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सहजानंद समग्र/ खंड-2


स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-2

किसान सभा के संस्मरण- II

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सन् 1936 ई. की बरसात के, जहाँ तक याद है, भादों का महीना था। मगर वृष्टि अच्छी नहीं हुई थी और दिन में धूपछाँहीं होती थी-बादल के टुकड़े आसमान में पड़े रहते थे। फिर भी धूप ऐसी तेज होती थी कि शरीर का चमड़ा जलने सा लगता था। यों तो बरसात की धूप खुद काफी तेज होती है। मगर भादों में उसकी तेजी और भी बढ़ जाती है। खासकर वर्षा की कमी के समय वह देह को झुलसाने लगती है। ठीक उसी समय सारन (छपरा) जिले के अर्कपुर मौजे में किसानों की एक जबर्दस्त मीटिंग की आयोजना हुई थी। तारीख तो याद नहीं। मगर दैवसंयोग से वह ऐसी पड़ी कि उसी दिन मीटिंग करके रात में सवा दस बजे की ट्रेन पकड़ कर बिहटा के लिए रवाना हो जाना जरूरी था। असल में अगले दिन बिहटा आश्रम में एक सज्जन किसानों के सवाल को लेकर ही आने और बातें करने वाले थे। यह बात पहले से ही तय थी। खास उनकी ही जमींदारी का सवाल था। जमींदारी तो कोई बड़ी न थी। मगर थे वह सज्जन हमारे पुराने परिचित। डेहरी के नजदीक दरिहट मौजा उनका ही है। वहीं किसानों का आन्दोलन तेज हो गया था। उसमें मुझे भी कई बार जाना पड़ा था। किसानों के प्रश्न के सामने परिचित या अपरिचित जमींदार की बात ही मेरे मन में उठ सकती न थी। उन्हें शायद विश्वास रहा हो। इसीलिए उनने दूसरों के द्वारा मुझे उलाहना भी दिया था। पर मुझे उसकी परवाह क्यों होने लगी? मैं तो अपना काम कर रहा था। ताहम जब उनने उसी के बारे में मेरे पास खुद आ के बातें करनी चाहीं तो मैंने खुशी-खुशी उसकी तारीख तय कर दी।

यह अर्कपुर गाँव बंगालनार्थ वेस्टर्न रेलवे (ओ. टी. रेलवे) के भाटापोखर स्टेशन से 9 मील दक्षिण पड़ता है। बाबू राजेन्द्र प्रसाद की जन्मभूमि जीरादेई के पास से ही एक सड़क अर्कपुर चली जाती है। वहाँ जाने के लिए सवेरे की ही ट्रेन से मैं पहुँचा था। मेरे साथ एक आदमी और था। छपरे से श्री लक्ष्मीनारायण सिंह कांग्रेस कर्मी के सिवाय दो और वकील सज्जन थे जिनका घर उसी इलाके में पड़ता है। भाटापोखर स्टेशन से करीब एक मील दक्षिण-पच्छिम बाजार में ही हमारे ठहरने और खाने-पीने का प्रबन्ध था। हम लोग वहीं गये, स्नान भी किया, भोजन किया और दोपहर के पहले ही अर्कपुर के लिए चल पड़े। हाथी की सवारी थी। मैं तो इसे पसन्द नहीं करता। मगर किसानों की सभा ही तो थी। अगर उसमें जाने के लिए सवारी मिली तो यही क्या कम गनीमत की बात थी? न जाने कितनी सभाओं में मुझे दूर-दूर तक पैदल ही जाना पड़ा है, ताकि मीटिंग ठीक वक्त पर हो-उसमें गड़बड़ी न हो। यदि किसी धनी महाशय की मिहरबानी से हाथी ही मिला तो नापसन्दी का सवाल ही कहाँ था? इसलिए सबों के साथ मैं भी उसी पर बैठ के चल पड़ा। मगर रास्ते की धूप ने हमें जला दिया। बड़ी दिक्कत से दोपहर के लगभग अर्कपुर पहुँच सके। मैंने रास्ते में ही तय कर लिया था कि लौटने के समय पैदल ही आऊँगा। सवेरे ही रवाना हो जाऊँगा। रास्ते में तो कोई गड़बड़ी होगी नहीं। वह तो देखा ठहरा ही। लालटेन साथ रहेगी। ताकि अँधेरा हो जाने पर भी दिक्कत न हो। इसीलिए सभी लोग अपना कपड़ा-लत्ता वग़ैरह सामान स्टेशन के पास उसी बाजार में ही रख आये थे, ताकि लौटने में आसानी हो।

सभा तो वहाँ हुई और अच्छी हुई। लोग पीड़ित जो बहुत हैं। सरयूमाई निकट में ही दर्शन देती हैं। बरसात में उनकी बाढ़ से सारा इलाका जलमय होता है, फसल मारी जाती है, घर-बार चौपट हो जाते हैं और किसानों में हाहाकार मच जाता है। फिर भी ज़मींदार लोग अपनी वसूलियाँ सख्ती के साथ करते ही जाते हैं। मेरे जाने से शायद किसानों को कुछ राहत मिले और उनकी आह बाहरी दुनिया को सुनाई पड़े इसीलिए मैं बुलाया गया था। ऐसी दशा में सभा की सफलता तो होनी ही थी। उसे रोक कौन सकता था? वहाँ के जमींदार महाराजा दरभंगा या चौधरी बखतियारपुर जैसे शानियल और हिम्मतवर भी न थे कि कोई खास बाधा डालते।

सभा के समय खास जिले के उस इलाके के कई कांग्रेस कर्मी और भी आ गये थे और उन्हीं में थे चैनपुर के एक युवक जमींदार साहब भी, वह थे तो मेरे परिचित। उनके चचा वगैरह से मेरी पुरानी मुलाकात थी। मगर मैं तो चिंहँुका कि यह क्या? किसानों की सभा में बड़े-बड़े जमींदारों के पदार्पण का क्या अर्थ है? लोगों ने कहा कि ये तो कांग्रेसी हैं। कांग्रेस में तो सबों की गुंजाइश हुई उसी नाते यहाँ भी आ गये हैं। मैंने बात तो सुन ली। मगर मेरे दिल, दिमाग में किसान-सभा का कांग्रेस से यह नाता कुछ समा न सका। मेरी आँखों के सामने उस समय भारतीय भावी स्वराज्य की एक झलक सी आ गयी। मुझे मालूम पड़ा कि इन जमींदारों का भी तो आखिर वही स्वराज्य होगा। इनके लिए वह कोई और तो होगा नहीं। फिर वही स्वराज्य किसानों का भी कैसे होगा यह अजीब बात है। बाघ और बकरी का एक ही स्वराज्य हो तो यह नायाब बात और अघटित घटना होगी। लेकिन मेरे भीतर के इस उथल-पुथल और महाभारत को वे लोग क्या समझें? फिर मैं अपने काम में लग गया और यह बात तो भूली गया। उस युवक जमींदार के पास एक बहुत अच्छी और नयी मोटर भी थी जिस पर चढ़ के वे आये थे।

सभा का काम पूरा होने पर जब हमने दो घण्टा दिन रहते ही रवाना होने की बात कही तो वहाँ के कांग्रेसी दोस्त पहले तो अब चलते हैं, तब चलते हैं करते रहे। पीछे उनने कहा कि अभी काफी समय है। जरा ठहर के चलेंगे। असल में वे लोग पैदल नौ मील चलने को तैयार न थे। ठीक ही था। मेरी और उनकी किसान-सभा एक तो थी नहीं। उन्हें तो स्वराज्य की फिक्र ज्यादा थी-गोल-मोल स्वराज्य की, जिसमें किसानों का स्थान क्या होगा इस बात का अब तक पता ही नहीं। उसी स्वराज्य की लड़ाई में किसानों को साथ लेने के ही लिए वे लोग आये थे। साथ ही, उन लोगों का स्वराज्य तो फौरन ही असेम्बली, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड आदि की मेम्बरी वग़ैरह के रूप में आने वाला था जिसमें किसानों की मदद निहायत जरूरी थी। उसके बिना उन्हें यह स्वराज्य मिल सकता था नहीं। यही तो ठोस बात थी जिसे वे लोग खूब समझते थे। मोटर वाले बाबू साहब की भी कांग्रेस भक्ति का पता मुझे पूरा-पूरा तब लगा जब मैंने उन्हें डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार एक मुसलमान सज्जन के खिलाफ महावीरी झण्डा वाली मोटर में बैठ के बुरी तरह परेशान देखा!

अन्त में जब ज्यादा देर हो गयी और मैं घबराया तो उन लोगों ने कहा कि बाबू साहब की मोटर हमने मँगनी कर ली है, आपको उसी से पहुँचा देंगे। इस पर मैं चौंक के बोला कि मैं एक जमींदार की मोटर में चलूँ और फिर भी किसान-सभा करने वाला बनूँ? यह नहीं होने का। इस पर वे लोग थोड़ी देर चुप रहे। मैं भी परेशान था। आखिर इन्तजाम उन्हें ही करना था। अब देर भी हो चुकी थी। लालटेन बिना चलना गैरमुमकिन था और मेरे पास खुद लालटेन थी नहीं। नहीं तो भाग निकलता। जब फिर मैंने सवाल उठाया तो उनने वही मोटर वाली बात पुनरपि उठाई और बोले कि यह तो हमारा इन्तजाम है। इसमें आपका क्या है? आपने तो मोटर माँगी है नहीं। मैंने उन्हें इसका उत्तर दिया सही। मगर वे तो तुले थे और मैं अब लाचार था। कुछ दिन रहते यदि यह बात उठती तो मैं अकेला ही भाग जाता। पर, तब तो शाम हो रही थी। वे लोग भी मेरे स्वभाव से परिचित थे। इसीलिए पहले तो मोटर का सवाल उनने उठाया नहीं, और पीछे जब देखा कि अब मैं अकेला भाग नहीं सकता, तो उस सवाल पर डट गये। मैंने भी अन्त में कमजोरी दिखाई और मोटर से ही जाने की बात ठहरी!

रात के आठ बजे हम सबों को लेके मोटर चली। बाबू साहब ही उसे चला रहे थे। मालूम हुआ, नजदीक में ही उनकी ससुराल है। उन्हें वहीं उतार के मोटर हमें स्टेशन ले जायगी। मोटर में चलने के कारण ही हमने लालटेन साथ में ली ही नहीं। खैर, मोटर उनकी ससुराल में पहुँची। वे उतर गये। ड्राइवर आगे बैठा। उनने ताकीद कर दी कि खूब आराम से ले जाना। रास्ते में गड़बड़ी न हो। बस, वह स्टेशन की ओर चल पड़ी। मगर रास्ता वह न था जिससे हम दिन में आये थे। किन्तु सोलहों आने नयी सड़क थी। रात के साढ़े आठ बज रहे थे। हमें पता नहीं किधर जा रहे थे। एकाएक कीचड़ में मोटर फँसी। वर्षा के दिन तो थे ही। सड़क भी कच्ची थी। ड्राइवर ने जोर मारा। मगर नतीजा कुछ नहीं। बहुत देर तक मोटर की कुश्ती उस कीचड़ से होती रही। हम घबरा रहे थे। धीरे-धीरे निराशा बढ़ रही थी। हमें शक भी हो रहा था कि ड्राइवर रात में जाना नहीं चाहता है। इसीलिए ईमानदारी से काम नहीं कर रहा है। मगर करते क्या? बोलते तो बात और भी बिगड़ती। वह इनकार कर देता तो स्टेशन पहुँचना असम्भव था। आखिर जब घड़ी में हमने साढ़े आठ देखा तो मोटर से निराश हो के पैदल चलने की सोचने लगे।

परन्तु एक तो भादों की अँधेरी रात, दूसरे रास्ता बिलकुल ही अनजान, तीसरे साथ में लालटेन भी नहीं! मोटर के खयाल से हमने लालटेन की जरूरत न समझी और अब ‘‘चौबे गये छब्बे बनने, दूबे बन के लौटे’’ वाली बात हो गयी! फिर भी मुझे तो चाहे जैसे हो स्टेशन पहुँचना ही था। अगले दिन का प्रोग्राम जो था। आज तक मैंने ऐसा कभी होने न दिया कि मेरा निश्चित प्रोग्राम फेल हो जाय। मैंने हमेशा अपने कार्यकर्त्ताओं से कहा है कि यकीन रखें, मेरा प्रोग्राम फेल हो नहीं सकता। या तो मैं पहले ही खबर दे दूँगा कि किसी कारण से आ नहीं सकता; ताकि समय रहते लोग सजग हो जायँ। नहीं तो मैं खुद ही पहुँच जाऊँगा। और अगर ये दोनों बातें न तो सकीं तो मेरी लाश ही वहाँ जरूर पहुँचेगी! इसका नतीजा यह हुआ है कि मेरे प्रोग्राम के बारे में किसानों को पूरा विश्वास हो गया है कि वह कभी गड़बड़ होने का नहीं।

इसी के मुताबिक मुझे तो सवा दस बजे रात की ट्रेन पकड़नी ही थी। मगर रास्ता मोटे अन्दाज से सात मील से कम न था। क्योंकि हम उत्तर ओर मोटर से चल रहे थे और दो मील से ज्यादा चले न थे जब वह खराब हो गयी। हमें इतना मालूम था कि जिस सड़क से हम दिन में गये थे वह इस मोटर वाली सड़क से पच्छिम है और कुछ दूर जाने पर शायद यह उसी में मिल जाय। क्योंकि आखिर स्टेशन और पास की जमीन का नक्शा तो आँखों के सामने नाचता ही था। और अब समय था कुल डेढ़ घण्टे। इतने ही में उस बाजार में पहुँचना था जहाँ सामान रखा था। फिर वहाँ से एक मील स्टेशन चलना था सामान लेकर। यदि दस बजे बाजार में पहुँच जाते तो आशा थी कि पन्द्रह मिनट में वहाँ से स्टेशन पहुँच के ट्रेन पकड़ लेते।

जब मैंने साथियों से पूछा तो दो ने तो साफ हिम्मत हारी, हालाँकि उन्हें भी छपरा पहुँचना जरूरी था। वे लोग वकील थे और कचहरी में उनका काम था। अब तो मैं और भी घबराया। मगर जब लक्ष्मी बाबू से पूछा तो उनने कहा कि ज़रूर चलेंगे। फिर क्या था? मेरा कलेजा बाँसों उछल पड़ा। मैं तो अकेले भी चल पड़ने का निश्चय करी चुका था और अब लक्ष्मी बाबू ने भी साथ देने को कह दिया। इसके बाद तो उन दोनों सज्जनों को भी हिम्मत आयी और हम सबने मोटर महारानी को सलाम कर उत्तर का रास्ता पकड़ा।

रास्ता अनजान था। तिस पर तुर्रा यह कि मिट्टी सफेद थी। रास्ते में जहाँ-तहाँ कीचड़ और पानी भी था। हमने कमर में धोती लपेटी। जूते हाथ में लिये। मेरे एक हाथ में मेरा दण्ड भी था। फिर हमारी ‘क्विक मार्च’ शुरू हुई। यदि दौड़ते नहीं, तो समूची परेशानी के बाद भी ट्रेन पकड़ न पाते। इसलिए दौड़ते चलते थे। रास्ते में कहाँ क्या है इसकी परवाह हमें कहाँ थी? साँप-बिच्छू का तो खयाल ही जाता रहा। सिर्फ रास्ते में समय-समय पर पड़ने वाले झोंपड़ों में आदमी की आहट लेने की फिक्र हमें इसलिए थी कि रास्ते का पता पूछें कि ठीक तो जा रहे हैं? कहीं दूसरी ओर बहक तो नहीं रहे हैं? भाटापोखर अभी कितनी दूर है यह जानने की भी तीव्र उत्कण्ठा थी। मगर झोंपड़ों और गाँवों में तमाम सन्नाटा छाया मिलता था। बहुत दूर जाने पर एक गाँव में एकाध आदमी मिले जिनने फासला दूर बताया। बहुतेरे लोग तो रास्ते में हमें दौड़ते देख या पैरों की आहट सुन सटक जाते थे। उन्हें भय हो जाता था कि इस घोर अँधियाली में चोर-डाकुओं के सिवाय और कौन ऐसी दौड़धूप करेगा। हम भी ताड़ जाते और हँसते-हँसते आगे बढ़ जाते थे?

रास्ते में एक बड़ी मजेदार बात हुई। हमने महाभारत में पढ़ा था कि मयदानव ने ऐसा सभा भवन बनाया कि दुर्योधन को सूखी जमीन में पानी का और पानी में सूखी जमीन का भ्रम हो जाता था। इससे पाण्डवों के कुछ आदमी उस पर हँस पड़े थे। इसी का बदला उसने पीछे लड़ाई के मौके पर लिया था। मगर हमें खुद इस भ्रम का शिकार होना पड़ा। अँधेरी रात में आसमान साफ होने के कारण तारे खिले थे। फलतः रास्ता चमकता था। नतीजा यह हुआ कि हम लोगों को सैकड़ों बार सूखी जमीन में पानी का भ्रम हो गया और हमने धोती उठा ली। पर, पाँव सूखी जमीन पर ही पड़ता गया। इसके उलटा पानी को सूखी जमीन समझ हम बेधड़क बढ़े तो घुटने तक डूब गये। जल्दबाजी और दौड़ की हालत में यह गौर करने का तो मौका ही नहीं मिलता था कि पानी है या सूखी जमीन। मगर इसमें हमें खूब मजा आता था। मजा तो अपने दिल में होता है। वह बाहर थोड़े ही होता है। हम लथपथ थे। कीचड़ से सारा बदन लिपटा था। मगर धुन थी ठीक समय पर पहुँच जाने की। इसीलिए सारी तकलीफ भूल गयी और हम हँसते-हँसते बढ़ते थे।

कुछ दूर जाकर जब पहली सड़क मिली तब कहीं हमें यकीन हुआ कि ठीक रास्ते जा रहे हैं। मगर अभी प्रायः चार मील चलना था। अतः हमें साँस लेने की फुर्सत भी कहाँ थी। खैर, दौड़ते-दौड़ते दस बजे से पहले ही बाजार में पहुँच ही तो गये। पूछने पर पता चला कि जहाँ सामान है उसे बन्द करके हमारे परिचित सज्जन घर सोने चले गये। क्योंकि गाड़ी का समय नजदीक देख उनने मान लिया कि हम अब न आयेंगे। उनका घर भी कुछ फासले पर था। यह दूसरी दिक्कत पेश आयी। खैर, हममें एक दौड़ के वहाँ गया और जैसे-तैसे उन्हें जगा लाया। उनके आते ही हमने अपने-अपने सामान निकाले। मेरा सामान कुछ ज्यादा था। मगर उस समय स्टेशन तक सामानों को पहुँचाने वाला कहाँ मिलता? फलतः हमने गधे की तरह अपने-अपने सामान सर पर लादे। मेरी सहायता साथियों ने और साथ के आदमी ने भी की। इस तरह लद-फँद के हमने फिर वही ‘क्विक मार्च’ शुरू किया। क्योंकि ट्रेन आ जाने का खतरा था। हमें अपनी घड़ी पर विश्वास होता न था। संकट के समय ऐसा ही होता है। अत्यन्त विश्वासों पर से भी विश्वास उठ जाता है।

मगर जब स्टेशन पहुँचे और वहाँ की घड़ी में देखा कि पूरे दस बजे हैं तब हमारी जान में जान आयी! फिर तो हमारी खुशी का ठिकाना न रहा। निश्चित हो के हमने हाथ-पाँव वगैरह धोये, कपड़े बदले और देह साफ़ की। इतने खतरे का काम हमने किया, ऐसी लम्बी राह, जो आठ मील से कम न थी, हमने डेढ़ घण्टे में तय की और बाजार में पन्द्रह मिनट ठहरे भी, यह याद करके हमारा आनन्द बेहद बढ़ गया। खूबी यह कि हमें न तो कोई थकावट मालूम होती थी और न परेशानी। सख्त-से-सख्त काम और मिहनत के बाद भी यदि सफलता मिल जाय तो सारी हैरानी हवा में मिल जाती है। लेकिन यदि थोड़ी भी परेशानी के बाद विफल होना पड़े तो ऐसी थकावट होती है कि कुछ पूछिये मत। और हम तो इस साहस ;ंकअमदजनतमद्ध के बाद सफल हो चुके थे। तब थकावट क्यों होती? कम से कम हमें उसका अनुभव क्यों होता?

(शीर्ष पर वापस)

10

सन् 1935 ई. की मई का महीना था। उसी समय पूर्णियाँ जिले में बरसात शुरू हो जाया करती है। कांग्रेस के पुराने कार्यकर्त्ता पं. पुण्यानन्द झा पूर्णियाँ जिले के अररिया सब डिविजन के जहानपुर में रहते हैं। उनके ही आग्रह और प्रबन्ध से उस जिले का पहले-पहल दौरा करने का मौका मिला। कटिहार स्टेशन से ही पहले किशनगंज जाने का प्रोग्राम था। कटिहार में डॉ. किशोरीलाल कुण्डू के यहाँ ठहर के किशनगंज की ट्रेन पकड़नी थी। किशनगंज पूर्णियाँ जिले का सब डिविजन और बिहार प्रान्त का सबसे आखिरी पूर्वीय इलाका है। यों तो उस जिले में 75 फीसदी मुसलमान ही बाशिन्दे माने जाते हैं। मगर किशनगंज में उनकी संख्या 95 प्रतिशत कही जाती है। किसानों के आन्दोलन के सिलसिले में ऐसे इलाके में जाने का यह पहला ही अवसर था। मुझे इस बात की बड़ी प्रसन्नता थी।

झा जी कटिहार में ही साथ हो लिये और बरसोई होते हम किशनगंज पहुँचे। वहाँ के प्रसिद्ध कांग्रेसकर्मी श्री अनाथकान्त बसु के यहाँ हम लोग ठहरे। पहली सभा वहीं शहर में ही होने वाली थी। सभा हुई भी। मगर वृष्टि के चलते जैसी हम चाहते थे हो न सकी। इसका पश्चात्ताप सबों को था। मगर मजबूरी थी किशनगंज में दोई दिन ठहरने का हमारा प्रोग्राम था। तो भी अनाथ बाबू ने भीतर-ही-भीतर तय कर लिया कि मुझे एक दिन और ठहरा के शहर में फिर सभा की जाय जो सफल हो। उनने देहात में भी खबर भेज दी और इसका खासा प्रचार किया। जब मैं तीसरे दिन चलने के लिए तैयार था तभी कुछ लोगों के डेप्युटेशन ने हठ करके मुझे रोक लिया और खासी अच्छी सभा करायी। मुझे भी झा जी के साथ देहात में हो के ही उनके घर (जहानपुर) जाना था। इसलिए कोई खास प्रोग्राम न होने के कारण एक दिन रुकने में विशेष बाधा नहीं हुई। यदि कहीं का निश्चित प्रोग्राम होता, तब तो तीसरे दिन रुकना गैर-मुमकिन था।

हाँ, किशनगंज से 6-7 मील उत्तर देहात में दूसरे दिन जाना था। पांजीपाड़ा नामक एक हाट में मीटिंग करनी थी। किशनगंज से जो सड़क उत्तर ओर जाती है उसी के किनारे पांजीपाड़ा बस्ती है। किशनगंज से एक लाइट रेलवे दार्जिलिंग जाती है। मगर वह तो अजीब सी है। मालूम होता है बैलगाड़ी चलती है। हम लोग, जहाँ तक याद है, घोड़ागाड़ी से ही पांजीपाड़ा गये। बाजार का दिन था। जिस जगह बैठ के लोग चीजें बेचते और खरीदते थे उसके पास ही एक फूँस का झोंपड़ा था। हम तो कही चुके हैं कि वह इलाका प्रायः मुसलमानों का ही है। हाट में भी हमें वही नजर आ रहे थे। यह भी देखा कि उस झोंपड़े में उनका एक खासा मजमा है, यों तो उसमें भी आना-जाना लगा ही था। हमें पता लगा कि वह झोंपड़ा ही मस्जिद थी जिसमें दोपहर के बाद की नमाज पढ़ी जा रही थी। घोर देहात में इस प्रकार धार्मिक भावना देख के मैं प्रभावित हुआ। ऐसा देखना पहली ही बार था! मैंने सोचा कि इन्हीं के सामने किसान-समस्याओं पर स्पीच देनी है। कहीं ऐसा न हो कि सारा परिश्रम बेकार जाय।

मगर बात उलटी ही हुई। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब मैंने देखा कि वे सभी बहुत ही गौर से मेरी बातें सुनते थे। मैं जैसे-जैसे बोलता जाता था वैसे-वैसे उनके चेहरे खिलते जाते थे। मेरी बातों की पसन्दगी जानने के लिए कितनों के सर हिलते थे। बहुतेरे तो मस्त हो रहे थे और झूमते थे। एक तो मुझे डर यह था कि मुसलमान किसानों में बोलना है। कहीं ऐसा न हो कि गेरुवा वस्त्रा देखते ही वे भड़क उठें कि यह कोई हिन्दू फकीर अपने धर्म-वर्म की बात बोलने आया है। जमात बाँध के नमाज पढ़ते देख मेरा यह डर और भी बढ़ गया था। दूसरा अन्देशा यह था कि बंगाल की सरहद पर बसने वाले लोगों में बंगला बोलते हैं और जिनकी रहन-सहन बिलकुल ही बंगालियों की है, मेरी हिन्दुस्तानी भाषा कुछ ठीक न होगी। और बंगाली बोलना तो मैं जानता नहीं, गो पढ़ या समझ लेता हूँ। तीसरा खयाल यह था कि उनके खास सवालों को तो मैं जानता नहीं कि उन्हीं के बारे में बोल के उनके खयाल अपनी ओर खींच सकूँ। इसलिए सिर्फ उन्हीं बातों पर बोलता रहा जो सभी किसानों को आमतौर से खलती हैं और जिनसे अपना छुटकारा सभी चाहते हैं। जैसे जमींदारों के जुल्म, लगान की सख्ती, वसूली में ज्यादतियाँ, कर्ज की तकलीफें, बकाश्त जमीन की दिक्कतें वगैरह-वगैरह।

मगर मेरा डर और अन्देशा बेबुनियाद साबित हुआ। उनने मेरी बातें दिल से सुनीं, गोया मैं वही बोलता था जो वह चाहते थे। बोलने में मेरी जबान और भाषा ऐसी होती ही है कि सभी आसानी से समझ लें। गुजरात से लेके पूर्व बंगाल और आसाम तक मैं यही भाषा बोलता रहा हूँ और किसान समझते रहे हैं असल में उनके दिल की बात सीधी-सादी और चुभती भाषा में अपने दिल से बोलिये तो वे खामख्वाह आधी या तीन चौथाई समझते ही हैं और इतने से ही काम चल जाता है। किशनगंज वाले तो सोलह आना समझते खासकर मुसलमान कहीं भी रहें, तो भी हिन्दुस्तानी जबान वे समझते ही हैं। यह एक खास बात है।

इसलिए जब मैंने मीटिंग खत्म की तो उनने मुझे घेर लिया और कहने लगे कि आपने तो बड़ी अच्छी बातें कही हैं। ये तो हमें खूब ही पसन्द हैं। यह हमारे काम की ही हैं। हमने बहुत से लेक्चर मौलवियों के आज तक सुने हैं। मगर मौलवी लोग तो ऐसी बातें बोलते नहीं। आप तो रोटी का सवाल ही उठाते हैं और उसी की बातें बोलते हैं। आप हमारे पेट भरने और आराम की बातें ही बोलते हैं जिन्हें हम खूब समझते हैं। ये बातें हमें रुचती हैं। सो आप हमारे गाँवों में चलिये। कई चलते-पुर्जे लोगों ने हठ किया कि मैं उनके गाँवों में चल के ये बातें सबों को सुनाऊँ। क्योंकि वे लोग दूर-दूर से आये थे और हर गाँव के एक-दो, चार ही वहाँ थे। बाकी तो खेती-गिरस्ती में ही लगे थे। मगर मैंने उनसे उस समय तो यह कह के छुट्टी ली कि कभी पीछे आऊँगा। इस समय मेरा प्रोग्राम दूसरी जगह तय हो गया है। हालाँकि मैं वह वादा अभी तक पूरा कर न सका, इसका सख्त अफसोस मुझे है।

इस प्रकार उस मीटिंग और मुसलिम किसानों की मनोवृत्ति का बहुत ही अच्छा असर लेके हम लोग शाम तक किशनगंज वापस आये। किसानों और मजदूरों के आये दिन के जो आर्थिक प्रश्न हैं और जो उनकी रोजमर्रा की मुसीबतें हैं यह ऐसी चीजें हैं कि इन्हीं की बुनियाद पर सभी किसान मजदूर, चाहे उनका धर्म और मजहब कुछ भी क्यों न हो, एक हो सकते हैं। आसानी से एक सूत्र में बेखटके बँध सकते हैं, उनकी जत्थेबन्दी हो सकती है, यह बात हमारे दिमाग में उस दिन से अच्छी तरह बैठ गयी। हमें वहाँ इसका नमूना ही मिल गया। यह हमारी जिन्दगी और उनके जीवन में शायद पहला ही मौका था जब मुसलमान किसानों ने हमारे जैसे हिन्दू कहे जाने वाले फकीर को अपना आदमी समझा और हमें अपने घर गाँव में मुहब्बत से ले जाना चाहा। हालाँकि हमारी और उनकी मुलाकात पहले-पहल सिर्फ उसी दिन एक-दो ही घंटे के लिए हुई थी। आखिर आर्थिक प्रश्नों के सिवाय दूसरा कौन जादू था जिसने उन पर ऐसा असर किया? हमारी बातें के सामने मौलवियों की बातों को जो उनने उतना पसन्द नहीं किया इसकी वजह आखिर दूसरी और क्या थी?

कहते हैं कि सारंगी और सितार के तारों की झनकार जब कहीं दूर से भी आती है तो सभी इनसान, फिर चाहे वह किसी भी धर्म मजहब के क्यों न हों, मुग्ध होके जबर्दस्ती खिंच आते हैं। सारी बातें, सारे काम भूल के एकटक सुनते रहते हैं। लेकिन अगर खुद उन्हीं को घर के-दिलों के-तार झनक उठें तो? तब तो और भी मजा आयेगा और वे लट्टू होके ही रहेंगे। असल में दुनियाबी विपदायँ सभी गरीबों की एक ही हैं। वे सभी हिन्दू-मुसलिम को बराबर सताती हैं। इसीलिए एक तरह सभी के दिलों में चुभती हैं। ऐसी हालत में ज्योंही उनकी चर्चा हमने उठाई कि सभी के दिलों के तार साथ ही झनक उठे। फलतः सभी एक ही हाँ में हाँ मिलाते, सुर में सुर मिलाते और एक ही राग गा उठते हैं कि ‘‘कमाने वाला खायेगा, इसके चलते जो कुछ हो’’। इस राग में हिन्दू-मुसलिम भेद खामख्वाह मिट जाता है। इस पवित्र धारा में हिन्दू-मुसलिम कलह की मैल बिना धुले रही नहीं सकती वह पक्की बात है। इसका ताजा-ताजा नमूना हमारी आँखों के सामने उस दिन पांजीपाड़े में नजर आया और हमें भविष्य के लिए पूरी उम्मीद हो गयी कि गरीबों के दुख जरूर कटेंगे और उनके अच्छे दिन जरूर आयेंगे, सो भी जल्द-से-जल्द, अगर हमने अपना यही रास्ता, यही काम जारी रखा।

खैर, तो किशनगंज लौटने के बाद, जैसा कि पहले कहा है, एक दिन वहाँ ठहर के उस सब डिविजन की देहात का अनुभव करते और मजा लूटते पं. पुण्यानन्दजी के गाँव पर पहुँचने की बात तय पायी। उनका गाँव जहानपुर अन्दाजन 25-30 मील के फासले पर है। बरसात का समय था। देहात की सड़कें तो यों ही चौपट होती हैं। तिस पर खूबी यह कि वह इलाका सबसे पिछड़ा हुआ है। इसलिए रास्ते का भी ठिकाना न था, सवारी का तो पूछना ही नहीं। बड़ी दिक्कत से बैलगाड़ी मिल सकती थी। मगर रास्ता खराब होने से बैल कैसे गाड़ी खींचेंगे यह पेचीदा सवाल था। एक तो ऐसी दशा में उन्हें गाड़ी में जोतना कसाईपन होगा। दूसरे वे चल सकते नहीं चाहे हम कितने भी निर्दय क्यों न बनें। असल में गाड़ी या हल में जोतने के समय हम लोग बैलों के साथ ठीक वही सलूक करते हैं जो जमींदार हम किसानों के साथ बर्तते हैं। अगर जमींदार उन्हें आदमी न समझ लावारिस पशु मानते हैं, और इसीलिए वे खायें-पियेंगे या नहीं इसकी जरा भी फिक्र न कर उनकी सारी कमाई जैसे-तैसे वसूल लेने की फिक्र करते ही रहते हैं, तो किसान अपने बैलों के साथ भी कुछ वैसा ही सलूक करते हैं, हालाँकि किसानों के लिए जमींदारों जैसी निर्दयता गैर-मुमकिन है। वे बैलों के खाने-पीने की कोशिश तो करते हैं। बेशक उनकी कमाई का अन्न पास रख के उन्हें भूसा, पुआल वगैरह वही चीजें खिलाते हैं जो किसानों के लिए प्रायः बेकार सी हैं। बदले में जमींदार भी किसानों की कमाई के गेहूँ, बासमती, घी, मलाई आदि खुद ले के उनके लिए मंड़घवा, खेसरी, मठा आदि ही छोड़ते हैं। मगर जहाँ तक जोतने का सवाल है किसान बैलों के साथ बड़ी निर्दयता से पेश आते हैं।

नतीजा यह हुआ कि मेरी ये बातें कुछ काम न कर सकीं और एक बैलगाड़ी तैयार की गयी। अनाथ बाबू को भी साथ ही चलना था। जहानपुर और किशनगंज के बीच में ही कांग्रेस के पुराने सेवक श्री शराफत अली मस्तान का गाँव कटहल बाड़ी चैनपुर पड़ता है। बीच में वहीं एक रात ठहरने और मीटिंग करने की बात तय पायी थी पहले से ही। मस्तान को भी यह बात मालूम थी। मगर ठीक दिन और वक्त का पता न था। हमें भी खुशी थी कि सन् 1921 ई. से ही जिसने मुल्क की खिदमत में अपने को बर्बाद कर दिया और जमीन-जायदाद वगैरह सब कुछ तहस-नहस और नीलाम-तिलाम होने दिया उस शख्स से मिलना होगा, सो भी खांटी किसान से। बर्बादी की परवाह न करने के कारण ही तो उस शख्स का नाम सचमुच मस्तान पड़ा है। ‘शराफत अली’ तो शायद ही कोई जानता हो। सिर्फ मस्तान के ही नाम से वह पुराना देश सेवक प्रसिद्ध है। कांग्रेस का आन्दोलन शुरू होते ही उसे धुन सवार हुई कि किसान किसी को लगान क्यों देंगे, और खुद क्यों भूखों मरेंगे? लोगों को उसने यही कहना शुरू किया। खुद भी यही किया। फिर जमीन-जायदाद बचती तो कैसे? जमीन थी काफी। मगर सभी यों ही खत्म हो गयी और वह बहादुर दर-दर का भिखारी बन गया। उसके परिवार को भूखों मरते रहने की नौबत आयी! फिर भी यह धुन बराबर मुद्दत तक बनी रही। आज भी आग वही है, जो भीतर-भीतर दबी पड़ी है। अगर किसान सिर्फ इतना ही समझ लें कि उन्हें भी खाने का हक है। वे भूखे मर नहीं सकते। और अगर इसी के अनुसार यदि वे अपनी कमाई को खाने-पीने लग जायँ तो बिना किसी की परवाह किये ही, तो उनकी सारी तकलीफें हवा में मिल जायँ।

जो कुछ हो, हम सवेरे ही खा-पी के बैलगाड़ी पर बैठे और मस्तान के गाँव की ओर चल पड़े। रास्ते में चारों ओर सिर्फ मुसलमान किसानों के ही गाँव पड़ते थे। हिन्दुओं की बस्ती तो हमें शायद ही मिली। ऐसी यात्रा मेरी जिन्दगी में पहली ही थी। सच बात तो यह है कि हजार जानने-सुनने और समझने-बूझने पर भी मेरे दिल में यह खयाल बना था कि हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमान जनता खामख्वाह सख्त मिजाज झगड़ालू और घमण्डी होती है। इसीलिए रास्ते में पड़ने वाले गाँवों में बराबर इस बात की तलाश में था कि ऐसी बातें मिलेंगी। उनके मकान वगैरह में भी कुछ खास बातें देखना चाहता था। इसीलिए जब मुसलमान मिलते थे तो उनकी ओर मैं निहायत गौर से देखता था। गाँव के बाद गाँव आते गये और एक के बाद दीगरे न जानें, कितने व्यक्ति और कितने गिरोह रास्ते में मिले। हमने बार-बार उनसे मस्तान के गाँव की राह पूछी। उनने बताई भी। मगर हमें कोई खास बात उनमें मालूम न हुई। वही सादगी, वही सीधापन, वही मुलायम बातें और वही रहन-सहन! जरा भी फर्क नहीं! दाढ़ी भी तो सबों को न थी कि फर्क मालूम पड़ता। कपड़े भी वैसे ही थे। मकानों की बनावट में तो कोई अन्तर था ही नहीं। मुर्गे-मुर्गियाँ नजर न आयें तो और कोई फर्क गाँवों में न था। यदि किसी और मुल्क का आदमी ये चीजें देखता तो वह यह समझी नहीं सकता कि ये हिन्दू हैं या मुसलिम! ठीक ही है किसान तो किसान ही है। वह हिन्दू या मुसलिम क्यों बनने लगा। बीमारी, भूख, गरीबी, तबाही वगैरह भी तो न कलमा और नमाज ही पढ़ती है और न गायत्री सन्ध्या ही जानती है और इन्हीं सबों के शिकार सभी किसान हैं-इन्हीं की छाप सभी किसानों पर लगी हुई है। फिर उन्हें चाहे आप हिन्दू कहें या मुसलिम! हैं तो दरअसल वे भूखे, गरीब, मजलूम, तबाह, बर्बाद।

यह देख के मेरे दिल पर इस यात्रा में जो अमिट छाप पड़ी वह हमेशा ताजा बनी है। पांजीपाड़े के बाद यह दूसरा अनुभव फौरन ही हुआ जिसने मेरी आँखें सदा के लिए खोल दीं। इससे मेरी आँखों के सामने असलियत नाचने लगी। ‘‘जनता, अवाम (masses) एक हैं, इनमें कोई भी धर्म, मजहब का फर्क नहीं। वे भीतर से दुरुस्त हैं।’’ यह दृश्य मैंने देखा! इसने किसान-सभा के काम में मुझे बहुत बड़ी हिम्मत दी और आज जब कि बड़े-से-बड़े और क्रान्तिकारी से भी क्रान्तिकारी कहे जाने वाले हिन्दू-मुसलमान तनातनी से बुरी तरह घबरा रहे हैं, भविष्य के लिए निराश हो रहे हैं, मैं निश्चिन्त हूँ। मैं इनकी बातें सुन के हँसता हूँ। इन्हें इन झगड़ों की दवा मालूम नहीं है। उसे तो मैंने न सिर्फ किताबों में पाया है, बल्कि किशनगंज के इस दौरे में देखा है।

इस प्रकार कुछ दूर जाने के बाद बैलगाड़ी छोड़ देने की नौबत आयी। असल में बैल थे तो कमजोर और रास्ता ऐसा बेढंगा था कि न सिर्फ बैलगाड़ी के पहिये कीचड़ में डूब जाते थे, बल्कि बैलों की टाँगें भी। जब वे चल न पाते तो गाड़ीवान उन्हें पीटता था। यह दृश्य बर्दाश्त के बाहर था। मगर इतने पर भी बैल आगे बढ़ पाते न थे। बढ़ते भी आखिर कैसे? रास्ता वैसा हो तब न? इसलिए तय हुआ कि गाड़ी छोड़ के पैदल चलें। नहीं तो रास्ते में ही रह जायँगे और मस्तान के गाँव तक भी आज पहुँच न सकेंगे। फलतः कपड़ा-लत्ता एक आदमी के सर पर गट्ठर बाँध के रख दिया गया और जूते हाथ में ले के हम सभी उत्तर-पच्छिम रुख पैदल ही बढ़े। कीचड़ में फँसते, पानी पार करते, गिरते-पड़ते हम लोग बराबर बढ़ते जाते थे। यह भी मजेदार यात्रा थी। हममें जरा भी मनहूसी नजर न आयी। हँसते हुए चल रहे थे। यह कितना सुन्दर ‘प्लेजर ट्रिप’ था, सैर-सपाटा था। आखिर कीचड़ पानी से लथपथ और वृष्टि से भी भीगते-भागते शाम होते न होते हम लोग मस्तान के गाँव पर पहुँची तो गये।

मस्तान साहब खबर पाते ही दौड़े-दौड़ाये हाजिर आये और हम सभी गले मिले। शाम का तो वक्त था ही। हम लोग थके-माँदे भी थे। मैं तो रात में कुछ खाता-पीता न था, सिवाय गाय के दूध के और वह अचानक मिल सकता न था। अगर पहले से खबर होती तो उसका इन्तजाम शायद हुआ रहता। मस्तान और उनके साथी कोशिश करके थक गये। मगर दूध न मिला। बाकी लोगों ने खाना-वाना खाया। रात में थकावट के चलते हम सभी सो रहे। तय पाया कि बहुत तड़के लोग जमा हों और हमारी मीटिंग हो। उसी दिन जल्द-से-जल्द सभा करके और खा-पी के हमें जहानपुर पहुँचने के लिए आगे चल पड़ना भी था। हाँ, मस्तान साहब इधर-उधर खबरें भेजते रहे उस दिन शाम से ही, कि कल तड़के लोग जुट जायँ। पता लगा कि उनने हमारे बारे में पहले से ही लोगों में प्रचार भी कर रखा था।

दूसरे दिन नित्यक्रिया स्नानादि के बाद हमारी सभा की तैयारी हुई। लोग जमा हुए। हमने उन्हें घण्टों समझाया। हम तो सिर्फ उनकी भूख और गरीबी की बातें ही करना जानते थे और वे बातें उन्हें रुचती भी थीं। मस्तान साहब शे’र (कविता) के प्रेमी हैं। बहुत से पद मौके-मौके के वे जानते भी हैं। हमारे बारे में भी उनका यही खयाल था। उनने हमें भी कहा कि बीच-बीच में कुछ चुभते हुए पद सुनाते चलेंगे तो अच्छा असर होगा। जहाँ तक हो सका हमने उनकी मर्जी को पूरा किया। मगर हमें खुशी थी कि एक सच्चे जन-सेवक के घर पर ठेठ देहात में मरते-जीते जा पहुँचे थे, जैसे लोग तीर्थ और हज की यात्रा में पैदल ही जाते हैं! जहीं सच्चे और मस्ताने जनसेवक हों असल तीर्थ तो वही है। पुराने लोगों ने तो कहा भी है कि सत्पुरुष और जनसेवक तीर्थों तक को पवित्र कर देते हैं अपने पाँवों की धूलों से-‘स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति सन्तः।’ तीर्थ बने भी तो हैं आखिर सत्पुरुषों के रहने के ही कारण। इस युग में किसानों के तीर्थ कुछ और ही ढंग के होंगे।

जहानपुर चलने के लिए भी एक बैलगाड़ी का इन्तजाम हुआ, हालाँकि पहले दिन के अनुभव से हम डरते थे कि फिर वही हालत होगी। कुछ तो पहले दिन की थकावट और कुछ लोगों के हठ के करते बैलगाड़ी फिर भी ठीक होई गयी और उसी पर लद-फँद के हम लोग दोपहर के पहले ही चल पड़े। शाम तक जैसे-तैसे झा जी के घर पर पहुँचना जो था। लेकिन हमारा डर सही निकला। आगे का रास्ता और भी विकट था। नदी-नाले भी काफी थे। आखिरकार जहाँ तक जाते बना हम लोग गये। मगर जब गाड़ी का आगे जाना गैर-मुमकिन हो गया तो उसे लौटा के हम आगे बढ़े। नदियों में गाड़ी पार करने में दिक्कत भी काफी थी। इसलिए हमने पैदल ही चलना ठीक समझा। नहीं तो शाम तक रास्ते में ही पड़े रह जाते और जहानपुर पहुँची न पाते। आज की यात्रा गुजरे दिन की यात्रा से भी मज़ेदार थी। हमें इन घोर देहातों का अनुभव करना जरूरी था। यह भी जाँच करनी थी कि हम खुद कहाँ तक पार पा सकते हैं। क्योंकि बिना ऐसा किये और ऐसी तकलीफें बर्दाश्त किए किसान-आन्दोलन चलाया जा सकता नहीं। यह मजदूर सभा थोड़े ही है कि शहरों में ही मोटर दौड़ा के और रेलगाड़ियों से ही चल के कर लेंगे। इसीलिए सैकड़ों बार हमने छोटी-मोटी ऐसी यात्राएँ जान-बूझ के की हैं।

आखिर दूसरे दिन की हमारी यात्रा भी पूरी हुई और जहानपुर पहुँच गये। पं. पुण्यानन्द झा एक लगन के आदमी हैं। हमने देखा कि गाँव बीच में सबसे ऊँची जमीन पर बने झोंपड़े को उनने आश्रम बना रखा है। चरखे वगैरह का काम वहाँ बराबर होता था। कुछ लड़के पढ़ते भी थे। पण्डित जी के एक ही लड़का है। मगर उसे उनने कहीं और जगह जा के पढ़ने न दिया! सरकारी स्कूलों का बायकाट जो किया था! इसीलिए उसे अन्त तक निभाया। हमने प्रायः सभी लीडरों को देखा है कि सन् 1921 ई. के बायकाट के बाद फिर उनके लड़के वगैरह उन्हीं सरकारी स्कूलों में भर्त्ती हुए हैं। मगर झा जी ने ऐसा करना पाप समझ अपने लड़के को घर पर ही रखा और पढ़ने के बदले लोगों की जो भी सेवा वह अपने ढंग से उस देहात में कर सके उसे ही पसन्द किया। उनका आश्रम बहुत ही साफ-सुथरा और रमणीय था। तबीअत खूब ही रमी, गोया अपने घर पहुँच आये। खासकर मैं सफाई बहुत ही पसन्द करता हूँ। जरा भी गन्दगी हो तो मुझे नींद ही नहीं आती। बेचैन हो जाता हूँ। स्नानादि के बाद दूध पी के रात में सो गये। अगले दिन सभा होगी यही निश्चय हुआ था।

किसानों की सभा भी अगले दिन बहुत ही अच्छी हुई। हमने अपने दिल का बुखार निकाल लिया। उन्हें उनके मसले बहुत ही अच्छी तरह समझाये। उनकी आँखों के समक्ष न सिर्फ उनकी हालत की नंगी तसवीर खींची, बल्कि उसके कारण भी साफ-साफ बता दिये। उन्हें यह झलका दिया कि उनकी नासमझी और कमजोरी से ही उनकी यह अबतर हालत है और दूसरे तरीके से यह दूर भी नहीं हो सकती जब तक वे खुद तैयार न होंगे, अपने में हिम्मत न लायेंगे और अपने हकों को न समझेंगे। उनका सबसे पहला हक है कि भर पेट खायें-पियें, दवादारू का पूरा इन्तजाम करें, जरूरत भर कपड़े पहनें-ओढ़ें और स्वास्थ्य के लिए जरूरी सामान तथा मकान वगैरह बनायें। दुनिया की कोई सरकार और कोई ताकत इस बात से इनकार कर नहीं सकती अगर डँट के वे इस हक का अमली तौर से दावा करने लगें। जब वे खुद कमा के अपने आप खाना और अपनों को खिलाना चाहते हैं, और बाकी दुनियाँ को भी, तो फिर किसे हिम्मत है कि वे खुद भूखे रहें और दुनिया को खिलायें ऐसा दावा पेश करें? आखिर जिस गाय से दूध चाहते हैं उसे पहले खूब खिलाते-पिलाते और आराम से रखते ही हैं। नहीं तो दूध के बजाय लात ही देती है।

अब किसी प्रकार अररिया चल के रेलगाड़ी पकड़ना और कटिहार पहुँचना था। बरसात के दिन और रास्ते में छोटी-बड़ी नदियाँ थीं। फिर वही बैलगाड़ी हमारी मददगार बनी। मगर इस बार दो गाड़ियाँ लाई गयीं। ऊपर वे छाई भी गयी थीं। पहले की गाड़ियाँ तो मामूली ही थीं। मगर इस बार जरा देखभाल के गाड़ी और बैल लाये गये। एक में मैं खुद अपने सामान के साथ बैठा और दूसरी में झा जी और अनाथ बाबू। रात में ही रवाना हुए। नहीं तो अगले दिन कहीं राह में ही रह जाना पड़ता। किस हैरानी और परेशानी के साथ यह बाकी यात्रा पूरी हुई वह वही समझ सकता है जिसे उधर ऐसे समय में जाने का मौका मिला हो। इसका यह मतलब नहीं कि हममें मनहूसी थी, या हमने इस दिक्कत को अपने दिल में जरा भी स्थान दिया। देते भी क्यों? हमने खुद जान-बूझ के ही यह यात्रा की थी। उन विकट देहातों का अनुभव जो लेना था। हमें खुद इस सख्त इम्तहान में पास जो होना था। और हमें खुशी है कि अच्छी तरह उत्तीर्ण हुए।

अररिया में पहुँच के सीधे स्टेशन चले गये। स्टेशन शहर से दूर पड़ता है। वहीं ठहरे, स्नानादि किया, कुछ खाया-पिया। फिर ट्रेन आयी और हमें ले के उसने कटिहार पहुँचाया।

(शीर्ष पर वापस)

11

सन् 1935 ई. की किशनगंज वाली यात्रा के ही सिलसिले में हमें कटिहार के बाद कुरसैला स्टेशन जाना और वहाँ से उतर के नजदीक के ही उमेशपुर या महेशपुर में होने वाली विराट् किसान-सभा में भाषण देना था। वहाँ से फिर टीकापट्टी आश्रम में जाने का प्रोग्राम था। वहीं रात को ठहरना भी था। हम लोग सदल-बल ट्रेन से रवाना हो गये। स्टेशन पर बाजे-गाजे, झण्डे और जुलूस की अपार भीड़ थी। लोगों में उमंगें लहरें मार रही थीं। किसान-सभा और किसानों के नारों और आजादी की पुकार से आसमान फटा जा रहा था। स्टेशन के नजदीक ही एक बड़े जमींदार साहब का महल है और सभा-स्थान में जाने का रास्ता भी महल की बगल से ही था। पता नहीं वे वहाँ उस समय थे, या कहीं चले गये थे। यदि थे भी तो उन पर क्या गुजरती थी यह कौन बताये। वे बड़े सख्त जमींदार हैं जो जेठ की दुपहरी के सूर्य की तरह तपते हैं! उनकी जमींदारी में रहने वाले किसानों का तो ख़ुदा ही हाफिज़!

मगर माने जाते हैं वे भी कांग्रेसी। कांग्रेसीजनों में उनकी पूछ है। शायद टीकापट्टी आश्रम तथा कांग्रेस की और संस्थाओं को साल में काफी अन्न और पैसे उनसे मिलते हैं। जिले के कांग्रेसी लीडरों का सत्कार भी उनके यहाँ होता है। लीडरों को तो आखिर स्वराज्य लेना है पहले, और जब तक जमींदारों को साथ न लेंगे तब तक स्वराज्य मिलने में बाधा जो खड़ी होगी। अगर उनके बिना वह भी मिल गया तो शायद लँगड़ा होगा। लेकिन यदि किसानों की तकलीफों का खयाल करें तो ये जमींदार कांग्रेस में आ नहीं सकते। इसीलिए बहरहाल उस ओर ध्यान नहीं दिया जाता। सभी को ले के चलना जो ठहरा। यह भी सुना है कि वे जमींदार साहब और उन जैसे दो-एक और भी साल में कांग्रेस के बहुत मेम्बर इधर बनाने लगे हैं। बात तो आसान है। जोई किसान लगान देने आये उससे ही लगान के सिवाय चार आना और ले लेना कोई बड़ी बात नहीं है। चार आना दिये बिना बाक़ी रुपयों की भी रसीद न मिले तो? तब तो सभी गायब हो जाते हैं। इसीलिए मजबूरन वे गरीब चार आना देते ही हैं। नजराना, शुकराना, रसीदाना, फारख या फरखती वगै़रह के नाम पर जब बहुत कुछ गैर-कानूनी वसूलियाँ उनसे की जाती हैं, तो इस चार आने की क्या गिनती? खतरा यही है कि जब चवन्नी की वसूली जारी हो जायगी तो कुछ दिनों के बाद कांग्रेस के नाम की भी जरूरत न रहेगी और ये पैसे जमींदार हमेशा लेते रहेंगे। आखिर नये-नये अबवाब इसी तरह तो बने हैं? अबवाबों का इतिहास हमें यही सिखाता है। मगर इससे क्या? इसकी परवाह है किसे? सुरसंड (मुजफ्फरपुर) के एक जमींदार सर चन्द्रेश्वर प्र. न. सिंह यों ही अन्नी के नाम पर न जानें कितने दिनों से गैर कानूनी वसूली किसानों से करते आ रहे हैं! हालाँकि उनके भाई कांग्रेसी हैं श्री राजेश्वर प्र. ना. सिंह और अब तो जेल भी हो आये हैं। यह अन्नी भी इसी तरह बनी होगी।

हाँ, तो हम स्टेशन पर उतरे और सीधे सभा-स्थान की ओर चल पड़े। हमें ठीक याद नहीं कि बैलगाड़ी पर गये या हाथी पर। शायद बैलगाड़ी ही थी। हाथी पर चलना हमें कई कारणों से पसन्द नहीं। वह एक तो धनियों के ही यहाँ होता है। दूसरे वह रोबदाब और शानबान की चीज और सवारी है और किसानों की सभा में यह चीज मुझे बुरी तरह खटकती है। इसीलिए बिना किसी मजबूरी के मैं उसे कभी कबूल नहीं करता। किसानों की अपनी चीज होने के कारण मुझे बैलगाड़ी दिल से पसन्द है। कभी-कभी पालकी में भी, आदमियों के कन्धों पर, चलना ही पड़ता है। मगर जब कोई चारा नहीं होता और कहारों के खाने-वाने तथा उनकी पूरी मजदूरी का पक्का इन्तजाम हो लेता है तभी मैं उस पर चढ़ता हूँ। मैं कहारों से खामख्वाह पूछ लेता हूँ कि उन्हें जो कुछ मिला उससे वे पूरे सन्तुष्ट हैं या नहीं। यदि जरा भी कसर मालूम हुई तो उसे पूरा करवाता हूँ। सभी जगह मैंने देखा है कि कहारों के साथ बड़ी ही लापरवाही और बेमुरव्वती से व्यवहार किया जाता है। इसीलिए मैं उनसे खुद पूछता हूँ। कई जगह तो मारे प्रेम के उनने मुझे अपने कन्धों पर खामख्वाह चढ़ा लिया है।

इस प्रकार जोश-खरोश और उछलते उत्साह के साथ हम लोग सभा-स्थान में पहुँचे। बरसात की कड़ी धूप ने हमें रास्ते में काफी तपाया था और दुपहरी का समय भी था। मेघ न होने के कारण सूर्य अपना तेज वैसे ही दिखा रहा था और लोगों को झुलसा रहा जैसे जमींदार किसानों के सम्बन्ध में करता है। पेड़ों की छाया में हमें शान्ति मिली। ठण्डे हो के और पानी-वानी पी-पा के हम लोग मीटिंग में पहुँचे। जहाँ मीटिंग थी उसे धर्मपुर का परगना कहते हैं। इसमें पूर्णियाँ जिले का बहुत बड़ा हिस्सा आ जाता है। यहाँ के जमींदार महाराजा दरभंगा हैं। कुरसैला के जमींदार और बिशुनपुर के जमींदार वग़ैरह दो-एक ही और हैं। मगर महाराजा के सामने इनकी हस्ती नहीं के बराबर है। ये लोग महाराजा की हजारों बीघा रैयती जमीनें रखते हैं। खासकर बिशुनपुर वाले तो बीसियों हजार बीघे रैयती जमीनें रखते हैं, जो दर रैयतों(undertenants) या शिकमी किसानों को बँटाई पर जोतने को देते हैं। कहीं-कहीं नगद लगान भी लेते हैं। मगर जब चाहें जमीन छीन लें इसकी पूरी बन्दिश कर रखते हैं। इसलिए इस मामले में जमींदारों से भी ये मालदार लोग जो अपने को मौका पड़ने पर किसान भी कह डालते हैं, ज्यादा जालिम और खतरनाक हैं।

महाराजा की जमींदारी के और जुल्म तो हईं, जो आमतौर से सभी जमींदारियों में पाये जाते हैं। उनके सिवाय एक खास जुल्म चरसा महाल वाला पहले ही बताया जा चुका है। लेकिन धर्मपुर में ही पता चला कि सर्वे खतियान में जमीन तो किसान की कायमी रैयती लिखी है। फिर भी उस पर जो पेड़ हैं वह सोलहों आने जमींदार के लिखे हैं। असल में पूर्णियाँ जिले में ज्यों-ज्यों उत्तर जाइये नेपाल की तराई की ओर त्यों-त्यों मधुमक्खियाँ पेड़ों पर शहद के बड़े-बड़े छत्ते लगाती दिखेंगी। वहाँ शहद का खासा व्यापार होता है। इसीलिए जमींदार ने चालाकी से पेड़ों पर अपना अधिकार सर्वे के समय लिखवा लिया। किसानों को तो उस समय इसका ज्ञान था ही नहीं। वे सर्वे का महत्त्व भी ठीक समझ न सके थे, और वही लिखा-पढ़ा आज उनका गला कतर रहा है। वहाँ अक्ल और दलील की गुंजाइश हई नहीं कि किसान की जमीन पर जमींदार के पेड़ कैसे हो गये? और अगर आज भी शहद उतारने वालों को किसान कह दे कि खबरदार, मेरी जमीन पर पाँव न देना, नहीं तो हड्डियाँ टूटेंगी। हवाई जहाज से जैसे हो ऊपर ही ऊपर उड़ के पेड़ पर चढ़ जाओ और शहद ले जाओ, तो क्या हो? आखिर कुछ तो करना ही होगा। नहीं तो काम कैसे चलेगा? जब वे लोग बातें नहीं सुनते तो जैसे को तैसा जवाब देना ही होगा।

दूसरा जुल्म यह मालूम हुआ कि वहाँ घाट के नाम से एक टैक्स लगता है। यह टैक्स दूसरी जमींदारियों में भी पाया जाता है। एक बार तो ऐसा मौका लगा कि हम अपने साथियों के साथ फार्विसगंज के इलाके में बैलगाड़ी से देहात में जा रहे थे। रास्ते में एकाएक कोई आया और गाड़ी रोक के घाट माँगने लगा। पीछे जब उसे पता चला कि गाड़ी में कौन बैठा है तब सरक गया और हम आगे बढ़े। बात यह है कि कुछ दिन पहले जहाँ-तहाँ पानी की धाराएँ उस जिले में बहुत थीं। नतीजा यह होता था कि लोगों को हाट-बाजार जाने या दूसरे मौकों पर बड़ी दिक्कतें होती थीं। पार करना मुश्किल था। जान पर खतरा था। इसलिए जमींदार लोग अपनी-अपनी जमींदारियों में ऐसी धाराओं के घाटों पर नावों का इन्तजाम करते थे, ताकि लोगों को आराम मिले। शुरू-शुरू में यह काम मुफ्त ही होता था। फिर उनने धीरे-धीरे नाव वग़ैरह का खर्च पार होने वालों से वसूलना शुरू किया। उसके बाद ठीकेदार मुकर्रर कर दिये गये जो अपनी नावें रखते और आर-पार जाने वालों से खेवा ले लेते थे! अन्ततोगत्वा जमींदारों ने घाटों को नीलाम करना शुरू किया और जोई ज्यादा पैसे देता वही घटवार या घाट के ठेकेदार बनता था। वह अपना खर्च मुनाफे के साथ खेवा के रूप में लोगों से वसूलता था। यही तरीका बराबर चलता रहा। धीेर-धीरे घटवार मौरूसी बन गये। उसके बाद वे धाराएँ सूख गयी और नाव की जरूरत ही न रही। मगर घटवार तो रही गये। वे जमींदारों को पैसे देते और लोगों से वसूल लेते। भला यह लूट और अन्धेरखाता नहीं है तो और हई क्या? हमें इसके खिलाफ भी तूफान खड़ा करना पड़ा।

दरभंगा महाराज की जमींदारी में ही हमें सबसे पहले वहीं पर पता चला कि ‘टरेस’ के नाम पर गरीबों पर एक बला आयी है और जमींदार सबों को परेशान कर रहा है। पहले तो हम समझी न सके कि यह ‘टरेस’ कौन सी बला है। मगर बातचीत से पता लगा कि असल में ‘ट्रेस पास’ या दूसरे की जमीन पर जबर्दस्ती कब्जा से ही मतलब है। ‘पास’ शब्द को तो हटा दिया और ‘ट्रेस’ का ‘टरेस’ कर दिया है। आखिर अनाड़ी देहाती क्या जानें कि असल शब्द क्या है। बात यों होती है कि इधर कुछ दिनों से, खासकर किसान-सभा के आन्दोलन के शुरू होने पर, जमींदार के आदमियों ने किसानों को तंग करने के नये-नये तरीके सोचने शुरू कर दिये हैं। इस प्रकार एक तो महाराजा की आमदनी बढ़ रही है। दूसरे किसान लोग पस्त हो जाते हैं और सिर उठा नहीं सकते। इसी सिलसिले में यह ट्रेस पास वाला हथियार भी ढूँढ़ निकाला गया है।

असल में सर्वे के समय किसानों के मकानों की जमीन खतियान में लिखी गयी है। मगर मकान या झोंपड़े दूर-दूर करने से बीच-बीच में खाली जमीनें भी रह गयी हैं जिन्हें कहीं-कहीं गैर मजरुआ आम और कहीं-कहीं खास लिखा गया है। मुमकिन है कि समय पा के कुछ ज्यादा जमीन पर किसानों के पशु वग़ैरह बाँधे जाते हों। यह बात तो सर्वे के समय भी होती होगी। आखिर कलकत्ता जैसे श्हार में तो किसान बसते ही नहीं कि इंच-इंच जमीन की खोज हो। मगर सर्वे में इसका जिक्र नहीं हुआ। चौबीसों घण्टे पशु घर में ही तो रहते नहीं। बाहर भी बँधते ही हैं। यह भी हो सकता है कि खामख्वाह कहीं किसान ने कुछ जमीन हथिया ली हो। आखिर इफरात जो ठहरी। मगर जमींदार को तो मौका चाहिए तंग करने का। उसके अमले तो घूस और सिफारिश चाहते हैं जो अब किसानों से आमतौर से होना असम्भव है। इसलिए रंज हो के खतियान के मुताबिक जमीन नापी जाती है। नापने वाला वही अमला होता है। कोई सरकारी ओवरसियर या अमीन नहीं आता। और अगर नाप में ज्यादा जमीन कुछ भी निकली तो किसान पर आफत आयी। अमले नाप-जोख में गड़बड़ी करके भी ज्यादा जमीन साबित कर देते हैं। इस प्रकार किसान पर ट्रेस पास का केस चलाया जाता है। यदि उसने डर से अमलों की पूजा-प्रतिष्ठा पहले ही कर ली और जमींदार को भी कुछ नजर या सलामी दे दी तब तो खैरियत। नहीं तो लड़ते-लड़ते तबाही की नौबत आती है। इस ‘टरेस’ के करते मैंने किसानों में एक प्रकार का आतंक वहाँ देखा। पीछे तो भागलपुर, दरभंगा आदि में भी यही बात मिली।

यों तो सैकड़ों प्रकार की गैर-कानूनी वसूलियाँ समय-समय पर चलती ही रहती हैं। मगर दो-एक तो वहाँ की खास हैं। मवेशियों की खरीद-बिक्री पर खुद किसानों से एक प्रकार का टैक्स लिया जाता था और शायद अब भी हो। और गल्ले की बिक्री पर भी और इस प्रकार उनके नाकों दम थी। मगर पुनाही खर्च के नाम से जो वसूली होती है वह बड़ी ही बुरी है इसी प्रकार कोसी नदी के जंगलों में सूअर या हिरन का शिकार खेलने के लिए जब कभी महाराजा का, उनके दोस्तों का या उनके मैनेजर का कैम्प देहातों में जाता है तो किसानों से बकरी, बकरे, दूध, घी, मुर्गी, मुर्गे वग़ैरह की शकल में सैकड़ों चीजें वसूल की जाती हैं। यों कहने के लिए शायद उन चीजों की कीमत हिसाब में लिखी जाती है। मगर गरीब किसानों को मिलती तो है नहीं। और अगर कहीं कभी एकाध को मिली भी, तो नाममात्र को ही। बाकी तो अमलों के ही पेट में चली जाती है। यह भी होता है कि दो की जगह चार बकरे मँगाये जाते हैं और उनमें कुछ कैम्प खर्च में लिखे जाते ही नहीं। उन्हें तो ऊपर ही ऊपर वे अमले उड़ा ही लेते हैं। फिर उनका खर्च मिले तो कैसे? कुम्हारों से मुफ्त बर्तन और कहारों से बेगार में काम करवाना तो आम बात है। दूसरे गरीब भी इसी प्रकार खटते रहते हैं।

पुनाही की बात यों है कि साल में एक बार महाराजा के हर सर्किल ऑफिस में बहुत बड़ा उत्सव मनाया जाता है और हवन-पूजा होती है। खूब खान-पान भी चलता है। बहुत लोग जमा होते हैं। यह उत्सव प्रायः दशहरा (दुर्गापूजा) के समय ही या उसी के आस-पास होता है। बिहार के अन्यान्य जिलों में जो तौजी की प्रथा है वह तो ठीक दशहरे के दिन ही होती है। यह पुनाही उसी तौजी का कुछ विस्तृत रूप है। असल में संस्कृत के पुण्याह शब्द का अर्थ है पवित्र दिन। इसी का अपभ्रंश पुनाह हो गया। पुनाही उसी पुनाह या पुण्याह का सूचक है। इसके मानी हैं पुण्याह वाला। जमींदार अगले साल के लगान की वसूली उसी दिन से शुरू करता है जैसा कि और जगह तौजी के दिन शुरू करता है। हिन्दी साल भी तो दशहरे के बाद ही शुरू कार्तिक से ही आरम्भ होता है। इसीलिए अगले साल के लगान की वसूली का श्रीगणेश उस दिन ठीक ही है। और जमींदार के लिए इससे पवित्र दिन और क्या होगा कि उसने लगान की वसूली साल शुरू होने के पहले ही जारी कर दी। किसानों के लिए यह दिन भले ही बुरा हो। मगर जमींदार के लिए तो सोना है। इसी से वह उत्सव पुनाही का उत्सव कहा जाता है।

उसके खर्च का एक इस्टिमेट या अन्दाज (Budget) तैयार होता है। वह हर साल की ही तरह होता है। हाँ, कुछ घट-बढ़ तो होती ही है। इसके बाद वह हर तहसीलदार के हिस्से में बाँट दिया जाता है कि कौन कितना वसूल करेगा किसानों से। अब तहसीलदार लोगों को मौका मिलता है कि इसी बहाने कुछ अपने लिए भी वसूल कर लें। इसलिए सर्किल से उनके जिम्मे जितना रुपया या घी वग़ैरह वसूलने को दिया गया था। उसका ड्योढ़ा-दूना करके उसे अपने पटवारी आदि मातहतों के जिम्मे बाँट देते हैं कि कौन कितना वसूल करेगा। फिर वे पटवारी वग़ैरह भी अपना हिस्सा उसी तरह ड्योढ़ा-दूना करके अपने अधीनस्थ नौकरों के हिस्से लगाते हैं जो कुछ बढ़ा-चढ़ा के हर किसान से वसूल करते हैं। इस तरह वसूली के समय असल खर्च कई गुना बन के वसूल होता है और गरीब किसान मारे जाते हैं। जो कुछ उन्हें घी-दूध आदि के रूप में या नगद देना पड़ता है वह ऐसा टैक्स है कि कुछ कहिये मत। उसके बदले में उन्हें मिलता कुछ भी नहीं। वह तो लुट जाते हैं। शायद एकाध मिठाई मिलती हो!

इस प्रकार के जुल्मों और धींगामुश्तियों को कहाँ तक गिनाया जाय? सिर्फ नमूने के तौर पर कुछेक को दिखला दिया है। असल में जब जमींदार लोग किसानों को आदमी समझते ही नहीं, इन्सान मानते ही नहीं, तो मुसीबतों की गिनती क्या? वे तो जितनी हैं सब मिलके थोड़ी ही हैं! उनके भार से दबे किसानों का गिरोह उस सभा में हाजिर था। हमने जमींदार और उसके नौकरों कह खिदमत सभा में की तो काफी। जले तो पहले से ही थे। किसानों के करुण-क्रन्दन, उनकी चीख-पुकार ने उस पर नमक का काम कर दिया। फिर तो उबल पड़ना स्वाभाविक था। हमने जालिमों को ऐसा ललकारा और उनकी धज्जियाँ इस तरह उड़ाईं कि एक बार मुर्दे किसानों में भी जान आ गयी। उनने समझ लिया कि उनकी तकलीफों का खात्मा हो सकता है। पहले तो समझते थे कि ‘‘कोउ नृप होइ हमैं का हानी। चेरि छाँड़ि न होउब रानी!’’ पर एक बार उनकी रगों में गर्मी आ गयी।

सभा के बाद टीकापट्टी आश्रम में गये जो कुछ दूर है। रात को वहीं ठहरे। सुबह घूम-घाम के आश्रम देखा। वह तो गांधीवाद का अखाड़ा है। चर्खे, करघे का कार-बार खूब फैला नजर आया। वहाँ के रहने वाले कभी-कभी जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ पहले आवाज उठाते थे। देहातों में घूम के मीटिंगें भी करते थे। मगर धीरे-धीरे यह बात कम होती गयी। अब तो यह बात शायद ही होती है। शायद प्रारम्भिक दशा में वहाँ जमना था। इसीलिए किसान जनता की सहायता जरूरी थी। अब तो काफी जम गये! सम्भवतः अब वह प्रश्न छेड़ने की जरूरत इसीलिए नहीं पड़ती! किसान-सभा का वह जमाना था भी शुरू का ही। लोग समझी न सके थे कि यह किधर जायगी। वर्ग चेतना किसानों में पैदा करेगी और वर्ग संघर्ष को काफी प्रोत्साहन देगी यह बात तब तक लोगों के दिमाग में आयी न थी। इसीलिए मुझे भी उस आश्रम में निमन्त्रिात किया गया। स्टेशन के पास की सभा का प्रबन्ध भी उन लोगों ने ही किया था। मगर अब तो किसान-सभा से लोग भय खाते हैं। वर्ग विद्वेष की बात बहुत फैली है। ऐसी हालत में वैसे आश्रम यदि सतर्क हो जायँ तो कोई ताज्जुब नहीं। असल में ज्यों-ज्यों किसानहित और जमींदारहित के बीच वाली चौड़ी एवं गहरी खाई साफ-साफ दीखने लगी है त्यों-त्यों दुभाषिये लोगों-दोनों तरफ की बातें मौके-मौके से करने वाले लोगों के लिए इन बातों की गुंजाइश कम होती जाती है। अब तो गांधीवादी हमारे साथ बैठने से भी डरते हैं कि कहीं लीडर लोग जवाब न तलब करें। ऐसा हुआ भी है। चलो अच्छा ही हुआ। किसानों को सबसे ज्यादा धोखा उन्हीं लोगों से है जो ऊपर से उनके हितू होते हुए भी भीतर से वर्ग सामंजस्य के हामी हैं और चाहते हैं कि किसानों और जमींदारों में कोई समझौता हो जाय। नहीं तो अन्ततोगत्वा वे कहीं के न रह जायँगे। क्योंकि आखिर अब तो किसानों के ही हाथों में अन्न देने के सिवाय वोट देने की भी शक्ति है।

टीकापट्टी से हमें बनमनखी जाना था। यह रेलवे जंकशन मुरलीगंज और बिहारीगंज स्टेशनों से, जो पूर्णियाँ और भागलपुर जिलों की सीमा पर पड़ते हैं, आने वाली लाइनों का है। वहीं से पूर्णियाँ होती कटिहार को लाइन जाती है। हमें बड़हरा स्टेशन पर ट्रेन सवेरे ही पकड़नी थी। अगले दिन रवाना होने की बात तय पायी थी। बड़हरा वहाँ से दूर है। सड़क-वड़क तो कोई है नहीं। सवारी भी सिवाय बैलगाड़ी के दूसरी सम्भव न थी। अगर दोपहर के बाद रवाना हुआ जाय और रातोंरात चलते जायँ तो ठीक समय पर शायद पहुँच जायँ। किसनगंज से जहानपुर वाली यात्र से यह कठिन थी। वहाँ केवल दिन में ही चलना पड़ा। मगर यहाँ तो रात में बराबर चलना था! मगर करना भी क्या था? कोई उपाय न था आखिर किसान-आन्दोलन की बात जो ठहरी!

यही हुआ भी। हमारी बैलगाड़ी रवाना हो गयी। बदकिस्मती से जो बैलगाड़ी मिली वह छोटी सी थी। उस पर पर्दा भी न था कि धूप या पानी से बच सकें। अकसर उस ओर ऊपर से छाई हुई गाड़ियाँ मिलती हैं। मगर वह तो थी निरी सामान ढोने वाली। उसमें एक और भी कमी थी। गाड़ियों के दोनों तरफ बाँस की बल्लियाँ लगी रहती हैं जिनमें मज़बूत रस्सी लगा कि गाड़ी के साथ बाँधते हैं। किनारों पर लगे खूँटों पर वह बल्लियाँ लगाई जाती हैं। इस प्रकार गाड़ी में बैठने पर भूल-चूक से नीचे गिरने का खतरा नहीं रहता। सामान भी हिफाजत से रहता है। मगर हमारी गाड़ी में यह एक भी न था। इससे खुद भी गिर पड़ने का डर था और सामान के भी लुढ़क जाने का अन्देशा था। गाड़ीवान के अलावे हम तीन आदमी उस पर बैठे थे। सामान भी था।

हालत यह हुई कि हम सभी दिन में तो पलथी मारे बैठे ही रहे। रात में भी वही करना पड़ा। सोने की बात तो छोड़िये। जरा सा लेटना या झुकना भी गैर-मुमकिन था। यह तकलीफ बर्दाश्त के बाहर थी। जिन्दगी में मेरे लिए यह पहला ही मौका था जब सोलह घण्टे से ज्यादा बैलगाड़ी पर बैठे-बैठे सारी रात गँवाई। बैलगाड़ी की सवारी तो यों भी बहुत बुरी होती है। उसमें उठाव-पटक तो कदम-कदम पर होता ही रहता है। धक्के ऐसे लगते हैं कि कलेजा दहल जाता है। यदि उस पर पुआल वग़ैरह कोई नर्म चीज न हो तो काफी चोट लगती है। चूतड़ जखमी हो जाते हैं। इतने पर भी यदि लेटने या सोने का जरा भी मौका न मिले तो मौत ही समझिये। मगर वहाँ ये सारे सामान मौजूद थे! मैं मन ही मन हँसता था कि लोग समझते होंगे कि किसान-सभा का काम बहुत ही आराम वाला है। मैं यदि एक दिन भी सारी रात जग जाऊँ तो अगले दिन जरूर ही बीमार पड़ जाऊँ, यह बात जान लेने पर उस रात की तकलीफ का अन्दाज लगाया जा सकता है। तिस पर भी डर था कि कहीं ट्रेन न छूट जाय। इसलिए गाड़ीवान को सारी रात ताकीद करते रहे। इस प्रकार गाड़ी आने के पहले ही जैसे-तैसे बड़हरा स्टेशन पहुँची तो गये।

(शीर्ष पर वापस)

12

पूर्णियाँ जिले की ही घटना है। सो भी उसी सन् 1935 ई. की। यह सन् 1935 किसान-सभा के इतिहास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसी साल पहले-पहल बिहार प्रान्तीय किसान-सभा ने जमींदारी-प्रथा के मिटाने का निश्चय नवम्बर महीने के अन्त में हाजीपुर में किया था। प्रान्तीय किसान कॉन्फ्रेंस का चौथा अधिवेशन वहीं हुआ था। मैं ही उसका सभापति था। उसी साल उसी नवम्बर महीने में ही हाजीपुर के अधिवेशन के पहले ही, जहाँ तक याद है, 11-12 नवम्बर को धर्मपुर परगने के राजनीतिक-सम्मेलन और किसान-सम्मेलन बनमनखी में ही हुए थे। पहले सम्मेलन के अध्यक्ष बाबू अनुग्रह नारायण सिंह और दूसरे के बाबू श्रीकृष्ण सिंह थे। यही दोनों सज्जन पीछे कांग्रेसी-मन्त्रिामण्डल के जमाने में अर्थमन्त्री और प्रधानमन्त्री बिहार प्रान्त में बने थे। इसी भविष्य की तैयारी में जो अनेक बातें होती रहीं उन्हीं में वे दोनों सम्मेलन भी थे। हमें भी वहाँ से निमन्त्राण मिला था। यह भी आग्रह किया गया था कि यदि किसी अनिवार्य कारण से कदाचित् हम न आ सकें तो किसान-सभा के किसी नामी-गरामी लीडर को ही भेज दें।

मगर हमने जान-बूझ के दो में एक भी न किया। न खुद गये और न किसी को भेजा ही। इसके लिए वहाँ के साथियों से क्षमा माँग ली अपनी मजबूरी दिखा के। बात दरअसल यह थी कि अब किसान-सभा ने जड़ पकड़ ली थी। उसकी आवाज अब कुछ निडर सी होने लगी थी। वह अब किसानों की स्वतन्त्रा आवाज उठाने का न सिर्फ दावा रखती थी, बल्कि हिम्मत भी। इसीलिए कांग्रेसी लीडरों में उसके खिलाफ कानाफूँसी होने लगी थी। भीतर-भीतर से विरोध भी हो रहा था। लोग समझते थे कि हमारे जैसे कुछ इने-गिने लोग ही यह तूफान खड़ा कर रहे हैं। नहीं तो कांग्रेस के अलावे और किसी संस्था को किसान खुद पसन्द नहीं करते। जन-आन्दोलन के बारे में ऐसा खयाल कोई नयी बात न थी। यह सनातनधर्म है। आखिर कांग्रेस को भी तो सरकारी अधिकारी और दकियानूस दल के लोग पहले ऐसा ही कहते थे।

इसलिए हमने और हमारे साथियों ने सोचा कि यदि बनमनखी जायँगे तो कांग्रेस के प्रमुख लीडरों से प्रत्यक्ष संघर्ष हो सकता है। हम जानते थे कि स्वतन्त्रा किसान-सभा बनाने और जमींदारी मिटाने का सवाल वहाँ उठेगा। खासकर हमारे रहने पर। ऐसी हालत में संघर्ष अनिवार्य है। हमारी मौजूदगी में भी यदि ये प्रश्न न उठे तो राजनीतिक-सम्मेलन से अलग किसान-सम्मेलन करने के कुछ मानी नहीं। और आखिरत में वहाँ के मजलूम किसान समझेंगे क्या? यही न कि हम भी जमींदारों से डरते हैं, उनके दलाल हैं और सिर्फ इसीलिए किसान-सभा बना रखी है? यह तो हमारे लिए डूब मरने की बात होगी। इसलिए हर पहलू से सोचने पर यही तय पाया कि वहाँ न जाना ही अच्छा। हमने यह भी सोच लिया कि यदि इतने पर भी वहाँ जमींदारी मिटाने और बिहार प्रान्तीय किसान-सभा की छत्र-छाया में उस जिले में किसान संगठन करने के सवाल उठे तो यह हमारी सबसे बड़ी जीत होगी। तब तो हमारे विरोधियों को यह कहने का मौका ही न मिलेगा कि किसान-सभा के नाम पर हमीं लोग खामख्वाह टाँग अड़ाते फिरते हैं-किसान यह सब नहीं चाहते। तब तो दुनिया की आँखें खुलने का मौका मिलेगा कि किसानों की जरूरत ने ही किसान-सभा को पैदा किया है। और अगर ये सवाल उठे और बहुमत ने इनके पक्ष में ही राय दी, जैसा कि हमारा दृढ़ विश्वास था, तब तो बेड़ा ही पार समझिये। तब तो हमारी दूनी जीत समझी जायगी। हम वहाँ रहने पर तो शायद लोगों को दबायें और मुरव्वत से काम लें। मगर न रहने पर तो लोग बेखटके अपने विचारों से पूरा काम लेंगे। असल में कभी-कभी नेताओं की दूरंदेशी, उनका दब्बूपन जिसे वे लोग समझदारी कहते हैं, उनकी उदारता-ये बातें जनता का बहुत नुकसान करती हैं। इनके चलते उनके दिल, दिमाग पर वाहियात लगाम सी लग जाती है और जनता के विचार का निरबाध प्रवाह रुक जाता है। हमने सोचा कि यह महा पाप हमें न करना चाहिए।

जहाँ तक स्मरण है, हम पटने में बिहार प्रान्तीय किसान कौंसिल (कार्यकारिणी) की मीटिंग कर रहे थे। क्योंकि हाजीपुर के सम्बन्ध में सारी तैयारी करनी थी, सब बातें सोचनी थीं। बनमनखी के सम्मेलनों के फौरन ही बाद यह मीटिंग थी। वहीं पर जब हमने बनमनखी से लौटे किसी व्यक्ति के मुख से यह सुना कि वहाँ किसान-सम्मेलन में न सिर्फ बिहार प्रान्तीय किसान-सभा की मातहती में स्वतन्त्रा किसान-सभा बनाने का प्रस्ताव पास हुआ, बल्कि जमींदारी-प्रथा मिटाने का भी निश्चय हो गया, तो हम उछल पड़े। हमने यह भी सुना कि प्रायः पन्द्रह हजार किसान उपस्थित होंगे। क्योंकि बनमनखी तो घोर देहात है। और लीडरों के हजार कुड़बुड़ाने, सरतोड़ परिश्रम करके विरोध करने पर भी केवल तीन-चार सौ लोगों ने विरोध में राय दी। बाकियों ने ‘इन्किलाब जिन्दाबाद’, ‘जमींदारी-प्रथा नाश हो’, ‘किसान राज्य कायम हो’, ‘किसान-सभा जिन्दाबाद’ आदि नारों के बीच इन प्रस्तावों के पक्ष में राय दी। विरोध करने वाले न सिर्फ पूर्णियाँ जिले के कांग्रेसी लीडर थे, प्रत्युत बाहर वाले भी। किसी ने खुल के विरोध किया और सारी ताकत लगा दी, तो किसी ने भीतर ही भीतर यही काम किया। मगर विरोध में चूके एक भी नहीं। किसान-सभावादियों पर करारी डाँट भी पड़ी। मगर नतीजा कुछ न हुआ।

इस निराली घटना ने, जो अपने ढंग की पहली ही थी, हममें बहुतों की आँखें खोल दीं, चाहे इससे कांग्रेसी लीडरों की आँखें भले ही न खुली हों। मेरे सामने तो इसके बहुत पहले कुछ ऐसी बातें हो गयी थीं जिनसे मेरा विश्वास किसानों में, किसान-सभा में और उसके लक्ष्य में पक्का हो गया था। मगर इस घटना ने हमारे दूसरे साथियों को भी ऐसा विश्वासी बनने का मौका दिया।

(शीर्ष पर वापस)

13

ठीक याद नहीं, किस साल की बात है। शायद सन् 1936 ई. की गर्मी के दिन थे। मगर कोसी नदी के इलाके में तो उस समय बरसात शुरू होई जाती है। भागलपुर के मधेपुरा शहर में, जिसे कोसी ने न सिर्फ चारों ओर से घेर रखा है, बल्कि ऊजड़ सा बना दिया है, हमारी एक मीटिंग का प्रबन्ध किया गया था। भागलपुर जिले के उत्तरी भाग में सुपौल और मधेपुरा ये दो सब-डिविजन पड़ते हैं। सुपौल से दक्षिण मधेपुरा है। मगर कोसी का कोपभाजन होने से वह शहर तबाह, बर्बाद है। अब तो कोसी ने उसका पिण्ड छोड़ा है। इसलिए शायद पहले जैसा फिर बन जाय।

हाँ, तो हमें उस दिन वहाँ किसानों की सभा करनी थी। उसके पहले दिन, जहाँ तक याद है, सुपौल से बैलगाड़ी में बैठ के रवाना हुए थे। क्योंकि रास्ते में एक और मीटिंग करनी थी। उस स्थान का नाम शायद गमहरिया है। एक बाजार है। जहाँ बनिये लोग भी काफी बसते हैं। वहाँ भी काफी उत्साह था। मीटिंग भी अच्छी हुई थी। वहीं से हम मधेपुरा के लिए सवेरे ही खा-पी के रवाना हुए थे, ताकि तीसरे पहर मीटिंग में पहुँच जायँ। मगर बैलगाड़ी की सवारी थी। मालूम पड़ता था, रास्ता खत्म ही न होगा। जब तीन-चार बजे तो हमारी घबराहट का ठिकाना न रहा। गाड़ी छोड़ के दौड़ना चाहते थे। पर, आखिर दौड़ के जाते कहाँ? अकेले तो रास्ता भी मालूम न था। नदी-नालों का प्रदेश ठहरा। यह दूसरी दिक्कत थी। रास्ते में मक्की, अरहर वग़ैरह की फसल खड़ी थी और रास्ता उन्हीं खेतों से हो के था। कहीं उसी जंगल में भटक जायँ तो और भी बुरा हो। हमारे साथ में वहाँ के प्रमुख कार्यकर्त्ता श्री महताबलाल यादव थे। वह हमारी दौड़ में साथ दे न सकते थे। जैसे सारन जिले की अर्कपुर वाली सभा से लौटने पर हमारे साथी हिम्मत वाले मिले थे वह बात यहाँ न थी। इसीलिए सिवाय गाड़ीवान को बार-बार ललकारने के कि ‘जरा तेज हाँको भई’ और कोई चारा न था।

मगर देहात का बरसाती रास्ता घूम-घुमाव वाला था। वह गाड़ीवान बेचारा भी क्या करता? उसने काफी मुस्तैदी दिखाई। बैल भी काफी परेशान हुए। फिर भी मधुपुरा दूर ही रहा। बड़ी दिक्कत और परेशानी के बाद शाम होते-होते हम कोसी के किनारे पहुँचे। अब हमारे बीच में यह नदी ही खड़ी थी। नहीं तो मीटिंग में दौड़ जाते। झटपट पार होने की कोशिश करने लगे। यह नदी भी बड़ी बुरी है। धारा चौड़ी और तेज है। हमने वहीं देखा कि किसान लोग निराश हो के सभा-स्थान से लौट रहे हैं। कुछ तो नाव से इस पार आ गये हैं। कुछ उस पार किनारे नाव की आशा में खड़े हैं। दूर-दूर से आये थे। अँधेरा हो रहा था। घर न लौटें तो वहाँ पशु-मवेशियों की हिफाजत कौन करेगा, यह विकट प्रश्न था। खाना-वाना भी साथ न लाये थे। मगर जब उन्हें पता लगा कि हमीं स्वामी जी हैं तो बहुतेरे तो ‘दर्शन’ से ही सन्तुष्ट हो के चलते बने। लेकिन कुछ साथ ही नाव पर फिर वापस लौटे। पार होते-होते काफी अँधेरा हो गया। फिर भी हिम्मत थी कि सभा होगी ही। उस पार वाले भी साथ हो लिये। मैं था आगे-आगे। पीछे किसानों का झुण्ड था। हम लोग बेतहाशा दौड़ रहे थे। खेतों से ही हो के जाना था। फसल खड़ी थी। सभा-स्थान काफी दूर था। हालाँकि हम मधेपुरा में ही दौड़ रहे थे। लोगों ने ‘स्वामी जी की जय’, ‘लौट चलो’ आदि की आवाजें लगानी शुरू कीं। ताकि जो लोग दूसरे रास्तों से लौटते हों घर की तरफ, वे भी सभा में वापस आयें। अजीब सभा थी। एक बार तो कुछ देर तक दिशाएँ पुकार से गूँज गयीं। जब तक हमारी दौड़ जारी रही पुकार भी होती ही रही। जो जहाँ था वहीं से जय-जय करता लौट पड़ा। सूखती फसल को गोया बारिश मिली। निराश लोगों में खुशी का ठिकाना न रहा। चाहे भूखे भले ही रहें, मगर स्वामी जी का व्याख्यान तो सुन लें, यही खयाल उनके दिलों में उछालें मार रहा था।

खैर, यह पहुँचे, वह पहुँचे, ऐसा करते-कराते हम लोग बेतहाशा दौड़ रहे थे। लोग भी चारों ओर से आवाज सुनते ही दौड़ पड़े थे। जोई सुनता था वही आवाज लगाता था। उस दिन हमने दिखला दिया कि सभा करने और उसे चलाने में ही हम आगे-आगे नहीं रहते, मौका पड़ने पर दौड़ने में भी आगे ही रहते हैं। उस दिन कहाँ से उतनी ताकत हममें आ गयी, यह कौन बताये? मैं सब चीजें बर्दाश्त कर सकता हूँ। मगर एक भी मीटिंग से किसान निराश हो के लौट जायँ और मैं ठीक समय पर मीटिंग में पहुँच न सकूँ, यह बात मेरे लिए बर्दाश्त के बाहर है, मौत से भी बुरी है। उस समय मेरी मनोवृत्ति कैसी होती है इसे दूसरा समझी नहीं सकता। यदि हमारे कार्यकर्त्ता भी मेरी उस वेदना को समझ पाते तो भविष्य में ऐसी गलतियाँ न करते। उस मनोवृत्ति के फलस्वरूप मुझमें निराशा के बदले काफी बल आता है ताकि किसी भी प्रकार मीटिंग में पहुँच तो जाऊँ। क्योंकि यदि कुछ भी किसान मुझे वहाँ देख लेंगे तो उनके द्वारा धीरे-धीरे सबों में खबर फैल जायगी कि मैं मीटिंग में पहुँचा था जरूर। देरी का कारण सवारी ही थी।

सभा-स्थान राष्ट्रीय स्कूल और कांग्रेस ऑफिस के पास का मैदान था। मैं भी पहुँचा और लोग भी आये, गोकि बहुतेरे चले गये थे। मैंने उन्हें उपदेश दिया और देरी के लिए माफी माँगी। यह भी तय पाया कि अगले दिन फिर सभा होगी। रातों-रात खबर फिरा दी गयी। लोग अगले दिन भी काफी आये। आयें भी क्यों नहीं? कोसी ने तो उनकी कचूमर निकाल ही ली है। मगर बचे-बचाये रक्त को जमींदारों ने चूस लिया है। केवल कंकाल खड़ा है। यही हैं जमींदारी-प्रथा के मारे हमारे किसान!

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14

भागलपुर जिले के उत्तरी हिस्से में कोसी नदी और जमींदारों ने कुछ ऐसी गुटबन्दी की है कि किसान लोग पनाह माँगते हैं। दोनों ही निर्दय और किसानों की ओर से ऐसे लापरवाह हैं कि कुछ कहिये मत। कोसी को तो खैर न समझ है और न चेतनता। इसलिए वह जो भी अनर्थ करे समझ में आ सकता है। वह तो अन्धी ठहरी। मगर इन्सान और सभ्य कहे जाने वाले ये जमींदार! इन्हें क्या कहा जाय? जब कोसी से भी बाजी मार ले जाते हुए ये भलेमानस देखे जाते हैं तो आश्चर्य होता है। मालूम होता है, ये लोग नादिरशाह हैं। इन्हें मनुष्यता से कोई नाता ही नहीं। इनके लिए कोई आईन कानून भी नहीं हैं! इन निराले जीवों को कुदरत ने क्यों पैदा किया यह पता ही नहीं चलता!

किसान-सभा के ही आन्दोलन के सिलसिले में मैं कई बार उस इलाके में गया जिसे कोसी ने उजाड़ दिया है। उसकी धारा को कोई ठिकाना नहीं है। रहती है रहती है, एकाएक पलट जाती है और आबाद भू-भाग को अपने पेट में बीसियों साल तक लगातार डाल लेती है। यह ठीक है कि जिस जमीन को छोड़ देती है वहाँ पैदावार तो खूब ही हो जाती है। मगर झौआ, खरही, वग़ैरह का ऐसा घोर जंगल हो जाता है कि कुछ पूछिये मत। जंगली सूअर, हिरण और दूसरे जानवरों के अड्डे उस जंगल में बन जाते हैं। फिर तो वे लोग दूर तक धावा मारते हैं। किसानों की फसलें बचने पाती ही नहीं हैं। वे लोग पनाह माँगते फिरते हैं। यह भी नहीं कि वह जंगल कट जाय। किसानों की क्या ताकत कि उसे काट सकें? हजारों, लाखों बीघे में लगातार जंगल ही जंगल होता है। यदि काटिये भी तो फिर खड़ा हो जाता है। जब तक उसकी जड़ें न खोद डाली जायँ तब तक कुछ होने जाने का नहीं। और यह काम मामूली नहीं है। इसी से किसान तबाह रहते हैं।

कोसी की धारा जिधर जाती है उधर एक तो लक्ष-लक्ष बीघा जमीन पानी के पेट में समा जाती है। दूसरे जंगल हो जाने से दिक्कत बढ़ती है। तीसरे मलेरिया का प्रकोप ऐसा होता है कि सबों के चेहरे पीले पड़ जाते हैं। यह भी नहीं कि धारा सर्वत्र बनी रहे। लाखों-करोड़ों बीघे में स्थिर पानी पड़ा रहता है। इसी से जंगल तैयार होता है और मच्छरों की फौज पैदा होती है। उस पानी में एक प्रकार का धान बोया जा सकता है। मगर उस पर यह आफत होती है कि जब धान में बालें लगती और पकती हैं तो रात में जल वाले पक्षियों का गिरोह लाखों की तादाद में आ के खा डालता है। यह यम-सेना कहाँ से आती है कौन बताये? मगर आती है जरूर। एक तो रात में रोज-रोज इनसे फसल की रखवाली आसान नहीं है-गैर-मुमकिन है। बिना नाव के काम चलता नहीं। सो भी बहुत ज्यादा नावें हों और सैकड़ों-हजारों आदमी सारी रात जगते तथा हू हू करते रहें, तब कहीं जा के शायद पिंड छूटे। किन्तु आश्चर्य तो यह है कि जमींदार उन्हें ऐसा करने भी नहीं देते। उस इलाके में नौगछियां के जमींदार हैं बा. भूपेन्द्र नारायण सिंह उर्फ़ लाल साहब। उन्हें चिड़ियों के शिकार का बड़ा शौक है। खुद तो खुद दूर-दूर से अपने दोस्तों को भी बुलाते हैं इसी काम के लिए। सरकारी अफसर भी अक्सर निमन्त्रिात किए जाते हैं। रात में पानी में चारा डाला जाता है ताकि पक्षियों के दल के दल उसी लोभ से आयें। अब यदि कहीं किसान ने उन्हें उड़ाना शुरू किया अपनी फसल बचाने के लिए, तो जमींदार साहब और उनके दोस्त शिकार कैसे खेलेंगे? तब तो उनका सारा मजा ही किरकिरा हो जायगा। इसीलिए तो खास तौर से चारा फेंका जाता है, ताकि यदि धान के लोभ से पक्षी न भी आयें तो उस चारे के लोभ से तो आयेंगे ही। यही कारण है कि किसानों को सख्त मनाही है कि चिड़ियों को हर्गिज रात में या दिन में उड़ायें न। कैसी नवाबी और तानाशाही है! चाहे किसानों के प्राण पखेरू इसके चलते अन्न बिना भले ही उड़ जायँ। मगर चिड़ियाँ उड़ाई जा नहीं सकती हैं। उनका उड़ना जमींदार को बर्दाश्त नहीं है! खूबी यह है कि यही जमींदार साहब लीडरों की कोशिश से गत असेम्बली चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार क़रीब-कष्रीब बनाये जा चुके थे। बड़ी मुश्किल से रोके जा सके।

उसी इलाके में महाराजा दरभंगा की जमींदारी में दो बड़े गाँव हैं, जैसे शहर हों। उनका नाम है महिषी और बनगाँव। दोनों एक-दूसरे से काफी दूर हैं, जो बीच में तीसरा गाँव है नहीं। फिर भी प्रायः दोनों साथ ही बोले जाते हैं। वहाँ मैथिल ब्राह्मणों की-महाराजा दरभंगा के खास भाई-बन्धुओं की-बड़ी आबादी है। मधेपुरा के लिए जिस सहरसा स्टेशन से एक छोटी सी लाइन जाती है उसी के पास ही वे दोनों गाँव पड़ते हैं। वहीं उतर के वहाँ जाना पड़ता है। बनगाँव के मजलूम किसानों ने हमारी मीटिंग का प्रबन्ध कर रखा था। मगर हमें यह भी पता था कि महिषी में भी वैसी ही मीटिंग है। वहाँ भी जाना होगा। जाना तो जरूर था, पर रास्ते में कोसी की जलराशि जो बाधक थी। इसलिए बहुत दूर पैदल जाके नाव पर चलना था। दूसरा रास्ता था ही नहीं। आखिरकार बनगाँव की शानदार सभा को पूरा करके हम लोग महिषी के लिए चल पड़े। यों तो पानी सर्वत्र खेतों में फैला था और बनगाँव वाले भी काफी तबाह थे। फिर भी कम पानी होने से छोटी से भी छोटी डोंगी उन खेतों में चल न सकती थी। इसीलिए दूर तक कीचड़ और पानी पार करके हमने डोंगी पकड़ी और चल पड़े।

रास्ते में जो दृश्य देखा वह कभी भूलने का नहीं। जो कभी धान के हरे-भरे खेत थे वही आज अपार जलराशि और जंगल देखा। जहाँ कभी धान लहराते और किसानों के कलेजों को बाँसों उछालते थे वहीं आज कोसी हिलोरें मारती थी-वहीं आज जंगल लहराता था। नाव पर चलते-चलते बहुत देर हुई। मगर फिर भी यात्रा का अन्त नहीं। उन खेतों वाले किसान कैसे जीते होंगे यह सवाल स्वाभाविक है। हमें पता लगा-किसानों ने खून के आँसू रोके हमें अपनी दुःख-दर्द की गाथा सुनाई-कि गाँव की चौदह आना जमीन पानी के भीतर है। अच्छे से अच्छे विद्वान् और कुलीन ब्राह्मण गाँव से दौड़ के बाजे-गाजे के साथ घुटने भर पानी में हमें लेने आये थे। उन्हें आज खुशी की घड़ी मालूम पड़ती थी। उन्हें किसान-सभा से आशा थी। इसलिए चाहते थे कि मैं खुद अपनी आँखों उनकी दुर्दशा देख जाऊँ। उनने अपना किसान सुलभ निर्मल एवं कोमल हृदय मेरे सामने बिछा दिया था। सच्ची बात तो यह है कि वह भयावनी हालत देख के मेरा खून खौलता था, मेरी आँखों से आग निकलती थी। जी चाहता था कि इस राक्षसी जमींदारी को कैसे रसातल भेज दूँ-मटियामेट कर दूँ। मैंने दिल भर के वहाँ की सभा में जमींदारी-प्रथा को कोसा! मीटिंग में वहाँ के ब्राह्मणों ने जो अभिनन्दन किया वह कभी भूलने वाला नहीं। उसने मेरा संकल्प और भी दृढ़ कर दिया कि जमींदारी को जहन्नुम में पहुँचा के ही दम लूँगा।

वहीं मुझे पता लगा कि बीसियों साल से जमीन में बारहों मास पानी रहता है। खेती हो पाती नहीं। फिर भी जमींदार का लगान देना ही पड़ता है! वाह रे लगान और वाह रे कानून! न देने पर महाराजा नालिश करते हैं और माल-मवेशी ले जाते हैं। उन्हें तो नालिश करने की भी जरूरत नहीं है। सर्टिफिकेट का अधिकार जो प्राप्त है। जैसे सरकारी पावना बिना नालिश के ही वसूल होता है। क्योंकि जोई चीज मिली जब्त, कुर्क कर ली जाती है। ठीक वैसे ही सर्टिफिकेट के बल पर महाराजाधिराज भी करते हैं। केवल सरकारी माल-मुहकमे के अफसर को बाकायदा सूचना देने से ही उनका काम बन जाता है और खर्र-खर्र रुपये वसूल हो जाते हैं। नहीं तो एक रुपये में पचीस-पचास की चीज नीलाम हो जाती है। इसीलिए किसान जेवर, जमीन बेच के, कर्ज ले के, यहाँ तक कि लड़कियाँ बेच के भी खामख्वाह रुपया अदा करी देते हैं।

सवाल हो सकता है कि जमीन ही क्यों नीलाम हो जाने नहीं देते जब उसमें कुछ होता ही नहीं? बात तो ठीक है। मगर सर्टिफिकेट में जमीन तो पीछे नीलाम होती है। पहले तो और ही चीजें लुटती हैं। एक बात और। किसान को आशा बनी रहती है कि शायद कोसी की धारा यहाँ से चली जाय तो फिर खेतों में खेती हो सकेगी। तब तो कुछ साल तक वे काफ़ी पैदावार भी पाते रहेंगे! इसीलिए उन्हें नीलाम होने देना वह नहीं चाहता! आशा में ही साल पर साल गुजरता जाता है। वह निराश नहीं होता। असल में उसमें जितनी हिम्मत है उतनी शायद ही किसी ऋषि-मुनियों और पैगम्बर औलियों में भी पाई गयी हो! एक ही दो साल या एक-दो बार ही घाटा होने पर व्यापारियों का दिवाला बोल जाता है। मगर लगातार पाँच, सात या दस साल तक फसल मारी जाती है, मजदूरी, बीज और दूसरे खर्च भी ज़ाया होते हैं। फिर भी मौसिम आने पर वह खेती किए जाता है। खूबी तो यह कि इतने पर भी इस कदर लुट जाने पर भी, न तो सरकार को और न दूसरों को ही अपराधी ठहराता है! केवल अपनी तकदीर और पूर्व जन्म की कमाई को ही कोस के सन्तोष कर लेता है।

यह भी बताया गया कि जिनकी जमीनें और जगह हैं वे उन जमीनों से अन्न पैदा करके इन पानी वाली जमीनों का लगान चुकता करते हैं। ऐसे कई किसानों के नाम भी मुझे बताए गये। यह भी मैंने वहीं जाना कि यदि किसान उन जमीनों में भरे पानी में मछली मार के अपनी जीविका किसी प्रकार चलाना चाहें तो जमींदार को उसके लिए जल-कर जुदा देना पड़ता है। क्या खूब! इसे जले पर नमक डालना कहें या क्या? पैदावार होती नहीं। फिर भी लगान होता जा रहा है। और अगर उसी जमीन वाले पानी में पैदा होने वाली मछली किसान मार लेता है या उसमें मखाना पैदा कर लेता है तो उसके लिए अलग जल-कर वसूल किया जाय! यह अन्धेरखाता कब तक चलता रहेगा? उन मजलूमों का कोई पुर्सांहाल आखिर कभी होगा या नहीं? जो लोग यह समझे बैठे हैं कि वे यों ही इन अन्नदाता किसानों का शिकार करते रहेंगे वे भूलते हैं। वह दिन दूर नहीं जब उनके पाप का घड़ा फूटेगा-उनका पाप सर पर चढ़ के नाचेगा।

खैर, हमने किसानों को जहाँ तक हो सका आश्वासन दिया और वहाँ से फिर उसी डोंगी पर चढ़ के रवाना हो गये। अगले दिन हमारा प्रोग्राम कहीं और जगह था। शायद चौधरी बखतियापुर की जमींदारी में मीटिंग करनी थी जहाँ हमारे ऊपर दफा 144 की पाबन्दी लगी थी। पटने पहुँच के अखबारों में हमने वहाँ का सारा कच्चा चिट्ठा छपवा दिया।
 

 

 

 

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