ब्राह्मण समाज की स्थिति
उत्तरार्द्ध-
आधुनिक अध:पात मधुकर! मा कुरु शोकं विहर करीरद्रुमस्य कुसुमेषु।
घनतुहिनपातदलिता कथं सा मालती प्राप्यते॥ (सुभा.)
पूर्वार्ध्द में जिस प्राचीन छटा का दृश्य दिखलाया गया है, ठीक उसका उलटा
इस समय हो रहा है। भूदेवों की आधुनिक दशा अत्यन्त शोचनीय हो रही है। इसका
यथार्थ चित्र किसी कवि के इन वाक्यों द्वारा हू-ब-हू खींचा गया है :
वह बुलन्दी यह तबाही! वह जलाल और यह ज़वाल!!
सज्जनो मन में विचारो, हो गया कैसा हवाल!!
जिन महानुभावों के नेत्रो के सम्मुख उस गतगरिमा का चित्र होगा उन्हें अवश्य
आशा होगी कि ब्राह्मणसमाज कितना भी अवनत क्यों न हो गया होगा, फिर भी उसमें
उन प्राचीन गुणगणों की झलक अवश्यमेव होगी। क्योंकि, 'मरा भी हाथी नौ लाख
का'। पर खेद के साथ कहना पड़ता है कि बिहारी के ही इन शब्दों में उन्हें
भारी निराशा का सामना करना पड़ेगा कि :
जा दिन देखे वे कुसुम गयी सुबीति बहार।
अब अलि रही गुलाब में अपत कँटीली डार॥
जिन विप्रों में प्रथम एकता थी, 'तीन तेरह' अथवा 'तीन कनौजिया तेरह चौके'
की बात न थी; जिनमें ऊँच-नीच भाव केवल योग्यता पर-क्रिया पर-अवलम्बित था।
उन्हीं में आज 'अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग' हो रहा है। हम अमुक हैं
इसलिए बड़े हैं और तुम छोटे, हम कुलीन हैं, और तुम नहीं, फिर समानता कैसी?
हमारी मर्यादा बीस विस्वा है, तुम्हारी उन्नीस ही, फिर हमारा तुम्हारे साथ
खान-पान कैसा? इत्यादि बातें ही दृष्टिगोचर हो रही हैं? सारांश 'हमारे दादा
ने घी खाया था, हमारा हाथ सूँघ लो' वाली कहावत ही अक्षरश: चरितार्थ हो रही
है। 'कान्यकुब्जाद्विजा: सर्वे' वाला सिध्दान्त प्रथम सर्वत्र व्यापक था,
जिसका तात्पर्य यह है कि प्रथम ब्राह्मणमात्र का निवास स्थान केवल
कान्यकुब्ज देश अथवा ब्रह्मर्वत्ता और ब्रह्मवर्ष देश था, जैसा कि
मनुस्मृति (अ. 2 श्लोक-17-20) से स्पष्ट है। इससे यह मतलब नहीं निकाला जा
सकता कि आधुनिक कान्यकुब्ज ब्राह्मण इतर ब्राह्मणों से इसीलिए श्रेष्ठ हैं
कि प्रथम के सभी ब्राह्मण उन्हीं के देशवासी हैं। किन्तु इससे सिर्फ
ब्राह्मण मात्र की एकता सिध्द होती है। इस एकता के आज भी दो प्रबल, अकाटय
और प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। प्रथम यह कि आजकल जो ब्राह्मणों के सैकड़ों दल हो
गये हैं उनकी वंशावलियाँ देखी जायँ या उन-उन दलों के जानकारों से पूछा जाय
तो विदित हो जायगा कि समान गोत्रवालों के, फिर वह चाहे कनौजिया, गौड़,
महाराष्ट्र, मैथिल या भूमिहार, त्यागी आदि किसी नाम के हों, प्रवर, शाखा
सूत्र, वेद, देवता, पाद और शिखा एक ही हैं। यह कैसी विचित्र बात है कि दो
ब्राह्मण जो इस समय एक-दूसरे से कई सौ कोस दूर रहते हैं तथा सारस्वत और
बंगाली आदि भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाते हैं एवं आचार-व्यवहार में भी
एक-दूसरे से बिलकुल ही विपरीत हैं, प्रश्न करने पर एक ही ऋषि को अपने
गोत्र और प्रवर प्र्रवत्ताक मानते हैं और यह भी कहते हैं कि उनका वेद,
शाखा और सत्र भी एक ही है! इससे यही प्रकट होता है, कि किसी समय में उन
दोनों के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास करते, एक ही ऋषि से उत्पन्न हुए, एक
ही वेद की एक ही शाखा और उस शाखा सम्बन्धी एक ही श्रौत्र या गृह्यसूत्र को
पढ़ते थे, सो भी अल्पकाल तक ही नहीं, किन्तु सुदीर्घ काल तक। इसी से परस्पर
अत्यन्त दूर रहने पर और सहस्रों वर्ष बीतने पर भी उसकी स्मृति आज तक ज्यों
की त्यों बनी है, चाहे वह बात अब प्रत्यक्ष नहीं है! यदि अल्प समय का ही
अभ्यास रहता तो वह इस सुदीर्घ काल के गर्भ में कभी का विलुप्त हो गया होता।
इससे भी मार्के की बात देवता-शिखा एवं पाद की एकता है, जो यह बता रही है कि
उनके पूर्वज किसी एक ही इष्टदेव की पूजा करते थे और पूजा काल में या अन्य
समय प्रथम एक ही (दाहिना व बायाँ) पाँव धोते तथा एक ही (दाहिनी व बायी) ओर
से घुमाकर शिखा बाँधते थे, यद्यपि आज भिन्न-भिन्न देवताओं की पूजा करते हैं
और उनकी शिखा और पाद का तो कोई नियम ही नहीं है। यह पिछली तीन बातें तो
बिना एक स्थान में रहे और एक ही उपदेशक की शिक्षा पाये कथमपि सम्भव नहीं
है। यह तो हो ही नहीं सकता कि सौ कोस के फ़ासले पर एक ही गोत्र-प्रवर वाले
रहें और एक ही वेद पढ़ें और केवल उन्हीं के देवता, शिखा और पाद एक रहें, न
कि दूसरे वेद पढ़ने वालों के भी। यदि उपदेशक स्थान-स्थान में भ्रमण कर इसका
प्रचार करते तो फिर एक स्थान के भिन्न-भिन्न वेद पाठियों के भी देवता आदि
एक ही हो जाते। साथ ही जब एक वेद वाले कुछ और कहलाते और दूसरे वेद वाले
अन्य, तो फिर भी इतनी दृढ़ता कदापि नहीं होती, जिसकी स्मृति सहस्रों वर्ष
बाद भी सम्प्रति बनी है। ऐसी समानता जब आज रेल-तार के समय में भी असम्भव-सी
है तो फिर, जब ये बातें नहीं थीं तब, कैसे हो सकती थी?
दूसरा प्रमाण उस प्राचीन एकता का ब्राह्मणों के विभिन्न दलों में परस्पर
विवाह सम्बन्ध और खानपान है जो किसी न किसी रूप में इस गये-गुज़रे ज़माने में
भी थोड़ा-बहुत पाया जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि सम्प्रति ब्राह्मणों के
जो दो बड़े विभाग गौड़ तथा द्रविड़ हैं और फिर प्रत्येक में जो गौड़, त्यागी,
सारस्वत, महियाल, कान्यकुब्ज, सर्यूपारी, मैथिल, भूमिहार, उत्कल, बंगाली
आदि तथा तैलंग, द्रविड़, महाराष्ट्र, कर्णाटक और गुर्जर आदि हैं, जहाँ तक
जाँचने से विदित हुआ है, ये लोग परस्पर विवाहादि द्वारा मिले हुए हैं।
यद्यपि सभी दलों का मेल परस्पर नहीं है और जिनका है भी उनका भी सब जगह नहीं
है, तथापि एक ब्राह्मण दल का जहाँ छोर है, जहाँ उसका अन्त होता है तथा जहाँ
से दूसरे दल का प्रारम्भ है वहीं एक-दूसरे का विवाहादि द्वारा मेल है।
दृष्टान्त के लिए कह सकते हैं कि फर्रुखाबाद, मैनपुरी और इटावा आदि जिलों
में जहाँ कान्यकुब्जों तथा सनाढयों का छोर है, परस्पर विवाह आदि होते हैं।
इसी प्रकार सुलतानपुर और प्रयाग आदि जिलों में कान्यकुब्जों और
सर्यूपारियों का परस्पर तथा दोनों का भूमिहारों के साथ खान-पान एवं विवाह
सम्बन्धा है, तथा मिथिला में भूमिहारों और मैथिलों में भी परस्पर यही बात
है, जैसा कि ब्रह्मवर्ष वंश-विस्तर' के 163-194 पृष्ठों से स्पष्ट है। इसी
प्रकार बंगाल के मुर्शिदाबाद और जैसोर आदि जिलों में जो जिझौतिया,
कान्यकुब्ज या भूमिहार आदि हैं उनका भी परस्पर ऐसा ही सम्बन्ध 'विस्तर' के
367-68 पृष्ठों से विदित है। यह भी स्मरण रहे कि यह सम्बन्ध ऐसा नहीं है कि
एक समाज की केवल लड़कियों का ही, दूसरे समाज के लड़कों के ही साथ हो, किन्तु
जिन समाजों का परस्पर ऐसा सम्बन्ध है उनके लड़के-लड़की दोनों का ही है, सो भी
एक-दो नहीं, बहुत बड़ी संख्या में, अस्तु। इसी प्रकार दिल्ली, सहारनपुर तथा
रोहतक आदि जिलों में त्यागियों और ग्राही गौड़ों के भी पारस्परिक विवाह आदि
होते हैं, तथा पंजाब के कुछ जिलों में सारस्वतों एवं महियालों के भी। यही
बात विद्यारत्न पं. दुर्गादत्त द्विवेदी शास्त्री ने 'ब्राह्मण भेद विचार'
नामक ग्रन्थ में इस प्रकार लिखी है :
''अब इसके आगे एक और भी भेदनाशक तथा एकता सूचक प्रत्यक्ष प्रमाण निवेदन
किया जाता है। जो नामधारी ब्राह्मण समुदाय जिस देश में बसता है वह समूह
अपनी वाससीमा की सन्धि में एक-दूसरे नाम वाले के साथ रोटी-बेटी सम्बन्ध से
मिला हुआ है। जैसे सारस्वत देश के दक्षिण भाग की सन्धि में रहने वाले
सारस्वत नामधारी ब्राह्मण छन्नाति के गौड़ ब्राह्मणों के साथ रोटी-बेटी
सम्बन्ध से मिले हुए सुने जाते हैं। इसी प्रकार गौड़ नामधारी ब्राह्मण्
जयपुर के ईशान भाग से भरतपुर तक सनाढयों के साथ प्रेमपूर्वक खान-पान, विवाह
सम्बन्ध कर रहे हैं। इसी प्रकार मैनपुरी, फर्रुखाबाद, एटा, इटावा आदि जिलों
में सनाढय और कान्यकुब्ज खान-पान, विवाह में मिले हुए हैं और आगे बढ़कर
कान्यकुब्ज और सर्यूपारी ब्राह्मण अपनी वाससीमा में पूर्ववत् मिले-जुले
हैं। इसी प्रकार आगे अपनी वाससीमा में सर्यूपारियों का थोक मैथिलों के साथ
और मैथिल उत्कलों के साथ नातेदारी में फँसे हैं। दाक्षिणात्य ब्राह्मण
मात्र भोजन में तो सर्वत्र एक हो ही रहे हैं, परन्तु वाससीमा सन्धि में
विवाह से भी सटे हैं। हाँ, मध्यवास में एक-दूसरे से दूर पड़ने के कारण विवाह
सम्बन्ध कष्टसाध्य है। अतएव मध्य में अब वह रीति उठ गयी है।' (पृ. 4-5)।
इतना ही नहीं। सन् 1926 की गर्मियों में कान्यकुब्ज महती सभा का जो 19वाँ
वार्षिक अधिवेशन प्रयाग में जौनपुर के राजा श्रीकृष्णदत्तजी दूबे, एम. एल.
सी. की अध्यक्षता में हुआ था उसमें सर्वसम्मति से जो प्रस्ताव पास हुआ था
वह उस सभा के प्रधानमन्त्री रायसाहब पं. राजनारायणजी मिश्र के कथनानुसार इस
प्रकार है-''समाज की शिथिलता और विशृंखलता को देखते हुए पारस्परिक प्रेम,
ऐक्य एवं सहानुभूति के आदर्श से कान्यकुब्ज महती सभा कान्यकुब्जों के
सामुदायिक संगठन की आवश्यकता समझती है और उसकी पूर्णता के लिए समस्त
कान्यकुब्जों से अनुरोध करती है।
''सरयूपारीण, सनाढ्य, जुझौतिया, भूमिहार, पर्वतीय, बंगाली, गुजराती आदि
समुदायों में एक बहुत बड़ा भाग अपने को कान्यकुब्ज मानता है। किन्तु इस समाज
में उनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध न होने से बृहत् कान्यकुब्ज समाज के संगठन में
बाधा पहुँचती है। अत: सामुदायिक संगठन की दृष्टि से कान्यकुब्ज प्रतिनिधि
सभा कान्यकुब्ज कहाने वाले ब्राह्मण समुदाय का संगठन कर आपस में प्रेम,
ऐक्य एवं सहानुभूति बढ़ाना आवश्यक समझती है।''
उक्त सभा का 20वाँ अधिवेशन 1927 के अप्रैल में लखनऊ में पं. उमाशंकर
वाजपेयी, एम.ए.,एल. एल.बी., गवर्नमेण्ट एडवोकेट, इलाहाबाद की अध्यक्षता में
हुआ था। उसमें भी पुन: इसी आशय का प्रस्ताव यों स्वीकृत हुआ था-
''(अ) यह कान्यकुब्ज महती सभा गत वर्ष के अधिवेशन के प्रस्ताव के अनुसार इस
अधिवेशन में कतिपय सरयूपारीण एवं अन्य कान्यकुब्ज कहलानेवाले ब्राह्मणों की
उपस्थिति देखकर अत्यन्त हर्ष प्रकट करती है तथा सामुदायिक संगठन के आदर्श
से, और वर्तमान समय को देखते हुए सरयूपारीण, सनाढय, जुझौतिया, भूमिहार,
पहाड़ी, बंगाली आदि कान्यकुब्जों को एकत्र कर बृहत् संगठन करने तथा उनमें
पारस्परिक प्रेम, ऐक्य एवं सहानुभूति बढ़ाने के लिए इस बात की प्रार्थना
करती है कि ऊपर कहे हुए ब्राह्मण समुदाय हमारी सभा के वार्षिक अधिवेशनों
में अवश्य उपस्थित होकर उचित योग प्रदान करें तथा इस प्रस्ताव को कार्य रूप
देने में सभा के सहायक हों।''
''(ब) यह कान्यकुब्ज महती सभा यह भी प्रस्ताव करती है कि नीचे लिखे 5
सज्जनों की एक कमेटी बनाई जाय, जिसका काम इस विषय पर सम्मति एकत्र करना हो
और उन सम्मतियों के आधार पर कान्यकुब्ज समाज की एक ऐसी व्यवस्था तैयार की
जाय कि किन-किन आधारों पर, अथवा किस-किस उपाय से उपर्युक्त प्रस्ताव को अमल
में लाया जा सकता है। कमेटी के सदस्य (1) माननीय पं. गोकरणनाथजी
मिश्र-संयोजक, (2) पं. रविशंकरजी शुक्ल राय, रायपुर, (3) पं. जयदयालजी
अवस्थी, लखनऊ, (4) रायसाहब पं. राजनारायणजी मिश्र, इलाहाबाद, (5) पं.
रघुनन्दन शर्मा, कानपुर।''
उसी अधिवेशन के सभापति ने अपने भाषण के 12वें पृष्ठ में कहा है कि-''उसी
(कान्यकुब्ज) बृहद्वंश की शाखाएँ फैलकर सनाढय, पहाड़ी, जुझौतिया, सरयूपारी,
छतीसगढ़ी, भूमिहार और अनेक बंगाली ब्राह्मणों की स्थापना हुई। समय के फेर
से, शीघ्र गमनागमन के साधनों के अभाव से, प्रान्त विशेष की वेशभूषा की
विभिन्नता से, खान-पान की असाम्यता आदि कारणों से ऐसा भेद-भाव उत्पन्न हो
गया कि वे एक-दूसरे को भूल से गये और वह पुरानी एकता स्वप्नवत् हो गयी।''
स्वागताध्यक्ष जस्टिस गोकरणनाथ मिश्र ने भी अपने भाषण के चौथे पृष्ठ में
कहा है कि-''मैं अपने उस आनन्द का वर्णन नहीं कर सकता जो मुझे उस समय हुआ
जब पिछले साल प्रयाग में कान्यकुब्ज महती सभा ने यह प्रस्ताव पास किया कि
उन ब्राह्मण समुदायों को भी अपनाने का प्रयत्न करना चाहिए जो इस बात को
मानते हैं कि वह किसी समय वास्तव में कान्यकुब्ज ही थे और अब उनकी प्राचीन
शाखा होने के कारण कान्यकुब्जों से मिलने की इच्छा रखते हैं। मेरा तात्पर्य
इस समय सरयूपारी, जुझौतिया तथा भूमिहार ब्राह्मणों से है जो ज्यादातर इस
प्रान्त के पूर्वी और दक्षिणी भाग में रहते हैं।''
आयुर्वेदाचार्य पं. सत्यनारायणजी मिश्र के सम्पादकत्व में निकलने वाले
'कान्यकुब्ज हितकारी' मासिक पत्र के सन् 1926 के दो अंकों में भी इसी बात
की चर्चा यों हुई थी, ''कई बार बड़ी-बड़ी सभाओं के मंचों एवं ब्राह्मण जाति
के इतिहास वेत्ताओं के श्रीमुखों से यह मसला अब निर्विवाद सिध्द हो चुका है
कि सरयूपारीण, सनाढय, जुझौतिया, भूमिहार, पर्वतीय, बंगाली आदि सभी ब्राह्मण
कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं। अब प्रश्न यह होता है कि इनका सामुदायिक संगठन
कैसे हो सकता है। हमारे पाठक अभी भूले न होंगे कि प्रयाग में होनेवाला गत
प्रतिनिधि सभा के वार्षिक अधिवेशन के सुअवसर पर श्री पं. वेंकटेशनारायणजी
तिवारी, एम. ए. द्वारा प्रस्तावित तथा पं. शिवरत्नजी शुक्ल, पं. जगन्नाथजी
शुक्ल तथा पं. गुरुदयालजी तिवारी द्वारा अनुमोदित एवं समर्थित एक प्रस्ताव
इसी आशय का उपस्थित किया गया था।'' (नवम्बर, पृ. 238)। ''श्रीकान्यकुब्ज
प्रतिनिधि सभा को अपने प्रयाग में स्वीकृत प्रस्ताव के अनुसार सभी फिर्के
के ब्राह्मणों को आमन्त्रित करना चाहिए। अर्थात् सरयूपारीण, सनाढ्य, बंगाली,
भूमिहार आदि सभी ब्राह्मण उस अधिवेशन के अवसर पर बुलाये जायँ।'' (दिसम्बर,
पृ. 269)।
3 जून, 1922 के 'मिथिला मिहिर' नामक मैथिलों के पत्र में एक मैथिल ने यों
लिखा था-''दरभंगा संचारि कोसपूर्व, भागीरथी के ओहिपार तक दक्षिण में
रहनिहार अधिकांश मैथिल लोकनित निश्चय कलेलन्हि जेओ लोकनि भूमिहारे थिकाह,
किंवा वैह सभ मैथिल थीक। कियेक तं हुनकालोकनि ओकरा सभसं साधारणतया
सिध्दान्न भोजनादिक घनिष्ठ व्यवहार करहल छथि।'' सारांश यह है कि दरभंगा से
4 कोस पूर्व से लेकर दक्षिण में गंगापार तक के मैथिलों और भूमिहारों में
कोई भेद नहीं है, दोनों का खान-पान आदि एक ही साथ है।
पर, दुर्दशा ऐसी हो रही है कि घर-घर में फूट है और विद्या से-केवल संस्कृत
विद्या से ही-प्राय: सम्बन्ध छूटता जा रहा है! जो संस्कृत ब्राह्मणों की
बपौती-सच्ची बपौती-थी उसे किसी ने जमींदारी और बबुआई से मदान्ध होकर लात
मारी तो औरों ने-पुरोहित, पुजारी और पण्डों ने-शेष जनता को मूर्ख और
अन्धपरम्परा का भक्त देख पुरोहिती, गुरुवाई के ही मद में चूर हो उसका
तिरस्कार किया! जब गुरु, व्यास तथा पुरोहित कहलाने वालों ने अपनी एक अलग
जाति ही बना ली और जब उनके मन में नीच स्वार्थ-केवल जैसे हो तैसे पैसा
झटकने का स्वार्थ-समा गया एवं साथ-साथ विलासप्रियता तथा आलस्य भगवान् से भी
घनिष्ठ मित्रता हो गयी, तो उन्होंने सोचा कि कौन सा उपाय करें जिससे
पढ़ने-पढ़ाने के महान् क्लेश से पिण्ड छूटे, पैसे भी पूर्ववत् मिला ही करें
और माल मारने का भी पूरा मौक़ा प्राप्त हो। उन्होंने युक्ति ढूँढ़ निकाली कि
जो लोग पुरोहिती आदि कर्मों द्वारा अपने जीवन का निर्वाह नहीं करते प्रथम
वह लोग ही विद्याविमुख किये जायँ। फिर तो कोई टोकने और जाँचनेवाला रहेगा ही
नहीं! इसलिए जो चाहेंगे करेंगे। इस सिध्दान्त के अनुसार प्रथम यजमानों को
यह कहकर पढ़ने-पढ़ाने से अलग किया कि आपको क्या कहीं पुरोहिती करनी, आचार्य
बनना, पुजारी होना या पत्र उलटना है कि आप संस्कृत विद्या के लिए माथा
मारने को तैयार हैं? इस भिखमंगी विद्या को पढ़कर आप क्या करेंगे? क्या भीख
माँगनी है? इत्यादि। इस प्रकार यजमान लोग संस्कृत विद्या से और अतएव
कर्मकाण्ड से पूरे अनभिज्ञ हो गये! तो फिर क्या था, यार लोगों की बन आयी और
रहा-सहा पढ़ना-पढ़ाना लगभग एकबारगी छोड़कर गुरु पुरोहित भी प्राय:
निरक्षरभट्टाचार्य ही बन गये! 99 नहीं तो 90 प्रति सैकड़ा ऐसे पुरोहित और
गुरु मिलेंगे जिनका काम अधिक से अधिक दुर्गा, सत्यनारायण, शीघ्रबोधा और
मुहूर्तचिन्तामणि के कुछ ही श्लोकों के आधार पर चलता है! बाक़ी से वे लोग
नाता तोड़ बैठे हैं! खूबी यह है कि इन पूर्वोक्त तीन-चार पोथियों का भी
यथार्थज्ञान शायद ही किसी-किसी को है। इस पर भी तुर्रा यह है कि अपने सामने
किसी को कुछ समझते भी नहीं! इसीलिए यदि कोई विज्ञ पुरुष समझाना चाहे तो
उसके पास इस विचार से जाना तो दूर रहा विपरीत युध्द के लिए कमर कस लेते
हैं। यदि मूर्खतावश नष्ट-भ्रष्ट प्राचीन परिपाटी का फिर से कोई सुधार
शास्त्रीय रीति के अनुसार करना चाहे तो उसकी दुर्दशा होती है! मूर्ख
शिरोमणि पुरोहितों और गुरुओं ने अज्ञ यजमानों और शिष्यों के कान यह कहकर भर
दिये हैं कि अमुक संस्कार तथा क्रिया-कर्म बाप-दादे के समय से ऐसा ही चला
आता है, क्या आप अब नया रास्ता गढ़ेंगे? फिर क्या है? सुधारकों और विज्ञों
की कौन सुने? उनका उपदेश तो 'नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़' हो जाता है-उलटे
उन्हीं को उल्लू बनना पड़ता है! एक बात यह भी देखी जा रही है कि नवरात्र के
दिनों में प्राय: कृषक तथा अन्यान्य गृहस्थ किसी कामना-सिध्दि या कल्याण के
लिए दुर्गा सप्तशती का पाठ करवाते हैं। इसी तरह अधिकांश स्थानों में अधिमास
के समय पार्थवेश्वर की पूजा और बिल्वपत्र चढ़ाने की रीति है। पर तमाशा क्या
होता है कि जिन पुरोहित, गुरु कहलाने वालों को दुर्गा के श्लोक बाँचने तक
की भी योग्यता नहीं होती, उनकी शुध्दि-अशुध्दियों की तो बात ही न्यारी, वे
भी दस-पन्द्रह पाठों तक के संकल्प प्रतिदिन के लिए करा लेते हैं! जिन्हें
कुछ बाँचने की गम है उनकी बात भी विचित्र है। चाहे जितने भी पाठ कराने के
लिए यजमान खड़े हो जायँ, वे नकार करना नहीं जानते, सभी का संकल्प करा लेंगे
चाहे पाठ एक ही दो करें! इसी तरह अधिमास के पार्थवेश्वर पूजा संकल्प को भी
समझ लेना चाहिए! चाहे दस-बीस यजमानों ने अलग एक-एक, सवा-सवा लक्ष पूजन का
ही संकल्प क्यों न कराया हो, पर केवल एक ही सवा लक्ष का पूजन करके दक्षिणा
सभी के सिर पर सवार होकर वसूल की जायगी! इस अनर्थ का प्रधान कारण एक तो
स्वार्थी तथा अपढ़ पुरोहित आदि की, चाहे किसी भी तरह से, पैसा कमाने की
दुर्बुध्दि है और दूसरे यजमानों की प्रचण्ड मूर्खता तथा विवेकभ्रष्टता है,
जिस कारण वह यह भी नहीं विचार सकते कि जिन हज़रत से पूजा-पाठ का संकल्प करवा
रहे हैं या उनमें उसकी पूर्ण योग्यता भी है या नहीं, और योग्यता है भी तो
प्रथम से ही और यजमानों के उसी पूजा-पाठ वाले संकल्पों से लदे होने के कारण
उन्हें अवकाश है या नहीं। परन्तु वे लोग अन्धपरम्परा के इस तरह वशीभूत हो
रहे हैं कि उन्होंने चाहे जैसे हो उन पूजा-पाठों के संकल्पों को करा ही
देना अपना कर्तव्य समझ रखा है! फिर चाहे पूजा-पाठ हो या नहीं, यह देखना
उन्हें पसन्द नहीं! यदि किसी कारणवश कभी नहीं करा सके तो वर्षों उन्हें, और
नहीं तो उनके घर की मूर्खतम स्त्रियों को बराबर इसकी चिन्ता बनी रहती है।
इस मध्य में यदि कहीं किन्हीं लड़के-बच्चों को किसी रोग ने आ घेरा तो चट
कल्पना कर लेतीं और घरवालों को निश्चय कर देती हैं कि बस, हर साल होने वाली
पूजा इस वर्ष न हुई। इसी से अमुक देवी-देवता रुष्ट हैं, जिससे यह कष्ट है!
भला इस अन्धेर का कहीं ठिकाना है! यदि यजमान विचार से नहीं तो और ही कारणों
से, विशेषकर आर्थिक परिस्थितियों के कारण ही इस पूजा-पाठ से कभी किसी तरह
पिण्ड भी छुड़ाना चाहें तो स्वयं कई वर्षों से लगातार पैसे ठगनेवाले
पुरोहित, गुरु या व्यास महाराज ही नित्य जा-जा कर दरबार करते और गले पर
सवार होते हैं कि यजमान, हर साल हमें कुछ मिल जाता था, इस वर्ष आप क्यों
चुप हैं? यजमान साहब एक-दो दिन तो इधर-उधर भागते हैं, पर विचार के पक्के न
होने के कारण ही अन्त में हार कर उनको कुछ करना ही पड़ता है। क्या ही लीला
है! ये पूजा-पाठ सिर्फ पैसे कमाने के द्वार हो रहे हैं, यजमान चाहे चूल्हे
में जाय! यदि यजमान के कल्याण की बात रहती तो फिर करने वाले क्यों उसके गले
पर सवार हो नाकों दम करते? जिसे आवश्यकता होती है वही दौड़ा करता है। यह तो
नहीं देखा कि रोगी की फ़िक्र ही नहीं और वैद्य उसके पिण्ड पड़े! और यदि ऐसा
कोई करता है तो उसकी क़दर ही जाती रहती है। पर, यहाँ की गंगा तो उलटी बहती
है। इसे ही कहते हैं पथभ्रष्टता। धन्य रे हिन्दू समाज और धन्य रे पुरोहित,
गुरु एवं व्यासों की करतूत!
एक बात और भी ध्यान देने योग्य है। यह पूजा, पाठ, पुरोहिती, व्यासगद्दी और
गुरुआई आदि पैसे हड़पने के व्यापार मौरूसी मान मना लिए गये हैं। यजमानों की
मूर्खता से अन्यान्य लाभों के सिवाय स्वार्थी लोगों ने एक यह बड़ा लाभ
निकाला है कि अपने इन पूर्वोक्त कमाने के कामों को मौरूसी या इस्तमरारी बना
रखा है। चाहे वे मूर्ख से मूर्ख और पतित से पतित भी हो जायँ, पर पुरोहिती
उनकी ज्यों की त्यों बनी रहेगी, व्यासगद्दी उनकी निष्कण्टक चलती जायगी और
गुरुवाई उनकी दिनोंदिन वॄध्दि पर ही होगी-दृढ़तर हो जायगी! इन जगहों पर जो
या जिसके बाप-दादे अपनी योग्यता के कारण प्रथम किसी समय बैठ गये हैं, अथवा
इच्छा न रहने पर भी जबर्दस्ती बैठाये गये हैं, वही जगह उनके मूर्ख और
भ्रष्ट से भी भ्रष्ट लड़के बालों तथा वंशजों की बपौती हो गयी! उसी की कृपा
से वह नीच से भी नीच कार्य करने पर भी माल मारते और गुलछर्रे उड़ाते रहते
हैं! जिस समय 'पाँव पखरवाने' का प्रसंग आवेगा उस समय योग्यातियोग्य पुरुषों
के रहते हुए भी उन्हीं की खोज होगी! उन्हीं के चरणकमल धोकर यजमान तरेंगे और
उन्हीं का चरणामृत एवं चरणरज यजमान के पुरुषों तक को पवित्र करेगा! इसे ही
कहते हैं समय का फेर। भारतवर्ष में तीसों दिन और बारहों महीने पितृपक्ष का
ही अखण्ड राज्य है, जिससे हंसों का तिरस्कार कर, उन्हें न पूछकर, लोग कौओं
की ही पूजा किया करते हैं! यह तो अन्धेर यहीं देखा कि वकालत भले ही न पास
हो, पर मुकद्दमे की पैरवी के समय उसी की खोज होगी, और प्रवीणतम वकील धक्के
खायेंगे, उनकी पूछ तक न होगी! पूर्व समय में तो परशुराम ने कश्यप आदि को,
श्रीरामचन्द्र ने धर्मारण्य के वाडवों तथा वसिष्ठ को एवं पाण्डवों ने धोम्य
को, और वसुदेव आदि ने गर्ग को पुरोहित, गुरु और व्यास बनाया था। देवताओं को
जब इसकी आवश्यकता हुई तो बृहस्पति को और उनके अभाव में विश्वरूप को गुरु
बनाया था। यहाँ तक कि दैत्य-दानवों ने भी भगवान् शुक्राचार्य को ही यह आसन
दिया था, न कि किसी अशिक्षित या आचारहीन को भी। पर जिस कर्म को राक्षस या
दैत्य-दानव भी न कर सके, जिस बात को उन्होंने भी अनुचित समझा, उसे ही करने
में आज जगद्गुरु होने का अभिमान रखने वाला ब्राह्मणसमाज, ब्राह्मण दल के
बाद क्षत्रियादि तथा हिन्दूसमाजमात्र जरा भी हिचकता तक नहीं! इसे ही कहते
हैं अवनति की पराकाष्ठा। जिस काम के सम्पादन में, जिस यज्ञ-यगादि
क्रिया-कलाप के पूर्णतया कराने में वसिष्ठ जैसे ब्रह्मवर्ष, तत्वज्ञानी,
वेद-वेदांगपारंगत समर्थ न हुए, अतएव महाराजा दशरथ को पुत्रोष्टि के लिए
शृंगी ऋषि की आवश्यकता हुई, और उनके लाने का उपदेश भी स्वयं वसिष्ठजी ने ही
किया, वही काम आजकल के घोंघा पण्डित, पूड़ी पाण्डे और थोथा तिवारी बिना
रोक-टोक कराने को तैयार हैं, बेखटके करते-कराते हैं, और साथ ही, किसी दूसरे
विज्ञ पुरुष की सहायता भी नहीं चाहते, उसे यज्ञ-मण्डप के भीतर आने देना
उन्हें पसन्द और सह्य नहीं और इसी पर उनके घमसानदास यजमान भी खुश हैं। जिस
पुरोहिती पद के लिए याज्ञवल्क्य ने कहा है कि :
पुरोहितं प्रकुर्वीत दैवज्ञमुदितोदितम्।
दण्डनीत्यां च कुशलमथर्वांगिरसे तथा॥
''ज्योतिषशास्त्र के ज्ञाता, विद्वान्, सदाचारी, नीतिशास्त्र के जानकार और
अथर्ववेद के कर्मों में कुशल विप्र को पुरोहित बनावें।'' (अ. 313), जिस पद
का महत्व आजकल की वकालत आदि से किसी प्रकार कम नहीं है, उसी पद पर बिना
परीक्षा लिये और बिना जाँचे-पूछे ही भर्ती होती है! भला इस अन्धेर का कहीं
ठिकाना है! यजमानों को शान्तिक पौष्टिक कर्मों की बराबर आवश्यकता बनी रहती
है, और उन कर्मों का प्रधानरूप से निरूपण अथर्ववेद में ही आया है। उसके
काण्ड के काण्ड केवल इन्हीं कर्मों का प्रतिपादन करते हैं। इसी से पुरोहित
को उसकी पूर्ण जानकारी होनी चाहिए। पर आजकल के पुरोहित तो प्राय: जानते तक
नहीं कि अथर्ववेद किस पक्षी का नाम है और उसमें क्या लिखा है। उसका दर्शन
तो शायद ही किसी को मिलता है। हाँ, उसकी जगह पर, यदि कोई-कोई कुछ जानते भी
हैं तो केवल व्यर्थ के एवं अधूरे तन्त्र-मन्त्र ही, जिनसे केवल ठगी और
धोखेबाज़ी के सिवाय दूसरा कुछ सिध्द नहीं होता। जो झूठमूठ का झाड़-फूँक करना
और खाक विभूति देना जानता है, भूत, प्रेत, चुड़ैल को झाड़ता-फूँकता है,
ओझा-सोखा के ठगी वाले काम के सिध्दहस्त है, लड़केबाले और धान तथा नौकरी
दिलाने का ढोंग बनाता और तदर्थ तन्त्र-मन्त्र करने का दावा रखता है, और इधर
का भूत, प्रेत, उधार और उधर का इधर करने की माया दिखलाता, मारण मोहन की
डींग मारता और धमकी देता है, वही आजकल पक्का ब्राह्मण, गुरु, पुरोहित,
व्यास, आचार्य और साधु-संन्यासी समझा जाता है!
जब कभी ब्रह्मभोज का अवसर आता है तो विचित्र ही लीला दृष्टिगोचर होती है।
प्राय: ऐसा अवसर श्राध्द, विवाह तथा अन्यान्य यज्ञों के समय आया करता है।
उस समय लोग यह इरादा रखते हैं कि जितनी ही अधिक संख्या में ब्राह्मण् के
नाम पर लोगों को खिलावेंगे उतना ही अधिक धर्म होगा और पिता-पितामहादि के
साथ झटपट बिना रोक-टोक सातवें स्वर्ग में जा विराजेंगे! यह बात कुछ तो
देखादेखी और कुछ विवेकहीन संसार की लज्जा के मारे भी की जाती है। पर सबसे
प्रबल कारण मूर्खता ही है। इसी कारण लोग यह विचारते हैं कि हमारी ही हैसियत
के अथवा हम से कम ही हैसियत वाले अमुक सज्जन ने जब इतने ब्राह्मण खिलाए तो
हम क्योंकर उससे कम खिलावें। ऐसा करने से संसार में हँसी भी होती है। पर,
कहा क्या जाय? मूर्खता जो चाहे करावे। लोगों की देखादेख करने से प्रथम यह
विचारना उचित है कि जिनको ब्राह्मण के नाम से खिलाने चले हैं, वह खिलाने
योग्य हैं या नहीं, जितने ब्राह्मण खिलाने का संकल्प कर रहे हैं उतने ऐसे
मिलेंगे या नहीं, जो खिलाने योग्य हों। क्योंकि भगवान् ने कहा है कि :
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रो च तद्दानं सात्तिवकं स्मृतम्॥
''हमें देना चाहिए केवल इसी बुध्दि से, उसके बदले में किसी उपकार की इच्छा
न रख, उत्तम देश, काल और पात्र को जो कुछ दिया जाता है वही सात्विक दान
कहाता है।'' (गी., 17, 20)। मनु आदि धर्मशास्त्रकारों की भी इस विषय में
यही सम्मति है जैसा कि पूर्व प्रकरण में दिखलाया गया है। मनु भगवान् को
अच्छी तरह से विदित था कि यदि झुण्ड के झुण्ड ब्राह्मण खिलाने की आज्ञा दी
जायगी तो योग्य-अयोग्य का विचार न रह सकेगा। लोगों को हार कर उन्हीं चमरू
पण्डित और घोंटूदत्ता, पेटपाल शर्मा आदि के मुख में अन्न झोंकना पड़ेगा,
क्योंकि अधिक संख्या में योग्य ब्राह्मण मिल ही नहीं सकते। इसी से लिख दिया
है कि :
द्वौ दैवे पितृकार्ये त्रनेकैकमुभयत्र वा।
भोजयेत्सुसमृध्दोऽपि न प्रसज्येत विस्तरे॥
सत्क्रियां देशकालौ च शौचं ब्राह्मणसम्पद:।
पचैतान्विस्तरो हन्ति तस्मान्नेहेत विस्तरम्॥
''देवकार्य में दो और पितृकार्य में तीन, अथवा दोनों में एक-एक ही ब्राह्मण
को, बहुत धनी होने पर भी, खिलावे, अधिक खिलाने के बखेड़े में न फँसे।
क्योंकि ऐसा करने से उनका सत्कार न हो सकेगा। उत्तम देश, उत्तम काल तथा
योग्य (विद्वान् तपस्वी) ब्राह्मण न मिल सकेंगे और अधिक के बखेड़े में
पवित्रता भी न रह सकेगी। इसलिए विस्तार की चेष्टा न करे (अ. 3/124-125)।
याज्ञवल्क्य ने भी यही कहा है, जैसा कि ''द्वौ देवे प्रक्त्राय: पित्रय
उदगेकैकमेव वा'' (अ. 228) से स्पष्ट है। और पूर्वोक्त मनु वाक्य से
मिलता-जुलता ही वाक्य उन्होंने भी लिखा है। यही उचित भी है। लोक में देखा
जाता है कि एक पैसे की हँड़िया ख़रीदने के समय भी लोग उसे पाँच बार ठोंक-बजा
लेते हैं। जब लौकिक सौदे की, जिसके कि बिगड़ने में हानि भी कम ही होती है और
जो ऑंखों से देखा जाता है-यह दशा है तो फिर जो कि पारलौकिक सौदा-दान-पुण्य
और खिलाना-पिलाना आदि है उसके करते समय यह खराब है या अच्छा, हम टूटी नाव
पर लाद रहे हैं या मज़बूत पर, यह क्यों न देखा जाय? साथ ही, यह सौदा तो
सौ-पचास, दो-चार सौ या हजारों रूपये का होता है और ऑंखो से देखा हुआ न होने
के कारण बड़ा नाजुक भी है। इसलिए उस विषय में जैसा शास्त्र कहे वैसा ही करना
उचित है, उससे इंच-भर भी इधर-उधर डिगने में भलाई नहीं है। क्योंकि, अँधेरी
गुफा का रास्ता दिखाने वाला जिधर से चलने को कहे उधर से ही चलने में कल्याण
होता है। जरा भी चूकना विपत्ति का कारण बन जाता है। धर्म-कर्म भी अॅमधेरी
गुफा की चीज है, 'धर्मस्य तत्तवं निहितं गुहायाम्', उसका पथप्रदर्शक
शास्त्र के सिवाय दूसरा नहीं, जैसा कि 'श्रुति-स्मृती उभे नेत्रो' कहा गया
है। और मनुजी ने भी कहा है कि :
श्रुतिस्मृत्युदितं धार्ममनुतिष्ठन् हि मानव:।
इह कीख्त्तामवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तामं सुखम्॥
श्रुतिस्तु वेदा विज्ञेयो धार्मशास्त्रां तु वै स्मृति:।
ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धार्मो हि निर्बभौ॥
''श्रुतिस्मृति में कहे गये नियमों के अनुसार धर्म का करनेवाला मनुष्य इस
लोक में यशोभागी होता तथा परलोक में सर्वोत्तम सुख पाता है। वेद का नाम
श्रुति और धार्मशास्त्र का नाम स्मृति है। सभी बातों में इन दोनों की आज्ञा
पर तर्क नहीं करना चाहिए'' (अ. 2/9/10)। परन्तु आजकल के धर्म-कर्म करनेवाले
यद्यपि धर्मात्मापन की हामी भरते हैं तो भी प्रच्छन्न नास्तिक हैं। क्योंकि
वे साफ-साफ वेदों और धार्मशास्त्रो की आज्ञाओं का उल्लंघन करते हैं। खर्च
तो धर्म के नाम पर करते हैं, पर चित्त में सिर्फ यही भावना रहती है कि लोग
इसके द्वारा हमारी बड़ाई करें और कहें कि ओफ, अमुक मनुष्य ने तो इतने
ब्राह्मण खिलाए और इतने रुपये खर्चे! बस बड़ाई लूटने का अब एकमात्र मार्ग
श्राध्द आदि ही रह गया है। तो फिर क्यों न नास्तिक कहे जायँ? यह सब हम अपनी
ओर से नहीं कर रहे हैं, किन्तु मनु ने ही धर्मकार्यों में धार्मशास्त्रो के
नियमों और आज्ञाओं के उल्लंघन करने वालों को नास्तिक और वेदनिन्दक तक कह
डाला है, जैसा कि :
योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विज:।
स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दक:॥
'''जो द्विज किसी अन्य स्वार्थ, या शास्त्र का आधार लेकर उन
श्रुति-स्मृतियों की आज्ञाओं का उल्लंघन करता है, सत्पुरुषों को उचित है कि
समाज से उसे बाहर (ख़ारिज) कर दें; क्योंकि वह नास्तिक और वेदों का निन्दक
है (अ. 2/11)।
ऐसे अवसरों पर खिलाने-पिलाने या कुछ देने वालों पर इधार यह भूत सवार होता
है कि अधिक से अधिक लोगों को खिलावें चाहे उससे जमीन-जायदाद तक बिक जाय तो
भी कोई हर्ज नहीं! बहुत सी जगह यही हुआ और हो भी रहा है। आगे चलकर
लड़के-बच्चे भूखों मरें पर इन्हें तो यश और स्वर्ग लूटने की ही चिन्ता है!
उधर खाने वालों की यह दशा है कि पाँच बुलावें तो पच्चीस दौड़े आवें, जिससे
लोगों के नाकों दम हो जाता है। फिर उन मूर्खों से यदि कहा जाय, कि तुम
योग्य (विद्वानों तथा सदाचारियों) को ही खिलाओ, तो कहते हैं, कि ऐसा मत
कहिये। यदि हमारे गुरु-पुरोहित ऐसा सुन लेंगे अथवा हम यदि इस झंझट में
पड़ेंगे तो कोई पढ़े-लिखे भी हमारे घर खाने ही न आवेंगे, और तब हमारा यज्ञ ही
बिगड़ जायेगा। गोया भेड़ों की तरह पतितों तथा मूर्खों को खिला देना ही यज्ञ
के पूर्ण होने का एकमात्र साधन है! हाय रे हिन्दू धर्म! कभी-कभी यह भी कहा
जाता है कि मूर्खों को पुरोहित बना रखा है या बराबर बहुत दिनों से खिलाते
आये हैं यदि उन्हें हटावेंगे या खिलाना बन्द करेंगे तो वह हमारे ऊपर जान दे
देंगे, हमारे द्वार पर आकर पड़ेंगे, दाढ़ी-बाल बढ़ावेंगे इत्यादि। यह कैसी
प्रचण्ड मूर्खता तथा धार्म के सम्बन्धा में उदासीनता है! यदि कोई बृहस्पति
बनकर भी किसी की एक तिलमात्र भूमि पर बलात् अधिकार करना या उसकी बहू-बेटी
से अनुचित सम्बन्ध करना चाहे तो इसे वह कभी न मानेगा, चाहे वह बृहस्पति या
बाजपेयी बनने वाला इसके लिए जान तक दे दे। यह इसलिए होता है कि भूमि या बहू
बेटी को लोगों ने कोई आवश्यक या प्रतिष्ठित पदार्थ मान रखा है। पर, धर्म
कर्म तो लोगों की दृष्टि में कोई चीज़ नहीं है! इसलिए उसके नाम पर केवल धमकी
से ही डर जाते हैं। क्योंकि अपनी जान कौन देता है? यह सब तो केवल 'बन्दर
घुड़कियाँ' हैं और इनकी परीक्षा भी बार-बार हो चुकी है। इसके अतिरिक्त इन सब
कुचालों को रोकने के लिए तो पुलिस है ही, सिर्फ दाढ़ी-बाल बढ़ाने, दरवाजे पर
पड़ने या जान देनेवाले की सूचना उसे मिलनी चाहिए और उसके लिए दो गवाह। बस,
इतने ही में बाल आदि बढ़ाने वाले 6 महीने के लिए कारागार की हवा खायेंगे। पर
यह सब तभी हो सकता है जब हमें कुछ भी धर्म-कर्म का ध्यान हो, हम उसे कोई
चीज़ समझते हों।
यहाँ पर, सब विचारों, शास्त्रो तथा बुध्दि को ताक पर रखकर बात करने वाले
बहुत से बुध्दि के शत्रु प्रच्छन्न नास्तिकों का एक यह सिध्दान्त है कि
'अविद्यो वा सविद्यो वा ब्राह्मणो मामकी तनु:' 'चाहे विद्वान् हों या
मूर्ख, ब्राह्मण मात्र ही भगवान् के देह हैं।' यह सिध्दान्त बड़ा ही व्यापक
और घातक है। जहाँ ही जाइये, इसका अटल राज्य है। कहीं पर भी ब्राह्मणों के
सदाचार और पढ़ने-पढ़ाने की बात चलाइये, बस, चट यही उत्तर पा जावेंगे। यदि यह
श्लोक नहीं तो तुलसीकृत रामायण की यह चौपाई ही सुनाई जायेगी कि ''शापत ताड़त
परुष कहंता। विप्र पूज्य अस गावहिं संता॥' हमें इस श्लोक की प्रामाणिकता या
अप्रामाणिकता पर विचार नहीं करना है। क्योंकि, ऐसे कहने वालों में जिन्हें
कुछ जानकारी है, वह मनुस्मृति का यह वाक्य अपनी पुष्टि के लिए उध्दृत करते
हैं कि :
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत्॥137॥
''जिस तरह यज्ञ-होम-के लिए हवन कुण्ड में लाई या बिना लाई अग्नि महादेवता
है, उसी प्रकार विद्वान् या अविद्वान् ब्राह्मण भी महान् देवता हैं।
श्मशानेष्वपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति।
हूयमानश्च यज्ञेषु भूय एवाभिवर्धते॥318॥
एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तन्ते सर्वकर्मसु।
सर्वथा ब्राह्मणा: पूज्या: परमं दैवतं हि तत्॥319
''जिस तरह श्मशान में जाने पर भी तेजस्वी अग्नि में दोष नहीं लगता,
प्रत्युत यज्ञ हवन में उसका तेज और भी बढ़ता ही है। इसी तरह यद्यपि ब्राह्मण
लोग सभी प्रकार के अनुचित कामों को करें तो भी सभी प्रकार से पूजनीय हैं,
क्योंकि वे परम देवता हैं (अ. 9/317-319)। पर विचारने की बात यह है कि जैसा
हम पूर्व कह चुके हैं, जिनके हाथ में सम्पूर्ण हिन्दू समाज की नकेल हो, जो
सभी के पथप्रदर्शक और नेता हों, जिन्हें जगद्गुरु होने का गर्व हो, उन्हें
इतनी स्वतन्त्रता दे दी गयी कि चाहे जो भी कुकर्म करें, फिर भी वैसे ही
प्रतिष्ठित रहेंगे, वैसे ही पूज्य होंगे। जिन मनु आदि ने ब्राह्मणों के लिए
कड़े से कड़े नियम बनाये वही क्या उन्हें ऐसी स्वतन्त्रता देंगे, जिससे उनके
सभी नियमों पर पानी फिर जाय? स्वतन्त्रता भी ऐसी जिसको कि मूर्ख भी मानने
को तैयार नहीं! क्या कोई विज्ञ पुरुष नीच से नीच और मूर्ख से भी मूर्ख
दुराचारी ब्राह्मण की वैसी ही प्रतिष्ठा करेगा जैसी कि सदाचारी और विद्वान्
की? क्या यह कथमपि सम्भव है? क्या इसे ही 'अन्धेर नगरी चौपट राजा। टके सेर
भाजी टके सेर खाजा' नहीं कहते? यदि ऐसा ही नियम रहेगा तो क्या कभी कोई
ब्राह्मण, विद्वान् तथा सदाचारी बनने का कष्ट उठावेगा? किस की जान मुफ्त की
है कि 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य के कठिन नियमों का पालन करता हुआ विद्या पढ़े
और बाद को नित्य दोनों या तीनों समय स्नान, सन्ध्यादि का महान् कष्ट उठावे,
फिर भी मान- प्रतिष्ठा उतनी ही जितनी कि लण्ठाचार्य पेटपालदत्ता मौजी जी
की? बस इसीलिए बहुतों ने इन श्लोकों को प्रक्षिप्त या आधुनिक माना है।
क्योंकि मनु के ही पूर्वोत्तर ग्रन्थों से इनका विरोध है। परन्तु हम उतनी
दूर जाने को तैयार नहीं। इसकी कोई आवश्यकता नहीं कि पूर्वापरविरोध हटाने के
लिए, या पूर्व-प्रदर्शित दोषों से बचने के लिए ही ये श्लोक प्रक्षिप्त मान
लिये जायँ। इसका और ही सुन्दर उपाय है। पर, वह उपाय बतलाने से प्रथम हम यह
कह देना उचित समझते हैं, कि उन श्लोकों के अन्धभक्त लोग अब पढ़ना-पढ़ाना तथा
सन्ध्या, स्नानादिक करना छोड़ मजे से गुलछर्रे उड़ावें, और यदि वे ऐसा नहीं
करते तो हम कहेंगे कि वे लोग ही स्वयं अपने सिध्दान्त के पक्के नहीं हैं।
केवल संसार को ठगने के ही लिए उन्होंने यह जाल रच रखा है, नहीं तो फिर जैसा
अर्थ उन श्लोकों का करते हैं उसके ही अनुसार स्वयमेव क्यों नहीं चलते? इससे
पता चलता है कि दाल में कुछ काला अवश्य है, और जैसा अर्थ उन श्लोकों का उन
लोगों ने समझा है वस्तुत: वह नहीं है, किन्तु और ही कुछ है।
सबसे पहली बात जो इस सम्बन्ध में विचारणीय है, यह है कि पूर्वोक्त श्लोक
मनुस्मृति के 9वें अध्याय में हैं जो केवल राजधर्मप्रकरण के हैं। इसलिए इन
श्लोकों का सर्वसाधारण से कोई सम्बन्ध ही नहीं। यह सर्वसाधारण् गृहस्थों के
मानने की बात नहीं, किन्तु केवल राजा के ही करने की है। सो भी जिसका नाम
राजा पड़ जाय, या जिसे राजा की पदवी मिल जाय, वही 9वें अध्याय के इन धर्मों
को करने का अधिकारी नहीं है, किन्तु वह क्षत्रिय हो, अथवा उसका राज्याभिषेक
शास्त्रीय रीति के अनुसार हुआ हो। साधारण ब्राह्मण आदि क्योंकर इन बातों को
मानेंगे? यद्यपि 9वें अध्याय के प्रारम्भ में सभी लोगों के धर्मों का वर्णन
है, तथापि 221वें श्लोक से राजा के ही दण्ड आदिर कर्तव्यों का वर्णन चला है
और 325वें श्लोक में उसका उपसंहार किया है, जैसा कि :
एषोऽखिल:कर्मविधिरुक्तोराज्ञ:सनातन:।
राजाओं के सनातनर कर्तव्य की विधि यहाँ तक बतायी गयी है। इस बीच में केवल
राजा और नृप शब्द ही आये हैं, और इन दोनों शब्दों के सम्बन्ध में
कुल्लूकभट्ट ने 7वें अध्याय के प्रारम्भ में ही लिखा है कि ''राजशब्दो
नात्र क्षत्रियजातिवचन: किन्त्वभिषिक्तजनपदपुरपालयितृपुरुषवचन:। अतएवाह
यथावृत्ता भवेन्नृप इति।''- यहाँ राजा शब्द का अर्थ क्षत्रियमात्र नहीं है,
किन्तु जिसका अभिषेक देश नगर आदि के पालनार्थ हुआ हो, उसे ही राजा कहते
हैं। इसीलिए उसे नृप कहा है। राजा भी वस्तुत: ऐसा नहीं कर सकता और उसे करना
भी नहीं चाहिए! यह खाली ब्राह्मणों की प्रशंसा है। जिसकी बारात उसकी गीत यह
साधारण रीति है। प्रसंगवश उन ब्राह्मणों की और उन्हीं के द्वारा
ब्राह्मणसमाज की प्रशंसा की गयी है, जिन्होंने अपनी विद्या और तप के बल से
बड़े-बड़े चमत्कार के कार्य किये थे, जैसा कि उन्हीं श्लोकों से ठीक पूर्व
लिखा है कि :
परामप्यापदं प्राप्तो ब्राह्मणान्न प्रकोपयेत्।
ते ह्येनं कुपिता हन्यु: सद्य: सबलवाहनम्॥313॥
यै: कृत: सर्वभक्ष्योऽग्नि रपेयश्च महोदधि:।
क्षयी चाप्यायित: सोम: को न नश्येत प्रकोप्य तान्॥314॥
लोकानन्यान्सृजेयुर्येलोकपालांश्च कोपिता:।
देवान्कुर्यु रदेवांश्च क: क्षिण्वंस्तान्समृधनुयात्॥315॥
यानुपाश्रित्य तिष्ठन्ति लोका देवाश्च सर्वदा।
ब्रह्म चैव धानं येषां को हिंस्यात्तान् जिजीविषु:॥316॥
राजा अत्यन्त आपत्ति के समय भी ब्राह्मणों को कुपित न करे। क्योंकि क्रुध्द
होने पर चटपट वे राजा के दलबल के साथ नाश कर देंगे। जिन्होंने शाप देकर
अग्नि को सभी भक्ष्याभक्ष्य का भक्षक बना दिया, समुद्र को खारा कर दिया, और
चन्द्रमा को क्षयरोगयुक्त बना दिया, उसके पश्चात् आशीर्वाद देकर बढ़ने वाला
भी कर दिया, उन्हंो कुपित कर कौन नष्ट न हो जायगा? जो क्रुध्द होकर
दूसरे-दूसरे लोकों एवं लोकपालों की सृष्टि कर सकते और देवताओं को देवपद से
हटा सकते हैं, उन्हें पीड़ा देकर कौन समृध्दियुक्त हो सकता है? जिनके आधार
पर सम्पूर्ण लोक और देवता हैं, और वेद ही जिनका धन है, प्राण की लालसा वाला
कौन पुरुष उन्हें मारेगा? (अ. 9/313-316)। इससे प्रकट है कि केवल दुराचार
से ही जीवन बिताने वालों तथा गायत्री तक के न जानने वालों एकमात्र परान्न
भोजी एवं ब्राह्मण शब्द को कलंकित करने वालों का यहाँ प्रसंग ही नहीं है।
उनमें पूर्वोक्त सामर्थ्य कहाँ है? यहाँ तो केवल सौभरि, पराशर तथा नारदादि
ब्रह्मऋर्षियों से ही तात्पर्य है, जिनसे कोई बुरा कर्म भी यदि हो जाय तो
भी अपने अखण्ड सामर्थ्य के कारण वे माननीय ही हैं और उन्हीं के नाम पर
सामान्यत: ब्राह्मण समाज की प्रशंसा मनु ने की है। सो भी यदि उन्हें ऐसी
आशा होती कि कभी उन ब्रह्मऋर्षियों के वंशज ऐसे पतित हो जायेंगे जैसे आजकल
हो रहे हैं तो कदापि यह प्रशंसा न करते। परन्तु स्वप्न में भी उन्हें ऐसी
आशा न थी, जैसा कि प्रथम प्रकरण में दिखला चुके हैं। जिन्होंने गर्वपूर्वक
यह कह दिया था कि यहाँ के ब्राह्मण ही सब संसार के गुरु होंगे, उन्हीं के
मुख से यह प्रशंसा भी निकली है। अत: यदि आजकल के पेटू पण्डित लोग उस
जगद्गुरु के बनने की योग्यता वाले नहीं हैं, और अतएव मनु की उस बात को
मिथ्या सिध्द कर रहे हैं, तो फिर उन्हें 9वें अध्याय वाली प्रशंसा या पूजा
का अधिकार कैसे हो सकता है? अस्तु, राजा के लिए भी यदि कोरी प्रशंसा ही
होती और यदि वास्तव में मूर्खों तथा दुराचारियों का सत्कार करना ही उसका
धर्म होता तो उससे कुछ ही प्रथम यह क्यों कहा जाता है कि :
आगस्सु ब्राह्मणस्यैव कार्योमधयमसाहस:।
विवास्यो वा भवेद्राष्ट्रात्सद्रव्य: सपरिच्छद:॥
''अपराधा करने पर ब्राह्मण के ऊपर पाँच सौ दण्ड लगावे, अथवा बोरिये बँधाने
के साथ उसे अपने राज्य से ही बाहर कर दे'' (अ. 9/241)? 8वें अध्याय के
378-383 आदि श्लोकों में भी परस्त्रीगमन आदि दुराचार करने पर फाँसी के
सिवाय सभी प्रकार के दण्ड ब्राह्मणों को राजा दे यह आज्ञा क्यों दी जाती?
इसके अतिरिक्त यदि उन्हीं श्लोकों के अर्थ पर पूरा विचार किया जाय तो विदित
हो जायगा कि लोग उनका अर्थ समझने में ग़लती करते हैं। प्रथम श्लोक (317वें)
में मनु ने अविद्वान् ब्राह्मण को भी अच्छा कहा है और उसमें दृष्टान्त दिया
है प्रणीत तथा अप्रणीत अग्नि का। प्रणीत अप्रणीत का अर्थ यह है कि जो अग्नि
अग्निहोत्र आदि कर्मों के लिए संस्कार करके गार्ह्यपत्यकुण्ड में स्थापित
रहती है और कहीं इधर-उधर लायी नहीं जाती वह अप्रणीत कहलाती है। पर, उसी में
से जो आवहनीय कुण्ड में हवन के लिए अथवा अन्यत्र भी ऐसे ही कार्यों के लिए
ली जाती है, वह प्रणीत कहलाती है। इससे स्पष्ट है कि इन दोनों प्रकार की
अग्नियों में बहुत ही कम अन्तर है। यद्यपि एक में होम होता है, और दूसरी
में नहीं, तथापि दोनों का शास्त्रीय रीति से संस्कार हुआ है-अप्रणीत का ही
एक अंश प्रणीत है। केवल दूसरे स्थान पर जाने मात्र से ही नाम बदला है।
परन्तु विद्वान् तथा अविद्वान् में आकाश-पाताल का अन्तर है। विद्वान् शब्द
देखने से छोटा प्रतीत होता है, पर इसका अर्थ बहुत बड़ा है। मुण्डकोपनिषद्
में वर्णित ऋग्वेदादि वेदशास्त्र-समूह रूप अपरा विद्या एवं ब्रह्मज्ञान
(ब्रह्मसाक्षात्कार) रूप परा विद्या ये दोनों जिसमें पायी जायँ वही
विद्वान् कहाता है और जिसमें यह बात न हो वह अविद्वान् है। एकाध शास्त्र या
थोड़ा-बहुत पढ़ने वाले को भी विद्वान् नहीं कह सकते, उसकी गणना अविद्वान् में
ही है। लेकिन, यदि वही सदाचारी तथा गायत्री प्रभृति नित्यनैमित्तिकादि
कर्मों का करने वाला हो तो अविद्वान् होने पर भी विद्वान् की तरह मान्य हो
सकता है। जैसा कि मनुजी ने ही कहा है कि-'सावित्रीमात्रसारोऽपि' इत्यादि।
यह बात पूर्वार्ध्द में कही गयी है। बस, ऐसे ही विद्वान्; अविद्वान् से
यहाँ तात्पर्य है, कारण, ऐसों ही में परस्पर कम अन्तर हो सकता है। और
इसीलिए प्रणीत, अप्रणीत अग्नि का दृष्टान्त भी यथार्थरूप से लग सकता है। न
कि महामूर्ख, दुराचारी केवल पुआपण्डे अविद्वान् शब्द से समझे जा सकते हैं।
ऐसों का यहाँ प्रसंग कहाँ? तुलसीदास की उक्त चौपाई का भी यही आशय है।
इसीलिए अयोध्याकाण्ड में कहा है कि, 'सोचिय विप्र जो वेदविहीन। तजि निज
धरमु विषय वलयलीन॥' और उत्तरकाण्ड में भी कहा है कि 'विप्र निरच्छर लोलुप
कामी। दुराचार शठ बृषली गामी॥' यदि उनका अभिप्राय ऐसा न होता तो फिर यह
शिकायत क्यों करते?
अब रही शेष दो 318, 319 श्लोकों की बात। वहाँ भी यही बात है। प्रथम श्लोक
(318वें) में कहा गया है कि तेजस्वी अग्नि श्मशान में जाने पर दूषित नहीं
होती, वरन, यज्ञों में होम के समय और भी दीप्त होती है। फिर आगे कहते हैं
कि इसी तरह यदि सभी प्रकार के अनिष्ट कर्मों में फँसे रहें तो भी
ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिए। इससे प्रकट है कि दुराचारी ब्राह्मण की
उपमा श्मशान की अग्नि से दी गयी है और सदाचारी की यज्ञ की अग्नि से। पर
स्मरण रखने की बात तो यह है कि क्या श्मशान की आग से वह काम लिया जाता है
जो यज्ञकुण्ड की आग से लेते हैं? जो आहुति यज्ञ की आग में दी जाती है या जो
पूजा उसकी की जाती है क्या वही बात श्मशान वाली आग में भी होती है? पूजा और
आहुति की बात तो दूर रही, कोई रसोई बनाने के काम में भी उसे नहीं लाता,
यहाँ तक कि छूता भी नहीं। फिर कैसे कहें कि उसी के समान या स्थानापन्न
दुराचारी ब्राह्मण को कोई पूजेगा, उसे खिलावेगा या छूवेगा भी? और यदि ऐसा न
होगा तो फिर क्योंकर कहेंगे कि मनुस्मृति में ऐसा ही लिखा है? मनुस्मृति के
अन्धभक्तों को हम कहेंगे कि यदि उन श्लोकों का वही अर्थ मानते हैं जैसा कि
पूर्व प्रदर्शित है तो पहले श्मशान की आग लाकर उसी से रसोई बनवावें और उसी
में होम करें, करवावें, तब यह दावा कर सकते हैं कि दुराचारी तथा सदाचारी
दोनों ब्राह्मणों का सत्कार-समान ही करना चाहिए। और यदि वे ऐसा नहीं करते
तो यही समझा जायगा कि उन्होंने या तो मनुस्मृति के उन वाक्यों का अर्थ ही
नहीं समझा है, या समझ कर भी वे संसार को ठगते हैं। इससे सिध्द है कि उन
वाक्यों का अभिप्राय और ही कुछ है और वह यह है कि जिस तरह किसी घर के एक,
दो, चार आदमियों के अपने ही मन वाले होने के कारण उस घर को लोग अलग छाँट
देते और उससे नाता तोड़ लेते हैं, जिस प्रकार किसी जाति के अधिकांश लोगों के
डाकू-लुटेरे या दुष्ट होने के कारण वह जाति ही बदनाम हो जाती है और उसके
अच्छे से अच्छे मनुष्यों पर भी लोग न तो विश्वास करते हैं और न उन्हें
प्रतिष्ठा ही देते हैं, जैसे किसी जाति के बहुसंख्य लोगों के लड़ाकू न होने
के कारण वह जाति लड़ाकी नहीं समझी जाती और इसी से उसके वीर से वीर एवं
निर्भीक से निर्भीक मनुष्य भी सेना में भरती नहीं किये जाते, अथवा जिस तरह
शूद्रों में अधिक लोगों के वेदों के पढ़ने तथा समझने के अयोग्य होने के कारण
वह जाति ही वेदों की अनधिकारिणी समझ ली गयी, जिससे कि योग्य से योग्य भी
शूद्र वेदों के पढ़ने वंचित हो गये, क्योंकि अधिक संख्या के ही अनुसार कोई
नियम बनाया जाता है-(Majority is granted)। इसीलिए जैमिनि ने मीमांसादर्शन
में यही कहा है कि 'विप्रतिषिध्दधार्माणां समवाये भूयसां स्यात्सधर्मत्वम्'
(मी. 12।2।23)। इसका अभिप्राय पूर्वोक्त ही है। इसी तरह ब्राह्मणों में भी
अधिकांश लोगों के दुराचारी तथा मूर्ख होने पर कभी ऐसा न हो जाय कि हिन्दू
समाज ब्राह्मणजातिमात्र को ही अपूज्य तथा अमान्य समझ ले, जैसा कि हाल तक
पंचद्राविड़ लोग पंच गौड़ों को शूद्र तथा वेद और संन्यास के अनधिकारी समझते
थे, और अभी तक प्राय: समझते ही हैं! मालाबार में जाने पर पूर्व देश के
ब्राह्मणों को रांगड़े तथा काशीशूद्र वहाँ के ब्राह्मण कहा करते हैं और वेद
नहीं पढ़ाते! वह केवल इसीलिए कि अधिकांश पंचगौड़ों ने इधर बहुत दिनों से
वेदों का पढ़ना-पढ़ाना एक प्रकार से छोड़ ही दिया था और अभी तक प्राय: वही दशा
है। बस, यही बात विचार कर मनु ने कहा है कि नहीं ऐसा नहीं हो सकता। यदि
ब्राह्मणसमाज में बहुसंख्य लोग निरक्षर तथा दुराचारी हो जायँ तो भी वह जाति
दूषित नहीं हो सकती, किन्तु उस समाज में जो ही दो-चार विद्वान् सदाचारी हों
उनका तो सत्कार करना ही चाहिए, जौ के साथ घुन की तरह अन्यान्य पतितों तथा
मूर्खों के साथ उन्हें भी पीस डालना उचित नहीं है। बस, यही मनुस्मृति के उन
वाक्यों तथा अन्यान्य ग्रन्थों के ऐसे वाक्यों का वास्तवि तात्पर्य और
रहस्य है। अतएव इन वाक्यों में भी ''जो ही कुकर्मी और मूर्ख हो उसी
ब्राह्मण व्यक्ति की पूजा करनी चाहिए'' ऐसा न कह साधारण रीति से ब्राह्मण
जाति को ही पूजित होने योग्य ठहराया है-'ब्राह्मणो दैवतं महत्' 'सर्वथा
ब्राह्मणा: पूज्या:' इत्यादि। इसीलिए आगे चलकर 10वें अध्याय में कहा है कि
:
ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ये स्वकर्मण्यवस्थिता:।
ते सम्यगुपजीवेयु: षट्कर्माणि यथाक्रमम्॥74॥
''जिन ब्राह्मणों की उत्पत्ति ब्राह्मणी-ब्राह्मण से हुई हो तथा जो
ब्रह्मधयानिष्ठ और अपने धर्मों के पालन करने वाले हों वे ही पढ़ना-पढ़ाना और
दान-प्रतिग्रह आदि छहों कर्मों को विधिवत् करें'' (मनु., 10/74)। इसीलिए
देने-दिलाने के सम्बन्ध में भी 11वें अध्याय के प्रारम्भ में राजा और
सामान्यत: सभी गृहस्थों के लिए ही आज्ञा दी गयी है कि :
सर्वरत्नानि राजा तु यथार्हं प्रतिपादयेत्।
ब्राह्मणान्वेदविदुषो यज्ञार्थं चैव दक्षिणाम्॥
धानानि तु यथाशक्ति विप्रेषु प्रतिपादयेत्।
वेदवित्सु विविक्तेषु प्रेत्य स्वर्गं समश्नुते॥
''राजा सभी रत्नादि तथा यज्ञ की दक्षिणा वेद के ज्ञाता ब्राह्मणों को
योग्यताके अनुसार दिलावे। तथा अन्य गृहस्थ भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार वेद
के जानकार
तथा एकान्तसेवी ब्राह्मणों को धन देवें। इससे उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति
होती है' (मनु , 11/4, 6)।
यदि योग्य ब्राह्मण यज्ञ में भोजनार्थ न मिलें या योग्य होने पर भी किसी
कारणवश क्रुध्द होकर न आवें तो इसमें चिन्ता ही क्या? इस प्रकार यज्ञ
बिगड़ने का भय मानना लोगों की सरासर भूल है। मनु और याज्ञवल्क्य आदि की
आज्ञा है कि श्राध्द और यज्ञ आदि में खिलाने योग्य ब्राह्मण न मिलें तो :
मातामहं मातुलं च स्वस्त्रीयं श्वशुरं गुरुम्।
दौहित्रां विट्पतिं बन्धुमृत्विग्याज्यौ च भोजयेत्॥48॥
''अपने नाना, मामा, भानजे, ससुर, गुरु, लड़की के लड़के, दामाद, भाई-बिरादर,
यज्ञ करानेवाले और यज्ञ करनेवाले को ही खिलावे'' (मनु., 3/148)। आपस्तम्ब
ने तो एक जगह श्राध्द प्रकरण में लिखा है कि 'सोदर्योपि'-सहोदर या सगे को
भी खिलाने से काम हो जाता है। फिर यदि अपने भाई-बन्धु ब्राह्मण ही हों तो
बात ही क्या? तब तो सोने में सुगन्ध आ जाती है। क्योंकि वे भाई भी हैं और
ब्राह्मण भी। उनके मुकाबले में दूसरों को खिलाना कभी उचित नहीं। बल्कि हर
समय जब कभी देने- दिलाने या खाने-खिलाने का अवसर आवे तभी अपने दु:खी
भाई-बंधुओं को खिलाना या धन देकर उनका दु:ख दूर करना चाहिए। घर की जमींदारी
और धन ब्राह्मण के नाम पर मूर्खों को लुटाना और अपने लड़के-बच्चों को कंगाल
बना देना महत् पाप है, जैसा कि बहुत से लोग नामवरी लूटने के लिए किया करते
हैं। मनु कहते हैं :
शक्त: परजने दाता स्वजने दु:खजीविनि।
मधवापातो विषास्वाद: स धार्मप्रतिरूपक:॥9॥
भृत्यानामुपरोधोन य:करोत्यौधर्वदेहिकम्।
तद्भवत्यसुखोदर्कं जीवतश्च मृतस्य च॥10॥
''अपने भाई-बन्धुओं के दु:ख से जीवन बिताते रहने पर भी जो दूसरों को धर्म
के लिए कुछ भी देता है वह उसके देखने में तो मधु के समान सुखद धर्म प्रतीत
होता है। पर, अन्त में विष के समान नरक के दु:ख का देने वाला अधर्म ही है।
जो अपने बाल-बच्चों की जीविका मारकर (जमीन आदि बेचकर या ऋण लेकर) पार लौकिक
दान आदि करता है वह दान उसके जीते-जी तथा मरने पर भी केवल दु:ख देने वाला
ही होता है।'' (मनु., 11/9, 10)।
ब्राह्मणों में और उन्हीं के द्वारा हिन्दू समाज में एक बात आजकल अत्यन्त
प्रचलित है, जिसने हिन्दू समाज को अकर्मण्य-आलसी बना रखा है, तथा जिसका
उपदेश गुरु, पुरोहित और वर्तमान साधु-सन्त अपने यजमानों एवं चेलों को
रात-दिन किया करते हैं। जब कोई विपत्ति आती, या अतिवृष्टि, अनावृष्टि का
कोप होता, अकाल या महामारी आती, अन्न आदि की उपज नहीं होती और धर्म-कर्म से
लोग विमुख होते हैं, तो उन लोगों को उन दु:खों से बचने का उपाय सुझाने तथा
धर्म-कर्म के लिए उत्साहित करने और यत्नवान एवं पुरुषार्थी होने का उपदेश न
देकर केवल यही कहा जाता है कि क्या कीजियेगा, यह तो कलियुग का धर्म ही है!
कलि में बार-बार ऐसा होता ही रहता है। इसी के साथ हो सका तो पुराणों के
दो-चार कलिमाहात्म्य के आख्यान भी सुनाकर मूर्ख हिन्दू समाज के दिल में
बचपन से ही यह बात भरते-भरते पक्की कर दी जाती है। जहाँ देखिये इसका अखण्ड
राज्य है। फल यह होता है कि सभी लोग आलसी और दैववादी बन जाते हैं। जहाँ
देखिये और जब देखिये भाग्य ही भाग्य चिल्लाया करते हैं। यह कितने अनर्थ की
बात है! नहीं कह सकते कि यही समय क्यों भारत के सिवाय अन्य देशों के लिए
अर्थ दृष्टि से सत्ययुग हो रहा है! जिससे वे धन, जन, मन, राज्य और
प्रतिष्ठा में उत्तरोत्तर वृध्दि कर तथा स्वर्गसुख भोग रहे हैं। पर, भारत
के लिए यही कलियुग हो रहा है! क्या कभी यह सम्भव है कि एक ही समय एक जगह
कलियुग हो तो दूसरी जगह सत्ययुग, त्रोता, या द्वापर हो? समय तो सब जगह एक
ही है। फिर वह चाहे कलि हो या सत्ययुग। इस सम्बन्ध में भगवान् मनु का
सिध्दान्त निराला और परम आदरणीय है। उन्होंने कर्म के प्रसंग से सत्ययुग
तथा कलियुग की निराली ही व्याख्या की है। उनका यह आदेश है कि चाहे कलियुग
मानो या सत्ययुग, पर, कर्म, उपाय, यत्न करने से मत चूको। एक-दो बार या
बार-बार निष्फल होने पर भी कर्म करना न छोड़ो-Try try again. क्योंकि कर्म
करने वाले को फलसम्पत्ति अवश्य प्राप्त होती है। निराश होने की कोई बात
नहीं-You will couquer never fear. जैसा कि 9वें अध्याय से स्पष्ट है :
आरभेतैव कर्माणि श्रान्त: श्रान्त: पुन: पुन:।
कर्माण्यारभमाणं हि पुरुषं श्रीख्रनषेवते॥300॥
फिर जब कलियुग वाला पूर्वोक्त सिध्दान्त उनके सम्मुख आया है तो ऊपरवाले
श्लोक के बाद के दो श्लोकों में उन्होंने कलियुग आदि की निराली ही व्याख्या
की है, जो कर्मयोग के अनुकूल ही है और उसके अनुसार पूर्वोक्त कर्मयोग वाला
सिध्दान्त और भी दृढ़ हो जाता है। मनुजी कहते हैं कि :
कृतं त्रोतायुगं चैव द्वापरं कलिरेव च।
राज्ञो वृत्तानि सर्वाणि राजाहि युगमुच्यते॥301॥
कलि: प्रसुप्तो भवति स जाग्रद्द्वापरं युगम्।
कर्मस्वभ्युद्यतस्त्रोता विचरंस्तु कृतं युगम्॥302॥ |