाने का निश्चय कर लिया तब भी इसे ऐसा समझना कि यह कांग्रेस की मातहत है, निराली सी बात है। जमींदारी मिटा देने की बात एक ऐसी चीज है जो बता देती है साफ-साफ कि किसान-सभा और कांग्रेस दो जुदी संस्थाएँ हैं जिनके लक्ष्य और रास्ते भी जुदे हैं, भले ही मौके-बे-मौके मतलब-वेश दोनों का मेल हो जाय। हम तो जमींदारी वगैरह के बारे में साफ जानते हैं कि ता. 12-2-22 ई. को बारदौली में कांग्रेस की कार्यकारिणी ने असहयोग आन्दोलन को स्थगित करते हुए इस सम्बन्ध में जो कहा था वही आज तक कांग्रेस की निश्चित नीति है। उस कमिटी के प्रस्ताव की छठीं और सातवीं धाराओं में यह बात साफ लिखी है। यह यों है-

“The working committee advises Congress workers and organisaions to inform the ryots (peasants) that withholding of rent-payment to the zamindars (land-lords) is contrary to the Congress resolution and injurious to the best interest of the country.

The Working Committee assures the zamindars that the Congress movement is in no way intended to attack their legal rights, and that, even when the ryots have grievances, the committee desires that redress be sought by mutual consulation and arbitration.”

इसका अर्थ यह है, ‘‘वर्किंग कमिटी (कार्य-कारिणी कमिटी) कांग्रेस कार्य- कर्त्ताओं और संस्थाओं को यह सलाह देती है कि वे किसानों (रैयतों) से कह दें कि जमींदारों को लगान न देना कांग्रेस के प्र्रस्ताव के विरुद्ध तथा देश-हित का घातक है।

"कमिटी जमींदारों को विश्वास दिलाती है कि कांग्रेस आन्दोलन की मंशा यह हर्गिज नहीं है कि उनके कानूनी अधिकारों पर वार किया जाय। कमिटी की यह भी इच्छा है कि यदि कहीं किसानों की शिकायतें जमींदारों के खिलाफ हों तो वे भी दोनों की राय, सलाह और पंचायत की सहायता से ही दूर की जायँ।"

हम समझ नहीं सकते कि जमींदारी और जमींदारी के अन्यान्य कानूनी हकों की इससे ज्यादा और कौन सी ताईद कांग्रेस कर सकती है। (7-8-41)

(शीर्ष पर वापस)

4

सन् 1932 ई. के आखिरी और सन् 1933 ई. के आरम्भ के दिन थे। कांग्रेस का सत्याग्रह आन्दोलन धुआँधार चल रहा था। सरकार ने इस बार जम के पूरी तैयारी के साथ छापा मारा था। इसलिए दमन का दावानल धाँय-धाँय जल रहा था। सरकार ने कांग्रेस को कुचल डालने का कोई दकीका उठा रखा न था। लार्ड विलिंगटन भारत के वायसराय के पद पर आसीन थे। उनने पक्का हिसाब लगा के काम शुरू किया था। ऊपर से, बाहरी तौर पर, तो मालूम होता था सरकार ज्येष्ठ के मध्याद्द के सूर्य की तरह तप रही है। इसीलिए प्रत्यक्ष देखने में आन्दोलन लापता सा हो रहा था। मीटिंगों का कोई नाम भी नहीं लेता था। यहाँ तक कि मुंगेर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का चुनाव जब सन् 1933 में होने लगा और सभी नेताओं के जेल में बन्द रहने के कारण उस जिले में मेरे दौरे की जरूरत पड़ी तो लोगों को भय था कि मीटिंगें होई न सकेंगी। बड़हिया में पहली और लक्खीसराय में दूसरी मीटिंग की तैयारी थी। उस समय बड़हिया में अतिरिक्त पुलिस डेरा डाले पड़ी थी। जब मैं मीटिंग करने गया तो अफसरों के कान खड़े हो गये। वे सदल-बल मीटिंग में जा जमे। मेरे भाषण के अक्षर-अक्षर नोट किए जा रहे थे। जब मेरा बोलना खत्म हुआ और सबने देखा कि यह तो केवल चुनाव की ही बातें बोल गया जो निर्दोष हैं तब कहीं जाकर उनमें ठण्डक आयी। यही बात कम-बेश लखीसराय में भी पाई गयी।

देश के और बिहार के भी सभी प्रमुख नेता और कार्यकर्त्ता जेलों में बन्द थे। बाहर का मैदान साफ था। सिर्फ मैं बाहर था। कही चुका हूँ कि सन् 1930 ई. में जेल में मैंने जो कुछ कांग्रेसी नेताओं के बारे में देखा था-ठेठ उनके बारे में जो फर्स्ट और सेकण्ड डिविजन में रखे गये थे-उससे मेरा मन जल गया था और मैं कांग्रेसी राजनीति से विरागी बन गया था। क्योंकि कहने के लिए कुछ और व्यवहार में कुछ दूसरा ही पाया। यही सन् 1922 ई. में भी देख चुका था। मैं सोचता कि 1922 की बात तो पहले-पहल की थी। अतः भूलें सम्भव थीं। मगर जब 8-10 साल के बाद बजाय उन्नति के उसमें बुरी अवनति देखी। तो विराग होना स्वाभाविक था। सोचता था, ऐसी संस्था में क्यों रहूँ जिसकी बातें केवल दिखावटी हों और सख्ती के साथ हर हालत में जिसके सदस्यों की नियम-पाबन्दी का कोई इन्तजाम न हो। ऐसी संस्था तो धोखे की चीज होगी और टिक न सकेगी। हम अपने ईमान को धोखा देते-देते जनता को भी जिसकी सेवा का दम हम भरते हैं, धोखा देने लग जायँगे। इसीलिए सन् 1932 ई. में पुराने दोस्तों और साथियों के हजार कहने-सुनने पर भी मैं संघर्ष में न पड़ा। फलतः बाहर ही पड़ा तमाशा देखता था।

बिहार ही ऐसा प्रान्त उस समय था जहाँ कांग्रेस के सिवाय कोई भी सार्वजनिक संस्था जमने पाती न थी। मुसलिम लीग, हिन्दू सभा या लिबरल फिडरेशन तक का यहाँ पता न था। किसान-सभा तो यों बन सकी कि उसमें दूसरे लोग थे ही न। यह भी बात थी कि लोग समझते थे कि यह तो खुद ही खत्म हो जायगी। क्योंकि किसी खास मतलब से ही बनी मानी जाती थी और वह मतलब शीघ्र ही पूरा हो जाने वाला माना जाता था। हर हालत में इसे कांग्रेस के विरुद्ध न जाने देने का इरादा लोगों ने कर लिया था। यही कारण है कि शुरू के 5-6 वर्षों में हमें भी फूँक-फूँक के पाँव देने पड़े थे। और यह सभा भी सन् 1930 के शुरू में ही स्थगित कर दी गयी थी तथा तब तक इसे पुनर्जीवित करने की चेष्टा भी न की गयी थी।

इसलिए सरकार ने, जमींदारों ने, मालदारों ने और उनके दोस्त जी-हुजूरों ने सोचा कि यही सुनहला मौका है। इससे फायदा उठा के एक ऐसी संस्था बना दी जाए जो कांग्रेस का मुकाबिला कर सके। सभी प्रमुख नेता और कार्यकर्त्ता एक तो जेल में थे। दूसरे जो बाहर थे भी उन्हें कांग्रेस की लड़ाई के प्रबन्ध से फुर्सत कहाँ थी कि और कुछ करते या इस नयी संस्था का विरोध करते? जैसा कि जन-आन्दोलन की सनातन रीति है कि दमन होने पर भीतर चला जाता है और ऊपर से नजर नहीं आता, ठीक वही बात कांग्रेस की लड़ाई की थी। वह भी भीतर ही भीतर आग की तरह धक्-धक् जल रही थी इसीलिए उसे चलाने में ज्यादा दिक्कतें थीं। पुलिस परछाईं की तरह सर्वत्र घूमती जो थी पता पाने के लिए, ताकि छपक पड़े। वह इस तरह अनजान में ही अपनी मर्जी के खिलाफ जनता को गुप्त रीति से आन्दोलन चलाने को न सिर्फ प्रोत्साहित कर रही थी, वरन् उसे इस काम में शिक्षित और दृढ़ बना रही थी। आखिर जरूरत पड़ने पर ही तो आदमी सब कुछ कर डालता है। इस तरह देश का आन्दोलन असली क्रान्तिकारी मार्ग पकड़ के जा रहा था। गांधी जी ने जो इसे सन् 1934 ई. के शुरू में ही बन्द कर दिया उसका भी यही कारण था। वे इस बात को ताड़ गये थे। वे समझते थे कि यदि न रोका गया तो उनके और मध्यम वर्ग के हाथों से यह निकल जायगा। और सचमुच जन-आन्दोलन बन जायगा, और ऐसा होने में स्थिर स्वार्थों (Vested interests) की सरासर हानि थी।

हाँ, तो यारों की दौड़-धूप शुरू हो गयी। कभी पटना और कभी राँची में, जहीं पर गवर्नर साहब के चरण विराजते वहीं महाराजा दरभंगा वगैरह बड़े-बड़े जमींदार बार-बार तशरीफ ले जाते, बातें होतीं और सरकार का आशीर्वाद इस मामले में प्राप्त करने की कोशिश होती थी। आशीर्वाद तो सुलभ था ही। मगर सरकार भी देखना चाहती थी कि ये लोग उसके पात्र हैं या नहीं। उसे भी गर्ज तो थी ही कि कांग्रेस की प्रतिद्वन्द्वी कोई भी संस्था खड़ी की जाए। इसलिए बड़ी दौड़-धूप के बाद और महीनों सलाह-मशविरा के फलस्वरूप जहाँ तक याद है, राँची में यह बात तय पायी गयी कि यूनाइटेड पार्टी (संयुक्त दल) के नाम से ऐसी संस्था बनाई जाय। बेशक जमींदारों के भीतर भी इस बारे में दो दल थे जिनके बीच सिर्फ नेतृत्व का झगड़ा था कि कौन इसका नेता बने। मगर नेतृत्व तो सबसे बड़े जमींदार और पूँजीपति महाराजा दरभंगा को ही मिलना था। असल में उनके सहायक और निकट सलाहकार कौन हों यही तय नहीं हो सकता था। आखिरश राजा सूर्यपुरा (शाहाबाद) उनके निकट सलाहकार (मन्त्री) बने। भीतरी मतभेद के रहते हुए भी आपस की दलबन्दी जमींदारों के इस महान् कार्य में-इस महाजाल में-बाधक कैसे हो सकती थी? इस प्रकार यूनाइटेड पार्टी का जन्म हो गया।

इस सम्बन्ध की एक और बात है। जब हमारी प्रान्तीय किसान-सभा पहले- पहल बनी तो पटने के वकील वा. गुरुसहाय लाल भी उसके एक संयुक्त मन्त्री बनाये गये, हालाँकि काम-वाम तो उनने कुछ किया नहीं। असल में तब तक की हालत यह थी कि पुरानी कौंसिल में किसानों के नाम पर जोई दो-चार आँसू बहा देता, दो-एक गर्म बातें बोल देता या ज्यादे से ज्यादा किसान-हित की दृष्टि से काश्तकारी कानून में सुधार के लिए एकाध मामूली बिल पेश कर देता, वही किसानों का नेता माना जाता था। गोया किसान लावारिस माल थे, उनका पुर्सांहाल कोई न था। इसलिए ‘दे खुदा की राह पर’ के मुताबिक जिसने उनकी ओर अपने स्वार्थ साधन के लिए भी जरा नजर उठाई कि वही उनका मुखिया (spokes man) माना जाने लगा। प्रायः सब के सब ऐसे मुखिया जमींदारों से मिले-जुले ही रहते थे और दो-एक गर्म बातें बोल के और भी अपना उल्लू सीधा कर लिया करते थे। ऐसे ही लोगों ने सन् 1929 ई. में भी एक बिल पेश किया था किसानों के नाम पर टेनेन्सी कानून की तरमीम के लिए, जिसके करते जमींदारों ने एक उलटा बिल ठोंक दिया था। फलतः दोनों को ताक पर रख के सरकार ने अपनी ओर से एक तीसरा बिल पेश किया था और उसी के विरोध को तात्कालिक कारण बना के प्रान्तीय किसान को जन्म दिया गया था।

सरकार का हमेशा यही कहना था कि काश्तकारी कानून का संशोधन दोई तरह से हो सकता है-या तो किसान और जमींदार या इन दोनों के प्रतिनिधि मिल-जुल के कोई मसविदा (बिल) पेश करें और उसे पास कर लें, या यदि ऐसा न हो सके तो सरकार ही पेश करे और उसे दोनों मानें। ठीक दो बिल्लियों के झगड़े में बन्दर की पंचायत वाली बात थी। सन् 1929 ई. में भी ऐसा ही हुआ था और दोनों की राय न मिलने के कारण ही सरकार बीच में कूदी थी। मगर जब किसानों के नाम पर किसान-सभा ने उसका जोरदार विरोध किया तो उसने यह कह के उसे वापस ले लिया कि जब किसान-सभा भी इसकी मुखालिफ़ है तो सरकार को क्या गर्ज है कि इस पर जोर दे? इस तरह किसान-सभा ने जनमते ही दो काम किए। एक तो उस बिल को चौपट करवा के किसानों का गला बचाया। दूसरे सरकार को विवश किया कि न चाहते हुए भी किसान-सभा को किसानों की संस्था मान ले।

इसी के मुताबिक सरकार और जमींदारों को भी फिक्र पड़ी कि यूनाइटेड पार्टी को मजबूत बनाने के लिए सबसे पहले उसकी ओर से काश्तकारी कानून का संशोधन कराके किसानों को कुछ नाममात्र के हक दे दिए जायँ। साथ ही, जमींदारों का भी मतलब साधा जाय। मगर अब तक जो तरीका था उसके अनुसार तो जो बिल किसान और जमींदार दोनों की रजामन्दी से पेश न हो उसे सरकार मान नहीं सकती थी। इसीलिए जरूरत इस बात की हुई कि जिस यूनाइटेड पार्टी को बनाया जा रहा है उसमें किसानों के नाम पर बोलने वाले भी रखे जायँ। नहीं तो सब गुड़ गोबर हो जायगा। यूनाइटेड पार्टी का तो अर्थ ही यही था कि जिसमें सभी दल और फिर्के के लोग शामिल हों। उसके जिन खास-खास मेम्बरों की लिस्ट उस समय निकली थी उससे भी मालूम पड़ता था कि सभी धर्म, दल और स्वार्थ के लोग उसमें शरीक है। फलतः उसे ही बिहार प्रान्त के नाम में बोलने का हक है।

अब उसके सूत्रधारों को इस बात की फिक्र पड़ी कि किसानों के प्रतिनिधि कौन-कौन से महाशय इसमें लाए जायँ। उनके सौभाग्य से श्री शिव शंकर झावकील मिल ही तो गये। वे उसी प्रकार के किसान नेता हैं जिनका जिक्र पहले हो चुका है। यह ठीक है कि बाबू गुरुसहाय लाल भी उस पार्टी के साथ थे। मगर चालाकी यह सोची गयी कि अगर खुली तौर पर उनका नाम शुरू में ऐलान किया जाएगा तो बड़ा हो-हल्ला मचेगा और मजा किरकिरा हो जाएगा। वे भी शायद डरते थे। इसलिए तय यह पाया कि वह पहले एक बिहार प्रान्तीय किसान-सभा खड़ी कर दें। पीछे बिल में जो बातें काश्तकारी के संशोधन के लिए दी जाने वाली हों उन्हें यह कह के अपनी सभा से स्वीकार करायें कि इन्हीं शर्तों पर जमींदारों के साथ किसानों का समझौता हुआ है। इसके बाद तो कानून बना के यह दमामा बजाया ही जायगा कि उनने और झा जी ने किसानों को बड़े-बड़े हक दिलाए। इस तरह यूनाइटेट पार्टी की धाक भी किसानों में जम जायगी। क्योंकि पार्टी की ही तरफ से कानून का संशोधन कराया जायगा। साथ ही गुरुसहाय बाबू भी इसका सेहरा पहने-पहनाये उस पार्टी में खुल्लमखुल्ला आ जायँगे!

उनने किया भी ऐसा ही। जिस सभा के एक मन्त्री वह भी थे उसके रहते ही एक दूसरी सभा खड़ी कर देने की हिम्मत उनने कर डाली! पीछे तो गुलाब बाग (पटना) की मीटिंग में यह भी बात खुली कि इस नकली सभा के बनाने में न सिर्फ जमींदारों का इशारा था, प्रत्युत उनके पैसे भी लगे थे। उस समय इस किसान-द्रोह में उनके साथ एकाध और भी सोशलिस्ट नामधारी जमींदारों के साथ षड्यन्त्रा कर रहे थे। खूबी तो यह कि यह सारा काम इस खूबी से चुपके-चुपके किया जा रहा था कि बाहरी दुनिया इसे समझ न सके। यहाँ तक कि पटने से 15-20 मील पर ही बिहटा में मैं मौजूद था। मगर सारी चीज मुझसे भरपूर छिपाई गयी, मुझे खबर देना या मुझसे राय लेना तो दूर रहा। उन्हें असली किसान-सभा का भूत बुरी तरह परेशान जो कर रहा था। वे समझते थे खूब ही, कि यदि इस स्वामी को खबर लग गयी तो विरागी होते हुए भी कहीं ऐसा न हो कि उस पुरानी सभा को ही जाग्रत कर दे जिसने जनमते ही सरकार और जमींदारों से भिड़ के एक पछाड़ उन्हें फौरन ही दी थी। तब तो सारी उम्मीदों पर पानी ही फिर जायगा। इसे ही कहते हैं गरीबों की सेवा और किसान-हितैषिता! खुदा किसानों की हिफाजत ऐसे दोस्तों से करे।

लेकिन आखिर भण्डा फूट के ही रहा और ये बेचारे ‘टुक-टुक दीदम, दम न कसीदम’ के अनुसार हाय मार के रह गये। इनकी किसान-सभा में विपत्ति का मारा न जाने मैं क्यों पहुँच गया जिससे इन पर पाला पड़ गया। वहाँ जब मैंने जमींदारों और जमींदार सभा के लीडरों को देखा तो चौंक पड़ा कि यह कैसी किसान-सभा। मगर जब किसानों के नामधारी नेता उन जमींदार लीडरों को इसीलिए सभा में धन्यवाद देना चाहते थे कि उनने पैसे से सहायता की थी, तो बिल्ली थैले से बाहर आ गयी। आखिर पाप छिप न सका और मैंने मन ही मन कहा कि यह तो भयंकर किसान-सभा है। खुशी है कि वहीं उसका श्राद्ध हो गया और पुरानी सभा जाग खड़ी हुई। इस तरह जो मैं अब तक सभा से उदासीन सा था वही अब फिर सारी शक्ति से उसमें पड़ गया। वे किसान नेता उसके बाद कुछी दिनों में अपने असली रूप में आ गये औैर जमींदारों से साफ-साफ जा मिले। फिर भी किसी की एक न चली और दोई साल के भीतर ऐसा तूफान मचा कि उसमें न सिर्फ यूनाइटेड पार्टी उड़ गयी, बल्कि जमींदारों के मनोरथों पर पानी फिर गया। जो बिल उनने पेश किया उसमें किसान-हित की अनेक बातों को दे के और जहरीली बातें उससे निकाल के उसे कानून का जामा पहनाने के लिए उन्हें मजबूर होना पड़ा। उसी समय से जमींदारों ने अपनी जिरात जमीन के बढ़ाने का पुराना दावा सदा के लिए छोड़ दिया।

इस प्रकार अब तक जो अपने को किसानों के नेता कहते थे ऐसे नये-पुराने सभी लोगों का पर्दाफाश हो गया और वे मुँह दिखाने के लायक भी नहीं रह गये। लोग इस झमेले में भयभीत थे कि कही मैं दबा तो अनर्थ होगा। क्योंकि अब तक के किसान नेताओं तथा जमींदारों की एक गुटबन्दी किसान-सभा के खिलाफ थी। मगर मुझे तो पूरा विश्वास था कि विजय होगी और वह हो के ही रही। साथ ही, चौकन्ना होने की जरूरत भी पड़ी। यह किसान नेताओं का पहला भण्डाफोड़ था। अभी न जाने ऐसे कितने ही भण्डाफोड़ भविष्य के गर्भ में छिपे थे। (8-8-41)

(शीर्ष पर वापस)

5

सन् 1933 ई. में किसान-सभा के पुनर्जीवन के बाद का समय था और मैं दिन-रात बेचैन था कि कैसे यूनाइटेड पार्टी, उसके छिपे रुस्तम दोस्तों और जमींदारों के नाकों चने चबवाऊँ और उनके द्वारा पेश किए गये काश्तकारी कानून के संशोधन को जहन्नुम पहुँचाऊँ। इसीलिए रात-दिन प्रान्त व्यापी दौरे में लगा था। इसी सिलसिले में दरभंगा जिले के मधुबनी इलाके में भी पहुँचा। खास मधुबनी में हाई इंगलिश स्कूल के मैदान में एक सभा का आयोजन था। किसानों की और शहर वालों की भी अपार भीड़ थी। मैंने खूब ही जम के व्याख्यान दिया जिसमें किसानों के गले पर फिरने वाली महाराजा दरभंगा तथा अन्य जमींदारों की तीखी तलवार का हाल कह सुनाया। देखा कि किसानों का चेहरा खिल उठा, मानो उन्हीं के दिल की बात कोई कह रहा हो।

लेकिन किसानों के नेता बन जाने पर भी अभी मुझे उनकी विपदाओं की असलियत का पता था कहाँ? मैं तो यों ही सुनी-सुनाई बातों पर ही जमीन और आसमान एक कर रहा था। बात दरअसल यह है कि किसानों और मजदूरों का नेता इतना जल्द कोई बन नहीं सकता। जिसे उनके लिए सचमुच लड़ना और संघर्ष करना है उसे तो सबसे पहले उनमें घूम-घूम के उन्हीं की जबानी उनके दुःख-दर्दों की कहानी सुनना चाहिए। यह बड़ी चीज है जरा चाव से उनकी दास्तान सुनिये और देखिये कि आप उनके दिलों में घुस जाते हैं या नहीं, उनके साथ आपका गहरा नाता फौरन जुट जाता है या नहीं यही इसका रहस्य है।

हाँ, तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब किसानों के मध्य से ही एक चन्दन टीका वाले ने उठ के सभा के बाद ही अपनी राम कहानी सुनाई-अपनी यानी किसानों की। तब तक मोटा-मोटी समझा जाता था कि ज्यादातर मजलूम किसान तथाकथित पिछड़ी जातियों के ही होते हैं। कम-से-कम यह खयाल तो था ही कि मैथिल ब्राह्मणों का एकच्छत्र नेता माने जाने वाला महाराजा दरभंगा उन ब्राह्मण किसानों के साथ रिआयत तो करता ही होगा-दूसरे किसानों को हाँकने के लिए बनी लाठी से उन्हें भी हाँकता न होगा। नहीं तो सभी मैथिल उसे नेता क्यों मानते? क्या अपने शोषक और शत्रु को कोई अपना मुखिया मानता है?

मगर उस किसान ने कहा कि मैं मैथिल ब्राह्मण हूँ और महाराजा का सताया हूँ मेरे गाँव या देहात में या यों कहिये कि इस मधुबनी के इलाके में बरसात के दिनों में हमारे नाकों दम हो जाती है, हम अशरण हो जाते हैं। यही हालत महाराजा की सारी जमींदारी की है। हमारे यहाँ पानी बहुत बरसता है, नदी-नाले भी बहुत हैं। फलतः सैलाब (बाढ़) का पदार्पण रह-रह के होता रहता है जिससे हमारी फसलें तो चौपट होती ही हैं, हमारे झोंपड़े और मकान भी डूब जाते हैं, पानी के करते गिर जाते हैं। पानी रोकने के लिए जगह-जगह बाँध बने हैं। यदि वे फौरन जगह-जगह काट दिये जायँ तो चटपट पानी निकल जाय और हम, हमारे घर, हमारे पशु, हमारी खेती सभी बच जायँ। मगर हम ऐसा नहीं कर सकते। महाराजा की सख्त मनाही है।

मैंने पूछा, क्यों? उसने उत्तर दिया कि यदि पानी बह जाय तो मछलियाँ कैसे पैदा होंगी? वह जमा हो तो पैदा हों। जितना ही ज्यादा दूर तक पानी रहेगा, सो भी देर तक जमा रहेगा, उतनी ही अधिक मछलियाँ होंगी और उतनी ही ज्यादा आमदनी महाराजा को जल-कर से होगी। सिंघाड़े वगैरह से भी आय होगी ही। यह जल-कर उनका कानूनी हक है यदि हम लोग न मानें और जान बचाने के लिए पाटी काट दें तो हम पर आफत आ जाय। हम सैकड़ों तरह के मुकदमों में फँसा के तबाह कर दिये जायँ। उनके अमलों और नौकरों की गालियों की तो कुछ कहिये मत। उनकी लाल आँखें तो मानो हमें खाई जायँगी।

उसने और भी कहा कि जब यहाँ सर्वे सेट्लमेण्ट हुआ तो हम किसानों को कुछ ज्ञान था नहीं। हम उसका ठीक-ठीक मतलब समझ सकते न थे। बस, हमारी नादानी से फायदा उठा के अपने पैसे और प्रभाव के बल पर महाराजा ने सर्वे के कागजों में यह दर्ज करवा दिया कि जमीनों पर तो किसानों का रैयती हक है। मगर उनमें लगे पेड़ों में जमींदार का हक आधा या नौ आने और हमारा बाकी। नतीजा यह होता है कि अपने ही बाप-दादों के लगाये पेड़ों से न तो एक दतवन और न एक पत्ता तोड़ने का हमें कानूनी हक है। यदि कानून की चले तो हर दतवन और हर पत्ते के तोड़ने की जब-जब जरूरत हो तब-तब हमें उनसे मंजूरी लेनी होगी, जो आसान नहीं। इसमें उनके नौकरों को घूस देने और उनकी पूजा-प्रतिष्ठा करने की बड़ी गुंजाइश है। इसीलिए जब तक वे खुश हैं तब तक तो ठीक। मगर ज्योंही किसी भी वजह से वे जरा भी नाखुश हुए कि हम पर मुकदमों की झड़ लग गयी और हम उजड़े। नहीं तो काफी रुपये-पैसे दे के सुलह करने को विवश हुए। मगर इस तरह भी हमारी जमीनें बिक जाती हैं। क्योंकि हमारे पास पैसे कहाँ? पीछे चल के तो हमें इस बात के हजारों प्रत्यक्ष उदाहरण मिले जिनमें किसान-सभा के कार्यकर्त्ता इसी कारण परेशान किये गये कि उनने क्यों महाराजा की जमींदारी में सभा करने की हिम्मत की।

उसने यह भी कहा, और पीछे तो दरभंगा, पूर्णिया, भागलपुर के किसानों ने खून के आँसुओं से यही बात बताई, कि चाहे हमारे घर में पड़े मुर्दे सड़ जायँ, मगर उन्हें जलाने के लिए लकड़ी तोड़ने या काटने की इजाजत उन पेड़ों से नहीं है जो सर्वे के समय थे। यही नहीं। सर्वे के वक्त के पेड़ चाहे कभी के खत्म क्यों न हों और उनकी जगह नये ही क्यों न लगे हों। फिर भी हम उन्हें काट नहीं सकते बिना महाराजा के हुक्म के। क्योंकि इसका सबूत क्या है कि पुराने पेड़ खत्म हो गये और नये लगे हैं। इसका हिसाब तो सरकार या जमींदार के घर लिखा जाता नहीं और किसानों की बातें कौन माने? वे तो झूठे ठहरे ही। ईमानदारी और सच्चाई तो रुपयों के पास कैद है न? इसीलिए आज कानून के सुधार होने पर भी, जब कि किसानों को अपने लगाये पेड़ों में पूरा हक प्राप्त है, यह दुर्दशा बनी ही रहती है। क्योंकि पुराने पेड़ों में तो बात ज्यों-की-त्यों है।

इस प्रकार एक दर्दनाक नज्जारा एकाएक हमारी आँखों के सामने खड़ा हो गया और हम ठक्क से रह गये। सोचा कि धर्म-कर्म और जाति-पाँति की ठेकेदारी लेने वाले ये जमींदार और राजे-महाराजे, क्योंकि महाराजा दरभंगा भारत धर्म महामण्डल के सभापति थे, इन अपने अन्नदाता मनुष्यों को मछलियों से भी गये-बीते मानते हैं। उफ, कितना अनर्थ है और यह कानून है या धोखे की टट्टी या गरीबों के पीसने की मशीन जाति-सभा और धर्म मण्डलों का रहस्य खुल गया और हमने पहले-पहल उनका नग्न रूप देखा। हमने माना कि जमींदारों और मालदारों का धर्म और भगवान् और कोई नहीं है, सिवाय रुपये और शान के। हमें यह भी पता चल गया कि उनकी बाहरी जाति और धर्म केवल दिखावटी चीजें हैं ताकि लोग आसानी से ठगे जायँ। मगर असली जाति और धर्म कुछ और ही चीजें हैं। हमें यह भी विश्वास हो गया कि किसान-किसान सब एक हैं, जमींदार सबों को एक ही लाठी से हाँकता है, यों कहने के लिए ये ऊँच-नीच जाति के भले ही हों। इसी में उनके उद्धार की आशा की झलक भी हमें साफ मालूम पड़ी।

(शीर्ष पर वापस)

6

उन्हीं दिनों मधुबनी के निकट ही उससे पच्छिम मच्छी नामक मौजे में एक बार मीटिंग की तैयारी हुई। खूबी तो यह कि दूसरे जिलों के भी कुछ प्रमुख कार्यकर्त्ता और किसान-सभा के पदाधिकारी निमन्त्रिात किये गये थे। हमें सार्वजनिक मीटिंग के अलावे किसान-सभा की स्वतन्त्रा मीटिंग भी करनी और कई महत्त्वपूर्ण बातों पर विचार करना था। उस मौजे में बा. चतुरानन दास रहते थे। अभी दो ही तीन साल हुए कि वे मरे हैं। दरभंगा जिले और मधुबनी इलाके के वे एक बड़े नेता तथा कांग्रेस-कर्मी माने जाते थे। स्वराज्य की लड़ाई के योद्धाओं में उनकी गिनती थी-उस स्वराज्य के योद्धाओं में जिसे गांधी जी ने दरिद्रनारायण का स्वराज्य कहा था और जिसकी दुहाई कांग्रेस के सभी बड़े लीडर देते थे, अब भी देते हैं। हमें भी इस बात की खुशी थी कि ऐसे बड़े किसान-सेवक के यहाँ सभा करनी है। हमें यकीन था कि हमें वहाँ पूरी सफलता मिलेगी।

हम लोग मधुबनी से लद-फँद के वहाँ जा धमके। हमारे कुछ साथी तो चतुरानन बाबू के यहाँ ठहरे भी थे। मगर हम तो मधुबनी में ही खा-पी के ठेठ सभा स्थान में पहुँचे थे। हमारे साथ कुछ और भी किसान-सेवक थे। मगर वहाँ जाते ही हमें मालूम हुआ कि मामला बेढब है लक्षणों से झलक रहा था कि हमारी मीटिंग में महाराजा दरभंगा की ओर से बाधा डाली जायगी। धीरे-धीरे यहाँ तक पता लग गया कि उनके आदमियों ने तय कर लिया है कि चाहे जैसे हो मीटिंग होने न दी जाय। हम घबराये सही। मगर आखिर मीटिंग तो करनी ही थी। यदि वहाँ से बिना मीटिंग के ही हट जाते तो उन्हें हिम्मत जो हो जाती। फिर तो बिहार प्रान्त के सभी जमींदारों के हौसले बढ़ जाते और हमारा काम ही खत्म हो जाता। इसीलिए हम अपने साथियों के साथ सभा स्थान में डँटे रहे। इस बात की इन्तजार भी हम कर रहे थे कि किसान आ जायँ तो मीटिंग हो। बा. चतुरानन दास भी न आये थे। उनकी भी प्रतीक्षा थी।

मगर हमें पता लगा कि जमींदार ने पूरी बन्दिश की है कि कोई भी मीटिंग में न आये। चारों ओर धमकी के सिवाय तरह-तरह की झूठी अफवाहें फैलाई गयी हैं कि सभा में गोली चलेगी, मार-पीट होगी, गिरफ्तारी होगी। यह भी कहा गया है कि जाने वालों का नाम दर्ज कर लिया जायगा और पीछे उनकी खबर ली जायगी। इसके सिवाय सभा स्थान के चारों ओर कुछ दूर से ही पिकेटिंग हो रही है कि कोई आये तो लौटा दिया जाय। रास्ते में और जगह-जगह पर उनके दलाल बैठे हुए हैं जो लोगों को रोक रहे हैं। सारांश, मीटिंग रोकने का एक भी उपाय छोड़ा नहीं गया है।

हम इन सब बातों के लिए तो तैयार थे ही; आखिर जमींदारों के न सिर्फ स्वार्थ का सवाल था, बल्कि उनकी शान भी मिट्टी में मिल रही थी। आइन्दा उनकी हस्ती भी खतरे में थी ऐसा सोचा जा रहा था। मगर सबसे बड़ी बात यह थी कि हिन्दुस्थान में सबसे बड़े जमींदार महाराजा दरभंगा की ही जमींदारी में हम जा डटे थे। महाराजा लाठी मारे काले नाग की तरह फू-फू कर रहे थे। उनकी नाक जो कट रही थी। वे डर रहे थे कि मजलूम इलाका सभा में ऐसा टूट पड़ेगा, जैसा कि पहले की मीटिंगों में उनने देखा था। नतीजा यह होगा कि दुखिया किसानों की आँखें खुल जायँगी। इसलिए अगर जान पर खेल के उनके नौकर-चाकरों और टुकड़खोरों ने हमारी मीटिंग रोकना चाहा तो इसमें आश्चर्य की बात क्या थी? (9-8-41)

उन लोगों ने यह किया सो तो किया ही। मगर खास चतुरानन जी के मकान पर भी चढ़ गये और उन्हें तरह-तरह से धमकाया। आखिर वह भी तो महाराजा की ही जमींदारी में बसते थे। उनके घर घेरा डाले वे सब पड़े रहे। नतीजा यह हुआ कि चतुरानन जी मीटिंग का प्रबन्ध और उसकी सफलता की कोशिश तो क्या करेंगे, खुद मीटिंग में आने की हिम्मत न कर सकते थे। इस प्रकार ज्यादा देर होने पर हम घबराये। जब बार-बार खबर भेजी तो बड़ी मुश्किल से आये। मगर चेहरा फक्क था। सारी आई-बाई हजम थी। जब नेताओं की यह हालत थी तो किसानों का क्या कहना? बड़ी दिक्कत से कुछी लोग आ सके थे।

मगर जमींदार के दलाल और गुण्डे हमारी मीटिंग में भी आ गये और शोरगुल मचाना शुरू कर दिया। कभी ‘महाराजा बहादुर की जय’ चिल्लाते, तो कभी मुँह बनाते थे। उनकी खुशकिस्मती से हमारी इस मीटिंग के आठ-दस साल पूर्व उस इलाके में और बीहपुर (भागलपुर) में भी तथा और भी एकाध जगह एक हजरत किसान लीडर बन के किसानों को धोखा दे चुके थे। उनका नाम था असल में मुंशी घरभरनप्रसाद। वे निवासी थे सारन जिले के। मगर अपने को प्रसिद्ध किया था उनने स्वामी विद्यानन्द के नाम से। उनने एक तो किसानों को धोखा दे के कौंसिल चुनाव में वोट लिया था। दूसरे उनसे पैसे भी खूब ठगे थे। पीछे तो जमींदारों से भी जगह-जगह उनने काफी रुपये ले के अपना प्रेस मुजफ्फरपुर में चला लिया। फिर लापता हो गये। पीछे सुना, बम्बई चले गये। एक बार जब पटना शहर (गुलाब बाग) की सभा में उनका दर्शन अकस्मात् मिला था तो सिर पर गुजरातियों की ऊँची टोपी नजर आयी थी।

हाँ, तो महाराजा के आदमियों ने चारों ओर और उस मीटिंग में भी हल्ला किया कि एक स्वामी पहले आये तो हमें महाराजा से लड़ाके खुद उनने रुपये ले लिये। अब ये दूसरे स्वामी वैसे ही आये हैं। यह भी हमारी लड़ाई महाराजा से कराके अपना उल्लू सीधा करेंगे और पीछे हम पिस जायँगे आदि-आदि। मुझसे भी वे लोग कुछ इसी तरह के सवाल करते थे। कहते थे कि हम किसान-सभा नहीं चाहते। आप जाइये, हमें यों ही रहने दीजिये। मीटिंग में जितने श्रोता होंगे उतने ये गुलगपाड़ा मचाने वाले थे। जब हम बोलने उठते तो वे बहुत ज्यादा शोर मचाते। यह पहला नजारा था जो हमें देखने को मिला। मगर हम भी तो वैसे ही हठी निकले। वहाँ से भागने के बजाय जैसे-तैसे मीटिंग करके ही हटना हमने तय किया और यही किया भी। आखिर वे कब तक बोलते रहते?

इस प्रकार हमने सभा तो कर ली। लेकिन हमें बड़ा कटु अनुभव उन नेताओं के बारे में हुआ जो दिल से किसानों के लिए काम न करते हों, जो उन्हीं के लिए मरने-जीने वाले न हों। ऐसे लोग मौके पर टिक नहीं सकते और फिसल जाते हैं। इस बात का ताजा नमूना हमें मच्छी में मिल गया। यह ठीक है कि इस मीटिंग के बाद हमने बाबू चतुरानन दास की आशा छोड़ दी। ऐसे लोग तो बीच में ही नाव को डुबा देते हैं। यह भी ठीक है कि जमींदार के आदमी भी दंग रह गये हमारी मुस्तैदी देख के। उनके भी जोश में कुछ ठण्डक आयी। हालाँकि उसके बाद मधुबनी इलाके की एक मीटिंग में और भी उनकी कोशिश हुई कि वह न हो सके। मगर पहली बात न रही। बहेरा, मधेपुर के इलाकों में भी कई मीटिंगों में उन लोगों ने बाधाएँ डालीं। मगर हम तो आगे बढ़ते ही गये और वे दबते गये। यह सही है कि मच्छी जैसी हालत हमारी मीटिंगों की और कहीं न हुई। (10-8-41)

(शीर्ष पर वापस)

7

सन् 1939 ई. की बरसात थी। दरभंगा जिले के मधुबनी इलाके में ही सकरी स्टेशन से दो मील के फासले पर सागरपुर मौजे में किसानों का संघर्ष जारी था। दरभंगा महाराज की ही जमींदारी है। सागरपुर के पास में ही पण्डौल में उनका ऑफिस है। वहीं पर हजारों बीघे में ट्रैक्टर की सहायता से उनकी खेती भी होती है। वहाँ चीनी की कई मिले हैं जिनमें महाराजा का भी बड़ा शेयर कुछेक में है। सकरी में ही एक मिल है। इसलिए हजारों बीघे में ऊख की खेती करने से जमींदार को खूब ही लाभ होता है। दूसरी चीजों की भी खेती होती है। इसीलिए जमींदार की इच्छा होती है कि अच्छी-अच्छी जमीनें किसानों के हाथों से निकल जायँ तो ठीक। लगान दे सकना तो हमेशा मुमकिन नहीं होता। इसीलिए जमीनें नीलाम होई जाती हैं। मगर पहले जमींदार लोग खुद खेती में चसके न थे। इसीलिए घुमा-फिरा के जमीनें फिर किसानों को ही दी जाती थीं। हाँ, चालाकी यह की जाती थी कि जो लगान गल्ले के रूप में या नगद उनसे इन जमीनों की ली जाय उसकी साफष्-साफष् रसीदें उन्हें न दी जाकर गोल-मोल ही दी जायँ, ताकि मौके पर जमीनों पर किसान दावा करने पर भी सबूत पेश न कर सकें कि वही जोतते हैं। कारण, सबूत होने पर कानून के अनुसार उन पर उनका कायमी रैयती हक (occupancy right) हो जाता है। यही बात सागरपुर की जमीनों के बारे में भी थी।

वहाँ की बकाश्त जमीनों को जोतते तो थे किसान ही। इसीलिए उन पर उनका दावा स्वाभाविक था। कोई भी आदमी जरा सी भी अक्ल रखने पर बता सकता था कि बात यही थी भी। गाँव के तीन तरफ करीब-करीब ओलती के पास तक की जमीनें नीलाम हुई बताई जाती थीं। किसानों के बाहर निकलने का भी रास्ता न था। यदि ज़मीनें उनकी न होतीं तो ओलती कहाँ गिरती? जमींदार अपनी जमीन में ऐसा होने देता थोड़े ही। उनके पशु मवेशी भी आखिर कहाँ जाते? क्या खाते थे। जो ग्वाले लोग पास के टोले में बसे थे उनकी तो झोंपड़ियाँ उन्हीं जमीनों में थीं। भला इससे बड़ा सबूत और क्या चाहिए?

एक बात और थी। महाराजा की खेती ट्रैक्टर से होती है और उसके लिए बड़े-बड़े खेत चाहिए। छोटे-छोटे खेतों में उसका चलना असम्भव है। मगर कोई भी देखने वाला बता सकता था कि अभी तक छोटे-छोटे खेत साफ नजर आ रहे थे। खेतों के बीच की सीमाएँ (मेंड़ें) साफ-साफ नजर आती थीं। बेशक, उन सीमाओं के मिटाने की कोशिश जमींदार ने जबर्दस्ती की थी और सभी खेतों पर ट्रैक्टर चलवा के उन्हें एक करना चाहा था। मगर हमने खुद जाके देखा कि खेत अलग-अलग साफ ही नजर आ रहे थे। असल में एकाध बार के जोतने से ही वे सीमाएँ मिट सकती नहीं हैं। कम-से-कम दस-पाँच बार जोतिये तो मिटेंगी। मगर यहाँ तो कहने के लिए एक बार ट्रैक्टर घुमा दिया गया था। फिर भी इतने से आँख में धूल झोंकी जा सकती न थी।

हाँ, तो सागरपुर में बकाश्त संघर्ष के इस सिलसिले में मुझे दो बार जाना पड़ा था। दोनों बार ऐसी जबर्दस्त मीटिंगें हुईं कि जमींदार के दाँत खट्टे हो गये। एक बार तो भरी सभा में ही जमींदार के आदमी कुछ गड़बड़ी करना चाहते थे। उनने कुछ गुल-गपाड़ा करने या सवाल-जवाब करने की कोशिश की भी। हिम्मत तो भला देखिये कि दस-बीस हजार किसानों के बीच में खड़े होकर कुछ आदमी शोरगुल करें। जोश इतना था कि किसान उन्हें चटनी बना डालते। मगर इसमें तो हमारी ही हानि थी। शत्रु लोग तो मार-पीट चाहते ही थे। उससे उनने दो लाभ सोचा था। एक तो मीटिंग खत्म हो जाती। दूसरे झूठ-सच मुकद्दमों में फँसा के सभी प्रमुख लोगों को परेशान करते। इसलिए हमने यह बात होने न दी और किसानों को शान्त रखा। अन्त में हार के वे लोग चलते बने जब समूह का रुख बुरा देखा। मीटिंग में मौजूद पुलिस तथा दूसरे सरकारी अफष्सरों से भी हमने कहा कि आखिर दस-बीस ही लोग ऊधम करें और आप लोग चुप्प रहें यह क्या बात है? इस पर उन लोगों ने भी उन्हें डाँटा। अब वे लोग करते क्या? मजबूर थे।

मगर दूसरी बार तो उन लोगों ने दूसरा ही रास्ता अख्तियार किया। इस बार पहले ही से सजग थे। ज्योंही हम स्टेशन से उतरे और हमारी सवारी आगे बढ़ी कि एक बड़ा सा दल टुकड़खोरों का बाहर आया। सकरी में ही पुलिस का एक दल पड़ा था। बकाश्त की लड़ाई में धर-पकड़ करने के लिए उसकी तैनाती थी। हम जब सकरी से बाहर डाक बँगले से आगे बढ़े कि शोरगुल मचाने वाले बाहर आ गये। जानें क्या-क्या बकने लगे। ‘महाराजा बहादुर की जय’, ‘किसान-सभा की क्षय’, ‘स्वामी जी लौट जाइये, हम आपके धोखे में न पड़ेंगे’, ‘झगड़ा लगाने वालों से सावधान’ आदि पुकारें वे लोग मचाते थे। मजा तो तब आया जब हम आगे बढ़े और हमारे पीछे वे लोग दौड़ते जाते और चिल्लाते भी रहते। अजीब सभा थी। वह तमाशा देखने ही लायक था। वैसी बात हमें और कहीं देखने को न मिली। उनने लगातार हमारा पीछा किया। यहाँ तक कि गाँव के किनारे तक आ गये। मगर जब हम गाँव के भीतर चले तो वे लोग दूसरी ओर मुड़ गये। पता चला कि पास में ही जो महाराजा की कचहरी है वहीं चले गये इस बात का प्रमाण देने कि उनने खूब ही पीछा किया, गाँव तक न छोड़ा। इसलिए उन्हें पूरा मिहनताना मिल जाना चाहिए। जमींदार की खैरखाही जो जरूरी थी ही। हमने यह भी देखा कि कुत्तों की तरह भौंकने और हमारा पीछा करने वालों में टीका-चन्दनधारी ब्राह्मण काफी थे।

हमें हँसी आती थी और उनकी इस नादानी पर तरस भी होता था। मधुबनी वाले उस ब्राह्मण किसान के शब्द हमारे कानों में रह-रह के गूँजते थे। हम सोचते कि आखिर यह भी उसी तरह के गरीब और मजलूम हैं। मगर फर्क यही है कि चाहे उसकी जमीन वगैरह भले ही बिकी हो, मगर आत्मा और इज्जत न बिकी थी। उसने अपना आत्मसम्मान बचा रखा था। मगर इनने तो अपना सब कुछ जमींदार के टुकड़ों पर ही बेच दिया है। इसीलिए जहाँ इनसे कोई आशा नहीं, तहाँ उससे और उसके जैसों से हमें किसानों के उद्धार की आशा है।

हम यह कहना भूली गये कि सागरपुर में उस समय दरभंगा जिला-किसान कॉन्फ्रेंस थी। इसलिए किसानों के सिवाय जिले भर के कार्यकर्त्ताओं का भी काफी जमाव था। प्रस्ताव तो अनेक पास हुए। स्पीचें भी गर्मागर्म हुईं। यों तो मैं खुद काफी गर्म माना जाता हूँ और मेरी स्पीचें बहुत ही सख्त समझी जाती हैं। मगर जब वहाँ मैंने दो-एक जवाबदेह किसान-सभावादियों की तकरीरें सुनीं तो दंग रह गया। मालूम होता था, उनके हाथ में सभी किसान और सारी शक्तियाँ मौजूद हैं। फलतः वे जोई चाहेंगे कर डालेंगे। इसीलिए महाराजा दरभंगा को रह-रहके ललकारते जाते थे। मानो वह कच्चे धागे हों कि एक झकोरे में ही खत्म हो जायँगे। दस-बारह साल तक काम कर चुकने के बाद जब कि किसान आन्दोलन किसान संघर्ष में जुटा हो, ठीक उसी समय ऐसी गैरजवाबदेही की बातें सुनने को मैं तैयार न था। फलतः अपने भाषण में मैंने इसके लिए फटकार सुना दी और साफ कह दिया कि दरभंगा महाराज ऐसे कमजोर नहीं हैं जैसा आपने समझ लिया है।

मेरे इस कथन पर जब जमींदारों के अखबार ‘इण्डियन नेशन’ में टीका-टिप्पणी निकली तो मुझे और भी हैरत हुई और हँसी आयी, लिखा गया कि स्वामी जी डर गये हैं। सच्ची बात तो यह है कि जमींदार इतने नादान हैं कि मेरी बात का मतलब न समझ सकेंगे, इसके लिए मैं तैयार न था। किस आधार पर मुझे डरा हुआ माना गया मैं आज तक समझ न सका।

(शीर्ष पर वापस)

8

सन् 1936 ई. की गर्मियों की बात थी। लखनऊ कांग्रेस से लौटकर मैं मुंगेर जिले के सिमरी बखतियारपुर में मीटिंग करने गया। उसके पहले एक बार भूकम्प के बाद वहाँ गया था। सैलाब बड़े जोरों का था। वहाँ तो बाढ़ आती है कोशी की कृपा से और यह नदी ऐसी भयंकर है कि जून में ही तूफान मचाती है। उसने उस इलाके को उजाड़ बना दिया है। पहली यात्रा में बाढ़ का प्रकोप और लोगों की भयंकर दरिद्रता देख के मैं दंग था। मेरा दिल रोया। मेरे कलेजे में वह बात धँस गयी। वहाँ के लोगों और कार्यकर्त्ताओं से जो कुछ मैंने सुना उससे तय कर लिया कि दूसरी बार इस इलाके में घूमना होगा। तभी अपनी आँखों असली हालत देख सकूँगा।

इसीलिए बरसात आने के बहुत पहले सन् 1936 ई. की मई में ही, जहाँ तक याद है, मैं वहाँ गया। इस बार खास बखतियारपुर के अलावे धेनुपुरा, केबरा आदि में भी मीटिंगों का प्रबन्ध था। मगर आसानी से उन जगहों में पहुँच न सकते थे। कड़ाके की गर्मी पड़ रही थी और सभी जगह पानी की पुकार थी। मगर उस इलाके में बिना नाव के घूमना असम्भव था। कोसी माई की कृपा से सारी जमीनें पानी के भीतर चली गयी हैं। जिधर देखिये उधर ही सिर्फ जल नजर आता था। समुद्र में बने टापुओं की ही तरह गाँव नजर आते थे। गाँव के किनारे थोड़ी-बहुत जमीन नजर आती थी, जहाँ थोड़ी सी खेती हो सकती थी। बाकी तो निरा जल ही था। लोग मछलियों और जल-जन्तुओं को खा के ही ज्यादातर गुजर करते हैं। अन्न तो उन्हें नाममात्र को ही कभी-कभी मिल जाता है, सो भी केवल कदन्न, जिसे जमींदारों के कुत्ते सूँघना भी पसन्द न करेंगे, खाना तो दूर रहा। उस इलाके में कुछी दूर बैलगाड़ी पर चल के बाकी सर्वत्र केवल नाव पर या पैदल ही यात्रा करनी पड़ी जहाँ पानी न था वहाँ घुटने तक कीचड़ होने के कारण बैलगाड़ी का चलना भी तो असम्भव था।

हाँ, यह कहना तो भूली गये कि उस इलाके के सबसे बड़े और चलते-पुर्जे जमींदार हैं बखतियारपुर के चौधरी साहब। उनका पूरा नाम है चौधरी मुहम्मद नजीरुलहसन मुतवली। वहाँ एक दरगाह है बहुत ही प्रसिद्ध और उसी के मुताल्लिक एक खासी जमींदारी है जिसकी आमदनी कुल मिला के उस समय सत्तर अस्सी हजार बताई जाती थी। चौधरी साहब उसी के मुतवली या अधिकारी हैं। इस प्रकार मुसलमानों की धार्मिक सम्पत्ति के ही वह मालिक हैं और उसी का उपभोग करते हैं। बड़े ठाटबाट वाले शानदार महल बने हैं। हाथी, घोड़े, मोटर वगैरह सभी सवारियाँ हैं। शिकार खेलने में आप बड़े ही कामिल हैं, यहाँ तक कि गरीब किसानों की इज्जत जान और माल का भी शिकार खेलने में उन्हें जरा भी हिचक नहीं, बशर्त्ते कि उसका मौका मिले। और जालिम जमींदारों को तो ऐसे मौके मिलते ही रहते हैं। उन जैसे जालिम जमींदार मैंने बहुत ही कम पाये हैं, यों तो बिना जुल्म ज्यादती के जमींदारी टिकी नहीं सकती। मेरी तो धारणा है कि किसानों और किसान-हितैषियों को, किसान-सेवकों को मिट्टी के बने जमींदार के पुतले से भी सजग रहना चाहिए। वह भी कम खतरनाक नहीं होता। और नहीं, तो यदि कहीं देह पर गिर जाये तो हाथ-पाँव तोड़ ही देगा।

चौधरी की जमींदारी में मैं बहुत घूमा हूँ। किसानों के झोंपड़े-झोंपड़े में जाके मैंने उनकी विपदा आँखों देखी है और एकान्त में उनके भीषण दुख-दर्द की कहानियाँ सुनी हैं। दिल दहलाने वाली घटनाओं को सुनते-सुनते मेरा खून खौल उठा है। जमींदार ने किसानों को दबाने के लिए सैकड़ों तरीके निकाल रखे हैं। कूटनीति के तो वे हजरत गोया अवतार ही ठहरे। भेदनीति से खूब ही काम लेते हैं। सैकड़ों क्या हजारों तो उनके दलाल हैं जो खुफिया का भी काम करते हैं। किसान उनके मारे तो हईं। वे चुपके से क्या बातें करते हैं इसका भी पता बराबर लगाया जाता है। हमारे पीछे भी उनके गुप्तचर काफी लगे थे। इसलिए हमें सतर्क होके बहुत ही एकान्त में बातें करने और उनकी हालत जानने की जरूरत हुई। फिर भी गरीब और मजलूम किसान इतने भयभीत थे कि गोया हवा से भी डरते थे। किसी में भी हिम्मत रही नहीं गयी है। जरा भी शिकायत की कि न जाने कौन सी भारी बला कब सिर पर आ धमकेगी और चौधरी की जाल में फँस के मरना होगा, सो भी घुल घुल के।

जिन किसानों के झोंपड़े भी उजड़े हैं और जिनसे वृष्टि तथा धूप छन-छन के भीतर आती है, जिनके तन पर वस्त्रा तक नदारद, जिनने अपनी लज्जा बचाने का काम हजार टुकड़ों से बने चिथड़ों से ले रखा है, जिन्हें अन्न शायद ही छठे-छमास मयस्सर होता हो प्रायः उन्हीं से साल में पूरे अस्सी हजार रुपये की वसूली मामूली बात नहीं है। बालू से तेल और पत्थर से दूध निकालना भी इसकी अपेक्षा आसान बात है। किन-किन उपायों और तरीकों से ये रुपये वसूल होते हैं यदि इसका ब्योरा लिखा जाय तो पोथा तैयार हो जायगा। इसलिए नमूने के तौर पर ही कुछ बातें लिखी जाती हैं।

उसी इलाके में मुझे पहले-पहल पता चला कि पहले चौधरी की जमींदारी में चार चीजों की ‘मोनोपली’ (monopaly) थी। यानी चार चीजों पर उनका सर्वाधिकार था और उनकी मर्जी के खिलाफ ये चीजें बिक न सकती थीं। नमक, किरासन तेल, नया चमड़ा और सुँगठी मछली यही हैं वे चार चीजें। इनमें सिर्फ नमक की मोनोपली मेरे जाने के समय उठ चुकी थी। बाकी तीन तो थीं ही, जो मेरे आन्दोलन के करते खत्म हुईं। अपनी लम्बी जमींदारी के भीतर उनने सबों को यह कह रखा था कि बिना उनकी मर्जी के कोई आदमी नमक, किरासन इन दो चीजों की बिक्री कर नहीं सकता। फलतः किसी को हिम्मत न थी। और जमींदार साहब किन्हीं एक-दो मोटे असामियों से दो-चार हजार रुपये ले के उन्हीं को बेचने का हक देते थे। नतीजा यह होता था कि वे ठेकेदार ये दोनों चीजें और जगहों की अपेक्षा महँगी बेचते थे। क्योंकि ठेके वाला पैसा तो वसूल कर लेते ही थे एकाधिकार होने से दाम और भी चढ़ा देते थे। मैंने पूछा तो पता चला कि जो किरासन तेल और जगह पाँच पैसे में मिलता है वही उस जमींदारी में सात-आठ पैसे में। उफ्, यह लूट!

अगर कोई आदमी बाहर से यह तेल लाये तो उसकी सख्त सजा होती और जाने उसे क्या-क्या दण्ड देने पड़ते थे। इसीलिए तो इस बात का पहरा दिया जाता था कि कोई बाहर से ला न सके। दो-चार को सख्त दण्ड देने पड़े तो उसका भी नतीजा कुछ ऐसा होता है कि दूसरों की भी हिम्मत जाती रहती है। यह गैरकानूनी काम सरेआम चलता था। यह भी नहीं कि पुलिस दूर हो। वहीं थाना भी तो है। फिर भी इस सीनाजोरी का पता चलता न था। चले भी क्यों? आखिर किसी को गर्ज भी तो हो। किसानों को या गरीबों को गर्ज जरूर थी। मगर उनकी कौन सुने? धनी लोग तो बाहर से ही टिन मँगा लेते थे। और वहाँ धनी हैं भी तो इने-गिने ही। बनिये वगैरह तो डर के मारे चूँ भी नहीं करते थे। चौधरी के रैयत चाहे धनी हों या गरीब उनकी आज्ञा के विरुद्ध जाते तो कैसे? मगर सरकार को इस धाँधली का पता क्यों न चला जब तक मैं वहाँ न गया, यह ताज्जुब की बात जरूर है।

नमक की बिक्री पर भी पहले चौधरी का एकाधिकार जरूर था। लेकिन सन् 1930 ई. वाले नमक सत्याग्रह के चलते वह जाता रहा। जब लोग सरकार की भी बात सुनने को तैयार न थे और कानून की धज्जियाँ उड़ा रहे थे तो फिर एक जमींदार की परवाह कौन करता? और अगर कहीं जमींदार साहब इस मामले में टाँग अड़ाते तो उस समय का वायु-मण्डल ही ऐसा था कि उन्हें लेने के देने पड़ते। क्योंकि गैरकानूनी हरकत का भण्डाफोड़ जो हो जाता। फलतः न सिर्फ नमकवाला उनका एकाधिकार चला जाता, बल्कि किरासन वगैरह के भी मिट जाते। इसीलिए उनने चालाकी की और चुप्पी मार ली। लोग भी नमक की खरीद-बिक्री की स्वतन्त्राता से ही सन्तुष्ट होके आगे न बढ़े। इसीलिए उनकी काली करतूतों का पता बाहरी दुनिया को न चल सका और बाकी चीजों पर उनका एकाधिकार बना ही रह गया।

सुँगठी मछली की भी कुछ ऐसी ही बात है। मैं तो उसके बारे में खुद कुछ जानता नहीं कि वह कैसी चीज है। मगर लोगों ने बताया कि वह कोई उमदा मछली है जिसे खाने वाले बहुत चाव से खाते हैं। इसीलिए बाजार में उसकी बिक्री बहुत होती है। वह तो पानी वाला इलाका है। इसलिए वहाँ मछलियाँ बहुत होती हैं। सुखाकर दूर-दूर जगहों में उनकी चालान भी जाती है। इसीलिए पकड़ने वालों को तो फायदा होता ही है, जमींदार को भी खूब नफा मिलता है। उसकी आमदनी बढ़ती है। मछली वगैरह की आय को ही जल-कर कहते हैं। अब सभी लोग या जोई चाहे वही उन मछलियों को पकड़ नहीं सकता तो खामख्वाह ठीका लेने वालों में आपस में चढ़ाबढ़ी होगी ही। इसी से जमींदार फायदा उठाता है। और इने-गिने लोगों को ही मछलियों का ठेका देके साल में न जाने कितने हजार रुपये बना लेता है। दूसरी मछलियों की उतनी पूछ न होने से उन पर रोक-टोक नहीं है। फलतः जोई पकड़ेगा वही जल-कर देगा।

जल-कर का भी एक बँधाबँधाया नियम होता है। उस जमींदारी में और उसी प्रकार महाराजा दरभंगा से लेकर दूसरे जमींदारों की जमींदारियों में इस जल-कर के बारे में ऐसा अन्धेरखाता है कि कुछ कहिये मत। खासकर कोशी नदी जहाँ-जहाँ बहती है वहीं यह बात ज्यादातर पायी जाती है। वह यह कि जमीन में तो नदी बह रही है और फसल होती ही नहीं। फिर भी लगान तो किसान को देना ही पड़ता है। कानून जो ठहरा। मगर पानी में मछली वग़ैरह के लिए जल-कर अलग ही देना पड़ता है। एक ही जमीन पर दो टैक्स, दो लगान। जल-कर तो उस जमीन में जमा पानी पर होना चाहिए जिसमें कभी खेती नहीं होती। मगर यहाँ तो उलटी गंगा बहती है। इसीलिए चौधरी अपनी जमींदारी में यही करते हैं।

अब रही आखिरी बात जो नये चमड़े के एकाधिकार की है। बात यों होती है कि देहातों में जब पशु मरते हैं तो आमतौर से मुर्दार मांस खाने वाले लोग उन्हें उठा ले जाते और उनका चमड़ा निकाल के बेच देते हैं। पशु वालों को ज्यादे से ज्यादा एकाध जोड़े जूते दे दिया करते हैं या कहीं-कहीं बँधे-बँधाये दो-चार आने पैसे। यही तरीका सर्वत्र चालू है। बचपन से ही मेरा ऐसा अनुभव है। मगर उत्तरी बिहार के पूर्वी जिलों में कुछ उलटी बात पायी जाती है। चौधरी के सिवाय महाराजा दरभंगा की जमींदारी में पूर्णियाँ आदि में भी मुझे पता चला है कि बड़े जमींदार इन चमड़ों का एक खासतौर का बन्दोबस्त करते हैं। जिसे ‘चरसा महाल’ कहा जाता है। उससे होने वाली आमदनी को चरसा महाल की आमदनी कहते हैं। तरीका यह होता है कि पशुओं से चमड़े निकालने के बाद निकालने वाला चाहे जिसी के हाथ बेच नहीं सकता। किन्तु जमींदार को साल में हजारों रुपये दे के इन चमड़ों की खरीद के ठेकेदार हर इलाके में एक, दो, चार मुकर्रर होते हैं और वही ये चमड़े खरीद सकते हैं। अगर दूसरे लोग खरीदें या दूसरों के यहाँ चमड़े वाले बेच दें तो दण्ड के भागी बन जाते हैं। इस प्रकार खरीददार लोग रुपये-दो रुपये के चमड़े को भी दोई-चार आने में पा जाते हैं। बेचने वाले को तो गर्ज होती ही है और दूसरा खरीदार न होने पर गर्ज का बावला जोई मिले उसी दाम पर बेचता है। इस प्रकार हजारों गरीबों को लूट कर चन्द ठेकेदार और जमींदार अपनी जेबें गर्म करते हैं। यही तरीका चौधरी की जमींदारी में भी था।

इस चरसा महाल के खिलाफ हमारा आन्दोलन सभी जमींदारियों में हुआ। मगर चौधरी की जमींदारी में हमारे तीन-चार दौरे हुए और बहुत ज्यादे मीटिंगें हुईं। वहाँ किरासन तेल और सुँगठी मछली वाला सवाल भी था। इसलिए वहाँ का आन्दोलन बहुत ही जोरदार हुआ। लोग दबे भी थे सबसे ज्यादा। हमने वैसा या उससे भी दबा इलाका बिहार में एक ही और पाया है। वह है महाराजा दरभंगा की ही जमींदारी में दरभंगा जिले के ही पण्डरी परगने का इलाका। वह भी इसी प्रकार बारह महीने पानी में डूबा रहता है और प्रायः तथाकथित छोटी जाति के ही लोग वहाँ बसते हैं। इसीलिए चौधरी की जमींदारी की ही तरह हमारे आन्दोलन की गति वहाँ भी खूब तेज थी। दो-तीन बार हम खुद गये। नतीजा हुआ कि वहाँ के गरीब भी उठ खड़े हुए। यही हालत बखतियारपुर की जमींदारी में भी हुई और हमें पता लगा कि किरासन तेल आदि सभी चीजों का एकाधिकार खत्म हो गया।

चौधरी की तेजी ऐसी थी कि वह हमारा वहाँ जाना बर्दाश्त कर नहीं सकता था। सभा के लिए कोई जगह हमें न मिले और न ठहरने ही के लिए यह भी उसने किया। कार्यकर्त्ताओं ने जो आश्रम बनाया था उसे भी तोड़ डालने की भरपूर कोशिश उसने की। मगर इन कोशिशों में वह सदा विफल रहा। हमें भी वहाँ जाने की एक प्रकार की जिद हो गयी। एक बार तो सलखुवा गाँव में हमारी मीटिंग होने को थी। मगर उसने कोशिश करके नाहक हम पर 144 की नोटिस ऐन मौके पर करवा दी। फिर भी मीटिंग तो हुई ही। उसके पेट में हमारे नाम से गोया ऊँट कूदने लगता था। हिन्दू-मुसलिम प्रश्न को भी अपने फायदे के लिए उठाता था, मगर मुसलमानों का दबाने के ही समय। वह चाहता था कि हिन्दू उनकी मदद न करें। पर हमने हिन्दुओं को सजग कर दिया कि ऐसी भूल वे लोग न करें।
 

 

 

 

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