सन 1926 ई. अन्त में मैं दरभंगा जिले के समस्तीपुर में रहने लगा। वहाँ कुछ
साथियों के कहने-सुनने तथा स्वयं अनुभव न रहने से मेरे ऊपर यह भूत सवार हुआ
कि एक साप्ताहिक समाचार-पत्र हिन्दी में निकालूँ और उसके लिए प्रेस आदि का
प्रबन्ध करूँ। पीछे मेरे अनुभव ने बताया कि यह कितनी बड़ी भूल थी। मैंने
प्राय: देखा हैं कि प्रेस चलाने की धुन बहुतों को हुआ करती हैं और अखबार
निकालने की भी। लेकिन इतने दिनों के कटु अनुभव के बाद मैं यही कह सकता हूँ
कि एक तो प्रेस रखना ही भूल हैं। लेकिन यदि वह किसी दशा में क्षम्य भी हो
तो भी 'पत्र' निकालना तो साधारणत: अक्षम्य अपराध हैं! 'लोक संग्रह' के
अनुभव के बाद तो मैंने यही तय कर लिया था कि इन दो भूलों का शिकार हर्गिज न
बनूँगा। लोगों को भी बराबर यही सिखाता रहा। खास कर 'पत्र' निकालने के झमेले
से बचने की तो बराबर ही शिक्षा देता रहा हूँ। अगर ईधर आकर 'जनता' में मैं
फँसा, तो अपनी मर्जी के खिलाफ दोस्तों के द्वारा बलात फँसा दिया गया। मेरी
भूल यही हुई कि मैंने बेमुरव्वती से अन्त तक इन्कार नहीं किया। अगर इसका
परिणाम और अनुभव तो कटुतम हुआ हैं, यह खेद की बात हैं। इस 'जनता' ने तो न
सिर्फ मुझे, पर मेरे कितने ही सच्चे साथियों को भी रुलाया हैं, सो भी खून
के आठ-आठ आँसू। पं. पद्म सिंह शर्मा कहा करते थे कि जिसे कोई काम न हो और
लीडर बनना एवं नाम कमाना हो वह कोई संस्था खोल ले। लेकिन भले आदमी को तो ये
संस्थाएँ मारे डालती हैं। मैंने इस कटुसत्य का अक्षरश: अनुभव रो-रो के किया
हैं।
हाँ, तो पत्र निकालने की धुन सवार हुई। इसीलिए प्रेस की भी। सन 1926 के
मेरे आखिरी चन्द महीने और सन 1927 के शुरू के कुछ महीने इसी फिक्र में
गुजरे। स्वभाव के अनुसार मैं सारी शक्ति लगाकर उसमें पड़ गया। यह मेरा दोष
भी हैं और गुण भी कि एक समय एक ही काम कर सकता हूँ और उसमें सारी शक्ति लगा
देता हूँ। सफलता भी उसी से मिलती हैं। यद्यपि श्री बच्चू नारायण सिंह,
समस्तीपुर, ने यह प्रेरणा की और कुछ हद तक मेरा साथ भी दिया। फिर भी उनकी
तो एक सीमा थी। उसके आगे जा नहीं सकते थे, लेकिन मैं तो अब पीछे हटनेवाला न
था। वे तो यह काम भी करते और दूसरे भी। वह बहुकार्यी तो थे ही। आखिर सन
1927 ई. की गर्मियों के आते न आते प्रेस भी हो गया और साप्ताहिक समाचार-
पत्र की तैयारी भी हो गई। गीता का 'लोक संग्रह मेवापि
सम्पश्यन्कत्तुमर्हसि' श्लोक ही हमारा मोटो (पथ प्रदर्शक वाक्य) बना और
'पत्र' का नाम 'लोक संग्रह' रखना तय पाया। यह ठीक हैं कि इस प्रकार का नाम
रखने में कुछ मराठी पत्रों से हमें प्रेरणा मिली थी। बाकायदा पत्र निकलने
भी लगा। मैं ही उसका सम्पादक बना। मगर शुरू करते ही दिक्कतें आयी। शीघ्र ही
पता लगा कि समस्तीपुर जैसी जगह में प्रेस रखना और पत्र निकालना बड़ी भारी
भूल थी। इसलिए थोड़े ही दिनों के बाद प्रेस और पत्र पटना लाना पड़ा।
मगर इस बीच की कुछ घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। समस्तीपुर में एक पुराना प्रेस था
जिसका नाम 'नेमनारायण प्रेस'। नरहन (विभूतपुर) के बाबू कामेश्वर नारायण
सिंह, जमींदार, का वह प्रेस था। अपने स्वर्गीय पिता के नाम पर उन्होंने
उसका नामकरण किया था। प्रेस खराब था। मगर इसका पता मुझे पीछे चला। प्राय:
बन्द ही रहता था। बच्चू बाबू की राय हुई कि विभूतपुर चलकर उक्त बाबू साहब
से वही प्रेस माँगा जाये। वह चन्दे में प्रेस ही दे दें। परिचय तो गाढ़ा था
ही। हम दोनों गये और उनसे कहा। उन्होंने देने की राय जाहिर तो की। मगर शर्त
यह रखी कि नाम 'नेमनारायण प्रेस' ही रहे। वह तो होशियार थे। देखा कि रद्दी
प्रेस देकर बाप का नाम तो अमर कर लें। मगर हम दोनों इसे समझ न सके। फलत:
शर्त मानने को तैयार हो गये।
लेकिन अभी तो और शत्र्तों बाकी ही थीं। जब हम लोग खाने बैठे तो बाबू साहब
ने यह कहा कि इस बात का भी पक्का इन्तजाम हो जाना चाहिए कि किसके जिम्मे वह
प्रेस रहेगा। इस पर मुझे गुस्सा आया और मैंने सुना दिया कि जिसे वह प्रेस
मुझे देना हो वह दे, नहीं तो अपने पास रखे। मुझे नहीं चाहिए। बस, फिर तो वे
ठण्डे हो गये और प्रेस मिल गया।
लेकिन कुछ ही दिन बार उन्होंने बुरी तरह मुझे धोखा दिया। प्रेस की कीमत आठ
या नौ सौ रुपये आँकी गई थी। उन्होंने मेरे साथी, जो उनके भी पूरे साथी हैं,
बच्चू बाबू के द्वारा कहला भेजा कि एक सज्जन (जिनका नाम बताना मैं नहीं
चाहता) एक पुस्तक मुझे समर्पित करने वाले हैं। उनकी छपाई के रुपये मैं दे
दूँ यही शर्त उनसे हैं। छपाई में वही आठ या नौ सौ रुपये लगने वाले हैं।
पीछे तो पुस्तक छपने पर बेचकर ये रुपये वह लौटा ही देंगे। मुझे इसमें खटका
मालूम हुआ। आगा-पीछा में पड़ गया फौरन कोई उत्तर न दे सका। इसी बीच बच्चू
बाबू (बच्चू नारायण सिंह) ने रुपये उन्हें दे दिये। क्योंकि उन्हीं के पास
प्रेस के लिए एकत्रित रुपये जमा थे। उनने मुझसे पूछा तक नहीं! जब मालूम हुआ
तो मुझे रंज तो बहुत हुआ। मगर आखिर करता क्या? जिन्होंने पुस्तक के लिए
मुझसे वे रुपये लिये वे भी मेरे पूर्ण परिचित हैं। मगर हजार तकाजा करने पर
भी उन्होंने रुपये नहीं ही लौटाये। पुस्तक भी नहीं छपवाई। पीछे तो ऊबकर
मैंने माँगना ही छोड़ दिया। लेकिन इस घटना ने मुझे चौंका दिया। बच्चू बाबू
के प्रति भी मेरा विश्वास जाता रहा। आखिर ये पैसे सार्वजनिक थे। फिर मैं
उनके सम्बन्ध में यह हरकतें बेजा बर्दाश्त कैसे करता?
लेकिन उस रद्दी प्रेस से तो काम चलने का था नहीं। दूसरा प्रेस और टाइप
चाहिए था। प्रेस के और भी सामान चाहिए थे। ईधर जो रुपये थे उन्हें बच्चू
बाबू ने गँवा ही दिया। अब क्या हो? मुझे बड़ी चिन्ता हुई। यहाँ तक कि रात
में नींद नहीं आती थी। यह नींद का न आना मेरे लिए खास बात थी। चाहे कैसा
हूँ काम हो उसको करता हूँ खूब। मगर रात में बराबर भरपूर सोता हूँ। बावन साल
की उम्र में भी पूरे सात घण्टे की एक गाढ़ी नींद आती हैं! पहले भी ऐसे ही
सोता था। रात में कोई फिक्र न रखता था। मगर यह फिक्र ऐसी हुई कि दिल में
उसने घर कर लिया। इसी से रात की नींद हराम हो गई। यह खतरे की बात थी।
इसी बीच पटना में एक ने कह दिया कि आप तो यों ही शुरू करते मगर पूरा नहीं
कर सकते। बात तो गलत थी। मगर चुभ गई। बस, कलकत्ते गया। वहाँ सोना पट्टी में
श्री हरद्वार राय के यहाँ ठहरा। पहले भी वहाँ ठहरता था। वे पुराने परिचित
हैं। कलकत्ते में और लोग भी परिचित हैं सोचा वहीं से जरूरत भर रुपये मिलें
तो काम चले। रुपये मिले भी। मगर छोटी-मोटी नौकरी करने वाले आखिर देते ही
कितने? फिर भी हजारों रुपये जमा हुए। लेकिन तीन सौ की कमी रह गई। अब क्या
हो? रात में बेचैन रहा। पर, यह बात श्री हरद्वार राय को मालूम हो गई कि
चिन्ता से नींद नहीं आती। क्योंकि प्रेस लेने का संकल्प मैंने कर लिया हैं।
बस फिर क्या था? उनने एक मुश्त तीन सौ रुपये फौरन दे दिये। उनकी चाँदी,
सोने की अच्छी दूकान हैं। अब तो मेरा काम हो गया। वहाँ सारा सामान खरीद कर
और पटना से एक और प्रेस लेकर समस्तीपुर आ गया।
इस प्रेसवाले झमेले के प्रसंग से एक पुरानी, लेकिन दिलचस्प बात याद आ गई।
वह भी प्रेस से ही सम्बन्ध रखती हैं। जहाँ तक याद हैं, सन 1915 ई. में एक
प्रेस में मैं काशी में और भी फँसा था। उससे मासिक पत्र 'भूमिहार ब्राह्मण'
निकाला था। काशी के तीन युवकों ने जो विद्यार्थी थे और पीछे नौकरी-चाकरी
में लग गये, अपने पास से बीस-बीस रुपये जमा किये। इस साठ ही रुपये की पूँजी
से ही हमने वह पत्र निकाला। वह चल पड़ा और बहुत मुद्दत तक कायम भी रहा। मेरे
साथ वह लोग भी लगे रहते थे। 'पत्र' छपाया जाता था शुरू में किसी और प्रेस
में। पीछे तो उसका अपना प्रेस हो गया। ईमानदारी के साथ यदि किसी काम में
लगा जाये तो पैसे के बिना वह रुक नहीं सकता यह मेरा सदा का अनुभव हैं। फिर
वह पत्र भी इसी का एक उदाहरण हैं।
पीछे जब मैंने 'भूमिहार ब्राह्मण परिचय' पुस्तक लिखी तो उन तीनों में एक ने
उसके छपवाने वगैरह में कुछ ज्यादा परिश्रम किया। छपाई के कुछ रुपये बाकी भी
रहे जो पीछे पुस्तक बेचकर दिये गये। मगर पुस्तक की बिक्री से जो और रुपये
आये उन्हीं से यह प्रेस खरीदा गया। उसी से वह पत्र पीछे निकलने लगा था। बाद
में मैंने पुस्तक के रुपयों का हिसाब माँगा और प्रेस तथा पत्र का भी। इस
हिसाब माँगने में शेष दो साथी भी शामिल हो गए। बस उसी वक्त उस तीसरे सज्जन
ने टालमटूल किया और अन्त में हिसाब नहीं ही दिया। पुस्तक के प्राय: डेढ़
हजार रुपये उनने हड़प लिये। प्रेस एवं 'पत्र' को भी हथिया डाला। शेष दो साथी
देखते ही रह गये!
खैर, बची-बचाई पुस्तकें उनसे जैसे-तैसे लेकर मैं अलग हुआ। काशी के ही एक
भले आदमी के पास पुस्तकें रख दीं। पीछे तो उनके साथ भी झमेला हुआ और बड़ी
दिक्कत से उनसे पुस्तकों के रुपये निकल सके। फिर भी कुछ तो रही गये। कुछ ही
सौ रहे, ज्यादा नहीं। इसी प्रकार एक-दो और धर्मात्मा एवं धनी कहे जाने
वालों ने पुस्तकों के दाम रख लिये और नहीं ही दिया! इस तरह प्राय: तीन
सह्त्र रुपये, जिन्हें मैं सार्वजनिक काम में ही लगाता, न कि अपने
व्यक्तिगत मसरफ में, लोगों के गले के नीचे उतर गये और मैं देखता रह गया। इन
बातों को बहुतेरे जानते हैं, ये कोई गुप्त नहीं हैं।
असल में रुपया ऐसी ही चीज हैं। यह बड़े-बड़ों के ईमान को हिला देने वाली
वस्तु हैं। इतने दिनों के अनुभव ने मुझे तो यही सिखाया हैं कि यदि किसी की
परीक्षा लेनी हो तो उसके पास थाती के तौर पर कुछ रुपये रख दीजिये और पीछे
माँगिये। रुपये मिलने में जो दिक्कतें होंगी वह आप ही जानेंगे। फिर भी शायद
ही कहीं-कहीं से मिलें। अतएव रुपये-पैसे यदि किसी को उधार भी देना हो तो यह
समझ के ही देना चाहिए कि वे वापस न मिलेंगे। फिर भी अगर मिल गये तो गनीमत।
अच्छा, तो अब फिर 'लोक संग्रह' की बात ले। समस्तीपुर से वह निकला तो सही।
मगर जैसा कह चुका हूँ शीघ्र ही दिक्कतें पेश आयी। जहाँ कई प्रेस न हों और
जहाँ उसके सामान तथा कागज वगैरह इफरात से मिल सकते न हों वहाँ प्रेस खोलना
बला मोल लेना हैं। यदि एक भी कम्पोजीटर बीमार हो, या हटे तो काम ही बन्द।
यदि दुश्मन लोग बहकें तो प्रेसवालों को कह दें कि काम बन्द कर दो तो आफत
आयी। छपाई के लिए काम भी ऐसी जगह कम ही मिलते हैं। इन्हीं सब बातों से मुझे
हैंरानी पर हैंरानी होने लगी।
'पत्र' में विज्ञापन तो देता नहीं था। इसलिए उसके लिए दरबारदारी से तो जान
बची थी। मेरा सदा से विचार रहा हैं कि विज्ञापन मालूम होता हैं, जैसे
'पत्रों' की छाती पर कोदो दलने बैठे हों। विज्ञापन देने वाले भी नाकों चने
चबवाते हैं। खुशामद करते-करते जी ऊबता हैं। फिर भी टाल देते हैं। स्वाती की
बूँद को जैसे पपीहा देखे सोई हालत रहती हैं विज्ञापन चाहने वालों की। भला
यह जिल्लत की जिन्दगी कौन स्वाभिमानी बर्दाश्त करे। सो भी सच्चा जनसेवक और
राष्ट्रवादी। इसीलिए मैंने विज्ञापन को शुरू में ही प्रणाम कर लिया।
लेकिन ग्राहक बढ़ाने और समूचे पत्र में समाचार लिख आदि देने में ज्यादा
मेहनत पड़ती थी। सभी कुछ प्राय: मुझे ही करना पड़ता था। मेरे साथी बच्चू बाबू
की कुछ अजीब हालत थी। वे ज्यादा कुछ कर न सकते। हालाँकि, मैनेजर वही थे। इस
तरह मैं ऊब गया और एकाध अन्तरंग दोस्तों से राय करके पटना उसे लाने का
निश्चय कर लिया। मगर बच्चू बाबू इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि
समस्तीपुर से वह हटे। अब बड़ी दिक्कत थी कि क्या हो? कोई छोटी-मोटी चीज हो
तो झटपट हटा भी दी जाये। यह तो ठहरा प्रेस। दो प्रेस और उनके सारे सामान को
इतनी दूर भेजना खेल न था। दो मालगाड़ियों का सामान था। सो भी भारी लोहे का
सामान। कहीं उठाने-पठाने में गिरे तो चलो काम ही तमाम हुआ।
इसी उधोड़बुन में था कि बच्चू बाबू कहीं बाहर दो-तीन दिनों के लिए चले गये।
बस मैंने फुर्ती की और अंगारघाट स्टेशन के पास डिहुली ग्राम के श्री गया
बाबू की मदद से चटपट समूचा प्रेस उखड़वा के सारा सामान रेल पर पहुँचवा दिया।
वह पटना रवाना भी हो गया। असल में यदि गया बाबू न होते तो कुछ न होता। आदमी
वगैरह की सहायता और रेलगाड़ी ठीक करने और लदवाने में उनने सारी ताकत लगा दी।
लोगों को भी अचानक यह देखकर ताज्जुब हुआ। मगर करते क्या फलत: जब बच्चू बाबू
लौटे तो सब सूना पाकर सन्न हो रह गये। क्योंकि यह तो छूमन्तर जैसा काम हुआ।
वे रंज तो बहुत हुए। पर, करते क्या? मैं तो सारे सामान के साथ तब तक पटना
में मौजूद था। इस प्रकार पटना सामान आया और दुन्दा सिंह की ठाकुरबाड़ी में
किराये पर मकान लेकर वहीं रखा गया। फिर वहाँ जगह की तंगी के करते न्यू
एरिया (कदमकुआँ) में एक मकान लेकर वहाँ लाया गया। आखिर तक वहीं रहा।
पटना में दिक्कतें कम तो हो गईं। मददगार भी मिले। श्री वशिष्ठनारायण राय
'एडवोकेट' मेरे पुराने परिचित हैं। काशी से ही उनसे साथ रहा हैं। उस समय
एडवोकेट होने की तैयारी में थे। 'लोक संग्रह' के सम्पादन में उन्होंने कई
महीने तक मेरी भरपूर मदद की, खास कर समाचारों के संकलन में। इससे मेरा भार
हल्का हुआ। असल में प्रेस का मैनेजर भी मैं ही खुद था। 'सम्पादक' तो पत्र
का था ही। इस पर भी तुर्रा यह कि मैं बराबर बिहटा चला जाया करता, जब से
वहाँ आश्रम का श्रीगणेश हुआ। प्रेस आया सन 1927 ई. का आधा बीतते न बीतते और
उसके पटना में पहुँचने पर बरसात जल्दी ही आयी। ईधर बिहटा का आश्रम नियमित
रूप से खुल गया श्रावण महीने की गुरु पूर्णिमा को ही। हालाँकि मैं रहने लगा
था वहाँ पहले से ही।
पाँच बजने के पहले मैं प्रेस से चल पड़ता। पैदल ही स्टेशन प्राय: 20-25 मिनट
में जाता। सुबह दस बजे के पहले ही ट्रेन से आ जाता और स्टेशन से पैदल ही
प्रेस पहुँच जाता। मासिक टिकट लेकर आना-जाना होता था। हाँ, जिस दिन पत्र
निकलना होता उसकी पहली रात को आधी रात की ट्रेन से ही आना पड़ता था। तब एक
ट्रेन आधी रात में बिहटा से चलती थी। मगर प्रतिदिन बिहटा जाना जरूरी था।
आश्रम की खबर लेने के सिवाय हमेशा देहात में ही रहने का मेरा स्वभाव सा रहा
हैं। फलत: शहर में ठीक नींद ही नहीं लगती। पटना में मच्छरों की भरमार तो
अलग ही हैं।
ऐसी दशा में प्रेस और पत्र का-दोनों का चलाना कितना कठिन था यह आसानी से
समझा जा सकता हैं। मेरी मदद के लिए एक अर्दली रखा गया था। जो दौड़-धूप करता
था। प्रेस में बाहरी छपाई भी कुछ न कुछ होती ही थी। क्या आज इतने थोड़े, या
प्राय: नहीं के बराबर आदमी रख के साप्ताहिक पत्र और प्रेस चलाये जा सकते
हैं? यह प्रश्न पूछा जा सकता हैं। इसका जवाब तो साफ हैं कि वर्षों से
ज्यादा मैं चलाता रहा। केवल वशिष्ठ बाबू की थोड़ी सहायता और एक अर्दली की
मदद से सारा काम किया। समय पर न पहुँचने या न मिलने की शिकायत 'लोक संग्रह'
के बारे में शायद ही कभी होती। मैंने ऐसा प्रबन्ध ही कर रखा था। विज्ञापन न
होने से सारा खर्च ग्राहकों से ही चलता था। बाहरी काम तो बहुत थोड़ा छपता
था।
फिर भी जिस समय पं. यमुनाकार्यी को मैंने वह 'पत्र' और प्रेस चौबीस सौ
रुपये में दिया उस समय और भी टाइप तथा नये सामान उसमें लगाये जा चुके थे।
इसका सीधा अर्थ हैं कि सब खर्च चलाकर बचत भी हुई थी। असल में मासिक टिकट के
सिवाय मैं तो एक पैसा लेता न था, यहाँ तक कि खाना, कपड़ा भी नहीं। नौकर तो
ज्यादा थे नहीं। मैंने यह भी देखा कि काम चलाने के लिए दो और आदमी जिनमें
एक मैनेजर हो रख लेने पर भी घाटा नहीं हो सकता था। लेकिन आजकल तो विज्ञापन
और चन्दे के पैसे (ग्राहकों के पैसे के सिवाय) लेकर भी साप्ताहिक पत्र
दिवालिए बने रहते हैं। वे बन्द भी हो जाते हैं।
मैं तो मानता हूँ कि हम लोग पत्रों की और सार्वजनिक कार्यों की जवाबदेही
ठीक-ठीक महसूस ही नहीं करते। सार्वजनिक पैसे के साथ तो हम एक प्रकार का
खिलवाड़ करते हैं। यही कारण हैं पत्रों के दिवालिएपन था। 'पत्र' न तो लीडरी
के साधन हैं और न पैसे कमाने या कुछ लोगों के गुजर के लिए। ये तो लड़ाई के
अस्त्रा हैं। फलत: उनका उपयोग यदि उसी दृष्टि से हो तो कोई दिक्कत न हो।
जनता के पैसे को साग-मूली या हलवा समझ के बेमुरव्वती से उड़ाने का नतीजा यही
होता हैं कि सैकड़ों कुकर्म और घृणित उपायों से पैसे लाने पड़ते हैं।
विज्ञापनों और दूसरी बातों के लिए झूठ-सच बोलना पड़ता हैं। फिर भी दरिद्रता
बनी ही रहती हैं।
आखिर में एक वर्ष से ज्यादा काम करने के बाद मैंने देखा कि मैं किस बेढंगे
काम में फँसा कि दूसरा काम बन्द हो गया। न तो कही आ सकता, न जा सकता था! एक
प्रकार से बिहटा से पटना तक के कैदखाने में बन्द हो गया! परिश्रम भी
अत्यधिक हुआ। अत: विश्राम के लिए दिल चाहने लगा। यह ठीक हैं कि काम से तो
मैं कभी घबराया नहीं। उसके सिलसिले में कभी बीमार भी नहीं पड़ा। ईधर तो,
खैर, बीमार पड़ता ही नहीं। लेकिन पहले भी जब कभी बीमार पड़ा तो उसी समय, जब
प्राय: फुर्सत थी-जब कामों का भार सर पर न था। लेकिन उस समय एक ही तरह के
निरन्तर के काम से मैं ऊब गया। सो भी खासकर घूमना-फिरना बन्द हो जाने से।
यदि घूमना-फिरना जारी रहता तो कोई बात न थी। क्योंकि वह तो मेरे जीवन का
खास अंग हैं। फलत: उसके रहने पर ऊब सकता नहीं और न थकता ही हूँ। मगर वह
बन्द हो जाने से ऊब सा गया और एक प्रकार की थकान आ गई। इसीलिए पं.
यमुनाकार्यी बी.ए. दरभंगा के जिम्मे प्रेस और लोक-संग्रह दोनों ही कर दिया।
प्रेस का दाम चौबीस सौ रुपये तय पाया। यह लिखा-पढ़ी भी हो गई कि किश्त करके
वह श्री सीतारामाश्रम को धीरे-धीरे दे देंगे। उन्होंने पत्र की नीति आदि
ज्यों की त्यों रख उसे चलाने का वचन दिया। चलाते भी रहे। प्रेस मुजफ्फ़रपुर
ले गये। वहीं उसका कारबार रखा। सन 1930-32 के सत्याग्रह के समय एक दूसरा
प्रेस भी उन्होंने 'सुलभ प्रेस' के नाम से रख लिया। अब तो वहीं नाम रही गया
और 'नेम नारायण प्रेस' नाम गायब सा हो गया। ठीक ही हैं। अब यह नाम रखने का
तो कोई कारण हैं नहीं। जैसा कि कह चुके हैं। जब रुपये देने पड़े, सो भी
घुमाफिरा कर लिये गये, तो फिर नाम क्यों रहे? तो भी मैंने अपने वचन के
अनुसार नाम नहीं बदला। हाँ, कार्यी जी ने पीछे बदला तो बुरा क्या किया?
प्रेस और 'लोक संग्रह' के सिलसिले में एक बात और भी उल्लेखनीय हैं। जब मैं
स्थिर हो के पटना में रहने लगा तो असौढ़ के चौ. रघुवीर नारायण सिंह ने अपने
दोनो पोतों-श्री सुखवंश नारायण सिंह और श्री मुखवंश नारायण सिंह को मेरे
पास भेज दिया कि उन्हें कुछ पढ़ा-लिखा दूँ और उनका चरित्र ठीक कर दूँ।
उन्हें पढ़ने-लिखने की अपेक्षा चरित्र का ही अधिक ख्याल था। इस बारे में
मेरे ऊपर उनका पूरा विश्वास था। वे राष्ट्रवादी बनें यह पहला ख्याल उनका
था। सरकारी तथा नीम-सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के खिलाफ वह थे। उनका यह
विचार पक्का था कि स्कूलों में जाने पर लड़के किसी काम के नहीं रह जाते।
भ्रष्टचरित्र तो अक्सर होई जाते हैं। इन्हीं सब कारणों से मेरे पास भेजा।
मैंने मुरव्वत के कारण बड़ी कठिनाई के बाद कबूल कर लिया और बराबर पाँच-छ:
महीने साथ ही पटना में प्रेस के मकान के ही एक भाग में उन्हें अलग रखा।
लड़के अच्छी तरह रहे। असल में उनके उपनयन संस्कार में मैंने ही गायत्री की
दीक्षा दी थी। इसीलिए मेरे ही पास खास तौर से भेजना और भी जरूरी हो गया और
मेरा स्वीकार कर लेना भी। मैं भी खान-पान वगैरह में बड़ी सख्ती से पेश आता
था ताकि लड़के वाहियात चीजें खा-पी के बीमार या रोगी न हो जाये। काम भी शुरू
में चलता रहा ठीक। मगर मैंने देखा कि अमीर के बच्चे हैं और उनकी दादी की
ज्यादा मुहब्बत हैं। फलत: कभी-कभी मेरा नियम चुपके से वे लोग तोड़ते भी थे।
फलत: मैंने अपनी जवाब-देही से हाथ खींच लिया और उन्हें उनके घर वापस कर
दिया।