(1)पृष्ठभूमि
अब तक जो
कुछ लिखा गया है वह सन्
1940
ई. के
अप्रैल में होने वाली जेल-यात्रा तक की ही गाथा है। जेल के ये दो साल
कैसे गुजरे और वहाँ कौन सी
महत्त्वपूर्ण
घटनाएँ घटीं,
यह
बात बिलकुल ही छोड़ दी गयी,
छूट
गयी है। यह सही है कि यह जीवन-संघर्ष की कहानी जेल में ही लिखी गयी।
मगर इसका श्रीगणेश वहाँ पहुँचते ही कर दिया गया। फलत: बाद वाली बातें
लिखी जा सकती थीं नहीं। वे शेष रह गयीं। सन्
1942
ई. के
8
मार्च को
मेरी रिहाई हुई। तब से लेकर आज सन्
1946
ई. के
मध्य
तक की अनेक
महत्त्व
पूर्ण घटनाएँ लिपिबध्द न हो सकी हैं। इसके न रहने से यह दास्तान अधूरी
ही रह जायगी,
यह
राम कहानी अपूर्ण ही मानी जायगी। इन घटनाओं में कुछ तो बहुत ही अहम
हैं,
महत्त्व
पूर्ण हैं और सिध्दान्त की दृष्टि से ही उनका स्पष्ट उल्लेख निहायत
जरूरी है। उन पर प्रकाश न पड़ने से अनेक भ्रमों एवं मिथ्या धारणाओं के
लिए गुंजाइश भी बनी ही रहेगी। इसीलिए संक्षेप में ही सभी बातें लिख
कर इस राम कहानी को आप तक पहुँचा देना,
(अपटुडेट
बना देना) जरूरी है।
(शीर्ष पर वापस)
(2)जेल के दो
साल
सन्
1940
ई. अप्रैल
के
मध्य
से लेकर सन् 1942
ई.
के मार्च के दूसरे हफ्ते तक प्राय: दो साल जेल में गुजरे और अच्छी
तरह गुजरे। सजा थी सख्त। फलत: कुछ-न-कुछ काम करना जरूरी था। फल भी
अच्छा ही होने को था। क्योंकि इससे हर साल प्राय: तीन महीने सजा में
यों ही कम हो जाया करते हैं। इसी को मुआफी या
'रेमिशन'
कहते हैं। यही जेलों का नियम है और इससे लाभ न उठाना नादानी है। कुछ
काम न करने से शारीरिक,
मानसिक आदि हजार संकट भी आते रहते हैं। यों ही गप्प-सड़ाके में नाहक
समय कटता है। यद्यपि मेरे साथ यह बात न थी,
क्योंकि मैंने अपने एक-एक
मिनट के सदुपयोग के लिए नियम बना लिये थे। फिर भी मैंने जेल का कुछ
काम करना समय के सदुपयोग के भीतर ही डाल दिया और प्रतिदिन कुछ-न-कुछ
सूत कातना तय कर लिया। मेरा चर्खा नियमित रूप से चला करता था। इस बार
का सूत जेल की ही सम्पत्ति रहा। मैंने पैसे देकर उसे रिहाई के समय
खरीदा नहीं। ऐसा ही विचार हो आया।
(शीर्ष पर वापस)
गीता-पाठ
और पुस्तकें लिखना
गीता के
पठन-पाठन का काम भी चलता रहा। कुछ साथियों ने हठ किया कि उन्हें गीता
पढ़ा दूँ और मैंने मान लिया। उसका समय निधर्रित था और कुछ लोग चाव तथा
उत्साह के साथ नियमित रूप से पढ़ने आया करते थे।
जीवनी (मेरा
जीवन-संघर्ष) के सिवाय मैंने
'किसान
कैसे लड़ते हैं?',
'क्रान्ति
और संयुक्त मोर्चा',
'किसान-सभा
के संस्मरण', 'खेत-मजदूर',
'झारखण्ड
के किसान'
और
'गीता
हृदय'
ये छ:
पुस्तकें और भी लिखीं। इनमें पहली दो तो प्रकाशित भी हो गयी हैं। शेष
प्रकाशित होने ही को हैं। इनमें गीता हृदय तो जेल से निकलने के ठीक
पूर्व जैसे लिखा जा सका। जानें मेरे दिल में रिहाई के दो मास पूर्व
क्यों यह बात जम गयी कि गीता हृदय पूरा करो,
नहीं
तो रिहाई होने ही वाली है और फिर वह पड़ा ही रह जायगा। बस,
मैंने
उसमें हाथ लगा दिया। सचमुच ही मेल की गति की बात ही क्या,
मैं
स्पेशल ट्रेन की चाल से चलता रहा। तब कहीं यह लम्बी पुस्तक पूरी हो
सकी। लिखित कॉपी (हस्तलिपि) पर रोज-रोज की तारीखें नोट हैं कि किस
दिन कितना लिखा। फिर भी इसका आशय यह नहीं है कि ऊलजलूल बातें लिख
मारीं। ऐसा नहीं हुआ। जो कुछ लिखा गया वह खूब समझ-बूझ के,
इतने
पर भी दोई भाग पूरे हुए। तीसरा लिखा न जा सका। उसके लिए कुछ खास
छानबीन और अन्वेषण जरूरी था और वैसी पुस्तकें जेल में मिल न सकती
थीं। मेरा अपना विचार है कि
'गीता
हृदय'
में लिखी
बातें अपने ढंग की निराली हैं। उनमें अधिकांश विचार के परिपाक के
परिणाम हैं। कुछ तो लिखते-लिखते अकस्मात सूझीं और मैं आश्चर्यचकित रह
गया। उन्हें लिपिबध्द करने में मुझे अपार आनन्द हुआ।
कुछ और भी
साथी थे जिन्हें किसान-सभा के विकास का इतिहास बताता रहा और किसानों
में काम करने की शिक्षा दी। जेल में ही श्री जयप्रकाश बाबू तथा
अन्यान्य पुराने साथियों से कभी बातें करने और विचार विनिमय का मौका
आया तो कभी वे बेहद नाखुश भी हुए। मेरी लाचारी थी। जिससे मैं न तो
उनकी सभी बातें मान सकता था और न उन्हें खुश कर सकता था।
श्री जयप्रकाश
बाबू ने मुझसे बार-बार अनुरोध किया कि वे एक नयी पार्टी,
'पीपुल्स
पार्टी' (जनता
की पार्टी) बनाना चाहते हैं जिसमें मुझे भी रहना चाहिए। मगर मैंने
नाहीं की। मेरे दिल में यह बात क्यों नहीं जँची,
कौन
कहे?
यह बात उन्हें
बुरी लगी होगी जरूर। मगर इससे वे मुझसे नाखुश हुए,
ऐसा
मुझे मालूम न हुआ। हाँ,
अन्यान्य साथी सख्त रंज थे।
(शीर्ष पर वापस)
राजनीतिक
शिक्षा नहीं,
चर्खा
हमारी जेलयात्रा के
बाद महात्माजी के द्वारा कांग्रेस का व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाया गया
जिसके फलस्वरूप सभी प्रमुख कांग्रेसी जेल में आ बैठे। इस तरह
हजारीबाग जेल में प्राय: तीन-चार सौ ऐसे सज्जन थे जो बिहार के
चुने-चुनाये कांग्रेसजन थे। उनमें कुछ तो काफी पढ़े-पढ़ाये लोग थे। फिर
भी अधिकांश राजनीति के यथार्थ ज्ञान से बहुत दूर थे। आज तो राजनीति
दर्शन और विज्ञान बन गयी है। फलत: उसके अधययन-मन्थन की बड़ी जरूरत है।
इसके बिना हमें
धोखा
होगा। फिर भी देखा
कि सबों का जोर केवल चर्खे पर था। राजनीति में तो शायद कुछेक की रुचि
थी। मैंने लोगों से कहा भी। मगर
उत्तर
मिला कि राजनीति तो महात्मा
गांधी
के ही जिम्मे है, हमें उसकी विशेष जानकारी
से क्या काम? हम तो आज्ञाकारी सिपाही हैं
जिन्हें केवल चर्खा चलाना है! मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने सोचा,
आखिर चर्खा तो हाथ-पाँव से चलता है,
न कि दिमाग से। अगर दिमाग ने भी वही काम किया तो
आदमी गधा बन जायगा। क्योंकि दिमाग के विकसित न होने का नतीजा यही
होता है। हमारा देश जैसे गधों
का मुल्क है, जहाँ अन्धापरम्परा के पीछे
हम मरे जाते हैं और सम्पत्ति, प्रतिष्ठा,
धर्म
सभी कुछ गँवाते हैं। जिस देश के परलोक और स्वर्ग-बैकुण्ठ का ठेका
निरक्षर एवं भ्रष्टाचारी पण्डे-पुजारियों के हाथ में हो,
कठमुल्ले तथा पापी पीर-गुरुओं के जिम्मे हो उसका
तो 'खुदा ही हाफिज'
है। यह गधों
का मुल्क नहीं है तो आखिर है क्या?
मगर वहाँ
मेरी बात सुनता कौन?
लाचार चुप रह जाना पड़ा।
(शीर्ष पर वापस)
हम और
साधारण कैदी
इस बार
मैंने हजारीबाग जेल में एक बात और की। साधारण कैदियों के साथ आम तौर
से सभी लोग लापरवाही का सलूक करते हैं। राजबन्दी लोग इसके अपवाद नहीं
होते। हाँ,
कुछ
लोग कभी-कभी उनकी ओर नजर जरूर फेरते हैं और दो-चार मीठी बातें कर
लेते या कुछ खिला-पिला देते हैं। मगर जरूरत है कि उनकी ओर सबों के
रुख में परिवर्तन हो। जेल अधिकारी उनके साथ मनुष्य का व्यवहार करें
और खान-पान में उनके हकों को न मारें। मैंने हजारीबाग जेल में यही
प्रश्न उठाया और खुशी है कि मुझे इसमें सफलता भी मिली। एतदर्थ मुझे
जेल अधिकारियों से कभी लड़ना नहीं पड़ा। दरअसल जेल सुपरिन्टेण्डेण्ट
मेजरनाथ की ईमानदारी,
दूरंदेशी और सज्जनता का ही फल था कि इस ओर
ध्यान
दिलाते ही उनने बात मान ली। नतीजा यह हुआ कि जेल में कैदियों का
डिसिप्लीन बना रहा। फिर भी उनका खान-पान बहुत कुछ सुधार गया। उनके
साथ सलूक भी अच्छा होने लगा। यदि जेलों में कैदियों के राशन और
वस्त्रादि में अधिकारी लोग चोरी न करें तो उन्हें बहुत कुछ आराम
मिले। यही बात वहाँ हुई। फलत: वे कैदी बरसों मेरे रहते आराम से रहे
जिससे आज भी मुझे याद करते रहते हैं,
ऐसी
खबरें मिला करती हैं।
(शीर्ष पर वापस)
मेजरनाथ
जब साधारण
बन्दियों के
सम्बन्ध
में मेजरनाथ का ऐसा सुन्दर रुख था,
तो
राजबन्दियों के बारे में कहना ही क्या?
शायद ही ऐसा कोई बदबख्त राजबन्दी होगा जिसने उनसे बुरा माना। यों तो
समय पर जेल के नियमों की पाबन्दी करना-कराना उनका प्रधान काम था ही
और अगर इससे कोई बुरा माने तो बात ही दूसरी है। मगर पीछे चल कर इसी
शराफत और भलमनसी के चलते मेजरनाथ को नाहक परेशानी उठानी पड़ी और बरसों
उनके बारे में डिपार्टमेण्ट की ओर से जाँच-पड़ताल होती रही। हालाँकि
आखिरकार वे शान के साथ निर्दोष साबित हुए। जेल के नियमों की पाबन्दी
करते-कराते अगर उनने नियमानुसार ही राजबन्दियों को आराम दिया तो बुरा
क्या किया?
यदि
कायदा-कानून तोड़ते तो बात दूसरी थी। मगर विदेशी सरकार जो ठहरी।
(शीर्ष पर वापस)
राजनीतिक
पण्डागिरी
इस बार भी राजनीतिक
पार्टियों की धमाचौकड़ी और उथल-पुथल भीतर-ही-भीतर जेल में खूब रही। एक
राजबन्दी ने बैठे-बिठाये एक मनोरंजक कार्टून (व्यंग्य-चित्र) इस
सम्बन्ध
में बना डाला जो इन पार्टियों की मनोवृत्ति पर पूरा प्रकाश डालता था
और पार्टियों के तथाकथित संचालक-सूत्रधार क्या करते हैं उसका खासा
चित्रण था। चित्र में इन सूत्रधारों के हाथों में वंशी पकड़ा दी गयी
थी और उसे लेकर ये लोग जेल के फाटक पर खड़े थे।
उधर
से कोई नया राजबन्दी आया कि वहीं उसके फँसाने की कोशिश शुरू हो गयी।
इस काम के लिए कपड़ा-लत्ता, बीड़ी-सिगरेट
आदि सभी प्रकार की चीजें इन आगन्तुकों को दी जाती थीं,
ताकि वे किसी पार्टी के सदस्य बनें और कायम रहें।
हर पार्टीवालों को यही कोशिश होती थी कि वह हमारे चंगुल में फँसे।
गया प्रभृति तीर्थों के पण्डे अपने एजेण्टों और दलालों को स्टेशनों
एवं
धर्मशालाओं
में भेज कर अपने-अपने यात्रियों को 'गिरफ्तार'
करते हैं। यही बात यहाँ भी थी। पण्डों के दलाल
यात्रियों के घर द्वार पूछ कर ही उन्हें अपने यहाँ ले जाते हैं। यहाँ
भी कुछ उसी प्रकार की बातें होती थीं और आगन्तुक राजबन्दियों के साथ
अपने तथा अपनों के पूर्व परिचयों से अनुचित लाभ उठाया जाता था,
जबकि पण्डे ऐसा लाभ नहीं उठा सकते। इस प्रकार यह
निराली राजनीतिक पण्डागिरी खूब चलती थी और अन्ततोगत्वा अधिकांश
आगन्तुक किसी न किसी पार्टी में फँसी जाते थे यदि वह घोर
गांधीवादी
या बहुत ही पक्के विचार के न हुए। यह बात मुझे बहुत ही खलती थी,
खासकर इसलिए कि धार्मिक सम्प्रदायों की ही तरह
ये राजनीतिक सम्प्रदाय एक-दूसरे को गालियाँ देते और उनके नेताओं को
देशद्रोही और गद्दार तक कह डालते हैं। हर पार्टी सोचती है कि देश का
उध्दार एकमात्र उसी के बताये रास्ते से हो सकता है।
धर्मवाले भी
मुक्ति के बारे में ऐसा ही मानते हैं। एक ओर तो ये भलेमानस देशव्यापी
राष्ट्रीय एकता की बात बोलते हैं। दूसरी ओर जो लोग हिमालय-लंघन जैसी
कठिन एकता के लाने में सहायक हो सकते हैं। वही आपस में जूती पैजार
करते रहते हैं। आखिर इन पार्टियों तथा उनके नेताओं में ही तो समझदारी
और राजनीतिक चेतना है और बाकियों को यही समझा सकते हैं। किन्तु खुद
यही नासमझ बने आपसी टीका-टिप्पणी और छिद्रान्वेषण में ही सारा समय
बिताते हैं! मैं इसे निरा पागलपन मानता हूँ कि किसी पार्टी में जाते
ही बड़े-से-बड़ा देशभक्त देशद्रोही माना जाने लगे।
मैं इतनी
दूर जाने की हिम्मत नहीं रखता।
(शीर्ष पर वापस)
पार्टियों
में क्यों नहीं
मैं यदि
पार्टियों से भड़कता हूँ तो उसकी यह एक बहुत बड़ी वजह है। आज तो मैं
पार्टी लीडरों को देशभक्त मानता हूँ और कल ही किसी पार्टी में घुसा
कि बाकियों को गद्दार समझने की नादानी ही करनी पड़ी! कम-से-कम इस बात
का 'गुरु
मन्तर'
तो उस
पार्टी में दिया ही जाना शुरू हुआ। यह रंगीन दृष्टि बहुत ही खतरनाक
है। मैं इससे डरता हूँ। यह समझ में आने की चीज भी नहीं। समझ में आये
भी कैसे?
पार्टीवाले
व्यक्तित्व एवं व्यक्तिगत समझ को तो खत्म ही कर देते हैं। पार्टियों
में इसके लिए गुंजाइश नहीं! वहाँ तो घुसते ही व्यक्ति ठेठ समष्टि बन
गया! यह अजीब जादू,
निराली कीमिया,
विचित्र जड़ीबूटी है जो छूमन्तर करती है। हम पार्टी में गये और हमारी
स्वतन्त्रता
ही गायब,
हालाँकि
हमारा सबसे पहला लक्ष्य है यह
स्वतन्त्रता
ही। चालीस कोटि जनों की
स्वतन्त्रता
तो हम जरूर चाहते हैं! मगर इसके लिए जरूरी है कि अपनी
स्वतन्त्रता,
अपने सोचने-विचारने और बोलने की
स्वतन्त्रता
को गँवा दें-समष्टि की,
पार्टी की
स्वतन्त्रता
में व्यक्ति की,
व्यष्टि की यह आजादी हजम करवा दें। मेरे जैसा तुच्छ व्यक्ति इतना बड़ा
त्याग करने की हिम्मत नहीं रखता कि जिस
स्वतन्त्रता
के लिए लड़े-मरे उसे ही अपने लिए खत्म कर दें,
अपने को निरी मशीन बना दें और इस तरह
'बहुत
ढूँढ़ा उसे हमने न पाया। अगर पाया पता अपना न पाया'
वाली
वेदान्तियों की बात चरितार्थ करे। मैं मानता हूँ कि व्यक्तिगत
स्वतन्त्रता
को कुछ हद तक मिटाये बिना कोई संस्था नहीं चल सकती। मगर यह भी मानता
हूँ कि ब्योरे की बातों में ही यह बात सम्भव है और होनी चाहिए।
सिध्दान्त की बातों में व्यक्तिगत
स्वतन्त्रता
रहनी ही चाहिए। यह दूसरी बात है कि उस मामले में भी,
हम
संस्था या समष्टि का खुल के या संगठित
विरोध
न करें,
खासकर
ऐतिहासिक और युध्द के समय जब कि जीवन-मरण् की बात हो। हम अपना
व्यक्तिगत खयाल जाहिर करके चुपचाप बैठ
जाये
और सक्रिय
विरोध
न करें,
यह तो समझ
की बात है। मगर विचार ही खत्म कर दें यह भयंकर बात है।
(शीर्ष पर वापस)
पार्टियों
की करतूतें
जेल में इस
बार जो पार्टियों की करतूतों का कटु अनुभव हुआ वह कभी भूलने का
नहीं। उनने भरसक कोशिश की कि जो उनमें शामिल न हों उनका जीवन
नारकीय बन जाय। खासकर एक पार्टी के तथाकथित महारथियों की करनी
रुलाने एवं गुस्सा लाने वाली थी। उनने कोई भी तरीका उठा न रखा लोगों
को अपनी
पार्टी में भ
करने और भ
न होने वालों का जीवन कष्टमय बनाने
में। धमकी और मारपीट तक उतर आये। समस्त जेल का वायुमण्डल अत्यन्त
दूषित बन गया और जेल की अपनी कोठरी (सेल से बाहर निकलना असम्भव था।
मेरी तो दिनचर्या ही ऐसी थी कि मिनट-मिनट कामों में बँटे थे और दैनिक
क्रियाएँ घड़ी की सुई की तरह ठीक समय होती थीं। फिर भी सचमुच ही मैं
भयभीत था कि ये पार्टी के भूत न जाने क्या कर डालें और किस तरह कब
पेश
आयें। फिर भी मैंने अपना यह भय किसी पर प्रकट नहीं किया। नहीं तो
मामला और बेढब हो जाता।
(शीर्ष पर वापस)
दिनचर्या
मेरा
भोजन तो चौबीस घण्टे में एक ही बार होता था सो भी आम तौर से दलिया ही
खाता था। यह मेरा चिरपरिचित प्रियतम खाद्य है। पानी में पके गेहूँ
के दलिए को मैं अत्यन्त प्रेम से खाता
हूँ।
उसके साथ साग-तरकारी या दूध की भी जरूरत नहीं है। मीठा तो चाहिए ही
नहीं।
यदि कभी
बिना नमक-मसाले की उबली शाक-तरकारी या गाय के
दूध
के साथ भी उसे खाता हूँ तो यों ही। उसकी जरूरत मुझे मालूम नहीं होती।
खाने के बाद
दूध
पी लेता हूँ। यह एक भुक्तता का नियम अब जीवन भर चलेगा। इससे मैं
नीरोग और हलका रहता हूँ। एक बार भोजन,
दोनों समय मिला कर
7-8
मील टहलना और रात में सात घण्टे से कम सोना नहीं,
इन
तीनों का सम्मिलित परिणाम यह हुआ कि मैं
इधर
बीसियों साल से कभी बीमार न पड़ा। हाँ,
दिमागी काम
दूध
जरूर चाहता है। इसी से रात में गौ के
दूध
बिना मेरा काम नहीं चलता।
हाँ,
तो जेल
में शाम को दूध पीकर सात ही बजे सो जाता और दो बजे रात में उठकर
नित्यक्रिया,
आसन और
टहलना सुबह होने तक पूरा कर लेता। लोगों को आश्चर्य होगा कि हजारीबाग
की सख्त सर्दी में भी मैं जाड़े में उठकर सभी कामों से फुर्सत पाने के
बाद ऍंधोरे में ही गाय का तक्र दो गिलास पी लेता था और नीरोग रहता
था। गर्मियों में तो मुझे बाहर ही सोने दिया जाता था। मगर जाड़े में
भी जेल वालों का ऐसा प्रबन्ध था कि हमारी कोठरी (सेल) का ताला दोई
बजे रात में खुलवा देते थे,
ताकि
मैं शौचादि से फुर्सत पा लूँ। जाड़े में एक बाल्टी में सोने के पूर्व
ही पानी भर के चूल्हे पर रख देता था और दो बजे वह कुछ-न-कुछ गर्म ही
मिलता था-कम-से-कम हाथ-पाँव ठिठुराने वाला तो नहीं ही रहता था। फलत:
उससे स्नान करने में आसानी थी।
(शीर्ष पर वापस)
रूस पर जर्मनी का हमला
जब हम जेल गये थे
तो यही मानते थे कि इस यूरोपीय महायुध्द के खिलाफ हमें युध्द करना है
और इस प्रकार अंग्रेजी सरकार के युध्दोद्योग में जहाँ तक हो सके बाधा
पहुँचानी है। इसे ही अंग्रेजी में (war against-war)
कहते हैं।
मार्क्स,
एंगेल्स और लेनिन के लेखों तथा मन्तव्यों से हमने यही सीखा था कि
साम्राज्यवादी युध्द को सफल होने न देना। हमने यह भी देखा था कि यदि
सन् 1917
ई. में
रूसी जनता-किसान-मजदूरों-को जारशाही एवं पूँजीशाही को उठा फेंकने में
सफलता मिली तो इसी सिध्दान्त के चलते। वहाँ की जनता ने इसी पर अमल
किया और वह पहले जार के और पीछे पूँजीपतियों के तख्त को उलट फेंकने
में समर्थ हुई। यह तो इस मन्तव्य की ताजी परीक्षा थी। फिर हम इस पर
अमल क्यों न करते?
फलत: यही करते-कराते हमें जेल चला आना पड़ा। वहाँ भी हमारी यही धारणा
तब तक बनी रही जब तक हिटलर ने रूस पर हमला नहीं किया। हमले के एक
सप्ताह के बाद ही हमारा यह खयाल जड़ से बदल गया।
21वीं
जून,
सन्
1941
ई. की आधी
रात के बाद यानी
22वीं
जून को हिटलर का आक्रमण हुआ और जून के बीतते-न-बीतते हम स्वतन्त्र
रूप से-बिना किसी से पूछे या वाद-विवाद किये ही-इस नतीजे पर पहुँचे
कि हमें अब वह सिध्दान्त छोड़ना ही होगा। हिटलर और उसकी गत दो वर्षों
की सामरिक गतिविधि के सूक्ष्म पर्यवेक्षण ने हमें ऐसा सोचने एवं
निश्चय करने को बाधय किया।
(शीर्ष पर वापस)
फासिज्म के करिश्मे
इस बात पर
थोड़ा विस्तृत विचार कर लेना जरूरी है। कारण,
यह
अहम मसला है। युध्द के विरुध्द युध्द वाला सिध्दान्त अपनी जगह पर
साधारणतया पूँजीवादी परिस्थिति और युग में ठीक ही है। मगर यह युग
साधारण पूँजीवाद का न होकर उसके गुण्डाशाही रूप,
फासिज्म का है जिसे नात्सीज्म और फाइनान्स कैपिटल का युग भी कहते
हैं। मर्केण्टाइल कैपिटल (व्यापारिक पूँजी) और इण्डस्ट्रियल कैपिटल
(औद्योगिक पूँजी) के युगों को पार करके यह फाइनान्स कैपिटल (आर्थिक
पूँजी) का युग आया है। मोटी तौर पर पहले को पूँजीवादी और दूसरे को
साम्राज्यवादी युग भी कह सकते हैं,
कहते हैं। पर तीसरा युग साम्राज्यवाद की मरणशय्या का युग है जब कि वह
सरेसाम की हालत में बेहद कूदफाँद और तूफान मचाता है। इसका
ध्यान
माक्र्स,
एंगेल्स और
लेनिन ने किया जरूर होगा और लेनिन तो विशेष रूप से अपनी सूक्ष्म
दृष्टि से यह भी देखता होगा कि यह आने ही वाला है। फिर भी उन्हें
इससे पाला नहीं पड़ा था। इसीलिए इसके अनुरूप अपनी गतिविधि को बदलने का
निश्चित आदेश स्पष्ट रूप से वे किसान-मजदूरों को-शोषित एवं पीड़ित
जनता तथा उसके नेताओं को-दे न सके थे। यदि उन्हें इस फासिज्म के
करिश्मों का प्रत्यक्ष अनुभव होता तो इससे निपटने के रास्ते वे अवश्य
ही स्पष्ट लिख जाते। मगर यह बात थी नहीं।
हिटलर और उसके
साथी फासिस्टों-इटली एवं जापान-के शासकों की अभूतपूर्व विजय और
एतदर्थ निराले ढंग की तैयारी-जिसका पता शेष दुनिया को पहले न था।
किन्तु इन विजयों के फलस्वरूप होने लगा था-हमें जेल में बैठे-बिठाये
सोचने को बाधय कर रही है कि क्या होने जा रहा है,
युध्द
का परिणाम क्या होने वाला है,
ये
तीनों शैतान मिल-मिला के क्या करने जा रहे हैं?
ये
प्रश्न हमें परेशान कर रहे थे,
खास कर
हिटलरी चमत्कार और उसकी अपार सैनिकशक्ति हमें विवश कर रही थी कि हम
वर्तमान एवं निकट भविष्य की ही परवाह न करके दूर भविष्य के बारे में
भी सोचें। हमारे दिल-दिमाग हमें बताने लगे थे कि हिटलर तो संसार भर
के लिए-सारी दुनिया के लिए-बला बनने जा रहा है। जब वह सीमित कोयला,
लोहा,
पेट्रोल आदि के बल पर ऐसी भीषण तैयारी कर सकता है,
तब तो
रूस,
इराक,
फारस
आदि को जीत लेने पर संसार के ऊपर एकच्छत्र राज करेगा और स्थान-स्थान
पर केवल लोगों को दबा रखने के लिए फौज
(occupation army)
रखेगा।
केवल जर्मनों को आर्य और शेष लोगों को अनार्य मानने का उसका अभिप्राय
भी यही प्रतीत होगा कि जर्मन शेष संसार के अनार्यों पर शासन करें,
उन्हें कच्चा माल पैदा करने के लिए छोड़ दें और
सर्वत्र
जर्मनी के बने तैयार माल की मण्डियाँ खुल
जाये।
हमारे दिमाग में कुछ इसी प्रकार की खलबली थी,
बेचैनी थी और यह दशा रूस पर हिटलर के आक्रमण के ठीक कुछ दिन पहले से
हो रही थी ज्यों-ज्यों हम हिटलर और दोस्तों की छूमन्तरी विजयों को
देख रहे थे। फिर भी हमारा खयाल था कि अभी तत्काल रूस पर वह हमला न
करेगा। किन्तु बाकियों को जीतकर एक-दो साल रुकेगा और पूरी तैयारी
करके रूस पर धावा बोलेगा। आखिर साँस भी तो उसे लेना चाहिए।
जब रूस पर
उसने एकाएक धावा बोल दिया तो हम अकचका गये। पहले तो हमें विश्वास ही
न हुआ जब एक साथी ने हमसे कहा कि हिटलर ने रूस पर हमला कर दिया। तब
तक हमें उस दिन का अखबार न मिला था। हमने उत्तर दिया कि सरासर झूठी
बात है। जब साथी ने उसे दुहराया तब भी हम यकीन करने को तैयार न थे।
जब उसने तीसरी बार कहा तो हमारे मुँह से यकायक निकल पड़ा कि हिटलर सनक
गया। हमें भी समझ में नहीं आता कि हम यह कैसे बोल उठे। मगर परवर्ती
घटनाओं ने बताया है कि वह जरूर सनक उठा था। वह सनक क्यों और कैसी थी
यह बात दूसरी है। हम रूस की शक्ति समझते थे कुछ-कुछ। इसलिए भी हमें
ऐसा कहने का साहस हुआ। जब-जब एके बाद दीगरे लेनिनग्राड,
मास्को,
और
स्तालिन ग्राड पर हिटलर के घेरे आगे चल कर और जेल के हमारे साथी कहा
करते थे कि हिटलर ने अब लिया,
तब
लिया तब भी हमारा बराबर यही कहना था कि वह लेलिनग्राड को ले नहीं
सकता,
मास्को जीत
नहीं सकता आदि-आदि। ये बातें भी सही निकलीं।
मगर अब तो
हमें और भी बेचैनी हुई कि यह क्या होने जा रहा है?
इस संसार मात्र की बला (World menace)
का सामना
कैसे किया जाय?
हम
इस नतीजे पर पहुँच रहे थे कि शेष संसार को आपसी मतभेद भुलाकर इस एक
ही बला का सामना करना होगा। दूसरा रास्ता नहीं है। भारत पर भी
ब्रिटिश साम्राज्यवाद को खत्म करके जर्मन फासिज्म चढ़ बैठेगा यह हमारी
मान्यता हो रही थी। फलत: हम चूल्हे से निकलकर भट्ठी में जा पड़ेंगे।
यदि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से देर-सवेर से पिण्ड छुड़ाने की आशा भी
हम करते थे तो हिटलरी पिशाचों से जान बचने और त्राण् पाने की
सम्भावना भी नहीं है। यह बात हमने कांग्रेस के एक प्रमुख नेता से कही
और घण्टों उनसे हमारा कथनोपकथन होता रहा। उनने तत्काल
उत्तर
न देकर सोचने और पीछे
उत्तर
देने को कहा।
(शीर्ष पर वापस)
जौनस्ट्रेची की किताब
कुछ दिनों
बाद उनने हमें मि. जौनस्ट्रेची की एक ताजी किताब अंग्रेजी में लिखी
भेज दी जिसका नाम हम भूलते हैं। उनने कहा कि हमने जो आशंका जाहिर की
थी उसी पर उस किताब में विस्तृत विवेचन है। हम उसे गौर से पढ़ गये।
दरअसल उसके लेखक मि. स्ट्रेची पहले कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे।
मगर लड़ाई के
सम्बन्ध
में पार्टी का और लोगों का क्या रुख हो यही बात लेकर उनका पार्टी के
साथ गहरा मतभेद हो गया और उनने पार्टी से अलग होकर यह पुस्तक लिखी।
उनका कहना था कि युध्द विरुध्द युध्द का युग चला गया। फासिज्म के इस
युग में ऑंख मूँदकर उसे मानना खतरनाक है। आज तो उसके विपरीत ही काम
करने की जरूरत है। कल्पना कीजिये कि लेनिन के समय में गत युध्द के
वक्त कैसर की जगह हिटलर होता और उसकी ऐसी ही तैयारी रहती जैसी आज है।
तो क्या लेनिन जारशाही के विरुध्द युध्द छेड़कर उसके युध्दोद्योग में
बाधा पहुँचाता?
वह हर्गिज ऐसा न करता। क्योंकि इसका नतीजा यही होता कि जार को पछाड़कर
लेनिन या सोवियत के शासन की जगह हिटलर का ही शासन हो जाता। फलत:
लेनिन को लेने के देने पड़ते और रूस की आजादी युग-युगान्तर के लिए
खटाई में पड़ जाती। लेनिन को जार तथा कैसर दोनों की ही ताकतों का
ज्ञान था और वह मानता था कि यदि जार की गद्दी खाली हो जाय तो उस पर आ
धमकने की शक्ति कैसर में नहीं है। साम्राज्यवादी युग में ऐसा देखा
नहीं गया था। फिर भी लेनिन को संकटों का सामना करना ही पड़ा। लेकिन
फासिज्म के युग में तो दूसरी ही बात है। यदि आज जार वहाँ रहता और उसे
रूसी जनता पछाड़ती तो आसानी से हिटलर अपना अव वहाँ जमा लेता। वह तो
यों भी जमाते-जमाते ही न जाने कैसे फिसल गया। यही खतरा आज युध्द के
विरुध्द युध्द के नारे में है। इसलिए आज तो हमारा फर्ज है कि वैसा न
करके उसके उलटा करें ताकि फासिज्म का चंगुल कहीं जमने न पाये। नहीं
तो जनता की खैर नहीं। उनसे पुन: पिण्ड छूटना प्राय: असम्भव है।
साम्राज्यवादियों से तो पीछे भी निपट सकते हैं।
मेरे दिमाग
में ये बातें बैठ गयीं और मेरी बेचैनी जाती रही। मैं तो इसी ढंग से
खुद सोच भी रहा था। मगर मेरा साथी कोई न था। अब मिस्टर स्ट्रेची जैसा
संगी मिल गया। मेरे ये विचार दिनोंदिन पक्के हो गये और मैं जेल में
सोचा करता था कि अब मौका आने पर हम ब्रिटिश सरकार को युध्दोद्योग में
सहायता भी कर सकते हैं। इसमें कोई अनौचित्य मुझे न दीखता था।
प्रत्युत राजनीतिक दूरंदेशी का तकाजा यही मालूम होता था। आखिर जब
भारतीयों का विरोध सफल होता और अंग्रेजी सरकार यहाँ से भागती तो
हिटलर या तोजो की ही सरकार यहाँ बनती,
न कि
गांधी,
नेहरू या आजाद की। हमारे वे निहत्थे नेता उनकी अस्त्र-शस्त्र से
सर्वात्मना सुसज्जवाहिनी के सामने टिक कैसे पाते?
और अगर
हमारा विरोध विफल हो तो अंग्रेजी सरकार हमें पीस ही देती। फलत: दोनों
ही तरह से हमारी हानि ही हानि थी।
मैं यह सोच ही
रहा था कि सन्
1941
ई. के आखिरी दिनों में श्री इन्दुलाल याज्ञिक का एक पत्र मुझे जेल
में एकाएक मिला। उसमें भी कुछ ऐसी ही बातें थीं। फिर तो मेरी खुशी का
ठिकाना न रहा कि हम दोनों ही पुराने साथी एक ही ढंग से सोच रहे हैं,
सो भी
एक-दूसरे से बहुत दूर बैठे-बिठाये। मैंने भी उन्हें उत्तर देकर उनके
विचारों का तहेदिल से समर्थन किया। उसके बाद सन्
1942
ई. की फरवरी
में नागपुर में केन्द्रीय किसान कौंसिल की होने वाली बैठक का एक
प्रस्ताव प्रकाशित हुआ जिसमें कहा गया था कि युध्दोद्योग में बाधा
वाली नीति छोड़ दी जाय। युध्द में सहायता देने के बारे में कोई स्पष्ट
बात उसमें न थी। सिर्फ सोवियत रूस को सहायता देने की बात थी। दरअसल
प्रस्ताव पास करने वाले बाहरी स्थिति से पूर्ण परिचित थे। फलत: उनने
युध्दोद्योग में सहायता करने की बात खतरनाक समझ उसे तय नहीं किया-छोड़
दिया। गो मैं यह रहस्य समझ न सका। फिर भी प्रस्ताव पढ़कर प्रसन्न हो
गया।
(शीर्ष पर वापस)
विरोधियों की मनोवृत्ति
कुछ लोगों
ने,
जो अब तक
किसान-सभा में साथ थे,
नागपुर वाले इस प्रस्ताव का
विरोध
किया। उनकी मनोवृत्ति समझना मुश्किल है। इससे पूर्व आन्धा्र देश के
पकाला स्थान में सन्
1941
ई. के
अक्टूबर में आल इण्डिया किसान कमिटी की बैठक में जो प्रस्ताव स्वीकृत
हुआ था युध्द के ही
सम्बन्ध
में उसमें वह भी साथी थे,
सहमत थे। उसमें यह स्पष्ट लिखा है कि
''यह
कमिटी आजादी-पसन्द भारतीय जनता और विशेषत: किसानों,
मजदूरों,
छात्रों
तथा युवकों के बहुत बड़े गिरोह पर जोर देती है वह सोवियत रूस को सभी
तरह की सम्भव सहायता दें और नात्सीजर्मनी के विरुध्द होने वाले युध्द
को सभी मोर्चों पर तेज बनाने का काम करें''-“The
A.I.K.c. urges upon the freedom-loving people of India,
particularly the vast bulk of Peasants and workers, students and
youths, that they should render all possible to the U.S.S.R. and
work for the intensification of war against Nazi Germany on all
front.”
नागपुर वाले
प्रस्ताव से इसमें यही विशेषता है कि यह सोवियत को सभी प्रकार की
सम्भव सहायता देने के सिवाय नात्सीजर्मनी के विरुध्द इस युध्द को सभी
मोर्चों पर तेज बनाने की बात कहता है, जो बात
नागपुर वाले में नहीं है। अब जरा सोचा जाय कि नात्सीजर्मनी के
विरुध्द चलने वाले युध्द को तेज करने का क्या अभिप्राय है,
सो भी सभी मोर्चों पर?
इंग्लैण्ड या फ्रान्स में जो मोर्चा था उसी की मजबूती के लिए क्या
करना जरूरी था? क्या यह बात उनने सोची?
उस युध्द में सभी तरह की सहायता सभी जगह देने के
अलावे इसका और अर्थ क्या हो सकता था? दूसरी
तरह से सभी मोर्चों पर उस युध्द में तेजी कैसे लाई जा सकती थी?
और जब सभी जगह उसमें मदद ही करना है तो फिर उस युध्द
का या उसके उद्योगों का
विरोध
कैसे किया जा सकता था? यह सम्भव कैसे था?
उस प्रस्ताव में यही परस्पर
विरोधी
बात थी। कम-से-कम नागपुर में
विरोध
उठाने वालों के कामों और पकाला के प्रस्ताव में यही परस्पर
विरोध
था और इसे ही नागपुर के प्रस्ताव में रहने नहीं दिया गया यह कह कर कि
''शान्ति की ही तरह युध्द को टुकड़ों में
बाँटा नहीं जा सकता''-“War like peace is indivisible.”
फिर
उसमें मदद भी करें और
विरोध
भी उसका ही करें यह सम्भव नहीं। इस तरह नागपुर के प्रस्ताव ने जो
पकाला के कथन और विरोधियों के काम में होने वाले पारस्परिक
विरोध
को मिटा दिया तो उचित था कि
विरोधी
लोग उसका स्वागत करते। मगर उनने विपरीत ही किया।
(शीर्ष पर वापस)
किसान-सभा
में
विरोध
जेल जीवन
का संक्षिप्त विवरण खत्म करने से पूर्व किसान-सभा से सम्बध्द दो-एक
महत्त्वपूर्ण
घटनाओं पर प्रकाश डाल देना जरूरी है। सन्
1940
ई. के
अप्रैल में जेल जाने के बाद ही यह स्पष्ट हो गया था कि यद्यपि
सोशलिस्ट लोग पलासा के प्रस्ताव में साथ थे,
तथापि उस पर अमल करने के वे सख्त
विरोधी
थे।
यों तो यह
बात पहले ही झलकने लगी थी। फिर भी जेल जाने के बाद स्पष्ट हो गयी।
उनने सारी शक्ति इस बात में लगा दी कि पलासा के प्रस्ताव पर अमल न हो
सके। यह इतनी प्रसिध्द बात है कि इस पर तर्क-दलीलें या प्रमाण पेश
करना अनावश्यक है। फलत: किसान-सभा के शेष लोगों को जिनमें फारवर्ड
ब्लॉक के भी लोग थे,
यह
बात बुरी तरह खटकी और इस प्रकार किसान-सभा के भीतरी
विरोध
ने उग्र रूप धारण किया। इसकी खबरें मुझे जेल में बराबर ही मिलती रहती
थीं और मैं दु:खी होता था। पर करता क्या?
विवश था। एक यह भी वजह थी जिससे
'जनता
की पार्टी'
का
प्रश्न जेल में उठने पर मैंने उसमें जाने से साफ इनकार किया। आगे फिर
मिल-जुलकर काम करने का प्रश्न जब कुछ सोशलिस्ट साथियों ने गम्भीरता
के साथ उठाया तो मैंने उनसे जो
'नाहीं'
कर
दी उसका यह भी कारण था।
यह
विरोध
भीतर-ही-भीतर यहाँ तक बढ़ा कि सन् 1941
ई. की फरवरी में डुमराँव में जो प्रान्तीय किसान
सम्मेलन पं. यमुना कार्यी की
अध्यक्षता
में हुआ उसमें से सोशलिस्ट बाहर निकल आये। बात यों हुई कि
भीतर-ही-भीतर उनकी कोशिश थी कि किसान-सभा में उन्हीं का बहुमत हो
जाय। उनने इसके लिए सब कुछ किया। मगर जब
उस कॉन्फ्रेंस में उन्हें पता चला कि वे विफल हुए और उनकी संख्या
नगण्य सी है, तो
कॉन्फ्रेंस से हट जाने के अलावे उनके लिए दूसरा चारा था ही नहीं।
फलत: उसके शुरू में ही निकल खड़े हुए और उलटे पाँव लौट आये। सम्भव था
वहाँ पहले के कामों और चालों पर टीका-टिप्पणी होती। इसलिए उनने पहले
ही चल देना उचित समझा। अब किसान-सभा में खाँटी किसान सभावादियों के
अलावे केवल कम्युनिस्ट और फारवर्डब्लाकिस्ट रह गये थे। फिर भी उसका
काम निराबाध चलता रहा।
उधर
सोशलिस्टों ने एक अलग किसान-सभा बनाने की सारी भूमिका बाँधी। उसमें
वे कहाँ तक सफल हुए यह तो सभी जानते हैं। इस बारे में मुझे यहाँ कहने
की जरूरत नहीं है।
मेरी रिहाई
के पूर्व ब्लाकिस्टों की भी आवाज किसान-सभा के विरुध्द में उठ चुकी
थी। उनके इस्तीफे भी कुछ दाखिल हुए थे। मगर उनके साथ हमारा और हमारे
साथियों का नाता अभी टूटा न था। शायद कच्चे धागे से जुटा था। बिहार
की किसान-सभा में तब तक कम्युनिस्टों की कोई गिनती थी नहीं। वे
इने-गिने ही थे।
(शीर्ष पर वापस)
डुमराँव का संघर्ष
मेरे जेल
में रहते ही एक और
महत्त्वपूर्ण
बात किसान-सभा के इतिहास में हुई जिसने मेरा कलेजा बाँसों उछाल दिया।
वह थी शाहाबाद जिले के डुमराँव में खुद महाराजा की धाँधली और मनमानी
घरजानी के विरुध्द किसानों की संगठित लड़ाई जो किसान-सभा के तत्त्वावधान
में हुई और जिसने सभा का सिर ऊँचा किया। किसानों की उसमें जीत भी
हुई। इससे न सिर्फ किसानों का,
बल्कि जनसाधारण तथा डुमराँव के बनियों का भी संकट हटा और सबों ने
राहत की साँस ली।
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