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सहजानंद समग्र/ खंड-2

 

स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-2

किसान सभा के संस्मरण- IV

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लखनऊ की कांग्रेस के बाद ही सन् 1936 ई. में बिहार प्रान्तीय वर्किंग कमिटी की मीटिंग थी। मैं भी मौजूद था। लखनऊ में कांग्रेस ने जो प्रस्ताव किसानों की हालत की जाँच के लिए पास किया था और प्रान्तीय कमिटियों से जाँच की यह रिपोर्ट माँगी थी कि विभिन्न प्रान्तों में किसानों के लिए किन-किन सुधारों की जरूरत है जिससे उनकी तकलीफें घटें और उन्हें आराम मिले, उसी सम्बन्ध में यह खास मीटिंग हुई थी। उसी मीटिंग में किसान जाँच कमिटी बनानी थी। वह बनाई भी गयी। बहुत देर तक विचार और बहस-मुबाहसा होता रहा। समस्या ठहरी पेचीदा। इसीलिए कमिटी का काम आसान न था। अन्त में तय पाया कि नौ मेम्बरों की कमिटी बने और जाँच का काम फौरन शुरू कर दे। तभी फैजपुर कांग्रेस के पहले ही दिसम्बर आते- आते रिपोर्ट तैयार हो सकेगी।

अब सवाल पैदा हुआ कि मेम्बर हों कौन-कौन से? यह तो जरूरी था कि बिहार के सभी प्रमुख लीडर जो वर्किंग कमिटी में थे उसके मेम्बर बन जाते। हुआ भी ऐसा ही। मगर एक दिक्कत पेश हुई मैं भी वर्किंग कमिटी का सदस्य था। साथ ही, किसानों के सम्बन्ध में मुझसे ज्यादा जानकारी किसी और को थी भी नहीं। जाँच कमिटी में रह के किसानों से ऐसी बातें तो मैं ही पूछ सकता था जिनसे जमींदारों के ऐसे अत्याचारों पर भी प्रकाश पड़ता जो अब तक छिपे थे। कहाँ क्या सवाल किया जाय और कब किया जाय इस बात की जानकारी सबसे ज्यादा मुझी को थी। इतना ही नहीं। रिपोर्ट तैयार करने के समय मैं उसे किसानों के पक्ष में प्रभावित कर सकता था। मेरे न रहने पर तो शेष लोग या तो जमींदारों के ही तरफदार होते, या ज्यादे-से-ज्यादा दो भाषिये हो सकते थे। मगर किसानों को यदि कुछ भी भलाई करनी थी तो कुल नौ मेम्बरों में एक का ऐसा होना अनिवार्य था जो किसानों की बातें ठीक-ठीक जानता और उनकी सभी समस्यायें समझता हो। कोई वजह भी न थी कि मैं जाँच कमिटी में न रहूँ। यह हिम्मत भी किसे हो सकती थी कि मुझे रहने से रोके? आखीर चुनाव में जो अगले साल शुरू में ही होने को था, किसान-सभा की सहायता भी तो कांग्रेस के लिए जरूरी थी। इसीलिए भी मुझे रखना ही पड़ता।

मगर मुझे क्या मालूम कि खुद बा. राजेन्द्र प्रसाद धर्मसंकट में पड़े डूबते-उतराते थे। मैं तो समझता था, और दूसरे भी समझते थे, कि मुझे जाँच कमिटी में रहना ही है। दूसरी बात होई न सकती थी। लेकिन जब राजेन्द्र बाबू ने दबी जबान से कहा कि स्वामी जी के रहने पर जमींदार और सरकार दोनों ही कहेंगे कि जाँच कमिटी की रिपोर्ट तो दरअसल किसान-सभा की रिपोर्ट है, न कि कांग्रेस की। कहने के लिए भले ही उसकी हो, तो मुझे ताज्जुब हुआ कि यह क्या बोल रहे हैं। मगर उनने और भी कह डाला कि हम नहीं चाहते कि किसी को ऐसा कहने का मौका मिले। हम चाहते हैं कि सभी की नजरों में हमारी रिपोर्ट की कीमत और अहमियत हो। अब तो मैं और भी हैरान हुआ और उनसे पूछा कि आप क्या दलील दे रहे हैं? नौ में मैं ही अकेला किसान-सभा का ठहरा। बाकी तो खांटी कांग्रेसी हैं, जमींदार और जमींदारों के दोस्त हैं। फिर यह कैसे होगा कि उनकी कीमत न हो और अकेले मेरे ही करते आपकी रिपोर्ट किसान-सभा की बन जाय? खुद राजेन्द्र बाबू भी उसमें होंगे। तो क्या मेरे सामने उनकी भी कोई कीमत न होगी। क्या किसान-सभा का या मेरा इतना महत्त्व सरकार और जमींदारों की नजरों में बढ़ गया? मैं तो यह सुन के हैरान हूँ।

मेरी इन बातों का उत्तर वे लोग क्या देते? आखिर कोई बात भी तो हो। और अगर किसान-सभा की या मेरी अहमियत इतनी मान लें, तो फिर कांग्रेस को क्या कहें? उसे तो उन्हें सबके ऊपर रखना था। फिर दलीलों का जवाब देते हो क्या? इसीलिए यह कहना शुरू किया कि आपके रहने से रिपोर्ट सर्वसम्मत (unanimous) ने होगी और उसकी कीमत पूरी-पूरी होने के लिए उसका सर्वसम्मत होना जरूरी है। इस पर मैं बोल बैठा कि आपने अभी से यह कैसे मान लिया कि रिपोर्ट ऐसी न होगी और उसमें मेरा मतभेद खामख्वाह होगा? मैं तो बहुत दिनों से वर्किंग कमिटी का मेम्बर हूँ और उसके सामने बहुत से पेचीदा प्रश्न आते ही रहे हैं। किसानों के भी कितने ही सवाल जब न तब आये हैं। मगर आप लोग क्या एक भी ऐसा मौका बता सकते हैं जब मेरा मतभेद रहा हो? या जब मैंने अन्त में अलग राय दी हो? यह दूसरी बात है कि बहस-मुबाहसे होते रहे हैं। तो भी अन्त में फैसला तो हमने एक राय से ही किया है। फिर भी यदि आप लोग अभी से यह माने बैठे हैं कि जाँच कमिटी की रिपोर्ट में मेरा रिपोर्ट खामख्वाह होगा, तो माफ कीजिये, मुझे कुछ दूसरी ही बात दीखती है। मैं हैरत में हूँ कि यह क्या बातें सुन रहा हूँ।

एक बात और है। मान लीजिये कि मेरा मतभेद बाकी मेम्बरों से होगा ही। तो इससे क्या? यह तो बराबर होता ही है। क्या सभी कमिटियों की रिपोर्टें एक राय से ही लिखी जाती हैं? शायद निन्नानबे फीसदी तो कभी एक मत नहीं होती है। मुश्किल से सौ में एक रिपोर्ट ऐसी होती होगी। तो क्या कभी ऐसा भी होता है कि शुरू में ही ऐसे लोग मेम्बर बनाये जायँ जिनके विचार एक से ही हों? उलटे हमने देखा है, हम बराबर देखते हैं कि ऐसी कमिटियों में खासकर अनेक खयाल के लोग ही रखे जाते हैं। बल्कि उनकी रिपोर्टों की ज्यादा कीमत, ज्यादा अहमियत इसी से होती है कि अनेक मत के लोग उनमें थे। फिर भी आप लोग उल्टी ही बात बोल रहे हैं। आखिर आपकी यह जाँच कमिटी कोई निराली चीज तो है नहीं। फिर मैं यह क्या सुनता हूँ कि रिपोर्ट एक मत न होगी?

अब तो किसी के बोलने के लिए और भी गुंजाइश न थी। सभी चुप थे। और लोगों की भावभंगी से और खासकर राजेन्द्र बाबू के चेहरे से मुझे साफ-साफ झलका कि उन लोगों पर कोई भारी आफत आ गयी है। वे नहीं चाहते कि मैं जाँच कमिटी में रहूँ। मगर उसी के साथ उनकी दिक्कत यह है कि मुझे रखने के लिए मजबूर हो रहे हैं, जब तक कि मैं खुद रहने से इनकार न कर दूँ। मैं समझने में लाचार था कि ऐसा क्यों हो रहा है मुझे क्या पता था कि उन लोगों के भीतर पाप भरा था कि न रिपोर्ट तैयार होगी और न छपेगी। सिर्फ चुनाव के पहले जाँच का ढकोसला खड़ा करके वे लोग किसानों को केवल ठगना चाहते थे कि वोट दें। यह भण्डाफोड़ पीछे हुआ जब कि उनने रिपोर्ट का नाम ही लेना बन्द कर दिया। बल्कि जब मैंने पीछे उनकी यह हालत देख के फैजपुर में आल इण्डिया कांग्रेस कमिटी में यह सवाल उठाया तो वे लोग बुरी तरह बिगड़ बैठे। मैंने वहाँ भी उन्हें फटकारा और ऐसा सुनाया कि बोलती ही बन्द थी।

हाँ, तो यह हालत देख के मैंने खुद कहा कि यदि आप लोगों की यही मर्जी है तो लीजिये मैं खुद रहने से इनकार करता हूँ। क्योंकि देखता हूँ कि यदि ऐसा नहीं करता तो जाँच कमिटी ही न बनेगी और पीछे सब लोग मुझी को इसके लिए कसूरवार ठहरा के खुद पाक बनने की कोशिश करेंगे। मगर मैं ऐसा नहीं होने दूँगा। इसीलिए खुद हट जाता हूँ। लेकिन यह कैसे होगा कि आप लोग जोई रिपोर्ट चाहेंगे छाप देंगे और मैं मान लूँगा? मुझे रिपोर्ट की तैयारी के पहले और छपने के पहले भी पूरा मौका तो मिलना ही चाहिए कि बहस करके सम्भव हो तो उसे कुछ दूसरा रूप दिला सकूँ। इस पर सभी एकाएक बोल बैठे कि यह तो होगा ही। जाँच के समय भी आप रह सकते हैं। मगर जाँच का काम पूरा होने और रिपोर्ट लिखने के पहले एक बार कमिटी आपसे सभी बातों पर काफी विचार कर लेगी और आपको पूरा मौका देगी कि उसे प्रभावित करें। फिर जब रिपोर्ट तैयार होगी तो छपने के पहले आपके पास उसकी एक कॉपी जरूर भेजी जायगी और यदि आप चाहेंगे तो कमिटी से फिर बहस करके उसमें रद्द-बदल करवा सकेंगे। इस पर मैंने कह दिया कि धन्यवाद! मैं इतने से ही सन्तोष कर लेता हूँ। तब कहीं जाकर राजेन्द्र बाबू और दूसरों का धर्मसंकट टला।

अब एक दूसरा सवाल पैदा हुआ। जितने मेम्बर चुने गये उनमें पटना और शाहाबाद जिलों के एक भी न थे और किसानों के प्रश्नों के खयाल से ये जिले बहुत ही महत्त्व रखते हैं। सच बात तो यह है कि मैं इस सवाल को न तो उसी समय समझ सका और न अब तक समझ पाया हूँ। यदि सभी जिलों के मेम्बर न होंगे तो उससे क्या? मैं तो अच्छी तरह जानता हूँ कि अपने जिले की किसान समस्याओं की पूरी जानकारी शायद किसी को आज तक भी हो। जानकारी तो उन्हें हो जो उसमें दिलचस्पी रखते हों और उसकी टटोल में बराबर रहते हों। इधर किसी को न तो इसकी परवाह है और न इसके लिए फुर्सत। फिर इस सवाल से क्या मतलब? बिहार के कुल सोलह जिलों को मिलाकर जब सिर्फ नौ मेम्बरों की ही जाँच कमिटी बनी तो यह सवाल उठता ही कैसे कि फलां जिले का कोई नहीं है? हाँ, किसी का नाम कमिटी के मेम्बरों में होने से अखबारों में छपे और वह इस प्रकार नामवरी हासिल करे यह बात जुदा है और अगर इस दृष्टि से पटना शाहाबाद से किसी को देना हो तो हो।

खैर, कुछ देर के बाद किसी ने कहा कि बाबू गंगाशरण सिंह पटने के ही हैं। उन्हें क्यों न दिया जाय? इस पर प्रायः सभी बोल बैठे कि ठीक है, ठीक है। अन्त में तय भी पाया गया कि वह भी एक मेम्बर रहें और वह तथा बाबू कृष्णबल्लभ सहाय-दोनों ही-जाँच कमिटी के मन्त्री हों। मैं चुपचाप बैठा आश्चर्य में डूब रहा था। बाबू गंगाशरण सिंह न सिर्फ बिहार प्रान्तीय किसान कौंसिल के मेम्बर थे, बल्कि बिहार प्रान्तीय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की कौंसिल ऑफ ऐक्सन के भी सदस्य और पक्के सोशलिस्ट माने जाते हैं। मैं तो जाँच कमिटी में इसलिए खतरनाक माना गया कि किसान-सभावादी हूँ। मगर सोशलिस्ट लोग तो ठेठ क्रान्ति तक पहुँच जाने वाले माने जाते हैं। वह तो क्रान्ति से नीचे की बात करते ही नहीं। फिर भी गंगा बाबू, बाबू राजेन्द्र प्रसाद और उनके साथियों को न सिर्फ कबूल थे, बल्कि उन लोगों ने खुद उनका नाम पेश किया। यह एक निराली बात थी कि सोशलिस्ट तो कबूल हो, मगर मेरे जैसा आदमी, जो सोशलिस्ट बनने का दावा कभी नहीं करता, कबूल न हो। यह मेरा आश्चर्य आज तक बराबर बना है। इतना ही नहीं जब मैंने सोशलिस्ट नेता जयप्रकाश बाबू से यह चर्चा की तो उनने खुद कहा कि गंगा बाबू तो सोशलिस्ट भी हैं, तब कैसे कबूल हो गये? इसीलिए यह सवाल आज भी ज्यों का त्यों बना है और कौन कहे कि कब तक बना रहेगा?

(शीर्ष पर वापस)

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हजारीबाग जेल में इस बार हमें जो घटनाएँ मिलीं वह भी काफी मजेदार हैं। हमें कुछ ऐसे गांधीवादी यहाँ मिले जो हिटलर की जीत से केवल इसलिए खुश होते थे कि वह हिन्दुस्तान पर चला आयेगा और इस प्रकार किसान-सभा और मजदूर-सभा का गला घोंट देगा। सोवियत रूस पर होने वाले उसके आक्रमण से तो वे लोग और भी ज्यादा खुश थे। वह यहाँ तक बढ़ गये थे कि सोवियत की हार अब हुई, तब हुई ऐसा कहने लगे थे। भारत में हिटलर के पदार्पण से उनकी क्या हालत होगी यह बात भी शायद वह सोचते हों, मगर क्या सोचते थे यह हमने न जाना। किसान आन्दोलन खत्म हो जायगा उन्हें इसी की खुशी थी। यदि वे खुद भी उसी के साथ खत्म हो जायँ तो भी उन्हें परवाह न थी। फिक्र उन्हें अगर कोई दिखी तो यही कि किसान-सभा कैसे मिटेगी। बेशक उनमें कुछ लोग तो ऐसे भी थे जो स्वराज्य लेना नहीं चाहते थे, किन्तु उन्हें चिन्ता थी उसके बचाने की। उनके जानते उनका अपना स्वराज्य तो हई। जमींदारी बड़ी है और रुपये-पैसे भी काफी जमा हैं। ठाट-बाट और शान-बान भी पूरी है। किसानों पर रोब भी खूब डाँटते हैं। फिर और स्वराज्य कहते हैं किसे? उनने तो स्वराज्य का यही मतलब समझा है। उन्हें भय है कि उनका यह स्वराज्य कहीं किसान और पीड़ित लोग छीन न लें, इसीलिए कांग्रेस और गांधी जी की दुम पकड़ के वे इस बला से पार होने के लिए यहाँ पधारे थे। क्योंकि उन्हें विश्वास है कि यहाँ आ जाने पर उनके स्वराज्य की रक्षा गांधी जी और कांग्रेस-दोनों ही-ठीक वैसे ही करेंगे जैसे हिन्दुओं की गाय की दुम उन्हें वैतरणी में डूबने से बचाती है।

मगर उनमें जो जमींदार या मालदार न थे उनकी इस मनोवृत्ति पर हमें तरस आया और हँसी भी आयी। हिटलर के पदार्पण से उन्हें अपना स्वराज्य कैसे मिलेगा यह समझ में न आया। शायद उन्हें अपने स्वराज्य की परवाह कतई थी नहीं। कदाचित् जेल आये थे वे इसीलिए कि उनकी लीडरी खतरे में थी-छिन जाती। अगर उसे उनने बचा लिया तो यही क्या कम है? उसी से कमा-खायेंगे। आज लीडरी भी एक पेशा जो बन गयी है। मगर, अगर हिटलर के आ जाने से वह लीडरी भी छिन जाय, तो छिन जाय बला से। उसी के साथ किसान-सभा भी तो खत्म होगी। बस, इतने से ही उन्हें सन्तोष था। इसे ही कहते हैं ‘‘आप गये अरु घालहिं आनहि’’ या ‘‘दुश्मन की दोनों आँखें फोड़ने के लिए अपनी एक फोड़ लेना!’’ हमें तो साफ ही मालूम हुआ कि कांग्रेस एक अजायबघर या चिड़ियाखाना (Museum or zoo) है जिसमें रंग-बिरंगे जीव पाये जाते हैं! गुलाम भारत की विकट परिस्थिति के चलते ही उसकी स्थिति है। क्योंकि राष्ट्रीय संस्था के अलावे और कोई भी संस्था अंग्रेजों का मुँहतोड़ दे नहीं सकती, उनसे सफलतापूर्वक लोहा ले नहीं सकती। इसीलिए कांग्रेस को हर हालत में मजबूत बनाना हर विचारशील माननीय का फर्ज हो जाता है। अंग्रेजी सरकार की मनोवृत्ति और सलूक उसे लड़ने को विवश भी करते हैं। यही है परिस्थितिवश कांग्रेस की विलक्षणता और मान्यता। मगर उसमें रंग-बिरंगे जीव तो हई।

हजारीबाग जेल में रोजाना दस आना मिलता है खुराक के लिए। कपड़े-लत्ते, टूथ-ब्रश, पाउडर, साबुन वग़ैरह अलग ही मिलते हैं। इतने पर भी एक ‘टुटपुँजिये’ जमींदार महोदय को तमक के कहते पाया कि ‘‘कष्ट भोगने के लिए तो हम जमींदार लोग हैं और स्वराज्य लेने या जमींदारी मिटाने की बात किसान करते हैं। देखिये न, यह कितनी अन्धेर है!’’ क्या खूब! वे हजरत इतने कष्ट में थे कि कुछ कहिये मत। दस आने हजम करने में क्या कम कष्ट है? और ये पाउडर, ब्रश आदि? इनका प्रयोग तो उन्हें बाहर शायद ही कभी मुअस्सर हुआ हो। इसीलिए इससे भी उन्हें काफी कष्ट था। प्रतिदिन दस आना खामख्वाह हजम करना यह तो आफ़त ही थी। यदि कभी कम-बेश होता तो एक बात थी। मगर रोज ही पूरे दस आने! यही तो गजब था! पता नहीं, छूटने के दिन वे 30-40 पौण्ड वजन में बढ़े हुए गये या कि कुछ कम! उनके बारे में हमें केवल इतना ही कहना है कि किसानों ने उन्हें कभी नहीं कहा था कि जेल के ये कष्ट वे भोगें। वे तो खुद आये थे। फिर किसान उनके साथ क्यों रिआयत करेंगे, यही समझ में न आया। दरअसल बात तो कुछ दूसरी ही थी। वह तो पहले समझते थे कि स्वराज्य होगा किसानों और जमींदारों के साझे का, और बँटवारे के समय हम किसानों को ग्वाले के छोटे भाई की तरह ठग लेंगे। मगर किसान-सभा ने इस बात का पर्दाफ़ाश कर दिया और कह दिया है कि साझे का स्वराज्य होई नहीं सकता। बस, इसी से उन्हें क्रोध था।

कहते हैं कि किसी गाँव में दो भाई ग्वाले साथ ही रहते और कमाते-खाते थे। बड़ा भाई था काफी चालाक। कमाता वह था नहीं। कमाते-कमाते मरता था छोटा भाई ही। मगर खान-पान में बड़ा आगे ही रहता था। फिर भी छोटे को परवाह न थी। मगर यह बात आखिर चलती कब तक? अन्ततोगत्वा एक दिन छोटे को भी गुस्सा आया और उसने कहा कि हमें जुदा कर दो, साथ न रहेंगे। बड़े ने पहले तो काफी कोशिश की कि यह बात न हो। मगर छोटे को जिद्द थी। इसलिए लाचार सभी चीजों का बँटवारा करना ही पड़ा। और चीजों में तो कोई दिक्कत न थी। मगर दस-पन्द्रह सेर दूध देने वाली ताजी ब्याई एक भैंस थी। उसका बँटवारा कैसे हो, यह बात उठी। लोटा-थाली हो तो एक-एक बाँट लें। अन्न और पैसे आदि में भी यही बात थी। मगर भैंस तो एक ही थी। दो होतीं तो और बात थी। अब क्या हो? दोनों को कुछ सूझता न था। अक्ल के पूरे तो थे ही बड़े हजरत। उनने रास्ता सुझाया। भैंस का आधा भाग तुम्हारा और आधा हमारा रहे, जैसे घर में आधा-आधा दोनों ने लिया है। छोटे ने मान लिया। अब सवाल उठा कि भैंस का कौन हिस्सा किसे मिले?

यहाँ पर बड़े भाई ने चालाकी की और छोटे से कहा कि देखो भाई, तुम्हें मैं बहुत मानता हूँ। इसीलिए चाहता हूँ कि यहाँ भी तुम्हें अच्छा ही हिस्सा दूँ। यह तो जानते ही हो कि भैंस का मुँह कितना सुन्दर है, किस प्रकार पगुरी करती है। उसकी सींगें कितनी चमकीली और मुड़ी हुई हैं, कान, आँख वग़ैरह भी देखते ही बनते हैं। विपरीत इसके चूतड़ का हिस्सा कितना गन्दा है। उस पर बराबर गोबर-मूत लगा रहता है जिसे रोज धोना पड़ता है। भैंस बार-बार गोबर-मूत निकालती ही रहती है। अगर एक दिन उसे उठा के न फेंकें तो रहने ही जगह नर्क ही हो जाय! लेकिन तुम्हारे करते मैं लाचार हो के उसका पिछला हिस्सा ही लूँगा और गोबर-मूत फेंकूँगा। तुम्हें अगला भाग देता हूँ। बस, बँटवारा हो गया। खुश हो न? छोटे ने हामी भर दी।

अब तो ऐसा हुआ कि छोटा भाई रोज भैंस को खूब खिलाता-पिलाता और बड़ा धीरे से दोनों समय उसका दूध निकालता और मजा करता। यह बात कुछ दिन चलती रही। छोटे को इस बीच दही, दूध कुछ भी देखने तक को न मिला। कभी-कभी वह घबराता था जरूर। मगर सीधा तो था ही। अतः सन्तोष कर लेता कि क्या किया जाय? बँटवारा जो हो गया है। बस, फिर काम में लग जाता था। इस प्रकार मिहनत करते-करते मरता था वह और मजा मारता था बड़ा। कितना सुन्दर न्याय था! कैसा सुन्दर प्रेम बड़े ने छोटे भाई के प्रति दिखाया! उसके सीधेपन से उसने कैसा बेजा नफा उठाया! मगर यह अन्धेर टिक न सकी। टिकती भी क्यों?

एक दिन छोटे भाई का परिचित कोई सयाना आदमी उसके घर आया। छोटे ने उसका आदर-सत्कार किया। भोजन भी अच्छा खिलाया। मगर दही-दूध नदारद! आगन्तुक को ताज्जुब हुआ कि हाल की ब्याई सुन्दर भैंस दरवाजे पर बँधी है। दूध भी काफी देती होगी। यह शख्स मेरा सच्चा दोस्त भी है। फिर भी मुझे इसने न दूध दिया और न दही! मैंने गौर करके देखा तो इसके घर में ये चीजें नजर भी न आईं। यह क्या बात है? उसने छोटे से यही सवाल किया भी। उसने उत्तर दिया कि सो तो सही है। भैंस तो है। मगर बँटवारे में मेरे पल्ले उसका अगला हिस्सा जो पड़ा है पिछला तो भैया का है। फिर मैं दूध पाता तो कैसे? हाँ, सींग वग़ैरह की सुन्दरता से सन्तोष करता हूँ। गोबर-मूत से भी बचता हूँ। यही क्या कम है? भैया ने बड़ी कृपा करके मुझे अगला भाग ही दिया है। भाई हो तो ऐसा हो। इतने से ही आगन्तुक ने समझ लिया कि इसमें चाल क्या है।

उसने छोटे भाई से कहा कि तो फिर बड़ा भाई भी दूध क्यों निकाल लेता है? यदि तुम अगले हिस्से को खिलाते-पिलाते हो तो वह भी पिछले हिस्से का गोबर-मूत फेंके। यह क्या बात है कि तुम तो कमाते-कमाते और खिलाते-खिलाते मरो और वह मजा चखे? जब एक काम तुम करते हो तो वह भी एक ही करे। भैंस के दुह लेने का दूसरा काम वह क्यों करता है? उसे जा के रोकते क्यों नहीं हो? आखिर दोनों को पूरा-पूरा काम करना होगा। क्योंकि हिस्सा तो बराबर ही है न! उसका यह कहना था कि उस सीधे भाई के समझ में बात आ गयी। आगन्तुक ने इसके पहले जो दूध के बँटवारे आदि की बातें कही थीं वह उसके दिमाग में नहीं धँसी और नहीं धँसी। हालाँकि बातें थीं सही। हमने देखा है कि किसान ही जोत-बो के फसल पैदा करते हैं। मगर जब तक जमींदार हुक्म न दे एक दाना भी नहीं छूते और पशुओं को तथा बाल-बच्चों को भी भूखों मारते हैं। यदि उनसे कहिये कि ऐसा क्यों करते हो? खाते-पीते क्यों नहीं हो? तो बोल बैठते हैं कि राम-राम, ऐसा कैसे होगा? ऐसा करने से पाप होगा। जमींदार का उसमें हिस्सा जो है। चाहे हजार माथापच्ची कीजिये कि जमींदार तो कुछ करता-धरता नहीं। जमीन भी उसकी बनायी न होके भगवान या प्रकृति की है। इस पर न जाने कितने मालिक बने और गये। जोई बली होता है वही जमीन पर दखल करता है-‘वीर भोग्या वसुन्धरा।’ मगर उनके दिमाग में एक भी बात घुसती नहीं और यह धर्म, पाप और हिस्से का भूत उन्हें सताता ही रहता है। यही हालत छोटे भाई की भी थी। और जैसे सीधी बात उसके दिल में धँस गयी उसी तरह सीधी बात किसानों को भी जँच जाती है।

फिर तो वह दौड़ा-दौड़ाया बड़े भाई के पास फौरन गया और ऐन भैंस दुहने के समय उससे कहने लगा कि आप यह ज्यादा काम करते हैं। एक काम मेरा है भैंस के खिलाने का। एक ही आपका होना चाहिए उसके गोबर-मूत को साफ करने का। फिर यह दूसरा काम आप क्यों कर रहे हैं? पहले मैं यह समझ न सका था। अभी-अभी यह बात मैंने जानी है। इसीलिए आपको यह काम करने न दूँगा। नहीं तो मुझे एक काम इसके बदले में दीजिये।

इस पर बड़ा भाई घबराया सही। लेकिन सोच के बोला कि पिछला आधा भाग मेरा है और अगला आधा तुम्हारा। अपने-अपने भाग में जिसे जो करना है करे। इसमें रोक-टोक का क्या सवाल? काम का बँटवारा तो नहीं है। यहाँ तो भैंस का बँटवारा है और उसके दो हिस्से किये हैं। यदि तुम ख़ामख्वाह काम ही चाहते हो तो भैंस के मुँह और आँखों पर तेल-वेल लगाया करो और सींगों पर भी। या जब मैं इसे दुहता हूँ तो इसके मुँह पर से मक्खियाँ और मच्छर वगैरह हाँका करो। बस, और ज्यादा चाहिए क्या?

इस पर छोटा भाई निरुत्तर हो के चला गया और आगन्तुक से सारी बात उसने कह सुनाई। इस पर आगन्तुक ने कहा कि घबराओ मत। अभी काम हुआ जाता है। अगले हिस्से के लिए जो काम उसने बताया है वह तो उसी के फायदे का है। इससे तो दूध निकालने में उसे और भी आसानी होगी। लेकिन जब उसने भैंस को दुहने का काम शुरू किया था तो तुमसे पूछा तो था नहीं कि यह काम करूँ या न करूँ। पिछला भाग उसी का होने के कारण उसने उस पर जो काम चाहा किया। दुहने से उसे फायदा होता है। इसलिए वही काम करता है। ठीक उसी प्रकार तुम भी अपने फायदे का काम आगे के भाग में करो। उससे पूछने की क्या बात?

इस पर छोटे ने पूछा कि अच्छा आप ही बताइये कि किस काम के करने से मेरा फायदा होगा? उसने उत्तर दिया कि ज्योंही वह हजरत दूहने बैठें त्यों ही भैंस के मुँह पर धड़ाधड़ लाठियाँ लगाने लगो। इससे भैंस भड़क के भाग जायगी और वे हजरत दूध निकाल न सकेंगे। यह बात छोटे को पसन्द आयी और उसने फौरन ‘अच्छा’ कह दिया। इसके बाद भैंस दुहने के समय घर लाठी लिये तैयार बैठा रहा और ज्यों ही बड़े भैया दुहने की तैयारी करने लगे कि उसने दौड़ के उसके मुँह पर तड़ातड़ लाठियाँ बरसानी शुरू कीं। बड़े साहब हैरत में थे और जब तक ‘‘हैं, हैं’’ करके उसे रोकने की कोशिश करें तब तक भैंस जाने कहाँ भाग गयी। बड़े भैया को इसके रहस्य का पता न लगा। उनने छोटे से पूछा तो उत्तर मिला कि मुँह तो मेरे हिस्से का है न? फिर उस पर मैंने जो चाहा किया, जैसा आपने अपने हिस्से पर मन चाहा अब तक किया है। फिर ‘हैं हैं’ करने या बिगड़ने का क्या सवाल? बड़े भाई ने समझा कि यह सनक तो नहीं गया है। उसने छोटे को समझा-बुझा के तथा हिंसा करने और भैंस को कष्ट देने को अनुचित बता के उसे ठण्डा किया। उसने समझा कि अब आगे ऐसा न करेगा। मगर दूसरे समय ज्यों ही दुहना शुरू हुआ कि उसने फिर वही लाठीकाण्ड शुरू किया। पूछने पर जवाब भी वही दिया।

अब तो बड़े भैया की पिलही चमकी। उनने सोचा कि हो न हो दाल में काला अवश्य है। इसे कोई गहरा गुरु मिल गया है। नहीं तो यह तो भोला-भाला आदमी है। खुद ऐसा कभी नहीं करता। और जब उसने अच्छी तरह पता लगाया तो मालूम हो गया कि छोटे भाई का कोई काइयाँ दोस्त आया है जिसने उसे यह बात सुझा दी है। अब वह बिना आधा दूध लिये नहीं मानने का। अब मेरी दाल हर्गिज न गलेगी। इसीलिए हार कर उसने छोटे भाई से कहा कि क्यों तूफान करते हो? भैंस भी खराब हो रही है और दूध भी किसी को मिल नहीं रहा है-न तुम्हें और न मुझे। जाओ आज से जितना दूध होगा उसका आधा तुम्हें जरूर बाँट दिया करूँगा। तुमने मुझसे यही बात पहले ही क्यों न कह दी कि आधा दूध चाहते हो? मैं उसी समय तुम्हारी बात मान लेता।

इस पर छोटा भाई खुशी-खुशी अपने मित्र के पास गया और उससे उसने कह सुनाया कि आपका बताया उपाय सही निकला। अब हमें रोज आधा दूध दुहने के बाद ही मिल जाया करेगा। आपका उपाय तो बहुत ही सुन्दर और आसान निकला। यह सुन के मित्र को भी खुशी हुई कि उस बेचारे का लुटा-लुटाया हक मिल गया।

किसान-सभा ने भी ठीक इसी तरह आसान उपाय किसानों को बता दिया है जिससे अपनी कमाई को पा सकें और अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकें। जमींदार इसीलिए सभा से घबराते हैं और उसे कोसा करते हैं। वह तो साझे वाली भैंस की तरह साझे का स्वराज्य चाहते थे, जिसमें पीछे चल के किसानों को वैसे ही ठग सकें जैसे छोटे भाई को बड़े ने मीठी-मीठी बातों से ठग लिया था। किसान-सभा ने इसी ठगी से किसानों को पहले ही से आगाह कर दिया है। उसने कह दिया है साफ-साफ, कि साझे का स्वराज्य धोखे की चीज होगी। खबरदार, किसान और जमींदार का स्वराज्य साझे का या एक नहीं हो सकता है। वह तो जुदा जुदा होगा। जो किसान का होगा वह जमींदार का नहीं और जो जमींदार का होगा उससे किसान कत्ल हो जायेंगे, जैसा कि भैंस के बारे में साफ देखा गया है।

जमींदारों और उनके दोस्तों को इस बात का मलाल है कि किसान अब चेत गये हैं। वे यह बात मानने को तैयार नहीं कि जमींदारों और उनके दोस्तों की मदद से किसानों को स्वराज्य मिलेगा। वह तो मानते हैं कि अपने ही त्याग और परिश्रम से किसान-राज्य कायम होगा। यही कारण है कि जेल में पड़े-पड़े वह टुटपुँजिये जमींदार साहब उन पर कुढ़ते थे।

(शीर्ष पर वापस)

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जेल में हमें और भी कई मजेदार बातें देखने को मिलीं। किसान-सभा वादियों को तो यह पक्की धारणा है कि किसानों की आर्थिक लड़ाई के जरिये ही उनके हक उन्हें दिलाये जा सकते हैं। उनका स्वराज्य भी इसी तरह आयेगा। वह यह भी मानते हैं कि किसानों के बीच जहाँ धर्म-वर्म का नाम लिया कि सारा गुड़ गोबर हो गया। धर्म के मामले में जिसे जो करना होगा करेगा, या नहीं करेगा। यह तो हरेक आदमी की व्यक्तिगत बात है कि धर्म माने या न माने और माने तो कौन सा धर्म और किस प्रकार माने। मन्दिर, मस्जिद या गिर्जे में जायगा या कि न जायगा यह फैसला हरेक आदमी को अपने लिए खुद करना होगा। किसान-सभा इस मामले में हर्गिज न पड़ेगी। वह इससे कोसों दूर रहेगी। नहीं तो सारा गुड़ गोबर हो जायगा। हम किसानों और मजदूरों या दूसरे शोषितों की लड़ाई में पण्डित, मौलवी और पादरी की गुंजाइश रहने देना नहीं चाहते। हमें ऐसा मौका देना ही नहीं है जिसमें वे लोग किसानों की बातों में ‘दाल-भात में मूसरचन्द’ बनें। नहीं तो बना-बनाया काम बिगड़ जायेगा। क्योंकि धर्म की बात आते ही किसान-सभा वालों को बोलने का हक रही न जायगा। और पण्डित, मौलवी आ टपकेंगे। धर्म उन्हीं के अधिकार की चीज जो है। वहाँ दूसरों की सुनेगा भी कौन?

इस बात का करारा अनुभव हमें इस बार जेल में हुआ। जो लोग गांधी जी के नाम पर ही जेल आये थे और अपने आपको पक्के गांधीवादी मानते थे उन्हीं की हरकतों ने हमें साफ सुझा दिया कि आजादी के मामले में लड़ाई लड़ने वाले लोगों के सामने हर बात को धर्म के रूप में बार-बार लाके गांधी जी मुल्क का कितना बड़ा अहित कर रहे हैं। राजनीति में धर्म का चाहे किसी भी ऊँचे से ऊँचे और आदर्श रूप में भी मिला देने से कितना अनर्थ हो सकता है यह हमने साफ देखा। राजनीति या रोटी के प्रश्न का कोरी दुनियावी चीज मानना कितनी अच्छी चीज है यह हम बखूबी देख पाये।

चम्पारण जिले के मेहसी थाने के एक मुसलमान सज्जन सत्याग्रही के रूप में ही जेल पधारे थे। नीचे से ऊपर तक खादीमय दिखे। सीधे-सादे आदमी थे देखने से मालूम होता था कोई पक्का देहाती है। धोती और कुर्ते के साथ गांधी टोपी बराबर ही नजर आती थी। हमने पाँच-छः महीने के दरम्यान उनका सर गांधी टोपी से सूना कभी न देखा। एक बार तो यहाँ तक सुना कि उनने जेल के कपड़े लेने से इनकार कर दिया। सिर्फ इसलिए कि वे खादी के न थे। हालाँकि गांधी जी का हुक्म है कि जेल में खादी का आग्रह न करके जो कपड़े मिलें उन्हीं को कबूल करना होगा। जब चम्पारन के प्रमुख गांधीवादी नेता ने उन्हें यह बात समझाई तो उनने उत्तर दिया कि आप और गांधी जी समर्थ हैं। इसलिए चाहे जो कपड़े पहनें मगर मैं तो ना चीज हूँ। फिर मुझसे कैसी ऐसी उम्मीद करते हैं? पीछे उनने जेल के कपड़े मजबूरन लिए सही। मगर वे कितने पक्के गांधी भक्त हैं इसका पूरा सबूत इससे मिल जाता है। नमाजी तो वे पक्के हैं यह सबने देखा है। गांधी जी तो धर्म पर जोर देते ही हैं। फिर वे ऐसे होते क्यों नहीं? मगर धर्म की बात कैसी अन्धी है इसका भी प्रमाण इसी से मिल जाता है कि जब उनने धर्म बुद्धि से एक बार खादी पहन ली, तो फिर गांधी जी की हजार दुहाई देने पर भी वे दूसरा कपड़ा लेने को तब तक राजी न हुए जब तक मजबूर न हो गये। राजनीति में धर्म को घुसेड़ने वाले गांधी जी को भी इससे सीखना चाहिए कि वह उनकी बात भी मानने को तैयार न थे। उनने एक ऐसा अस्त्रा धर्म के नाम पर अपने अनुयायियों को दे दिया है कि खुद उनकी बातें भी वे लोग नहीं मानते और दलील देते हैं धर्म की ही। यह दुधारी तलवार दोनों ओर चलती है यह गांधी जी याद रखें। उन हजरत की तो मोटी दलील यही थी कि जब एक बार खादी को पहनना धर्म हो गया तो फिर उसका त्याग कैसे उचित होगा। गांधी जी को यह भी न भूलना चाहिए कि आम लोग ऐसे ही होते हैं गांधी जी की बुद्धि सब को तो होती नहीं कि धर्म की पेचीदगियाँ समझ सकें। इसलिए यह बड़ी खतरनाक चीज है, खासकर दुनियावी और राजनीतिक मामलों में।

अच्छा आगे चलिये। वे हजरत ज्यों ही हजारीबाग जेल में आये उसके एकी दो दिनों बाद एक मुसलमान सज्जन ने उनके बारे में मुझसे आ के कहा कि एक मुसलमान आये हैं। उनने गोदाम में मुझे देखते ही आतुर भाव से कहा है कि भई, मुझे भी मुसलमान के हाथ का पकाया खाना खिलाओ। इतने दिनों तक तो मैं फल-फूल खाते-खाते घबरा गया हूँ। सभी लोग तो हिन्दू ही मिले। फिर उनके हाथ की पकाई चीजें खाता तो कैसे खाता? तुम मुसलमान हो और अपना खाना अलग पकवाते हो। इसलिए मुझे भी उसी में शामिल कर लो तो मैं बहुत ही उपकार मानूँगा, आदि आदि। जिस मुसलमान ने मुझसे ये बातें कहीं वह भी उनकी बातें सुन के हैरत में था। हैरत की बात भी थी। यह बात आमतौर से यहाँ देखी गयी है कि कुछेक को छोड़ सभी हिन्दुओं को मुसलमानों के हाथों पकी चीजें खाने में कोई उज्र नजर नहीं हुआ। कइयों ने तो खामख्वाह मुसलमान पकाने वाले रखे हैं। इसलिए उनकी बातों से चौंकने का पूरा मौका था। मगर मैं सुन के हँसा और फौरन समझ गया कि हो न हो यह धर्म महाराज की महिमा है। खैर, वह मुसलिम सज्जन उस मुसलमान के चौके में ही कई साथियों के साथ बहुत दिनों तक खाते रहे यह मैंने अपनी आँखों देखा।

अब एक दूसरी ऐसी ही घटना सुनिये। बड़ी असेम्बली के एक हिन्दू जमींदार मेम्बर भी इसी जेल में थे। पहले तो मुझे कुछ पता न चला। मगर पीछे कई बातों के सिलसिले में पता चला कि यदि मुसलमान उनकी खाने-पीने की चीजों के पास चला जाय या छू दे तो वह उन्हें खाते नहीं थे। वे अपना खाना एक आदमी के साथ अलग ही पकवाते थे। कहने के लिए कट्टर गांधीवादी। गांधी जी के विरुद्ध एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं। किसान-सभा या समाजवाद के भी ऐसे दुश्मन कि कुछ कहिये मत। मगर धर्म के भक्त ऐसे कि मुसलमान के स्पर्श से हिचक! मुसलमान की छाया से उनका खाना अपवित्र हो गया। मेरे लिए यह समझना गैरमुमकिन था। मैं भी खुद बना के खाता हूँ और छुआ-छूत से परहेज करता हूँ खाने-पीने में। मगर इसका यह अर्थ नहीं कि किसी मुसलमान, ईसाई या अस्पृश्य कहे जाने वाले के स्पर्श से खाद्य पदार्थों को अखाद्य मान लेता हूँ। मेरी छुआछूत का धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है। यदि कभी कोई मुसलिम या अछूत मेरी रोटी, मेरा भात छू दे तो भी मैं उसे खा लूँगा। मगर सदा ऐसा नहीं करता। वह इसलिए कि आमतौर से लोगों की भीतरी और बाहरी शुद्धि के बारे में कहाँ ज्ञान रहता कि कौन कैसा है? किसने घृणिततम काम किया है या नहीं कौन कैसी संक्रामक बीमारी में फँसा है या नहीं यह जाना नहीं जा सकता। इसलिए साधारणतः मैं किसी का छुआ हुआ नहीं खाता हूँ, जिसे बखूबी नहीं जानता। यही मेरी छुआछूत का रहस्य है।

मगर उन गांधीवादी महोदय को मैं खूब जानता हूँ। वह इस तरह की छुआछूत नहीं मानते हैं। उनके लिए ऐसा मानना असम्भव भी है। उनकी छुआछूत तो वैसी ही है जैसी आम हिन्दुओं की। जब एक मुसलिम सज्जन ने मौलवी ने जो मेरी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं उन्हें पकड़ा तो वे हजरत मेरा दृष्टान्त दे के ही पार हो जाना चाहते थे। मगर मौलवी ने उनकी एक न चलने दी और आखिर निरुत्तर कर दिया।

एक तीसरी घटना भी सुनने योग्य ही है। जेल में कुछ प्रमुख लोग श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को धार्मिक ढंग से मनाने की तैयारी कर रहे थे। उसमें शामिल तो सभी थे एक मुझको छोड़ के। क्योंकि मैं कृष्ण को धर्म की कट्टरता से कहीं परे और बाहर मानता हँ। मेरे जानते वह एक बड़े भारी जन-सुधारक और नायक थे। उन्हें या उनकी गीता को धार्मिक जामा पहनाना उनकी महत्ता को कम करना है। वह और उनकी गीता सार्वभौम पदार्थ हैं। इसीलिए मैं उन्हें धार्मिक रूप देने में साथी बनना नहीं चाहता। इसी से उस उत्सव से अलग रहा। कोई दूसरा कारण न था। मगर और लोग तो शरीक थे ही।

जिन मौलवी साहब का जिक्र अभी किया है उन्हीं को दो-एक प्रमुख लोगों ने उस उत्सव में निमन्त्रित किया कि कृष्ण के बारे में उनका कुछ प्रवचन हो। मौलवी साहब ने कबूल भी कर लिया। कुछी दिन पहले जब हजरत मुहम्मद साहब का जन्मोत्सव मुसलमानों ने मनाया था तो उनने सभी हिन्दुओं को बुलाया था। कइयों ने उनके जीवन पर कुछ प्रवचन किया भी था। इसलिए इस बार मौलवी साहब का बुलाया जाना और उनका कबूल करना इस खयाल से भी मुनासिब ही था। लोग कहते हैं कि दोनों के धार्मिक उत्सवों में अगर दोनों ही योग दें या दिल से शरीक हों तो धार्मिक झगड़े खुद मिट जायँ। बात चाहे कुछ भी हो। लेकिन कांग्रेसी लोग ऐसा जरूर मानते हैं। इसीलिए तो जन्माष्टमी में मौलवी साहब का शामिल होना गौरव की बात थी, खुशी की चीज थी।

मगर इस बात में कई सत्याग्रही हिन्दू सख्त विरोधी हो गये। उनमें एकाध तो निहायत सीधे और अनजान थे। मगर दो-एक तो ऐसे थे कि दिन-रात गांधी जी की ही दुहाई देते रहते हैं। सबसे मजे की बात यह थी कि जिन जमींदार गांधीवादी की बात खाने-पीने के बारे में अभी कह चुके हैं वह इस बात के सख्त विरोधी थे कि मौलवी साहब उसमें शामिल हों या कुछ भी बोलें। कृष्ण के बारे में मौलवी साहब को बोलने देना वे हर्गिज नहीं चाहते थे और इस बात पर उनने घुमा-फिरा के चालाकी से बहुत जोर दिया। साफ तो बोलते न थे कि धर्म की बात है। क्योंकि इसमें बदनाम जो हो जाते। इसलिए घुमा-फिरा के बराबर कहते फिरते थे। उन्हें बड़ी तकलीफ हुई। जब उन्हें पता लगा कि मौलवी गये और बोले भी। उनने पीछे उलाहने के तौर पर कहा कि आखिर आप गये और बोले भी? माना नहीं? एकाध को तो यहाँ तक साफ ही कहते सुना कि धर्म ही चौपट हो गया।

मगर ये सभी घटनाएँ वाजिब हुईं, इस मानी में कि जब धर्म की ही छाप हमारे सारे राजनीतिक और आर्थिक कामों पर लगी हुई हैं तो दूसरी बात होई कैसे सकती है? गांधी जी चाहे धर्म की हजार व्याख्या करें और उसे बिलकुल ही नया जामा पहना डालें जो राजनीति में आ के भी उसे आदर्श बनाये रखे, उसे विकृत होने न दे, जैसा कि ऊपर की घटनाओं से स्पष्ट होता है। फिर भी जन-साधारण के दिल में हजारों वर्षों से धर्म के सम्बन्ध में जो धारणा है वह बदल नहीं सकती। उसका बदलना करीब-करीब गैर-मुमकिन है। धर्म के नाम पर होने वाली खराबियों और बुराइयों को दूर करने के लिए कितने ही धर्म-सुधारक आये और चले गये। मगर वे ज्यों की त्यों पड़ी हैं। नहीं, नहीं, वह तो और भी बढ़ती गयी हैं। सुधारकों ने सुधार के बदले एक और भी नया सम्प्रदाय पैदा कर दिया जो गुत्थियों को और ज्यादा उलझाने का ही काम करने लगा। गांधी जी के नाम पर तो एक ऐसा ही सम्प्रदाय पैदा हो चुका है जो दूसरों की बातें सुनने तक को रवादार नहीं। असल में धर्म की तो खासियत ही है अन्धपरम्परा पैदा करना और उसे प्रश्रय देना। तर्क दलील की गुंजाइश वहाँ हई नहीं। और अगर कोई यह बात न माने तो उसे मान लेना होगा कि जहाँ तर्क दलील और अक्ल की गुंजाइश हो वह यदि धर्म हो भी तो किसी खास व्यक्ति या कुछ चुने लोगों के ही लिए हो सकता है। ज्यों ही उसे आपने सार्वजनिक रूप देने की कोशिश की कि अक्ल के लिए मनाही का सख्त ऑर्डर जारी हुआ और अन्धपरम्परा आ घुसी। धर्मों और धार्मिक आन्दोलनों के इतिहास से यह बात साफ-साफ जाहिर है। गांधी जी इस बात को न मान कर और राजनीति पर धर्म की छाप लगाकर यह बड़ी भारी भूल कर रहे हैं, जिसका नतीजा आने वाली पीढ़ियों को सूद के साथ भुगतना ही होगा।

इस तरह हम देखते हैं कि ज्यों ही किसी बात में धर्म का नाम आया कि धर्म के नाम पर ही गुजर करने वाले और उसके सर्व जन-सम्मत ठेकेदार पण्डित और मौलवी आ घुसे। उस बात में टाँग अड़ाने का मौका तो उन्हें तभी तक नहीं मिलता जब तक वे बातें शुद्ध राजनीतिक या आर्थिक हैं और उन पर धर्म मजहब की मुहर नहीं लगी है। तब तक ये लोग मजबूरन दूर रहते हैं और ताक में रहते हैं कि हमारे घुसने का मौका कब आयेगा। इसलिए धर्म का नाम लेते ही कूद पड़ते हैं। उन्हें इस बात से क्या गर्ज कि आपने धर्म का नाम किस मानी में लिया है? उनके लिए धर्म का ज़िक्र ही काफी है। उसका अर्थ तो वे खुद लगाते हैं और उनका यह भी दावा है कि उनके सिवाय दूसरा न तो धर्म का मतलब समझ सकता है और न समझने का हक ही रखता है। खूबी तो यह कि उनके इस दावे का समर्थन, इसकी ताईद, जन-साधारण भी करते हैं, इसीलिए उन्हीं की बात मानी जाती है और दूसरों की हवा में मिल जाती है चाहे वे कितने ही बड़े महात्मा और पैगम्बर क्यों न कहे जायँ।

और जब पण्डित और मौलवी उस मामले में आ घुसे तो फिर लोगों को अपने ही रास्ते पर ले जायँगे। वे जो कहेंगे आमतौर से वही बात मान्य होगी। यही कारण है कि खान-पान आदि के मामले में उन्हीं की बात चलती है और ऊपर लिखी घटनाएँ होती हैं, होती रहेंगी। लेकिन अगर कुछ लोग ऐसा नहीं करते तो यह स्पष्ट है कि गांधी जी के हजार चिल्लाने पर भी उनके दिल में धार्मिक भाव है नहीं, उनने धर्म को कभी समझा या माना है नहीं। तब आज क्यों मानने लगे? यदि धर्म की बात बोलते हैं तो सिर्फ जबान से ही। चाहे गांधी जी इसे मानें या न मानें। मगर यह कटु सत्य है।

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23

हमने जो कुछ पूर्व प्रसंग के अन्त में कहा है उसका स्पष्टीकरण एक दूसरी घटना से हो जाता है। एक दिन जेल के भीतर ही हमें आश्चर्य में डूबने के साथ ही बहुत तकलीफ हुई जब हमने कुछ हिन्दुओं को एक मौलवी साहब की आलोचना करते सुना। उनने बोलते-बोलते कृष्ण जी को ‘हजरत’ कह दिया था। यही उनका महान् अपराध था। हम तो समझी न सके कि माजरा क्या है। मगर पीछे बहुत-सी बातें याद आयीं। उसके पहले एक सज्जन ने बोलने में जब ‘दृष्टिकोण’ शब्द का प्रयोग किया था तो एक मुसलमान साहब ने पूछा कि इसका मतलब क्या है? जब उनने मतलब समझाया तो मुसलमान बोले कि बोलने में भी ऐसा ही क्यों नहीं बोलते ताकि सभी लोग समझ सकें। उनका इतना कहना था कि वह हिन्दू सज्जन आपे से बाहर हो गये और तमक के कहने लगे कि हम आपके लिए या हिन्दू-मुसलिम मेल के, हिन्दुओं की संस्कृत और उनके साहित्य को चौपट न करेंगे। इस पर मामला बढ़ गया। मगर हमें उससे यहाँ मतलब नहीं है। हमें इतना कह देना है कि सचमुच ही ‘दृष्टिकोण’ का अर्थ आसानी से न तो आम हिन्दू जनता ही समझ सकती है और न मुसलिम लोग ही जान सकते हैं। और अगर कोई इस पर एतराज करता है तो गांधीवाद की माला जपने वाले साहित्य और हिन्दू संस्कृति के नाश का हौवा खड़ा करते हैं। हालाँकि किसानों और गरीबों की भलाई के ही लिए वे जेल आये हैं ऐसी दुहाई देते रहते हैं। मगर जरा भी नहीं सोचते कि उनकी यह भाषा कितने प्रतिशत किसान समझ सकते हैं। और जब बात ही न समझेंगे तो साथ कहाँ तक देंगे।

लेकिन अगर ‘हजरत’ शब्द को देखा जाय तो उस पर इसलिए उज्र नहीं हुआ कि लोग समझ न सके। हम तो देखते हैं कि बराबर ही ‘आइये हजरत, हजरत की हरकत तो देखिये’ आदि बोला करते हैं। यह तो मामूली बोल-चाल का शब्द हिन्दी भाषा में हो गया है। इसलिए अगर उस पर एतराज हुआ तो सिर्फ इसलिए कि कृष्ण को उनने हजरत कह दिया। यह तो गजब हो गया। वही मुसलमान अपने बड़े-से-बड़े नेता को, पैगम्बर साहब को हजरत कहता है और हम लोग सुनते रहते हैं। फिर भी जिन्हें हिन्दू अवतार मानते हैं उन्हें वही मुसलमान हजरत कहे तो आफ़त हो गयी। इस बात का इससे सबूत मिलता है कि हम लोग असल में कितने गहरे पानी में हैं। इसी प्रकार ‘सीता को बेगम और राम को बादशाह’ कहने का भी विरोध करते हमने जेल में सुना। बाहर तो सुनते ही थे। अगर अंग्रेजी में क्वीन (Queen) और किंग (King) कहा जाय तो हमें जरा भी दर्द नहीं होता। हालाँकि इन शब्दों का मतलब वही है जो बेगम और बादशाह का। हमने यह नजारा देखा और अफ़सोस किया।

आजकल हिन्दी पढ़ने का शौक बढ़ गया है। इसीलिए जो जेल में भी यह बात देखने को मिली ज्यादातर गांधीवादी लोग ही ऐसे दिखे। यों तो तथाकथित वामपक्षी और क्रान्तिकारी लोग भी इस तरह के पाये गये। हिन्दी और हिन्दुस्तानी पर विचार- विमर्श भी होता रहा। कुछ लोगों ने जो अपने को राजनीतिक नेता मानते हैं, यह तय किया कि मिडिल क्लास के ऊपर तो हिन्दुस्तानी की किताबें पढ़ाई जायँ। मगर नीचे की कक्षाओं में वही ‘दृष्टिकोण’ वाली हिन्दी ही पढ़ाई जाय। शायद इसमें उनने एक ही तीर से दोनों शिकार मारे। हिन्दी साहित्य और हिन्दू संस्कृति भी बचा ली गयी और हिन्दू-मुसलिम एकता के जरिये राजनीति की भी रक्षा हो गयी। मगर वे यह समझी न सके कि यह रक्षा नकली है। इससे काम नहीं चलने का।

मैंने ऐसे एकाध दोस्तों से पूछा कि जो लोग मिडिल से आगे नहीं जा सकते उनकी राजनीति कैसे बचेगी? उनका हिन्दू-मुसलिम मेल क्योंकर हो सकेगा? और भी तो सोचने की बात है कि अधिकांश तो मिडिल तक ही रुक जाते हैं। बहुतेरे तो लोअर और अपर तक ही इतिश्री कर लेते हैं। प्रायः नब्बे फीसदी तो पढ़ने का नाम ही नहीं जानते हैं। एक बात यह भी है कि जो जवान और बूढ़े हो चुके हैं वह यों ही रह जायँगे। उन्हें तो ‘काला अक्षर भैंस बराबर’ है। तो फिर उनके लिए आपकी हिन्दी या हिन्दुस्तानी किस काम की? वे लोग संस्कृति और साहित्य की रक्षा कैसे कर पायेंगे? मगर वे चुप रहे। उत्तर देई न सके। बिचारे देते भी क्या?

असल बात दूसरी ही है। जहाँ मैं या मेरे जैसे कुछ लोग हर बात को ‘जनता’ (mass) की नजर से देखते और सोचते हैं, न कि संस्कृति और साहित्य की दृष्टि से। क्योंकि जनता को तो सबसे पहले रोटी, कपड़े, दवा आदि से मतलब है। हाँ, जब पेट भरेगा तो ये बातें सूझेंगी मगर अभी तो उनका मौका ही नहीं है। तहाँ साधारण कांग्रेसवादी-फिर चाहे वह गांधीवादी हों या तथाकथित क्रान्तिकारी और वामपक्षी-सबसे पहले साहित्य और संस्कृति की ही ओर नजर दौड़ाते हैं। और याद रहे कि इन दोनों के पीछे धर्म छिपा हुआ है। खुल के आने की या उसे लाने की हिम्मत नहीं है। इसीलिए साहित्य और संस्कृति का ढकोसला खड़ा किया जाता है। असल में न सिर्फ वे लोग मध्यमवर्गीय हैं, किन्तु उनकी मनोवृत्ति भी वैसी ही है। इसलिए मध्यम वर्ग की ही नजर से हर बात को वे लोग स्वभावतः देखते और तौलते हैं। मध्यम वर्ग का पेट तो भरता ही है। कपड़ा और दवा-दारू भी अप्राप्य नहीं है। फिर उन्हें साहित्य और संस्कृति न सूझे तो सूझे क्या खाक?

मगर वे यह नहीं सोचते कि साहित्य की अगर कोई जरूरत है तो जनसमूह के लिए ही। आम लोगों को जगाना और तैयार करना ही साहित्य का काम होना चाहिए, खासकर गुलाम देश में। बिना जगे और पूरी तरह तैयार हुए जन-साधारण आजादी की लड़ाई में भाग क्योंकर ले सकते हैं? और आजाद हो जाने पर भी उन्हें ही ऊपर उठाना और आगे ले चलना जरूरी है। नहीं तो दुनियाँ की घुड़दौड़ में हमारा मुल्क पीछे पड़ जायगा। जब तक समूचे देश के बाशिन्दों की शारीरिक और मानसिक उन्नति नहीं तो जाय तब तक देश पिछड़ा का पिछड़ा ही रह जायगा। इसलिए उस समय भी साहित्य का निर्माण आम लोगों की ही दृष्टि से होना चाहिए। मुट्ठी भर मध्यमवर्गीय लोग साहित्य पढ़-पढ़ा के क्या कर लेंगे? उनसे तो कुछ होने जाने का नहीं, जब तक किसान, मजदूर और अन्य श्रमजीवी उनका साथ न दें। इसीलिए हर हालत में साहित्य की असली उपयोगिता शोषित जनता के ही लिए है। मगर ‘‘दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो चला। तरुशिखा पर थी तब राजती, कमलिनी कुल बल्लभ की प्रभा’’, या ‘‘पूर्वजों की चरित चिन्ता की तरंगों में बहो’’ जैसे साहित्य को, जिस पर मध्यमवर्गीय बाबुओं को नाज है और जिसके ही लिए हिन्दी हिन्दुस्तानी की कलह खड़ा करके आकाश-पाताल एक कर रहे हैं, कितने किसान या मजदूर समझ सकते हैं? यही हालत है ‘‘नहीं मिन्नतकशे ताबे शुनीदन दास्ताँ मेरी। खामोशी गुफ़्तगू है बे ज़बानी है ज़बां मेरी’’ की भी। दोनों ही साहित्य, जिनके लिए हिन्दू और मुसलिम के नाम पर माथाफुड़ौवल हो रही है, किसानों और मज़दूरों से, कमाने वालों से, आम जनता से लाख कोस दूर हैं।

मगर इससे क्या? मुट्ठी भर मध्यमवर्गीय लोग तो इन्हें समझते ही हैं। बाकियों की फिक्र उन्हें हई कहाँ? असल में साहित्य की ओट में संस्कृति छिपी है और उसकी आड़ में धर्म बैठा है, जिनका उपयोग आम जनता को उभाड़ने में किया जाकर मुट्ठी भर बाबुओं और सफेदपोशों का उल्लू सीधा किया जाता है। जब तक संस्कृति और धर्म, तमद्दुत और मजहब के नाश का हौवा ये मध्यमवर्गीय लोग खड़ा न करें किसान-मजदूर उनके चकमे में आ नहीं सकते और बिना इसके काम बनने का नहीं। आखिर आम हिन्दुओं और मुसलमानों के नाम पर ही तो इन्हें नौकरियाँ लेना, सीटों का बँटवारा करना और पैक्ट या समझौता करना है। सीधे लोगों की धार्मिक भावनाओं को उत्तेजित करके, उन्हें उभाड़ कर ही ये काइयाँ लोग अपना काम बना लेते हैं, हालाँकि ऊपर से पक्के बगुला भगत बने रहते हैं। गरीबों के नाम पर ऐसा आँसू बहाते हैं कि कुछ पूछिये मत।

जैसा कि कह चुके हैं, साहित्य का काम है आम लोगों को जाग्रत करना, तैयार करना और उनकी मानसिक-उन्नति करना, जिससे सच्चे नागरिक बन सकें। साहित्य का दूसरा काम है नहीं। थोड़े से लोगों का मनोरंजन करना या उन्हें काल्पनिक संसार में विचरण करने का मौका देना यह काम साहित्य का नहीं है। पुराने साहित्यकारों ने उसका लक्षण करते हुए साफ ही कहा है कि दिमाग पर ज्यादा दबाव न डाल कर और इसीलिए सुकुमार मस्तिष्क वालों के लिए भी बातें सुगम बनाने वाला ही ठीक साहित्य है। इसीलिए पढ़ते या सुनते जाइये और बिना दिक्कत मतलब समझते जाइये। जहाँ समझने में विशेष दिक्कत हुई कि वह दूषित साहित्य हो गया। बातें जो सरस बना के कही जाती हैं उसका मतलब यही है कि वे आसानी से हृदयंगम हो जायँ।

इस दृष्टि से तो जन-साधारण के लिए सुलभ और सुगम साहित्य तैयार करने के दो ही रास्ते हैं। या तो वह ऐसी भाषा में लिखा जाय जो बचपन से हम बोलते और सुनते हैं, जिसे माताएँ और बहनें बोलती आ रही हैं। या अगर यह न हो सके या इसमें बड़ी कठिनाई हो तो ऐसी खड़ी बोली वाली भाषा तैयार की जाय जिसे सभी देहाती-हिन्दू-मुसलमान बेखटके समझ सकें। ‘‘इस दृष्टि बिन्दु को सम्मुख रख के यदि हम पर्यवेक्षण करते हैं तो मर्मान्तक वेदना होती है’’, या "पहाड़ों की चोटियाँ गोशे सहाब से सरगोशियाँ कर रही हैं", को कौन सी आम जनता समझती है, समझ सकती है? हिन्दी और उर्दू के नामी लिक्खाड़ चाहे खुद कुछ समझें। मगर उनकी बातें आम लोगों के लिए वैसी ही हैं जैसा वन में पका बेल बन्दरों के लिए। न तो उनकी हिन्दी समझ सकती है हिन्दू जनता और न उर्दू मुसलिम जनता। फिर हिन्दी को मुसलिम या उर्दू को हिन्दू जन समूह क्योंकर समझ पायेगा? या तो सिर्फ ‘लिखें ईसा, पढ़ें मूसा’ जैसी कुछ बात है। वे लोग खुद लिखते और खुद ही समझते हैं, या ज्यादे से ज्यादा उन्हीं जैसे कुछ इने-गिने लोग। मगर वह लोग जनता नहीं है। वह तो निराले ही हैं यह याद रहे।

इसीलिए अगर बिहार में हम ऐसा साहित्य बनाना चाहते हैं, तो या तो भोजपुरी, मगही, मैथली, बंगाली, संथाली और उरांव आदि भाषाओं में ही जुदे-जुदे इलाकों के लिए अलग-अलग साहित्य रचें या हिन्दी और उर्दू मिला के एक ऐसी सरल भाषा बना दें जो सभी समझ सकें। हिन्दी-उर्दू मिलाने से हमारा मतलब है संस्कृत शब्दों की भरमार वाली हिन्दी और अरबी-फ़ारसी के शब्दों से लदी उर्दू की जगह सरल और सबके समझने लायक भाषा तैयार करने से। दृष्टान्त के लिए ‘अज़ीज़म’ या ‘अज़ीज़मन’ और ‘प्रियवर’ या ‘प्रिय मित्र’ की जगह ‘मेरे प्यारे दोस्त’ या ‘मेरे प्यारे भाई’ वग़ैरह लिखें तो कितना सुन्दर हो और काम चले। जरूरत होने से नये-नये शब्दों को भी या तो गढ़ के या दूसरी तरह से प्रचार करते जायँगे।

जो लोग ‘हजरत’ आदि शब्दों को देख-सुन के चिहुँकते हैं उन्हें याद रखना चाहिए कि हमने, हमारी हिन्दी ने और हमारी जनता ने अरबी-फ़ारसी के हजारों शब्दों को हजम करके अपने को मजबूत बनाया है। इतने पर भी अभी यह भाषा अधूरी सी लगती है। अगर हजारों शब्दों को अपने में मिलाये न होती तो न जानें इसकी क्या हालत होती। हाज़िरी, मतलब, हिफ़ाजत, हाल, हालत, फष्ुर्सत, कष्सूर, दावा, मुद्दई, अर्ज़, गर्ज़, तकष्दीर, असर, जरूरत, फसल, रबी, खरीफ, कषयदा, कानून, अदालत, इन्साफष्, तरह, सदर, दिमाग़, ज़मीन वगै़रह शब्दों को नमूने की तरह देखें तो पता चलेगा कि ये और इनके जैसे हजारों शब्द ठेठ अरबी और फषरसी के हैं। मगर इन्हें बोलते और समझते हैं न सिर्फ हिन्दी साहित्य वाले, बल्कि बिलकुल देहात में रहने और पलने वाले गँवार किसान और मज़दूर भी। समय-समय पर इनने और हमने इन्हें हजम करके अपने को मजबूत और बड़ा बनाया है। इससे हमारी संस्कृति बिगड़ने के बजाय सुधरी है, बनी है। वह कोई छुईमुई नहीं है कि हजरत, बेगम और बादशाह वग़ैरह बोलने से ही खत्म हो जायगी। यह भी हमारी नादानी है कि सीता को बेगम और राम को बादशाह कहने से नाक-भौं सिकोड़ते हैं। तुलसीदास तो श्रीरामजी को अवतार मानते थे। वह उनके और जानकीजी के अनन्य भक्त थे। मगर अपनी रामायण में उनने ‘राजा राम जानकी रानी’ लिखा है। वे हिन्दी के श्रेष्ठ साहित्यकार माने जाते हैं। उन्हें राजा और रानी कहने में तो जरा भी हिचक न हुई। आज तक हमारे हिन्दी-साहित्य-सेवियों ने भी इस बारे में अपनी जबान न हिलाई। मगर राजा की जगह बादशाह और रानी की जगह बेगम कहते ही तूफषन सा आ गया। क्या इसका यह मतलब है कि अब हिन्दी की भी शुद्धि होगी? उसमें से पूर्व बताये हजारों शब्दों को गर्दनियाँ दे के निकाला जायगा क्या? अगर ऐसा है तो ‘खुदा हाफ़िज़।’

बात तो साफ-साफ कहना चाहिए। असल में राष्ट्रवादी लोग अधिकांश मध्यम श्रेणी के ही हैं। उनमें भी जो आज खाँटी कांग्रेसी या गांधीवादी कहे जाते हैं वह तो गिन-गिन के मध्यमवर्गीय हैं, मिडिल क्लास के हैं। वे चाहे अपने को हजार बार कहें कि वे न तो हिन्दू हैं और न मुसलमान, किन्तु हिन्दुस्थानी, पहले हिन्दुस्थानी और पीछे हिन्दू या मुसलमान। मगर दरअसल हैं वे पहले हिन्दू या मुसलिम और पीछे हिन्दुस्थानी या राष्ट्रवादी। इसका प्रमाण उनकी सँभली-सँभलाई बातों से न मिल के उनके कामों और अचानक की बातों से मिल जाता है। यह हिन्दी, उर्दू या हिन्दुस्थानी का झगड़ा इस बात का जबर्दस्त सबूत है। जब वह लेक्चर देने बैठते हैं तो उनकी तकरीर इस बात की गवाही देती है कि वे क्या हैं। उनकी बातें

आम लोग समझते हैं या नहीं इसकी उन्हें जरा भी फिक्र नहीं रहती है। वे तो धड़ल्ले से बोलते चले जाते हैं, गोया उनकी बातें सुनने वाले सभी लोग या तो पण्डित या मौलवी हैं। उनने आलिम-फाजिल या साहित्य-सम्मेलन की परीक्षाएँ पास कर ली हैं। यदि वे ऐसा नहीं मानते तो लच्छेदार संस्कृत या फ़ारसी के शब्दों को क्यों उगलते जाते?

अगर हिन्दुस्थानी कमिटी अपनी किताबों में कुछ उर्दू फ़ारसी के शब्द नये सिरे से डालती है या पंजाब के हिन्दू लोग उर्दू में संस्कृत के शब्द घुसेड़ते हैं तो उनका कलेजा कहने लगता है कि हाय हिन्दी चौपट हुई, उर्दू बर्बाद हुई! साहित्य चौपट हुआ! संस्कृति मटियामेट हो गयी! मालूम होता है अब हिन्दी को अजीर्ण हो गया है, या उसकी पाचन-शक्ति ही जाती रही है। यही हालत उर्दू की भी है। हमें आश्चर्य तो इस बात का है कि यही लोग मुल्क को आजाद करने का बीड़ा उठाये हुए हैं। हिन्दू-मुसलिम मेल की हाय-तोबा भी यही सज्जन बराबर मचाते रहते हैं। अगर कहीं हिन्दू-मुसलिम दंगा हो गया तो हिन्दू-मुसलिम जनता को भर पेट कोसने में थकते भी नहीं। लेकिन कभी भी नहीं सोचते, सोचने का कष्ट उठाते कि इन सब अनर्थों की जड़ उनकी ही दूषित मनोवृत्ति है। ‘मुख पर आन, मन में आन’ वाला जो उनका रवैया है उसी के चलते ये सारी चीज़ें होती हैं। सभी बातों में भीतरी दिल से हिन्दूपन और मुसलिमपन की छाप लगाने की जो उनकी वाहियात आदत है उसी के चलते ये सारी बातें होती हैं। अपने को चाहे वह हजार छिपायें। फिर भी उनका जो यह हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्थानी का झमेला है वही उनकी असलियत को जाहिर कर देने के लिए काफी है।

इस कहने से मेरा यह मतलब हर्गिज नहीं कि मैं हिन्दुस्थानी कमिटी की या दूसरों की सारी बातों का समर्थन करता हूँ। मैं कृत्रिम या बनावटी भाषा का सख्त दुश्मन हूँ और मुझे डर है कि हिन्दुस्थानी कमेटी कहीं ऐसी ही भाषा न गढ़ डाले। असलियत तो यह है कि मुझे उनकी किताबें वग़ैरह पढ़ने का मौका ही नहीं मिलता। हाँ, कभी-कभी कुछ बातें सामने ख़ामख्वाह आई जाती हैं। इसलिए उनकी जानकारी निहायत जरूरी हो जाती है। मगर अखबारों में जो बातें इस सिलसिले में बराबर निकलती रहती हैं और कुछ दोस्तों से भी जो कुछ सुनता रहता हूँ उसी के आधार पर मैंने यह निश्चय किया है। मैंने देखा है कि इन झगड़ों के पीछे दूसरी ही मनोवृत्ति काम कर रही है। इसलिए हमें सभी जगह और ही चीज़ें दीखती हैं। अगर मनोवृत्ति ठीक हो जाय तो हिन्दी हिन्दुस्थानी के झगड़े फौरन मिट जायँ या कम-से-कम उनके मिटने का रास्ता तो जरूर ही साफ जो जाय।

मगर इस हिन्दी और हिन्दुस्थानी के झमेले में हमें बड़ा खतरा नजर आ रहा है। अभी तो यह सिर्फ सफेदपोश बाबुओं के ही बीच होने के कारण उन्हीं की चीज है। मगर अन्देशा है कि वे लोग किसानों और मज़दूरों के भीतर इसे फैलायेंगे। शिक्षा का सम्बन्ध ज्यादातर इन्हीं के हाथ में है। फलतः वे इसी साँचे में सबों को ढालना चाहेंगे ही। वैसी ही किताबें, वैसे ही लेख, वैसे ही अखबार तैयार होंगे जनता को पढ़ाने के लिए। अधिक कोशिश इस बात की होगी कि यह जहर देहातों में और मज़दूरों के इलाकों में फैले। जो जिस चीज को पसन्द करता है वह उसे ही सर्वप्रिय बनाना चाहता है। इसलिए इसका नतीजा सीधे धार्मिक झगड़ों के मुकाबिले में और भी बुरा होगा। क्योंकि यह जहर राजनीति की गोली के साथ लोगों के भीतर घुसेगा। आज तो राजनीति हमारे जीवन का प्रधान अंग बन गयी है।और अगर उसी के साथ यह झगड़ा हमारे किसानों तथा मज़दूरों के भीतर घुसा, तो गज़ब हो जायगा। क्योंकि धार्मिक अन्धता को घुसाने का नया तरीका और नया रूप यही हो जायगा। फिर तो हम हमेशा कट मरेंगे। अतएव हमें अभी से इसके लिए सजग हो जाना होगा, ताकि इस साँचे में हमारी जनता का भावी जीवन ढलने न पाये।

हमें ताज्जुब है कि यह बात क्यों हो रही है। भाषा का विकास तो नदी के विस्तार की तरह होता है। जैसे नदी खुद ही आगे बढ़ती जाती है। वह अपना रास्ता खुद बना लेती है। हम हजार चाहें, मगर वह हमारी मर्जी के मुताबिक कभी नहीं चलती। तभी उसका फैलाव काफी होता है। भाषा की भी यही हालत होती है। आज अंग्रेजों के संसर्ग से हम अपनी भाषा में कितने ही शब्दों को घुसाते जा रहे हैं। प्रोग्राम, कमिटी, कॉन्फ्रेंस आदि शब्द हमने अपना लिये हैं।

कांग्रेस और मिनिस्ट्री शब्द हमारी जान पर हमेशा ही मौके-बे-बौके पाये जाते हैं। देहाती लोग भी इन्हें समझते और बोलते हैं। लालटेन और रेल शब्द गोया हिन्दी भाषा के ही हों ऐसे मालूम पड़ते हैं। हमें पता ही न चला कि हम इन्हें

हजम कर रहे हैं। सभा की जगह मीटिंग कहना हमें अच्छा लगता है। ठीक इसी प्रकार मुसलमानों के जमाने में हमने फ़ारसी और अरबी शब्दों से अपनी भाषा का खजाना भरा है। तब आज हिचक कैसी?

आज जिस खड़ी बोली में साहित्य तैयार करने पर हम तुले बैठे हैं आखिर वह भी तो यों ही धीरे-धीरे बनी है, बनती जा रही है। संस्कृत, पाली या प्राकृत को यह रूप धीरे-धीरे मिला है हजारों साल के बाद। इसी तरह अरबी या फ़ारसी को उर्दू की शकल मिली है। विकास तो संसार का नियम ही है। हिन्दी और उर्दू के सम्मिश्रण से जो नयी भाषा तैयार होगी वही हमारी जरूरत को पूरा कर सकेगी। उसी के सहारे यह मुल्क आगे बढ़ेगा। हम हजार चिल्लायें और छाती पीटें। मगर यह बात हो के रहेगी। फिर समय रहते ही हम क्यों न चेत जायँ और इसी काम में मददगार बन जायँ। यह जो नाहक का बवण्डर हम खड़ा कर रहे हैं उससे हाथ तो खिंच जाय। भाषा हमारे लिए है, न कि हमीं भाषा के लिए हैं। लेकिन हमारी आपसी तू-तू, मैं मैं, में कहीं हमीं पिछड़ न जायँ, मिट न जायँ, यह सोचने की बात है।

आज तो पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों में सम्मिश्रण के जरिये नयी-नयी नसलें पैदा की जा रही हैं। जो हमारी बढ़ती हुई जरूरतों को पूरा कर रही हैं। पुराने पशु-पक्षी और पेड़ पौदे इस बात के लिए नाकाबिल सिद्ध हो चुके हैं कि अब हमारी जरूरतों को पूरा कर सकें। इसीलिए इस युग को ‘क्रासब्रीड्स’ (cross-breeds) का युग कहते हैं। यही बात हमारी भाषा के बारे में क्यों न लागू हो? आज हजार यत्न करके भी लैटिन को प्रचलित नहीं कर सकते हैं। वह पुरानी पड़ गयी है। इसी प्रकार संस्कृत, अरबी और फ़ारसी की माया आम जनता के लिए हमें छोड़ देना होगा। सो भी आधे मन से नहीं, सच्चे दिल से। ख़ामख्वाह संस्कृत और अरबी-फ़ारसी के नये-नये शब्दों को ढूँढ़ या गढ़ के सार्वजनिक भाषा की तोंद फुलाना उसके लिए बलगम का काम करेगा। हमारा दिमाग उसके बजाय ऐसे शब्दों के ढूँढ़ने में और बनाने में लगना चाहिए जिन्हें सभी जाति और धर्म के जन-साधारण आसानी से समझ सकें। इस प्रकार जो साहित्य तैयार होगा वही हमारा उद्धार करेगा, वही हमारे असली काम का होगा। नहीं तो मध्यमवर्गीय मनोवृत्ति हमें जानें कहाँ उठा फेंकेगी। मगर इसी के साथ हमें याद रखना होगा कि भाषा का स्वाभाविक विकास हो और उसमें कृत्रिमता आने न पावे। नदी के प्रवाह का दृष्टान्त दे ही चुके हैं। जैसे शरीर में मांस वृद्धि होती है वैसे ही बाहरी शब्द भाषा में लटके रहें यह बुरा है। अन्न-पानी को जैसे शरीर हजम करता है वैसे ही शब्दों को भाषा खुद हजम कर ले तभी ठीक होगा।

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कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल के जमाने की बात है। भरसक सन् 1938-39 की दास्तान है। युक्तप्रान्त में पन्त जी की मिनिस्ट्री थी। गांधी जी अहिंसा की बात बार-बार कहते हैं। अब तो और भी ज्यादा जोर देने लगे हैं। कांग्रेस ने अहिंसा को ही अपना सिद्धान्त रखा है यह बात भी वह कहते ही जाते हैं। मगर कांग्रेसी वजारतों के जमाने में बम्बई और कानपुर में मजदूरों पर जो गोलियाँ चलीं, लाठीचार्ज हुए और बम्बई में तो आँसू बहाने वाले बम भी चलाये गये, न जाने अहिंसा की परिभाषा के भीतर ये बातें कैसे समा जाती हैं। नागपुर में जब श्री मंचेरशाह अवारी अस्त्रा ग्रहण के लिए सत्याग्रह कर रहे थे तो गांधी जी ने यह कह के उसका विरोध किया था कि सशस्त्रा सत्याग्रह कैसा? जब शस्त्रा ले के चलियेगा तो अहिंसा मूलक सत्याग्रह सम्भव नहीं। सत्याग्रह और शस्त्रा ग्रहण ये दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं। इसलिए यह चीज बन्द होनी चाहिए। हमारे दिमाग में तो उनकी यह दलील उस समय भी समा न सकी थी। इस समय तो और भी नहीं समाती। सिर्फ शस्त्रा लेकर चलने से हिंसा कैसे होगी? जब उसे नहीं चलाने का प्रण कर लिया तो फिर हिंसा का क्या सवाल? नहीं तो फिर अकाली सिख कभी सत्याग्रही होई नहीं सकते। क्योंकि वे तो कृपाण के बिना एक मिनट रही नहीं सकते। मगर गांधी जी ने उन्हें भी बार-बार सत्याग्रह में भर्ती किया है। लेकिन जब यह बात है तो फिर लाठी, गोली और बम चला के भी कांग्रेसी मन्त्रिगण अहिंसक कैसे रह गये? और अगर नहीं रहे तो गांधी जी ने उनका विरोध न करके समर्थन क्यों किया? उनके इन कामों पर उनने मुहर क्यों लगा दी? इसीलिए हमें तो उनकी अहिंसा अजीब घपला मालूम होती है।

यही कारण है कि उनके अहिंसक अनुयायी उन्हें खूब ही ठगते हैं। मजा तो यह है कि गांधी जी यह बात न तो समझते और न मानते हैं। मुझे तो उनके और उनके प्राइवेट सेक्रेटरी श्री महादेव देसाई के क्रोध और डाँट-फटकार का शिकार केवल इसीलिए बनना पड़ा है कि मैं यह बातें साफ बोलता हूँ और काम भी वही करता हूँ जो बाहर-भीतर एक रस हो। किसानों को भी यही सिखाता हूँ कि जाब्ता फौजदारी के अनुसार अपनी और अपनी जायदाद वग़ैरह की हिफाजत के लिए उतनी हिंसा भी कर सकते हो जितनी जरूरी हो जाय। मैं किसानों या आप लोगों को पहले से ही मिला यह कानूनी हक छोड़ने और छुड़वाने के लिए किसी भी हालत में तैयार नहीं हूँ। इसीलिए सन् 1938 वाली हरिपुरा की कांग्रेस से पहले हरिजन में श्री महादेव देसाई ने मेरे खिलाफ लम्बा लेख भी लिखा था जिसका उत्तर मुझे देना पड़ा। मगर यह जान के मुझे निहायत ताज्जुब हुआ जब कि ठीक उसी समय हरिपुरा जाते हुए मध्य प्रान्त में दौरे के लिए वर्धा जाने पर और अहिंसा के अवतार श्री बिनोवा भावे से बातें करने पर पता चला कि किसान-सभा के बारे में हिंसा का निश्चय करने के पहले उन लोगों ने सारी बातें जानने की कोशिश तक न की थी।

उन्हीं के आश्रम में श्री बिनोवा जी से मेरी घण्टों बातें होती रहीं। हरिजन में वह लेख ताजा ही निकला था। इसलिए बातचीत का विषय वही बात थी। वे लोग वास्तविक दुनिया से कितने कोरे हैं इसकी जानकारी मुझे वहीं हुई। किसान-सभा के किसी कार्यकर्त्ता ने कोई बात हिंसा-अहिंसा के बारे में कही या न कही। मगर गांधी जी के भक्तों ने उनके पास रिपोर्ट पहुँचा दी और उनने उसे ध्रुव सत्य मान लिया। दूसरों को तो हजार बार कहते हैं कि पूरी जाँच के बाद ही बातें मानो। सचाई का पता लगाओ। मगर मेरे बारे में यह इलजाम लगाने के पहले उनने मुझसे एक बार पूछना तक उचित न समझा। किसान-सभा पर भी यही दोषारोपण किया गया। लेकिन सभा को सफाई देने का मौका तक न दिया गया। यह है गांधी जी का न्याय! यह है उनका सत्य! न सिर्फ उनने निश्चय कर लिया बल्कि अपने संगी-साथियों के दिमाग में इसे भर दिया।

जब मुझे श्री बिनोवा जी ने ये बातें पूछीं तो मैंने ऐसा जवाब दिया कि वे अवाक् हो गये। मैंने सबूत में पक्का प्रमाण पेश करने को भी कह दिया कि इलजाम निराधार हैं। मैंने कहा, कि मैंने जिस हिंसा का आश्रय लिया है वह न सिर्फ कानून के भीतर है, प्रत्युत गांधी जी ने भी वैसी हिंसा का उपदेश बराबर किया है। फिर मैंने देसाई के आक्षेप का लिखित उत्तर भी उन्हें दिखाया। और भी बातें होती रहीं। अन्त में उनने यही कहा कि इस बारे में क्या गांधी जी से आपकी बातें हुई हैं? मैंने उत्तर दिया कि नहीं। तब उनने कहा कि बातें जरूर करें। मगर मैंने यही कह के टाल दिया कि मौका मिलेगा तो देखूँगा। मैंने वह भी कह दिया कि जो लोग यों ही एकतरफा बातों से निश्चय कर लेते हैं उनसे बातें करके होगा ही क्या? फिर भी बातें करने पर उनने बहुत जोर दिया। मगर मुझे मौका ही कहाँ था? मुझे तो शाम को वर्धा के सोशलिस्ट चौक में एक अच्छी मीटिंग करके आगे बढ़ना था।

लेकिन यहाँ पर मुझे गांधीवादी नेताओं की अहिंसा के दो सुन्दर नमूने पेश करने हैं। पन्त मिनिस्ट्री के समय इलाहाबाद में बड़ा सा दंगा हो गया था। बड़ी सनसनी थी। तूफान भी काफी मचा था। उस समय गांधी जी के सिद्धान्त के अनुसार कांग्रेस के प्रमुख लोगों का यह फर्ज था कि अपनी जान को जोखिम में डाल के भी दंगे को शान्त कर, ठीक उसी तरह जिस तरह सन् 1931 ई. वाले कानपुर के दंगे में स्वर्गीय श्री गणेशशंकर विद्यार्थी ने किया था। ऐसे ही मौके गांधी जी और कांग्रेस की अहिंसा की परीक्षा करते हैं। गांधी जी का जोर भी यही रहता है कि ऐसे समय कांग्रेसी नेता निडर हो के हिन्दू-मुसलिम महल्लों में जायँ और उन्हें ठण्डा करें। नियमानुसार इलाहाबाद का दंगा उन नेताओं की बाट देख रहा था। खुशकिस्मती से वहीं पर स्वराज्य-भवन में आल इण्डिया कांग्रेस कमिटी का ऑफिस भी था। अब भी है। उसके जेनरल सेक्रेटरी आचार्य कृपलानी वहीं मौजूद थे, दूसरे बड़े लोग भी।

मगर उनने क्या किया? मेरे दो मुसलिम साथी जो किसान-सभा और मजदूर आन्दोलन में खासी दिलचस्पी लेते हैं और जो अच्छे पढ़े-लिखे हैं, वहीं थे। जब दंगा शुरू हो गया तो वे स्वराज्य-भवन में फौरन गये और बड़े नेताओं से कहने लगे कि आइये चलें और शहर में घूम के लोगों को समझायें-बुझायें, उन्हें ठण्डा करें। चाहे वे ठण्डा हों या न हों। मगर हम लोग कोशिश तो करें। हमारे एक मुसलिम दोस्त टाउन कांग्रेस कमिटी के सभापति थे। इसलिए उन्हें अपना फर्ज भी अदा करना था। मगर उन नेताओं में एक सबसे बड़े नेता ने, जिनका नाम लेना मैं उचित नहीं समझता, मगर जो अखिल भारतीय नेता हैं और गांधी जी का ढोल आज भी मुल्क में घूम-घूम के पीटते हैं, चटपट यह कह डाला कि ‘‘ऐं, घूमने चलें? यह क्या बात है? यह नादानी कौन करे? क्या बिगड़े दिमाग लोग हमें पाने पर सोचेंगे कि नेता हैं? हमें वहीं खत्म न कर देंगे? मैं तो हर्गिज नहीं जाता। आप लोग भी मत जायँ।’’ और फौरन पन्त जी के पास लखनऊ फोन करने लगे कि मिलिटरी भेजें। नहीं तो खैरियत नहीं। हमारे मुसलिम जवान साथी को उनकी इस बात पर ताज्जुब हुआ। हैरत भी हुई। मगर वे तो अपना फर्ज अदा करने चली पड़े। भला वे नेता की बात क्यों सुनते? जो कुछ उनसे बन सका घूम घूम के किया भी। हिन्दू-मुसलिम सभी महल्लों में निडर हो के घूमते रहे।

पीछे मुलाकात होने पर उनने अहिंसा की ही चर्चा के सिलसिले में यह अजीब दास्तान मुझे सुनायी। वे गांधीवादियों की अहिंसा पर हँसते थे मैं भी हँसता था। हम किसान-सभा वाले तो गांधी जी के दरबार में काफी बदनाम हैं कि कांग्रेस के वसूलों की पाबन्दी नहीं करते। साथ ही, जो नेता साहब और उनके साथी न सिर्फ दुम दबा के ऐन मौके पर सटक रहे, बल्कि हथियारबन्द पुलिस और फौज की गोलियों और संगीनों से दंगे को शान्त करने के लिए श्री पन्त जी पर बार-बार जोर देते रहे, उन्हें गांधी जी का ऐसा दवामी सर्टिफिकेट अहिंसा के बारे में मिल चुका है कि कुछ पूछिये मत! मगर ऐसी ही टूटी नाव पर चढ़ के न सिर्फ गांधी जी खुद पार होना चाहते हैं, बल्कि सारे मुल्क को भी पार ले जाना चाहते हैं तो उन्हें मुबारक हो। किसान-सभा वाले अगर गांधी जी की अहिंसा को नहीं मानते तो उन्हें साफ कह तो देते हैं। मौके पर अमली तौर से धोखा तो नहीं देते। बल्कि ईमानदारी से जहाँ तक होता है उसके अनुसार काम करते हैं।

इसी सम्बन्ध की एक दूसरी घटना बिहार की है। बिहार पर और खासकर उसकी अहिंसा पर गांधी जी को नाज़ है। अकसर वे इस बात को लिखते और कहते रहते हैं। मगर बिहार के नामी-गरामी नेता लोग कहाँ तक अहिंसा को मानते और गांधी जी को कितना धोखा देते हैं इसका ताजा नमूना हाल के बिहार शरीफवाले दंगे में मिला है। इसका पता हमें जेल में ही लगा है जबकि पटना जिले के एक कांग्रेसी साथी जेल में हाल में ही आये हैं। उनने आप बीती हमें एक दिन सुनाई। उनका और जिन नेताओं से उन्हें साबका पड़ा उनका नाम लेना ठीक नहीं।

बिहार शरीफ में हिन्दू-मुसलिम दंगा शुरू हो जाने के बाद सदाकत आश्रम के दो बड़े नेता, जो न सिर्फ प्रान्तीय कांग्रेस के ऑफिस के चलाने के लिए बहुत पुराने जवाबदेह आदमी माने जाते हैं, बल्कि खाँटी गांधीवादी भी हैं, मोटर पर चढ़ के बिहार शरीफ जाने के लिए तैयार हुए। उनमें एक हिन्दू है और एक मुसलमान। उनने सोचा कि पटना जिले के किसी हिन्दू कार्यकर्त्ता को भी साथ ले लें तो ठीक हो। संयोग से हमारे वे कांग्रेसी साथी वहीं थे। बस, हुक्म हुआ कि साथ चलना होगा। साथी को सारी बातें मालूम थीं। उनने कहा कि मेरे पास रिवॉल्वर तो है नहीं। मैं कैसे चलूँगा? याद रहे कि हमारे साथी सत्याग्रह करके जेल आये हैं। उनने फिर कहा कि अगर मुझे भी आप लोग एक रिवॉल्वर दें तो साथ चलने को तैयार हूँ। इस पर लीडरों ने कहा कि आप हम दोनों के बीच में हमारी ही मोटर पर बैठ के चलिये। हम जो अलग मोटर पर पीछे-पीछे चलने को कहते थे वह इसीलिए कि आपके पास रिवाल्वर है नहीं। मगर अगर आप इसके लिए तैयार नहीं हैं तो हमारे बीच में बैठ के हमारी ही मोटर पर चलिये। मगर इस पर भी साथी तैयार न हुए। तब उनसे कहा गया कि आपके घरवालों के पास बन्दूक तो हई। उसे ही लेकर चलिये। इस पर साथी ने उत्तर दिया कि बन्दूक ले के चलना तो और भी बुरा है। मैं ऐसा न करूँगा।

इस पर हार मान के दोनों नेता रवाना हो गये। साथी ने कहा कि मुझे तो मालूम था ही कि उन दोनों के पास एक-एक रिवॉल्वर था। दोनों रिवॉल्वर किसी नवाब साहब के यहाँ से उनने मँगाये थे। मैं उनमें से एक माँगता था। मगर वे लोग इसके लिए तैयार न थे। उनने साफ कह भी दिया कि दोई तो रिवॉल्वर हैं और हम दो खुदी जा रहे हैं। फिर आपको कैसे दें? खूबी यह कि रिवॉल्वर ले के जाने पर भी वे लोग बिहार शरीफ में घूम न सके। जहाँ कांग्रेसियों का गिरोह था वहीं गये और दल के साथ ही इधर-उधर आये-गये।

कितना सुन्दर नमूना गांधी जी की अहिंसा का है। आज तो जगह-जगह कांग्रेसी नेता शान्ति दल बना रहे हैं जिसका काम ही है कि हिंसा करने वालों के बीच जा के उन्हें समझाना और शान्त करना। उन्हें न तो हथियार रखना होगा और न जान की परवाह करनी होगी। इस बात की प्रतिज्ञा शान्तिदल वाले करते हैं। मगर जब उनके नेताओं की यही दशा है तो बाकियों का क्या कहना? पॉकेट में रिवॉल्वर ले के शान्ति दल का काम करना अजीब चीज है। फिर भी इस पाखण्ड को गांधी जी समझें तब न? यदि मैं रहता तो जरूर बन्दूक ले के चलता और धीरे से लोगों को इशारा कर देता कि देखिये हमारी अहिंसा!
 

 

 

 

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