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सहजानंद समग्र/ खंड-2

 
स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-2

मेरा जीवन संघर्ष : उत्तर भाग-मध्य खण्ड I

मुख्य सूची खंड - 1 खंड-2 खंड - 3 खंड - 4 खंड - 5 खंड - 6
(1)पश्चिम पटना किसान-सभा
(2)विश्राम-बुलन्दशहर में
(3)सर गणेश से मनमुटाव
(4)भूमिहार-ब्राह्मण-सभा का खात्मा
(5)बिहार प्रान्तीय किसान-सभा

(6)श्री बल्लभ भाई का दौरा
(7)सन् 1930 वाला स्वातन्त्र्य-संग्राम
(8)फिर जेल में-बाँकीपुर
(9)हजारीबाग सेण्ट्रल-जेल

अगला पृष्ठ : उत्तर भाग-मध्य खण्ड II

(1)पश्चिम पटना किसान-सभा

     इस प्रकार मैं सन 1927 ई. के उत्तरार्ध्द में आ जाता हूँ। वह साल बीतने के पहले तथा प्रेस एवं पत्र को भी दूसरे को सौंपने के पूर्व ही एक अन्य जरूरी और ऐतिहासिक कार्य का भी सूत्रपात मैंने किया, जिसका रूप आज न केवल बिहार में, वरन भारत भर में विस्तृत हो गया और हो रहा हैं। मेरा मतलब हैं किसान-सभा से।

    पटना जिले के जिस इलाके में बिहटा-आश्रम हैं, वह पटना जिले का पश्चिमी भाग होने के साथ ही जालिम जमींदारों का इलाका भी हैं। पटना और शाहाबाद जिले की प्राकृतिक सीमा, सोन नदी बिहटा से तीन ही मील पश्चिम हैं। ईस्ट इंडियन रेल्वे की कलकत्ता-दिल्ली वाली मुख्यलाइन का बिहटा स्टेशन पटना जिले का आखिरी हैं। उससे पश्चिम का स्टेशन कोइलवर सोन के पश्चिम पार शाहाबाद जिले में पड़ता हैं। वैसे तो अब रेल के सिवाय पटना से बस सर्विस भी बिहटा के लिए हैं। वहाँ तारघर के सिवाय चीनी की एक बड़ी मिल, साउथ बिहार सूगर मिल्स के नाम से कई वर्षों से चल रही हैं। लेकिन पहले वह इलाका गुड़ बनाने का प्रधान केन्द्र था। साल में कई लाख मन गुड़ भारत के सभी भागों में वहाँ से जाता था। आज भी लाखों मन जाता हैं। मगर अब पुरानी बात नहीं हैं। वहाँ की मनेरिया ऊख, जो मनेर परगने के नाम से प्रसिद्ध थी, बहुत ही नामी ऊख थी। पुराने जमाने से ही वह इलाका उस ऊख के लिए प्रसिद्ध हैं। अब तो वह खत्म हो गई। अब देश के सभी भागों की तरह उस मनेर में भी कोयम्बटूर वाली ऊख आ गई। गुड़ वहाँ का बहुत अच्छा होता हैं। और भारत की दो-चार गिनी-चुनी जगहों में एक बिहटा भी अच्छे गुड़ के लिए मशहूर हैं। उसके अलावे, पहले भी और अब भी, हफ्ते में दो बार वहाँ गल्ले का बाजार होता हैं खासकर चावल का। 40-50 मील तक के गाड़ीवान बैलगाड़ियों पर चावल लाते और बेचकर चले जाते हैं।

    उसी बिहटा से दक्षिण सात-आठ मील जाने पर मसौढ़ा परगना शुरू हो जाता हैं। वह दक्षिण में दूर तक गया जिले में भी चला गया हैं। इस मसौढ़ा परगने के जमींदार बहुत पहले से ही जालिम मशहूर हैं। आज भी उनका बहुत कुछ जुल्म चलता ही हैं। हालाँकि, किसान-सभा ने न सिर्फ उनके होश दुरुस्त किये हैं, प्रत्युत किसानों को भी काफी जगा दिया हैं और उनमें हिम्मत ला दी हैं। मगर जिस समय की बात मैं कह रहा हूँ उस समय तो वहाँ के किसान इतने पस्तहिम्मत थे कि जमींदारी जुल्म के विरुद्ध खुल के जबान भी नहीं हिला सकते थे। यह वही जमींदार हैं जिन्होंने किसानों की लड़कियाँ और बहनें बिकवाकर लगान वसूल किया हैं। इसकी दास्तान कांग्रेस जाँच कमिटी के सामने सन 1937 के पहले पेश हुई थी, जब वह उस इलाके में गई थी। वहाँ जमींदारों के (पटवारी, बराहिल, अमले आदि) ही सब कुछ थे और उनसे किसान थर्राते रहते थे। वहीं के एक जमींदार ने सरौती (गया) के सभी किसानों को सिर्फ एक कटहल के फल के करते बर्बाद कर दिया! उनने ही सन 1921 ई. में कांग्रेस के कुछ लीडरों की मीटिंग तक वहाँ न होने दी!

    उनका ऐसा कायदा था कि किसानों के घरों पर पारी बँधी रहती थी कि किस दिन कौन-कौन से किसान उनके दरबार में दिन-रात बेगार करने के लिए जायेंगे। जिसके द्वार पर जमींदार का आदमी मोटा सा डण्डा शाम को रख आया, बस उसे नोटिस हुई और दूसरे दिन सुबह सारा काम छोड़कर जाना ही होगा, चाहे वज्र ही क्यों न गिरता हो। अगले दिन वह डण्डा दूसरे के द्वार जा धमकता था। यही क्रम था। एक दिन दुर्भाग्य से रात में ही डण्डेवाले किसान के घर में कोई मर गया। फलत: सुबह बेगारी में जाने के बदले मृतक को जलाने और संस्कार के लिए सारे परिवार को बीस माईल दूर गंगा किनारे जाना पड़ा। धर्म की आखिर बात थी न? फिर तो गजब हुआ। जमींदार ने गुस्से में आकर सारे गाँव को अनेक उपायों से तहस-नहस कर दिया। मसौढ़ा के जमींदारों का जुल्म वहाँ और पास के इलाकों में दूर तक प्रसिद्ध हैं। यहाँ तक कि कोई भला किसान अपनी लड़की उस मसौढ़ा में पहले ब्याहता न था। फलत: बड़ी दिक्कत से शादी हो पाती थी। लड़की की इज्जत खतरे में कौन डाले?

    उनके जुल्म के दो-एक नमूने और सुनिये। फसल तैयार होकर खलिहान में जमा हैं और जमींदार के आदमी ने उस पर गोबर लगा दिया जिसे छापा कहते हैं। फिर जब तक जमींदार का हुक्म न होगा तब तक किसान की क्या बिसात कि उसे छुए, चाहे वह सड़, गल या जल ही क्यों न जाये? इस प्रकार एक गाँव, पैपुरा की सारी फसल खलिहान में जल गई और किसानों को दाना न मिला। रब्बी की फसल कई महीने उस छापे के चलते पड़ी रही और बरसात में सड़ने लगी फिर भी जमींदार ने हुक्म न दिया कि उसे दौनी करके ले जाओ। फलत: किसी ने आग लगा दी।

    वहाँ एक तरीका हैं दानाबन्दी का। वहाँ ज्यादातर जमीनों का लगान नकद न होकर भावली हैं। इससे किसानों को रुपये के बदले जमींदार को तयशुदा गल्ला ही देना पड़ता हैं। वह कितना हो इसको ठीक करने का तरीका दानाबन्दी कहा जाता हैं। जमींदार के अमले (नौकर) ने फसल वाले खेत पर जाकर अन्दाज से कह दिया कि इस खेत में इतने मन गल्ला होगा और वही बज्रलीक हो गया! यदि अमले की पूजा किसान ने न की तो पाँच मन की जगह आठ मन तो वह अमला जरूरी ही कहेगा। वही बात एक कागज पर नोट कर लेता हैं। उसे खेसरा कहते हैं। कभी-कभी तो जमींदार की कचहरी में बैठकर जाली खेसरे बना करते हैं। खासकर भावली खेतों के लगान की नालिश के समय। और असली खसरे फाड़ दिये जाते हैं! क्योंकि नालिश के समय पाँच मन की जगह पचीस मन तो बताना ही होगा, ताकि ज्यादा रुपयों की डिग्री हो। वही खसरे अदालत में सबूत के तौर पर पेश किये जाते हैं। इस दानाबन्दी का नतीजा होता हैं कि किसान को खेत के साथ-साथ, गाय, बैल, बकरी आदि और कभी-कभी तो लड़कियाँ तक बेचकर, जमींदार का पावना चुकाना होता हैं! जमींदार की शान ऐसी कि यदि वह कुर्सी या चारपाई पर बैठा हो तो किसान चाहे ब्राह्मण ही क्यों न हो, बहुत दूर हट के नीचे खाली जमीन पर ही बैठेगा। सो भी हाथ जोड़कर!

    सन 1927 ई. के अन्त तक मुझे इन जुल्मों का पूरा ब्योरा तो ज्ञात न था। मगर इतना जरूर जानता था कि वहाँ किसानों पर जुल्म बहुत होता हैं। कुछ खास जुल्मों का पता भी था। ऐसी दशा में मैंने सोचा कि यहाँ बराबर रहना हैं और गंगा स्नान, कचहरी जाने, मुर्दे को गंगा किनारे ले जाने, बाजार में आने तथा मेले में (क्योंकि वहाँ फागुन और वैशाख में शिवरात्रि का बड़ा मेला ब्रह्मपुर की ही तरह लगता हैं) आने के समय किसान खामख्वाह अपनी बातें सुनाया करेंगे। अगर उनके दु:ख सुनकर कोई तेज आन्दोलन चलाया गया तो जमींदार और किसान के झगड़े खड़े हो जायेगे और इस तरह आजादी की लड़ाई में बाधा पहुँचेगी। कारण गृहकलह और आपसी झगड़े तो उसे कमजोर करेंगे ही। और अगर मैं यह सब बातें सोचकर न भी पड़ा तो बहुत से लोग जिनका यही पेशा हैं कि झगड़े लगाया करें और इस प्रकार लीडरी और नाम दोनों ही कमा लें, यह काम जरूर ही करेंगे। फिर तो कांग्रेस और उसकी लड़ाई खामख्वाह कमजोर होगी और मेरी दिक्कतें बढ़ेंगी। तब तक किसानों के नाम पर झूठे आन्दोलन चलाकर कइयों ने किसानों को काफी ठग लिया था और इसकी जानकारी भी मुझे हो चुकी थी। इसीलिए यह खतरा मुझे मालूम हुआ। मैंने देखा, यहाँ तो बारूद का खजाना हैं। कहीं से अगर एक चिनगारी भी उसमें पड़ गयी, जो बहुत सम्भव हैं, तो बड़ा भयंकर भड़ाका होगा और सारा गुड़ गोबर हो जायेगा। इसीलिए कोई उपाय होना चाहिए यह फिक्र मुझे हुई। कुछ और साथियों से भी राय की।

    अन्त में तय पाया कि यदि हम स्वयं किसानों की एक सभा यहाँ कायम करें और उनका आन्दोलन चलायें तभी खैरियत होगी। क्योंकि ऐसी दशा में एक तो समझ-बूझकर हम पाँव बढ़ायेंगे जिससे किसान-जमींदार संघर्ष न होगा, गृहकलह न होगी और दोनों को समझा-बुझाकर झमेला तय करा दिया जायेगा जैसा कि कांग्रेस का सिद्धान्त हैं। खासकर गांधीजी तो ऐसा ही मानते और कहते हैं। मेरे लिए तो वही पथ दर्शक थे भी। दूसरे ऐसी दशा में गैरजवाबदेह गैर लोगों को यहाँ घुसने और उत्पात मचाने का मौका ही न मिलेगा। क्योंकि वह हमारे आन्दोलन और हमारी सभा को देखकर यहाँ आने की हिम्मत न करेंगे। बस, इसी निश्चय के अनुसार हमने किसानों की सभाएँ जहाँ-तहाँ करना शुरू कर दिया और उनका आन्दोलन जारी किया।

    यह भी सोचा गया कि कौंसिल के लिए पटना जिला दो चुनाव क्षेत्रों में बँटा हैं, पूर्व पटना और पश्चिम पटना। लेकिन हम तो पश्चिम पटना में ही थे। वहीं काम भी करना था। चुनाव में वोट को लेकर झगड़े होते हैं। गर्मी भी किसानों के बीच काफी पैदा की जाती हैं। फलत: उस चुनाव के समय भी हम फायदा उठा सकते हैं अगर हमारी सभा यहाँ हो। सारे जिले की फिक्र क्यों करें? हमें तो सिर्फ पश्चिम पटना को देखना हैं। इसी ख्याल से पश्चिम पटना में ही हमारा किसान आन्दोलन सन 1927 ई. के बीतते-न-बीतते शुरू हो गया। इसके कुछ ही दिन चलने के बाद हमने नियमित रूप से पश्चिम पटना किसान-सभा का जन्म ता. 4-3-28 को दिया। हमने उस समय उसकी नियमावली आदि बनाई। उसका उद्देश्य क्या हो, उसके मेम्बर कौन हों इत्यादि बातें भी तय पायीं।

    जो लोग यह तारीख देखकर किसान-सभा का जन्म सन 1928 में मानते हैं, वह भूलते हैं। उस समय तो उसका विधान आदि बन गया और पूरा रूप खड़ा हो गया। मगर इसके लिए तैयारी भी तो चाहिए और उसमें कुछ समय तो लगता ही हैं। इसीलिए किसान-सभा का जन्म असल में सन 1927 ई. के अन्तिम दिनों में ही, आखिरी महीनों में ही, हुआ इतना तो पक्का हैं। हाँ, ठीक तारीख और महीना याद नहीं कि कब हुआ। असल में ऐसी बातों की ठीक तारीखें याद रहती हैं भी नहीं। वह तो तभी याद होती हैं जब संस्थाओं की बैठकें बाकायदा शुरू होती हैं।

    इस प्रकार साफ हैं कि शुरू में जब हमने किसान-सभा का जन्म दिया तो किसानों तथा जमींदारों के समझौते और उनके हकों के सामंजस्य को सामने रखकर ही यह काम किया यही कांग्रेस का उस समय सिद्धान्त था और आज भी हैं कि किसान, जमींदार, पूँजीपति-मजदूर, अमीर-गरीब आदि सभी के परस्पर विरोधी हकों, अधिकारों और हितों का सामंजस्य करना और उन्हें मिलाना। उसके मत से जो असल में ये अधिकार, ये हक और ये हित परस्पर विरोधी हईं नहीं। किन्तु केवल ऊपर से ऐसे मालूम पड़ते हैं। अत: उसका काम हैं इसी मालूम पड़ने को हटा देना। वह इन दलों के संघर्ष को बहुत बुरा मानती और इससे डरती हैं। इसे वह आजादी की लड़ाई का बड़ा बाधक समझती हैं। मेरी भी दृष्टि उस समय ठीक इसी तरह की थी। मैं सपने में भी दूसरे प्रकार का ख्याल कर न सकता। मैं सोचता था कि हमारे यत्न से यह सामंजस्य हो जायेगा और यह संघर्ष असम्भव हो जायेगा।

    लेकिन मुझे क्या पता था कि एक दिन यही किसान-सभा परिस्थिति के वश हो इस विचार को त्यागने को मजबूर होगी और इस विरोध को स्वाभाविक तथा असली चीज समझ इस संघर्ष का स्वागत करेगी। यहाँ तक मैं कैसे पहुँचा और मेरे साथ किसान-सभा भी कैसे पहुँची, आगे के पृष्ठ इसी बात को बतायेंगे। पर, यहाँ इतना ही कहना हैं कि मेरे मन में जो पहले पहल किसान आन्दोलन और किसान- सभा का ख्याल आया वह पक्के और कट्टर सुधारक या सुधारवादी (Reformist) की हैंसियत से ही न कि सपने में भी क्रान्तिकारी की हैंसियत से। तब तो मैं क्रान्ति (revolution) को समझता भी न था कि वह असल में क्या चीज हैं?

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(2)विश्राम-बुलन्दशहर में

     'लोक संग्रह' और प्रेसकार्यी जी को सौंप कर मैं विश्राम के लिए सुलतानपुर (शाहाबाद) चला गया। फिर सोचा कि पास में रहने से बराबर लोग आते ही जाते रहेंगे। इसलिए वहाँ से भी राँची चला गया और सर गणेश के डेरे में महीनों पड़ा रहा। फिर वहाँ से लौटकर सिमरी रहा। सर गणेश के यहाँ जाने की बात आगे विस्तार से लिखी हैं। उसका सिलसिला आगे की बातों से मिलेगा। यहाँ एक प्रासंगिक बात लिख देता हूँ। मैं सन 1929 की गर्मियों में बुलन्दशहर जिले के तौली ग्राम में जो अनूपशहर से 6-7 मील पश्चिम हैं, चला गया। बरसात के दो महीने वहीं कटे। मेरे एक चिर परिचित दण्डी जी हैं स्वामी सोमतीर्थ जी। वे पहले योगाभ्यास करते थे। उसमें उन्हें कुछ सफलता भी मिली। मगर उसका एक दुष्परिणाम यह हुआ कि गर्मियों में उन्हें कष्ट ज्यादा रहता हैं। क्योंकि शरीर में गर्मी का असर उस अभ्यास के करते ज्यादा हो गया। फिर भी बड़े ही शान्त और एकान्तवासी हैं। ईधर कुछ दिनों से पता नहीं उनकी क्या हालत हैं? उसी अभ्यास के चलते रोगी तो होई गये हैं। हाँ, तो इस बार हम और वह दोनों ही एक ही साथ तौली गये और वहीं रहे। वहाँ के रईस चौधरी रघुवीर सिंह वगैरह असौढ़े के चौधरी रघुवीरनारायण सिंह के नातेदार पड़ते हैं। इसलिए उन लोगों से पहले ही परिचय था। उनसे आग्रह किया कि उन्हीं के गाँव पर कुछ समय रहा जाये। इसी से वहाँ गये। सचमुच ही वह निरी एकान्त जगह मिली। स्टेशन से बीसियों मील दूर! बुलन्दशहर से ही वहाँ जाना पड़ता हैं। सड़क तो पक्की हैं। पर, उन दिनों बहुत ही खराब थी। सिर्फ, ताँगे से ही वहाँ जाना पड़ा।

    वहाँ दो चीजें देखने में आयीं। एक तो जिनके यहाँ हम लोग गाँव से अलग हटकर एक बगीचे में ठहरे थे, उनके ही यहाँ नील की खेती देखी। पहले तो बिहार में और दूसरी जगह भी नील की खेती खूब होती थी। इससे रंग तैयार होता था। मगर पीछे जब विलायती रंग चला तो वह चीज जाती रही। फलत: हमें उसका दर्शन वहीं मिला। उन लोगों ने उसकी खेती जारी रखी थी। उससे कुछ नील का रंग भी तैयार करते थे। मगर उन्होंने जो नील की खेती का असली लाभ बताया उससे मैं बहुत आकृष्ट हुआ। बात आज भी ताजी ही हैं। वे लोग खूब ज्यादा खेती करते हैं। खेतों में खाद देने का सबसे उत्तम साधन नील की खेती समझ उन्होंने उसे नहीं छोड़ा। पारी-पारी से सभी खेतों में नील बोते हैं। उसकी जड़ें जमीन में सड़कर अलग खाद का काम देती हैं और खेत में गिरी हुई पत्तियाँ जुदाही खेत की पैदावार बढ़ाती हैं। ये दोनों बातें अनिवार्य हैं अगर नील बोया जाये। पत्तियाँ गिरेंगी ही और जड़ें सड़ेंगी ही।

    फिर जब नील काट कर हौज में सड़ाते और उसके बाद सड़ा हुआ पानी छानकर बहा देते हैं तो वह भी जमीन को सोना बना देता हैं। मैं उस पानी की बात तो पहले सुन चुका था। लेकिन जड़ों और पत्तियों की नहीं। यों तो सन की खेती करके थोड़ा बढ़ने पर ही यदि खेत जोत दें जिससे सन का पौधा मिट्टी के नीचे पड़ के सड़ जाये तो अच्छी खाद होती हैं। इसे ही हरी खाद (green manure) कहते हैं। मगर नील तो उससे कहीं अच्छी हरी खाद का काम देता हैं। अफसोस कि किसान नील और सन की खाद भूलकर विलायती खादें पैसे से खरीद कर देने लगे हैं।

    वहाँ मैंने दूसरी चीज देखी गुड़ और भूरा बनाने का चूल्हा। बिहार और यू. पी. के दूसरे जिलों में मैंने मामूली चूल्हे देखे हैं। इनमें ईंधन ज्यादा लगता हैं। आँच खराब भी जाती हैं। मगर वहाँ तो निराला चूल्हा देखा जिसमें ईंधन कम लगता, आँच कहीं तेज होती और वह नुकसान भी नहीं होती। एक चूल्हे के पीछे थोड़ी आँच निकलने के लिए एक जरूरी सूराख होता हैं। उससे जो आँच निकलती हैं वह जाया ही होती हैं। इसलिए वहाँ वह सूराख न बना कर पहले चूल्हे के पीछे थोड़ी ऊँचाई पर दूसरा चूल्हा, उसके पीछे इसी तरह तीसरा, फिर चौथा, पाँचवाँ आदि सात चूल्हे बने थे। भीतर-ही-भीतर एक से दूसरे का सम्बन्ध था। फलत: ईंधन पहले में देने से ही आँच भीतरी सम्बन्ध से दूसरे में, वहाँ से तीसरे में इस प्रकार सभी चूल्हों में जाती थी। पहले चूल्हे पर कड़ाही में ऊख का रस देते थे। थोड़ा गर्म होते ही ऊपर वाले चूल्हे की कड़ाही में उसे बदलकर पहली में नया रस देते थे। फिर दूसरा वाला तीसरी में, चौथी में। इस तरह बदलते-बदलते आखिर में जाकर गुड़ या रवा (राब) की चासनी तैयार हो जाती थी। तब उसे निकालकर नीचे से क्रमश: दूसरा, तीसरा रस लाते रहते थे। इस प्रकार आँच जरा भी जाया होती न थी। वह तेज तो इतनी होती थी कि ऊख की पत्तियों को जलाने पर उन्हीं की राख की झामा बना मैंने वहीं देखा! सभी किसानों को इस प्रकार के चूल्हे का ही प्रयोग करना चाहिए।

    मैं वहाँ एक और चीज देखकर मुग्ध हुआ। पुराने ढंग के चरखे वहाँ बराबर चलते पाये। देहाती हाटों में बहुत ज्यादा सूत ला-लाकर औरतें बेचा करती थीं। उन्हीं की बनी शुद्ध खादी भी बहुत ही सस्ती वहाँ मिलती थी। कपास तो उधर बहुत ही काफी होती हैं। चरखे भी बन्द हुए न थे। इसलिए खादी के लिए वहाँ नये उद्योग की जरूरत ही न थी। सिर्फ सूत खरीदने का काम था। फिर तो जितना चाहिए कता-कताया पाइयेगा। तब तक तो गांधी आश्रम और चरखा संघ वालों का वहाँ दर्शन न हुआ। शायद पीछे पहुँचे हों। वहाँ का बहुत ही सस्ता सूत और सस्ती खादी काम की चीज थी। यह ठीक हैं कि मोटी खादी ही बनती थी। महीन सूत नहीं कतता था। यह भी मालूम हुआ कि लिहाफ या रजाई में एक-दो साल तक रूई रख के उसे निकाल लेते और उसमें नयी रूई देते थे। उसी निकली रूई को धुलाकर धुन लेते और सूत कातते थे। इससे सूत भी सस्ता पड़ता था और रूई का अच्छा आर्थिक उपयोग भी होता था। वह जरा भी खराब या नष्ट होने न पाती थी। किसानों को ऐसी समझ हो ताकि अपनी हरेक चीज का खूब ही उपयोग करें तो कितना अच्छा हो।

    एक साधु की कहानी हैं कि वह कपड़े की पहले धोती बनाता। धोती फटने पर उसके गमछे। गमछे फटें तो लँगोटियाँ। लँगोटियाँ फटीं तो उन्हें बाटकर रस्सी और रस्सी टूटने पर उसे जलाकर भस्म बनाता और सिर तथा देह में उस भस्म को लगा लेता था। यह कितनी सुन्दर बात हैं। वहाँ कि किसान थोड़ा-बहुत ऐसा ही करते थे। अस्तु, वर्ष के बाद मैं वहाँ से पुन: बिहार लौट आया।

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(3)सर गणेश से मनमुटाव

     पहले कहा जा चुका हैं कि सर गणेशदत्ता सिंह से सन 1926 की गर्मियों में मेरा कुछ हेलमेल हो गया था कई वर्षों के मनमुटाव के बाद। इसीलिए 'लोक संग्रह' से छुटकारा पाते ही सन 1928 की गर्मियों में मैं राँची गया उनके ही आग्रह से, और कुछ दिन वहाँ ठहरा। गर्मियों के दिन बीत रहे थे और बरसात आने ही वाली थी। मैंने अगस्त वाला कौंसिल का अधिवेशन भी वहीं देखा। फिर वापस आया।

    राँची में रह के मैं बराबर सुबह-शाम आस-पास के गाँवों में दूर-दूर तक घूमने जाया करता था। मैं हर मुण्डा या उरांव को जो वहाँ के निवासी हैं, देखकर उनके सिर पर नजर दौड़ाता यह देखने के लिए कि चोटी (शिखा) हैं या नहीं। वहाँ ईसाई काफी हैं। उस समय भी थे। इसीलिए देखता था। चोटी देखकर मैं एकाएक अनायास रो पड़ता और सोचता था कि हिन्दुओं की शिखा उनके पूर्वजों के सिर पर न जानें कब आयी थी। ईधर तो हजारों वर्षों तक हिन्दुओं के धर्म के ठेकेदारों ने इनकी खबर भी न ली! फिर भी चुटिया कैसे पड़ी हैं! आश्चर्य हैं! धर्म तो सिखाया सही, मगर पशुवत जीवन बना रहने दिया! मुद्दतों तक पूछा भी नहीं कि मरते हो या जीवित हो। फिर भी अंधविश्वास के करते यह शिखा पड़ी हैं। मगर सभ्यता का एक धक्का लगते ही उड़ जायेगी यह ख्याल होता था।

    मैं स्त्री, पुरुष, सबों को हट्टा कट्टा देखकर मुग्ध हो जाता था और सोचता कि यदि इन्हें सुन्दर भोजन मिलता तो कैसे अच्छे जवान और मजबूत होते। स्त्रियाँ भी कितनी तगड़ी होतीं। चाहे धर्म-प्रचार के ही ख्याल से सही, मगर घोर जंगलों में सैकड़ों वर्ष पूर्व, जब न रेल थी और न तार, ईसाई यहाँ आये। उन्होंने डेरा जमाया! यह गैरमामूली हिम्मत और बहादुरी थी, अध्यवसाय प्रियता थी। इसीलिए उनकी इस मर्दानगी, धुन और कर्तव्यपरायणता के सामने मैंने सिर झुकाया। लोगों का केवल दोषोद्धाटन और छिद्रान्वेषण कदापि उचित नहीं कि मिशनरी लोग सीधे लोगों को तरह-तरह से फुसलाकर ईसाई बनाते हैं। उन्हीं की तरह त्याग और हिम्मत चाहिए लगन चाहिए और धुन का पक्का होना चाहिए। तभी काम चलेगा। केवल ऐसे ही धुनी को हक हैं कि ईसाइयों का दोष दिखाये!

    मुझे वहाँ पहले-पहल मालूम हुआ कि छोटा नागपुर के आदिवासी (मुण्डा, उराँव) आदि में तीन गुण थे, जो अब धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं। जैसे-जैसे सभ्यता की हवा पहुँचती जाती हैं! एक समझदार आदमी ने मुझसे एक बार वहीं कहा था कि हिन्दुओं ने तो इन लोगों को पशु बना रखा था। मगर मिशनरियों ने उन्हें, या कम-से-कम उन लोगों को, जो ईसाई बने, आदमी तो बनाया। बात तो ठीक ही हैं। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनका पशु जीवन मिटाकर सभ्य बनाया। उनके पढ़ने- लिखने का प्रबन्ध किया। मगर खेद इतना ही हैं कि इसी के साथ उनमें पहले से चले आने वाले तीन अपूर्व गुणों को भी खत्म कर दिया! लेकिन इसमें उनका क्या दोष? सभ्यता तो इसे ही कहते हैं और अगर ईसाई वहाँ न भी जाते तो भी ये तीन गुण मिट ही जाते, जैसा कि अन्यत्रा हुआ हैं। सभ्यता पिशाची उन्हें मिटा ही छोड़ती!

    वे तीन गुण हैं झूठ कभी न बोलना, व्यभिचार से दूर रहना और मर्दानगी। कहते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाये लेकिन वे लोग बात कभी छुपाते न थे। असत्य कभी बोलना जानते न थे। इसीलिए चोरी कर न सकते थे। वह तो छिपाने की चीज हैं। मर्दानगी की तो यह बात बतायी जाती हैं कि यदि चाहे पड़ोसी से या किसी गैर से मारपीट हो गयी और कोई मर गया तो मारने वाला डर के छिपने के बजाये, पुलिस या अधिकारियों से जा के साफ कह देता कि हमने मारा हैं। किसी के धमकाने- डराने से वे डरते न थे। इसी प्रकार व्यभिचार के वे सख्त दुश्मन थे। व्यभिचारी की जान तक ले लेते थे।

    इस सम्बन्ध में दो कहानियाँ प्राय: उसी समय मुझे बतायी गयीं। जब सरकारी मकान बन गये और मिनिस्टर तथा गवर्नर गर्मियों में वहाँ रहने लगे तो आम सड़क के पास खड़े किसी मिनिस्टर के अर्दली ने सड़क से जाने वाली एक स्त्री से दिल्लगी की। इतने ही पर पीछे से आने वाले एक आदिवासी ने अर्दली पर धावा बोलकर उसे पछाड़ ही तो दिया। अनन्तर मजबूर करके जमीन पर नाक रगड़वाई तथा प्रतिज्ञा करवाई कि फिर कभी ऐसा न करेंगे! तब कहीं उसकी जान बख्शी! दूसरी घटना गवर्नर की कोठी की बतायी जाती हैं। उसमें झाड़ई देने वाली एक स्त्री पर किसी चपरासी ने आक्रमण करना चाहा तो बगल में रखे लम्बे चाकू को निकालकर वह दुर्गा जैसी उस पर कूद पड़ी। अगर वह नौ-दो ग्यारह न हो जाता तो खैरियत न थी! मगर अब ये गुण चले गये, चले जा रहे हैं। सभ्यता के लिए हमें यह बड़ी गहरी कीमत चुकानी पड़ी हैं!

    हाँ, तो सर गणेश की बात सुनिये। बेशक सरकार परस्ती उन्होंने खूब ही की। नहीं, तो उनका त्याग बिहार में तो सानी नहीं रखता। साथ ही, उन जैसा अतिथि-सत्कार करने वाला और प्रतिज्ञा को पूरा करने वाला मनुष्य मैंने नहीं देखा। जो दान देना बोलेंगे उसे फौरन पूरा करेंगे। समझ भी सुन्दर। चालाक भी काफी।

    एक दिन उन्होंने गया के डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की बात मुझसे राँची में ही छेड़ी। बोले कि श्री अनुग्रह नारायण सिंह, चेयरमैन के करते बहुत गड़बड़ी हुई हैं। फलत: उस बोर्ड के तोड़ने (Superession) की बात चल रही हैं। मैंने पूछा कि आखिर इलजाम क्या हैं? उनसे उन पर कोई कैफियत (reply) भी माँगी गयी हैं या नहीं? उन्होंने कहा कि अभी तक नहीं। लेकिन सारे इलजाम कौंसिल मेम्बरों के पास भेजे जायेगे। मैंने पूछा कि यह तो बहुत ही अच्छी बात होगी। मगर सबसे बड़ी बात यह होगी कि उनसे उन आरोपों (Charges) के बारे में सफाई जरूर तलब की जाये। बिना सफाई का मौका दिये बोर्ड के खिलाफ कोई भी काम करना निहायत नामुनासिब होगा। उन्होंने स्वीकार किया और कहा कि आरोप और उनकी सफाई दोनों ही कौंसिल के मेम्बरों के पास भेजने के बाद ही कोई काम बोर्ड के बारे में किया जायेगा।

    बस इतनी बात के बाद मैं तो राँची से आ गया और श्री अनिरुद्ध शर्मा के पास उनके गाँव पर नये बगीचे में बने नये मकान में जा के रहने लगा। शर्मा जी ने मेरे ही लिए गाँव से बाहर एक सुन्दर बँगला और उसके भीतर एक तहखाना (गुफा) बना दिया था। वहाँ मैं गर्मियों में बहुत बार रहा हूँ। उसमें हवा तो जाती ही थी। तरी भी बनी रहती, जब कि बाहर लू चला करती थी। बक्सर से सोलह मील दक्षिण वह जगह हैं। वहाँ इक्के भी आसानी से नहीं जा सकते। वैसी सड़क नहीं हैं। वर्ष में तो वह स्थान और भी दुष्प्रवेश हैं। उसका नाम सुलतानपुर हैं। वहाँ का डाकखाना धनसोई हैं। वह बाजार भी हैं। शर्मा जी ने तब से न सिर्फ मेरी अपार सेवा की हैं, वरन कांग्रेस और खासकर किसान-सभा के मामले में मेरा पूरा साथ दिया हैं। वे सुखी और चलता-पुर्जा आदमी भी हैं, खासकर उस इलाके में।

    इस समय कह नहीं सकता, कि सन 1928 का दिसम्बर था, या कि 1929 ई. की जनवरी। तारीख याद नहीं। भरसक 1929 के जाड़े का ही समय था, जब पटना में कौंसिल की बैठक हो रही थी। कौंसिल जनवरी से मार्च तक प्राय: हुआ करती थी। मैं गंगा के उत्तर किसी सभा में जा रहा था और पटना उतरा। उसी समय पता लगा कि गया के डिस्ट्रिक्ट बोर्ड को सरकार ने हथिया लिया और चेयरमैन वगैरह हटाये गये। मैं घबराया कि यह क्या बात! न तो उनसे सफाई तलब होने की बात कहीं पढ़ी और न कौंसिल के मेम्बरों के पास सारी बातें भेजने की ही। फिर अचानक यह क्या हो गया? मैं फौरन सर गणेश के बँगले पर गया। वहाँ नीचे ही बैठा। खबर भिजवायी कि मैं आया हूँ। थोड़ी देर में वे ऊपर से उतर कर आये। कहीं बाहर जाने की तैयारी में थे। मुझसे खड़े-खड़े बातें हुईं। मैंने तो देर तक काफी बातें करने की सोची थी। मगर वे शायद जल्दी में थे। इसीलिए खड़े-खड़े बातें हुईं।

    मैंने पूछा, ''यह गया के बोर्ड का क्या माजरा हैं?'' उत्तर मिला, ''तोड़ दिया गया।'' मैंने कहा कि ''सो तो ठीक हैं। मगर क्या आपने उन्हें सफाई का मौका दिया था!'' उनने कहा, ''नहीं।'' 'क्यों?'' मैंने पूछा। उत्तर दिया कि ''ऐसी बात हो गयी कि गवर्नर राँची से गया आने को थे। वहाँ कोई अभिनन्दन-पत्र उन्हें मिलने वाला था। उसके उत्तर में बोर्ड के बारे में सरकार का क्या फैसला हैं उन्हें यह भी सुनाना जरूरी था। इसीलिए उन्होंने मुझसे फौरन कोई निर्णय करने को कहा। जब मैं स्वयं इतनी जल्दी कुछ न कर सका तो कार्यकारिणी की मीटिंग में उन्होंने यह मामला पेश कर दिया। उसमें हम दो मिनिस्टर फौरन तोड़ने के फैसले के विरुद्ध रहे। बाकी वे तीन पक्ष में हो गये। फलत: मैं लाचार हो गया।'' मैंने उत्तर दिया कि ''लेकिन वह विभाग तो आपका हैं। अत: जवाबदेही आप ही की मानी जायेगी न?'' उन्होंने कहा, ''सो तो ठीक हैं। मगर गवर्नर की बात भी तो आखिर थी। मैं करता क्या?'' मैंने फिर कहा, ''आप ही ने इसी कौंसिल के चुनाव के जमाने में एक गोपनीय बात मुझसे कही थी कि गवर्नर ने झरिया के कोयले की खानों की सभा वाले अंग्रेजों को वचन दे दिया था कि मानभूम से झरिया को अलग करके स्वतन्त्र जिला उसे बना देंगे। मगर मैं इस बात पर डट गया कि ऐसा नहीं हो सकता। क्योंकि तब तो झरिया जिला काफी पैसे वाला होने से अफड़ के मरेगा और बाकी मानभूम पैसे बिना भूखों मर जायेगा। फलस्वरूप, आखिर गवर्नर को झुकना पड़ा। गो उनकी बात झूठी हुई। तो फिर यहाँ भी वही क्यों न किया?'' तब उन्होंने कहा कि मैं कारण बताऊँगा। इस पर मैंने कहा कि मुझसे तो आपकी यही बात थी। सो उसका क्या हुआ? उन्होंने कहा कि यह भी पीछे बताऊँगा। ऐसा कह के वे चलते बने।

    मुझे बड़ा गुस्सा आया। सोचा कि उस समय तो मुझे ठगने के लिए इस शख्स ने अपनी शाबासी की कितनी ही बातें सुनाईं। यों हम भी देशभक्त हैं इसका प्रमाण पेश किया। मगर आज क्या हुआ। माना कि अनुग्रह बाबू या औरों से हमारा मनमुटाव हैं। मगर यह तो समूचे कांग्रेस की और न्याय की बात थी। फिर इसको कैसे बर्दाश्त किया जा सकता हैं? बस, मैंने तय कर लिया कि अब फिर सर गणेश के पास नहीं आऊँगा। मैंने इनका असली रूप पहचान लिया। मुझे शायद सीधा-सादा और बेवकूफ समझते हैं। इसी से पीछे कहने और समझाने की बात कर गये हैं। उसके बाद जो वहाँ से आया तो फिर कभी गया ही नहीं। पीछे 'सर्च लाइट' में तथा दूसरे समाचार-पत्रों में एक लम्बा खुला पत्र भी छपवाया। उसमें सारी बातें लिख दीं। उसके बाद सुना कि लोगों से सर गणेश कहते थे कि स्वामी जी तो तानाशाही (Dictatorship) चाहते हैं। जो उनका हुक्म न माने उस पर रंज हो जाते हैं। भला, इसमें तानाशाही का क्या सवाल था? मगर मुझे तो बहुतों ने ऐसा समझा हैं! सो भी ऐसी ही बातों को लेकर! ताज्जुब!

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(4)भूमिहार-ब्राह्मण-सभा का खात्मा

 

    सन 1929 ई. के गर्मियों के दिन थे। मैं सुरताँपुर (सुलतानपुर) में श्री अनिरुद्ध शर्मा के बँगले में था। पहले से बात तय थी कि इस बार चातुर्मास्य में मेरठ की तरफ जा के स्वामी सोमतीर्थ जी के साथ रहूँगा। जैसा कि बुलन्दशहर के तौली मौजे में जाने और रहने की बात पहले ही कह चुका हूँ। ईधर अखबारों में पढ़ा था कि
श्री सुन्दर लाल जी की 'भारत में
अँग्रेजी राज्य' पुस्तक शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली हैं। वह सोलह रुपये में मिलेगी। लेकिन जो पहले ही ग्राहक बनेंगे उन्हें बारही रुपये में लब्धा होगी। इसलिए मैं ग्राहक बन चुका था और उसके आने की प्रतीक्षा में ही था कि एकाएक उड़ती खबर मिली कि मुंगेर में भूमिहार ब्राह्मण महासभा का अधिवेशन होगा और सर गणेशदत्ता सिंह उसके सभापति होंगे। मैं ताज्जुब में आया और घबराया भी। मेरी समझ में यह बात असम्भव थी!

    बाबू श्री कृष्ण सिंह और बाबू रामचरित्र सिंह ये दोनों ही उस जिले के कांग्रेस नेता और कौंसिल के सदस्य थे। सर गणेश रामचरित्र बाबू के विरुद्ध कौंसिल के उम्मीदवार भी हुए थे। कौंसिल में ये दोनों सर गणोश को खूब खरी-खोटी सुनाते भी। ईधर श्री कृष्ण सिंह ही भूमिहार ब्राह्मण सभा की स्वागत समिति के अध्यक्ष थे। इसीलिए विश्वास नहीं होता था कि जीती मक्खी वे लोग निगलेंगे और अपने विरोधी एवं पक्के सरकार परस्त आदमी को सभापति बनाने को राजी होंगे। मैंने सोचा कि और न सही, तो बाहरी दुनिया में होने वाली बदनामी से तो डरेंगे। क्योंकि लोग खामख्वाह कहेंगे कि कौंसिल में तो विरोध करते हैं पर, घर में उसी आदमी को सिर चढ़ाते हैं! फिर ऐसों का विश्वास क्या! एक बात और भी थी। आगे एकाध ही वर्ष में फिर कौंसिल चुनाव होने को था। ऐसी दशा में सर गणेश को सभापति बनाना साँप को दूध पिलाना ही था। क्योंकि उसके करते समाज में प्रिय और ऊँचे बन के फिर कौंसिल के चुनाव के समय विरोध करेंगे।

    इसी उधोड़बुन में था कि सभा का समय आ धमका। उधर दैवात 'भारत में अंग्रेजी राज्य' की बी.पी. आ गयी। फिर तो, बी.पी. छुड़ा के पास में पुस्तक
रखी और मुंगेर जाने के लिए बक्सर स्टेशन को रवाना हो गया। पीछे पता चला कि बी.पी. छुड़ाने के फौरन ही बाद पुलिस डाकखाने में पहुँची कि वह बी.पी. कहाँ गयी, इसका पता लगाये। मगर तब तक तो 'चिड़ियाँ चुग गयी खेत'। मैं सुलतानपुर में था भी नहीं कि पुलिस दौड़-धूप करती और पुस्तक उठा ले जाती। छपते-छपते ही वह जब्त हो गयी यह निराली बात थी। हालाँकि जो बातें उसमें लिखी हैं वह अंग्रेजी की मेजर बोस की 'राईज आँफ दी क्रिश्चियन पॉवर इन दी ईस्ट' में मिलती हैं। मगर वह जब्त नहीं हैं! असल में हिन्दी में होने से जनसाधारण के लिए यह सुलभ हो गयी। इसीलिए सरकार सतर्क हो गयी कि कहीं जनता की आँखें खुल न जाये। वह तो अब तक आँख मूँदे तेली के बैल की तरह एक निश्चित दायरे के भीतर ही घूमती थी। अब कहीं फाँद के बाहर न निकल जाये, यह डर था।

    जब मैं गाड़ी में बैठ के मोकामा आया तो गाड़ी में चढ़ के मुंगेर सभा में चलने वाले परिचित लोगों से ही पता लग गया कि सर गणेश दत्ता सिंह ही सभापति होंगे, यह तय पाया गया हैं। अब तो मेरे क्रोध का ठिकाना नहीं रहा। सिर्फ इसलिए नहीं कि मेरा उनके साथ विरोध था। यह कोई व्यक्तिगत बात या कारण न था। असल में मैंने देखा कि ईधर लगातार चार-पाँच सभाओं में फिर चाहे वे प्रान्तीय हों या अखिल भारतीय, वह एक ही आदमी सभापति होता चला आता था। यह बात बुरी तरह खटकने वाली थी। क्या समाज में कोई और पढ़े-लिखे, योग्य या धनी नहीं रह गये कि एक ही आदमी के हाथ में वह बिक गयी? यह एक बड़ा अपमान उस समाज का था जिसे जगाने और स्वात्माभिमान युक्त बनाने में मैंने काफी परिश्रम किया था और जिसे बगावत का झण्डा गाड़ने के लिए भी तैयार किया था।

    एक बात और थी। अगले वर्ष कौंसिल चुनाव होने को था। एक बड़े समाज का सरताज बन के वह चुनाव में काफी गड़बड़ी करते और कांग्रेस के विरुद्ध समाज की जनता को सफलतापूर्वक भड़काते। ताकि फिर मिनिस्टर बन जायें। तीसरी बात थी, श्री कृष्ण बाबू की बड़ी बदनामी की। लोग खामख्वाह कहते कि ये ऊपर से तो राष्ट्रवादी बनते हैं। मगर भीतर से कांग्रेसी और जी हुजूर सब एक हैं। यदि यह अक्ल उन्हें न आयी तो मैं क्यों अन्ध बनूँ और उन्हें न बचाऊँ! आखिर
उनको बचाना तो कांग्रेस को बचाना था। बस, इन्हीं सब कारणों से मैंने तय कर लिया कि जब खुली सभा में सभापतित्व के लिए सर गणेश का नाम आयेगा तो मैं उसका विरोध जरूर करूँगा। यह बात मैंने न सिर्फ गाड़ी में ही लोगों से कह दी। प्रत्युत मुंगेर के पूर्व सराय स्टेशन पर जो लोग प्रबन्धकर्त्ता के रूप में मिले उनसे भी कहदी।

    एक दिन जो आदमी कांग्रेस या, यों कहिये कि स्वराज्य पार्टी के खिलाफ सर गणेश को कौंसिल में जिताने गया था, वही दो ही वर्ष के बाद आज उन्हीं सर गणेश को देख नहीं सकता और भरी सभा में उन्हें अपमानित करने पर तुला बैठा हैं! वह नहीं चाहता कि वह फिर कौंसिल में जाये और मिनिस्टर बनें! ऐसा आदमी जातिवादी (communalist) हो सकता हैं या नहीं, यह निष्पक्षपात लोग ही बता सकते हैं।

    अब तो मुंगेर पहुँचते ही हो-हल्ला मच गया। ऐसी सनसनी फैली कि सभी लोग बेचैन थे। लोगों को यह तो निश्चय होई गया कि मैं विरोध करूँगा ही और उसके वोट लेने पर सर गणेशदत्ता सिंह कदापि सभापति चुने न जायेगे। लोग दल के दल मुझे समझाने आये। मगर निरुत्तर हो के चले गये। अब हमारे दोस्तों और लीडरों को, रामचरित्र बाबू को और श्री कृष्ण बाबू को, यह फिक्र हुई कि उनके जिले में आकर यदि सर गणेश की छीछालेदर हुई तो समाज में उनकी बदनामी होगी। मगर इसका अपराधी कौन! उन्होंने ऐसा होने ही क्यों दिया? वे लोग समझाने आये तो मैंने साफ कह दिया कि मुझे तो यह कह के बदनाम किया गया कि मैं कांग्रेस-विरोधी और सर गणेश का पिट्ठू हूँ। मगर आप तो कांग्रेस के लीडर हैं। फिर यह उलटी बात क्यों? मैं सर गणेश का विरोध करूँ और आप लोग उससे हैंरान हों? आप उनके समर्थक हों? मैंने अनजान में उनका समर्थन किया और जान लेने पर आज उनका पक्का विरोधी हूँ। मगर आप लोग जानकर क्यों उनके साथी बनते हैं? दुनिया आपको क्या कहेगी? इसका उत्तर वे लोग क्या देते? मैंने उनसे साफ कह दिया कि इतना ही नहीं। चुनाव में वे जहाँ खड़े होंगे मैं उनका विरोध सारी ताकत लगा के करूँगा और देखूँगा कि मिनिस्टर बन के वे आगे सरकार-परस्ती कैसे करते हैं। इस पर वे लोग चले गये। फिर बाबू राम दयालु सिंह को मेरे पास भेजा। क्योंकि जानते थे कि उनकी बात मैं शायद मान सकूँ।

    श्री राम दयालु सिंह मेरे पास आये। देर तक बातें होती रहीं। आखिर में मैंने यह कहा कि सभा में जाने पर तो मैं उनके सभापतित्व का विरोध अवश्य करूँगा। क्योंकि यह बात कह चुका हूँ। उसे टाल नहीं सकता। पर यदि आप लोगों की यही मर्जी हैं कि वे सभापति बनें ही तो लीजिये मैं सभा में जाऊँगा ही नहीं। आप लोग सँभालें और करें। वह खुश हुए। यह जानकर औरों की चिन्ता घटी। मगर
सभा में जब लोग खचाखच भर गये और मुझे न पाया तो कानाफूँसी होने लगी कि स्वामी जी क्यों नहीं आये? सर गणेश सभापति तो बन ही चुके थे। किसी ने उनसे पूछा कि स्वामी जी यहाँ आ के भी सभा में क्यों नहीं आये? उनका जैसा स्वभाव हैं, रंज हो के कह दिया कि स्वामी जी की बात मैं क्या जानूँ! आप उनसे पूछिये! फिर क्या था? कोई ईधर उठा, कोई उधर और सवाल होने लगे। आवाज आयी कि स्वामी जी को बुलाकर लाया जाये। बराबर लोगों ने कहा। उन्होंने कहा कि स्वामी जी के बिना सभा का काम रुक नहीं सकता। इस पर और गड़बड़ी मची और मेरे बूढ़े गुरु भाई स्वामी परमानन्द सरस्वती ने उठ के कहा कि स्वामी जी ने समाज को जगाया, और उन्हीं के बिना काम नहीं रुकेगा? आप ही काम चलाइयेगा? और क्रोध से सभापति की ओर वह बढ़े। फिर तो ऐसी गड़बड़ी मची कि सर गणेश को अपने ऊपर खतरा मालूम पड़ा। फलत: सभा भंग कर दी और पुलिस! पुलिस!! पुकार के उठ खड़े हुए। किसी प्रकार लोगों ने घेर-घार कर उन्हें बचाया और डेरे पर पहुँचाया।

    इस प्रकार भूमिहार ब्राह्मण महासभा भंग हो गयी। हालाँकि, मैं बाहर ही था। मेरे पास दौड़े-दौड़े एक सज्जन पहुँचे कि 'सभा में तूफान हैं, चलिए शान्त कीजिये' मैं समझ न सका। पीछे उनसे कहा कि मैं जल्दी में चला आया हूँ। शायद सर गणेश पिट गये। हालत नाजुक हैं। इस पर मैं दौड़ के सभा में पहुँचा तो हंगामा देखा। मुझे देखते ही लोग ठण्डे हो गये। लोग यही तो चाहते थे कि मैं आऊँ। खैर मैंने समझा-बुझा के शान्त किया और न आने का कारण बताया। गड़बड़ी करने वालों को फटकारा भी। लेकिन यह तो ठीक ही हैं कि सभा सदा के लिए भंग हो गयी। अच्छा ही हुआ। उससे भलाई तो कुछ होती न थी। हाँ बुराई जरूर हो जाया करती। अब ईधर सुना हैं, दस वर्षों के बाद उसे फिर जिलाने का यत्न हो रहा हैं। नहीं जानता कि वह सफल होगा या नहीं। दस वर्षों तक तो मेरे डर से सभा का नाम लेने की किसी को हिम्मत होती न थी। लोग जानते थे कि यदि उन्होंने सभा की मैं जाकर उसमें विरोध करूँगा और उनकी एक न चलने दूँगा। इस प्रकार उसे फिर भंग कर दूँगा। मगर अब जब सबों को पता लग गया हैं कि मुझे उससे अब कोई वास्ता नहीं हैं और उसमें जाऊँगा ही नहीं। तब शायद हिम्मत बँधा रही हैं!

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(5)बिहार प्रान्तीय किसान-सभा

 

    मुंगेर की घटना के बाद सर गणेश के पिट्ठू लोग अखबारों में कुछ ऊलजलूल बातें लिखते रहे। उसका जवाब उन्हें दिया गया, सो भी मुँहतोड़। फिर तो वे लोग चुप्पी साधा गये। मुंगेर के बाद श्री कृष्ण सिंह को पटना में लोगों की बातें, उन लोगों की जो कटु समालोचक और छिद्रान्वेषी थे, सुनने के बाद मैंने यह कहते खुद ही सुना या यों कहिये मेरे ही सामने उन्होंने कहा कि विरोधी लोगों ने भी स्वीकार किया हैं कि आप लोगों ने साफ सिद्ध कर दिया कि आपका समाज पक्का राष्ट्रवादी हैं, “They have proved that they are nationalists” लेकिन यदि मैं न रहता तो यकीन करना चाहिए कि ठीक उलटी बात कही जाती। क्योंकि वह काण्ड होता ही नहीं। फिर तो एक ही नतीजा निकाला जाता कि ये सभी जातिवादी हैं।

    उसके बाद, जैसा कि लिख चुका हूँ, तौली चला गया। वहाँ से सितम्बर में लौटा। ठीक उसी समय कौंसिल के मेम्बर स्वराज्य पार्टी की तरफ से श्री रामदयालु सिंह, बाबू श्री कृष्ण सिंह, श्री बलदेव सहाय वगैरह थे। काश्तकारी कानून में सुधार करने के लिए उसी कौंसिल में एक बिल सरकार की तरफ से आने वाला था। चारों ओर उसकी चर्चा थी। क्या किया जाना चाहिए यह सोचा जा रहा था। इतने ही में नवम्बर का महीना आ गया। सन 1929 ई. के नवम्बर का महीना बिहार प्रान्तीय किसान-सभा के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा। मैं अचानक किसी कार्यवश मुजफ्फरपुर गया हुआ था। पं. यमुनाकार्यी के मकान में जहाँ प्रेस भी था, ठहरा था। छत के ऊपर वाली कोठरी में था। वह मकान 'कल्याणी चौक' पर था। भूकम्प में धवस्त हो गया। सवेरे का समय था। श्री रामदयालु बाबू आ गये और कार्यी जी के साथ मेरे स्थान पर पहुँच कर बातों के सिलसिले में शुरू किया कि बिहार प्रान्तीय किसान-सभा की नींव दी जानी चाहिए। उन लोगों ने समझ लिया था कि बिना किसान-सभा के सरकार मानेगी नहीं, काश्तकारी कानून में खतरनाक तरमीम (संशोधन) करके किसानों का गला रेत देगी और हम लोग कुछ कर भी न सकेंगे। कारण, बहुमत कौंसिल में हैं नहीं। इसीलिए बिहार प्रान्तीय किसान-सभा की बात सूझी।

    मैंने कहा, ठीक हैं बनाइये। सभा तो बननी ही चाहिए। फिर सोचा गया कि उसके पदाधिकारी कौन हों। उन्हीं लोगों ने बाबू श्री कृष्ण सिंह को जेनरल सिक्रेटरी तथा पं. यमुनाकार्यी, श्री गुरु सहाय लाल, श्री कैलाशबिहारी लाल को डिवीजनल सेक्रेटरी चुना। इसीलिए कि यदि हर डिवीजन या कमिश्नरी के लिए एक-एक मन्त्री रहें तो काम ठीक चले। इसके बाद सभापति कौन हो यह सवाल आया। मैंने कहा कि बाबू राजेन्द्र प्रसाद को सभापति बना लीजिये। इस पर वे लोग कुछ देर चुप रहे। फिर रामदयालु बाबू ने कहा कि सभापति तो आपको ही बनना चाहिए। मैं ताज्जुब में आया कि मेरा नाम क्यों लेने लगे। मैंने सपने में भी यह सोचा न था कि प्रान्तीय किसान-सभा बनेगी और मैं उसका अध्यक्ष बनूँगा। इसीलिए तैयार होने की बात सोची तक न थी। मैंने फौरन इन्कार किया कि मैं इसमें पड़ नहीं सकता। फिर तो कहा-सुनी चली। दोनों आदमियों का हठ होने लगा कि मेरे बिना सभा का काम ठीक नहीं चल सकता। वह जैसी चाहिए बन नहीं सकती।

    लेकिन मेरा जैसा स्वभाव हैं धीरे-धीरे आगे बढ़ता हूँ। मैं उसी की जवाबदेही लेता हूँ जिसे अच्छी तरह सँभाल सकूँ। अभी तक तो एक जिले की भी किसान-सभा न चलाकर सिर्फ आधे पटना की ही पश्चिम पटना किसान-सभा चलाता रहा। फिर एकाएक प्रान्त भर की जवाबदेही कैसे लेता? इसीलिए मैं बराबर नाहीं करता रहा। उधर वह लोग भी कहते ही रह गये कि आप ही को बनना होगा। बात तय न पायी। फिर सोचा गया कि सोनपुर का मेला इसी नवम्बर में ही होने वाला हैं। इसलिए अभी से नोटिसें बाँटी जाये और तैयारी की जाये कि मेले में ही इस सभा को बाकायदा जन्म दिया जाये। तदनुसार ही नोटिसें छपीं और बँटने लगीं। अखबारों में भी खबर निकली। तैयारी भी होने लगी। मेला भी आ गया। वहाँ हम लोग ठीक समय पर पहुँच भी गये।

    खासा लम्बा शामियाना खड़ा था। लोगों का जमावड़ा भी अच्छा था। एक तो सभा, दूसरे मेला। फिर जमावड़े में कमी क्यों हो? मैं ही उस मीटिंग का सभापति चुना गया। रामदयालु बाबू बहुत मुस्तैद थे। मेरा भी भाषण हुआ और बाकी लोगों का भी। बिहार प्रान्त में किसान-सभा की जरूरत बतायी गयी। काश्तकारी कानून में किये जाने वाले खतरनाक संशोधनों का भी जिक्र किया गया। यदि किसान-सभा के द्वारा किसानों का संगठन न होगा तो काश्तकारी कानून बहुत ही खराब बन जायेगा। लोगों में काफी जोश था। नयी चीज थी। सभी चाहते थे। कुछ लोगों ने सभा बनाने का विरोध भी किया औरों की तो याद नहीं। लेकिन श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने तो खासा विरोध किया। कांग्रेस के रहते किसान-सभा कायम करने की कोई जरूरत नहीं यह बात उन्होंने कही। उनका ख्याल था कि कांग्रेस ही सब कुछ कर सकती हैं। फिर किसान-सभा अलग क्यों बनें? कांग्रेस में तो अधिकांश किसान ही हैं। असल में वही तो किसान-सभा हैं। अलग किसान-सभा बनने से कांग्रेस कमजोर हो जायेगी। क्योंकि जो लोग किसान-सभा में काम करेंगे वह कांग्रेस का पूरा काम न कर सकेंगे। कांग्रेस के लिए आगे खतरा भी किसान-सभा से हो सकता हैं, यह भी कहा गया। उन दिनों श्री बेनीपुरी से मेरा कोई विशेष परिचय न था। विशेष परिचय तो हुआ तब जब वह सोशलिस्ट नेता बने और भूकम्प के बाद सन 1934-35 में किसान-सभा के समर्थक हुए।

    आखिर में राय ली गयी और सभा स्थापित करने का फैसला हुआ। इसके बाद पदाधिकारी चुने गये। मैं बराबर ही अस्वीकार करता रहा। लेकिन मैं ही सभापति और पूर्वोक्त सज्जन मन्त्री आदि चुने गये। सदस्यों में बाबू राजेन्द्र प्रसाद से लेकर जितने प्रमुख कांग्रेसी थे सभी का नाम दिया गया। तय किया गया कि सभी लोगों से फौरन इसके बाद ही पूछकर स्वीकृति भी ले ली जायेगी। किया भी ऐसा ही गया। सबने स्वीकार किया। किसी ने भी इन्कार नहीं किया सिवाय बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद के। उन्होंने कहला भेजा कि मेरा नाम हटा दिया जाये। सोनपुर वाली इस मीटिंग की पूरी कार्यवाही लिखी-लिखायी पड़ी हैं, जिसमें सभी के नाम हैं। इतना ही नहीं। उसके बाद की हर मीटिंगों की कार्यवाही लिपिबद्ध पड़ी हुई हैं।

    एक दिलचस्प बात इसी सम्बन्ध में हुई। कुछ कांग्रेसी लोगों के नाम मेम्बरों में न दिये जा सके और छूट गये। दृष्टान्त के लिए बाबू मथुरा प्रसाद का नाम छूटा था। उन्होंने इसका उलाहना दिया। फिर तो बाबू बलदेव सहाय के डेरे पर जो मीटिंग शीघ्र ही हुई उसमें उनका नाम भी सदस्यों में जोड़ दिया गया।

    आज तो मेरे और कार्यी जी के सिवाय उन लोगों में शायद ही कोई हैं जो इस बिहार प्रान्तीय किसान-सभा के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष विरोधी न हों। अब तो वे लोग इसे फूटी आँखों देख नहीं सकते, इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते और जड़-मूल से मिटा देना चाहते हैं। मगर इसका इतिहास साफ कहता हैं कि शुरू में वही लोग इसके आश्रयदाता और कर्त्तार्त्ता थे। शुरू में ही क्यों? सन 1934 ई. तक बराबर इस सभा के साथ रहे, इससे सहानुभूति रखते रहे और इसमें रहना चाहते थे। उन्होंने इसकी बड़ाई की, इसका समर्थन किया। लेकिन समय एक सा नहीं रहता। वह तो बदलता रहता हैं पाँच-छ: वर्षों तक जिस सभा का समर्थन किया उसका विरोध उन्हीं लोगों को करना होगा और उसके खिलाफ जेहाद करना होगा यह पता उस समय किसी को भी कहाँ था? जिन लोगों ने मुझे घसीट कर इसमें आगे किया, आज वही मेरी टाँग पकड़ के बेमुरव्वती से खींच रहे हैं। यह भी एक जमाना हैं और वह भी एक समय था। पता नहीं मैं आगे गया, सभा आगे गयी, या वही लोग पीछे चले गये? कौन बतायेगा? शायद इतिहास लिखने वाले बतायें! समय तो बतायेगा ही। लेकिन इसमें तो शक नहीं कि मैं और सभा दोनों ही आगे गये। हाँ, उन लोगों के हिसाब से हो सकता हैं, हम बहुत आगे चले गये हों।

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(6)श्री बल्लभ भाई का दौरा

     सोनपुर के बाद हमने पटना में कार्यकारिणी की मीटिंग की और कुछ लोगों के नाम और जोड़े। एक प्रस्ताव के द्वारा यह भी तय पाया कि राजनीतिक मामलों में किसान- सभा कांग्रेस के विरुद्ध जायेगी। इस प्रकार किसान-सभा कांग्रेस की समकक्ष स्वतन्त्र राजनीतिक संस्था न बन जाये इस खतरे को रोकने या मिटा देने की कोशिश हुई।

    लेकिन, हम सम्बन्ध में एक बहुत जरूरी बात कहनी हैं। सन 1929 ई. के दिसम्बर में लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला था। उसके ठीक पहले और सोनपुर के बाद ही सरदार बल्लभ भाई पटेल का दौरा बिहार में हुआ। उनके लिए हर जिले में मीटिंगों का प्रबन्ध किया गया। ठीक उसी अवसर पर मैंने भी दौरा किया और उनके आने के पहले हर जगह किसानों को किसान-सभा का महत्त्व समझाया। यह भी जान लेना चाहिए कि उस समय के बल्लभ भाई आज वाले न थे। दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर हैं। उस बल्लभ भाई ने तो हाल में ही बारदौली में किसानों की लड़ाई जीती थी-उनके हकों के लिए सत्याग्रह संग्राम लड़कर उसमें विजय पाई थी। फलत: सब जगह किसानों की ही बातें बोलते थे। उन्होंने एक सभा में तो 'एक संन्यासी' कह के हमारी किसान-सभा का उल्लेख भी किया था और अगर मैं भूलता नहीं तो इस संन्यासी के काम का स्वागत किया था। लोगों को यह भी कहा था कि इसमें मदद करें। हालाँकि, आज तो इस संन्यासी को और इस किसान-सभा को वे सहन नहीं कर सकते।

    उन्होंने सीतामढ़ी की सभा में साफ ही कहा था कि बिहार में या हमारे मुल्क में इन जमींदारों की क्या जरूरत हैं? ये लोग कौन-सा काम हमारे मुल्क के लिए करते हैं? सुना हैं, किसानों को बहुत सताते हैं और इनसे किसान बहुत डरते हैं। इनसे क्या डरना? ये तो बड़े कमजोर हैं। यदि हाथ से इनका सिर पकड़ के दबा दिया जाय तो भेजा बाहर निकल आये।

    इतना ही नहीं। मुंगेर में बिहार प्रान्तीय राजनीतिक सम्मेलन था। और किसान सम्मेलन भी। वे जब किसान सम्मेलन में शामिल हुए तो उन्होंने साफ कहा कि किसानों की जो माँगें वहाँ पेश की जा रही हैं वह राजनीतिक सम्मेलन में ही क्यों नहीं पेश की जाती हैं? और अगर जैसा कि बताया गया है, वहाँ ये पेश की जा सकती हैं नहीं, तो फिर राजनीतिक सम्मेलन की जरूरत ही क्या है। लेकिन वही बल्लभ भाई अब ऐसी भूल शायद ही करेंगे। कदाचित् उस समय उन्हें इतना अनुभव न था जितना अब है! अनुभव ने शायद उन्हें गम्भीर और दूरन्देश बना दिया है। वह बारदौली वाली गर्मी भी तो थी। 'सरदार' भी तो हाल में ही उसी के करते बने थे। फिर इतनी जल्दी उसे भूल कैसे जाते? बम्बई में, बिहार जैसी प्रत्यक्ष रूप में जमींदारी प्रथा न रहने के कारण वे इसे समझ भी नहीं सकते थे कि क्या बला है, भारत के तीन चौथाई से अधिक बाशिन्दे तो किसान ही हैं और उनकी मदद से कांग्रेस को शक्तिशाली बनाना अभी बाकी ही था भी तो। खैर, चाहे जो भी हो। उनके दौरे से हमारी बिहार प्रान्तीय किसान-सभा को काफी सहायता मिली। हमें प्रोत्साहन भी पूरा प्राप्त हुआ।

    उसके बाद ही हम लोग लाहौर कांग्रेस में सम्मिलित होने के लिए गये। वहाँ जो जोश और उमंग देखने का मौका मिला वह अकथनीय है। खासकर पूर्ण स्वतन्त्रता के प्रस्ताव के पास होने पर तो दुनियाँ ही पलट गयी, ऐसा प्रतीत हुआ। मैं तो चुपचाप गौर से कांग्रेस की कार्यवाही को देखता रहा। अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी का मेम्बर होते हुए भी कुछ बोला-चाला नहीं। मैं तो शुरू से ही प्राय: उस कमिटी का सदस्य और कांग्रेस का प्रतिनिधि बराबर ही रहा हूँ। मगर सन् 1934 ई. वाली बम्बई की कांग्रेस के पहले कभी न बोला था।

    1934 ई. में गांधी जी कांग्रेस से हटने के पूर्व उसके विधान का जो आमूल परिवर्तन कर रहे थे, उसमें मुझे खतरा दीखा किसानों और गरीबों के लिए। इसीलिए पहले-पहल वहीं बोला और उसका विरोध किया। तब से यह बोलना और विरोध किसी-न-किसी रूप में बराबर जारी रहा है। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि कांग्रेस के विवाद में अगर मेरी दिलचस्पी शुरू हुई तो किसानों और शोषितों की बात को लेकर ही। यह संयोग की बात है कि कांग्रेस को विशेष रूप से जब पहले मैंने देखा और पहचाना तो किसानों या दलितों के विरोध के रूप में ही। फिर चाहे वह विरोध आंशिक ही क्यों न हो? लेकिन था बुनियादी। क्योंकि मैंने कांग्रेस की उस नयी मेम्बरी को ही ऐसा देखा, जिसे गांधी जी नये सिरे से कांग्रेस में ला रहे थे। आज वह मेरा भय कितना सच्चा निकला!

    लाहौर कांग्रेस से लौटते ही ता. 26-1-30 को पहले-पहल 'पूर्ण स्वतन्त्रता दिवस' देश भर में मनाये जाने को था। इसलिए उससे पहले ही हमने किसान-सभा की मीटिंग की और उसमें दो जरूरी काम किये। एक तो एक प्रस्ताव के जरिये हमने कौंसिल में पेश नये काश्तकारी कानून के संशोधान बिल को अस्वीकार किया और उसका विरोध किया। सरकार से यह भी माँग की कि उसे वापस ले ले। दूसरा काम यह किया कि देश के वातावरण का खयाल करते हुए कुछ समय के लिए किसान-सभा का काम एक प्रस्ताव के जरिये स्थगित कर दिया। ताकि अबाध रूप से सभी लोग आजादी की आने वाली लड़ाई में भाग ले सकें। किसान-सभा का काम चालू रहने से कुछ लोग तो उसमें फँस जाते ही। इस प्रकार शुरू में जो कुछ लोग यह सोचते थे कि किसान-सभा के करते कांग्रेस के काम में बाधा पहुँचेगी उनके डर को हमने व्यवहारत: निर्मूल सिध्द कर दिया।

    असल बात तो यह थी कि बिहार प्रान्तीय किसान-सभा को जो जन्म दिया गया उसमें यह खयाल ही था कि इसके द्वारा कांग्रेस काफी मजबूत हो। सभी लोग यही सोचते थे। अपना विचार तो मैं पहले ही कह चुका हूँ। लेकिन हमें तो इतने दिनों बाद मालूम हुआ है कि कांग्रेस को कैसा होना चाहिए, यदि वह किसान-सभा की सहायता बराबर चाहती है। पहले यह बात कौन समझ सकता था? कांग्रेस की प्रतिद्वन्द्विता किसान-सभा न करे, यह प्रस्ताव पास होने की भी बात तो पहले ही कह चुका हूँ।

    हमारी बैठक के बाद ही स्वराज्य पार्टी ने कौंसिल में जाकर उस काश्तकारी कानून के संशोधान का विरोध किया। फिर तो सरकार ने यह कह के उस बिल को लौटा लिया कि जब किसान-सभा और कांग्रेस दोनों ही उसके विरोधी हैं तो सरकार को क्या पड़ी है कि उसे पेश करे या पास करे इस प्रकार किसान-सभा के जन्म के साथ ही एक तो उसे पहली खासी सफलता यही मिली और वह बिल खत्म हुआ। दूसरे, सरकार ने किसान-सभा के अस्तित्व को मान लिया कि वह किसानों की ओर से बोलने वाली संस्था है, सभा के इतिहास से यह सिध्द है कि उसने अपने इसर कर्तव्य को कितनी सुन्दरता से पाला है। उससे यह भी सिध्द है कि पहले पहल टेनेन्सी बिल को खत्म करने के रूप में जो विजय इसे जन्म काल में मिली वह बार-बार मिलती रही। न जानें, कितने ऐसे बिलों को या तो इसने धवंस किया, या उनके जहर का अधिकांश खत्म किया।

    इतना तो पक्का ही है कि लड़ने वाली संस्था के रूप में इसका जन्म हुआ और आज भी वह लड़ने वाली ही है। अन्तर इतना ही है कि शुरू में हम लोगों ने जिस लड़ाई का सपने में भी खयाल न किया था वही लड़ाई आज इसकी अपनी हो गयी है। इसीलिए इसके पुराने सूत्रधार प्राय: सभी के सभी आज इसके शत्रु हैं। लड़ाई के दौरान में जन्म लेने के कारण ही यह लड़ाकू सिध्द हुई है। यह भी खुशी की बात है कि किसी भी उद्योग में इसे अब तक विफलता नहीं मिली है। पूरी यह आंशिक सफलता बराबर मिलने से ही आज यह इतनी मजबूत भी है।

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(7)सन् 1930 वाला स्वातन्त्र्य-संग्राम

 किसान-सभा का काम समेट कर भी स्वतन्त्रता के संग्राम के लिए कमर बाँधा के तैयार हो गया। बिहार प्रान्तीय किसान-सभा के कायम होते ही पश्चिम पटना किसान-सभा की अलग जरूरत न रही। वही धीरे-धीरे पटना जिला किसान-सभा बन गयी। इसमें शक नहीं कि किसानों के लक्ष्य, किसान-सभा की सदस्यता आदि के बारे में जो कुछ उस सभा में पहले सोचा और तय किया था उससे प्रान्तीय सभा के विधान आदि के बनाने में पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई। लेकिन अब तो सरकार से मुठभेड़ की बात सोची जा रही थी। किसान-सभा की बात कौन सोचता?

    न जाने जन्म से ही मेरा स्वभाव कुछ ऐसा क्यों हो रहा है कि संघर्ष वाली जगहें मुझे सदा पसन्द आयी हैं। कांग्रेस में भी शुरू में खूब लगा रहा, जब तक वहाँ असली संघर्ष और गुत्थमगुत्थ था। मगर जैसे-जैसे वह भिड़न्त उससे जाती रही वैसे-वैसे मैं भी उससे कुछ उदासीन होता गया। यहाँ तक कि बीच के दो-एक अधिवेशनों में गया तक भी नहीं। लेकिन ज्यों ही 1930 में वह फिर जबर्दस्त संघर्ष की ओर बढ़ी, त्यों ही मैं सब काम छोड़ के, यहाँ तक कि सबसे प्यारी किसान-सभा और श्री सीतारामाश्रम को भी छोड़ के उसमें जुटने के लिए तैयार हो गया और बड़ी तेजी से चारों तरफ घूम के लोगों को तैयार करने लगा। मेरा कार्य क्षेत्र तो पटना जिला ही था। खासकर बिहटा के चारों ओर का इलाका। इधर यह भी घोषणा हो गयी कि गांधी जी अपने आश्रमवासियों के साथ डाँडी के लिए मार्च करेंगे और वहीं नमक का कानून तोड़ेंगे। उसी के बाद बाकी लोगों को सबसे पहले बिना लाइसेंस नमक बना-बना के उस कानून को तोड़ना होगा।

    तब तक 26 जनवरी आ गयी। बड़ी मुस्तैदी से सभाएँ करके और जुलूस आदि निकाल के 'पूर्ण स्वतन्त्रता दिवस' मनाया गया। पूर्ण स्वतन्त्रता की प्रतिज्ञा की छपी लाखों प्रतियाँ बँटीं और एक लहर-सी उमड़ पड़ी। लेकिन मैंने एक अजीब ढिलाई देखी। अप्रैल आते-न-आते मुल्क की काया पलट हो गयी और धरपकड़ जारी हुई। राष्ट्रीय सप्ताह में ही गांधी जी डाँडी पहुँच के नमक कानून भंग करने वाले थे। उसके बाद ही 9 से 13 अप्रैल तक सत्याग्रह की धूम मचने वाली थी। मगर देखा कि पटना जिले के नामधारी लीडरान के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती है! बाबू जगतनारायण लाल जिला कांग्रेस कमिटी के सभापति थे। मगर उनका पता न था। चारों ओर मुर्दानगी छायी थी। वायुमण्डल काटे लेता था। मैंने ऊबकर इधर-उधर से कहलवाया कि वे आगे आयें। मगर कौन सुनता था। लोग अनेक प्रकार की बातें उनके बारे में कहते थे। लाचार, मैंने हारकर सोचा, चलो मुजफ्फरपुर या दरभंगा जिले में जहाँ झूम-झूम के सभी लोग मस्ती से काम में जुटे हैं। वहीं से जेल जाना ठीक है। यहाँ मुर्दानगी के बीच कौन मरे? एक दिन शाम के समय पटना पहुँच भी गया कि गंगा पार जाऊँ। लोगों को यह खबर लगी और दल बाँधा के मेरे पास रोकने आये कि न जाये। मैंने कहा कि एक ही शर्त पर रह सकता हूँ कि जगत बाबू आगे आयें और मुझसे पहले जेल जाये! आखिर हारकर वे राजी हुए तब मैं रुका। फिर तो बिहटा के पास बड़ा गाँव (अमहरा) में ही नमक कानून तोड़ने की तैयारी में लग गया।

    बहुत स्वयंसेवक आने वाले थे। अत: उनके खाने और रहने का प्रबन्ध चाहिए था। सो तो गाँववालों ने ही आपस में बाँट लिया। रुपया-पैसा रखने के लिए एक 'प्रबन्धक समिति' भी बना दी। इधर-उधर से मैंने दौड़ धूप के काफी पैसे भी जमा कर लिये। अमहरा पुराना गाँव माना जाता है। रईसी के लिए प्रसिध्द भी था। हालाँकि, अब तो वह हालत नहीं। ऐसी दशा में वहीं के कुछ लोगों ने कहा कि ''स्वामी जी, आप का साथ अमहरा न दे के धोखा देगा।'' खानदानी कहे जाने वाले गाँव सरकार से डरते हैं। इसीलिए उनका भय ठीक ही था। मगर मेरे मुँह से निकल पड़ा कि मेरा विश्वास है कि मुझे अमहरा हर्गिज धोखा  न देगा। आखिर, गत दस वर्षों के और उस समय के भी अनुभव ने बताया कि अमहरा ने बराबर साथ दिया और जम के दिया। सत्याग्रह के जमाने में तो उसने कमाल किया। लोग जेल गये सो तो गये ही। तबाह किये गये। यहाँ तक कि मिस्टर डॉनी (Danluey) नाम के असिस्टेंट सुपरिन्टेण्डेण्ट पुलिस ने बाबू रामजी सिंह के घर के खपड़े उजड़वा दिये। क्योंकि उन्हीं का दरवाजा इस संघर्ष का केन्द्र था। मगर फिर भी अमहरा डटा रहा। पीछे जेल से लौटकर मैंने उन सज्जन से कहा कि मेरी बात सच निकली या आपकी? वे हार गये।

    आखिर राष्ट्रीय सप्ताह में ही वहीं बाग में बाबू जगत नारायण लाल ने नमक कानून तोड़ा और जेल गये। इसके बाद मैंने तय कर लिया कि अब मुझे भी जाना चाहिए। जहाँ तक याद है, वह तो 13 अप्रैल को पकड़े गये। उसके फौरन बाद ही मैंने भी तैयारी कर ली। लेकिन मैंने अमहरा के बजाय विक्रम के आश्रम में ही जो वहाँ से 6 मील दक्षिण कांग्रेस की जगह है, नमक बनाने की तैयारी और घोषणा कर दी। तारीख भी नियत हो गयी और समय भी। मैंने खारा जल एक हँड़िया में आग पर चढ़ाकर पकाना शुरू किया। मेरे साथ और भी कार्यकर्ता थे। पुलिस का ए.एस.पी. सदल-बल हाजिर हो गया। इधर पहले से ही तय था कि नमक छीनने न दिया जायगा। ऐसी ही गांधी जी की आज्ञा थी। जब पुलिस ने मुझसे अंग्रेजी में सवाल किया तो मैंने कहा कि हिन्दी बोलिए तभी उत्तर दूँगा। फिर हिन्दी में उसने पूछा कि नमक क्यों बनाते हैं? आदि-आदि। मैंने उचित उत्तर दिया। फिर हँड़िया छीनने की कोशिश उसने की। मैंने रोका। मुझे धीरे से पुलिस ने अलग कर लिया। फिर तो अमहरा के श्री रामचन्द्र शर्मा के साथ औरों ने हँड़िया पकड़ ली और पुलिस के साथ गुत्थमगुत्थी में भी न छोड़ी। फलत: रामचन्द्र जी के हाथ में चोट आ गयी। अन्त में हँड़िया टूट-फूट गयी। वही टुकड़े उठाकर मेरे साथ पुलिस ले ही गयी। मुझे पुलिस दल के साथ बस में बैठा के वहाँ से मनेर थाने में ले जाया जाकर वहीं रख दिया गया। शाम हो गयी थी। रात में वहीं रहा।

    अगले दिन वहाँ से श्री आर. जगमोहन, एस. डी. ओ., दानापुर के सामने मैं एकाएक पेश किया गया और जब तक कोई पहुँचे-न-पहुँचे तभी तक छ: महीने की सख्त सजा देकर बाँकीपुर जेल में भेज दिया गया। जहाँ तक मुझे याद है
एस.डी.ओ. के डेरे पर ही मेरा केस हुआ। उसी समय मैंने देखा कि कसम खा के पुलिस के अफसर कैसी झूठी गवाही देते थे! ताकि कानूनी रस्म पूरा हो। हालाँकि, न तो मुझे केस लड़ना था और न उस अदालत को ही मैं न्याय की जगह समझता था। मैंने तो साफ-साफ नमक बनाना स्वीकार कर लिया। फिर भी ये झूठी गवाहियाँ, सो भी बाइबिल की कसम खा के, एक अंग्रेज को देते देख मुझे हँसी आयी और दया भी। देखा कि सरकारी नौकरों की कितनी दयनीय दशा है। उनसे, जैसा चाहा कहवाया गया। सरकार डरती भी इतनी थी कि चुपके से केस कराया, जो कानूनन जायज न था, अगर हम इतराज करते। एक तरफ तो सारा काम चुपके-चुपके कानून की अवहेलना, करके किया गया और दूसरी ओर झूठी गवाही दिलायी गयी। बात तो ठीक ही थी। मगर कई बातें इधर-उधर से जोड़नी पड़ीं। इसीलिए सच-झूठ की खिचड़ी बनी।

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(8)फिर जेल में-बाँकीपुर

 

जब मैं बाँकीपुर जेल में पहुँचा तो दो-एक साथी वहाँ पहले से ही थे। जहाँ तक मुझे याद है, वहाँ महीनों रहना पड़ा। मजिस्ट्रेट ने शायद फैसले में मेरे लिए कोई श्रेणी न लिखी थी और गवर्नमेन्ट को ही फैसला करना था। ठीक नहीं याद है। लेकिन देर होने से यही कहना उचित होगा कि सरकार को ही फैसला करना था। गर्मी के दिन और पुराने मच्छरों की सेवा इन दो बातों के खयाल के साथ शाम को ही बैरक में बन्द हो जाने की मिलान करने पर कैदियों के कष्टों का कुछ आभास मिल सकता है। मैं और हमारे साथी तो मसहरी लगाने के आदी थे। इधर गर्मी की हालत यह कि शाम को ही ज्यादा होती है। जैसे-जैसे रात बीतती जाती है वह कम होने लगती है। लेकिन अप्रैल का अन्त और मई ये काफी गर्म होते हैं। उधर मच्छरों का ज्यादा जोर भी शाम को ही होता है। ज्यादा रात बीतने पर उसका हमला धीमा पड़ जाता है। फिर सुबह होने के पहले कुछ जोर लगाते हैं। उनकी ज्यादा हनहनाहट शाम को और प्रकाश के पहले सवेरे रहती है।

    पटने के मच्छर भी पुराने मुछन्दर हैं। ये जाड़े में भी मरते नहीं। इसलिए अपने काम में काफी अनुभव रखते हैं। जब कि और जगहों में जाड़े में नाममात्र को ही या बिलकुल ही मच्छर रह नहीं जाते। तभी पटने में सबसे ज्यादा होते हैं! और जब बरसात में अन्यत्र उनकी महती सेना अजेय बन के खड़ी हो जाती है, तो पटने में ये सबसे कम पाये जाते हैं। गर्मियों में जाड़े की अपेक्षा पटने में कम रहते हैं और बाकी दुनिया में जाड़े से ज्यादा। बरसात से कम गर्मियों में पाये जाते हैं। लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि क्या इस बात में सचमुच पटना 'तीन लोक से मथुरा न्यारी' को चरितार्थ करता है? लेकिन बात सही है। सभी का यह अनुभव है। बिहार के गया, मुजफ्फरपुर आदि प्रमुख शहरों की भी प्राय: यही दशा है। मगर पटने की तो ठीक ही यही है। इसका कारण भी है।

    म्युनिसिपलिटी का प्रबन्ध ऐसा रद्दी है कि गन्दे पानी की नालियाँ खुली हुई रहती हैं। उनमें बराबर पानी रहने से वहीं मच्छर पैदा होते हैं। इन नालियों को भीतर जमीन में बन्द रखने का कोई प्रबन्ध अब तक भी नहीं हो सका है। हालाँकि, पटना बिहार की राजधानी है। गया आदि भी की यही दशा है। ये नालियाँ जाड़े में ज्यादा गन्दा पानी रखती हैं। इसीलिए सबसे ज्यादा मच्छर जाड़े में पाये जाते हैं। गर्मियों में धूप के कारण प्राय: छोटी नालियाँ सूख जाती हैं और बड़ी नालियों में भी कम गन्दगी रह पाती है। इसी से मच्छरों की सेना कम हो जाती है। लेकिन वर्षा में तो पानी पड़ने से बराबर ही नालियाँ यों ही धुलती रहती हैं और गन्दा पानी रख पाती हैं नहीं। इसीलिए सबसे कम मच्छर उसी समय रह जाते हैं।

    हाँ, बैरक में बन्द हो जाने पर नींद कैसे आये और मच्छरों से पिण्ड कैसे छूटे, यह भारी समस्या आ खड़ी हुई। मसहरी तो मिल नहीं सकती थी, जैसी कि अब मिल रही है। गर्मी का तो कोई उपाय और भी न था। पंखा भी मिले तो रात भर चलाता कौन रहे? फिर तो नींद ही हराम हो जाय। पंखे मिलें भी कैसे? सरकार का कानून भी तो कुछ निराला ही था।

    कहते हैं कि जरूरत ही सब चीजें पैदा करती हैं। हमें भी नींद की जरूरत थी। नहीं तो मर ही जाते। यह भी ठीक ही है कि नींद और मौत समान ही हैं, जहाँ तक तकलीफों के महसूस करने का सवाल है। और अगर इन्सान खूब थका-माँदा और पस्त हो तो नींद बिना बुलाये ही आती है। इसीलिए मैं बैरक के भीतर ही घण्टों टहलता रहता। इससे व्यायाम भी होता और कुछ समय भी कट जाता था। थकावट तो होई जाती थी। फिर तो गहरी नींद आ जाती और न मच्छर ही मालूम पड़ते, न गर्मी। इसी प्रकार हमने उस भारी समस्या को सुलझा ही तो लिया।

    बाहर जाना तो जेल में यों ही मना है सिवाय काम के लिए जाने के। अपने ही बैरक में या उसके हाते में रहो। तिस पर तुर्रा यह कि हम तो ठहरे राजनीतिक बन्दी। इसलिए हमारे लिए तो और भी मनाही थी कि किसी से मिल न सकें। बैरक में ही चरखा चलाने का काम करते थे।

    जेल में जाते ही मेरे साथ एक और समस्या खड़ी हुई। वह थी खान-पान की। पहली बार तो उसमें सख्ती रही। अपने ही हाथ से पानी भर के कुएँ से लाता था। खाना-पीना पूर्ववत् चलता था। उसमें छूतछात चलती ही थी। वह निभ भी गयी। अब यह दूसरा मौका यू.पी. के बजाय बिहार में पड़ा, जहाँ क्षमा हो, खान-पान में हजार चौका-चूल्हा रखने पर भी बड़ी गन्दगी रहती है। सनातनी लोग छूतछात का ढोंग तो बहुत करते हैं। मगर लोहे की बालटी जो शुरू में आई तो टूट जाने तक मिट्टी से कभी मली नहीं जाती! कुएँ पर पड़ा या लटका हुआ डोल या कुण्डी तो गंगा की धारा ही होती है! उसमें तो सभी जाति और धर्म के लोग पानी पीते हैं! यहाँ तक कि हाथ से निकाल-निकाल के पीते हैं! मैंने दरभंगा और दूसरी जगहों की संस्कृत पाठशालाओं तक में यही देखा है। हालाँकि, वहाँ कुलीनता की नाक काटने वाले ब्राह्मण पण्डितों के जत्थे रहते हैं। फिर भी छुआछूत का पाखण्ड बहुत रहता है। विपरीत इसके, ज्यों-ज्यों पश्चिम में जाइये त्यों-त्यों यह ढोंग और चौके की लीपा-पोती कम होती जाती है। मेरठ वगैरह में तो प्राय: खत्म ही है। मगर जगह कपड़े और बर्तनों की सफाई वहाँ खूब रहती है। बिहार के भनसिया (रसोइया) का कपड़ा जितना ही गन्दा होता है, पश्चिम वाले का उतना ही साफ। जगह भी साफ रखते हैं, बर्तन की तो एक दास्तान ही सुनाये देता हूँ।

    बिहार के एक साथी के साथ मैं मुजफ्फर नगर जा रहा था। मेरठ में गाड़ी से उतर के पास की धर्मशाले में गया। कुएँ पर डोल पड़ा था। बगल में साफ मिट्टी भी थी। जोई आता था वह मिट्टी डोल में लगाता, उसे पानी से धोता और पानी निकाल के पीता। फिर चला जाता। घण्टों यह बात मैं देखता रहा। साथी को भी दिखाया। डोल भी तांबे का था। जो चमचमाता था। फिर भी कुएँ पर पड़ा रहने के कारण जो ही आता उसे पानी पीने के पूर्व धो लेना जरूरी समझता। यों भी ज्यादातर पक्की कलई वाले बर्तन ही वे लोग काम में लाते हैं। वे देखने में साफ मालूम होते हैं। यहाँ तो लोटा, थाली वगैरह देखते ही तबीयत बिगड़ जाती है। मालूम पड़ता है कभी धोये जाते ही नहीं। कभी राख या मिट्टी से मले ही नहीं जाते। गन्दे धातु के बर्तन तो जहरीले होते हैं। हाँ, यह ठीक है कि धीरे-धीरे धोने-धाने का यह रिवाज भी उठता जा रहा है।

    मैंने असहयोग के जमाने में छूतछात की यह सख्ती तो की थी और उसे निभाया भी था। मगर कई कटु अनुभव मुझे हुए। एक तो मैंने देखा कि मेरी देखादेखी और लोगों ने दूसरी बातों के लिए जेल में अड़ंगे डाले और नाहक जेलवालों को बारबार तंग किया। अड़ंगे तो दो-एक बार मुझे भी डालने पड़े। मगर सिर्फ खान-पान की सफाई और छूतछात के ही लिए। जेलवालों ने इसे समझ कर माना भी। मगर दूसरे लोगों ने इस बात को उन्हें दिक करके के मानी में लिया और तरह-तरह से दिक किया। गोया, मैंने उनके लिए एक प्रकार से रास्ता साफ कर दिया! यह बात मुझे खटकी। यह भी देखा कि जब जेल में लोग यों ही सैकड़ों तरह के अड़ंगे खड़े कर रहे हैं तो मैं भी उसी श्रेणी में खामख्वाह गिना जाऊँगा। क्योंकि दुनिया उस छुआछूत को तो समझ सकती नहीं। साथ ही, जेल वालों को मेरे चलते कभी-कभी बड़ी दिक्कतें उठानी पड़ीं। क्योंकि कुएँ का पानी मिलना सर्वत्र आसान न था। जेल में कुएँ रहें और वे खुले हों तो साधारण कैदी उनमें गिर के मर जाये। इसलिए जेलवालों को इसका खयाल करके ही सब प्रबन्ध करना पड़ता है। और फिर मेरे जैसे वहाँ जाते ही कौन हैं?

    इसलिए मैंने सोचा कि कोई रास्ता आपध्दर्म का निकालकर इस बला से बचना चाहिए। मैंने पहले बृहदारण्यकोपनिषद् में एक आख्यान पढ़ा था कि लगातार सख्त ओले पड़ने से एक बार कुरु देश में बारह वर्ष के लिए अकाल पड़ गया। दाने बिना लोग मरने लगे। मर-मिटे। वहाँ 'रैक्व' नाम के एक ऋषि अच्छे विद्वान् थे। वे कई दिनों के भूखे थे। इसी बीच कहीं किसी को वैदिक योग कराने का मौका आया। फलत:, दूर से दूत आया उन्हें लेने। मगर भूखों चलना असम्भव था और उन दिनों सवारी कहाँ? अगर हो भी तो ऋषि लोगों को उससे क्या काम? उन्होंने सोचा, कहीं से कुछ खाना ढूँढ़ लाऊँ और खाकर देह में बल लाऊँ। तब चलूँ। मगर खाना मिलता कहाँ? बड़ी मुश्किल से हाथीवानों के गाँव में गये और एक से कहा कि खाने की कोई चीज दो। उसने उत्तर दिया कि मेरे पास इस समय कुछ है नहीं। यही उड़द थी जो हाथी के सामने पड़ी है और वह खा रहा है। उन्होंने उस जूठी उड़द में से ही माँगा। हाथीवान ने दे दी। उसके बाद जब वह अपने घड़े से पीने का पानी देने लगा तो ऋषि ने कहा कि तुम्हारे घड़े के जल को पीने से मेरा ब्राह्मणधर्म चला जायगा! इस पर उसने पूछा कि इसी घड़े के जल में भिंगी हुई जूठी उड़द के खाने से तो धर्म नहीं गया। मगर यही पानी पीने से चला जायगा? ऋषि ने उत्तर दिया कि हाँ, चला जायगा। प्राण की रक्षा करनी है और खाना तो और कहीं कुछ मिला नहीं। इसलिए उड़द ले ली। मगर पानी तो बहुत मिलता है। तब यदि तुम्हारा पानी लूँगा तो जरूर धर्म नष्ट हो जायगा। यह कह के चलते बने। मनु आदि ने भी कहा कि 'प्राणस्यान्नमिंदं सर्वम्'। जरूरत पड़ने पर प्राणरक्षार्थ सभी चीजें खाई जा सकती हैं। उन्होंने विश्वामित्रा आदि अनेक ऋषियों के अभक्ष्यभक्षण का उल्लेख भी किया है जो उन लोगों ने आपत्काल में किया था।

    बस, इन्हीं सबों के आधार पर मैंने जेल आने से पूर्व ही तय कर लिया था कि इस बार जेल के भीतर वैसी छुआछूत नहीं रखूँगा। वहीं की बनी रसोई खा लूँगा और कल का जल पी लूँगा। हाँ, स्वयं जितनी सफाई कर सकता हूँ उतनी फिर भी करूँगा। मगर जेल में गड़बड़ी का मौका न दूँगा। फलत:, बाँकीपुर जेल से ही मैंने वैसा ही खाना-पीना शुरू कर दिया। हाँ, यह ठीक है कि पानी लाकर अलग सुराही में रखता था और साथियों को कह दिया था कि आप लोग अलग सुराही रख लें। जूठे या गन्दे हाथों से कृपया मेरी सुराही न छुएँ। इस प्रकार वह संकट तो टला। नहीं तो अनशन करना ही पड़ता जैसा पहली बार यू.पी. में करना पड़ा था। तब कहीं मेरा प्रबन्ध हो सका था।

    मैंने यह भी तय कर लिया था कि जेल में भरसक कभी अनशन नहीं करना चाहिए। एक तो बनारस के अनशन का कटुतम अनुभव था। दूसरे बात-बात में लोग अनशन करते रहते थे और इस प्रकार उसके महत्त्व  को खत्म कर दिया था। मैंने सोचा कि इस बार न तो स्वयं यह काम करूँगा और न औरों को ही मौका दूँगा। मगर खानपान के नियमों की सख्ती रखने से तो खामख्वाह करना ही पड़ता। इसलिए 'रहे बाँस न बाजे बाँसुरी' हो गयी।

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 (9)हजारीबाग सेण्ट्रल-जेल

 

प्राय: एक महीने के बाद एक दिन हुक्म आया कि '' और 'बी' डिवीजन वालों को हजारीबाग जाना होगा। हम दो-चार साथी रेल से रवाना हो गये। वह हजारी बाग रोड स्टेशन पर सवेरे पहुँच गयी। हम लोग पुलिस के साथ वहीं उतरे। मेरे साथ जगत बाबू भी थे। हमें न तो हथकड़ी-बेड़ी लगाई गयी और न कमर में हमारे रस्सी ही बांधी, जेल से लेकर यहाँ तक, या हजारीबाग जेल तक। मगर थोड़ी देर में भागलपुर से श्री रामेश्वनारायण अग्रवाल उतरे, तो देखा कि उनकी कमर में रस्सा बँधा हुआ है! ताज्जुब हुआ। एक ही सरकार और यह विचित्रता! वही कानून, वही पुलिस और उसी प्रकार के हम सभी राजबन्दी! फिर यह विषमता हम समझ न सके। मगर सरकार को समझना आसान नहीं। यही समझ के सन्तोष किया। खैर, अग्रवालजी से दण्ड-प्रणाम हुआ। सबने वहीं स्नानादि किया।

    वहीं पर मैंने बाबू जगतनारायण लाल की विचित्र पूजा देखी। घण्टों सिर झुमाना और रम, रम, रम, रम, (राम, राम, राम, राम) करना सो भी निराले ढंग से, मेरी समझ में न आया। हालाँकि, मेरा जीवन पूजा में ही बीता है। उन्होंने कहा कि भगवान् को रिझाता हूँ। मैंने रिझाने का यह तरीका अनोखा पाया, जो तमाम शास्त्र, वेदों और पुराणों में कहीं नहीं मिला था। सबसे आश्चर्य की बात तो यह थी कि वह प्रत्यक्ष ही कोई झूठी बात बोलते या खराब काम करते थे। फिर यह कह के सन्तोष कर लेते थे कि मैं अपने भगवान् को रिझाकर क्षमा करवा लूँगा। ऐसा मौका उसके बाद कई बार जेल में लगा था। मैं तो ऐसे भगवान् को भी समझ न पाया। मेरे लिए वह भगवान्, उनके रिझाने के लिए वह पूजा और वह पुजारी तीनों ही पहेली ही रहे और आज तक भी हैं।

    हाँ, तो स्टेशन से हम हजारीबाग सेण्ट्रल जेल में पहुँचे। ऑफिस में ही हमारी सब चीजें रख ली गयीं। मैंने अपना 'दण्ड' पहली बार और इस बार भी साथ ही रखा था। इसलिए जेल में भी वह रहा। वह ऑफिस के एक कमरे में पहले ही की तरह टँगा था। कपड़े तो जेल के ही मिले। केवल मेरे दो लँगोटे मेरे साथ रहने पाये। अब तो नियम बदल गये हैं। मगर पहले कुछ वैसी ही बातें थीं। सिर्फ '' डिवीजन वाले ही अपने कपड़े रख सकते थे। कुर्सी, मेज, गद्दें, खाट आदि तब नहीं मिलते थे। मामूली कैदियों जैसे ही सामान रहते थे। पीछे, जहाँ तक खयाल है, बदले। मगर मैं तो बराबर वही कपड़े रखता था और वही सामान। इसका कारण बताऊँगा। जेल के ऑफिस से मैं स्पेशल सेलों के दो नम्बर के वार्ड में लाया गया। वहीं एक सेल में डेरा डाला। कुछ परिचित लोग पहले ही से थे। उनसे भेंट और बातें भी हुईं।

    मगर पहुँचते न पहुँचते मुझे वहाँ बदली हुई दुनियाँ मालूम पड़ी। मालूम पड़ता था मैं एक निराले संसार में पड़ गया हूँ। पहले ही बता चुका हूँ कि सन् 1922 ई. में जेल में मुझे कटु अनुभव हुए और सोचा कि गांधी जी की बात तो चलती नहीं। लोगों पर उनका असर है नहीं आदि-आदि। मगर सोचता था कि गत दो वर्षों में लोगों ने उन सिध्दान्तों को हृदयंगम किया होगा और बहुत कुछ उस मामले में आगे बढ़े होंगे। गांधी जी तो अपने को बड़ा ही सख्त और बेमुरव्वत बताते हैं, जहाँ तक वसूलों की बात है। वह स्वराज्य को छोड़ दे सकते हैं। मगर अपने सिध्दान्त छोड़ नहीं सकते। ऐसी हालत में लड़ाई शुरू करने के पहले उन्होंने जरूर ही देख लिया होगा कि पहले की खामियाँ अब नहीं हैं, या नाममात्र को ही हैं। तभी तो लड़ाई छेड़ी होगी। वे तो इस बात का दावा करते हैं कि उनका जीवन ही अनुभव का है और वे सभी बातें बखूबी समझते हैं, चाहे हम लोग भले ही छिपायें।

    ऐसी दशा में स्वभावत: मुझे आशा थी कि लोग नियमों की पाबन्दी और सत्य आदि के मामले में बहुत कुछ उन्नति कर गये होंगे। मगर यहाँ तो उल्टा ही पाया और देखा कि दस साल के भीतर लोग ठीक उलटे चले हैं। फलत: जहाँ सन् 1922 में थे वहाँ से बहुत पीछे हट गये हैं। मेरे लिए यह बड़ा ही दर्दनाक दृश्य था। उस समय मेरे दिल की क्या दशा थी यह कौन समझ सकता था? मेरे जैसा आदमी जो अनुभवों के सहारे आगे बढ़ता आया हो और जिसे गांधीवाद में अटूट श्रध्दा हो कैसे इस पतन के लिए तैयार हो सकता था? इस भीषण दृश्य को बर्दाश्त कैसे कर सकता था? आखिर, मैं तो धर्म दृष्टि से ही राजनीति में कूदा था। मगर यहाँ तो ऐसी गन्दगी पायी कि हैरान हो गया। मुझे मालूम पड़ा कि मैं धोखे में पड़ गया।

    बात यह है कि मुझे सन् 1922 ई. के अन्त तक होने वाले अनुभवों के आधार पर यह खयाल हो आया था कि एकाएक गांधी जी ने तथा परिस्थितियों ने भी कस के धक्का मारा और सारा मुल्क बहुत आगे बढ़ गया। लीडर भी और जनता भी दोनों ही बहुत आगे चले गये। उसके बाद लीडर लोग तो धीरे-धीरे पीछे खिसकने लगे मगर जनता जहीं की तहीं रह गयी। प्रत्युत वह धीरे-धीरे आगे ही जा रही है।

    यह जान लेना चाहिए कि जनता जितनी दूर बढ़ी थी उससे कहीं आगे कई अर्थों में लीडर लोग चले गये थे। जनता में राजनीतिक चेतना और प्रगति बहुत हुई थी। मगर सत्य और अहिंसा आदि को उसने उतना कभी नहीं समझा था। वह समझती भी नहीं। उसका ऐसा स्वभाव ही नहीं कि इन गहरी बातों में माथापच्ची करे। उसका उसे मौका ही नहीं। भौतिक और आर्थिक मामलों को वह खूब समझती है। मगर दार्शनिक रहस्यों को वह क्या जानने गयी? उन्हें वह बेकार से समझती है। इनसे उसकी रोटी तो हल होती है नहीं। वह तो यह भी मानती है न, कि धर्म के ये सभी मामले उसकी पहुँच के बाहर हैं? इसीलिए यह भी मानती है कि बड़े लोगों को खिला-पिला देने, पैसे दान करने, और उनकी आज्ञा से थोड़ा कष्ट भोग लेने से ही उसका काम चल जायगा&उसका कल्याण हो जायगा। क्योंकि बड़े लोग ये बातें जानते ही हैं और उन्हीं के पुण्य प्रताप में से कुछ मिल ही जायगा, उन्हें इस तरह मानने से। मगर बड़े लोग, नेता लोग, कार्यकर्ता लोग&सारांश, चुने लोग&तो शौक से और चाह के साथ सत्य, अहिंसा आदि में पड़ते हैं। उन्हें जनता को ले चलना जो है। इसीलिए वह इस मामले में जनता से आगे बढ़ जाते हैं। कम-से-कम ऐसे प्रतीत होते हैं।

    लेकिन वह बढ़े थे अपने बल से नहीं, दूसरे के बल से परिस्थितियों के दबाव से। फलत: जब तक वह दबाव था वे अपनी जगह पर रहे। मगर दबाव कम होते ही निराधार वस्तु की तरह गिरने लगे। कमजोरियाँ थोड़ी देर दबी रहीं। मगर अब मौका पाकर उन्होंने नेताओं को दबाना शुरू किया। इसीलिए मैंने कहा है कि वह गिरने लगे। उनकी अहिंसा और उनके सत्य का पर्दाफाश होने लगा! उनकी कलई खुलने लगी। मगर जनता का क्या? उसकी कलई क्या खुले? अगर कोई हो तब न? इसीलिए वह पीछे हटना नहीं जानती। किन्तु धीरे-धीरे आगे ही बढ़ती है। मगर नेता पीछे हटने लगते हैं। जनता यदि धीरे-धीरे न बढ़े तो उसमें मजबूती न आवे और उसकी मजबूती से तो काम चलता है। लीडर तो आते जाते हैं। एक नहीं तो दूसरा लीडर होगा।

    गिरने का मौका जेल में सबसे ज्यादा होता है। यानी असलियत यहीं आसानी से खुलती है। जेल में कुछी लोग ऊपर जाते हैं। कुछी अपनी जगह पर रह जाते हैं। मगर ज्यादा लोग नीचे चले जाते हैं। यह पक्की बात है। अब तक यही हुआ है। आगे की राम जानें। गांधी जी कब इस बात को समझेंगे पता नहीं? कभी भी समझ सकेंगे या नहीं यह भी कौन बताये?

    दूसरी बार जेल में आते ही जो नजारा देखा उससे मेरी पुरानी आशाओं पर पानी फिर गया और मेरा जो पुराना खयाल था जिसे अभी बताया है वह पक्का हो गया। मैंने मान लिया कि यह नाव तो डूबने वाली है। गांधी जी का सत्य और उनकी अहिंसा, ये चीजें हर्गिज चलने की नहीं। जरा-जरा सी बातों के लिए लोग क्या-क्या न कर डालते थे? जरा सी सुविधा के लिए आकाश-पाताल एक कर डालते थे। पावरोटी, मक्खन और अण्डे के लिए अनेक फरेब रचे जाते थे, अनेक बहानेबाजी होती थी। कोई किसी की सुनता न था। सब अपने-अपने मालिक। गांधी जी के बताये नियम, कायदे तो कतई भूली गये थे। मानों, उन्हें कभी किसी ने सुना या जाना ही न हो! उनकी परवाह तो सचमुच किसी को भी न थी। चाहे गांधी जी भले ही समझते थे कि साबरमती आश्रम के कुछी लोगों ने, या उनके एकाध परिचित ने ही किताबें पढ़ने के लिए जेल का काम करना बन्द कर दिया और नियम तोड़ा! जैसा कि सत्याग्रह स्थगित करने के कारणों में उन्होंने सन् 1934 ई. में बताया था। उन्हें क्या पता था कि पद-पद पर सभी नियमों की धाज्जियाँ बेरमुरव्वत से जानबूझकर उड़ायी जाती थीं। इसके अपवाद शायद हो दो-चार हों। जबर्दस्ती किसी की शिखा काट लेना और जनेऊ (यज्ञोपवीत) तोड़ देना तो मामूली बात थी। जिसके हाथ में गीता देखी, बस, लोग उसी के पीछे पड़ गये और उसके नाकों दम कर छोड़ा। अजीब हालत थी। मैंने देखा कि बाबू राजेन्द्र प्रसाद परेशान और लाचार थे। उनकी कोई सुनता ही न था। फिर दूसरे की कौन गिनती?

    मेरे सामने तो वहाँ जाते ही एक और प्रश्न आया। मैंने सन् 1922 ई. में ही विशेष प्रकार का खाना वगैरह इनकार कर दिया था। उसके कारण भी बताई चुका हूँ। हजारीबाग आने पर मैंने फिर इनकार किया। और मामूली खाना वगैरह ही लेना शुरू किया। इस पर बड़ा तोबातिल्ला मचा। लोगों ने इधर-उधर से बहुत कुछ समझाना चाहा। मगर किसी की न चली। फिर तो सभी चुप रहे।

    खैर, यह तो एक बात थी। मगर जब मैंने पीछे यह जाना कि बहुतों को यह मेरी बात बुरी तरह खटकती थी। इसमें वे अपनी अप्रतिष्ठा देखते थे। वह समझते थे कि इससे उनका प्रभाव साधारण कार्यकर्ताओं में कम हो जायगा और इस एक आदमी का बढ़ेगा। और भी जाने क्या-क्या सोचते थे। फलत: अप्रत्यक्ष रूप से न जानें उनने कितने उपाय किये कि मैं भी उन्हीं जैसा खान-पान स्वीकार करके पथभ्रष्ट हो जाऊँ। लेकिन वे लोग अन्त तक सफल न हुए। तब झूठी बातें फैला के मुझे बदनाम करना चाहा। मुझे इस नीचता का पता लगा तब तो अपार वेदना हुई और सोचा कि कहाँ चला जाऊँ। पर बेबस था।

    परिणाम यह हुआ कि मैं अपने सेल से बाहर निकलता ही न था। केवल पाखाने और स्नान के समय को छोड़, शेष समय उसी के भीतर ही पड़ा रहता था। ऐसी तकलीफ थी और बाहर का दृश्य इतना असहनीय था कि बाहर निकलने की हिम्मत ही न होती थी। भीतर ही बैठा सूत कातता और पढ़ने-लिखने का काम करता रहता था। एकाधा जवानों को कुछ पढ़ाता भी था। सूत तो मैंने काफी काता और बाहर जाने के समय पैसे देकर जेल से उसे खरीद लिया भी। चालीस नम्बर (काउण्ट) का सूत काता था। उसका बारह गज कपड़ा चौवालीस इंच अरज वाला तैयार कराया। छ: आने गज बुनाई देनी पड़ी।

    मेरी मानसिक वेदना कभी-कभी इतनी बढ़ जाती कि माफी माँग कर बाहर चले जाने की बात सोचने लग जाता। माफी केवल इसलिए, कि मुझे देशद्रोही समझ फिर ये लोग न मेरे पास कांग्रेस के सम्बन्ध में आयेंगे और न फिर मैं कभी आगे इस नरक यातना में पड़ईँगा। यों तो खामख्वाह आयेंगे और घसीटकर फिर मुझे इस दोजख में लायेंगे। लेकिन फिर सोचता कि माफी माँगने का परिणाम देश के लिए घातक सिध्द होगा। जिस देश के लिए इतना किया उसी की हानि करूँ यह ठीक नहीं। उसने क्या बिगाड़ा है कि उसे हानि पहुँचाऊँ? बिगाड़ने वाले तो ये लोग हैं। तो फिर इन पर होने वाला क्रोधा देश के मत्थे नाहक क्यों उतरे? बस यही समझकर रुक जाता।

    लेकिन चलने से पहले, और छ: ही महीने की तो सजा थी यह तय कर लिया कि चाहे जो हो मगर कांग्रेस में न रहूँगा। उससे तो अलग होई जाऊँगा। उसका या देश का तो कोई नुकसान जानबूझकर नहीं करूँगा। लेकिन कांग्रेस से अलग जरूर हो जाऊँगा। उसकी राजनीति से कोई नाता नहीं रखूँगा। यह बात लोगों को मालूम भी हो गयी कि स्वामी जी लोगों पर बहुत ही रंज हैं। उन्हें डर हुआ कि बाहर जाकर कहीं कांग्रेस का विरोध न करें। क्योंकि मेरे स्वभाव से वे लोग परिचित थे और मानते थे कि यदि मैंने ऐसा तय कर लिया तो फिर मुझे कोई रोक नहीं सकता। इसलिए जब जेल से चलने के समय लोगों ने यह प्रश्न किया तो मैंने यही उत्तर दिया कि वर्तमान समय में कांग्रेस और देश का तो कभी भी विरोध आत्मघात है और मैं आत्मघाती नहीं बन सकता। तब कहीं जाकर लोगों को चैन मिला।

    मेरे स्वास्थ्य की हालत यह हो गयी कि मैं काला पड़ गया। केवल हड्डिया रह गयीं। मानसिक वेदना और चिन्ता ऐसी ही वस्तु होती है। पहले पढ़ा था कि 'जल गये लोहू-मांस गयी रह हाड़ की ठट्टी'। लेकिन उसका प्रत्यक्ष अनुभव जेल में इस बार हुआ। जेलवाले घबरा गये। श्री नारायण बाबू जेलर ने मुझसे पूछा कि हमें आपको मरने से बचाना है। हमारे ऊपर जिम्मेदारी है। इसलिए बतलाइये कि आप बाहर क्या खाते-पीते थे? जेल में मैं रोटी मात्र लेता था और थोड़ा दूध लेकर खा लेता था। नमक, दाल, साग, चटनी तो खाता न था। उनकी जगह दूध लेता था। जब उनने पूछा तो कुकर की चर्चा मैंने की और कहा कि उसी में पका के दलिया खाता था और कभी-कभी केले आदि फल भी। फिर तो बिहटा लिखवा कर मेरा कुकर उन्होंने मँगवा दिया और दलिया वगैरह का प्रबन्ध कर दिया। इससे, जो स्वास्थ्य गिर रहा था वह रुक गया सही। मगर उसमें उन्नति न हो सकी।

    लेकिन जब और कुछ न मिला तो यह कुकर वगैरह देख के ही कुछ दोस्तों ने चुपके-चुपके कहना शुरू किया कि आखिर रिआयतें तो स्वामी जी ने भी स्वीकार किया ही! इससे मुझे बड़ा दर्द हुआ और इतना भी मौका न देने के लिए मैं तैयार हो गया। इसलिए जेलर को लिखा कि आप कृपा करके वे सभी चीजें, जो रिआयत के रूप में हैं, लौटा लें। इस पर उसने कहा कि यहाँ रिआयत का सवाल है कहाँ? हमने जेल के कायदे के अनुसार प्रबन्ध किया है। उसे वापस नहीं ले सकते। क्योंकि आपकी शरीर रक्षा की जवाबदेही भी तो आखिर हमारे ऊपर है। इस पर विवश हो के मैं चुप हो गया।

    आज तो मैं मानता हूँ कि मेरी वह सख्ती कुछ दृष्टियों से गलत थी। राजनीतिक बन्दी, जिन्हें जेलों में, ज्यादा समय अक्सर गुजारना पड़ता है, यदि सुविधाएँ न पायें तो मर ही जाये और खत्म ही हो जाये। उनके लिए तो यह जरूरी है कि आराम से रहें। बाहर रहने पर तो कामों के भार से फुर्सत रहती ही नहीं। स्वास्थ्य गँवाकर ही उन्हें काम करना पड़ता है। ऐसी दशा में तो जेल में ही स्वास्थ्य सुधारने का मौका उन्हें मिल सकता है। और अगर ये सुविधाएँ न रहीं तो आमतौर से सबका स्वास्थ्य सुधारने के बजाय चौपट ही हो जायगा। इसीलिए तो जेल में जहाँ तक हो सके अधिकारियों से कोई खटपट न होने देने का मैं कट्टर पक्षपाती हूँ। क्योंकि नाहक परेशानी उठानी पड़ती है और दिल, दिमाग एवं शरीर तीनों पर ही उसका बुरा असर पड़े बिना नहीं रहता। जेल में अनशन का कट्टर विरोधी भी मैं इसीलिए हूँ कि दिल, दिमाग और शरीर तीनों पर ही उससे आघात होता है। सिवाय प्राणों से भी प्यारी चीज के और बात के लिए तो अनशन करना ही न चाहिए। प्राणों से प्रिय वस्तु के लिए भी बहुत सोच-विचार की जरूरत है। भरसक उसे भी टालना ही चाहिए। खूब पढ़ना-लिखना, पुराने विचारों को नये सिरे से फिर उधेड़बुन करके उन्हें पक्का करना या छोड़ना, नये विचारों को स्थान देना और व्यायाम, संयमादि के द्वारा शरीर को मजबूत करना यही काम जेल में होना चाहिए। बाहर के काम की चिन्ता छोड़ ही देना चाहिए। नहीं तो नाहक परेशानी होती है। कुछ कर भी तो पाते नहीं।

    लेकिन जन-आन्दोलन में जेल की सुविधाओं का विचार जरूरी हो जाता है। क्योंकि आम जनता पर हमारे जेल के व्यवहारों का काफी असर हो जाता है। और भी कई कारण मैं पहले ही कह चुका हूँ। फिर भी यह बात चल नहीं सकती। जब गांधी जी जैसों का प्रभाव कुछ कर न सका तो औरों की क्या बात? और हमें तो व्यावहारिक बनना चाहिए। केवल आदर्शवादी बनने से इस भौतिक दुनिया का काम कभी नहीं चल सकता। इसीलिए मैंने अपने को अब ऐसा बना लिया है कि जेल में कोई कुछ भी ऊधाम करे या सच-झूठ से काम ले, मेरे दिल पर उसका पहले जैसा असर अब नहीं होता। मैं तो मानता हूँ कि दुनिया का यही रूप ही है। इसके बिना वह एक क्षण भी टिक नहीं सकती। गांधीवाद का भूत और आदर्शवाद की सनक ये दोनों चीजें अब मेरे ऊपर से उतर गयी हैं। इनके लिए बेकार माथापच्ची करना मैं भूल समझता हूँ फिर भी स्वयं ऐसी बातें कर नहीं सकता। मेरी हिम्मत ही नहीं होती कि झूठ बोलूँ या कोई जाल-फरेब करूँ। ऐसा खयाल मन में लाते ही आत्मा धंसती सी मालूम पड़ती है।

    जेल में मुझे और भी अनुभव हुए। आज जो लोग राजनीति के लीडर बने हुए हैं और बिहार के अनेक जिलों या समूचे प्रान्त के कर्ताधर्ता होने का दावा करते हैं, जहाँ तक राजनीति से सम्बन्ध है, वह प्राय: सभी हजारीबाग जेल में ही थे। जिस प्रकार युक्त प्रान्त के कई सौ चुने-चुनाये लोगों से फैजाबाद, लखनऊ और बनारस जेलों में साबका पड़ा था और मैंने अनेक अनुभव प्राप्त किये। ठीक उसी प्रकार बिहार के कई सौ दोस्तों से हजारीबाग जेल में काम पड़ा था। वे तो आज प्राय: सभी लीडर हो गये हैं। इसलिए इन्हें नजदीक से जिस प्रकार आचरण और गांधीवाद के सिध्दान्तों के पालन के सम्बन्ध में मैंने देखा, ठीक उसी तरह उनकी राजनीतिक मनोवृत्ति के अन्तस्तल की झाँकी करने का भी मौका मिला। इस मामले में उनके दिल और दिमाग कैसे हैं, उनकी मानसिक रचना कैसी है, इसके जानने का खासा अवसर वहाँ मिला। फलत: मैं उनकी ऊँची-ऊँची बातों से धोखे में पड़ नहीं सकता।

    चाहे किसी भी कारण से हो, लेकिन मेरी धारणा, उस समय थी कि वह लड़ाई जल्दी ही खत्म होगी&एक साल से ज्यादा न चलेगी। मैंने दो-एक समझदार लोगों से, जो मुलाकात करने आये थे, कहा भी था। बात भी कुछ ऐसी ही हुई। तब से तो मेरी यह पक्की धारणा हो गयी है कि गांधी जी के नेतृत्व में चलने वाली आजादी की लड़ाई लगातार जारी रह नहीं सकती। खैर, उन दिनों तो मैं समझौता, सुधार और क्रान्ति की बातें विशेष रूप से जानता भी न था। और न यही जानता था कि गांधी जी समझौतावादी एवं सुधारवादी हैं। मैं तो उन्हें पक्का क्रान्तिकारी मानता था, जैसा कि आज भी कुछ अच्छे और समझदार लोग मानते हैं। फिर भी यह धारणा दृढ़ हो चली थी कि जम के लड़ते रहना गांधी जी के लिए असम्भव है। लेकिन जो आजादी हम चाहते हैं वह तो बिना मुड़े, झुके और समझौता किये ही लड़ाई जारी रखने से ही मिल सकती है।

    हाँ, तो जब कभी अखबारों में कोई समझौते की बात आती और गांधी जी उसमें 'नाहीं' कर देते या अन्यमनस्कता दिखाते तो हमारे दोस्त लोग जो उन्हीं के नाम पर जेल गये थे और आज भी उन्हीं की एकमात्र दुहाई देते हैं, उन पर कुढ़-कुढ़ के मरते थे। वे लोग रंज हो के कह दिया करते थे कि वह सुलह क्यों नहीं कर लेते? बाल की खाल क्यों खींचते हैं? हठ क्यों करते हैं? बहुत बार यह भनक और यह खबर मुझे मिलती रही। बातचीत भी तो आखिर कभी-कभी होई जाती थी और साफ मालूम होई जाता था। मगर दूसरे लोग भी सुनाया करते थे। गांधी जी तो यों भी कहते हैं कि मेरी रग-रग में समझौते का भाव भरा है। वह तो मेरे स्वभाव का एक भाग ही है। मगर उनसे भी जो लोग हजार कदम आगे बढ़े हों उन्हें क्या माना जाय? वह पीड़ित जनता को आजादी दिलायेंगे, यह कौन मान सकता है? उस आजादी को समझौते से भला क्या ताल्लुक? आज तो यह साफ है कि उस आजादी के चाहने वाले मानते हैं कि गांधी-अरविन समझौता एक भारी भूल थी। फिर भी हमारे दोस्तों का दावा है कि वह पीड़ितों के लिए&ही मर रहे हैं और उन्हें आजादी दिला कर ही दम लेंगे।

    जहाँ तक पढ़ने-लिखने का मेरा ताल्लुक था, जैसा कह चुका हूँ, कुछ लोगों को गीता या संस्कृत पढ़ाता था। मौलनिया (चम्पारन) की राजनीतिक डकैती केस के तीन राजबन्दी वहाँ थे। उनमें एक को मैं संस्कृत पढ़ाने के साथ ही आतंकवाद के विपरीत शिक्षा भी देता था। इस बात का उसके दिल पर कुछ असर भी हुआ था। वह अभी बहुत ही कम उम्र का था। आजकल वह घर पर है। उसका नाम कपिलदेव है। दूसरा 'गुलाली' नाम का जवान कभी-कभी कुछ बातें कर जाता था। श्री ननकू सिंह नाम के तीसरे सज्जन कुछ गीतें कभी-कभी सुना जाते थे। ''घूँघट के पट खोल रे तोहि राम मिलेंगे!'' को बड़े प्रेम से वे गाते थे। इस समय ये तीनों ही राजनीति से विरक्त से हैं और शायद घर-गिरस्ती की चिन्ता में हैं।

    मैंने स्वयं वही चिरपरिचित नन्हीं-सी गीता का आलोड़न-प्रत्यालोड़न किया। उस पर बहुत से महत्त्व पूर्ण नोट 'गीता हृदय' के लिए तैयार किये। आज भी पुन: इस जेल में वे नोट मेरे सामने पड़े हुए हैं। महाभारत का मैंने आद्योपान्त पारायण किया। उससे भी कई स्फुट एवं उपयोगी बातों के नोट तैयार किये। ज्यादा समय मिल न सका कि और कुछ करता। मानसिक स्थिरता भी न थी कि कुछ ज्यादा कर पाता। इस प्रकार जैसे-तैसे छ: महीने गुजर गये। लखनऊ जेल में अमेरिका के श्री जेम्सएलेन को ‘the by ways to bliss’ का हिन्दी अनुवाद 'आनन्द की पगडण्डियाँ' और दूसरी किताबें पढ़ने का जैसा मौका मिला था और रूसो, रस्किन आदि की भी कुछ किताबें पढ़ी थीं, वैसा मौका यहाँ न लगा। क्योंकि मानसिक अशान्ति बहुत थी।

    प्रसंगवश एक बात कह के जेल की यह दास्तान खत्म करूँगा। जेल की तीन बातों ने मुझे सदा आकृष्ट किया है और जब-जब मौका लगा है, मैंने इन पर विचारा है, इन्हें गौर से देखा है। वे तीन बातें हैं सफाई, समय का पालन (punctuality) और चोरी। जितना जोर पहली दो बातों पर जेल में दिया जाता है उतना शायद ही और कहीं होता हो। वहाँ सफाई और समय को पाबन्दी ये दोनों, मौजूदा हालत में एक तरह से आदर्श कहे जाते हैं। समय की पाबन्दी की तो इतनी सख्ती है कि कभी-कभी तो आदमी मशीन की तरह काम करते हैं और तबीयत झल्ला उठती है। चोरी की भी वही दशा है। मैंने देखा है कि तमाखू की सख्त मनाही होने पर भी सभी कैदी उसे पा ही जाते थे। इसी प्रकार और-और बातों को ले लीजिए। मैंने लखनऊ जेल की बातें पहले लिखी ही हैं। कहते हैं जेलवाले भी सभी प्रकार की चोरी करते हैं। इन तीन बातों के सिवाय एक और भी कैदियों को आदमी न समझने की। जेलवाले उन्हें पशु से भी बदतर समझते थे। मगर वह बात अब प्राय: खत्म हो गयी। पाँचवीं बात है कैदियों के मार्के (Remission) की। रेमिशन को 'मार्का' कहा जाता है। वे दिन-रात उसी के लिए मरते रहते हैं। मारपीट भले ही बर्दाश्त कर लेंगे। मगर एक दिन का मार्का नहीं कटना चाहिए! राजनीतिक हलचलों के करते रात में सोने के समय उनका हिसाब तो बराबर लगता ही रहता है कि हम लोग अब छूटेंगे तब छूटेंगे। इसके बारे में तरह-तरह की बेसिर-पैर की बातें उनमें चलती रहती हैं।

 

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