हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

सहजानंद समग्र/ खंड-2


स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-2

किसान सभा के संस्मरण- III

मुख्य सूची खंड - 1 खंड-2 खंड - 3 खंड - 4 खंड - 5 खंड - 6

अगला पृष्ठ : किसान सभा के संस्मरण-IV

15

भागलपुर जिले की ही एक और दिलचस्प यात्रा है। वह भी उसी कोसी के इलाके में थी। कोसी की धारा के बराबर बदलते रहने के कारण बहुत सी जमीन भागलपुर और पूर्णियाँ जिलों के बीच में जंगल से घिरी है। मगर बीच-बीच में खेती होती है। वही कोसी का दियारा कहा जाता है। राजपूताने के अपार रेगिस्तान की-सी उसकी हालत है। चलते जाइए, मगर खात्मा नहीं होता। उस दियारे में कदवा नाम का एक गाँव या गाँवों का समूह है। दस-दस, बीस-बीस या अधिक झोंपड़ों के अनेक टोले बसते हैं। कोसों चले जाइए। पर, एक ही गाँव पाइएगा। नदियों के हट जाने पर जो जमीनें नये सिरे से बनती हैं वही हैं दियारे की जमीनें। ऐसी जमीनों में आबादी की यही हालत सर्वत्र पाई जाती है। लगातार मीलों लम्बे गाँव तो कहीं शायद ही मिलेंगे। खेती करने की आसानी के खयाल से दो-चार झोंपड़े पड़ गये और काम चालू हो गया। फिर कुछ दूर हट के कुछ छप्पर डाल दिये गये और उन्हीं के इर्द-गिर्द खेती होने लगी। इसी तरह गाँव बसते हैं। कदवा भी ऐसे ही गाँवों में एक है।

भागलपुर जिले के उत्तरी भाग में श्री नागेश्वर सेन जी एक गठीले युवक और लगन वाले किसान-सेवक हैं। कदवा उन्हीं का कार्यक्षेत्र उस समय था। उनने ही वहाँ मीटिंग का प्रबन्ध किया था। उन्हीं के अनुरोध और आग्रह से हमने भी वहाँ जाना स्वीकार कर लिया था। लेकिन हमें इस बात का पता न था कि कदवा है किधर और वहाँ पहुँचेंगे किस तरहख् किस रास्ते से? कोसी दियारे में कहीं है, सिर्फ इतनी ही जानकारी थी। जब तक वहाँ के लिए हम रवाना न हो गये तब तक जानते थे कि कहीं बैलगाड़ी के रास्ते पर होगा। मगर जब मीटिंग के पहले दिन नौगछिया से रवाना होने की तैयारी हुई और कहा गया कि नाव से रातोंरात चलना है, तब कहीं जाकर हमें अन्दाज लगा कि यात्रा विकट जरूर होगी।

शाम का वक्त था। बादल घिरे थे। बूँदा-बाँदी भी हो रही थी। पर वही टिप्-टिप्-टिप्। नौगछिया स्टेशन के पास ही जो नदी की धारा है उसी में एक नाव तैयार खड़ी थी। वह धारा चालू नहीं बताई जाती है। मगर बरसात में तो विकट रूप उसका होई गया था। नाव पर ऊपर से छावनी भी थी ताकि पानी पड़ने पर कपड़े-लत्ते बचाए जा सकें। छोटी-सी डोंगी थी जिस पर ज्यादे से ज्यादे दस-पाँच आदमी ही चल सकते थे। ज्यादा लोग हों तो शायद डूब ही जाय। उस धारा में घड़ियाल वग़ैरह खतरनाक जानवरों का बाहुल्य बताया जाता है। इसलिए नाव पर भी लोग होशियार हो के यात्रा करते हैं। कहीं वह फँस जाय तो खूँखार जलचर धावा ही बोल दें। तिस पर तुर्रा यह कि रात का समय था। बरसात अलग ही थी। बूँदें भी उसके खतरे को और बढ़ा रही थीं। सारांश यह कि सभी सामान इस बात के मौजूद थे कि चलने वाले हिम्मत ही हार जायँ।

हुआ भी ऐसा ही। नागेश्वर सेन तो साथ थे नहीं। वे तो कदवा में ही सभा की तैयारी में लगे थे। मगर और जितने साथी वहाँ चलने वाले थे एक के अलावे सबने पस्त-हिम्मती दिखाई। मौत के मुँह में जान-बूझ के कौन जाय? यदि रात में मूसलाधार बारिश हो गयी और नाव के ही डूबने की नौबत आ गयी तो? सचमुच ही ऐसा हुआ भी और रास्ते में हमें कई बार नाव किनारे लगा के रोकनी पड़ी। किन्तु साथी लोग तो हिसाब लगा रहे थे कि ठेठ घड़ियालों के मुँह में ही चला जाना होगा; हाँ, यह बात सीधे कहते न थे। किन्तु दूसरे दूसरे बहाने कर रहे थे। ‘नावक्त है, मौसम बुरा है, न जानें रास्ते में क्या हो जाय, बरसात के चलते मीटिंग भी शायद ही हो सके, यदि हो भी तो ज्यादा किसान शायद ही आ सकें’ आदि दलीलें न चलने के सिलसिले में ज्यों-ज्यों पेश की जाती थीं त्यों-त्यों मेरा खून खौलता था और डर भी लगता था कि अगर इनने अन्ततोगत्वा न जाने का ही फैसला कर लिया तो बात बुरी होगी। मेरा प्रोग्राम और पूरा न हो। मैं यह बात सोचने को भी तैयार न था इसीलिए साथियों की इस नामर्दी पर भीतर-ही-भीतर कुढ़ता था और तरस भी खाता था। सब के सब किसान-सेवक ही थे। सो भी पुराने। मगर सेवा की ऐन परीक्षा में फेल हो रहे थे।

रेल, मोटर या दूसरी सवारियों से शान से पहुँच के फूल-मालाएँ पहनना, नेता बनना, पुजवाना और गर्मागर्म लेक्चर झाड़ना इसे किसान-सेवा नहीं कहते। यह तो दूकानदारी भी हो सकती है और सेवा भी। इससे तो किसानों को धोखा हो सकता है। दस-बीस मील पैदल चल के, कीचड़-पानी के साथ कुश्ती करके, जान की बाजी लगा के, दौड़-धूप के और भूखों रह के भी जब अपना प्रोग्राम पूरा किया जाय, किसानों का उत्साह बढ़ाया जाय, उनका संघर्ष चलाया जाय और उन्हें रास्ता दिखाया जाय तभी किसान-सेवा की बात उठ सकती है। यही है उस सेवा की अग्नि-परीक्षा। इसमें बार-बार उत्तीर्ण होने पर ही किसान-सेवक बनने का हक किसी को हो सकता है। दूर-दूर के गाँवों से अपना काम-धाम छोड़ के किसान लोग तो भीगते-भागते और धूप में जलते या जाड़े में काँपते हुए मीटिंग में इस आशा से आए कि अपने काम की बातें सुनेंगे, अँधेरे में अपना रास्ता देखेंगे। मगर बातें सुनाने और रास्ता बताने वाले नेता ही गैरहाजिर! उनने अपने दिल में पक्की वजह बना ली कि सवारी न मिली, मौसम ही बुरा था वग़ैरह-वग़ैरह। मगर किसान को क्या मालूम? उसे किसने कहा था कि मौसम खराब होने पर सभा न होगी, या उसे ही (हर किसान को ही) सवारी का प्रबन्ध करना होगा? ये बातें तो जान-बूझ के उनसे कही जाती हैं नहीं। सिर्फ अन्न-पानी या पैसे उनसे इस काम के लिए माँगे जाते हैं और ये गरीब खुशी-खुशी देते भी हैं। चाहे खुद भूखे रह जायँ भले ही! ऐसी हालत में उन्हें निराश करने या ऐन मौके पर मीटिंग में न पहुँचने का हक किस किसान-नेता या किसान-सेवक को रह जाता है? ऐसा करना न सिर्फ गैर-जिम्मेदारी का काम है, बल्कि किसानों के हितों के साथ खिलवाड़ करना है। ऐसी दशा में तो किसान-आन्दोलन सिर्फ दूकानदारी हो जाती है।

मगर हमें इस दिक्कत का सामना करना न पड़ा और अन्त में तय पाया कि खामख्वाह चलना ही होगा। हमें इससे जितनी ही खुशी हुई वह कौन बताएगा? नाव चल पड़ी। बातें करते-कराते और सोते-जागते हम लोग उस कोयले से भी काली रात में नदी की भयंकर धार में नाव लिये चले जा रहे थे। रास्ते में कई बार किनारे लगे यह तो कही चुके हैं। कोई बता नहीं सकता कि हमें कितने मील तय करने पड़े। मगर जब सुबह हुई तो पता चला कि अभी दूर चलना है। दिक्कत यह थी कि रास्ते में धाराएँ कई मिलीं और कौन कदवा जायगी यह तय करने में दिक्कतें पेश आयीं। तो भी जैसे-तैसे हम ठीक रास्ते से चलते गये। जानवरों का सामना तो कभी हुआ नहीं। मगर रास्ते में कई बार ऐसा हुआ कि पानी बिलकुल ही कम था और हमारी छोटी-सी नाव भी जमीन से टकरा जाती थी। फिर आगे बढ़ें तो कैसे? तब हर बार हम लोग उससे उतर पड़ते जिससे हल्की हो के ऊपर उठ आती। साथ ही आगे-पीछे लग के ठेलते जाते भी थे। इस तरह इस यात्रा का मजा हमें मिला। इसी ठेला-ठाली ने नाव को ठिकाने लगाया।

एक दिक्कत यह भी थी कि रास्ते में गाँव तो शायद ही कहीं मिले। सिर्फ मक्की आदि के खेत चारों ओर खड़े थे। हाँ, कहीं-कहीं उनकी रखवाली करने वाले किसान झोंपड़े डाले पड़े थे। उनसे ही रास्ते का पता हमें जरूरत के वक्त लग जाता था। हाँ, उन्हें भी यह देख के हैरत होती थी कि आखिर कैसे पागलों की हमारी टोली थी, जो मस्ती में झूमती चली जाती थी। वे तो समझते थे कि उधर तो उन जैसे सख्ती के बर्दाश्त करने वाले लोग ही जा सकते हैं और हमें वे समझते थे कोरे बाबू। और बाबुओं की गुजर उधर थी कहाँ? इससे वे ताज्जुब में पड़ते थे। उन्हें क्या मालूम कि हम बाबुओं को ठीक रास्ते पर लाने वाले हैं? वे क्या जानते गये कि हमसे बाबू भी खार खाते और डरते हैं? वे जानते न थे कि हम जन-सेवा के नाम पर होने वाली दूकानदारी को मिटाने वाले हैं। यदि उन्हें मालूम होता कि हम जमींदारी-प्रथा को उसी घारे में डुबा के घड़ियालों के हवाले करने वलो हैं तो वे बिचारे कितने खुश होते! क्योंकि सभी के सभी जमींदारों के द्वारा बुरी तरह सताये गये थे।

इस प्रकार चक्कर काटते और घूमघुमाव करते-करते हम लोग वहाँ पहुँचे जहाँ नाव लगनी थी और पैदल चलना था। हमें खुशी हुई कि आ तो गये। मगर अभी कई मील पैदल खेतों से हो के गुजरना था। उसी जगह नित्य कर्म, स्नानादि से फुर्सत पा के हम लोग ‘क्विक् मार्च’ चल पड़े। दौड़ते तो नहीं ही थे। हाँ, खूब तेज चलते थे। रात भर नाव में पड़े-पड़े एक तरह की थकावट आ गयी थी। उसे मिटाना और सवेरे टहलना ये दोनों ही काम हमें करने थे। इसीलिए कुछ तेज चलना जरूरी था। रास्ते में पता लगना मुश्किल था कि किधर जा रहे थे। चारों ओर मक्की ही मक्की खड़ी थी। उस इलाके में यह फसल खूब होती है और बरसात शुरू होते ही तैयार भी हो जाती है। जब और जगह देहातों में मक्की का भुट्टा देखने को भी नहीं मिलता तभी वहाँ उसकी फसल पक के तैयार हो जाती है।

इस तरह नौ-दस बजे उस आश्रम पर पहुँचे जहाँ श्री नागेश्वर सेन ने सभा की तैयारी कर रखी थी। वहाँ देखा कि दूध-दही का टाल लगा था। बहुत लोगों के खाने-पीने की तैयारी थी। दूर-दूर से आने वाले किसानों को भी खिलाने-पिलाने का इन्तजाम था। इसीलिए इतना सामान मौजूद था। किसान गाय-भैंसें पालते ही हैं। एक वक्त का दूध दे दिया और काफी हो गया। गरीब और पीड़ित होने पर भी किसान कितना उदार है इसका अनुभव मुझे बहुत ज्यादा है। मगर जो कोई अनजान आदमी भी वहाँ जाता वह यह देख के हैरत में पड़ जाता। या तो धनियों की ही सभा की तैयारी समझता, या किसानों की उदारता पर ही मुग्ध होता।

तीसरे पहर वहाँ बहुत बड़ी मीटिंग हुई। जमींदारों के हाथों किसान वहाँ किस प्रकार सताये जाते हैं और उनकी खास शिकायतें क्या हैं ये सब बातें मुझे मालूम हुईं। मैंने उनका उपाय सुझाया और किसान खुशी-खुशी सुनते रहे। इस प्रकार सभा का कार्य कर चुकने पर दूसरे दिन कहारों के कन्धे पर बैठ के मैं नारायणपुर स्टेशन तक गया। वहीं गाड़ी पकड़ के बिहटा लौटा। साथ में आश्रम के लड़कों के लिए एक बोरा भुट्टा भी लेता गया।

(शीर्ष पर वापस)

16

सन् 1933 ई. वाला जुलाई का महीना था। जहाँ तक याद है, 15वीं जुलाई की बात है। तारीख इसलिए याद है कि किसान-सभा की तरफ से गया के किसानों की जाँच का काम हमने पहले-पहल शुरू किया था। सो भी ऐन बरसात में। उसकी लम्बी रिपोर्ट की दुहरी प्रति तैयार करने में हमें महीनों लग गये थे। असल में अमावाँ टेकारी के जमींदार राजा हरिहरप्रसाद, नारायण सिंह की ही जमींदारी गया जिले में चारों ओर फैली है। इसलिए उनके साठ गाँवों में जा के हमें कच्चे चिट्ठे का पता लगाना जरूरी था। जिले भर के साठ गाँवों से सारी जमींदारी की कलई पूरी तरह खुल जाती थी। इसलिए उतने गाँवों में जाना पड़ा। जब राजा साहब ने हमारी रिपोर्ट माँगी, ताकि हालत जान के कुछ कर सकें, तो हमें मजबूरन दो प्रतियाँ तैयार करनी पड़ीं। बेशक, इस परेशानी का और बाद में बातचीत वग़ैरह में जो वक्त बीता उसका कुछ भी नतीजा नहीं हुआ। सबसे बड़ी बात यह हुई कि इस समूची घटना ने मेरे दिल पर यह अमिट छाप लगा दी कि जमींदारी मिटाने के सिवाय किसानों को अत्याचार और मुसीबतों से उबारने का और कोई रास्ता हई नहीं। मेरे दिल में जो यह खयाल कभी-कभी हो आता था कि शायद गांधी जी की बातें सही हों और जमींदार सुधर जायँ, वह इस घटना के बाद सदा के लिए मिट गया और मैंने दिल से मान लिया कि जमींदारी ला-इलाज मर्ज़ है। ‘गया के किसानों की करुण कहानी’ के नाम से उस रिपोर्ट की प्रधान बातें पुस्तक के रूप में पीछे छापी भी गयीं। इन्हीं सब कारणों से और आगे लिखी वजहों से भी वह बरसात की 15वीं जुलाई अभी तक भूली नहीं।

उसी दिन मैं, पं. यमुना कार्यी, पं. यदुनन्दन शर्मा और डॉ युगलकिशोर सिंह किसानों की हालत जाँचने के लिए प्रान्तीय किसान-सभा की तरफ से जहानाबाद पहुँचे थे। पं. यदुनन्दन शर्मा ने गया जिले में हमारा रोज-रोज का प्रोग्राम ठीक किया था। घोर देहातों में वर्षा के दिनों में जाँच का प्रोग्राम पूरा होना, जो अपने ढंग का पहला ही था, आसान न था। दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह मील और इससे भी ज्यादा दूरी पर हमें ठीक समय पर पहुँचना था। नहीं तो जाँच असम्भव हो जाती। फिर किसानों को जमा करना गैर-मुमकिन जो हो जाता अगर हम एक दिन भी चूक जाते। जाँच के काम के बाद हमें उनकी बड़ी-बड़ी सभाओं में उपदेश देना भी जरूरी था। इसलिए शर्मा जी ने ऐसा सुन्दर प्रबन्ध किया था कि एक दिन भी हमारे काम में गड़बड़ी न हो सकी। देहाती रास्तों को तय करके हम बराबर ही ठीक समय पर सभी जगह पहुँचते गये। एक जगह हमारा काम पूरा भी नहीं हो पाता कि दूसरी जगह से सवारी आ जाती। यह भी था कि सवारी की जहाँ कोई भी आशा न होती वहाँ हम पैदल ही जा धमकते। आखिर मूसलाधार वृष्टि में सवारी कौन मिलती और कैसे? जो काम बाबुआनी ढंग से कांग्रेस की जाँच कमेटी गर्मियों और जाड़ों में कर न सकी वही हमने मध्य बरसात में इस खूबी से पूरा किया कि हम खुद हैरत में थे कि यह कैसे हो सका! दूसरे लोग तो इसे असम्भव ही समझे बैठे रहे। सबसे बड़ी बात यह हुई कि किसानों की मुस्तैदी और तैयारी का हमें विश्वास हो गया, बशर्ते कि पं. यदुनन्दन शर्मा जैसे कार्यकर्त्ता उन्हें मिल जायँ। हमने मान लिया कि क्षेत्र तैयार है। सिर्फ धुनी किसान-सेवकों और पथ-दर्शकों की जरूरत है। यह हमारा विश्वास, जो उस समय की किसानों की आकस्मिक मुस्तैदी से हुआ था, तब से बराबर मजबूत होता ही गया है।

यह मानी हुई बात है कि किसान-सभा के पास कोई कोष न था। अभी-अभी तो वह पुनजीर्वित हुई थी। और सच्ची बात तो यह है कि सभा में कोष कभी रहा ही नहीं है, हालाँकि मौके पर उसके नाम से हजारों रुपये खर्च होते रहे हैं। असल में जनता की संस्थाओं के पास स्थायी कोष होना भी नहीं चाहिए। यह तो मध्यम वर्ग की संस्थाओं की ही चीज है कि रुपये जमा हों। उनका काम रुपयों के बिना चली नहीं सकता। मगर विपरीत इसके जनता की संस्थाओं का असली कोष है उन पर जनता का पूरा-पूरा विश्वास और प्रेम। फिर तो अन्न-धन की कमी हो सकती नहीं। हाँ, वह मिलता रहता है उतना ही जितने की समय-समय पर जरूरत हो। न ज्यादा मिलता है और न कम। सिर्फ काम चलाऊ मिलता है। ईमानदार संस्थाएँ ज्यादा वसूली खुद ही नहीं करती हैं। अगर कहीं ज्यादा हो गयी तो खामख्वाह उसका सदुपयोग होना असम्भव हो जाता है। कुछ-न-कुछ ऐसा उपयोग होता ही है जिसकी कोई जरूरत न हो। नतीजा यह होता है कि यह पाप छिपता नहीं और संस्था में घुन लग जाता है। पैसा जमा हो जाने पर सेवा की जगह एक तरह की महन्थी ले लेती है और कोढ़ी लोगों का प्रवेश उन संस्थाओं में होने लगता है, जब कि पहले केवल धुनी और परिश्रमी लोग ही आते थे।

हमारी उस जाँच में किसानों ने न सिर्फ सवारी और हमारे खान-पान आदि का ही प्रबन्ध किया, बल्कि जाँच के हर केन्द्र में उनने यथाशक्ति पैसे का भी पूरा प्रबन्ध किया जो चुपचाप शर्मा जी के हवाले कर दिया करते थे। हमें रेल से भी कभी-कभी जाने का मौका मिला। पटने से तो रेल से ही गये थे। शहर में जाने पर सवारी और खान-पान का भी खर्च जरूरी था, इसीलिए उनने पैसे का प्रबन्ध किया था। जब एक जाँच खत्म करके रवाना होने लगते तो पैसे मिल जाते। हमें यह भी पता लगा कि वे पैसे सभी किसानों से थोड़ा-थोड़ा करके ही वसूल किये गये थे। जाँच के केन्द्र में हमारे खान-पान या सवारी के खर्च का प्रबन्ध कर लेने पर जो बच जाता वही हमें मिलता। वही हमारी जरूरत के लिए काफी होता। जाँच का आखिरी काम हमने फतहपुर थाना, गया के सदर सब-डिविजन में किया था। वह निरा जंगली और पहाड़ी इलाका है। अमावाँ, महन्थ गया आदि की जमींदारियाँ हैं। महन्थ ने तो किसानों को पस्त और पामाल कर दिया है। अमावाँ के भी जुल्म कम नहीं हैं। पिछड़े हुए इलाके में जुल्म खामख्वाह ज्यादा होते ही हैं। मगर हमें यह जानकर ताज्जुब हुआ कि वहाँ भी हमारी खर्च के लिए काफी पैसे वसूल हो गये थे। असल में वहीं हमें पता चला कि सभी जगह किसान जाँच के बाद शर्माजी को पैसे देते रहे हैं। कोई जाँच-केन्द्र नागा नहीं गया है।

बाहरी दुनियाँ को शायद विश्वास न हो और ताज्जुब हो कि किसान-सभा की प्रारम्भिक हालत में ही यह बात कैसे हो सकी। मगर मैं बिहार प्रान्तीय किसान-सभा के बारे में पक्की-पक्की बात कह सकता हूँ कि मुश्किल से सौ-दो सौ रुपये आज तक हमें हमारे शुभचिन्तकों से मिले होंगे, सो भी दस-बीस के ही रूप में, न कि एक बार। ज्यादे से ज्यादा पचास रुपये एक बार एक ने दिये, सो भी यूनाइटेड पार्टी के झमेले के ही समय सन् 1933 ई. के शुरू में ही। लेकिन आज तक हमारी सभा ने लाखों रुपये जरूर ही खर्चे होंगे। केवल मेरी सफर में ही, जो महीने में पचीस दिन तो जरूर ही होती रहती है और कभी-कभी ज्यादे दिन भी, साल में कम-से-कम पाँच-छः हजार रुपये खर्च होई जाते होंगे। यह सिलसिला प्रायः दस साल से जारी है। होता है यही कि जहाँ जिसे मुझे बुलाना होता है वहीें से मेरे सफर खर्च का प्रबन्ध जरूरी है। अन्दाज से उतने पैसे या तो पहले ही भेज दिये जाते हैं या वहाँ जाने पर मिल जाते हैं वहाँ के लोग पूछ लेते हैं कि खर्च कितना चाहिए। मैं भी जितने से काम चले उतना बता देता हूँ। कभी दो-चार रुपये ज्यादा भी मिल जाते हैं जब वे लोग खुद देते हैं बिना पूछे ही। दूसरे प्रान्तों में दौरा करने पर भी यही होता है। फलतः ‘कुआँ खोदो और पानी पियो’ वाला सिद्धान्त ही मेरे साथ चलता है। न तो ज्यादा बचता है और न काम रुकता है। यदि बचता भी है तो साल में दस-बीस ही, सो भी एक-दो के हिसाब से ही। ठीक ही है, ‘बासी बचे न कुत्ता खाय।’ अब तो यह सभी जानते हैं कि मेरे दौरे का खर्च किसानों को ही करना पड़ता है। इसीलिए पहले से ही जमा कर रखते हैं। हाँ, जमींदारों और उनके दोस्तों को शायद यह मालूम न हो। किन्तु हमें उससे गर्ज ही क्या है? वे मेरे खर्च के बारे में अन्दाज लगाते रहें कि कौन देता है। जो किसान उन्हें और दुनियाँ को देता है वही मुझे क्यों न दे यदि मैं उसी का काम करने जाऊँ? उसे विश्वास होना चाहिए कि मैं उसके लिए मरता हूँ या उसके दुश्मनों के लिए, और यह विश्वास उसे है यह मेरा यकीन है। तब और चाहिए क्या? और अगर मैं उस किसान की आशा छोड़ पैसे के लिए औरों का, जो प्रायः प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसके शत्रु ही हो सकते हैं, मुँह देखूँ तो मुझ-सा धोखेबाज और पापी कौन होगा? यदि किसान-सभा भी ऐसा करे तो वह किसानों की सभा हर्गिज नहीं हो सकती है, ऐसा मैं मानता हूँ।

हाँ, तो जहानाबाद से पहले दिन अलगाना और दूसरे दिन धनगाँवा जाना था। ये दोनों गाँव जहानाबाद से पूर्वोत्तर और पूर्व हैं। कभी हरे-भरे थे। मगर अब वीरान हैं। उन गाँवों में जाँच के सिलसिले में जो बातें मालूम हुईं उनका वर्णन हमें यहाँ नहीं करना है और न दूसरे गाँवों का ही। ‘करुण कहानी’ में ये सभी बातें लिखी हैं। मगर दो-एक घटनाएँ ऐसी हैं जिन्हें यहाँ लिख देना है। कहते हैं कि जीव एक दूसरे को खा के ही कायम रह सकते हैं ‘जीवो जीवस्य जीवनम्।’ अलगाना में टेकारी की जमींदारी के एक पटवारी हमें मिले। वह किसानों के साथ लगान की वसूली में खूब सख्ती करते थे। फिर भी कबूल करने को तैयार न थे। एक दिन बातों बात में वे बोल बैठे कि टेकारी की ही जमींदारी में किसी और मौजे में रहते हैं। बकाया लगान में जमीन नीलाम हो गयी, तो यहाँ नौकरी करने लगे। पूछने पर यह बात भी उनने कबूल की कि लगान एक तो ज्यादा था। दूसरे फसल भी मारी गयी लगातार। इसीलिए चुकता न कर सके जिससे खेत नीलाम हो गये। मगर अलगाना में वे खुद दूसरों की जमीन नीलाम करवाने में लगे थे और इस तरह अपनी जीविका चलाते थे। असल में जमींदारी की मशीन के लिए तेल का काम ये उजड़े किसान ही करते हैं। वही इसे चलाते हैं। इसका प्रत्यक्ष दृष्टान्त हमें वे पटवारी साहब मिले। इसीलिए जान-बूझ के किसानों को तबाह किया जाता है। नहीं तो जमींदार की नौकरी कौन करता, सो भी दस-पाँच रुपये महीने की? जमींदारी का पौधा पनपता और फूलता- फलता है किसानों के खून से ही!

धनगाँवा में हमें पता चला कि एक तो साग-तरकारी के खेतों को सींचने के लिए पुराने जमाने में जमींदार ने जो चार बड़े कुएँ बनवाये थे वे खराब हो गये और उनकी मरम्मत न हुई। दूसरे चुनाव के जमाने में जमींदार के तहसीलदार या सर्किल अफसर उम्मीदवार होते और मुफ्त ही साग-तरकारी वोटरों को खिलाने के लिए ले जाते हैं। क्योंकि धनगाँवा जहानाबाद से निकट है। इसलिए हार कर कोइरी लोगों ने साग तरकारी की खेती ही बन्द कर दी। अब सभी केवल धान की खेती करते हैं। वह भी कभी चौपट होती और कभी कुछ सँभलती है। क्योंकि नदी का बाँध खत्म हो जाने से पानी के बिना धान मर जाता है। जमींदार बाँध की मरम्मत करता नहीं और दस-पाँच हजार रुपये लगाना किसानों के लिए गैर-मुमकिन है।

हमें मझियावाँ जाना था। रात में महमदपुर ठहरे थे-वही महमदपुर जहाँ के किसानों ने अपने संगठन और मुस्तैदी से पीछे चलके जमींदारों के नाकों चने चबा दिए और आखिरकार पूरे अस्सी बीघे नीलाम जमीन जमींदारों ने उन्हें ही जोतने-बोने दी। क्योंकि नीलामी के बाद जो जो काण्ड हुए उसमें जमींदारों को लेने के देने पड़े और काफ़ी घाटा हुआ। जब किसानों ने उनका मद अपनी मुस्तैदी से उतार दिया तो आखिर करते क्या? इसका पूरा वृत्तान्त तो ‘किसान कैसे लड़ते हैं’ पुस्तक में मिलेगा। रात में खूब पानी पड़ा था और सुबह भी जारी था। मझियावाँ आठ-नौ मील से कम न था, सो भी बरसात में, यों तो देहाती लोग नजदीक ही कह देते हैं। सवारी का प्रबन्ध असम्भव था। पानी में होता भी क्या? वहाँ की मिट्टी केवाल की (काली-चिकनी) है। पाँव फिसलते देर नहीं, इतनी सख्त होती है। कहीं-कहीं नर्म भी इतनी होती है कि पाँव को छोड़ना ही नहीं चाहती। घुटने तक जा लिपटती है। रास्ते में एक गहरा नाला भी है। मगर हमें तो प्रोग्राम पूरा करना था। सो भी मझियावाँ बहुत ही मजलूम है। राजा अमावाँ ने उसे भून डाला है। अभी-अभी बकाश्त संघर्ष के बाद कुछ सँभलने लगा है। इसी गाँव ने पं. यदुनन्दन शर्मा को जन्म दिया है। उस समय लाखों रुपये लगान के बाकी थे ऐसा कहा जाता था।

ऐसे गाँव में यदि न जाते तो सारा गुड़ गोबर ही हो जाता। वहाँ जल्दी कोई पहुँचता भी नहीें। वहाँ का रास्ता कुछ ऐसा है। इसलिए हम लोग हिम्मत करके चल पड़े। उछलते-कूदते, गिरते-पड़ते बढ़ते जाते थे। यात्रा बेशक बड़ी भयंकर थी। हमारी उस दिन आग्नि-परीक्षा थी। यदि फेल होते तो कहीं के न रहते। मझियावाँ ने सन् 1939 ई. की बरसात के समय जो बहादुरी बकाश्त की लड़ाई में दिखाई और विशेषतः वहाँ की स्त्रियाँ जिस मुस्तैदी से लड़ के विजय पाने में समर्थ हुईं उसका बीज हमने सन् 1933 ई. की बरसात में ही उसी जाँच वाली यात्रा में बोया था। वही छः साल के बाद फल-फूल के साथ तैयार हो गया। तब तो साफ ही है कि उस दिन चूकने से काम खराब हो जाता। इसलिए हँसी-खुशी चल पड़े थे। तारीफ की बात यही थी कि हममें कोई भी हिचकने वाला न दीखा। सभी ने उत्साह के साथ आगे बढ़ना ही पसन्द किया। नहीं तो मजा किरकिरा हो जाता। ऐसे समय में दुविधे से काम बिगड़ता है।

नतीजा यह हुआ कि हम दोपहर के पहले ही मझियावाँ ठाकुरबाड़ी पर जा पहुँचे। लोग तो निराश थे कि हम पहुँच न सकेंगे। मगर हमें देख किसानों में बिजली दौड़ गयी। जो काम हमारे हजार लेक्चरों और उपदेशों से नहीं होता वही उस दिन की हमारी हिम्मत ने कर दिया। इसे ही कहते हैं मौन या अमली उपदेश। ‘कह सुनाऊँ या कर दिखाऊँ’ में ‘कर दिखाऊँ’ इसी का नाम है।

मझियावाँ के किसानों की जो दरिद्रता हमने पहले-पहल देखी वह कभी भूलने की नहीं। जमींदार कितने निर्दय और वज्र हृदय हो सकते हैं। यह चित्र हमारी आँखों के सामने पहले-पहल खिंचा वहीं पर। हमने घर-घर घूम के उनकी दशा देखी, उस पर खून के आँसू बहाये और जमींदारी को पेट भर के कोसा।

(शीर्ष पर वापस)

17

सन् 1938 ई. की बरसात गुजर चुकी थी। आश्विन या कार्तिक का महीना होगा। अभी तक देहाती सड़कों की मरम्मत न हो सकी थी। किसान रबी की फसल बोने में लगे थे। रास्तों में कीचड़ और पानी की कमी न थी। ठीक उसी समय श्री विश्वनाथ प्रसाद मर्दाना ने बलिया जिले में हमारे दौरे का प्रोग्राम बनाया। हमें युक्तप्रान्त के कई जिलों में दौरा करना था। श्री हर्षदेव मालवीय (इलाहाबाद) ने उसका प्रबन्ध किया था। बदकिस्मती से कहिए या खुश-किस्मती से, बलिया जिले के लिए केवल एक ही दिन का समय मिला था और मर्दाना ने एक ही दिन में एक छोर से दूसरे छोर तक तीन-चार मीटिंगों का प्रबन्ध किया था। मोटर से चलना था। पर सड़कें तो न मोटर के बस की थीं और न मर्दाना के ही कब्जे की। उन सड़कों के ही बल पर चार मीटिंगों का इन्तजाम करना खतरे को मोल लेना था। हुआ भी ऐसा ही। मगर मर्दाना तो मर्दाना ही ठहरे। उनमें जोश और हिम्मत काफी है। उम्र थोड़ी होने से खतरे का सोच-विचार जरा कम करते हैं। जो होगा सो देखा जायगा, यही खयाल रहता है। इसीलिए खतरे के साथ खेलने में उन्हें मजा आता है। हमारे कार्यकर्त्ताओं में आमतौर से जवाबदेही का उतना खयाल नहीं है जितना होना चाहिए और यह बात आन्दोलन के लिए बहुत बुरी है। देहात की सभाओं के प्रबन्ध के सिलसिले में बहुत बड़े और जवाबदेह कहे जाने वालों की खतरनाक गैर-जवाबदेही देख के मुझे हैरत में आ जाना पड़ा है, सो भी बार-बार। यह हमारी बहुत बड़ी कमी है जो मुझे रह-रह के बुरी तरह अखरती है।

हाँ, तो बलिया स्टेशन पर आधी रात के बाद ही हम लोग उतरे थे और वेटिंग रूम में ही ठहर गये। सवेरे ही खा-पी के रवाना हो जाने की तैयारी थी। एक ही मोटर थी। उसी पर जितने लोग लद सके लद के रवाना हो गये। रेवती, सहतवार, बाँसडीह और मनियार इन चार स्थानों में सभायें करके अगले दिन सुबह के पहले ही प्रायः दो ही बजे बेलथरा रोड स्टेशन पहुँच के बस्ती जाने की ट्रेन पकड़नी थी। जिले के पूर्वी सिरे के करीब पहुँच के पहली मीटिंग थी और उत्तर-पश्चिमी किनारे पर पहुँच के रेलगाड़ी पकड़नी थी। सड़कें तो सब की सब कच्ची ही थीं केवल शुरू में ही थोड़ी सी पक्की मिली। बरसात ने उनकी ऐसी फजीती कर डाली थी कि रास्ते भर मोटर उछाल मारती थी। मुझे तो सबसे ज्यादा ताज्जुब उस मोटर की मजबूती पर था जो टूटी नहीं और अन्त तक काम करती ही गयी।

दोहपर के करीब हम लोग रेवती पहुँचे। एक बाग में मीटिंग का प्रबन्ध था। पास में ही एक डिप्टी साहब का खेमा था। शायद तकावी या इसी प्रकार का कर्ज वे बाँट रहे थे गरीब किसानों को। मगर उनने कृपा की और हमारी मीटिंग में बाधा नहीं हुई। हमने अपनी बात किसानों को कह सुनाई और बाँसडीह के लिए चल पड़े। रास्ते में ही सहतवार गाँव पड़ा। जाने के समय भी पड़ा था और वहाँ के लोगों ने हमें रोकने का तय कर लिया था। जब लौटे तो मजबूर होना पड़ा। देहात का यह एक अच्छा बाजार है। लोग जमा हो गये। दूसरे गाँवों के भी लोग थे। पेड़ों के बीच एक ऊँची पक्की जगह पर, जो शायद एक मन्दिर की है, हमने उन्हें अपना कर्त्तव्य समझाया और किसानों के लिए क्या करना जरूरी है यह बताया। फिर फौरन ही बाँसडीह का रास्ता लिया।

बाँसडीह में बड़ी तैयारी थी। कोठे पर ठहरे। बहुत लोग वहीं जमा हो गये। उनसे बातें होती रहीं। फिर नीचे काफी भीड़ हुई। हमें मजबूरन कोठे पर ही छत के किनारे से उपदेश देना पड़ा ताकि नीचे और ऊपर के सभी लोग अच्छी तरह सुन सकें। दूसरी जगह जाने में देर होती और हमें अभी मनियर जाना था, जो वहाँ से काफी दूर था। इसीलिए कोठे पर से ही उपदेश देने का प्रबन्ध किया गया था। हमने वहाँ का काम भी जल्दी-जल्दी में खत्म किया और चटपट मनियर के लिए रवाना हो गये। असल में सबसे बड़ी और तैयारी वाली सभा मनियर में ही थी। खुशी यही थी कि वह सभा रात में होने को थी। यदि दिन में होती तो हम हर्गिज वहाँ पहुँची न सकते। अँधेरा तो हो गया पहुँचते ही पहुँचते। मर्दाना ने रात में उसका प्रबन्ध करके दूरंदेशी और जवाबदेही का परिचय जरूर दिया था।

बेशक, जैसी आशा थी नहीं वैसी सभा वहाँ हुई। हमने स्थान की तैयारी वग़ैरह देखी सो तो देखी ही। हमें उस चीज ने आकृष्ट नहीं किया। हाँ, जब देखा कि सैकड़ों किसान-सेवक (वालंटियर) वर्दी पहने और हाथ में लाठी लिये चारों तरफ तैनात थे और भीड़ को कब्जे में रख रहे थे तो हमें बड़ी ही खुशी हुई। मीटिंग का प्रबन्ध, बोलने आदि का तरीका ये सभी बातें सराहनीय थीं। वहाँ पर हम घण्टों बोलते रहे और किसानों की समस्याओं को खोल के लोगों के सामने रख दिया। असल में उस दिन की चार मीटिंगों में पहली में हम अच्छी तरह बोल सके थे हालाँकि जल्दी में जरूर थे। मगर मनियर में तो निश्चिन्त हो के बोलते रहे। लोग भी ऐसे शान्त थे कि गोया हमारी बातें मस्त हो के पीते जाते थे। कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल के युग में भी किसानों की तकलीफें पहलें जैसी ही रह गयीं यह देख के लोगों में बहुत ही क्षोभ था। लोग अब असलियत समझने लग गये थे। अब तो बातों से नहीं, किन्तु कामों से मन्त्री लोगों की जाँच कर रहे थे और साफ देख रहे थे कि उनकी बातें डपोरशंखी निकलीं। इसीलिए मुझसे इसका रहस्य सुनने और समझने में उन्हें मजा आ रहा था। किसान-सभा की जरूरत वे लोग अब समझने लगे थे।

खैर, सभा तो खत्म हुई और हम लोग डेरे पर आय। मैंने दूध पिया और साथियों ने खाना खाया। इतने में रात के दस-ग्यारह बज गये। हम चलने की जल्दी में थे। बस्ती जिले का प्रोग्राम बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था। असल में वहाँ की यह यात्रा पहली ही थी। बलिया में तो कई बार आ चुके थे। सो भी एक जालिम जमींदारी के किसानों का जमाव था। इसलिए मुझे बड़ी चिन्ता थी ट्रेन पकड़ने की। मगर मोटर के करते साथी जरा निश्चिन्त थे। फलतः खा-पी के रवाना हो गये। मोटर पच्छिम की ओर चल पड़ी। हाँ, यह कहना तो भूली गया कि सरयू नदी की बाढ़ ने लोगों के घरों और उनकी फसलों को बर्बाद कर दिया था। सड़कें भी उसने चौपट कर दी थीं। रास्ते में बर्बाद गाँवों और घरों को देखते चले जा रहे थे। लोग बाहर निकल- निकल के हमें अभिवादन करते थे। उन्हें हमारी खबर तो थी ही। कुछ लोग सभा में लौटे भी थे। इस प्रकार हम आगे जाई रहे थे कि पता लगा कि आगे सड़क टूटी है। मोटर ‘पास’ नहीं कर सकती। यदि बगल से जा सकें तो जायँ। मगर पक्का रास्ता बताने वाला कोई न था। बस, मैं तो सन्न हो गया और जान पड़ा कि कोई गड़बड़ी होने वाली है। कलेजा धक्-धक् कर रहा था।

मोटर रास्ता छोड़ के खेतों से चली। अन्दाज से ही ड्राइवर चला रहा था। एक तो रात, दूसरे अनजान रास्ता, तीसरे मोटर और खेतों से उसका चलना! यह गजब की बात थी! हम लोग सचमुच ही मौत के साथ उस समय खेल रहे थे। खेतों से घूमती-घामती और बागों से होती मोटर धीरे-धीरे इस ढंग से चल रही थी कि आगे फिर सड़क मिल जायगी, जो ठीक होगी। जरूरत होने पर हममें से एकाध उतर के आगे रास्ता देख आते। तब मोटर बढ़ती। ऐसा होते-होते एक बार एकाएक हममें से एक बोल उठा कि ‘‘कुआँ है, कुआँ है!’’ ड्राइवर ने मोटर फौरन रोक दी। असल में बहुत ही धीमी चाल से चलती थी तभी हम बच सके। नहीं तो मोटर ही कुएँ में जा गिरती। कुआँ बरसात में घास से छिपा था। जब उसके ऐन किनारे में पहुँचे तभी वह नजर आया और हम लोग बाल-बाल बचे।

फिर आगे बढ़े। मगर सड़क लापता थी। हालाँकि अपने खयाल से हम लोग उसके नजदीक से ही चल रहे थे। असल में तो हमें रास्ता ही नहीं मिला कि सड़क की ओर बढ़ें। सर्वत्र कीचड़-पानी से ही भेंट होती रही। इसी तरह आगे बढ़ते और घूम-घुमाव करते जा रहे थे। नतीजा यह हुआ कि हम लोग सड़क से एक तो बहुत दूर हट गये। दूसरे पच्छिम ओर चलते-चलते पूर्व की ओर हो गये। मोटर के चक्कर और घुमाव के करते ही ड्राइवर को भी और हमें भी पता ही न लगा कि किधर से किधर जा रहे हैं। यों ही चलते-चलाते हालत यह हुई कि जोते खेतों से हम गुजरने लगे। यह थी तो हमारी सरासर नादानी। मोटर की सवारी में अँधेरी रात में ऐसा काम करने की हिम्मत भला कौन रकेगा कि रास्ता छोड़ के खेतों से अनजान दिशा में अन्दाज के ही बल चले? मगर ‘‘आरत करहिं विचार न काऊ’’ वाली बात थी। हमें अगले दिन का प्रोग्राम पूरा करना था। और मर्दाना ने पक्का पता सड़क का न लगा के हमें जो यों ही कह दिया कि सड़क ठीक है वह उसी का प्रायश्चित्त हमें किसी प्रकार ठीक समय बेलथरा पहुँचा के करना चाहते थे। इसीलिए उस समय हमें मौत भी भूल गयी थी। नहीं तो कुएँ वाली घटना के बाद तो खामख्वाह रुक जाते।

इतने में एकाएक एक झील के किनारे हमारी मोटर जा पहुँची। जोते हुए खेतों से चलते-चलते हम समझी न सके कि किधर जा रहे हैं। तब तक पानी के किनारे जा पहुँचे। यह भी अन्दाज हुआ कि यह झील लम्बी है। अब हम निराश हो गये और घड़ी देखने लगे। पता चला कि दो से ज्यादा समय हो गया है। अब तक हम इस फिराक में थे कि रेल की सीटी सुनें या ट्रेन की आहट पायें। खयाल था कि स्टेशन निकट है। मगर अब निराश हो गये। जो तकलीफ उस समय हमें हुई कि आज का प्रोग्राम चौपट हुआ उसे कौन समझ सकता था? यदि समझने वाले होते तो अब तक किसान कहाँ-से-कहाँ चले गये होते! अब सोचा गया कि यहीं रुक जायँ। क्योंकि पता ही न था कि किधर जा रहे हैं। आगे पानी भी तो था। सारी रात जगे थे। पहले दिन चार सभाओं में बोलते-बोलते पस्त भी हो चुके थे। सोने का कोई सामान न था। चिन्ता अलग प्राण ले रही थी। इतने में फिर देखा कि तीन से भी ज्यादा बज चुके थे।

लाचार, सोचा गया कि सुबह चलेंगे। मगर नींद कहाँ? वह भी तो तभी आती है जब आराम और मौज के सामान मौजूद रहते हैं। अकेली तो आना जानती नहीं। लाचार किसी प्रकार कुछ घण्टे काटे। फिर खयाल आया कि सारे साज-सामान के साथ चलना है। इसलिए बैलगाड़ी तो जरूर ही चाहिए। उसके लिए दो-एक साथी पास के गाँव में गये भी। मगर मेरे साथ तो एक और बला आ लगी। पहले दिन की दौड़-धूप और परेशानी के बाद भी रात में नींद हराम रही। इसलिए मेरी आवाज कतई बन्द हो गयी। गला ऐसा रुँधा कि ताज्जुब होता था। मेरी जिन्दगी में गले की यह हालत पहली ही बार हुई और शायद आखिरी बार भी। जरा भी आवाज निकल न सकती थी। मेरी आवाज बड़ी तेज मानी जाती है। मगर वह एकाएक कहाँ-क्यों चली गयी-यह कौन बताये सिवाय डॉक्टरों और वैद्य-हकीमों के? बुखार भी हो आया। फिर भी जैसे-तैसे बैलगाड़ी पर बैठ के बेलथरा रोड पहुँचना तो था ही। पहुँच भी गये। उसी समय युक्तप्रान्त के श्री मोहनलाल सक्सेना कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल का दमामा बजाते बेलथरा पहुँचे थे। उनकी सभा थी। लोगों ने बोलने का हठ मुझसे भी किया। हालाँकि सक्सेना चौंकते थे। मगर यहाँ तो आवाज ही बन्द थी। इसलिए बला टली।

स्टेशन पर ही बस्ती वालों को अपनी लाचारी का तार दे के सन्तोष करना पड़ा। दूसरा चारा था भी नहीं। फिर तय पाया कि बनारस चल के गला ठीक करें। तब दौरा करेंगे। सभी जगह खबर भेज के प्रोग्राम स्थगित किया गया और हम लोग काशी में बाबू बेनीप्रसाद सिंह के यहाँ पहुँचे। वहीं दो या तीन दिनों में गला ठीक करके फिर दौरा आरम्भ किया गया।

(शीर्ष पर वापस)

18

ठीक तारीख और साल याद नहीं। बिहार की ही घटना है। सो भी पटना जिले की ही, बिहटा से दक्षिण मसौढ़ा परगने के नामी जालिम जमींदारों की जमींदारी की। भरतपुरा, धरहरा के जमींदारों से कोई भी जमींदार इस बात की तालीम पा सकता है कि जुल्म कितने प्रकार के और कैसे किये जा सकते हैं। खूबी तो यह कि सरकार और उसके कानूनों की एक न चले और किसान की कचूमर भी निकल आये। अब तो किसान-सभा के प्रताप से जमाना बदल गया है और उन्हीं जमींदारों को वहीं के पस्त किसानों ने नाकों चने चबवा दिये हैं। जो जमींदार भावली लगान की नगदी न करने में आकाश-पाताल एक कर डालते थे, क्योंकि भावली (दानाबन्दी) के चलते उन्हें पूरा फायदा था। उससे किसान तबाह भी हो जाते थे। वही आज झखमार के नगदी करने को उतारू हो गये। किसानों ने थोड़ी सी हिम्मत, समझदारी और दूरंदेशी से काम लिया और वे जीत गये। किसानों की सचाई और ईमानदारी से बेजा फायदा उठा के उन्हें ही तंग करने वाले जमींदारों के साथ कैसा सलूक करना ठीक है यह बात किसानों की समझ में आ गयी और काम बन गया। उनने समझ लिया कि सबके साथ युधिष्ठिर और धर्मराज बनना भारी भूल है। इतने ही से पासा पलट गया।

हाँ, तो धरहरा के ही एक जमींदार की कोठी ऐन पक्की सड़क पर ही अछुवा मौजे में बनी है। मौजा उन्हीं हजरत का है। वहाँ के किसान अधिकांश कोइरी हैं। यह एक पक्की किसान जाति है। कोइरी लोग सीधे-सादे, प्रायः अपढ़ और बड़े ही ईमानदार होते हैं। झगड़ा करना तो जानते ही नहीं, सो भी जमींदारों या उनके मामूली अमलों तक के साथ। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि मनुष्यों में यह जाति गौ है। इतनी परिश्रमी और खून को पानी बना के खेती करने वाली कि कुछ कहिये मत। जेठ की धूप की लपट और धू-धू करती दुपहरी के समय मैदान में साग-तरकारी के खेतों को ये दिन-रात सींचते रहते हैं। तब कहीं जमींदार का कड़े से कड़ा पावना चुका पाते हैं। धान या रबी की पैदावार से काम नहीं चलता। इसीलिए अपने आपको झुलसा डालते हैं। फिर भी जमींदार ऐसा जल्लाद होता है कि हर घड़ी इनके खून का ही प्यासा रहता है। उसका पेट तो कभी भरता नहीं। वह तो कुम्भकर्ण ठहरा। फिर पेट भरे तो कैसे? उसे जितना ही ज्यादा मिलता है उसकी माँगें उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाती हैं। इसीलिए स्त्राी-पुरुषों, बाल-बच्चों और बूढ़ों तक के बदन को झुलसा के भी जमींदार की माँगों को पूरा करना किसान के लिए गैर-मुमकिन है। इसी से अछुवा के गरीब कोइरी किसान भी जमींदारी जुल्म के शिकार हो चुके थे।

असल में वहाँ के जमींदार सभी किसानों से, खासकर पिछड़ी जाति वालों से, दिन भर मुफ़्त काम करवाते रहते थे। बहुत तड़के उनके दरवाजे पर किसानों का पहुँच जाना लाजिमी था। फिर रात होने पर घर जाते थे। और तो क्या मिलेगा, दिन में एक बार भोजन तक मुहाल था यदि खुद घर से खाने के लिए साग-सत्तू न लाते। यदि जमींदार ने भूखे और लावारिस कुत्तों के टुकड़ों की तरह कभी दो- चार पैसे या पाव-आध सेर दे दिया तो ग़नीमत! फिर भी हिम्मत न थी की चूँ करें या दूसरी बार काम पर न आयें। चाहे हजार काम बिगड़े तो बिगड़े। मगर जमींदार के यहाँ बेगारी करने जाना ही होगा! एक बार मजबूरन एक किसान नहीं जा सका। इसी के फलस्वरूप न सिर्फ वह, बल्कि सारा गाँव तबाह किया गया। इसीलिए अछुवा वाले थर्र मारते रहते थे। जमींदार के नाम पर उनकी रूह काँपती थी।

जमींदार ने तरीका ऐसा निकाला था कि पारी-पारी से हर किसान को उसके यहाँ पहुँचना ही पड़ता था। इसके लिए उसने एक बड़ा ही निराला ढंग निकाला था जिससे किसानों पर खौफष् भी छा जाय और काम भी चलता रहे। जमींदार का एक मोटा और लम्बा डण्डा एक के बाद दीगरे किसानों के दरवाजे पर शाम को ही पहुँच जाया करता था। जिस किसान के घर पर आज पहुँचा वही कल जमींदार के यहाँ जायगा। फिर कल शाम को उसके घरवाले बगल के पड़ोसी के द्वार पर चुपके से रख आयेंगे जिससे अगले दिन उसे जाने की खबर मिल जाय। यही रवैया बराबर जारी था। जहाँ डण्डा महाराज पधारे कि उसे हजार काम छोड़ के जाना ही होगा। एक बार अचानक किसी किसान के घर कोई बड़ा बूढ़ा डण्डा जी के पदार्पण के बाद रात में मर गया। रिवाज के मुताबिक उस घर के सभी लोग मुर्दे को गंगा-किनारे ले गये। फलतः जमींदार के यहाँ कोई जा न सका। जब यह बात उसे मालूम हुई तो आगबबूला हो गया। किसान की पुकार हुई। वह आया। हाथ जोड़ के भरे हुए गले से उसने सारी कहानी सुनाई और लाचारी के लिए माफ़ी चाही। मगर माफ़ी कौन दे? फिर तो जमींदार का भारी गुस्सा उसके सिर उतरा और गाँव के लोग उजाड़े गये। न जाने कितने जाल-फरेब करके किसानों पर तरह-तरह के मुकदमे चलाये गये, मार-पीट कराई गयी और इस प्रकार उन्हें रुला मारा गया। यह एक ऐतिहासिक घटना है जिसे उस इलाके का बच्चा-बच्चा जानता है।

असेम्बली के चुनाव में धरहरा के ही एक चलते-पुर्जे जमींदार, जो डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन, पुरानी कौंसिल के लगातार मेम्बर और अन्त में प्रेसिडेण्ट भी रह चुके थे, बुरी तरह हारे। चुनाव में सभी किसानों ने दिल खोल के हमारा साथ दिया था। जिस जमींदार के खिलाफ़ खड़े होने की हिम्मत जल्दी कोई करता न था और करने पर भी बुरी तरह हारता था, यहाँ तक कि एक बार एक कांग्रेसी उम्मीदवार भी स्वराज्य पार्टी के जमाने में अपनी जमानत जब्त करा चुके थे, वही हारा और उसी की जमानत जैसे-तैसे बचते-बचते बची। यदि किसान दिल खोल के हमारा साथ न देते तो यह कब हो सकता था? इसीलिए हमारा सिर उनकी इस हिम्मत के सामने झुक गया। जमींदार की सारी खूँखारी और धमकी की परवाह न करके उनने निराली हिम्मत दिखाई। जमींदार के खिलाफ वोट देना क्या था गोया म्याऊँ की ठौर पकड़नी थी चूहों को। मगर उनने ऐसा ही करके सबको हैरत में डाल दिया। जो लोग यह कह के किसान-संघर्ष से भागना चाहते हैं कि मौके पर वे साथ न देंगे उनके मुँह में करारा तमाचा वहाँ के किसानों ने लगाया और अमली तौर से यह बात सिद्ध कर दी कि यह इलजाम सरासर झूठा है। मुझे तो उसी बिहटा के इलाके में ऐसे और भी कई मौके मिले हैं जब किसानों ने आशा से हजार गुना ज्यादा कर दिखाया है। इसीलिए मेरा उनमें अटूट विश्वास है। मैं मानता हूँ कि यदि वे कभी हमारा साथ नहीं देते, तो इसमें उनका कसूर न हो के हमारा ही रहता है। जब हमीं में उनके बारे में विश्वास नहीं है, तो फिर हो क्या? हम खुद ही जब लड़ना नहीं चाहते और आगे-पीछे करते रहते हैं तो किसान क्या करें? तब वे कैसे पूरा-पूरा साथ दें? और साथ न देने पर भी वे दोषी क्योंकर बन सकते हैं? और तो और-जिस महाशय को जमींदार के खिलाफ किसानों ने शान से जिताया, उन्हें खुद किसानों पर यकीन न हुआ। इसका सबूत हमें उसके बाद दो मौकों पर साफष्-साफष् मिला। पीछे उनने स्वयं माना कि उन्हें विश्वास न था। जब मैं विश्वास रखता था। इसीलिए उनने मेरे खयाल को हार कर सही माना। खूबी तो यह कि वह किसानों के क्रान्तिकारी नेता माने जाते हैं, या अपने आपको कम-से-कम ऐसा समझते जरूर हैं। यही है हमारा किसान-नेतृत्व! फिर भी घमण्ड रखते हैं कि क्रान्ति करेंगे और किसान-मजदूर राज्य लायेंगे!

हाँ, तो कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल बन चुकने के बाद शायद सन् 1938 या 39 में उसी अछुवा का एक जवान कोइरी किसान बिहटा आश्रम में मेरे पास एक दिन आया। अठारह, बीस साल की उम्र होगी। गठीला जवान, छरहरा बदन, काला रंग और हँसता चेहरा। उस दिन की घटना कुछ ऐसी थी कि मुझे सारी जिन्दगी भूलेगी नहीं। इसलिए उसका चित्र मेरी आँखों के सामने नाचता है। उसे मैं पहचानता भी न था। मगर वह तो मुझे पहचानता था ही।

वह आया था मेरे पास अपनी दुख-गाथा सुनाने। शायद घर में कोई बड़े-बूढ़े न होंगे। पढ़ा-लिखा भी न था। कांग्रेसी मन्त्रियों ने लगान कम करवाने और बकाश्त जमीन की वापसी के नाम पर जो बंटाढार किया था और इस तरह कांग्रेस की लुटिया डुबा दी थी, उसी के फलस्वरूप उस गरीब की फरियाद मेरे सामने थी। सारी कोशिश करके वह थक चुका था। मगर जमींदार के पैसे और कानून की पेचीदगी के सामने उसकी एक भी चल न सकी थी। फलतः उसकी आँखें खुल गयी थीं। चुनाव के समय कांग्रेस के नाम से जो डंका पिटा था कि लगान काफी घटाया जायगा और बकाश्त जमीनें वापस दिलाई जायँगी, उस पर सीधे-सादे किसानों ने पूरा विश्वास किया था। मगर जब मौका पड़ने पर उन्हें असलियत का पता चला और मालूम हुआ कि बरसने वाले बादल तो और ही होते हैं; वे तो सिर्फ गर्जने वाले थे, तो उनके क्रोध का ठिकाना न रहा। एक तो कुछ हुआ भी नहीं! दूसरे जमींदारों और उनके दलालों की धमकियाँ और तानाजनी उन्हें फिर मिलने लगी। इसलिए उनका क्षोभ और क्रोध उचित ही था। वह जवान भी इसी क्षोभ और क्रोध को उतारने के लिए मेरे पास आया था।

सामने आते ही मैंने उससे पूछा कि ‘कहो भाई, क्या हुक्म है?’ मैं हमेशा नये या आकस्मिक मिलने वालों से ‘क्या हुक्म है’ ही कहता हूँ। किसानों से खामख्वाह यही कहता हूँ। मैं मानता हूँ कि उन्हें मुझे हुक्म देने का पूरा हक है। जब मौके पर मेरी बातों पर विश्वास करके वे लोग मेरा कहना मान लेते हैं, तो दूसरे मौके पर मुझे वे हुक्म क्यों न दें? यदि उन्हें यह अधिकार न हो तो फिर मेरी बातें वे क्यों मानने लगें? कोई जोर-जुल्म या दबाव तो है नहीं! यहाँ तो परस्पर समझौता (understanding) ही हो सकता है। यही बात है भी। इसीलिए तो मेरे काम में रुकावट होती नहीं। मैं बराबर माने बैठा हूँ कि किसान मेरा साथ जरूर देगा। क्योंकि मैं उसका साथ जो देता हूँ।

उसने अपनी लम्बी दास्तान सुनाई और कहा कि कैसी-कैसी दौड़धूप के बाद भी उसकी एक बात भी न चल सकी। जो खेत उसे मिलना चाहिए खामख्वाह, वह मिल न सका। उसने कई दृष्टान्त इस बात के सुनाये कि न तो बकाश्त जमीनें लोगों को मिलीं और न लगान ही घटा। फिर बोला कि ‘‘सुना था, सब कुछ हो जायेगा। वोट भी इसी आशा पर जान पर खेलकर दिया था। मगर यह तो धोखा ही निकला,’’ आदि-आदि। उसके मुँह से जो बातें धड़ाके से निकलती थीं मैं उन्हें गौर से सुनता था और उसकी भावभंगी भी देखता जाता था। मालूम होता था किसी बहुत बड़े धोखे से उसकी आँखें खुली हैं और झूठी प्रतिज्ञा करने वालों को-खासकर कांग्रेस मन्त्रियों को-कच्चा ही खा जाना चाहता है। गोकि बाहर से उसके इस भयंकर क्रोध का पता नहीं चलता था। मगर भीतर-ही-भीतर यह आग जल रही थी यह मुझे साफ झलकता था। वह महान् विस्मय में गोते लगा रहा था कि ऐसे लोग भी झूठी बातें करते हैं उस समय उसका चेहरा देखने ही लायक था। मुझे इसीलिए वह नहीं भूलता है।

उसकी बातें सुनने के बाद मैंने उससे साफ़-साफ़ कबूल कर लिया कि ‘हाँ भई, धोखा तो हुआ। यहाँ तो ऊँची दुकान के फीके पकवान ही नजर आये।’ इसके बाद मैंने ब्योरे के साथ सारी बातें उसे सुनाईं और समझाया कि बकाश्त की वापसी और लगान की कमी के नाम पर जो कानून अभी बने हैं वे कितने कच्चे हैं और केवल रुपये वाले जमींदार किस प्रकार बाजी मार ले जाते हैं। मैंने उसे खासा लेक्चर ही सुना दिया। क्योंकि मेरा भी दिल जला ही था। उसके सामने मैंने इस बात की बहुतेरी मिसालें भी पेश कीं और कहा कि धोखा तो दिया ही जा रहा है।

इस पर उसने चटपट सुना दिया कि "आप ही ने तो कहा था कि कांग्रेस को वोट दीजिये। हम क्या जानते थे कि कौन क्या है? आपने जैसा कहा हमने वैसा ही किया!" इस पर मैं ठक् सा हो गया। मेरे पास इस बात का तो कोई उत्तर था नहीं। वह बातें तो सरासर सच्ची कह रहा था। किसानों ने तो मेरे ही कहने से अपनी मर्जी के खिलाफ़ कांग्रेस के नाम पर उन नर-पिशाच जमींदारों तक को वोट दिया था जिनके हाथों किसानों की एक भी गत बाकी न रही थी। मुझे याद है कि वोट देने के पहले उसी धरहरा के इलाके के एक किसान ने एक सभा में लेक्चर सुनने के बाद ही मुझसे धीरे से कहा था कि आपकी बातें तो हम मान लेंगे और वोट देंगे जरूर। मगर जिन्हें वोट देने को आप कहते हैं वह भी जमींदार ही तो नहीं है? इस पर मैंने उसे समझा-बुझा के ठीक किया था। आज उस कोइरी नौजवान की बातें सुन के वह घटना भी आँखों के सामने नाच गयी।

मैंने उससे साफ़-साफ़ स्वीकार किया कि ‘‘हाँ जी, यह तो बात सही है। तुम्हारा इलजाम मैं मानता हूँ। असल में मैं भी धोखे में था। देश की सबसे बड़ी राजनीतिक संस्था की ओर से डंके की चोट जो बातें कही जा रही थीं और जिन्हें बड़े-बड़े महात्मा और लीडर बार-बार लाखों लोगों के सामने दुहरा रहे थे मैं उन पर विश्वास करता कैसे नहीं? इसी से तो धोखा हुआ। मैं किसानों के सामने अपने आपको इस दृष्टि से अपराधी कबूल करता हूँ। मगर इतना कहे देता हूँ कि इस घटना से मैंने बहुत कुछ सीखा है और किसानों को भी सीखना चाहिए। हाँ, आगे के लिए यही कह सकता हूँ कि फिर ऐसी बात होने न दूँगा।’’

मैंने देखा कि मेरी इन साफ बातों से उसे सन्तोष हो गया। यदि मैं दलीलें दे के अपनी वकालत करने लगता तो उसे शायद ही यह सन्तोष होता। मगर ईमानदारी से अपनी भूल कबूल कर लेने पर उसने समझ लिया कि गलती तो सभी से होती ही है। स्वामी जी को भी धोखा हो गया था। इनने जान-बूझ के कुछ नहीं किया। वह कोई बड़ा राजनीतिज्ञ तो था नहीं कि मैं उसे राजनीति की पेचीदगियाँ समझाने लगता और कहता कि यदि तुम ऐसा न करते और कांग्रेस को वोट न देते तो जमींदार जीत जाते। फिर तो और भी बुरा होता आदि आदि। इन बारीकियों को भला वह अपढ़ और सीधा-सादा किसान क्या समझने लगा? मेरा तो यह भी खयाल है कि उन लोगों से ये बातें कहने से वे इन्हें समझ तो पाते नहीं। उल्टे नेताओं को तौलने की जो उनकी सीधी सी कसौटी है कि जो कहें उसे खामख्वाह पूरा करें उसका भी इस्तेमाल करना वे लोग भूल जा सकते हैं। फलतः इसी राजनीति की ओट में धोखेबाज़ लोग उन्हें बराबर चकमा दे सकते हैं। इसीलिए मैंने सीधी बात की और अपनी गलती मान ली।

मगर इस घटना से मेरे दिल पर इस बात की गहरी छाप पड़ गयी कि किसानों ने अपने हित-अहित को पहचानना शुरू कर दिया। वे लोग बड़ी-बड़ी बातें बनाने वाले नेताओं और वोट के भिखारियों के चकमे में आसानी से नहीं आ सकते, यदि उनका नेतृत्व ठीक-ठीक किया जाय। वे भविष्य में वोट माँगने वालों के नाकों दम कर दे सकते हैं यदि किसान-सभा उस मौके से मुनासिब फायदा उठा के उन्हें पहले ही से आगाह कर दे। जो लोग कहा करते हैं कि किसान बुद्धू हैं और वे आसानी से फाँसे जा सकते हैं वे कितने धोखे में हैं यह बात मैंने उस दिन आँखों देख ली। अत्यन्त पिछड़ी भोली-भाली जाति का एक अपढ़ युवक अगर यह बात बेखटके बोल सकता है और मुझे भी मीठे-मीठे सुना दे सकता है तो औरों का क्या कहना? असल में जनता की मनोवृत्ति का ठीक-ठीक पता लगाना सबका काम नहीं है। यह बड़ा ही मुश्किल मसला है। इसका थाह बिरले ही पाते हैं जिन्होंने अपने आपको जनता के बीच खपा दिया है, दिन-रात उसके हवाले कर दिया है और जो उसी की नींद जागते और सोते हैं। रूसी किसानों की इसी सम्बन्ध की घटना मुझे याद आ गयी।

श्री लांसलाट ओयन (Launcelot A. owen) ने अपनी अंग्रेजी किताब ‘दी रशियन पेजेण्ट मूवमेण्ट 1906-1917’ में रूस के किसानों की सबसे पहली संगठित मीटिंग का जिक्र किया है जो ता. 31-7-1905 को एलेग्जैंडर बैकुनिन नामक जमींदार की जमींदारी में तोरजोक जिले में हुई थी। उस मीटिंग की कार्यवाही पूरी होने के बाद जो आपस में बातचीत जारी हुई थी उसमें किसानों ने भाग लिया था। सिर्फ सत्रह गाँवों के किसान जमा थे। जिले के सरकारी बोर्ड के मेम्बरों को जो यह शक था कि अभी तक किसान उत्तरदायी शासन के लिए तैयार नहीं हैं, अतः उसकी माँग बेकार है, उसका मुँहतोड़ उत्तर वहीं एक किसान ने चट दे दिया कि ‘‘नहीं नहीं, यह बात नहीं है! असल बात तो यह है कि किसान उसके लिए जरूरत से ज्यादा योग्य और तैयार हैं। इसी से सरकार डरती है” ''Another (peasant) confuting the Zemstoomen's doubts as to peasant ripeness for responsibility, asserted that the trouble was that they were over ripe.”

(शीर्ष पर वापस)

19

सन् 1938-39 की घटना है। हरिपुरा कांग्रेस के पहले और उसके बाद भी मुझे गुजरात में दौरा करने का मौका किसान-आन्दोलन के सिलसिले में लगा था। हरिपुरा के पहले गुजरात के हमारे प्रमुख किसान कर्मी श्री इन्दुलाल याज्ञिक ने अपने सहकर्मियों की सम्मति से तय किया था कि कांग्रेस के अवसर पर किसानों का एक विराट् जुलूस निकाला जाय और मीटिंग भी हो। फैजपुर के समय से ही यह प्रथा हमने चलाई थी जो अब तक लगातार जारी रही है। हमने भी उनकी राय मानी थी। इसीलिए निश्चय किया गया था कि उसके पहले मेरा दौरा हो जाय। क्योंकि वहाँ तो अभी किसान-आन्दोलन को जन्म देना था। अब तक तो वह वहाँ पनप पाया न था। गांधी जी का वह प्रान्त जो ठहरा। सो भी ठेठ बारदौली के पड़ोस में ही कांग्रेस हो जाने जा रही थी। सरदार बल्लभ भाई का तो हम पर प्रचण्ड कोप भी था। यह भी खबर अख़बारों में छप चुकी थी कि कांग्रेस के अवसर पर ही अखिल भारतीय खेत-मजदूर सम्मेलन श्री बल्लभ भाई की अध्यक्षता में होगा। यह खेत-मजदूर आन्दोलन किसान-सभा का विरोधी बनाया जा रहा था। बिहार तथा आन्ध्र आदि प्रान्तों में इस बात की खुली कोशिश पहले ही की जा रही थी कि खेत-मजदूरों को उभाड़ कर या कम-से-कम उनके नाम पर ही कोई आन्दोलन खड़ा करके बढ़ते हुए किसान-आन्दोलन को दबाया जाय। खुलेआम जमींदारों के आदमियों और पैसे के द्वारा यह बात की जा रही थी। हमें इसका पता था।

मगर हमें इसकी परवाह जरा भी न थी। हम बखूबी जानते थे कि ये बातें टिक नहीं सकती हैं। फिर भी सजग हो के किसानों का खासा जमावड़ा हरिपुरा में करना जरूरी हो गया। इसीलिए दौरे की जरूरत विशेष रूप से थी। आखिर किसानों को यह पैगाम तो सुनाना ही था कि किसान-सभा की क्यों जरूरत है जबकि कांग्रेस मौजूद ही है। साधारण पढ़े-लिखों से लेकर ऊपर के प्रायः सभी लोग वहाँ किसान-सभा को देख भी न सकते थे। ऐसी-ऐसी दलीलें करते थे कि सुन के दंग हो जाना पड़ता था। बारदौली वाली जो किसानों के नाम की लड़ाई पहले लड़ी जा चुकी थी उसके करते यह गलतफष्हमी और भी ज्यादा बढ़ गयी थी कि कांग्रेस ही किसान-सभा है और श्री बल्लभ भाई किसानों के असली नेता हैं। श्री इन्दुलाल जी की बातें से हमें तो कुछ पता चल गया कि वह लड़ाई असली किसानों की न हो के उनके शोषकों की ही थी जो असली किसानों को हटा के उनकी जगह जा बैठे हैं और जिनकी संख्या मुट्ठी भर ही है। मगर इस बात की पूरी जानकारी तभी हो सकती थी जब वहाँ खुद घूमा जाय। इसीलिए हम बड़े चाव के साथ उस दौरे के लिए रवाना हुए थे। वहाँ जा के हमने खुद अनुभव किया। किसानों की जमीनें कष्रीब-कष्रीब मुफ़्त में ही हथिया लेने वाले जो दस-पन्द्रह फीसदी बनिये पारसी या पटेल वग़ैरह हैं वही किसान कहे जाते हैं। वे काफी मालदार हैं और उनके पास बहुत जमीनें हैं। पहले के किसान उन्हीं के हलवाहे और गुलाम हो के नर्क की जिन्दगी गुजारते हैं। उन्हीं दस-पन्द्रह फीसदी लोगों की मालगुजारी घटाने के लिए बारदौली में लड़ाई लड़ी गयी थी, ताकि असली किसानों की छिनी जमीनें उन्हें वापस दिलाने या कम-से-कम उनकी गुलामी मिटाने के लिए।

भुसावल से हमने ताप्ती वैली रेलवे पकड़ी और रवाना हो गये। यह रेलवे बहुत ही धीमी और दुःखद है। पर, मजबूरी थी। मढ़ी स्टेशन, जहाँ से हरिपुरा जाना था, कि वे बहुत पहले ही सोनगढ़ के इलाके में हमें पहली मीटिंग करनी थी और यह सोनगढ़ उसी ताप्त वैली रेलवे में पड़ता है। बड़ौदा का राज्य है। किसान बहुत ही मजलूम और दुखिया हैं। वहीं से श्रीगणेश करने का विचार था। मगर बड़ौदा राज्य के हाकिमों को यह बात बर्दाश्त न हो सकी और वे लोग इस फिक्र में लगे कि किसी प्रकार हमारी सभा होने न दी जाय। उनने इस बारे में अपना काफी दिमाग लगाया। साफ-साफ नोटिस दे के हमारी सभा रोकने में उन्हें शायद खतरा नजर आया। इसलिए एक चाल चली गयी। ठीक सभा के दिन बहुत ही सवेरे उस इलाके के सभी गाँवों के पटेलों और मुखियों को राज्य की कचहरी पर पहुँच जाने की खबर ऐन मौके पर दी गयी जब हमारे आदमी सभा की तारीख बदल न सकते थे। पटेल और मुखिया लोग होते हैं एक तरह के राज्य के नौकर। इसलिए उसका कचहरी में पहुँच जाना जरूरी हो गया, और जब सभी गाँवों के मुखिया ही चले गये तो फिर सभा में आता कौन? अभी तक किसान-सभा वहाँ जमी तो थी नहीं। सीधे-सादे खेड़ईत (किसान) उसका महत्त्व क्या जानने गये? और अगर इतने पर भी गाँव के प्रमुख लोग सभा में चलते, तो दूसरे भी आते। मगर वह तो कचहरी चले गये। फलतः सभा की कोई सम्भावना रही न गयी। इस प्रकार बड़ौदा राज्य का यत्न सफल हो गया।

जब हम स्टेशन पर पहुँचे तो इन्दुलाल जी ने सब बातें कहीं। फिर तय पाया कि रात में पास के ही एक गाँव में ठहरना होगा। ठहरने का प्रबन्ध पहले से ही था। उस इलाके में रानीपरज के नाम से प्रसिद्ध जाति के लोग ज्यादातर बसते हैं। वही वहाँ के असली किसान हैं। उनके नेता श्री जीवन भाई हमारे साथ थे। वे अब कहीं बाहर कारबार करके गुजर करते हैं। मगर हमारी सहायता के लिए आ गये थे। उन्हीं के साथ हम सभी उस गाँव में गये। जब हमने की दशा पूछी तो उनने सारी दास्तान कह सुनाई। यह भी बताया कि ‘रानीपरज प्रगतिमण्डल’ के नाम से एक संस्था खुली है जो उन लोगों की उन्नति का यत्न करती है। स्कूल आदि के जरिये उन्हें कुछ पढ़ाया-लिखाया जाता है। चरखा भी सिखाया जाता है। सरदार बल्लभ भाई वग़ैरह उसमें मदद करते हैं। ‘रानी परज’ या किसी ऐसे ही नाम का कोई पत्र भी निकलता है। सारांश, वह ‘प्रगति-मण्डल’ समाज-सुधार की संस्था है। इसीलिए शराब वगै़रह पीने से लोगों को रोकती है।

मुझे आश्चर्य जरूर हुआ कि यहीं पास में बारदौली में किसानों की लड़ाई हुई ऐसा सभी जानते सुनते हैं। फिर भी रानीपरज के लोग आज बिना जमीन के हैं और दूसरों की गुलामी करते हैं। दुबला के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्हें जमीन दिलाने या उनकी गुलामी मिटाने की लड़ाई लड़ी न जाकर यह समाज-सुधार (Social reform) का काम एक निराली बात है। गोया ये लोग जरायम पेशा कौम हैं, जो Criminal Tribes हैं। जैसे जयराम पेशा लोगों को धर्म के नाम पर सुधारने की कोशिश की जाती है और शराब बन्दी का प्रचार होता है ठीक वही हालत यहाँ है। मैंने समझ लिया कि असली काम न करके यह बाहर मरहम-पट्टी लोगों की आँख में धूल झोंकने के ही लिए की जा रही है। जंगल में रहने वाली बहादुर कौम पेट के लिए मुफ्तखोरों और लुटेरों की गुलामी करे और नेता लोग इसके भीतर समाज-सुधार का प्रचार करें! यह निराली बात निकली। ब्याह-शादी वगै़रह के समय बनिये साहूकार या शराब बेचने वाले इन सीधे किसानों को चढ़ा के कर्ज देते-दिलाते और शराब पिलवाते हैं, और पीछे उसी कर्ज में न सिर्फ इनकी जमीनें ले लेते बल्कि पुश्त-दर-पुश्त इन्हें गुलाम बना डालते हैं। इस लूट और धोखेबाजी के खिलाफ इनमें बगावत का प्रचार किया जाना चाहता था। इन्हें बताना था कि उस बनावटी कर्ज को साफ कर दें और सुना दें कि अब हम गुलाम किसी के भी नहीं हैं। यही तो इस मर्ज की असली दवा है। मगर नकली नेता लोग दूसरी ही बात करते हैं। असल में इसी बात में उनका भी स्वार्थ है। वह भी या तो साहूकार आदि हैं, या उनके दोस्त और दलाल!

वहाँ से हमें अगले दिन सूरत जाना था। रेल पकड़ के सूरत पहुँचे भी और वहाँ शाम को एक मीटिंग भी की। फिर सीधे पंचमहाल जिले के दाहोद शहर के लिए फ्रांटियर मेल से रवाना हो के अगले दिन सवेरे रात रहते ही पहुँचे। वहाँ एक तो म्युनिसिपैलिटी की ओर से हमें मान-पत्र मिलना था। दूसरे एक सार्वजनिक सभा में भाषण करना था। बाम्बे, बड़ौदा और सेण्ट्रल इण्डिया रेलवे का वहाँ एक बड़ा कारखाना होने से मजदूरों की सभा में बोलना था। मगर सबसे सुन्दर चील थी दाहोद से दूर देहात में भीलों की एक बड़ी सभा। म्युनिसिपैलिटी के अध्यक्ष थे एक बहोरा मुसलमान सज्जन। मगर जो अभिनन्दन-पत्र उनने गुजराती में पढ़ा और जो संक्षिप्त भाषण दिया वह मार्के का था मैंने भी उचित उत्तर दिया। संन्यासी हो के किसानों के काम में मैं क्यों पड़ा इस बात का स्पष्टीकरण वहाँ मैंने निराले ढंग से किया। असल में शहरों के लोगों का पेट जैसे-तैसे भरी जाता है। इसलिए उन्हें धर्म की परवाह ज्यादा रहती है। मैंने भी धर्म की ही दृष्टि से उन्हें समझाया। मैंने कहा कि यद्यपि भगवान् सभी जगह है, फिर भी उसे विशेषरूप से शोषितों में ही पाता हूँ और वहीं ढूँढ़ने से वह मिलता है। जिस प्रकार फोड़े वाले के सारे शरीर में दवा न लगा के दर्द की ही जगह दवा लगाने से उसे विशेष आनन्द मिलता है, क्योंकि उसका मन वहीं केन्द्रीभूत है। उसका मन, उसकी आत्मा वहीं मिलती है, पकड़ी जाती है हालाँकि वह है दरअसल सारे शरीर में। वही हालत भगवान् की है।

जब हम लोग दूसरे दिन भीलों की मीटिंग में गये तो हमें बड़ा मजा आया। स्थान का नाम भूलता हूँ। मैदान में सभा थी। खासी भीड़ थी। चारों ओर आदमी ही आदमी थे। मर्द भी थे, औरतें भी थीं। थे तो दूसरे लोग भी। मगर भीलों की ही प्रधानता वहाँ थी। बचपन में सुना करता था कि द्वारका की यात्रा करने वाले यात्री लोग जब डाकोर की ओर चलते हैं तो दाउद गुहरा (दाहोद-गोध्रा) की झाड़ियाँ मिलती हैं। यानी दाहोद और गोध्रा के बीच में लगातार झाड़ियाँ हैं, जंगल हैं जहाँ भील लोग तीर चलाते हैं और यात्री को मार के लूट लेते हैं। मैं समझता था कि बड़े ही खूँखार और भयंकर होंगे। मगर जब उन्हें देखा कि भले आदमियों की सी सूरत-शकल वाले हैं तो आश्चर्य हुआ। हाँ, अधिकांश के हाथ में धनुष और तीरों के गुच्छे जरूर देखे। इनसे उन्हें अपार प्रेम है। इसीलिए साथ में रखते हैं। उनने कहा कि रास्ते में कहीं चोर-बदमाशों या जंगली जानवरों का खतरा हो तो यही तीर धनुष काम आते हैं। जंगली प्रदेश तो हई। यह दृश्य मैंने पहले-पहल देखा। मगर यह भी देखा कि वे मेरी बातें मस्त होके सुनते और झूमते थे। मेरी भाषा तो उनकी न थी। फिर भी मैं इस तरह बोलता था कि वे समझ जावें। बातें तो उन्हीं के दिल की बोलता था। फिर झूमें क्यों नहीं?

हमें वहीं पर यह भी पता चला कि उसी इलाके में बहुत पहले से ‘भील सेवा-मण्डल’ काम कर रहा है। वहाँ जाने का तो हमें मौका न लग सका। क्योंकि शाम तक दाहोद वापस आना जरूरी था। रेलवे मजदूरों की सभा में बोलना जो था। मगर लौटते समय रास्ते में ही हमें दूर से ‘सेवा-मण्डल’ के मकान दिखाए गये। सेवा-मण्डल का काम भीलों के विकास से ताल्लुक रखता था। मण्डल के कार्यकर्त्ताओं में अच्छे से अच्छे त्यागी लोग रहे हैं। हमारे साथी श्री इन्दुलाल जी का भी उसमें हाथ रहा है। यह काम उस समय शुरू हुआ जब हमारे देश में राजनीतिक चेतना नाममात्र को ही थी। इसलिए समाज सेवा के नाम पर यह मण्डल खुला। मगर आज जब राजनीतिक चेतना की एक बड़ी बाढ़ हमारे देश में आ गयी है और उसी के साथ उसका आर्थिक पहलू स्पष्ट हो गया है, तब ऐसे संस्थाओं का खास महत्त्व है या नहीं, यही प्रश्न पैदा होता है। यदि महत्त्व हो भी तो क्या उनके काम का तरीका वही रहे या बदला जाय, यह दूसरा सवाल भी खड़ा होता है। भीलों की वह असभ्यता तो जाती रही। समय ने पलटा खाया और वह सभ्यता की वायु में साँस लेने को बाध्य है। इस झकोरे से वे बच नहीं सकते, यदि हजार चाहें। ऐसी हालत में आर्थिक प्रोग्राम के आधार पर ही उनमें अब काम क्यों न किया जाय? मेरा तो विश्वास है कि असभ्य और जरायम पेशा कही जाने वाली जातियों में अब भी मर्दानगी औरों से कहीं ज्यादा है। फिर तो आर्थिक प्रोग्राम की बिना पर ज्यों ही उनमें काम शुरू हुआ और इसका महत्त्व उनने समझ लिया कि हक की लड़ाई में जूझने के लिए सबसे आगे वही लोग मिलेंगे।

खैर, शाम तक उस सभा से हम लोग लौटे और मजदूरों की मीटिंग में गये। मीटिंग खासी अच्छी थी। सफेदपोश बाबुओं की एक अच्छी तादाद वहाँ हाजिर थी। मैले और काले कपड़े वाले भी थे ही। श्रमिकों के क्या हक हैं और उनकी प्राप्ति के लिए उन्हें क्या करना होगा यही बात मैंने उन्हें बताई। सभा के बाद हम अपने स्थान पर वापस आए।

दूसरे दिन गोध्रा के नजदीक, उसके बाद वाले बैजलपुर स्टेशन से उत्तर जीतपुरा में हमारी मीटिंग थी। यह खासी देहात की सभा थी! दूर-दूर के किसान उसमें हाजिर थे। बहुत ही उत्साह और उमंग से हमें वे लोग वहाँ ले गये। बाजे-गाजे और तैयारी की कमी न थी। सभा भी पूर्ण सफल हुई। जिस जमीन में सभा हुई उसे किसान ने किसान-आश्रम बनाने के लिए दे दिया। आगे के स्थायी काम के लिए इस प्रकार वहाँ नींव डाली गयी, यही उसकी सबसे बड़ी विशेषता थी। मुझे इस बात से अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि मेरी हिन्दी भाषा वहाँ के खेड़ईत भी बखूबी समझ लेते थे। बेशक मेरी कुछ ऐसी आदत हो गयी है कि किसानों के ही समझने योग्य भाषा बोलता हूँ, सो भी धीरे-धीरे। असल में बातें तो उनके दिल की ही बोलता हूँ। इसीलिए उन्हें समझने में आसानी होती है। हाँ, तो जीतपुरा से लौट के हमने रात में गाड़ी पकड़ी और मढ़ी चल पड़े। मढ़ी से ही हरिपुरा जाना था।

मढ़ी और हरिपुरा के बीच में ही हमारी एक और भी सभा थी खासी देहात में। हमने वह सभा की तीसरे पहर। कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल तो बनी चुका था। पहले-पहल हमने उसी सभा में एक बात कही जिसे हम पीछे चल के कई जगह दुहराते रहे। दरअसल गुजरात और महाराष्ट्र में कर्ज और साहूकारों के जुल्म का ही प्रश्न सबसे पेचीदा और महत्त्वपूर्ण है। कहा जाता है कि वहाँ जमींदारी-प्रथा नहीं है। वहाँ के किसानों का सरकार के साथ सीधा सम्बन्ध है। इसे रैयतवारी कहते हैं। मगर बनियों और साहूकारों ने सूद-दर सूद के जाल में फाँस के किसानों की प्रायः सारी जमीनें ले ली हैं और वे खुद जमींदार बन बैठे हैं। अर्द्धभाग या बँटाई पर फिर उन्हीं किसानों को वही जमीनें ये साहूकार जोतने को देते हैं। और अगर फसल मारी जाय तो खामख्वाह नगद मालगुजारी ही वसूल कर लेते हैं। डरा और दबा किसान चूँ भी नहीं करता है। बँटाई की हालत यह है कि मूँगफली जैसी कीमती और किराना चीजों की पैदावार का भी आधा हिस्सा ले लेते हैं। किसानों की गुलामी भी इसी के करते हैं।

इसीलिए उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता अगर इस कर्ज के असह्य भार को उनके सिर से उठा फेंकने की बात की जाय। यदि उनकी छाती से यह चट्टान हटे तो जरा साँस लें। मुझे यह बात मालूम तो थी ही। इसीलिए मैंने कहा कि पड़ोस में ही कांग्रेस हो रही है। उसका दावा भी है कि वह गरीबों और सताये गये लोगों की ही संस्था है। श्री बल्लभ भाई अपने को किसानों का नेता कहते भी हैं। और आज तो इस बम्बई प्रान्त में कांग्रेस के ही मन्त्री शासन चला रहे हैं, ऐसा माना जाता है। उन्हीं की मर्जी से कानून बनते हैं। इसलिए हरिपुरा में लाखों की तादाद में किसान जमा हो के साफ-साफ कह दें कि इस मनहूस कर्ज ने हमारी रीढ़ तोड़ डाली। हमने एक के दस अदा किये। फिर भी साहूकार की बही (चौपड़ी) में घीस बाकी पड़े हैं। हमारी जमीन और इज्जत इसी के चलते चली गयीं। हम गुलाम भी बन गये। यहाँ एक नये प्रकार के ‘‘साहूकार जमींदार’’ पैदा हो गये। इसलिए कांग्रेस के मन्त्री लोग कृपा करके इन साहूकारों के सभी कागज-पत्र अपने पास मँगवा लें। फिर या तो उन्हें बम्बई के पास के ही समुद्र में डुबा दें, या नहीं तो होली जला दें। और अगर हुक्म दें तो हमीं लोग उन्हें ले के ताप्ती नदी में ही डुबा दें। नहीं तो हमारा जो जीवन भार बन गया है वह खत्म हो जायगा।

हमने देखा कि इन शब्दों के सुनते ही किसानों के चेहरे खिल उठे। उसके बाद सभा का काम पूरा करके हमने हरिपुरा पहुँचने की सोची। खयाल आया कि मोटर लारियाँ तो बराबर दौड़ रही हैं। हम लोग पल मारते पहुँच जायँगे। फिर वहाँ से सड़क पर आये और लारियों का इन्तजार करने लगे। घण्टों यों ही बीता। बीच में बीसियों लारियाँ आईं और चली गयीं। हमने हजार कोशिश की कि रुकें, मगर एक भी न रुकी। लाचार जीवन भाई के साथ पैदल ही आगे बढ़े। उनने कहा कि आगे कुछ दूरी पर जो गाँव पक्की सड़क से हट के पड़ता है वहीं से एक बैलगाड़ी ले के उसी पर हरिपुरा चलेंगे। बस, गाँव की ओर चल पड़े। दो-तीन मील चलने पर गाँव आया।

गाँव पहुँचने के पहले ही हमने जीवन भाई से रानीपरज तथा और किसानों की हालत पूछी। वे भी रानीपरज बिरादरी के ही थे। इसीलिए उनकी दशा ठीक- ठीक बता सकते थे। ऊपर से जान पड़ता था कि गांधी जी और सरदार बल्लभ भाई के बड़े भक्त थे। पहले कांग्रेस में उनने काफी काम भी किया था, मगर उनने जो हृदय विद्रावक वर्णन अपने भाइयों के कष्टों का किया उससे हमारा तो खून उबल पड़ा। उनकी भी भावभंगी अजीब हो गयी थी। उनने कहा कि यदि किसी रानीपरज के पास काफी जमीन हो और अपने गरीब भाई से खेती का काम वह कराये तो काम करने वाले के परिवार को अपने ही मकान के एक भाग में रख के अपने ही परिवार में उस परिवार को शामिल कर लेगा। मगर, अगर साहूकार, पारसी या पटेल वही काम गरीब रानीपरज से कराए तो दिन में ज्वार की रोटी और कोई साग उसे खाने को देगा जिसमें मसाले के नाम पर सिर्फ लाल मिर्च के बीज पड़े हांेगे, न कि लाल मिर्च। असल में गुजरात में उन बीजों को निकाल के फेंक देते हैं खाते नहीं। इसीलिए साहूकार उन बेकार चीजों को उन गरीबों के साग में डाल देते हैं। शाम को दो सेर ज्वार या एक-डेढ़ आने पैसे दे देते हैं।

इसके बाद जो कुछ उनने कहा या कहना चाहा वह बड़ा ही बीभत्स था। उनकी आँखें डबडबा आयीं। आखिर अपनी ही बिरादरी की प्रतिष्ठा की बात जो ठहरी। उनने कहा कि हमारे जो भाई साहूकारों के ऋण में फँसे हैं उनकी जवान लड़कियों और पुत्र-वधुओं को भी ये राक्षस कभी-कभी ज़बर्दस्ती काम करवाने के लिए बुलवा लेते हैं। अब आप ही सोच सकते हैं कि उनका धर्म कैसे बचने पाता होगा, आदि-आदि। उनने इस बात पर बहुत ही जोर दिया और कहा कि दुबला के नाम से प्रसिद्ध गरीब किसानों और उनकी बहू-बेटियों की इज्जत की खैरियत नहीं है।

इस पर हमने कहा कि ‘‘लेकिन हम जो यह किसान-सभा कर रहे हैं उसे सरदार बल्लभ भाई तो पसन्द नहीं करते। हालाँकि उन्हें चाहिए तो यह था कि वह खुद दुबला लोगों के लिए यह काम करते और गांधी जी भी उन्हें इस बात का आदेश देते। यह क्या बात है कि गांधी जी इस बात पर मौन हैं? क्या उन्हें भी यह बात पसन्द है?’’ तब उनने कहा कि ‘‘इसमें गांधी जी का दोष नहीं है। असल में लीडर लोग गड़बड़ी करते हैं।’’ हमने फिर कहा कि ‘‘मगर गांधी जी भी हमारी किसान-सभा को पसन्द नहीं करते, यह पक्की बात है। तब हम कैसे मानें कि केवल लीडरों की ही भूल है, उनकी नहीं? और अगर ऐसी हालत में आप किसान-सभा में पड़ेंगे, तो गांधी जी जरूर आप पर रंज होंगे।’’ अब क्या था, अब तो वे साफ खुल गये और कहने लगे कि ‘‘गांधी जी अपना काम करते हैं और हम अपना। हमें किसान-सभा मेें ही किसानों का उद्धार दीखता है। कांग्रेस से कुछ होने जाने का नहीं। इसलिए यदि गांधी जी हम पर बिगड़े तों हम क्या करें? हम तो यह काम करेंगे ही।’’ बस, मैंने समझ लिया कि किसान-सभा गुजरात में भी जीती-जागती संस्था बन के ही रहेगी, जब कि शुरू में ही जीवन भाई जैसे किसान इसकी जरूरत और महत्ता को यों ही समझने लगे हैं। क्योंकि सभा का काम तो उनने अभी देखा भी नहीं। इससे स्पष्ट है कि परिस्थिति (Objective conditions) उसके अनुकूल है। सिर्फ पथदर्शकों और सच्चे कार्यकर्त्ता (Subjective conditions) की कमी है।

इतने ही में हम उस गाँव में जा पहुँचे और एक किसान के दरवाजे पर ठहरे। बैलगाड़ी का प्रबन्ध होने लगा। शाम भी होई रही थी। थोड़ी देर में गाड़ी तैयार हो के आ गयी और हम लोग उस पर बैठ के रवाना हो गये। रास्ते में हमने गाड़ी हाँकने वाले किसान से हरिपुरा की बात चलाई और पूछा कि वहाँ बिट्ठल नगर में काम करने के लिए यहाँ के लोग जाते हैं या नहीं, और अगर जाते हैं तो क्या मजदूरी उन्हें प्रतिदिन मिलती है? इस पर उसने कहा कि रेलवे या सड़क वग़ैरह में काम करने वालों को दस आने पैसे मिलते हैं। कांग्रेस में भी पहले कुछी कम पैसे मिलते थे। मगर पीछे जब ज्यादा तादाद में काम करने वाले जाने लगे तो छः आने ही दिए जाने लगे! इसके लिए हो-हल्ला भी हुआ। मगर सुनता कौन है? शायद तूफ़ान मचने पर सुनवाई हो। मगर मजदूर तो भूखे हैं इसलिए जोई मिलता है उसी पर सन्तोष कर लेते हैं। उसने इसी तरह की और भी बातें सुनाईं। मुझे यह सुनके ताज्जुब तो हुआ नहीं। क्योंकि मैं तो कांग्रेसी लीडरों की मनोवृत्ति जानता था। मगर उनकी इस हिम्मत, बेशर्मी और हृदय-हीनता पर क्रोध जरूर हुआ। मैंने दिल में सोचा कि यही लोग गरीबों को स्वराज्य दिलायेंगे। यही देहात की कांग्रेस है जिसमें देहातियों को उतनी भी मजदूरी नहीं मिलती जितनी सरकारी ठेकेदार देते हैं। इसी बूते पर यह दावा गांधी जी तक कर डालते हैं कि किसानों की सबसे अच्छी संस्था कांग्रेस ही है--“The Congress is the Kisan organisation parexcellence!” मुझे खुशी इस बात की थी कि न सिर्फ वह गाड़ी हाँकने वाला, बल्कि उस देहात के सभी लोग इस पोल को बखूबी समझ रहे थे जैसा कि उसकी बातों से साफ झलकता था।

रात में हम बिट्ठल नगर पहुँचे और वहीं ठहरे। पूरे अठारह रुपये में हमने एक झोंपड़ा लिया जिसमें सिर्फ तीन चारपाइयाँ पड़ सकती थीं। यही है गरीबों की कांग्रेस! वहाँ एक रुपये से कम में तो एक दिन में एक आदमी का पेट भरी नहीं सकता था। चीजें इतनी महँगी कि कुछ कहिए मत। जल्लाद की तरह बेमुरव्वती से तो दूकानदारों से सख्त किराया लिया जाता है। देहात में होने वाली सभी कांग्रेसों की यही हालत होती है। दिन-ब-दिन चीजें महँगी ही मिलती हैं।

खैर, हरिपुरा में हमें तो अपना काम करना था। वहाँ किसानों का लम्बा जुलूस निकालना था। मीटिंग भी करनी थी। मगर पता चला कि सरदार बल्लभ भाई का सख्त हुक्म है कि बिना उनकी आज्ञा के बिट्ठल नगर के भीतर कोई भी मीटिंग या प्रदर्शन होने न पाए। हमें यह चीज बुरी लगी। हमने कहा कि सरदार साहब या उनकी स्वागत समिति को यह हक हर्गिज नहीं है कि आम सड़क पर जुलूस रोक दें। जब तक पुलिस या मजिस्ट्रेट की ऐसी मुनादी न हो तब तक तो हमें कोई रोक सकता नहीं। हाँ, मुनादी हो जाने पर कानून तोड़ने की नौबत आयगी। मगर सरदार या उनके साथियों को न तो पुलिस का अधिकार प्राप्त है और न मजिस्ट्रेट का ही। फिर उनकी नादिरशाही के सामने हम क्यों सिर झुकायें।

नतीज़ा यह हुआ कि हम और हमारे साथी श्री इन्दुलाल याज्ञिक वग़ैरह किसी से भी पूछने न गये और जुलूस निकला खूब ठाट के साथ। पचीस-तीस हजार से कम लोगों का जुलूस नहीं था। साहूकारों से त्राण दिलाने और हाली प्रथा मिटाने आदि के नारे मुख्य थे। हाली और दुबला या गुलाम ये सब एक ही हैं। मीटिंग भी बहुत ही जम के हुई। मैं ही अध्यक्ष था। मेरे सिवाय याज्ञिक, डॉॉ सुमन्त मेहता आदि अनेक सज्जन बोले।

सरदार बल्लभ भाई यह बात देख के भीतर ही भीतर आगबबूला हो गये सही। मगर मजबूर थे। इसीलिए किसी न किसी बहाने से अपने दिल का बुखार निकालते रहे। रह-रह के बिना मौके के ही हम लोगों पर तानाजनी करते रहे। एक बार तो वहाँ पली गायों के बारे में यों ही लेक्चर देते हुए बोल बैठे कि हम तो इन गायों को पसन्द करते हैं जो न तो प्रस्ताव करती हैं और न उनमें सुधार पेश करती हैं। ये तो क्रान्ति और जमींदारी या पूँजीवाद मिटाने की भी बातें नहीं करती हैं। किन्तु दूध दिये चली जाती हैं। जिससे हमारा काम चलता है। इसी तरह के अनेक मौके आये।

एक बार तो खास विषय समिति में ही बिना वजह और बिना किसी प्रसंग के ही विशेषतः मुझे और साधारणतः सभी वामपक्षियों को लक्ष्य करके न जाने वह क्या-क्या बक गये। यहाँ तक हो गया कि सभी लोग जल के खाक हो गये। फलतः हमने बहुत ही शोर किया और सभापति श्री सुभाष बाबू पर जोर दिया कि उन्हें रोकें। पहले तो सभापति जी हिचकते रहे और सरदार साहब भी लापरवाह हो के बकते जाते थे। मगर जब परिस्थिति बेढब हो गयी और शोर बहुत बढ़ा तो उनने रोका, जिससे वे एकाएक अपना सा मुँह ले के बैठ गये। इस प्रकार बारदौली की भूमि में ही उनकी नाक कट गयी सिंह अपनी माँद में ही सर हो गया।

हरिपुरा के पीछे कुछ महीने गुजर जाने पर फिर गुजरात में दौरा करने का मौका आया। इस बार श्री इन्दुलाल याज्ञिक और उनके साथियों ने संगठित किसानों की सभाएँ प्रायः गुजरात के हर जिले में कीं। अहमदाबाद शहर में ही नहीं, किन्तु देहात में भी एक सभा हुई। हरिपुरा के बाद किसानों की कई संगठित लड़ाइयाँ भी हो चुकी थीं और विशेष-रूप से बड़ौदा राज्य के घोर दमन का शिकार उन्हें तथा हमारे प्रमुख किसान सेवकों को होना पड़ा था। उनकी कितनी ही मीटिंगें दफा 144 की नोटिस और पुलिस की मुस्तैदी के करते रोकी गयीं। फिर भी लड़ाई चलती रही। यद्यपि बड़ौदा सरकार का कानून है कि किसान से नगद लगान ही लेना होगा, न कि बँटाई। फिर भी साहूकार जमींदार यह बात मानते न थे। खूबी तो यह कि यदि साल में दो फसलें हों तो दोनों में ही आधा हिस्सा लेते थे। फलतः किसानों ने बँटाई देने से इनकार कर दिया। सरकार को इस पर उनका और किसान-सभा का कृतज्ञ होना चाहता था। मगर उल्टे दमन-चक्र चालू हो गया। असल में सरकारें तो मालदारों की ही होती हैं। इसलिए उनका फर्ज हर हालत में यही होता है कि धनियों की रक्षा करें। वे कानून तोड़ते हैं तो बला से। शोषित जनता को सिर उठाने नहीं देते। असली चीज कानून नहीं है, किन्तु कमाने वाली, पर लुटी जाने वाली, जनता को चाहे जैसे हो सके दबा रखना ही असल चीज है। कानून भी इसी गर्ज से बनाए जाते हैं। मगर अगर कहीं कानून की पाबन्दी के चलते ही जनता सिर उठा ले तो उसकी पाबन्दी से बढ़ के भूल और क्या हो सकती है? यही कारण है कि जमींदारों और मालदारों के कानून तोड़ने पर भी सरकार तरह दे जाती है। उनके रुपये और प्रभाव के चलते इसके लिए बहाने तो सरकार को मिली जाते हैं। पुलिस उसकी रिपोर्ट करती ही नहीं। फिर सरकार क्या करे? और अगर कहीं एक-दो जगह किसान सिर उठाने पाए तो फिर गजब हो जाने का डर जो रहता है। क्योंकि ‘‘बुढ़िया के मरने का उतना डर नहीं, जितना यम का रास्ता खुल जाने का रहता है!’’ बड़ौदा राज्य में किसानों की उन लड़ाइयों ने यह बात साफ कर दी।

अहमदाबाद की सभा के बाद हमारा दौरा था खेड़ा जिले में-उसी खेड़ा जिले में जो न सिर्फ श्री इन्दुलाल जी का जिला है, बल्कि सरदार बल्लभ भाई का भी जन्म उसी जिले में हुआ है। हमारी मीटिंगें ठेठ देहातों में थीं। स्टेशन से उतर के हमें कई दिन देहात-देहात ही घूमते रहने और इस तरह डाकोर के पास रेलवे लाइन पकड़ने का मौका मिला। कुछ दूर लारी से और बाकी ज्यादा जगहें बैलगाड़ी से ही तय करनी पड़ीं। इस बार हम ऐसे इलाके में गये जहाँ आज तक कांग्रेस का कोई खास असर होई न पाया है। इसलिए हमें इस बात से बड़ी प्रसन्नता हुई। अनुभव भी बहुत ही मजेदार हुए।

असल में खेड़ा जिले के बहुत बड़े हिस्से में क्षत्रियों की एक बहादुर कौम बसती है जिसे धाराला कहते हैं। ये लोग अहमदाबाद जिले में भी खासी तादाद में पाये जाते हैं। हमें इस बात से बड़ी तकलीफ हुई कि सरकार ने इस दिलेर कौम को जरायम पेशा करार दे रखा है। असल में विदेशी सरकार की तो सदा से यही नीति रही है कि लोगों में मर्दानगी का माद्दा रहने ही न दिया जाय। पर अफसोस है कि कांग्रेसी मन्त्रियों ने भी इस कलंक को मिटाने की कोशिश न की, जिससे धाराला लोग अब भी वैसे ही माने जाते हैं। पहले गांधी जी के ‘नवजीवन’ और ‘यंग इण्डिया’ में पढ़ के हमें भी इनके बारे में यही गलत धारणा थी। परन्तु दौरा करने पर हमें पता चला कि सारी बातें गलत हैं। ये लोग अपने पास लम्बे-लम्बे दाव लाठी में लगा के रखते हैं जिसे धारिया कहते हैं। धाराला नाम इसी धारिया के रखने से पड़ा है। जंगल में लकड़ी वग़ैरह काटने में इससे बड़ी आसानी होती है। हमें इस बात से खुशी हुई कि इन लोगों ने, जो सदा कांग्रेस के विरोधी रहे, न सिर्फ हमारी किसान-सभा को अपनाया, बल्कि इस काम में बड़ी मुस्तैदी दिखाई। उनने इसे अपनी चीज मान ली। इसका प्रमाण हमें उसी यात्रा में प्रत्यक्ष मिला। साहूकारों ने जो उन्हें आज तक बेखटके लूटा था उससे बचने का रास्ता उन्हें किसान-सभा में ही दीखा। क्योंकि सभा की नीति इस मामले में साफ है। यही कारण है कि वे इस ओर झुके, गो कांग्रेस से अलग रहे। उसकी नीति गोल-मोल जो ठहरी।

खेड़ा जिले के गाँवों में घूमते-घामते हम डाकोर से सात ही आठ मील के फासले वाले रेलवे स्टेशन कालोल पहुँचे। यह एक अच्छा शहर है। यहाँ व्यापारी और साहूकार बहुत ज्यादा बसते हैं। हमारे दौरे से इनके भीतर एक प्रकार की हड़कम्प मच चुकी थी, गोकि हमें इसका पूरा पता न था। सरदार बल्लभ भाई के गण लोग भी चुपचाप बैठे न थे। हम उनके गढ़ पर ही धावा जो बोल रहे थे। जो गुजरात आज तक गांधीवाद का किला माना जाता था वहीं किसान-सभा की प्रखर प्रगति उन नेताओं को बुरी तरह खल रही थी। इसीलिए हमारे खिलाफ अंट-संट प्रचार करके और हमें कांग्रेस-विरोधी करार देके उनके गण मध्यमवर्गीय लोगों को हमारे विरुद्ध खूब ही उभाड़ रहे थे। और कालोल शहर तो मध्यवर्गीय लोगों का अड्डा ही ठहरा।

एक बात और भी हो गयी थी। उसके पूर्व देहातों में जो हमारे कई लेक्चर हो चुके थे उनमें साहूकारों और सूदखोरों की लूट का हमने खासा भण्डाफोड़ किया था। हमने कहा था कि किसानों के सभी कर्ज मंसूख कर दिये जायँ। इससे साहूकारों में खलबली मचना स्वाभाविक था। उनने समझा कि यह तो हमारा भारी दुश्मन खड़ा हो गया। वे मानते थे कि यदि ऐसे लेक्चर किसानों में होने लग जायँ तो वे हमारी एक न सुनेंगे, निडर हो जायँगे और हमारा दिवाला ही बुलवा देंगे। पंचमहाल जिले के गुसर मौजे में पीछे चल के श्री जबेर भाई नामक किसान ने ऐसा किया भी। और जगह भी ऐसी घटनाएँ हुईं। इसीलिए उनका डरना और सतर्क होना जरूरी था।

जिस दिन हम कालोल पहुँचे उसके ठीक पहले दिन एक गाँव में एक साहूकार से कुछ बातें भी ऐसी हो गयीं कि वह चौंक पड़ा, और बहुत सम्भव है कि उसने भी कालोल में सनसनी पैदा की हो। बात यों हुई कि उसने किसानों की फिजूलखर्ची की शिकायत करते हुए यह कह डाला कि ये लोग शहरों जा के सैलूनों में बाल कटवाया करते हैं। सैलून अंग्रेजी ढंग की जगहें होती हैं जहाँ बाबू आनी ढंग से नाऊ लोग हजामत बनाते और ज्यादा पैसे मजदूरी में लेते हैं। साहूकार को खटकता था कि ये लोग मेरा कर्ज और सूद चुकता न करके फिजूल पैसे खर्च डालते हैं। इसी से उसने मुझसे उनकी शिकायत की।

मगर मैंने झल्ला के कहा कि क्या ऐसा बराबर होता है या कभी-कभी? उसने उत्तर दिया कि केवल कभी-कभी। इस पर मैंने उसे डाँटा कि यही चीज तुम्हें चुभ गयी? आखिर किसान लोग पत्थर तो हैं नहीं। ये भी मनुष्य हैं। इन्हें भी अभिलाषाएँ और वासनाएँ हैं। इसीलिए कभी-कभी उन्हें पूरा कर लेते हैं। जो लोग इन्हीं की कमाई के पैसे सूद, कर्ज, लगान आदि के रूप में लूट के बराबर ही सैलूनों में जाते और गुलछर्रे उड़ाते हैं उन्हें शर्म होनी चाहिए, न कि इन किसानों को। ये तो अपने ही कमाई के पैसे से कभी-कभी ऐसा करते हैं और यह अनिवार्य है। मगर आपको अमीरों की बात नहीं खटक के इनकी ही क्यों खटकती है? ये किसे लूट के सैलून में जाते हैं? इस पर वह साहूकार हक्का-बक्का हो गया। उसे यह आशा न थी कि मैं ऐसा कहूँगा। वह तो मुझे गांधीवादियों की तरह समाज-सुधारक समझता था। फलतः मेरी बात सुन के उसे अचम्भा हुआ। शायद उसी ने कालोल में ज्यादा सनसनी फैलाई।

हाँ, तो कालोल में पहुँचने पर शहर से बाहर एक बाग में जो रेलवे स्टेशन के पास ही है, हम जा ठहरे। हमारे ठहरने का प्रबन्ध पहले से ही वहीं था। बाग में पहले एक कारखाना था तो तहस-नहस की हालत में पड़ा रो रहा था। शहर के दो एक प्रतिष्ठित और पढ़े-लिखे लोग हमसे वहाँ मिलने आये। यह भी पता चला कि उन्हें लोगों ने हमारी सभा का भी प्रबन्ध किया है। श्री इन्दुलाल जी से उनका पुराना परिचय था। हमें खुशी इस बात की थी कि मध्यमवर्गीय पढ़े-लिखे लोग हमारे भी साथ हैं। उन्हीं के नाम से सभा की नोटिसें भी बँटी थीं। सभा का समय शाम होने पर था जब कि चिराग जल जायें। हम भी निश्चिन्त थे। क्योंकि भीतरी सनसनी और हमारे खिलाफ की गयी तैयारी का हमें पता न था। दूसरों को भी शायद न था। नहीं तो हमें बता तो देते ताकि हम पहले से ही सजग हो जायें। मगर विरोधियों ने गुपचुप अपनी तैयारी कर ली थी जरूर।

जब शाम होने के बाद हम सभा में चले तो शहर के बीच में जाना पड़ा। हमें ताज्जुब हुआ कि यह क्या बात है? घने मकानों के बीच कहाँ जा रहे हैं यह समझना असम्भव था। इतने में हम ऐसी जगह जा पहुँचे जो चारों ओर ऊँचे मकानों से घिरी थी। बीच में जो जगह खाली थी वहीं देखा कि बहुत से सफेद-पोश लोग जमा हैं। सब के सब खड़े थे। बैठने के लिए कोई दरी-वरी या बिछावन भी वहाँ न दीखा। हमने समझा कि यों ही किसी काम से ये लोग खड़े हैं और आगे चलने लगे। लेकिन हमें बताया गया कि यही सभा-स्थान है। हमें ताज्जुब हुआ कि शहर की सभा और उसकी ऐसी तैयारी! हम समझी न सके कि क्या बात है। इतने में किसी ने इशारा कर दिया कि यही स्वामी जी हैं। इशारे का पता हमें तो न लगा। मगर विरोधियों की तैयारी ऐसी थी कि वे किसी के इशारे से समझ जा सकते थे।

बस, फिर कुछ कहिये मत। हमें कोई बैठने को भी कहने वाला न दीखा। यहाँ तक कि किसी ने बात भी न की और चारों ओर से एक अजीब ‘सी सी’ की आवाज आने लगी। वह आवाज हमें पहले ही पहल सुनने को मिली। हमने हजारों किसान-सभाएँ कीं। विरोधियों के मजमे में हमने व्याख्यान दिये यहाँ तक कि हरिपुरा के पहले सूरत जिले में बिलिमोड़ा स्टेशन से एक दूर बसे शहर में भी हमारी सभा हुई जिसमें गांधीवादी भरे पड़े थे। मगर ऐसी हालत वहाँ न देखी। उनने सभ्यता से आदरपूर्वक हमसे सवाल जरूर किये जिनके उत्तर हमने दिये। मगर ऐसा न किया। यहाँ तो कोई सुनने वाला ही न था। मालूम होता था कि यों ही ‘सी सी’ और ‘हू हू’ करके या ताने मार के हमें ये लोग भगा देने पर तुले बैठे थे। तानेजनी की बातें भी बोली जा रही थीं। कोई-कोई हमें संन्यासी का धर्म सिखा रहे थे। मगर अप्रत्यक्ष रूप से जैसा कि हुआ करता है।

पहले तो हम और याज्ञिक दोनों ही अकचका गये। मगर पीछे खयाल किया कि यहाँ तो जैसे हो निपटना ही होगा। हम मार भले ही खा जायें। मगर सभा तो करके ही हटेंगे। इतने में एक दीवार के बगल वाले चबूतरे पर हम दोनों जा खड़े हुए और याज्ञिक ने बोलने की कोशिश की। पहले तो वे लोग सुनने को रवादार थे ही नहीं। इसीलिए उनकी सिसकारी चलती रही। मगर हम या याज्ञिक भी बच्चे या थकने वाले तो थे नहीं। इसलिए याज्ञिक ने बोलने की कोशिश बराबर जारी रखी। नतीजा यह हुआ कि बाधा डालने वाले थक के सुनने को बाध्य हुए। आखिर कब तक ऐसा करते रहते? उनका थकना जरूरी था। हमारा तो एक पवित्र लक्ष्य है जिसमें मस्त होने से हम थकना क्या जानें? वह लक्ष्य भी महान् है। शोषितों एवं पीड़ितों का उद्धार ही हमारा लक्ष्य है। उसमें हमारा अटल विश्वास भी है। फिर हम क्यों थकते? बल्कि ऐसी बाधाओं से तो उल्टे हमारी हिम्मत और भी बढ़ती है। मगर उन लोगों का तो कोई महान् और पवित्र लक्ष्य था नहीं। फिर थकते क्यों नहीं?

जब वे चुप हो गये तो हमें और भी हिम्मत हुई। फिर तो श्री इन्दुलाल ने अपना लेक्चर तेज किया और धीरे-धीरे उन लोगों को ऐसा बनाया कि कुछ कहिये मत। आखिर वह भी उसी खेड़ा जिले के ही रहने वाले ठहरे। कालोल के बहुतेरे लोग उनके त्याग और उनकी जन-सेवा को खूब ही जानते हैं। वे गांधी जी के प्राइवेट सेक्रेटरी बहुत दिनों तक रह चुके हैं। पढ़-लिख के और वकालत पास करके उनने अपने को दलितों की सेवा के लिए समर्पित किया। यहाँ तक कि शादी भी न की। यह बात खेड़ा वालों से ही छिपी रहे यह कब सम्भव था? यही वजह थी कि उनने विरोधियों की मीठे-मीठे खूब ही मरम्मत की।

फिर मेरा मौका आया। मैं खड़ा हुआ और भाषण का प्रवाह चला। मैंने देखा कि इन्हें कांग्रेस के ही मन्तव्यों और प्रस्तावों के द्वारा पानी-पानी करना ठीक होगा। इसलिए कांग्रेस की चुनाव घोषणा, फैजपुर के प्रस्ताव और लखनऊ के प्रस्ताव का उल्लेख करके मैंने उन्हें बताया कि यदि वे कांग्रेस के भक्त हैं तो फौरन ही किसानों को कर्ज से और जमींदारों के जुल्मों तथा बढ़े हुए लगान के बोझ से मुक्त करना होगा। वे बेचारे क्या जानने गये कि प्रस्ताव क्या हैं और लीडर लोग कांग्रेस के मन्तव्यों के ही विरुद्ध काम कर रहे हैं? उन्हें तो जैसा समझाया गया वैसा ही उनने मान के मुझे कांग्रेस का बागी करार दे दिया! मैंने उनसे कहा कि गुनाह कोई करे और अपराधी कोई बने? मैंने उन्हें ललकारा कि मेरी एक बात का भी उत्तर दे दें तो मैं हार जाने को तैयार हूँ। मैं तो घण्टों बोलता रहा और वहाँ ऐसी शान्ति रही कि कुछ पूछिये मत। अब तो कोई चूँ भी नहीं करता था। मेरे बाद स्थानीय एक सज्जन भी बोले और सभा बर्खास्त की गयी।

पीछे तो ‘सी सी’ करने वालों को खूब ही पता चला कि वे धोखे में थे। जब मैंने न सिर्फ उनकी बल्कि उनके बड़े-से-बड़े लीडरों की भी खासी खबर ली तो आखिर वे करते भी क्या? दरअसल मध्यमवर्गीय लोगों को तो यों ही भटका के गुरुघण्टाल लोग अपना उल्लू सीधा करते हैं। वहीं मैंने प्रत्यक्ष देखा कि मध्यमवर्गीय लोग कितने खतरनाक और किस तरह बेपेंदी के लोटे की तरह इधर-से-उधर ढुलकते हैं। पहले तो मेरे दुश्मन थे। मगर पीछे ऐसे सरके कि कुछ कहिये मत। चाहे जो हो पर उनके करते हमारी किसान-सभा की धाक खूब ही जमी।
 

 

 

 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.