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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-2

मेरा जीवन संघर्ष : उत्तर भाग पूर्व खंड-I

मुख्य सूची खंड - 1 खंड-2 खंड - 3 खंड - 4 खंड - 5 खंड - 6

(1)गांधीजी से वार्तालाप
(2)नागपुर कांग्रेस के संस्मरण
(3)असहयोग में-बक्सर में

(4)भारी भूल
(5)अहमदाबाद कांग्रेस
(6)पहली जेल यात्रा-गाजीपुर में

अगला पृष्ठ : उत्तर भाग पूर्व खंड-II

(1)गांधीजी से वार्तालाप

मुझे खूब याद हैं, मैं पटना में ही था। गांधीजी, मौलाना मुहम्मद अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि के साथ सन 1920 ई. के दिसम्बर में खिलाफत और पंजाब काण्ड की बात को लेकर देश को असहयोग के लिए तैयार करने के विचार से दौरा करते हुए पटना पधारे थे। वहीं से बिहार का दौरा होने को था। मौलाना मजहरुल्हक के मकान पर वे सभी ठहरे थे। मैंने उन लोगों की स्पीचें भी 3 या 4 दिसम्बर को सुनी थीं। मुझे उस समय मौलाना आजाद का भाषण सबसे अच्छा लगा। इसलिए नहीं कि उसमें गरमी या जोश ज्यादा था, या जानकारी की बातें अधिक थीं। यह बातें तो सभी भाषणों में थीं। मेरे लिए तो खास कर ऐसी बातें अधिक इसलिए थीं कि मैं राजनीति जानता ही क्या था?

असल में मैंने देखा कि मौलाना मुहम्मद अली आदि जो कुछ बोले उसमें मुल्क और देश की बात थी सही। पर, इसी के साथ उन्होंने बार-बार इस्लाम का नाम लिया। यह बात मुझे न जानें क्यों खटकी। इसमें मुझे खतरा नजर आया। मेरे दिल ने बताया कि जब देश में सभी धर्म सम्प्रदाय के लोग हैं और सभी को लेकर लड़ना हैं, तो एक धर्म का नाम लेने से बाकी लोग कहीं खटक न जाये। या इस्लाम की माँग पूरी हो जाने पर ये मौलाना लोग और उनके साथ ही सभी मुसलमान लोग लड़ाई के बीच में ही कहीं भाग न जाये। राजनीति में विशेष प्रवेश न होने पर भी न जाने यह ख्याल मुझे क्यों हो आया। इसीलिए मैंने मौलाना आजाद का भाषण पसन्द किया। क्योंकि मैंने बड़े गौर से सुना और देखा कि शुरू से अन्त तक उन्होंने एक बार भी इस्लाम का नाम न लेकर केवल देश और उसके प्रश्नों का ही बार-बार उल्लेख किया। हालाँकि घण्टों बोलते रहे। इसीलिए गांधीजी से बातचीत के समय मैंने यह प्रश्न उनसे किये कि ये मौलाना लोग बीच में ही छोड़ भागेंगे तो नहीं।

स्पीचों के बाद मेरे दिल में आया कि जरा गांधीजी से बातें तो करूँ। सिर्फ कौतूहल और जानकारी के ही लिहाज से मैंने बातें करने को सोचा। न कि सपने में भी ख्याल था कि उनके फलस्वरूप मैं राजनीति में कूद ही पड़ुऊगा। मित्रों से पूछा तो उन्होंने भी सम्मति जाहिर की। बस, फौरन गांधीजी को पत्र लिख कर समय माँगा। उत्तर मिला कि 5 दिसम्बर को सुबह दस बजे। मैं ठीक समय पर उनके डेरे पर पहुँच गया। खबर देने पर भीतर बुलाहट हुई। वे दूध में भिगा कर पावरोटी के टुकड़े खा रहे थे। खाट पर बैठे थे। सामने कुर्सी रखी थी। उन्होंने इशारा किया कि मैं उस पर बैठूँ। मगर मैंने नीचे बिछी फर्श पर ही बैठना पसन्द किया।

फिर मेरी बातें उनसे शुरू हुईं जो घण्टे भर चलती रहीं। मैंने उनसे बहुत से प्रश्न किये। संन्यासी का क्या धर्म हैं यह भी पूछा। उन्होंने कहा कि जिसमें घृणा, राग, द्वेष की गुंजाईश न हो वही संन्यासी हैं। इस पर मैंने नैयायिकों की तरह दलील शुरू करते हुए कहा कि जिस बुराई को अपने में से हटाना हैं उससे घृणा न हो तो वह हटे कैसे? और संन्यासी में भी तो बुराइयाँ हो सकती हैं। इस पर उनने कहा कि मैं उस घृणा को घृणा मानता ही नहीं। तब मेरा प्रश्न हुआ कि आखिर कैसे पता लगे कि कौन-सी घृणा घृणा हैं और कौन नहीं। जिससे संन्यासी के लक्षण का पता लग जाये? इस पर वे बोले, मैं दलीलें नहीं करता। मैं भी चुप हो गया।

फिर राजनीतिक बातें शुरू हुईं। मैंने पूछा कि कहीं ऐसा तो न होगा कि बीच में ही खिलाफत का प्रश्न हल हो जाने पर ये मौलाना लोग लड़ाई से हट जायेगे और हिन्दुओं की अकेले ही लड़ना पड़ेगा? मैंने उनसे साफ कहा कि मुझे मुसलिम जनता की फिक्र नहीं हैं। उसके बारे में शक भी नहीं हैं, मगर ये उसके लीडर और मौलाना ऐसा कर सकते हैं यह डर मुझे हैं जरूर। उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि ऐसा नहीं हो सकता। ये लोग भले और रईस हैं, ऐसा मैंने समझा हैं। भलेमानस की बात पर विश्वास करना चाहिए। वह पक्की होती हैं और ये लोग ऐसा ही विश्वास दिलाते हैं। इस पर उन्होंने दलीलें देनी चाहीं तो मैंने साफ कहा कि बस मैं आपका अनुभव इस मामले में जानना चाहता हूँ। दलीलें नहीं चाहता। उनने कहा कि मेरा अनुभव और विश्वास हैं कि ये लोग धोखा न देंगे हर्गिज हर्गिज।

फिर मैंने कहा कि आपकी बातें मान तो लेता हूँ। लेकिन यदि हिन्दुओं की मदद से इन्होंने अपना काम निकाल लिया और पीछे मजबूत होकर न सिर्फ साथ ही छोड़ा, प्रत्युत हिन्दुओं पर हमले शुरू किये, तो क्या होगा? उनका इस पर यही उत्तर हुआ कि मुझे हिन्दुओं की गीता पर विश्वास हैं। जब तक वह हैं हिन्दू धर्म का कोई कुछ कर नहीं सकता। और अगर गीता भी सच्ची नहीं, तब तो ऐसे कच्चे हिन्दू धर्म को जल्द मिट जाना ही चाहिए। इसके बाद मेरी बात पूरी हो गयी। और मैं चला आया। पूरी बातचीत ज्यों की त्यों प्रश्नोत्तर के रूप में 6 या 7 दिसम्बर सन 1920 ई. के पाटलिपुत्र में लिखकर मैंने छपवा दी थी।

बातचीत के बाद मेरे दिल पर यही प्रभाव पड़ा कि मुझे राजनीति में फौरन कूद पड़ना चाहिए। इसलिए नहीं कि देश का उपकार होगा। बल्कि इसलिए कि तभी मैं सच्चा संन्यासी बन सकूँगा। अभी तो कच्चा हूँ। साथियों से भी सलाह की। खासकर मुंगेर जिले के दुर्गापुर (खगड़िया) के श्री उमेश्वर बाबू और कन्हैयाचक के

श्री सूर्यनारायण बाबू आदि से। सबों की यही राय ठहरी। यह भी तय पाया कि इसी दिसम्बर में नागपुर में होने वाली कांग्रेस में भी जरूर शामिल होना चाहिए। उमेश्वर बाबू से यह भी तय पाया कि नागपुर से लौटकर खगड़िया इलाके में ही रह के काम करूँगा।

यहाँ एक बात और कह देनी हैं। जब खिलाफत की समस्या सुलझ गयी और सन 1925-1926 में मौलाना आजाद और डाँ. अंसारी जैसे दो-एक को छोड़ सभी मुसलिम लीडर और मौलाना बड़ी तेजी से तबलीग और तंजीब में पड़ गये, यहाँ तक कि हकीम अजमल खाँ भी उधर कुछ झुकते दिखे, तो मैंने गांधीजी को एक पत्र अंग्रेजी में उलाहने के तौर पर लिखा कि आप तो पूरे अनुभवी आदमी हैं। फिर आपने क्यों धोखा खाया और मुझसे 1920 की 5 दिसम्बर को कहा कि मौलाना मुहम्मद अली वगैरह कभी धोखा न देंगे? ये तो धोखा दे रहे हैं। सभी के सभी तंजीम में जी-जान से पड़े हैं। वह मेरा भय तो सही सिद्ध हुआ।

मैंने यह जो कुछ लिखा सिर्फ मुसलिम लीडरों के ही बारे में। क्योंकि पटना मे प्रश्न भी मैंने उन्हीं के बारे में किया था। मुसलिम जनता को तो वही गुमराह कर देते हैं, जैसा कि हिन्दू लीडर हिन्दू जनता को। जनता तो सब की सब भीतर से साफ और निर्दोष हैं। लेकिन गांधीजी ने जो उत्तर दिया वह बिलकुल ही निराला और चालाकी से भरा था, जिसकी मैंने उन जैसे साफ कहने वालों से आशा की थी नहीं! उन्होंने इस बारे में एक ही वाक्य लिख कर खत्म किया कि ''मुसलमानों के बारे में उस समय मैंने जो अन्दाज लगाया था उसके लिए मुझे आज कोई पश्चात्ताप नहीं हैं'' ''I donot repent my estemate of mohammadans” भला क्या यह मेरे प्रश्न का उत्तर कहा जा सकता हैं? मैंने मुसलमानों के बारे में कब पूछा था? मेरा प्रश्न तो केवल कुछ मौलानाओं और नेताओं के बारे में था। तो क्या उसका उचित उत्तर यही हैं? इससे मेरे दिल पर गांधीजी के सम्बन्ध में पहला धक्का लगा। मगर इसका कुछ विशेष फल न हुआ। असल में उस धक्के को मैं समझ भी न सका। पहला ही जो था।

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(2)नागपुर कांग्रेस के संस्मरण

बातचीत के बाद कुछ अधिक समय तो मिला नहीं। क्योंकि नागपुर की कांग्रेस उसी दिसम्बर के अन्त में होने वाली थी। मैं शीघ्र ही उत्तर मुंगेर में खगड़िया के इलाके में गया और श्री उमेश्वर बाबू के साथ ही नागपुर रवाना हुआ। मुगलसराय से बम्बई मेल के द्वारा जबलपुर जाकर सेठ गोविन्द दास वाली धर्मशाले में ठहरा। वहाँ से रात में छोटी लाइन पकड़ के गोंदिया होते दूसरे दिन नागपुर पहुँचा। वहाँ डाँ. मुंजे ही कांग्रेस की तैयारी में प्रमुख भाग ले रहे थे। और लोगों के नाम तो याद नहीं। उस समय मैं उनके सिवाय दूसरों को जानता ही कहाँ था? वही स्वागताध्यक्ष थे। आज के और उस जमाने के मुंजे में जमीन-आसमान का अन्तर हो गया! नागपुर में मुल्क ने चिरपरिचित 'भिक्षां देहि' और केवल गर्मा-गर्म लेक्चर झाड़ने का रास्ता छोड़ आत्मसम्मान का मार्ग पकड़ा। भारत के हक के दावे के साथ ही उसके पूर्ण न होने पर सरकार से 'युध्दं देहि' का पहली बार निश्चय किया और इस प्रकार देश को नव जीवन प्रदान किया। इसमें डाँ. मुंजे ने अपनी सामर्थ्य भर पूरा हाथ बँटाया। इतना ही नहीं। उसके फलस्वरूप असहयोग युद्ध में कूद पड़ने के कारण उनकी डाँक्टरी वाली बहुत अच्छी आमदनी जाती रही ऐसा लोगों ने पीछे कहा और बताया कि वह तो बर्बाद हो गये ‘He is a ruined man’ लेकिन आज उसी मार्ग की या यों कहिये कि जिस स्वातन्त्रय संग्राम का नागपुर में बीजारोपण हुआ उसकी ही मुखालिफत वही मुंजे कर रहे हैं। सो भी सारी शक्ति लगाकर! जो शक्ति पहले उधर लगी थी वही अब विपरीत दिशा में लग रही हैं यद्यपि वह स्वयं ऐसा नहीं मानते! ठीक ही कहा हैं संसार परिवर्तनशील हैं।

नागपुर कांग्रेस की दो-एक बातें मुझे भूलती ही नहीं हैं। बिहार के मौलाना शफी दाऊदी को पहले पहल वहाँ देखा कि कितनी तत्परता कांग्रेस पण्डाल में लोगों के बैठाने-उठाने में दिखा रहे हैं। कितनी सज्जनता एवं नम्रता से पेश आते हैं। उसके बाद लौटकर उन्होंने काफी काम भी किया। जब मैं लौटकर शाहाबाद जिले के बक्सर सबडिवीजन में काम में जा लगा तो बिहार प्रान्तीय राजनीतिक सम्मेलन का आरा शहर में उन्हें ही सभापति चुना गया। मैंने धार्मिक कट्टरता उनमें उस समय कतई नहीं पाई, गो कि विशेष जानकारी न थी। मगर थोड़े दिनों बाद ही और मौलवियों के समान ही वह भी ऐसे बदले, ऐसे कट्टर बने कि मैं हैंरत में आ गया एक ओर शुद्धि और संगठन की और दूसरी ओर तबलीग और तंजीम की जो आँधी चली उसमें दूसरों के साथ वह भी हमारे बीच से उड़ के एक किनारे जा लगे! सुन्दर वकालत को चौपट किया जिस काम के लिए उसे बीच में ही छोड़कर तंजीम में जा फँसे!!

मैंने वहीं देखा कि पहले द्वारका के और अन्त में जगन्नाथ के शंकराचार्य श्री भारती कृष्णतीर्थ लखनऊ के आर.एस. नारायण स्वामी आदि के साथ वहीं डँटे हुए हैं। कांग्रेस के ही लिए वह आये थे। मगर जब प्रतिनिधियों को कांग्रेस के ध्येय पर हस्ताक्षर करने का मौका आया तो उन्होंने इन्कार किया! साम्राज्य के भीतर स्वराज्यवाले ध्येय पर दस्तखत करने को वे तैयार न थे और वही उस समय तक कांग्रेस का लक्ष्य था। मैं तो उस समय ये सब बातें कुछ भी जानता-समझता न था कि साम्राज्य के भीतर और बाहर की बला क्या हैं। लेकिन वह दण्डी और मैं भी दण्डी। इसलिए उनके पास प्राय: जाता और बैठता था। यह देखकर खुशी भी थी कि आखिर इस राजनीति में मैं ही अकेला दण्डी संन्यासी नहीं पड़ा हूँ। किन्तु मुझसे बड़े और विद्वान शंकराचार्य तक पड़े हैं। उनके साथ और भी संन्यासी थे। जो पुराने झगड़े नरम और गरम दल के कांग्रेस के लक्ष्य को लेकर थे उन्हीं के अनुसार वे हस्ताक्षर से इन्कार कर रहे थे।

पीछे एक चलते-पुर्जे सज्जन ने जिनका नाम भूलता हूँ, और जो उन्हें प्रतिनिधि बनाने के लिए बहुत ही उत्सुक थे, यह कह के उन्हें राजी किया कि आप तो कांग्रेस के लक्ष्य पर हस्ताक्षर करके ऐसा कहते हैं कि यही उसका ध्येय हैं। मगर उस ध्येय को आप स्वीकार कर लेते हैं यह उस हस्ताक्षर का मतलब कैसे हो जाता हैं? जो लोग उसे बदलना चाहते हैं वह भी तो आखिर कांग्रेस में बिना उस पर हस्ताक्षर किये घुस नहीं सकते। फलत: उसे बदल भी नहीं सकते। इसलिए यह तो केवल कायदे-कानून की पाबन्दी (formality) मात्र हैं। इस पर उन्होंने हस्ताक्षर कर दिया। पीछे तो कराची में मौलाना मुहम्मद अली आदि सात नेताओं पर, जिन्हें कराची के सात 'Karachi seven' कहने की पीछे प्रणाली हो गयी थी, जब खिलाफत की बात को लेकर मुकद्दमा चला था तो उनमें एक यह भारती कृष्णतीर्थ भी थे। यह खुशी की बात थी। यह देश के सौभाग्य की सूचना थी कि मुसलमानों के धर्म की रक्षा के लिए हिन्दुओं का धर्माचार्य शंकराचार्य जेल जाये।

परन्तु कुछ दिनों बाद जेल से लौटते ही वह राजनीति से विरागी होकर फिर मठ और गद्दी के झगड़े में बुरी तरह जा फँसे। यहाँ तक कि राजनीति का नाम ही छोड़ दिया। हालाँकि साम्राज्य के बाहर तो क्या भीतर वाला भी स्वराज्य अभी नजर में भी न आता था। न जानें इस बात ने उनके दिल को कभी ईधर आकर मसोसा भी या नहीं।

सन 1924 ई. वाली प्रसिद्ध अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की जो बैठक अहमदाबाद में हुई थी उसमें मैं भी शामिल था। वहीं एक दण्डी से, जो काफी चलते-पुर्जे थे, भेंट और बातें हुईं। उन्होंने कहा कि जेल से लौटने पर भारती कृष्णतीर्थ से हम लोग प्रायश्चित्त करायेंगे कि क्यों जानबूझकर जेल गये। अपने सीधे विश्वास के करते उनकी यह बात मानना मेरे लिए असम्भव था कि वह प्रायश्चित्त करेंगे। उन्हें ऐसा कमजोर मैं नहीं समझता था, लेकिन उस दण्डी संन्यासी की दृढ़तापूर्ण बात ने सूचित किया कि मामला कुछ बेढब जरूर हैं। पीछे तो मैंने सुना कि जेल से लौटकर उनने शायद प्रायश्चित्त भी किया था। कदाचित वह राजनीति में जाने के महापाप का ही प्रायश्चित्त था। इसीलिए उससे अलग भी हुए।

नागपुर में यह भी देखा कि विषय समिति के सदस्यों के चुनाव के लिए बड़ी सरगर्मी हैं। क्योंकि पुरानी नियमावली के अनुसार कांग्रेस के अधिवेशन के ही समय प्रतिनिधियों में से ही कुछ लोगों को चुनकर विषय समिति बनती थी। इसीलिए हर प्रान्त वाले पार्टी के इस विचार से व्यस्त थे कि अमुक दल के विचार के ही लोग चुने जाये। और प्रान्तों की तो बात नहीं जानता। मगर बंगाल के प्रतिनिधि जब एकत्र होकर अपने प्रान्त के लिए मेम्बरों को चुन रहे थे तो खूब हाथापाई हुई। कुर्सियाँ भी चलीं। कुछ के सिर फूटे भी, देशबन्धु पार्टी वाले चाहते थे कि उनके ही समर्थक चुने जाये न कि गांधीजी के विचार के अनुसार असहयोग के समर्थक। दास साहब असहयोग के पक्ष में तब तक न थे। हालाँकि कांग्रेस का अधिवेशन पूर्ण होने के पहले गांधीजी से उनका कोई समझौता हो गया, ऐसा मालूम पड़ा।

उस अधिवेशन के अध्यक्ष थे सलेम (मद्रास प्रान्त) के पुराने जनसेवक चक्रवर्ती विजय राघवाचार्य। थे वह पुराने नरम दलियों में ही। देखा कि उनके सिर पर आचारी वैष्णवों का लम्बा तिलक लगा हैं। उनके डेरे में खाने-पीने में पूरा-पूरा पर्दा आचारियों जैसा ही था। छुआछूत भी हू-ब-हू वैसी ही थी। पर्दे में बैठकर ही भोजन करते थे जैसा सभी आचारी करते हैं। अपने पुराने विचारों के अनुसार उन्होंने असहयोग का विरोध ही अपने भाषण में किया। भाषण छपा हुआ था। मगर वह तो नक्कारखाने में तूती की आवाज थी। कांग्रेस अधिवेशन में तो असहयोग का प्रस्ताव प्राय: सर्वसम्मति से ही पास हुआ था। विरोध का तो पता ही न लगा, सिवाय एकाध के जिसका उल्लेख आगे हैं। मैंने यह भी देखा कि कांग्रेस के अध्यक्ष समय के उपयुक्त न थे। वह उस विचारधारा के समर्थक थे जिसका समय बीत चुका था। इसीलिए नागपुर के बाद अध्यक्ष महाराज एक प्रकार से लापता से रहे। नाम भी कभी शायद ही सुनाई पड़ा।

वहीं पर मैंने मुहम्मद अली जिन्ना साहब को पहले पहल देखा। वहाँ से जो वह कांग्रेस से गायब हुए सो आज तक उन्हें देखने का मौका मुझे तो नहीं ही लगा। अब जमाना बदला था। अधिकांश लोग कुर्त्ता, टोपी, धोती वाले ही कांग्रेस में थे। मगर जिन्ना साहब बाकायदा हैंट, कोट, पैण्ट आदि से सजे हुए थे। उन्होंने भर पेट असहयोग का विरोध किया। उनका भाषण अंग्रेजी में हुआ। उन्होंने उससे होने वाली हानियों को विस्तार के साथ बताया, यह भी कह दिया कि असहयोग का प्रस्ताव पास हो जाने पर हमारे जैसों के लिए कांग्रेस में गुंजाईश रही नहीं जाती। हुआ भी वैसा ही। केवल वही नहीं, किन्तु उन्हीं के साथ कांग्रेस के पुराने नरम दलीय नेता सबके-सब कांग्रेस से सदा के लिए अलग हो गये। उन्होंने अपनी एक अलग संस्था बनायी जिसका नाम अखिल भारतीय लिबरल फेडरेशन पड़ा।

कांग्रेस ने पुरानी दुनियाँ छोड़ अब नयी में पदार्पण किया। नागपुर ने मुल्क की विचारधारा को सोलहो आने विपरीत दिशा में बहा दिया। नागपुर के बाद जो उमंग और जोश की लहरें मुल्क में हिलोरें मारने लगी थीं, वह वर्णनातीत थीं। मुल्क ने कांग्रेस के जरिये न सिर्फ स्वावलम्बन का मार्ग पकड़ा, प्रत्युत उसके इतिहास में यह पहला ही मौका था जब देश की सबसे बड़ी राजनीतिक संस्था ने अपने राजनीतिक लक्ष्य की सिद्धि के लिए देश की मूक और पीड़ित जनता की ओर-किसानों, मजदूरों और कमाने वालों की ओर-अपना मुँह फेरा और निश्चय किया कि बिना उनकी सहायता के, बिना उन्हें सामूहिक रूप से राजनीति में लाये, देश की राजनीतिक माँग की पूर्ति हो नहीं सकती। उनने साफ स्वीकार किया कि बिना उस जनता के सक्रिय सहयोग के न तो कांग्रेस और न आजादी की लड़ाई ही जबर्दस्त होगी और न सरकार ही दबेगी। मेरे लिए खुशी की बात थी कि ठीक ऐसे ही समय में कांग्रेस में और राजनीति में भी पहले पहल शामिल हुआ। यही परिस्थिति और यही वायुमण्डल मेरे स्वभाव के अनुकूल था भी। संन्यासी होते हुए भी 'भिक्षां देहि' का तो मैं सदा से ही विरोधी रहा हूँ।

कांग्रेस के इस मार्ग-परिवर्तन और जनता की ओर जाने का परिणाम भी ठीक ही हुआ। दुनियाँ ने और अपनी अपारशक्ति के मद में मत्ता अंग्रेजी सरकार ने भी आश्चर्यचकित नेत्रों से देखा कि कांग्रेस एक साल के भीतर ही क्या से क्या हो गयी-उसकी शक्ति अप्रतिम हो गयी! जो कांग्रेस सदा सरकार के सामने झुकती और हाथ जोड़कर अर्ज करती थी वही सरकार को झुकाने वाली समझी जाने लगी। कमाने वाली जनता का किसानों और मजदूरों का-आश्रय लेने का सदा यही परिणाम होता हैं। यह जनता चाहे स्वयं भीख ही क्यों न माँगती हो। फिर भी जो इसका आश्रय लेते हैं उन्हें शिव की तरह सब तरह से पूर्ण और शक्तिशाली बना देती हैं। यही बात कांग्रेस के बारे में भी हुई। फलत: भारत के वायसराय लार्ड रीडि को सन 1921 ई. के दिसम्बर में कलकत्ता में कहना पड़ा कि मैं हैंरत में हूँ, परेशान हूँ ‘I am puzzled and purplexed’!

(शीर्ष पर वापस)

(3)असहयोग में-बक्सर में

नागपुर से लौटकर मैं खगड़िया जाने को था। तय था कि वही हमारा कार्यक्षेत्र होगा। आल इण्डिया कांग्रेस कमिटी के कार्यालय में हमने अपना पता प्रतिनिधि की हैंसियत से वहीं का दिया था भी। हमारे साथ कुछ किताबें थीं जिन्हें हमने वहीं भिजवाया भी। लेकिन बक्सर (शाहाबाद) के कुछ परिचित मित्रों ने आग्रह करके मुझे कुछ ही दिनों के लिए बक्सर चलने को इसलिए कहा कि कौंसिल के चुनाव क्षेत्र की एक जगह उस इलाके में खाली थी और महाराजा हथुवा उम्मीदवार थे। वर्तमान प्रान्तीय असेम्बलियों की ही जगह तब कौंसिलें थीं। कांग्रेस ने उनके बहिष्कार का निश्चय किया था। महाराजा हथुवा कांग्रेस की बात न मान कर खड़े थे। इसीलिए उनका विरोध करना जरूरी था, ताकि लोग वोट न दें। मैं तैयार हो गया। सोचा कि वह काम खत्म करके खगड़िया चला जाऊँगा। फलत: बक्सर पहुँचकर काम में लग गया। देहातों में उनके विरुद्ध प्रचार शुरू कर दिया। बक्सर और भभुआ दो सबडिवीजनों से उनका चुनाव था। आरा शहर के लोगों ने कुछ दिल्लगी की और महाराजा के खिलाफ एक धोबी को खड़ा कर दिया। वह चुन भी लिया जाता और महाराजा हार जाते यदि धोबी के लिए कांग्रेस का कुछ भी प्रयत्न हो जाता, मगर बायकाट का सिद्धान्त पास हो जाने के कारण हम लोग उस ओर इशारा भी कैसे कर सकते थे? फिर भी उसके खड़े रहने मात्र से ही महाराजा पूरे अपमानित एवं परेशान हुए।

मैं उस काम में पड़ा तो दिलोजान से। दिन-रात कोई दूसरा काम न था। देहातों में घूमकर कांग्रेस का सन्देश सुनाता और बताता कि उसके अनुसार कोई भी न तो वोट दे और न खड़ा हो और अगर महाराजा नहीं मानते तो उन्हें एक भी वोट नहीं मिलना चाहिए। पर दिक्कत यह थी कि इतने लम्बे इलाके में न तो ज्यादा घूमने वाले थे और न पैसा या सवारी आदि का प्रबन्ध ही था। नागपुर से लौटते ही तो यह काम पड़ा और अभी लोगों में वह गर्मी आयी न थी। वह भी तो कुछ दिन बाद आयी। समय भी कम था। फलत: मुझे ही सब जगह और खास कर भभुआ के इलाके के रामगढ़ थाने में तथा दूसरी जगहों में जाना था बक्सर का काम पूरा करके। लेकिन समयाभाव से कहाँ-कहाँ जाता?

आखिर चुनाव के ठीक पहले दिन मैं खीरी और वहाँ से मानिकपुर गया। फिर शाम को बैलगाड़ी पर बैठ रातों-रात रामगढ़ जाने की बात तय पायी। बैलगाड़ी भी वहाँ तक जा न सकती थी। सिर्फ दुमदुमा तक जा सकी। उसे वहीं छोड़ा पैदल दो-एक आदमियों के साथ चले और सुबह 8 बजे के करीब रामगढ़ पहुँचे। स्कूल में ठहर के कुछ खाया-पिया। फिर गाँव में गये। समय तो था नहीं। शायद 10 ही बजे से वोट होने को था। गाँववालों से मीटिंग करने को कहा। मगर मीटिंग होती कैसे? आखिरकार एक उपाय सूझा। एक ने कहा कि बीच गाँव में सभा स्थान पर एक धौंसा (नगाड़ा) रखा हैं और कायदा यह हैं कि उसे जोर से बजाने पर जो सुनेगा वही दौड़कर पहुँचेगा। वह धौंसा खतरे की घण्टी (Alarm) का काम देता था। वही किया गया। बस, बात की बात में लोग आ धमके हमने अपना मतलब उन्हें समझाया। फिर तो बिजली सी दौड़ गयी। लोग वोट पड़ने की जगह थाने के चारों ओर कुछ दूर सभी रास्तों पर खड़े हो गये कि वोटरों को रोका जाये। मैं भी जा डँटा।

पुलिस तो निश्चिन्त थी और समझती थी कि यहाँ तो कुछ होगा नहीं, सब ठीक हैं। जब उसने एकाएक यह रंग देखा तो घबरायी। सब-इंस्पेक्टर ने चौकीदार या कान्स्टेबुल से कहलाया कि स्वामी जी यहाँ से चले जाये। परन्तु मैं कब जाने वाला था? तब दारोगा स्वयं आये और चले जाने को कहा। धमकाया भी। मैंने कहा कि लिखकर आज्ञा दीजिये तभी सोचूँगा कि क्या करना चाहिए। फिर तो वे सहमे और अपना सा मुँह लेकर चलते बने। मैं सदल-बल डँटा रहा। जो भी वोटर या दर्शक आते, पहले मेरे ही पास कौतूहलवश आते जब मैं समझा देता तो सभी लौट जाते। मुझे ख्याल नहीं कि महाराजा को दो-चार भी वोट मिले या नहीं। हालाँकि मैंने उस समय भी देखा कि देहात के कुछ चलते-पुर्जे टुकड़खोर इसके लिए आकाश-पाताल एक कर रहे थे। यह ठीक हैं कि धोबी हार गया और महाराजा चुने गये। कहीं से कुछ-न-कुछ वोट तो मिल ही गये।

वहाँ से लौटकर मैं बक्सर आ गया। वहीं पर मास्टर साहब कहे जाने वाले श्री जयप्रकाश लाल जी के साथ ठहरा। अब मैं चाहता था कि खगड़िया चला जाऊँ। लेकिन कुछ विशेष परिचय हो जाने से, और कांग्रेस प्रोग्राम के अनुसार एक करोड़ कांग्रेस के मेम्बर, एक करोड़ रुपये तिलक स्वराज्य कोष में और एक लाख चरखे, ये तीनों चीजें मुल्क में जुलाई मास बीतते-न-बीतते पूरी हो जाये यह प्रश्न आ जाने से कुछ ऐसा हो गया कि उसी में फँसकर जाना असम्भव हो गया। मैं चरखे के काम में लग गया। सिमरी (डुमराँव) थाने से सस्ते-से-सस्ते चरखे बनवाकर बक्सर लाया और प्रचार जारी किया। इस समय बक्सर के कई बनिये उस काम में पड़ गये। उनने काफी सहायता दी। लेकिन बाबू भगवान दास में कुछ ऐसा परिवर्तन हुआ कि वह मुझे अब तक भूला नहीं। वे बड़े ही शौकीन थे। कई बक्सों में उनने तरह-तरह के कीमती विलायती कपड़े भर रखे थे जिन्हें समय-समय पर अपने काम में लाते थे। लेकिन सब छोड़कर खद्दर का व्रत कर लिया। उनने उन सब कपड़ों की होली जला दी।

उस समय तो गांधीजी इस होली के बड़े ही हामी थे। उन्हें या उनके अनुयायियों को ऐसी बातों में हिंसा की गन्ध बिलकुल ही नहीं मालूम पड़ती थी। मगर आज तो जमाने ने ऐसा पलटा खाया हैं कि साम्राज्यवाद के नाश, पूँजीवाद के नाश तथा जमींदारी प्रथा के नाश में और इनके पुतले जलाने में भी उन लोगों को हिंसा की बू आने लगी हैं। मालूम होता हैं आजकल उन लोगों की नासिका बहुत ही तेज हो गयी हैं! पहले ऐसी न थी! संसार परिवर्तनशील हैं!

यहाँ पर यह कह देना अनुचित न होगा कि मैं कट्टर गांधीवादी के रूप में ही कांग्रेस में और राजनीति में शामिल हुआ। अत: गांधीजी के हर एक आदेशों का पालन अक्षरश: करता करवाता था-कम-से-कम करवाने की कोशिश भरपूर करता था। इसलिए स्वयं चरखा भी चलाना फौरन सीखकर कातना शुरू कर दिया। पीछे तो तकली शुरू कर दी। इस प्रकार चरखा चलाने की जो प्रतिदिन की पाबन्दी अपने ऊपर रखी थी वह इससे अच्छी तरह पूरी होने लगी। मैं यह आशा करता था कि जो पढ़े-लिखे और समझदार लोग कांग्रेस में शामिल होंगे वह तो गांधीजी के आदेशों और उनके बताये नियमों की पाबन्दी अवश्य ही करेंगे। लेकिन पीछे जब जेल में गया तब तो भयंकर निराशा हुई थी। पर उसके पहले भी तिलक स्वराज्य कोष का धन एकत्र होते-न-होते असलियत का पता मुझे लगने लगा और मेरी आँखें खुलने लगीं।

काम की हालत यह थी कि जाड़ा, गर्मी और बरसात की परवाह कतई न कर दिन-रात गाँव-गाँव घूमता रहा। आज भी उन गर्मियों की जलती लू की घटनाएँ याद हैं। पाँव की हालत यह हो गयी कि जूते मैंने छोड़ दिये। असल में चमड़े के जूते तो पहले से ही छूटे थे। रह गये थे रोपसोल वाले वह भी छूट गये। वह अच्छे मिलते भी न थे। जो मिलते भी थे वह इस घुड़दौड़ में टिकते कहाँ? दस ही दिन में खत्म हो जाते और इस प्रकार पानी की तरह जूते में रुपये कौन बहाये? जनता का पैसा इस प्रकार क्यों खर्च किया जाये? आखिर गांधीजी का रास्ता तो तप का रास्ता ठहरा। तो फिर स्वयं कष्ट क्यों न भोगा जाये? बस, इन्हीं ख्यालों ने जूतों से भी असहयोग कराया। परिणाम यह हुआ कि गर्मियों के दिनों में भी पाँवों में लम्बी दरार जैसी बिवाई फटी और चलना असम्भव हो गया। कभी-कभी उसमें मोम डालकर आग से सेंकता। इससे जरा दर्द कम होने से आराम मिलता। तब घूम-फिर सकता था। यह प्रक्रिया न जाने कितने महीने जारी रही। बेशक, सभी बातों में सिमरी के पं. रामदर्श पाण्डेय, पं. रामसुभग पाण्डेय आदि जवानों ने इस समय मेरा पूरा साथ दिया।

लेकिन हमने अनुभव किया इस असहयोग की पवित्र धारा में स्नान करने के लिए न जाने कितने पुराने पापी घुस आये। वह ऐसे बगुला भगत और महात्मा बन गये कि लोगों को आश्चर्य भी हुआ और भक्ति भी हुई। बहुतों ने समझा कि गांधीजी के जादू ने काम किया जिससे इन भलेमानुसों के दिल भी पलट गये। ये लोग इतने अनशन और व्रत भी करने लगे कि ताज्जुब होता था। कितनों ने तो गैरिक वस्त्र धारण कर लिया! ठीक ही हैं। सामूहिक आन्दोलन में सभी प्रकार के लोग आ ही जाते हैं। उन्हें रोक कौन सकता हैं? बहती गंगा में नहाना कौन नहीं पसन्द करता? परिस्थिति का कुछ ऐसा प्रभाव भी हो जाता हैं कि पापियों की हिम्मत नहीं होती कि अपना पापाचार जारी रखें। वायुमण्डल की यही तो खूबी हैं। लेकिन यह बात-यह जादू-यह असर ज्यादा दिन टिकता नहीं। आखिर श्मशान में मुर्दा जलाने के समय वैराग्य तो होता ही हैं। मगर वह स्थायी तो होता नहीं। ठीक यही बात वायुमण्डल के वशीभूत होकर काम करने वालों की हैं। वह भी पीछे कुछ ही समय गुजरने पर दूसरा मार्ग-वही पुराना चिर-परिचित मार्ग-अपनाने लगते हैं। इसे कोई शक्ति रोक नहीं सकती।

थोड़े की दिनों के बाद मैंने देखा कि इस प्रकार के लोग अपनी करवटें बदलने लगे। अपने विकराल रूप की सूचना देना उनने शुरू कर दिया। लेकिन मेरा काम चलता रहा और सबों का सम्मिलित प्रयत्न नहीं रुका। आखिर में जून आते-न-आते तिलक स्वराज्य कोष की पूर्ति में सभी पिल पड़े। बक्सर ही तो मेरा कार्य क्षेत्र रहा। शहर छोटा हैं। वहाँ कोई व्यापार भी नहीं चमकता था। साधारण व्यापारी थे। फिर भी आरा शहर के सामने उसने बाजी मार ली। मुझे याद हैं कि आखिरी तारीख 31 जुलाई को श्री राजेन्द्र बाबू का दौरा आरा और बक्सर में इसीलिए हुआ। अगर मैं भूल नहीं करता तो उन्हें आरे से प्राय: तीन सौ और बक्सर से आठ सौ या एक हजार रुपये मिले थे! ये रुपये तो उनके साथ ही चले गये।

मगर बीच-बीच में जो रुपये वसूल होते थे वह कुछ प्रान्तीय आँफिस में जाते और कुछ जिले, सबडिवीजन या थाने में ही रह जाते। मैंने देखा कि इन्हीं रुपयों को लेकर गड़बड़ी शुरू हुई। कुछ भलेमानसों ने ईधर-उधर उड़ाना शुरू कर दिया। यह बात मुझे बर्दाश्त न थी। मैं तो सार्वजनिक पैसे को सबसे अधिक पवित्र चीज मानता हूँ। लेकिन पैसे आते ही लोगों ने अपना रूप पलटा। फलत: मुझसे और वहाँ के अनेक कार्यकर्त्ताओं से तनातनी शुरू हो गयी। उसका अन्त तब हुआ जब मैंने ऊब कर नवम्बर के अन्त में बक्सर छोड़ ही दिया। मैं गाजीपुर चला गया। वहाँ वाले बहुत ही पीछे पड़े थे। मैंने भी सोचा कि यहाँ रह के खटपट करते रहना और काम में बाधा देखना ठीक नहीं। वहीं चलो।

सन 1921 ई. के गर्मियों में मौलाना मुहम्मद अली के साथ-साथ गांधीजी का दौरा युक्त प्रान्त में हो रहा था। वह बिहार भी आने को थे। हमने बहुत आग्रह और तैयारी के साथ उन्हें बक्सर बुलाया। प्रान्तीय नेता इस शर्त पर तैयार हुए कि मोटर से ही उन्हें आरा पहुँचाया जाये। कम-से-कम दो अच्छी मोटरें चाहिए थीं। बक्सर वालों ने बात-की-बात में कई सौ रुपये इसके लिए एकत्र कर लिये। दो मोटरें किराये की ठीक हो गयीं। कोशिश की गयी कि स्टेशन पर वह कब उतरेंगे यह सूचना किसी को न दी जाये। बात भी ऐसी हुई। मगर अन्दाज से ही लोग रात के 3 बजे ही स्टेशन पर आ डँटे। अपार भीड़ हो गयी। वे लोग सभी ठहराये गये श्री चुन्नी राम जी के कोठे पर। सभा का प्रबन्ध शहर से हट के पूर्व बाग के उत्तर मैदान में था। अन्दाज था कि सवेरे ही 8 बजे तक सभा करके वहाँ से चले जायेगे। फलत: लोग आधी रात से ही सभास्थान में एकत्र होने लगे। सुबह तक भारी भीड़ हो गयी। बिना पाखाना, पेशाब किये ही लोग प्रतीक्षा में थे कि जल्द खत्म होने पर लौटेंगे।

मगर गांधीजी ने एकाएक वज्रपात सा कर दिया। उनने ठीक सुबह कह दिया हैं कि आज गुरुवार होने से चार घण्टे तक 'नवजीवन और यंग इण्डिया' के लिए लेख लिखेंगे। अत: सभा दोपहर के पूर्व न हो सकेगी। मेरे सिर पर आफत थी। लोग गर्मियों के कारण प्यास और भूख से तड़प रहे थे। तिस पर तुर्रा यह कि कितनों को नहाने-धोने या पाखाने तक का मौका न मिला था। स्थान से हटना असम्भव था अगर हटते तो पीछे दूर खड़े होने के कारण दर्शन ठीक-ठीक कर न सकते। फलत: सबने मुझे ही कोसना शुरू किया कि आपने ही धोखा दिया कि सुबह सभा होगी। मेरी दलील तो कोई सुनने को रवादार न था। मैं भी कभी यहाँ कभी वहाँ दौड़ता था। धूप के मारे लोग जल रहे थे। मैं भी विवश तलमल कर रहा था। पर करता क्या?

इतने में बलिया वालों ने एक अलग तूफान बरपा किया। गांधीजी का प्रोग्राम तो वहाँ के लिए था नहीं। पर, वे लोग खामख्वाह उन्हें ले जाने पर तुले थे। जब कुछ उपाय न देखा तो गांधीजी के डेरे के सामने वाली सड़क के दोनों छोरों पर सड़क घेर कर सैकड़ों आदमी लोट गये और कहा कि जब तक गांधीजी चलने को वचन न देंगे हम न हटेंगे, उनकी मोटर जाने न देंगे। गांधीजी मानने वाले थे नहीं। वे लोग भी सुनने वाले न थे। इससे सभा में और भी देर होने लगी। मेरे सिर और भी आफत थी। आखिर गांधीजी ने जब यह वचन दिया कि बलिया जरूर चलेंगे, मगर पीछे, अभी नहीं, तब कहीं वे लोग हटे और वे सभा में जा सके। मगर दोपहर से ज्यादा हो रहा था और लोग ऊब चुके थे। फलत: गांधीजी के सभास्थान में पहुँचते ही हो-हल्ला मचा। इससे किसी का भी भाषण न हो सका।

ठीक 17 नवम्बर की बात हैं। बादशाहजादा साहब बम्बई में जहाज से उतरने वाले थे। उन्हें यहाँ उस नवीन विधान को लागू करना था जिसका बायकाट कांग्रेस ने किया था। इसलिए सर्वत्र हड़ताल की बात थी। बलिया (ददरी) के मेले में हम लोग थे। समस्या पेचीदा थी। मेले में हड़ताल हो तो हमारी सफलता समझी जाये। लेकिन मेला तो बहुत बड़ा होता हैं। फिर भी इतना प्रचार किया गया कि उस दिन एक दूकान भी न खुली! एक डिप्टी साहब सदल-बल घूम रहे थे यही देखने के लिए कि हड़ताल कैसी हैं। एक पानवाले से पान लेना चाहा तो उसने साफ इन्कार कर दिया। फिर चूड़ीवाली एक बुढ़िया के पास जाकर कपड़े के नीचे ढँकी चूड़ियों पर (क्योंकि हड़ताल के करते उसने उन्हें ढँक दिया था) उनने अपनी छड़ी से धीरे से ठोंका और कहा कि इन्हें बेचती क्यों नहीं? ढँक के क्यों रखे हैं? बुढ़िया ने इस प्रकार झल्ला कर जवाब दिया कि उन्हें काट खायेगी। फिर तो डिप्टी साहब भक्कू बन गये। हमने अपनी पूरी सफलता मानी। आखिर में तीसरे पहर के बाद मुनादी करवा दी गयी कि अब दूकानें खुल सकती हैं और लोग खाने-पीने की चीजें खरीद-बेच सकते हैं। तब कहीं जाकर दूकानें खुलीं।

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(4)भारी भूल

उन्हीं दिनों ब्रह्मपुर के मेले में मुझे एक बड़ा ही कटु अनुभव हुआ और हिन्दुओं की गोरक्षा की पोल मैंने बखूबी समझ ली। बक्सर सबडिवीजन के ब्रह्मपुर, जिसे काँटब्रह्मपुर भी कहते हैं और जो पुलिस स्टेशन भी हैं, में फाल्गुन और वैशाख के कृष्णपक्ष के अन्त में, शिवरात्रि को, बहुत अच्छा मेला लगता हैं। वहाँ पशुओं की बिक्री काफी होती हैं। घोड़े, भैंसें, गायें तथा बैल खूब जमा होते और बिकते हैं। वहीं के क्षत्रिय जमींदारों की जमीन में मेला लगने से वे काफी पैसे भी कमाते हैं। फी पशु कुछ पैसे वे वसूल करते हैं। प्रधानतया पशुओं का ही वह मेला माना जाता हैं।

वहीं पर तालाब के किनारे बाबा ब्रह्मेश्वर या वर्मेश्वरनाथ का प्रसिद्ध मन्दिर हैं। उसके पुजारी भी खूब हाथ गरमाते हैं। क्योंकि जितना ही मेला जमेगा उतने ही अधिक आदमी आयेंगे और उतना ही ज्यादा चढ़ावा उन्हें मिलेगा-शिव बाबा पर उतनी ही ज्यादा (पूजा) चढ़ेगी। इसीलिए धर्म के ठेकेदार पुजारी लोग, जो ब्राह्मण कहे जाते हैं और क्षत्रिय जमींदार, जो हिन्दुओं की पोथियों में धर्मरक्षक कहे गये हैं-ये दोनों ही चाहते हैं कि मेला बड़े से बड़ा हो। इसका सीधा अर्थ हैं कि पशु ज्यादा बिकें। यह भी तयशुदा बात हैं कि पशुओं में ज्यादातर गाय और बैल ही रहते हैं।

पैसा कमाने वाले इन दो दलों के सिवाय एक और भी दल हैं जो वहाँ से कुछ दूर उत्तर गंगा तट पर या तो गंगा में नाव चलाता या घाट का ठीका गवर्नमेण्ट से या डि. बोर्ड से लेता हैं। ठीकेदार और मल्लाह दोनों ही चाहते हैं कि जितने ज्यादा पशु नाव के द्वारा पार होंगे उतना ही ज्यादा पैसा हमें खेवा के रूप में मिलेगा। इसलिए पशुओं का मेला उस दल के फायदे का हैं। वह दिल से मेले में ज्यादा पशु चाहता हैं। उसी दल के जैसा एक चौथा दल पशुओं के व्यापारियों का हैं जो दूरदराज से झुण्ड के झुण्ड गाय-बैलों को खरीद कर मेले में लाता और इस प्रकार उनकी खरीद बिक्री से फायदा उठाता हैं। इसलिए यह भी स्वभावत: मेले की तरक्की चाहता हैं जिसका पुनरपि साफ अर्थ हैं ज्यादा गाय-बैलों की बिक्री। मैंने देखा कि सारन और खास कर चम्पारन जिले के व्यापारी झुण्ड के झुण्ड पशुओं को गंगा पार करके उस मेले में लाते हैं।

अब दो दल और रह जाते हैं जो इस पशु बिक्री के समर्थक हैं। एक तो आस-पास की देहात के खरीद-बिक्री करने वाले या ऐसे लोग भी जो गिरोह के गिरोह पशु खरीद कर दूसरी देहात या और मेलों में बेचते हैं। सामान्यत: तो देहात के लोग आसानी से मेले में अपने गाय-बैलों को बेच-खरीद लेते हैं। लेकिन जिस प्रकार बेचने वाले व्यापारी पशुओं के दल लाते हैं उसी प्रकार ऐसे खरीदार भी होते हैं जो वहाँ से खरीद कर अन्यत्रा बेचते हैं और इस तरह पैसे कमाते हैं। दूसरा दल कसाइयों का हैं जो आसानी से बेखटके मेलों में ही गाय-बैल खरीद कर कसाईखानों में बेचता हैं। उसके लिए मेले से बाहर खरीदना शायद ही सम्भव हो। उसमें खतरे और दिक्कतें भी हैं। चोरी से खरीदना होगा नाम बदलकर। खर्च भी ज्यादा पड़ेगा। परेशानी भी खूब होगी। कहीं पता लग गया तो लूटपाट, मारपीट और खून खराबी का भी डर हैं। इसलिए ये लोग भी मेलों की तरक्की चाहते हैं।

सबके ऊपर सरकार हैं जो इन मेलों की रक्षक बनी बैठी हैं। उसे यह भी देखना हैं कि कंटोन्मेंटों (फौजी छावनियों) में गोरे सिपाहियों को बराबर मांस मिल सके। इसलिए जहाँ वह एक ओर मेले की रक्षा चोर-बदमाशों से करती हैं, ताकि वह बेखटके खरीदकर पशुओं को छावनियों में पहुँचाया करें। अगर ये मेले न हों तो सरकार के लिए भी एक पहेली खड़ी जो जाये कि छावनियों के लिए पशु कहाँ से कैसे खरीदे जायेगे। इस पहेली को सुलझाना उसके लिए भी आसान नहीं, अत्यन्त कठिन, वरन असम्भव सी बात हैं। इसलिए वह भी स्वभावत: मेलों की खैर मनाती ही हैं। इस प्रकार इन पशुमेलों के समर्थक पूरे सात दल हैं।

ऐसी परिस्थिति में मैंने नासमझी से सोचा कि आज हिन्दू-मुसलिम मेल का युग हैं और यह गाय तथा कसाई का सवाल ही सबसे बड़ा बाधक इस मेले में हैं। क्योंकि तब मस्जिद के सामने बाजा और मन्दिर में पूजा, आरती या घड़ियाल बजाने का प्रश्न उठा ही न था और अगर कहीं उठा भी हो तो किसी को उसका आम पता न था। यह तो पीछे उठा हैं। यह असहयोग युग के बाद की बात हैं जब 1924 में और उसके बाद शुद्धि और तंजीम की विकट समस्याएँ आ खड़ी हुईं। उसी समय उन्होंने इन पहेलियों को जन्म दिया जो शुद्धि और तंजीम के झगड़े खत्म हो जाने के बाद भी नहीं सुलझी हैं। प्रत्युत प्रतिदिन पेचीदा बनती जा रही हैं।

इसीलिए मैंने सोचा और साथियों से राय की कि कोशिश करके इस सवाल को हल कर दिया जाये। राय बैठ गयी और हमने आसपास के जिलों को भी खबर भेज दी कि आप लोग भी कोशिश करके लोगों को अपने-अपने जिलों में समझा दें, कि ब्रह्मपुर में गाय, बैल न लायें। मगर असली काम तो था हमारा शाहाबाद जिले में ही मेले के चारों ओर के इलाके में प्रचार करना। इसके बाद मेले के समय हमने उसके चारों तरफ के रास्तों पर मेले से कुछ दूर कसके पिकेटिंग करवाई कि कोई भी आदमी गाय-बैल मेले में न ला सके। उधर हमने अपने स्वयंसेवकों के दल के दल मेले में लगा दिये कि जो पशु आ भी जाये उन्हें कसाइयों को खरीदने न दिया जाये। इसका सीधा रास्ता हमने यह निकाला कि यत्न करके कसाइयों को जान लिया और उनके साथ-साथ अपने आदमी लगा दिये। जहाँ ये कसाई जाते वहीं पर धीरे से हमारे आदमी लोगों से कह देते कि यह कसाई हैं।

इस प्रकार हमने पूरी बन्दिश तो की। लेकिन अब हमारी दिक्कतें सुनिये। कसाई लोग बेखटके और बड़ी ही शान्ति से रोक लिये तो गये। मगर वे नफे के लिए आये थे और अब घर का पैसा खर्च करके लौटना उनके लिए मौत थी। उस पर खूबी यह कि सरकार और पुलिस उन्हें खरीदवाने के लिए तैयार थी और जरूरत होने से हमारे आदमियों की धरपकड़ भी करती। ऐसा हमें मालूम भी हुआ। मगर तब जब हमने किसी प्रकार कसाइयों को स्टेशन पहुँचा दिया। कसाई लोग डरते भी थे कि कहीं मारपीट न हो जाये। लेकिन पुलिस के बल पर हिम्मत भी रखते थे। इतना ही नहीं। हमने वहीं पर देखा कि कसाइयों के एजेण्ट ब्राह्मण और दूसरे हिन्दू थे जो माथे पर चन्दन की बड़ी टीका लगा तथा कंठी बाँध कर यह काम करते थे। हमने कइयों को पकड़ा भी था। इन एजेण्टों के बल पर भी कसाइयों को हिम्मत होती थी। हमें डर था कि यदि सरकारी पुलिस ने जोर देकर खरीद करवाई तो दंगा हो जायेगा और सारा गुड़ गोबर हो जायेगा। इसलिए हम भी डरते थे और कसाई भी। इस तरह वे लोग जैसे-तैसे राजी हुए कि कम-से-कम लौटने का टिकट तो कटवा दीजिये। क्योंकि नफा तो खत्म ही हैं। खैर, इतना भी तो हो। हमने भी गनीमत समझी और बड़ी दिक्कत से मेले में दो सौ से ज्यादा रुपये चटपट जमा कर उन्हें स्टेशन पहुँचाया तब कहीं साँस ली।

मगर इस बीच में जो असली संकट आया वही तो मजेदार हैं। हिन्दू एजेण्टों की बात तो मामूली थी। ज्यों ही हमने मेले के चारों ओर पिकेटिंग शुरू की, कि वहाँ के जमींदार हम पर आगबबूले हो गये। वे कहने लगे कि आप तो हमारा मेला तोड़कर हमारी आमदनी चौपट कर रहे हैं! मन्दिर के पण्डे अलग बिगड़े! उन्होंने हो-हल्ला मचाना शुरू किया कि जब गाय-बैल यहाँ आयेंगे ही नहीं तो आदमी क्या आयेंगे? फिर तो हमारा चढ़ावा ही जाता रहेगा, हमारी आमदनी ही घट जायेगी! इसलिए आप लोग हमारे शत्रु हैं। जो लोग झुण्ड-के-झुण्ड पशु लाते थे रोकने पर उनने अलग रोना-चिल्लाना शुरू किया कि बाप रे बाप, हजारों रुपये लगा कर हमने पशु खरीदे हैं। हम तो एक ही बार लौटाने पर उजड़ जायेगे और हमारे बाल-बच्चे मर जायेगे। उधर गंगा के किनारे घाट का ठीकेदार और मल्लाह कहते थे कि पशुओं की आमदनी ही तो असल चीज हैं। अगर आपने यही रोक दी तो हमारा तो दिवाला ही समझिये लड़के-बाले भूखों मरेंगे। इतना ही नहीं, घर-बार बेचकर हमें सरकार को ठीके का पैसा चुकाना पड़ेगा। इन सबों के सिवाय देहात के लोग अलग बिगड़ते थे कि हम लोगों का तो बराबर का प्रोग्राम ही खत्म हो रहा हैं। हमारी खरीद-बिक्री, जो निहायत जरूरी और आसान हैं, मिट्टी में मिल रही हैं। मेले के दूकानदारों की भी कुछ ऐसी ही हायतौबा थी। सरकार तो रंज थी ही और कलेक्टर साहब के रोष से उस बार हम लोग कैसे बचे यह भी एक कहानी ही हैं।

यह भी जान लेना चाहिए कि सरकार को छोड़कर, जो इतना खुल कर आगे आयी भी नहीं, शेष सभी ऊपर के बताये अच्छी तरह आगे आये और हमारे खून के प्यासे बन गये। खूबी तो यह कि वे सभी के सभी हिन्दू ही थे, सो भी ब्राह्मण क्षत्रियादि। यही लोग गोरक्षा और कसाई का तूफान बहुत मचाते हैं। अगर कसाई गौ खरीद ले तो इन्हीं का धर्म रसातल चला जाता हैं, इन्हीं के भगवान रंज हो जाते हैं और इन्हीं के लिए रौरव नरक का द्वार खुल जाता हैं! यही लोग गोरक्षा और गाय गुहार की पुकार दिन-रात मचाते रहते हैं। मगर इनने ही हमारे गोरक्षा के सर्वश्रेष्ठ मार्ग का जी-जान से विरोध किया। हम सबों को ही लाख समझाते रह गये कि आप ही के धर्म की बात हैं, जिसे आप ही पुकारते हैं। मगर सुने कौन? हमारी दलील, हमारी सरतोड़ कोशिश तो आँधी के सामने पंखे की हवा की तरह थी। फिर उसका असर क्यों होने लगा?

इसका कारण क्या था? यही न, कि धर्म और भगवान उनके सामने आये तो सही, रुपये-पैसे के खिलाफ, रुपये पैसे के विरोधी बन कर। इसीलिए उनका तिरस्कार हुआ। वे सँभलकर नहीं आये। उन्होंने और हमने भी यह नहीं सोचा कि किसके विरोध में खड़े हो रहे हैं। वही तो भारी भूल थी। छोटे धर्म और छोटे भगवान ने बड़े धर्म और बड़े भगवान-पैसे का-विरोध किया और पछाड़े गये। अध्यात्मवाद (Spiritualism) की भौतिकवाद (materialism) से जम के भिड़ंत हुई और अध्यात्म बुरी तरह पछाड़ा गया। उसे आगे के लिए कसके चेतावनी दी गयी कि खबरदार, ऐसी भूल फिर कभी न करना, नहीं तो नतीजा देखा न? मेरी तो आँखों का पर्दा ही खुल गया। मैंने साफ देखा कि धर्म का प्रश्न किस कदर बाहरी और दिखावटी हैं। यह कितने धोखे की चीज हैं। मेरी कट्टर धार्मिक भावना को बड़ी ठेस लगी और मैं तिलमिला गया।

यद्यपि यह एक ही दृष्टान्त धर्म की असलियत पर काफी प्रकाश डालने वाला था। तथापि उस समय मैंने उसे इतने व्यापक रूप में नहीं लिया। मैंने सिर्फ इतना ही परिणाम निकाला कि हिन्दुओं का गोरक्षा का प्रश्न ढोंग और फरेब हैं, दिखाऊ और बनावटी हैं। अत: इसमें कभी साथ नहीं देना चाहिए। मैंने यह भी मान लिया कि इस प्रकार गोरक्षा का प्रश्न निरी नादानी हैं और हिन्दू इसे कर भी नहीं सकते। मैंने इस गोहत्या का दोषी तब से सोलहों आने हिन्दुओं को ही मानना शुरू कर दिया और आज भी मेरी वह स्थिति ज्यों की त्यों हैं।

यह ठीक हैं कि वह घटना समस्त धर्म के नाम और वास्तविक रूप पर पूरा प्रकाश डालने वाली थी, न कि किसी खास धर्म के ऊपर। मैंने आगे चलकर यही समझा भी। मगर उस समय उसका इतना व्यापक निष्कर्ष निकालना मेरे लिए असम्भव था। एक तो धर्म का भूत पहले से ही सिर पर सवार था। दूसरे उसी धर्म-भावना से प्रेरित होकर राजनीति में आया था। तीसरे गांधीजी राजनीति को धर्म से अलग मानते ही न थे और इसीलिए उसके सभी पहलुओं को धार्मिक रूप दे रहे थे। और मैं था उन दिनों उनका कट्टर हिमायती। नियमित रूप से यंग इण्डिया पढ़ता था। इसलिए सहसा मेरे लिए यह असम्भव था कि पूरे धर्म के सम्बन्ध में ही वैसा निष्कर्ष उस घटना से निकालूँ।

सच बात तो यह हैं कि बाहरी दुनिया का उस समय वैसा पूरा और निकट से अनुभव भी मुझे न था। लेकिन पीछे तो अनुभव ने बताया हैं कि धर्म की वही हालत ही हैं। फलत: आज धर्म के बारे में मेरी विचित्र परिस्थिति हैं। एक ओर तो पचासों वर्षों का पूरा संस्कार हैं और उसी के साथ गीता मेरी रगों में भिनी हुई हैं। दूसरी ओर ठीक उसके विपरीत जीवन भर के अनुभव हैं, सो भी अत्यन्त निकट से। इसलिए आगे क्या होगा यह कह नहीं सकता। लेकिन यह ठीक हैं कि आज धर्म के सम्बन्ध की मेरी पुरानी धारणाएँ छिन्न और निर्मूल हो गयी हैं और उसके बारे में मेरे विचारों में क्रान्ति हो गयी हैं। उसके लिए जिस रूप में जैसा स्थान मेरे दिल में हैं उसका वर्णन अन्त में मिलेगा। फिर भी इतना तो ठीक ही हैं कि धर्म सार्वजनिक वस्तु नहीं हैं और न वह सबके लिए हैं भी। यह तो अपवाद-रूप ही किसी-किसी के लिए हैं, न कि नियम के रूप में। सो भी बिलकुल व्यक्तिगत चीज हैं। उसका भी रूप मैं कुछ निराला ही मानता हूँ जो प्रचलित धारणा से सर्वथा भिन्न हैं।

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(5)अहमदाबाद कांग्रेस

जैसा पहले कहा हैं, साल बीतते-न-बीतते मैं गाजीपुर चला गया और वहीं काम में लग गया। वहीं से हम कई साथियों के साथ अहमदाबाद कांग्रेस में शामिल होने के लिए रवाना हो गये। हमने रास्ते में कई बातें देखीं। एक तो जयपुर में उतर कर वहाँ का जेलखाना देखा। हमें यह देख कर खुशी और आश्चर्य दोनों ही हुए कि वहाँ के कैदी पशु बनाकर या अपमानित करके नहीं रखे जाते थे। उन्हें हमारी जेलों जैसे धारीदार कपड़े भी नहीं मिलते थे। गाँछिया, टोपी आदि न देकर धोती, गमछी दी जाती थी। वायुमण्डल ऐसा था कि वे अपने को उठा सकें, न कि और गिराते जाये जैसा कि ब्रिटिश-भारत की जेलों में होता हैं। सबसे बड़ी बात यह थी कि गलीचे, दरी आदि कारीगरी के ऐसे काम उन्हें सिखाये जाते थे कि बाहर जाकर दो-चार रुपये रोजाना आसानी से कमा सकें। ऐसा हमें बताया गया। हमने वहाँ की बनी चीजें देखी भी। यह भी कहा गया कि एक बार जो इस जेल से बाहर जाते हैं वे शायद ही फिर कभी आते हैं!

दूसरी बात यह थी कि रास्ते में हमारी गाड़ी जयपुर के आगे नहीं रुकती थी वहीं पंजाबियों का एक दल चट करताल आदि लेकर स्टेशन पर उतर पड़ता और, 'नहि रखनी सरकार जालिम, नहि रखनी' गीत गाने लगता। इस उमंग और तानसुर के साथ मस्ती में यह गीत वह लोग गाते थे कि दंग रह जाना पड़ता था। इससे स्टेशनों पर भीड़ एकत्र हो जाती थी।

कांग्रेस के अध्यक्ष देशबन्धु चितरंजन दास थे। मगर सरकार ने उन्हें पहले ही कैद कर लिया। फलत: हकीम साहब अजमल खाँ को सदारत करनी पड़ी। कांग्रेस में जोश की बात तो कहिये मत। लहरें उमड़ रही थीं। उसी अधिवेशन में सत्याग्रह के नियम और प्रतिज्ञा-पत्र पास हुए थे। वहीं मौलाना हसरत मुहानी ने कांग्रेस के ध्येय से (स्वराज्य) पद निकाल कर (पूर्ण स्वतन्त्रता) रखने का संशोधन पेश किया था जो गांधीजी की बातों का अन्ध भक्त था। अत: मुझे मौलाना की बात कुछ रुची नहीं। यह तो न जाने कितने दिनों के बाद ठीक जँची हैं और अब तो उतने से भी मेरा काम चलता नहीं दीखता। अब तो उस पूर्ण स्वतन्त्रता की भी पूरी सफाई चाहता हूँ। मौलाना वहीं पर मुसलिम लीग के अधिवेशन के अध्यक्ष थे। उसी पद से जो भाषण उन्होंने दिया उसी पर पीछे उन पर केस चला और वे कैद हो गये। आज की मुसलिम लीग में और तब वाली में जमीन-आसमान का अन्तर था। आज कवि के शब्दों में ''वह बुलन्दी यह तबाही, वह जलाल और यह जवाल'' उसके बारे में अक्षरश: चरितार्थ होता हैं।

गांधीजी का भाषण मैंने बहुत ही ध्यान से सुना, सुनने ही लायक था। टेबल पर बैठकर बोल रहे थे। सारा शरीर खास कर चेहरा सुर्खी लिये हुए था। मालूम होता था बड़ी गम्भीरता के साथ काल के रूप में कोई शक्ति सरकार को ललकार रही और चेतावनी दे रही हैं कि सँभल जाये। घण्टों बोलते रहे। पण्डाल में पूर्ण शान्ति बिराजती थी। उनका वैसा भाषण और वैसा चेहरा मैंने फिर कभी नहीं देखा। उनके एक-एक शब्द सरकार के लिए वज्र की तरह मालूम पड़ते थे। मालूम होता था कि कालाग्निरुद्र बोल रहा हैं, गर्ज रहा हैं और इसके बाद ही प्रलय लायेगा।

एक बात कहना मैं भूल ही गया। सरकार का रवैया दिसम्बर आते-न-आते बदल चुका था। क्रिमिनल लाँ एमेण्डमेण्ट कानून लागू करके उसने स्वयंसेवक भर्ती करने या बनने की मनाही कर दी थी। इसलिए जगह-जगह से लोग जिलों के मजिस्ट्रेटों को पत्र लिखने लग गये थे इस बात की सूचना के रूप में, कि हम स्वयंसेवक भर्ती करते और बनते हैं। सरकार को ललकारने का सोचा गया था। अभी शीघ्र ही युक्त प्रान्त की कांग्रेस कमिटी के 55 सदस्य मीटिंग के समय एक ही साथ पकड़े गये भी थे। कारण, वह गैरकानूनी संस्था करार दी गयी थी। इसलिए सरकार को ललकारना जरूरी हो गया था। हम जो तीन-चार आदमी गाजीपुर से डेलिगेट होकर अहमदाबाद गये थे उनमें कुछ ने रवाना होने के पहले ही मजिस्ट्रेट को यह सूचना भेज दी थी। बाकियों ने, जिनमें मैं भी था, ट्रेन से ही लिख भेजा। इसका परिणाम यह हुआ कि अहमदाबाद से लौटते ही मेरी जेल यात्रा की तैयारी हो गयी।

यहाँ जेल यात्रा की तैयारी के सम्बन्ध में यह भी लिख देना हैं कि मैंने जेल की तकलीफों को सोचकर उनके लिए अपने को पूर्व से ही, कई महीने से, तैयार किया था। अभी तक तो जेल का मौका आया ही नहीं था। सिर्फ लोगों की जबानी उसके कष्ट सुने थे। तदनुसार ही तैयारी की थी।

मेरी एक आदत पढ़ने के समय से ही थी। मैं सिर में सोने के समय कोई ठण्डा तेल, आम तौर से तिल का बराबर लगाया करता था। वह निहायत जरूरी था। हालत यह हो गयी थी कि एक दिन भी न लगने पर सारा माथा ही गर्म हो जाता था और दर्द करने लगता था। मैंने सोचा कि बीसियों साल की यह आदत जेल में बहुत परेशान करेगी। इसलिए पहले से ही तेल छोड़कर अभ्यास कर लेना चाहिए। ताकि उसके बिना काम चल सके। इसलिए बक्सर में रहने के समय से ही मैंने उसे छोड़ दिया था। मैंने पहली बार विशेष रूप से अनुभव किया कि मनुष्य के संकल्प और दृढ़ निश्चय में बड़ी ताकत हैं और इसके बल से वह जो चाहे कर सकता हैं। इसीलिए संकल्प करके तेल का सेवन छोड़ देने पर मुझे एक दिन भी कष्ट नहीं प्रतीत हुआ। प्रत्युत बराबर तेल की चिन्ता उसे लगाने और कपड़ों के गन्दे हो जाने की फिक्र से मैं सदा के लिए बच गया। तब से आज तक मैंने सिर में तो कभी तेल लगाया नहीं। देह में तो उससे पहले से ही लगाना और मालिश करना न जानें कब से छूटा था। आज भी छूटा ही हैं। फलस्वरूप ज्वर होने पर भी देह में दर्द भले ही हो। लेकिन सिर में दर्द होता ही नहीं। यों भी सिर दर्द ने मुझे तब से कभी नहीं सताया। जाड़े के दिनों में तेल न लगाने से शरीर में रुखड़ापन आने की बात भी मैंने नहीं पायी। बेशक ईधर दो वर्षों से दोनों पाँवों के तलवों में सोने के समय जरा सा कड़घआ तेल की मालिश करता हूँ। क्योंकि ईधर उम्र ज्यादा होने से जब कभी ज्यादा बोलता या लम्बा भाषण करना पड़ता हैं तो सिर में एक तरह की खुश्की सी मालूम पड़ती हैं इस मालिश से खत्म हो जाती हैं। जाड़ों में खुश्की से होठ भी अब कभी नहीं फटते।

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(6)पहली जेल यात्रा-गाजीपुर में

अहमदाबाद से लौटते ही गाजीपुर में स्टीमरघाट पर खुफियापुलिस के दर्शन हुए। वह परेशान सी नजर आयी। 1 जनवरी 1922 की बात हैं। हमने समझ लिया कि अब गिरफ्तारी होगी। हुआ भी ऐसा ही। जहाँ तक याद हैं, 2 जनवरी को पुलिस के अफसर जिला कांग्रेस कमिटी के कार्यालय में सवेरे ही पहुँचे और दिन निकलते न निकलते उनने हमें तैयार हो जाने की सूचना दी। फिर क्या था? नहा-धो के और कुछ खा-पी के हम तैयार हो गये। मालायें पहन-पहना कर कोतवाली लाये गये और वहाँ से जेल के भीतर दाखिल हुए।

हमने अन्दर जाते ही एक गूँजती आवाज सुनी जो बहुत ही तेज थी। हम समझ न सके कि यह क्या बला हैं। इतने में जेलर ने आ के कहा कि बलिया जिले से कुछ राजनीतिक बन्दी यहाँ आये हैं। वे काम तो कुछ करते ही नहीं। उलटे तूफान मचाते और चिल्लाते हैं। मैं भौंचक सा रह गया। क्योंकि गांधीजी की सख्त आज्ञा थी कि जेल के सभी नियम माने जाये और कोई गड़बड़ी न की जाये। जेलर ने कहा कि जरा चल के समझा दीजिये। मैं गया। वहाँ पर, चक्की घर में, बलिया के परिचित कार्यकर्त्ता मिले। उन्हें गेहूँ पीसने का काम मिला था। मगर वे तो गेहूँ पीसने के बजाये उसमें मिले एकाध चने को चुन-चुन कर खाते और 'महात्मा गांधी की जय' चिल्लाते थे। मुझे देखते ही चुप हो गये। दण्ड प्रणाम के बाद अहमदाबाद कांग्रेस की बात उत्सुकता से पूछने लगे। मैंने संक्षेप में सब कुछ बता कर पूछा कि यह चिल्लाहट क्यों? काम करने से इन्कार क्यों? उत्तर मिला कि हम तो नारे लगाते हैं। पहले जो नारे लगाते थे उन्हें आज क्यों छोड़ दें? काम भी क्यों करें? मैंने कहा कि 'गांधीजी की जय' बोलते हैं। उन्हीं की बात मान कर जेल आये हैं। यह उन्हीं की आज्ञा हैं कि जेल के सभी नियमों की पाबन्दी होनी चाहिए। काम करना चाहिए और नारे बन्द होने चाहिए। उन्होंने उत्तर दिया कि ''वाह हम दुश्मन की मदद काम करके क्यों करें? नारे भी क्यों बन्द करें?'' गो कि उस समय उन्होंने मेरे लिहाज से नारे बन्द कर दिये। फिर भी मैं उन्हें समझा न सका। मैं इस काम में असमर्थ रहा। फलत: न तो उनके नारे बन्द हुए और न उनने काम ही किया। तब तक तो शीघ्र ही मैं कुछ लोगों के साथ बनारस जेल भेज दिया गया।

इस घटना ने मुझे निराली दुनियाँ में पाया। मैं ताज्जुब में था कि यह क्या हो रहा हैं? गांधीजी की आज्ञा का उल्लंघन पढ़े-लिखे लोग इस प्रकार क्यों करते हैं? मुझे 'गांधीजी की जय' के साथ-साथ उनकी आज्ञा की यह भयंकर अवहेलना बुरी तरह खली। मुझे लक्षण अच्छे न दिखे। तब से मैंने बराबर यह बात पायी।दूसरी बार जब सन 1930 ई. में हजारीबाग जेल में था तो वही बात देखी। गांधीजी का जहाँ तक जेल नियमों के बारे में आदेश था वहाँ तक वह कतई लापता थे। उनकी बातों की रत्तीभर भी परवाह प्रथम और दूसरे विभाग के राजबन्दी नहीं करते थे, हालाँकि देश के वही नेता थे। आगे स्वराज्य की सरकार भी उन्हें ही चलानी हैं। मैंने देखा कि हजारीबाग जेल में राजेन्द्र बाबू भी असमर्थ थे। उनकी परवाह कोई न करता था। इसीलिए तभी से मैंने बार-बार सोचा और ईधर और अनुभव होने पर मन-ही-मन कहा कि एक दिन 'गांधीजी की जय' बोलकर उनकी हत्या लोग ठीक इसी प्रकार कर सकते हैं यदि जरूरत समझें, जिस तरह आज उनके आदेशों की हत्या कर रहे हैं। 'महावीर की जय' बोल कर लूटपाट करने, आग लगाने या मुसलमानों के साथ मारपीट करने का अर्थ भी मैं उसी समय समझ पाया।

असल में चाहे हम लाख आदर्शवादी बनें और उसका प्रचार करना चाहें। लेकिन जनता की अपनी कसौटी होती हैं चीजों के तौलने की। उसके अपने रास्ते होते हैं काम करने के। अगर हमारी बातें उसकी कसौटी पर खरी उतरें तब तो ठीक हैं। तब तो वह उनकी पाबन्दी अच्छी तरह करेगी। लेकिन खरी न उतरने पर उन बातों के अमल के नाम पर उलटी बातें करेगी। इसी प्रकार उसके अपने रास्ते से भिन्न रास्ते पर यदि आप उसे चलाना चाहेंगे तो यही खतरा होगा। कुछ समय तक या आपके सामने भले ही वह आपके रास्ते पर चलती नजर आये। लेकिन पीछे तो खामख्वाह वह अपना चिरपरिचित रास्ता ही पकड़ेगी। यह धा्रुव सत्य हैं। संसार का और उसमें पैदा होने वाले अनेक धर्म, मजहबों एवं सभ्यताओं का इतिहास साफ बताता हैं कि समय-समय पर अवतार, पेशवा, पैगम्बर, मसीहा या ऋषि-मुनि पैदा होते हैं सही। वे एड़ी-चोटी का पसीना एक करने के बाद बड़ी कठिनाई से कुछ ही समय के लिए कुछ लोगों को सत्य, नम्रता, दया आदि के रास्ते पर लाते हैं भी। लेकिन फिर उनके हटते ही ढीलापन और गड़बड़ घोटाला अपना सिर उठाने लगते हैं। यह बात पहले तो नहीं मालूम पड़ती। मगर पीछे साफ दीखने लगती हैं और कुछ दिनों के बाद 'वही रफ्तार बेढंगी' शुरू हो जाती हैं। हजारों और लाखों वर्षों की इन सबों की कोशिशों के बाद भी इस दुनिया में वही असत्य, वही निर्दयता, वही अनाचार-व्यभिचार आदि भीषण रूप से आज भी पाये जाते हैं! गोया कुछ हुआ ही नहीं!

जो सुधारक या पेशवा दुनियाँ की इस सहज प्रवृत्ति, उसकी अपनी कसौटी और उसकी निजी राह पर दृष्टि न करके, या यों कहिये कि उसकी अवहेलना करके अपने किसी भी आदर्शवाद का प्रचार करना चाहता हैं वह चट्टान से अपना माथा टकराता हैं! उस समय तो नहीं जिसका यहाँ जिक्र कर रहा हूँ, परन्तु आज और कुछ दिन पहले से भी मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ। खेद हैं, गांधीजी आज भी इस प्रकट सत्य को, सुनने वालों के लिए पहाड़ की चोटी से पुकारने वाले सत्य को, इन गत बीस वर्षों के अनुभवों के बाद भी, समझ न सके हैं। ऐसा लगता हैं कि वह शायद समझना भी नहीं चाहते!

खैर, तो जल्दी ही मेरा केस एक डिप्टी मजिस्ट्रेट के सामने पेश हुआ। न्याय का स्वांग किया जा कर, जैसा कि उस जमाने में बराबर होता था। क्योंकि कांग्रेस वाले पैरवी तो करते न थे और अपराध स्वीकार कर लेते थे, मुझे एक साल सख्त कैद और पच्चीस रुपये जुर्माना और न देने पर एक मास का और सख्त कैद-यों कुल मिलाकर पूरे तेरह मास सख्त कैद-की सजा सुना दी गयी! क्रिमिनल लाँ एमेण्डमेंट की दूसरी या (ब) धारा के अनुसार यह दण्ड दिया गया। इसके बाद तो गले में बाकायदा तख्ती (तौक) जेल में पहुँचते हो पहना दी गयी, जेल के कपड़े भी मिल गये और मैं पूरा कैदी बन गया। पीछे मेरे वे तीन-चार साथी भी इसी प्रकार पकड़ के आ गये और कैदी भी बन गये।

आगे बढ़ने के पूर्व एक बात कह देनी हैं। सदा से ही खाने-पीने में सफाई और तन्मूलक छुआछूत का तो मैं पक्का पक्षपाती था। यहाँ तक कि रेलगाड़ी में बैठकर या हलवाई की दूकान की मिठाई तक न खाता था। यह बात ईधर कुछ वर्षों के भीतर और भी सख्त हो गयी थी, खास कर बाजार की पकी-पकाई चीजें न खाने के बारे में। उधर जेल में घुसते ही मैंने देखा कि वही लोहे के बर्तन हैं जो ठीक-ठीक मले तो कभी जाते ही नहीं। यों ही कुछ धो-धाकर छोड़ दिये जाते हैं। धोने की सिर्फ रस्म अदाई होती हैं! पानी भी ऐसी जगह भरा रहता हैं कि जूठा तो होई जाता हैं। खामख्वाह जूठे हाथ और बर्तन उसमें डाल दिये जाते ही हैं। यह देखते ही मैं झल्ला गया। फलत: जेल का खाना खाने की हिम्मत हो न सकी। वह पानी भी न ले सका। इसलिए एक-दो दिन कुछ खाया-पिया ही नहीं। फिर तो जेलर ने दूध देने का प्रबन्ध किया। इसी बीच तो हमें बनारस भेजने की आज्ञा आ गयी। फिर तो वहीं जाना पड़ा। इस प्रकार गाजीपुर जेल में चन्द ही दिन कटे। यह अच्छा था कि जहाँ संन्यास से पूर्व पढ़ने-लिखने में कई साल गँवाये वहीं, राजनीतिक जीवन में प्रवेश करने पर पहले केस चला और जेल यात्रा हुई!

 

 

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