(15)गांधीजी जेल में और बाहर
सन 1922 से लेकर 1924 के बीच में दो प्रसिद्ध घटनाएँ और उल्लेखनीय
हैं। बारदोली में सन 1922 की फरवरी में असहयोग की लड़ाई स्थगित करके गांधीजी
ने दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की मीटिंग सम्भवत: मार्च में
बुलाई थी। उसमें उन्होंने कांग्रेस के ध्येय का स्पष्टीकरण अपने मतानुसार
करना चाहा। लड़ाई स्थगित करने के समर्थन में जो प्रस्ताव था उसमें उन्होंने
यह जोड़ना चाहा कि कांग्रेस के ध्येय में जो लेजिटिमेट (Legitimate) और
पीसफुल (Peaceful) शब्द हैं-उनके अर्थ हैं क्रमश: ट्रुथ फुल (Truth ful) और
नानवायोलेंट (Non violent) मगर कमिटी ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस पर अपने
साप्ताहिक यंग इण्डिया में उन्होंने एक लम्बा लेख लिखा और कहा कि हम
कहाँ-से-कहाँ चले जा रहे हैं इसका पता नहीं जानते। अगर हम समय रहते नहीं
चेते तो अतल समुद्र में जा डूबेंगे। हम सरकार को कमजोर करने के बजाये देश
की प्रगति के बाधक हो रहे हैं सत्य और अहिंसा को न मानकर।
मगर इसका लोगों पर तो कुछ असर हुआ नहीं। हाँ, सरकार ने बखूबी समझ लिया कि
गांधीजी का प्रभाव गिर गया हैं। बस, उसने 6 साल के लिए उन्हें जेल में ठूँस
दिया! तबसे लेक र अब तक जहाँ तक मैं जानता हूँ कांग्रेस
या आल इण्डिया कांग्रेस कमिटी ने कभी भी कांग्रेस के ध्येय के उन दोनों
शब्दों का गांधीजी वाला अर्थ साफ-साफ स्वीकार नहीं किया हैं और न किसी ने
इस बात की खुली कोशिश ही की हैं। मगर फिर भी आज तो कांग्रेस के ध्येय के
नाम पर सत्य और अहिंसा का ढिंढोरा ही पीटा जाता हैं। इसे ही कहते हैं समय
की गति!
दूसरी घटना हुई गांधीजी के जेल से 2 साल के भीतर ही लौट आने पर। सन! 1924
ईस्वी में अहमदाबाद में आल इण्डिया कांग्रेस कमिटी की बैठक थी। मैं भी उसका
सदस्य था। वहाँ गया था। मैंने जो नज्जारा वहाँ देखा वह भूलने का नहीं।
बंगाल के श्री गोपीनाथ साहा नामक प्रसिद्ध क्रान्तिकारी युवक को फाँसी हुई
थी। दास साहब ने उसके हिंसात्मक कार्यों की नहीं, पर उसके ध्येय की प्रशंसा
का एक प्रस्ताव पेश किया था गांधीजी की हिंसा की भर्त्सना को मानकर ही।
बहुत गर्मागर्म बहस हुई। अन्त में राय लेने पर प्रस्ताव गिर गया। सभापति थे
मौलाना मुहम्मद अली। बस, इतना होते ही देशबन्धु, पं. मोतीलाल नेहरू आदि के
साथ एक बड़ा दल कमिटी से उठकर बाहर चला गया। इस पर गांधीजी घबराये। उन्होंने
यह भी कहा कि अब गिनिये कि कितने यहाँ हैं और कितने बाहर। गिनने पर पता लगा
प्राय: दोनों ही बराबर हैं, थोड़ा ही अन्तर हैं। यह देखते ही उन्होंने दास
साहब आदि को बुलवाया और फिर से उस प्रस्ताव को रखवाकर पास करवा दिया!
हालाँकि, उनके दिल पर गहरी चोट लगी।
इसके बाद ही उन्होंने एक और भी प्रस्ताव को, जो पहले गिर गया था, फिर से
विचारने और पास करने की इच्छा प्रकट की थी। असल में कांग्रेसी लोग मुकदमों
में पैरवी न करते थे। ऐसी ही सख्त आज्ञा कांग्रेस की थी उधर बेलगाँव में
कांग्रेस होने वाली थी। उसके कर्त्ताधर्त्ता श्री गंगाधर राव देशपाण्डे की
सारी जायेदाद ले लेने पर सरकार तुली बैठी थी। क्योंकि वे केस तो लड़ते नहीं।
इसीलिए प्रस्ताव कुछ ऐसा ही था कि खास-खास प्रकार के केसों में पैरवी की
जाये। मगर कमिटी ने पहले इसे न माना था। गांधीजी उसे ही दोबारा पेश करके
मनवाना चाहते थे। इस पर लोगों ने नियमों के आधार पर उज्र शुरू कर दिया और
कहा कि इसी बैठक में गिरा हुआ प्रस्ताव फिर कैसे पेश होगा, आदि-आदि।
गांधीजी दलीलें सुनते थे और उनका चेहरा सुर्ख होता जा रहा था! एक धक्का
गोपी साहा वाले प्रस्ताव ने दिया था। अब दूसरा धक्का यह हुआ। वहाँ भी हारे
और यहाँ भी वही नौबत थी। उन्होंने समझा था कि जैसे साहावाला गिरा हुआ
प्रस्ताव फिर से पेश होकर पास हो गया उसी प्रकार यह भी हो जाये तो थोड़ी
शान्ति मिले। वह उसे पास कराने के पक्ष में थे। मगर लोग कब सुनने वाले थे?
आखिर में वह उबल ही तो पड़े। कुछ तो क्रोध और कुछ बेचैनी इन दोनों के करते
बच्चों की तरह मुँह बनाकर आग सी बरसाने लगे। उन्होंने कहा कि स्वराज्य
मिलने पर यही कमिटी पार्लिमेण्ट बनेगी जो आज बच्चों का सा काम कर रही हैं।
अभी-अभी जब साहावाला प्रस्ताव फिर पेश करके पास किया गया तो किसी ने
कायदा-कानून नहीं बघारा और धीरे से उसे गले के नीचे उतार लिया। मगर जब इस
प्रस्ताव के बारे में मैंने कहा तो कानून और कायदों की बदहजमी सभी लोग
मिटाने लगे! बात क्या हैं? उस प्रस्ताव के समय यह दलीलें कहाँ थीं जो एकाएक
अभी आ धमकी हैं? देशपाण्डे जैसा दक्ष कार्यकर्त्ता और लीडर तबाह हो जाये और
बेलगाँव वाला कांग्रेस-सेशन होने न पाये इस बात की तैयारी हो गयी हैं। इसे
ही मैं रोकना चाहता हूँ। इसीलिए यह प्रस्ताव फिर लाकर पास कराना चाहा। मगर
आप लोगों को सूझता ही नहीं। मुझे आपने कांग्रेस में कैद थोड़े ही कर लिया
हैं। अभी छोड़कर चला जाता हूँ। मेरे अपने विचार हैं जिन्हें छोड़कर या जिनकी
हत्या करके कहीं भी रह नहीं सकता। देखें, कौन मुझे कांग्रेस में रखता हैं?
आदि-आदि।
बस, अब क्या था? चारों ओर थोड़ी देर सन्नाटा सा रहा और गांधीजी की सिसकियाँ
खत्म भी न हो पायी थीं कि चारों ओर से आरजू-मिन्नत शुरू हुई। लोग ऐसा समझ न
सके थे। इसलिए घबरा कर कहीं देशबन्धु, कहीं पं. मोतीलाल, और कहीं अध्यक्ष
मौलाना मुहम्मद अली हाथ जोड़ कर गांधीजी को मनाने लगे! मगर जब देखा कि वह
सुनने को तैयार नहीं, तो मौलाना मुहम्मद अली ने अपने सिर की टोपी उनके पाँव
पर रख दी। तब कहीं जाकर वह पिघले। वह दृश्य देखने ही का था। लेखनी उसे
अंकित कर नहीं सकती।
(शीर्ष पर वापस)
(16)मेरी छुआछूत
सन 1923 ई. के अन्त की एक दिलचस्प और जरूरी घटना का उल्लेख कर मैं सन 1925
में पहुँचूँगा। मौलाना मुहम्मद अली की अध्यक्षता में काकिनाड़ा (Cocanada)
(आन्धार देश) में कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला था। एक दल के साथ मैं भी
रवाना हुआ उसमें शामिल होने के लिए। मनमाड़ जंक्शन से हैंदराबाद स्टेट
रेल्वे में जाना और बेजवाड़ा में फिर दूसरी ट्रेन पकड़कर काकिनाड़ा पहुँचना
था। हम लोगों ने मनमाड़ में बम्बे मेल छोड़ दी। पास के धर्मशाले में गये।
वहीं संयोगवश काशी के प्रसिद्ध देशसेवक श्री शिवप्रसाद गुप्त भी मिल गये।
बातचीत में तय पाया कि रास्ते में एलोरा की बौद्धकालीन ऐतिहासिक गुफाएँ
देखना जरूरी हैं। सवेरे स्नानादि के बाद खा-पी के हम लोग ट्रेन में बैठे।
मैंने वहीं पहले-पहल एक दल गांधी टोपी वालों का देखा। पता लगा साबरमती के
सत्याग्रह आश्रम के ये लोग हैं। मैंने सुना और पढ़ा था, वहाँ बहुत ही संयम
चलता हैं। मिठाई वगैरह खायी नहीं जाती। मगर वहाँ तो लड्डू, बँदिया आदि का
खजाना उन लोगों के पास देखा। उसे खूब उड़ा रहे थे। ताज्जुब तो हुआ कि क्या
सचमुच यही लोग गांधीजी के उस ऐतिहासिक आश्रम के निवासी हैं। फिर सन्तोष
किया कि आश्रम से बाहर आने पर जो थोड़ी आजादी मिली हैं उसी का उपभोग ये लोग
शायद कर रहे हों! मगर दिल ने बार-बार कहा कि यह क्या हैं? कुछ दाल में काला
जरूर हैं!
गाड़ी जब एलोरा रोड स्टेशन पर लगी तो देखा कुछ लोग एलोरा जाने के लिए उतर
रहे हैं। एलोरा वहाँ से शायद आठ मील हैं। मगर हमें बताया गया था कि अगले
स्टेशन सिकन्दराबाद ही उतरना ठीक होगा। वहाँ से ताँगे वगैरह मिल सकेंगे।
हमने ऐसा ही किया। सिकन्दबाद में उतर के गुप्त जी ने कई ताँगे सबों के लिए
ठीक किये। खैर, हम लोग एलोरा गये। हमने घूमघूम कर पहाड़ के उदर में उसे ही
काटकर दो-दो, तीन-तीन मंजिलों के मकान देखे जिन पर रंगीन चित्रकारी अभी भी
ताजी ही मालूम पड़ती थी। सचमुच बौद्ध जमाने की यह रचना अब तक फीकी न पड़ी, यह
आश्चर्य हैं। रंग बनाने का कौन सा विज्ञान उस समय था, कौन बतायेगा? पहाड़ को
काट कर कई तल्लों के लम्बे मकानात कैसे बने? यह सब देख कर हम लोग मुग्ध हो
गये। घूमते-घूमते थक भी गये। ईधर शाम भी हो चली। किसी ने कहा, पास ही गाँव
हैं जहाँ पण्डे रहते हैं। वहीं ठहरना चाहिए। सबने पसन्द किया कि एलोरा गाँव
में आज रात को ठहर लें। बस, वहीं किसी पण्डे के मकान में जा ठहरे।
अगले दिन सुबह उठे। शौच, स्नानादि किया। गुप्त जी के साथ काशी का एक जवान
ब्राह्मण रसोइया था। वही पूड़ी और साग भोजनार्थ बनाने लगा। उधर स्नान करके
उन्होंने पायजामा पहना यह कह के कि संध्या करेंगे। संध्या भी क्या? शायद
प्राणायाम किया। फिर धोती पहन ली। मैं तो किसी के हाथ का बनाया जल्दी खाता
न था। मगर वहाँ खाना पकाने में दिक्कत थी। गाड़ी पकड़ने के लिए जल्दी भी थी।
समझा कि ब्राह्मण रसोइया हैं। गुप्त जी आर्य समाजी हैं। इसलिए यह सच्चरित्र
तो होगा ही। भला दुश्चरित्र को वह कैसे रख सकते हैं? इसलिए उसके हाथ की बनी
पूड़ी खा तो ली। मगर पीछे पता चला कि वह बड़ा ही दुश्चरित्र हैं। फिर तो बड़ी
ग्लानि हुई। इसलिए मैंने हँसते-हँसते गुप्त जी से कहा कि मैंने तो आपके साथ
रहने से सच्चरित्र ब्राह्मण समझ इसके हाथ की पूड़ी खा ली। मगर पीछे पता लगा
कि यह हैं भीषण दुराचारी। इतना सुनते ही हँस के उनने कहा कि ''सच्चरित्र
किसे कहते हैं?'' मैंने कहा, ''दुराचार, व्यभिचार आदि''। उनने चट कहा कि
''गाय से बच्चा पैदा हो के साँड़ बनता और उसी गाय पर चढ़ता हैं, तो क्या वह
दुराचारी व्यभिचारी हैं?''
इतना सुनते ही मैं समझ गया कि यहाँ मामला बेढब हैं। मैं इन्हें गलती से
आर्यसमाजी समझता था। इसीलिए मामूली दलील करना मैंने बेकार समझा और बोलने ही
वाला था कि उनने पुन: कहा कि ''यदि यहाँ श्री प्रकाश होता तो आपको और भी
हैंरान करता।'' मैंने कहा कि ''गुप्त जी मैं एक प्रश्न करता हूँ। अगर आपने
उसका उत्तर दे दिया तो मैं हार जाऊँगा। मगर यह कह देता हूँ कि मुझे वैसे
संन्यासी न समझिये जो अन्ध परम्परा के पिट्ठू होते हैं। मैं तो
बुद्धिपूर्वक यह बात मानता हूँ।''
इसके बाद मैंने शुरू किया कि ''एक ऐसा ब्राह्मण कल्पना कीजिये जो अच्छा
विद्वान वेदशास्त्रज्ञ, कर्मठ, देशभक्त, खादीधारी, परोपकारी हैं। वह
देशसेवा में जेल भी गया हैं, कष्ट भोग चुका हैं। ऐसा आदमी सम्भव हैं। फलत:
वह सभी लोगों को मान्य होगा। अब फिर कल्पना करें कि एक घोर जंगल में स्थित
एक ग्राम के निकट झाड़ियों में दैवात पहुँचकर कुछ करता हैं या अपनी थकान ही
हटा रहा हैं। आप भी कुछ दूर पर बैठे हैं और उसकी हरकतें देख रहे हैं। मगर
मूक हैं। आपकी जिह्वा में बोलने की शक्ति किसी कारण से नहीं रह गयी हैं।
इतने में एक अमीर का नन्हा सा बच्चा सोने-जवाहरात से लदा भटक कर उस झाड़ी
में आ जाता हैं। वह सोना जवाहरात देख के वह ब्राह्मण लोभग्रस्त हो जाता
हैं। यह असम्भव नहीं हैं। अब सोचता हैं कि यदि छीनने की कोशिश करूँ तो
बच्चा चिल्लायेगा और शायद पास में कोई हो तो पकड़ा जाऊँगा। बस, जबर्दस्त
चाकू निकाल के फौरन उसकी गर्दन साफ करता और सब माल लेकर फौरन नौ दो ग्यारह
होता हैं। आप उसकी सारी हरकत देखते, उसे पहचानते भी हैं।''
''अब अगर भविष्य में आपको पानी पीने की इच्छा हो और संयोगवश वही ब्राह्मण
मिल जाये और पीने को पानी लाये, तो क्या आपकी हिम्मत होगी कि पी लें?'' मैं
रुक गया और उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। मगर गुप्त जी की तो बोलती बन्द
थी। मैंने बार-बार जोर दिया कि चुप क्यों हैं? बोलिए। मगर उनकी जबान न खुली
और न खुली। मैंने कहा कि ऐसे बीसियों प्रश्न कर सकता हूँ। इसे ही चरित्र
कहते हैं। मुझे यकीन हैं, मैंने आपको चरित्र का अर्थ समझा दिया।
इस प्रकार मैंने उन्हें निरुत्तर किया और अपने पक्ष का पूर्णत: समर्थन उन
जैसे उच्छृंखल व्यक्ति के सामने कर दिया। उच्छृंखल केवल इस पानी में कि
पोथी-पत्रो को जो न माने और कोरी दलील का जो कायल हो। मैंने उनसे यह भी कहा
कि मैं इस छुआछूत में बाहरी और भीतरी दोनों ही प्रकार की, शुद्धियाँ मानता
हूँ। बाहरी जो धोने-धाने, नहाने और स्थान आदि की सफाई को कहते हैं। भीतरी
हैं चरित्र की शुद्धि के साथ ही सभी प्रकार के संक्रामक रोगों का अभाव। यह
बात नितान्त परिचित के सिवाय दूसरे आदमी के बारे में जानी नहीं जा सकती।
इसीलिए अपरिचित के हाथ का खाना सनातनियों में मना हैं। मैंने कहा कि जेल
में भी मैं खाना बनाने वाले कैदियों से खाना इसलिए नहीं बनवाता था। क्योंकि
सोचता था कि न जाने क्या-क्या कुकर्म करके जेल आये होंगे। नल (कल) का पानी
भी मैं इसीलिए पीता हूँ नहीं। क्योंकि जहाँ लोटे वगैरह को बाहर-भीतर बराबर
मलते हैं। नहीं तो धातु में जहर पैदा हो जाने और गन्दा होने का डर रहता
हैं। वहाँ नल के भीतर या बाहर कभी मला दला नहीं जाता। क्या कोई बिना
मले-दले लोटे का पानी पीने की हिम्मत कर सकता हैं? फिर नल के पानी के पीने
की हिम्मत मैं कैसे करूँ? काशी आदि शहरों में तो पाखाने आदि के नलों
(drains) के साथ ही पानी के नल चलते हैं। इसीलिए और भी जी नहीं चाहता।
नदियों में भी गन्दी चीजें पड़ती हैं सही। मगर वहाँ धातु की बात नहीं हैं।
साथ ही, धारा जारी रहने से पानी में आन्तरिक (chemical action) क्रिया होकर
शुद्धि हो जाती हैं। इसी से कहा हैं ''बहता पानी निर्मल, बँधा सो गन्दा
होय''।
लेकिन तभी से मेरे दिल पर एक विचित्र असर हो गया, यह पहले न था। तभी से मैं
छुआछूत के मामले में और भी सख्त और बेमुरव्वत हो गया। क्योंकि वह मेरी दलील
मेरे दिमाग के सामने बराबर ताजी रहती हैं। पहले यह बात न थी। इसलिए आदमियों
के आचरण की उतनी सख्ती से खोज ढूँढ़ नहीं करता था। बेशक, मेरे खान-पानी की
छुआछूत का अर्थ यह नहीं कि मैं किसी आदमी या जाति को सदा के लिए अस्पृश्य
मानता हूँ। यह तो गलत बात हैं। न तो पोथियों से ही इसकी सिद्धि मेरे विचार
के अनुसार हो सकती हैं। और न स्वतन्त्र रूप से विचार करने से ही। मैं तो
केवल खाने-पीने में ही छुआछूत मानता हूँ। इसका कारण भी बताया ही हैं। मेरी
यह छुआछूत विचार मूलक हैं, बुद्धिपूर्वक हैं। मैंने इस पर बार-बार सोचा हैं
और जितना ही विचारा हैं उतना ही इस मामले में सख्त हो गया हूँ। हालाँकि
वर्तमान युग में इससे बदगुमानी मेरे खिलाफ बहुत फैली हैं। यहाँ तक कि लोगों
ने समझ लिया हैं कि नीच, ऊँच, हिन्दू, मुसलिम आदि भेद बुद्धि के कारण ही
मेरी यह छुआछूत चलती हैं। लेकिन यह लोगों की धारणा गलत हैं।
मैं जाति या वर्ण के करते नीच-ऊँच या स्पृश्य-अस्पृश्य किसी को नहीं मानता।
मुसलमानों या अन्य धर्मवालों को अस्पृश्य मानने की नादानी भी नहीं कर सकता
हूँ। मगर किसी को शक हो तो एक बार कोई भी जाति या धर्म का आदमी मेरी रोटी
या मेरा पानी छूकर देख ले कि मैं उसे खाता-पीता हूँ या छोड़ देता हूँ। मगर
सदा इस प्रकार का छुआ खाने-पीने की हिम्मत मुझमें होती ही नहीं। कुछ मेरा
अब स्वभाव ही ऐसा हो गया हैं। आखिर लगातार 50 वर्षों तक जिसका पालन निरन्तर
किया, और ईधर आकर तो अत्यन्त बुद्धिपूर्वक किया, वह स्वभाव न हो जाये तो हो
क्या? इससे स्वयं मुझे कष्ट होता हैं। मगर उसका आखिर परिणाम अच्छा ही होता
हैं। इससे खान-पान में मेरा संयम बना रहता हैं। उससे स्वास्थ्य भी ठीक रहता
हैं। इसलिए अब तो खान-पान की इस भीषण कट्टरता को मैं अपने स्वास्थ्य की
रक्षा के लिए ढाल मानता हूँ। फलत: इसे छोड़ना नहीं चाहता, ताकि नीरोग रह के
ज्यादा काम कर सकूँ। नीरोग रहता हूँ भी।
आगे बताऊँगा कि किस क्षण में मैं इस कट्टरता को त्याग दिया करता हूँ और
क्यों? इसके दृष्टान्त आगे मिलेंगे। बेशक, मेरी यह कट्टर छुआछूत की बात इस
जमाने के लिए हैं नहीं। इस जमाने में यह असम्भव सी चीज हैं। इसे बड़ी ही
दिक्कत से मैं निभा रहा हूँ। इसीलिए इस अर्थ में मैं दकियानूसी हूँ। सो भी
पक्का। ऐसा मानने में मुझे जरा भी हिचक या शर्म नहीं हैं। यही कारण हैं, कि
मैंने और किसी को भी इसके पालन की राय कभी नहीं दी हैं! ऐसी भारी भूल मैं
हर्गिज कर नहीं सकता। जो लोग कट्टर वैष्णव, आचारी होकर भी बाजार की इमिरती
आदि चीजें या डाँक्टरी दवाइयाँ खाते हैं उन्हें मैं ढोंगी मानता हूँ। वे
चीजें कैसे बनती हैं और मीलों की चीनी कैसे तैयार होती हैं यदि वे यह सोचते
तो शायद वह यह ढोंग नहीं करते। या तो साफ-साफ सभी खाद्य पदार्थ खाते या छोड़
देते। मैं तो ये चीजें छूता भी नहीं। इसीलिए मैं यह भी मानता हूँ कि या तो
मेरी जैसी छुआछूत हो या नहीं तो नये ढंग के खान-पान का तरीका जारी हो।
बाजार और हलवाई की चीजें खा के और हिन्दू होटलों में ब्राह्मण के हाथ का
बना भोजन हजम करके जो लोग मानते हैं कि छुआछूत का पालन करते हैं वे ढोंगी
और नादान हैं। मुझे तो इस छुआछूत के चलते लम्बी यात्रा में रेल में बड़ी
दिक्कत होती हैं। अतएव या तो बीच में ट्रेन छोड़ के खाने-पीने का प्रबन्ध
करता हूँ या चौबीस घण्टे यों ही रह जाता हूँ। उसी यात्रा में सिकन्दराबाद
से चलकर बेजबाड़ा शाम को पहुँचा। तब कहीं पाखाना गया, दतवन की। फलत: दाँतों
का दर्द बेतहाशा बढ़ गया।
(शीर्ष पर वापस)
(17)फिर पुरोहिती का प्रश्न
सन 1924 ई. बीतते-न-बीतते मेरा सम्बन्ध पुन: बिहार से स्थापित हो गया। यों
तो यू. पी. में भी आता-जाता ही रहा। कांग्रेस का काम तो कुछ था नहीं। चर्खे
और खादी का काम भी क्या कोई ऐसा काम हैं जो जनता को आकृष्ट कर सके? वह तो
राजनीतिक चहल-पहल चाहती हैं। जन्म से मरणापर्यन्त जिसे जीविकार्थ प्रति दिन
जमीन, हवा, सूर्य, पानी और आदमियों के साथ भीषण संघर्ष करना पड़ता हैं वही
जनता संघर्ष के सिवाय दूसरी चीज को अपना वास्तविक कल्याणकारी कैसे समझे?
इसीलिए जहाँ एक ओर चुनावों का प्रश्न जोर पकड़ता जा रहा था, तहाँ कांग्रेस
में वह पुरानी गन्दगी फिर सिर उठाने लगी जो लड़ाई के समय दबी थी। कहते हैं
कि संघर्ष के समय हमारी कमजोरियाँ जेल के भीतर चली जाती हैं। हम वहीं इनका
प्रदर्शन करते और इनके शिकार होते हैं। मगर जब संघर्ष न हो तो बाहर ही वे
कमजोरियाँ हमें धर दबाती हैं।
ईधर कांग्रेस संघर्ष में मेरे पड़ जाने के कारण भूमिहार ब्राह्मणों के पूर्व
आन्दोलन के विरोधियों की हिम्मत बढ़ गयी थी। वे जहाँ-तहाँ इन्हें दबाने लगे
थे। पुरोहितों ने न सिर्फ पुरोहिती न करने की धमकी दी, प्रत्युत बहुत जगह
भूमिहार ब्राह्मणों की पुरोहिती विवाह श्राद्धआदि-कराना छोड़ ही दिया। इससे
समाज में एक प्रकार का हाहाकर सा मच गया। विरोधी समझते थे कि अब तो स्वामी
जी इस काम में पड़ेंगे नहीं। समाज के लोग भी कुछ ऐसा ही समझने लगे थे। इन
लोगों ने बड़ी करुणवाणी में अपनी स्थिति बार-बार मुझे सुनाई। फलत: मेरा दिल
फिर पसीज गया। एक तो कोई राजनीतिक काम था नहीं। दूसरे यदि जलियांन वाले बाग
के करुण-क्रन्दन ने मुझे उधर घसीटा था तो इनका क्रन्दन ईधर घसीटने लगा।
जिस आत्मसम्मान पर चोट होने से मैं और मेरे साथ सह्त्रो जेलों तक में
हँसते-हँसते गये उसी आत्मसम्मान पर फिर दूसरी तरफ से दूसरे प्रकार का चोट
हुआ जिससे लोग विचलित हुए। सरकार की धमकी यदि कुछ न कर सकी तो पुरोहितों की
धमकी कैसे विचलित करती। पुरोहित समझते थे कि इनमें कोई पौरोहित्य तो जानता
नहीं। फलत: हारकर इन्हें गिरना ही होगा। फिर तो मनमानी शतें मनायेंगे। ठीक
जैसा सरकार समझती थी।
पुरोहितों ने और उनके साथियों ने यह भी प्रचार किया कि स्वामी जी तो सब काम
यों ही बीच में ही छोड़कर अलग हो जाते हैं। मैंने देखा कि इस प्रचार का असर
भी हो रहा हैं। फिर तो यह ललकार मुझे बर्दाश्त न हो सकी और एक बार फिर
सामाजिक काम में कूदना पड़ा। इसी समय एक चातुर्मास्य में परिश्रम करके सिमरी
में रह के बारह सौ पृष्ठों की पुस्तक 'कर्मकलाप' लिखी गयी। इसका जिक्र पहले
आया हैं। यह पुस्तक दूसरी बार इस काम में कूदने पर ही लिखी गयी।
हाँ, तो मैंने युक्त प्रान्त और बिहार में घूम-घूम कर सैकड़ों सभाएँ कीं और
भूमिहार ब्राह्मणों को ललकारा कि आत्मसम्मान का तकाजा हैं कि स्वयं
पुरोहिती करो। मैंने प्रयाग के पण्डों आदि का दृष्टान्त भी दिया कि आखिर वे
भी तो भूमिहार ही हैं। बस, लोगों की आँखें खुलीं और इस काम में रुजू हो
गये।
मगर, इसमें अब सबसे बड़े बाधक पुराने ख्याल के कुछ बूढ़े, जमींदार एवं
राजे-महाराजे थे। ये लोग नादानी के कारण पुरोहिती को बुरा बताते थे।
हालाँकि घृणित से घृणित काम भी पैसों के लिए कर डालते थे। दलीलों से वे
मानते न थे। इसलिए सोचा गया कि भूमिहार ब्राह्मण सभा से ही इस बात को पास
कराना चाहिए। सौभाग्य से युक्त प्रान्तीय भूमिहार ब्राह्मण सभा का अधिवेशन
1925 की गर्मियों में काशी में होने को था। मैंने जोर लगाया कि वहाँ सफलता
हो। सौभाग्य से मेरा साथ गाजीपुर के प्राय: सभी पढ़े-लिखे लोगों ने दिया,
सिवाय एकाध के। लेकिन दुर्भाग्य से काशी में सभा के स्तम्भ और अधिवेशन के
प्रबन्धक बाबू कवीन्द्र नारायण सिंह इस बात के विरोधी थे। उनने वहाँ के
लोगों को भी अपनी तरफ कर लिया। फिर भी युवक दल मेरे साथ ही था, यहाँ तक कि
उन्हीं का बड़ा लड़का भी। आत्मसम्मान और स्वावलम्बन की बात जो थी और चैलेंज
का जवाब जो देना था। ऐसी बातें सदा युवकों को अपील करती हैं। उधर कवीन्द्र
बाबू निश्चिन्त बैठे कि काशी में वे बाजी मार ले जायेगे ही। मगर सभा में
एकाएक प्रस्ताव पर मैंने हृदय में बिंधा जाने वाला भाषण दिया। फलत: बहुत
वाद-विवाद के बाद राय लेने पर प्रस्ताव पास हो गया। फिर तो खूब आनन्द हुआ।
मगर कवीन्द्र बाबू ने इसे अपना घोर अपमान समझा। क्योंकि बाघ की माँद में ही
उसे नथिया पहनाई गयी। इस लिए, चाहे जैसे हो, बदला चुकाने की उन्होंने ठान
ली।
उनके सौभाग्य से उसी साल दिसम्बर में युक्त प्रान्त के बस्ती जिले में अखिल
भारतीय भूमिहार ब्राह्मण महासभा का अधिवेशन होने को था। खलीलाबाद में हुआ
भी। उन्होंने पूरी तैयारी शुरू कर दी। बस्ती वालों से सट्टा-पट्टा भी किया।
ईधर मकसूदपुर (गया) के राजा चन्द्रेश्वर प्रसाद नारायण सिंह को सभापति
चुनवाया, यह कह के कि वह भूमिहार ब्राह्मण शिक्षा कोष के लिए साठ हजार
रुपये देंगे। उनकी चाल थी कि इससे युवक लोगों पर असर होगा और राजा के भाषण
में पुरोहिती का विरोध करवा के बाजी मार लेंगे। तैयारी होने लगी। मैं भी
बस्ती में सभा के लिए जा डटा। क्योंकि आग्रह करके लोगों ने बुलाया कि चन्दे
की वसूली में मदद दीजिये। बस्ती एक ऐसा जिला हैं जहाँ बस्ती शहर से कुछ ही
मील दक्षिण-पूर्व के कई गाँवों के भूमिहार ब्राह्मणों का विवाह सम्बन्ध
सर्यूपारियों के साथ बराबर होता आया हैं। मगर फिर भी समय की ऐसी गति कि वे
भूमिहार ब्राह्मण शेष बाबुओं की नजर में छोटे गिने जाने लगे थे। मैंने उनके
घर जा के उन्हें उत्साहित किया। वे लोग भी सभा में आये। उधर कवीन्द्र बाबू
ने अपनी तैयारी में कुछ भी कोर कसर न छोड़ी। बाहर से अपने पढ़े-लिखे दोस्तों
को बुलाया जिनका एकमात्र काम था सभा के समय तरह-तरह से लोगों को फुसलाना और
बरगलाना।
ईधर चारों ओर से मेरे समर्थक भी बहुत आये। बिहार से तो एक खासा दल पं.
धनराज शर्मा के साथ आया। बाकायदा अपने काम में सभी लोग लग भी गये। अधिवेशन
में सभापति जी ने जो लिखित भाषण पढ़ा उसमें दिल खोलकर पुरोहिती के प्रचार का
विरोध किया। यहाँ तक लिख मारा कि ''कुछ मनचले लोग हमारे समाज में इसका
प्रचार करना चाहते हैं।'' इस पर लोग बहुत बिगड़े। यहाँ तक कि भाषण से
'मनचले' शब्द जब तक निकाला न गया, उन्हें आगे बढ़ने न दिया! यह हमारी पहली
विजय थी। इससे उस दल में खलबली मची, फिर तो भीतर-ही-भीतर स्थानीय लोगों को
यह कहा गया कि सभा में सभी जात के लोगों को ला के भर दीजिये और विरोध में
वोट दिलवाइये। दोस्तों ने इसकी पूरी तैयारी भी कर ली। मुझे यह बात पीछे
विदित हुई, हालाँकि मेरे साथी पहले भी जानते थे।
सभा में जब प्रस्तावों का समय आया तो अपार भीड़ थी। बाबू कवीन्द्र नारायण
सिंह ने स्वयं पुरोहिती के प्रस्ताव का विरोध किया और दबाव डालकर राजा साहब
तमकुही से उस विरोध का समर्थन कराया। तमकुही, गोरखपुर में हैं और बस्ती का
पड़ोसी होने से उनका असर बस्ती जिले वालों पर अच्छा था। वे राजा भी ठहरे।
प्रस्ताव को मैंने ही खुद पेश किया था। पेश करने के समय भी मैंने अच्छा
भाषण दिया। मगर पूरी बहस हो चुकने
के बाद जब मुझे उत्तर देने को कहा गया
तो
पं. धनराज शर्मा ने कहा कि जरा भावुकता भरी (feeling) अपील कीजिये। सचमुच
जो भाषण मैंने उस समय दिया, उस विषय का वैसा भाषण शायद ही कभी दिया हो। मैं
देर तक बोला और ऐसा बोला कि पत्थर भी पसीज जाये। पता लगा कि उस भाषण के बाद
कवीन्द्र बाबू के कट्टर समर्थकों तक ने उनसे कह दिया साफ-साफ, कि अब हममें
हिम्मत नहीं हैं कि विरोध करें। सबों के दिल में बात बिंधा गयी।
तब कवीन्द्र बाबू ने सोचा कि सभापति तो हमारे आदमी हैं। अत: वोट लेने में
गड़बड़ी करवाके, या यों ही, जैसे-तैसे, घोषणा करा ही देंगे कि प्रस्ताव पास न
हो सका, यही हुआ भी। वोट का समय आया तो हाथ उठवाये गये। विरोध में थोड़े हाथ
थे और पक्ष में असंख्य। फिर भी उनने कान में सभापति जी से कुछ कह के घोषित
करवा दिया कि, प्रस्ताव गिर गया! इस पर हमारे साथियों ने विभाग करवा के
अलग-अलग गिनवाने की माँग पेश की। पर, एक न सुनी गयी। तीन बार कोशिश करने के
बाद हमने और यत्न करना बेकार समझा। इस प्रकार कवीन्द्र बाबू की मोंछ किसी
प्रकार रह गयी। सभा खत्म हुई। मगर हम लोग खत्म होने से पहले ही कानपुर
कांग्रेस में सम्मिलित होने के लिए ट्रेन से भागे।
कानपुर से लौटकर मैंने साथियों से राय की कि कवीन्द्र बाबू की शैतानियत का
बदला सूद सहित शीघ्र ही चुकाया जाना चाहिए। बात ठीक याद नहीं कि किस कारण
से महासभा का अधिवेशन सन 1926 ई. की गर्मियों में ही करने का निश्चय हुआ।
खलीलाबाद में निमन्त्रण तो बिहार की ही तरफ से पड़ा था। मगर दिसम्बर में न
हो के गर्मियों में उसका अधिवेशन करने का निश्चय शायद इसलिए किया गया कि
दिसम्बर में कांग्रेस का अधिवेशन होने से कांग्रेसी भूमिहार ब्राह्मण
महासभा में शामिल हो नहीं सकते। खलीलाबाद से कानपुर तो निकट था। इसलिए जा
सके सो भी किसी प्रकार। मगर दूर-दराज प्रदेशों में होने पर जाना असम्भव था।
इसलिए गर्मियों के अलावे दूसरा समय था नहीं। कवीन्द्र बाबू के दुर्भाग्य से
बदला लेने का समय जल्दी ही आ गया। अधिवेशन की तैयारी जोरों से होने लगी।
दुंदा सिंह की ठाकुरबाड़ी, बाकरगंज (पटना) में ही अधिवेशन करने का निश्चय
हुआ। उसी में सर गणेशदत्ता सिंह का डेरा था। एक बात बता दूँ कि प्राय: 1924
ई. में जब पुरोहिती का आन्दोलन चल पड़ा तो कुछ जमींदारों ने उसके बाद सर
गणेशदत्ता सिंह से शिकायत की कि स्वामी जी तो बड़ी तेजी के साथ भूमिहार
ब्राह्मणों को पुरोहिती की ओर घसीटे जा रहे हैं। एक दिन उनके डेरे पर कुछ
लोगों के साथ मैं भी बैठा था कि इसी की चर्चा छिड़ गयी। इस पर सर गणेश ने
कहा कि आप तो हमारे समाज को चौपट कर रहे हैं। लड़कों और जवानों का पढ़ना
छुड़ाया। उन्हें तथा औरों को ज्यादा तादाद में जेल भिजवाया। अब भिखमंगी वाला
पुरोहिती का काम सिखाकर रहे-सहे को भी चौपट करना चाहते हैं! मैंने कुछ कहना
चाहा कि यह क्या कह रहे हैं। मगर वह आवेश में बोलते ही गये। यहाँ तक कह
डाला कि यदि बाभन (भूमिहार ब्राह्मणों को बिहार में बाभन ही कहते हैं) का
बच्चा कथा बाँचकर पैसा ले और खाये तो शर्म की बात होगी, डूब मरने की चीज
होगी।
इस पर मुझे भी आवेश आया। मैंने साफ-साफ सुना दिया कि बाभन का बच्चा यदि कथा
बाँचकर जीविका करे तो वह उसके लिए डूब मरने के बजाये गौरव की बात होगी।
कारण, वह तो ब्राह्मण हैं और कथा बाँचना ब्राह्मण का ही धर्म होने से वैसा
करने के लिए अन्ततोगत्वा उसे मजबूरी हैं। अगर जो ब्राह्मणपन का दावा करे,
चोंगा पहन के इजलास पर गंगा तुलसी उठवा के झूठी कसम खिलवाये और उसके
मेहनताने के पैसे को ले तो उसे चिल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए। इतना
कहके मैं वहाँ से चला आया। सर गणेश उन दिनों मिनिस्टर थे और पहले वकालत
करते थे। मगर तब तक 'सर' न बने थे। उन्हीं को लक्ष्य करके मैंने कहा था।
इससे वह जल-भुन गये। मेरा और उनका तभी से खासा मनमुटाव हो गया था।
खैर, स्वागत-समिति के सदस्य सर गणेश भी थे। समिति के सामने सवाल था कि
अधिवेशन का सभापति कौन हो? मैं चाहता था कि कोई राष्ट्रवादी कांग्रेसी हो।
इसीलिए असौढ़ा (मेरठ) के चौधरी रघुवीर नारायण सिंह को मैं अध्यक्ष बनाना
चाहता था। मगर अब तक सभा का सूत्र जिनके हाथों में था वे राजे-महाराजे और
उनके सलाहकार सर गणेश वगैरह इसे सहन नहीं कर सकते थे। वह तो जी-हुजूर होने
के नाते कोई वैसा ही सभापति चाहते थे। पहले सभा में हर साल राजभक्ति का
प्रस्ताव पास होता था। उसे तो हमने कभी खत्म करवा दिया था। अब सभा को थोड़ा
और सामयिक बनाना चाहते थे। मगर वह लोग विरोधी थे। असल में दृष्टिकोण और
स्वार्थ का तकाजा यही था। इसमें दोष किसी का नहीं। चौधरी रघुवीर नारायण
सिंह पुरोहिती के मामले में मेरा समर्थन करते ही। क्योंकि यह तो आत्मसम्मान
का प्रश्न था और वह थे पक्के असहयोगी और जेलयात्री। उनके लड़के की शादी तो
गौड़-जमींदार के ही घर हुई थी। फिर उन्हें हिचक क्यों होती?
जिस दिन आखिरी फैसला होने को था कि कौन चुना जाये, उस दिन की मीटिंग में सर
गणेश न आये सही, पर, यह कह के टहलने चले गये कि मेरा समय तो अब टहलने का
हैं। इसलिए बाकी लोगों की मीटिंग हुई। ज्यादातर धनी लोग ही थे। एकेबाद
दीगरे नामों को लोग पेश करने लगे। महाराजा बनारस से शुरू करके क्रमश:
ग्यारह नाम रक्खे गये। उसके बाद भी जब चौधरी साहब का नाम न रख एक साधारण
सज्जन का नाम रखा जाने लगा तो मैं इसे बर्दाश्त न कर सका और बोला कि यह तो
अनर्थ हो गया। यहाँ मैं न मानूँगा और बारहवाँ नाम तो उनका ही रहेगा। खैर,
लोगों ने मान लिया। आगे किसी का नाम नहीं दिया गया। सभी समझते थे कि ग्यारह
में कोई-न-कोई होई जायेगा। सभी एकबारगी इन्कार थोड़े ही करेंगे। फलत: चौधरी
साहब न होंगे। वे लोग सोचते थे कि सरकार का बागी यदि सभापति बना तो गजब हो
जायेगा! पुश्त-दर-पुश्त की सरकार की खैरख्वाही खत्म हो जायेगी! लेकिन
उन्हें क्या पता था कि उनके सभी लोग न आ सकेंगे और मजबूरन चौधरी साहब को ही
सभापति बनाना पड़ेगा।
इस तरह सभापतियों के नामों को तय करके जब हम लोग दूसरी बातों का विचार कर
रहे थे तब सर गणेश भी मीटिंग में आ गये। आते ही पूछा कि क्या हो रहा हैं?
बताया गया। चौधरी साहब का नाम सुनते ही वे चौंक पड़े और उसमें फिर कुछ गड़बड़ी
करनी चाही। इस पर मैंने सभापति का ध्यान आकृष्ट किया कि वह बात तो खत्म हो
चुकी। नियमानुसार हम लोग उसे उठा नहीं सकते। बस, इतने से ही सर गणेश चिढ़ कर
बोले यदि आप मुझे नहीं चाहते तो जाता हूँ, और उठने लगे। इस पर मैंने कहा कि
नहीं चाहने की तो कोई बात नहीं, मैं तो नियम की बात बोलता हूँ। फिर भी मगर
आप चले जायेगे तो दुनियाँ खाली थोड़े ही हो जायेगी। खैर, उसके बाद वे चले
गये या नहीं यह याद नहीं। मगर लोगों ने हम दोनों को ठण्डा किया और काम पूरा
किया। पर, सर गणेश ने बखूबी समझा कि यह संन्यासी बड़ा ही बेढंगा हैं। उसके
बाद से उन्होंने उस ढंग से मेरे साथ पेश आना सदा के लिए छोड़ ही दिया।
क्योंकि दो बार तो उन्हें करारा जवाब मिला था। मन में दु:ख तो था ही। मेरा
प्रभाव समाज पर था तो करते क्या? यह ठीक हैं कि असहयोग युग में प्राय:
पचहत्तर प्रतिशत जेल जाने वाले भूमिहार ब्राह्मण ही थे। प्राय: उसी प्रकार
लड़कों ने भी स्कूल काँलेज छोड़े थे। मुझे तो इसका विश्वास था कि जिस समाज की
सेवा के करते बदनाम हुआ उसने मौके पर मेरा साथ दिया और मुल्क का सिर ऊँचा
करने में वह आगे रहा। मगर सर गणेश जैसों को तो इस बात का दुख था ही। फिर भी
लाचारी थी।
इसके बाद यारों ने दौड़धूप शुरू की। ग्यारहों महाशयों के पास पत्र गये,
याददाश्तें गयीं और कइयों के पास तो एकेबाद दीगरे आदमी भी भेजे गये। अगर
इनकी बदकिस्मती से उनमें कोई भी आने को रवादार न हो सका। इससे बड़ी घबड़ाहट
हुई। पुनरपि खास तौर से कोशिशें की गयीं। मगर फिर भी बेकार! अब बुरी गत थी।
सरकार के बागी को ये लोग चाहते न थे और शेष ग्यारहों में एक भी मिलता न था।
इस प्रकार चौधरी साहब को रो गाके किसी प्रकार गले के नीचे उतारना ही पड़ा।
इसी दरम्यान में एक दिन सभा के काम से ही जब मैं उसके आँफिस में गया, जो सर
गणेश के डेरे में ही था, तो उन्होंने कहा ''स्वामीजी, मुझे कोरा गया गुजरा
ही न समझिये। मैं भी मानता हूँ कि पहले मुल्क, पीछे जातपाँत "First
country, then community.'' ये उनके शब्द हू-ब-हू हैं। वह समझते थे कि मैं
उन्हें देश का शत्रु और अपनी जाति की तरफदारी करने वाला जानता था। बात थी
भी कुछ ऐसी ही। इसीलिए उन्होंने ऐसा कहा। इस पर कुछ और बातें हुईं और जैसी
कि मेरी आदत हैं मैंने उनकी बात मान ली। तब से मेरा रुख उनके प्रति बदला।
इसीलिए आना-जाना जो बन्द था वहाँ फिर जारी हो गया। फिर तो सन 1929 ई. की
गर्मियों के बाद एक प्रकार से सदा के लिए बन्द हो गया। इसकी कहानी आगे
मिलेगी। सन 1926 और 1929 के बीच के 3 वर्षों तक मैं उनकी बात पर विश्वास
करके उन्हें बहुत नजदीक से देखता रहा।
अस्तु, सभापति चौधरी साहब पटना आये। उनका शानदार स्वागत हुआ। सभा स्थान खूब
सजा-धजा और लम्बा-चौड़ा था। लोग आश्चर्य में भी थे और खुश भी थे। मगर मुझे
तो पुरोहिती वाली बात की फिक्र थी। कवीन्द्र बाबू से सूद के साथ बदला
चुकाना था। इसीलिए उसी में लगा था। ईधर पटना में कवीन्द्र बाबू की नातेदारी
होने और बिहार के अन्य जमींदारों से निकट का सम्बन्ध रहने के कारण वे भी
पूरी तैयारी में थे। मुझे यहाँ तक पता चला कि टेकारी के महाराज कुमार श्री
गोपाल शरण सिंह के पास ऐसी झूठी खबर भेजी गयी थी कि आपके विरुद्ध सभा में
प्रस्ताव लाया जायेगा। क्योंकि उनकी शिकायतें बहुत फैली थीं। इस प्रकार
उनसे कहा गया कि रेलगाड़ी में हजारों आदमी भेजिये कि मौके पर आपके पक्ष में
वोट दें। उधर पटना के धारहरा गाँव में उनके लड़के की शादी होने के कारण वहाँ
के जालिम जमींदारों ने अपने किसानों के दल के दल सभा में आने के लिए तैयार
किये। सबका एक ही मतलब था कि पुरोहिती वाले प्रस्ताव के विपक्ष में वोट
दिलाया जाये। इतना ही नहीं। स्वयं कवीन्द्र बाबू ने ऐसी घोषणा की कि
खलीलाबाद के बचन के अनुसार राजा चन्द्रेश्वर प्रसाद नारायण सिंह से साठ
हजार रुपये का कागज लिखवाकर ला रहा हूँ और महासभा को उसे सौंप दूँगा। शर्त
केवल एक ही होगी कि पुरोहिती वाला प्रस्ताव गिर जाये।
सुना था कि तलवार के बल से धर्म का प्रचार पहले होता था। लोभ दिलाकर लोग
पथभ्रष्ट किये जाते थे। मगर उसका ज्वलन्त दृष्टान्त सामने आया। फिर भी उनकी
एक न चली। अन्त में वे विफल मनोरथ हुए। बात यों हुई कि सभा के एकाध दिन
पहले से ही उत्तर बिहार से हजारों हजार लोग रेल से, पैदल, नाव से आने लगे।
ताँता बँधा गया। उनसे जो ही पूछता कि कहाँ आये हैं और क्या करने, उसे साफ
जवाब देते कि भूमिहार ब्राह्मण सभा में आये हैं पुरोहिती का प्रस्ताव पास
करवाने! ये बातें सुनते-सुनते, कवीन्द्रबाबू के दल में खलबली और आतंक छा
गया। उनने सोचा कि, दस-बीस हजार या जितने आ रहे हैं सभी का एक ही मन्त्र
हैं पुरोहिती। फिर तो खुली सभा में मुँह की खानी होगी। इसलिए सुलह की बात
उन्होंने सोची। खैर, बाबू रामदयालु सिंह ने, जो मेरे पत्र के समर्थक थे,
पर, जिन पर उनका भी विश्वास था, समझौते की बात मान ली और एक ऐसा प्रस्ताव
बनाया जिसमें मेरी सभी बातें थीं। बल्कि जितना मैं चाहता था उससे ज्यादा
थीं। यह प्रस्ताव दूसरे दल को भी स्वीकार था। अन्त में वही पेश हुआ और बिना
वाद-विवाद के ही सभापति की ओर से पास कर दिया गया। वे लोग डरते थे कि
वाद-विवाद में मामला और भी बेढब हो जायेगा। इसलिए धीरे से पास करवा लेने
में ही खैरियत समझी गयी। ताकि कोई सुने, कोई न सुने। मैंने भी मान लिया। इस
प्रकार पुराना झमेला खत्म हो गया और महासभा की मुहर पुरोहिती पर लग गयी।
चौधरी साहब ने अपने भाषण में भी इसका समर्थन बहुत सुन्दर ढंग से किया था।
इसके बाद तो उसका काम ऐसा बढ़ा और लोगों की अपने ही दल के पुरोहितों की माँग
इतनी बढ़ी कि यदि मेरा 'कर्मकलाप' न होता तो बड़ी कठिनाई होती। लोगों को
निराशा होती जिसका परिणाम बुरा होता। बेशक, इस अधिक माँग के सिलसिले में
कुछ लोग समाज में ऐसे भी निकल आये जिन्होंने पुरोहिती के नाम पर लोगों के
नये जोश से अनुचित लाभ उठाया, उठाना चाहा। मगर यह अनिवार्य था। कुछ समझदार
लोगों ने मुझसे यह भी कहा कि आपने मूर्खों और स्वार्थियों को जमने का यह
मौका देकर गलती की। एक ऐसा दल तो पहले से ही जमा था। अब आपने उसकी जगह एक
वैसे ही दूसरे को जम जाने का मौका दे दिया। हम तो पहले दल को उखाड़ना चाहते
थे। खैर, वह तो उखड़ा या उखड़ने लगा। मगर ये नये लोग तो न उखड़ सकेंगे।
क्योंकि इनका नया दावा हैं। क्योंकि इनकी नयी जरूरत आपने पैदा कर दी हैं।
मैंने उन्हें उत्तर दिया कि जिन लोगों ने वंश परम्परा से गद्दी नशीन पुराने
लोगों को उखाड़ फेंका वही नये लोगों को भी न रहने देंगे, यदि ये नालायक हुए।
यहाँ तो ''बुढ़िया के मरने की बात नहीं हैं यम का रास्ता जो खुल गया।''
इसीलिए यकीन रखिये, जिन लोगों ने शालग्राम को भून दिया उन्हें बैंगन भूनने
में देर न लगेगी। पुराने लोग यदि शालग्राम थे, तो नये लोग (पुरोहित) बैंगन
हैं। बहुत जगह ऐसा ही हुआ भी और नये पुरोहित जी को हटाकर लोगों ने स्वयं
अपनी पुरोहिती कर ली! इस प्रकार मेरी बात सच निकली!
(शीर्ष पर वापस)
(18)श्री सीतारामाश्रम-क्रान्ति का प्रतीक
प्रसंगवश यहीं पर मैं एक महत्त्वपूर्ण बात कह देना चाहता हूँ। यद्यपि क्रम
के हिसाब से सन 1927 ई. की घटनाओं के अवसर पर ही इसे कहना चाहिए। तथापि
उपयुक्त अवसर यही हैं। उस अवसर पर यह मजा न आयेगा। मैं पहले कही चुका हूँ
कि आत्मसम्मान की भावना एवं पुकार ने ही मुझे भूमिहार ब्राह्मणों के
सामाजिक कार्य में कुछ समय के लिए घसीटा। उसमें कोई प्रति हिंसा, स्वार्थ
या तुच्छ राजनीति की भावना न थी। केवल गिरे या यों कहिये कि बलात गिराये
गये समाज को उठाना था और उसमें आत्मगौरव की रूह फूँकनी थी जो बहुत अंशों
में खत्म हो चुकी या हो रही थी। मैंने किताबें पढ़ के राजनीति, यहाँ तक कि
उग्र राजनीति भी, नहीं सीखी हैं। इसका मुझे या तो मौका ही न मिला, या इसमें
मेरी प्रवृत्ति ही नहीं हुई। मैं तो धीरे-धीरे आगे बढ़ा हूँ। मेरे अनुभवों
ने ही मेरे गुरु, शिक्षक और पुस्तकों का काम दिया हैं। बेशक, स्वभावत: मेरी
प्रवृत्ति बराबर अग्रसर होने की थी। आज भी हैं। मगर एकाएक अन्धकाराच्छन्न
राजनीतिक दुनियाँ में कूद कैसे जाता? हाँ, यदि बचपन से कुछ ऐसी शिक्षा मिली
होती या ऐसा संसर्ग रहा होता, तो शायद एकाएक राजनीति में कूद सकता था। मगर
सो तो था नहीं। 25-30 वर्ष की उम्र तक की मेरी दुनिया तो कोरी धार्मिक और
दार्शनिक थी। सो भी कट्टर सनातन धर्म की। फलत: संसर्ग भी ऐसे ही लोगों का
रहा जो राजनीति को जानते तक न थे। वे तो उलटे ऐसे कार्यों के सख्त दुश्मन
होते हैं। ऐसी दशा में स्वभाव के जोर मार पर भी, अन्य उपयुक्त साधनों के
अभाव में, अनुभव प्राप्ति के बल पर ही एकाएक सीढ़ीं चढ़ते-चढ़ते ऊपर बढ़ सका
हूँ। लेकिन इतना कह सकता हूँ कि बराबर आगे बढ़ता रहा हूँ यह प्रक्रिया बराबर
जारी हैं। इसलिए बिहार के एक अखबार नवीस को, जो मेरा सख्त समालोचक हैं और
मुझे जली-कटी सुनाने में लगा ही रहता हैं, एक बार स्वीकार करना पड़ा था कि
''स्वामी जी चाहे और कुछ हों या न हों, मगर निरन्तर आगे बढ़ने वाले जरूर
हैं, Swami is nothing if he is not progressive.”
जो लोग मेरी इस कमी को, जिसे साधनों की कमी कह सकते हैं, मगर जिसे मैं
कदापि कमी नहीं मानता, नहीं जानते कि राजनीतिक पुस्तकों के पढ़ने का मौका
मुझे नहीं मिला, वह मुझे ठीक-ठीक समझने में भूल करते हैं। वे तन्मूलक
भ्रान्त समालोचना भी कर बैठते हैं। लेकिन अनुभवों के सहारे आगे बढ़ने का
सुन्दर परिणाम यह हुआ हैं कि मेरा आधार मजबूत हुआ हैं और पीछे जाने की
सम्भावना रह नहीं गयी हैं जिसका बहुत बड़ा खतरा राजनीति में रहता हैं।
हाँ, तो जब पुरोहित दल ने ईधर आ के सीधा तथा असहयोग शुरू किया और इस प्रकार
भूमिहार ब्राह्मणों को और फलत: मुझे भी बलात झुकाना एवं गिराना चाहा, तो
मैंने निश्चय कर लिया कि ऐसा होने न दूँगा। इसी के फलस्वरूप पुरोहितों के
तीव्र आन्दोलन की बात पहले कही गयी हैं। मैंने सोचा कि पुरोहितों के
विरुद्ध क्रान्ति या बगावत कर देना ही ठीक हैं। बस, क्रान्ति का झण्डा
मैंने बुलन्द किया।
इसी बीच यह भी खबरें आयीं कि काशी में तथा अन्य जगह भी भूमिहार ब्राह्मणों
को संस्कृत पढ़ाना बन्द सा हैं। जानकर तो कोई नहीं पढ़ाता। यों अनजान में कोई
भले ही पढ़ा ले। इसी को यों कहते सुना कि इन्हें संस्कृत पढ़ाना साँप को दूध
पिलाना हैं। इसका साफ अर्थ था कि सारे पुरोहित समाज ने बड़ा भारी षडयन्त्र
कर लिया था कि वे लोग कहीं भी संस्कृत पढ़ने न पायें। फिर देखें, अपनी
पुरोहिती, अपने श्राद्ध-विवाहादि कैसे कराते हैं। यहाँ तक हालत थी कि यदि
स्वतन्त्र संस्कृत पाठशालाएँ खुलवाकर उनके लिए पण्डित ढूँढ़े जाते तो या तो
मिलते ही न थे और अगर बड़ी मुश्किल से अधिक वेतन पर मिलते भी तो पाठशाले में
ही गड़बड़ी करते थे। भूमिहार ब्राह्मणों के बच्चों को या तो वहाँ भी ठीक-ठीक
पढ़ाते ही न थे, या ईधर-उधर की बातें करके उन्हें संस्कृत पढ़ने से विरक्त कर
देते थे।
ऐसी दशा में मेरे सामने भारी समस्या थी। वह पहाड़ की तरह खड़ी थी, मुझे उसे
या तो हल करना था या विरोधियों के सामने झुकना था। यह हल केवल कर्मकलाप के
लिखने से आंशिक रूप में ही हल हो सका था। पूर्णतया हर्ज होना तो अभी बाकी
ही था। ऐसी दशा में बगावत का झण्डा कैसे ऊँचा हो यह सोचना पड़ा। श्री
सीतारामाश्रम, विहटा, पटना उसी सोच-विचार और चिन्ता के फलस्वरूप मेरी इस
क्रान्ति के प्रतीक के रूप में ही स्थापित किया गया। यही कारण हैं, कि जेल
में बैठे-बैठे भी उसी की चिन्ता मुझे बनी हैं, कारण, उसके साथ इस प्रतीक
होने के नाते ही स्वभावत: मेरी अपार प्रीति हैं। हालाँकि अब इसके लिए विशेष
रूप से कुछ करता-धरता नहीं। क्योंकि न तो ऐसा करने का अवसर ही मिलता और न
अब ऐसी जरूरत ही समझता हूँ जैसा कि पहले उसके लिए करता था। फिर भी क्रान्ति
का वह प्रतीक बराबर कायम रहे, वह झण्डा बराबर उड़ता रहे यह तो चाहता ही हूँ।
बात यों हैं कि जब मैं सन 1926-27 में इसी चिन्ता में निमग्न था कि किस
प्रकार सफलता के साथ इस बगावत का झण्डा खड़ा करूँ तभी पटना के एक वकील पं.
रामबहादुर शर्मा ने, जो मेरी इस वेदना को उस समय बखूबी समझते थे, एक दिन
अचानक सन 1927 ई. की गर्मियों में मुझसे मिलकर कहा कि विहटा (राघवपुर) में
एक परमहंस जी रहते हैं। उनका नाम श्री सीताराम दास हैं। उनका एक बाग और
उसमें मकान वगैरह हैं। वह भूमिहार ब्राह्मण हैं। वह वृद्ध हैं और चाहते हैं
कि मृत्यु से पूर्व उन सब चीजों को किसी ऐसे आदमी को सौंप दें जो वहाँ
ब्रह्मचर्याश्रम बनाकर भूमिहार ब्राह्मणों के बालकों को वेद, शास्त्रदि पढ़ा
सके। उन्होंने कहा कि उनके पास प्राय: दो सह्त्र रुपये भी हैं। वे उन्हें
भी सौंपने को तैयार हैं। फिर क्या था? सहसा मेरी आँखें चमक उठीं, जो चाहता
था वही मिला। मैं तो चाहता ही था कि एक ब्रह्मचर्याश्रम खोलकर सैकड़ों को
संस्कृत के प्रौढ़ विद्वान और वेद वेदांग-पारंगत बनाऊँ। जहाँ तक पण्डित मिल
सकें उनसे काम लूँ। नहीं तो स्वयं भी पढ़ाऊँ। तभी तो पुरोहितों के आक्रमण और
असहयोग का ठीक उत्तर दिया जायेगा। बस, मैं राजी हो गया। शीघ्र ही परमहंस जी
से मिलने की बात हुई। तारीख भी ठीक हो गयी कि कब मिला जाये। पं. रामबहादुर
शर्मा तथा एक फोटोग्राफर के साथ मैं एक दिन विहटा जाकर मिला भी। बातचीत भी
हो गयी। उस समय का मेरा और परमहंसजी का एक सम्मिलित फोटो मौजूद हैं। हाँ,
यह बात ठीक याद नहीं कि फोटो पहली ही बार लिया गया या पीछे से, मगर लिया
गया जरूर।
परमहंस जी से कई बार बातें हुईं। अन्त में तय पाया कि सारी जायेदाद को एक
पंचायत के हवाले कर दें और एक पंचायतनामा (trust deed) लिख दें। यही हुआ
भी। सर गणेशदत्ता सिंह वगैरह नौ आदमियों की एक पंचायत कायम करके उसी के नाम
से लिखा-पढ़ी और रजिस्टरी हो गयी। पंचायत में मेरा और पं. रामबहादुर शर्मा
का भी नाम हैं। उसमें साफ-साफ लिखा गया कि ब्रह्मचर्याश्रम खोला जायेगा
जिसमें केवल भूमिहार ब्राह्मणों के लड़कों को ही खर्च दिया जायेगा और वही
पढ़ाये जायेगे। एक मन्दिर बनाने की भी बात उसमें लिखी गयी। मगर मैंने उनसे
और दूसरों से साफ कह दिया कि यदि अन्य लोग चाहें तो ठाकुरबाड़ी बनवा दें।
मुझे उज्र न होगा। मगर मैं तो सिर्फ ब्रह्मचर्याश्रम के ही चलाने और बढ़ाने
की कोशिश करूँगा, हुआ भी यही। मन्दिर तो किसी ने बनवाया नहीं। हाँ, आश्रम
चला, आज भी जारी हैं। उक्त परमहंस जी की यादगार में ही मैंने उसका नाम श्री
सीतारामाश्रम तय करवाया, क्योंकि उनका नाम सीताराम दास था। परमहंस जी के
पास पैसे तो थे जो ईधर-उधर पड़े थे, कुछ हैंण्डनोट आदि भी थे। मगर उन्होंने
एक कौड़ी भी न दी, उनके मरने पर वह रुपये यों ही जहीं-तहीं रह गये। वह इतने
सीधे थे कि इतना भी न समझ सके कि लिखा-पढ़ी कर दें तो मरने के बाद वसूल हो
जायेगे। वह समझते थे कि लोग दे ही देंगे। मगर देता कौन हैं?
उस समय तो उतना नहीं, बीच में बहुत ज्यादा और आज भी लोग मेरे ऊपर कटाक्ष
करते हैं कि मैं तो हृदय से जातिवादी और भूमिहार ब्राह्मणों का पक्षपाती
हूँ। इसमें पुराने आन्दोलन के अलावे आश्रम का ही सबूत देते हैं कि उसमें
सिर्फ भूमिहार ब्राह्मणों के ही लड़के क्यों पड़ते हैं और उन्हें ही खर्च
क्यों मिलता हैं। जबकि मैं ही उसका अध्यक्ष और सर्वेसर्वा हूँ।
लेकिन ऐसे लोग कई बातें भूल जाते हैं या जानबूझ कर भुला देते हैं। कुछ लोग
तो वे बातें जानकर ही यह आक्षेप करते हैं। आन्दोलन का रहस्य तो मैं बता ही
चुका हूँ। रह गयी आश्रम की बात। सो तो ऐसी ही हैं कि उसमें पढ़ने की मनाही
किसी के लिए भी नहीं हैं। सर्यूपारियों और कान्यकुब्जों के लड़के भी पढ़ते
हैं। हाई स्कूल के और दूसरे कितने ही बनिये या दूसरे लड़के जब चाहते हैं
वहाँ के पण्डितों से पढ़ जाते हैं। खुशी से पण्डित लोग पढ़ा देते हैं। अत:
पढ़ने में कोई भेदभाव नहीं हैं।
रह गयी खर्च की बात। सो तो जिस परिस्थिति में वह आश्रम खुला और पंचायतनामे
में जो शतें लिखी गईं उन पर ध्यान देने पर अनिवार्य हैं। परिस्थिति उस समय
ऐसी थी कि दूसरी बात लिखी जा सकती नहीं थी और पंचायतनामे के विरुद्ध मैं अब
कुछ कर सकता नहीं।
मेरे सर्वेसर्वा होने की बात तो निराधार हैं। ठीक हैं कि प्रबन्ध और अर्थ
संग्रह अधिकांश मैंने ही बराबर किया हैं। फिर भी सर्वेसर्वा तो पंचायत
(trustees) ही हैं। मैं तो उन्हीं का नियत किया गया प्रबन्धक मात्र हूँ।
जिस समय चाहें वे मुझे वहाँ से हटा दे सकते हैं और पंचायत से भी निकाल सकते
हैं। पंचायत (ट्रस्ट) का तो कानून ही ऐसा हैं। लोगों को यह कहाँ मालूम हैं
कि यद्यपि आश्रम को राजनीति से कोई ताल्लुक नहीं, तथापि मेरी राजनीति और
किसान आन्दोलन के करते मुझे स्वयं डर बना रहता हैं कि मुझे भी वहाँ से
हटाने की कोशिश ट्रस्टी लोग कहीं कर न बैठें। क्योंकि आज भी उन ट्रस्टियों
में बहुमत ऐसे लोगों का ही हैं जो किसी न किसी कारण से मेरे विरोधी हैं।
बहुतेरे तो बड़े जमींदार हैं या उन्हीं के पिट्ठू। इसीलिए मैं आश्रम को
साक्षात रूप से राजनीति में जानबूझकर पड़ने नहीं देता। यह ठीक हैं कि मुझे
हटाना टेढ़ी खीर हैं। फिर भी वैसा वे लोग कर सकते हैं, अगर मौका पा जाये।
फलत: मेरी दिक्कतें बढ़ सकती हैं।
फिर भी जब लोगों ने बार-बार मुझसे ये सवाल किये तो मैंने कहा और घोषणा भी
कर दी कि उस आश्रम में तो दूसरे दलों के लड़कों को ट्रस्ट के नियमों के
अनुसार खर्च नहीं मिल सकता। मगर, अगर आक्षेपकर्त्ता लोग कोशिश करके कुछ धन
एकत्र करें तो उसमें मैं भी सहायता कर दूँगा। फिर तो उसी धन से उस आश्रम का
परिशिष्ट दूसरा आश्रम उसी से मिला हुआ खोलकर सभी जातियों को खर्च देने का
प्रबन्ध करवा दूँगा। पढ़ना तो उसी में होता ही और पीछे भी होगा। मगर यह करता
हैं कौन? हालाँकि मेरी यह घोषणा आज भी ज्यों की त्यों बनी हैं और मैं तैयार
हूँ।
लेकिन मैं अकेला ही वह काम करूँ यह तो असम्भव हैं। एक तो अब फुर्सत ही
नहीं। जब उसके ही लिए अब धन संग्रह करना असम्भव सा हो रहा हैं और पहले ही
किये गये प्रबन्ध से जैसे-तैसे चल रहा हैं, तो नये के लिए क्यों और कैसे
संग्रह करूँ? पहले के लिए जो कारण थे वह तो दूसरे के लिए हैं भी नहीं कि
उसी ख्याल से पड़ जाऊँ। बेशक, यदि किसी और जाति या दल के साथ उसी प्रकार के
आत्मसम्मान का सवाल आज भी होता और तदर्थ वेदवेदांग पढ़ना जरूरी होता तो मैं
खामख्वाह वैसा काम आज भी कर देता। लेकिन सो तो हैं नहीं। तब उसमें क्यों
पड़ईँ? यह भी तो सोचना चाहिए कि दूसरों के लिए तो हजार जगहें हैं, जहाँ,
खाना, कपड़ा, मकान वगैरह भी मिलता हैं और पढ़ाने वाले भी हैं। मगर भूमिहार
ब्राह्मणों के लिए तो दरवाजा बन्द ही था जब आश्रम शुरू किया। आज भी तो
थोड़ी- बहुत गड़बड़ी चलती ही रहती हैं।
यदि मैथिल, सर्यूपारी आदि पण्डित आश्रम में रहेंगे तो फिर भी खटपट और गड़बड़ी
चलेगी जैसा कि और जगह हुई हैं। इसलिए सोचा गया कि आश्रम में केवल भूमिहार
पण्डित ही रखे जाये। ऐसा ही हुआ। वैयाकरण, ज्योतिषी, वैदिकत पण्डित मिल गये
भी। फिर भी मुझे समय-समय पर पढ़ाना भी पड़ता था, खासकर न्याय या अन्य दर्शन।
लेकिन उसमें कोई राजनीतिक बातें कभी न आयी। फलत: जातीय पक्षपात की दृष्टि
से सोचने का अवसर ही कहाँ आया। और अगर कोई राजनीति अप्रत्यक्ष रूप से रही
हैं या हैं तो केवल किसान और मजदूर सभा की। गुप्त जाँच करके कोई भी पता लगा
सकता हैं।
आश्रम के कितने ही मददगार भूमिहार ब्राह्मणों ने जो सभी मिलाकर साल में
हजारों रुपये देते थे, आज केवल इसीलिए न सिर्फ वह चन्दा ही बन्द किया और
कराया हैं, वरन वे इस आश्रम के जानी दुश्मन हो गये हैं। इनमें से कितने ही
तो उसके पड़ोस में ही रहते हैं। यह इसीलिए हुआ कि उनके जुल्मों से कराहने
वाले ग्वाले और दूसरे किसान मेरे पास आये और मैंने उनका पक्ष लेकर
जमींदारों के विरुद्ध एक तूफान खड़ा किया। आज कोई भी आसपास में जाकर जाँच ले
कि पीड़ित लोगों का, चाहे वह किसी जाति और धर्म के हों, मेरे ऊपर और इसीलिए
आश्रम पर भी पूरा विश्वास हैं या नहीं। फिर जातीयता का प्रश्न वहाँ क्यों
उठेगा?
वह आश्रम एक तो क्रान्ति का प्रतीक होने से मुझे प्रिय हैं। दूसरे किसान
आन्दोलन को लेकर जब जमींदार रंज हुए और उन्होंने खुद चन्दा देना बन्द किया
और दूसरों का भी, जहाँ तक हो सका बन्द करवाया, ताकि अर्थाभाव से वह आश्रम
ही टूट जाये, तो मैंने तय कर लिया कि न तो जमींदारों के पैसे लेने किसी को
कहीं भेजूँगा और न आश्रम को टूटने दूँगा। जमींदारों के मद को इस प्रकार चूर
करने के लिए मैंने तय कर लिया और उनकी तनिक भी परवाह नहीं की। हाँ, जो
जमींदार स्वयं चन्दे दे जाये उसका चन्दा लौटाया नहीं जाता। मगर जमींदारों
के पास चन्दे के लिए अब किसी को भी नहीं भेजता हूँ। फिर भी गृहस्थों और
किसानों की सहायता से वह चलता ही हैं और चलता ही रहेगा। सैकड़ों रुपये से
ज्यादा अभी भी मासिक व्यय होता हैं। इसलिए उसके साथ मेरा और भी प्रेम और
ममत्व हो गया हैं।
आश्रम के प्रति जमींदारों के विरोध ने मुझे यह भी प्रत्यक्ष बताया कि जातीय
सभाएँ और जाति और धर्म के नाम पर दिये जाने वाले दान का क्या अर्थ होता
हैं। इन सभाओं को धनिक और चलते-पुर्जे लोग अपने हाथ के खिलौने बना कर रखते
हैं और समय-समय पर कुछ पैसे देकर अपनी जमींदारी, अपना व्यापार और अपना
प्रभुत्व दृढ़ कर लेते हैं। न कि परलोक या उपकार के लिए कुछ भी करते हैं।
'किसानों के फँसाने की तैयारियाँ' नामक पुस्तिका में मैंने इसी अनुभव का
सविस्तर वर्णन किया हैं।
पहले जो चन्दे से पैसे आते थे उनमें कुछ न कुछ हर साल बचते थे। चन्दे के
लिए मैं प्रत्यन भी अधिक करता था। मैंने जो चार-पाँच पुस्तकें लिखी हैं
उनकी बिक्री के भी चार-पाँच हजार रुपये आश्रम फण्ड में ही जमा हैं। इस
प्रकार सब मिलाकर प्राय: सोलह हजार रुपये आश्रम के नाम से कई आदमियों के
पास जमा हैं और कुछ रैयती जमीन लेने में लगा दिये गये हैं। इस प्रकार छ:
रुपये सैकड़े सालाना सूद और जमीन की पैदावार से कुल मिलाकर प्राय: सौ रुपये
प्रति मास आ जाते हैं। अलावे चन्दे से थोड़ा-बहुत रुपया और गल्ला मिल ही
जाता हैं। सभी पुस्तकें मैंने आश्रम को सौंप दी हैं। उनकी बिक्री के भी कुछ
पैसे आ जाते हैं। 'लोक-संग्रह' पत्र निकालने के समय जो प्रेस लिया था पीछे
उसे चौबीस सौ रुपये में पं. यमुनाकार्यी जी के जिम्मे कर दिया और उन रुपयों
की किस्त कर दी। फलत: कुछ रुपये उस तरह आ जाते हैं। इस प्रकार काम चलता
रहता हैं। कोई विशेष यत्न मुझे न तो करना पड़ता हैं और न इसके लिए मेरे पास
अवकाश ही हैं। जरूरत भी नहीं हैं।
इतना कह सकता हूँ कि आश्रम के लिए मैंने सब कुछ किया हैं सही। फिर भी उसका
न तो एक पैसा और न एक छटाँक अन्न कभी अपने जानते अपने लिए खर्च किया हैं।
आगे भी ऐसा ही विचार हैं। पुस्तकों के पैसे में से भी एक कौड़ी अपने काम में
पहले भी नहीं लगाई। अब तो पुस्तकें आश्रम की सम्पत्ति बना दी गई हैं।
(शीर्ष पर वापस)
(19)एक दु:खद घटना
सन 1926 ई. के ही अन्त में कौंसिलों का चुनाव होने को था। स्वराज पार्टी के
नाम से कांग्रेस के लोग चुनाव लड़ने वाले थे। कांग्रेस के नाम से तो कर नहीं
सकते थे। ऐसा ही दिल्ली का समझौता हुआ था। लेकिन कम से कम बिहार में उस
चुनाव में जो-जो अनर्थ हुए वे कभी भूलने को नहीं। भीतर ही भीतर गुटबन्दी
थी। कांग्रेस के प्रमुख लोग जाति पाँति की बात भीतर ही भीतर करते थे। खुल
के तो कर सकते नहीं थे। वही चुनाव नहीं, उसके बाद भी आज तक कितने चुनाव हुए
हैं उन सबों के अनुभव से मैं कह सकता हूँ 'गुस्ताखी माफ हो' कि अधिकांश
बिहारी राष्ट्रवादी नेता भीतर ही भीतर जातिवादी भी हैं। ठीक भी हैं।
राष्ट्रीयता और जातीयता में बहुत ही कम अन्तर हैं। जाति छोटी हैं और
राष्ट्र बड़ा। बस, इतना ही अन्तर हैं। यह भी ठीक हैं कि 'ठगठग मौसेरे भाई'
के अनुसार प्राय: सबों का अपनी-अपनी जाति के पक्षपात में सट्टा-पट्टा भी लग
जाती हैं। इसीलिए कोई किसी को कुछ भी खुल के कहता नहीं। इसीलिए उस बार भी
कुछ ऐसी ही बात देखने में आयी।
मुझे तो पहले इसका पता न था। लेकिन पीछे मैंने देखा कि सर गणेशदत्ता से कुछ
कायस्थ लोग बुरी तरह खार खाते थे। यह बात आज भी हैं। कुछ लोग तो ऐसे हैं।
जो भूमिहार ब्राह्मणों की तरक्की फूटी आँखों देख नहीं सकते। फलत: उन्हें
गिराने की पूरी कोशिश करते रहते हैं। यह भी सही हैं कि कुछ भूमिहार भी
कायस्थों या औरों को गिराने में नहीं चूकते। पहले किधर से यह बात शुरू हुई
इसका विचार बेकार हैं। लेकिन स्थिति ऐसी ही हैं। खासकर 1926 में तो थी ही।
बिहार में दुर्भाग्य से राजनीति के भीतर दो पार्टियाँ हैं, हालाँकि प्रकट
रूप से नहीं। फिर भी बड़ी मुस्तैदी से चलती हैं। एक पार्टी हैं कायस्थ,
राजपूत, मैथिल, ग्वाला, कुर्मी आदि की जो भूमिहारों के खिलाफ हैं। दूसरी
हैं भूमिहार और राजपूतों की जो कायस्थों के विरुद्ध हैं। कुछ भूमिहार
मुसलमानों को मिलाकर भी कायस्थों आदि का जवाब देना चाहते हैं। भीतर ही भीतर
यह पैंतरेबाजी खूब चलती हैं। राजपूतों में दो दल हैं, एक कायस्थों के साथ,
दूसरा भूमिहारों के साथ। यह हमारे लिए, प्रान्त के लिए और मुल्क के लिए बड़ी
बदकिस्मती की बात हैं। मगर साथ ही साथ यह बात हैं। इसे कोई ईमानदार आदमी
इन्कार नहीं कर सकता, यदि वह भीतरी बात जानता हैं। यों तो बाहरी प्रमाण इस
बारे में देना आसान नहीं।
इसी के अनुसार 1926 में कौंसिल के उम्मीदवार चुनने में कांग्रेसी लीडरों ने
भूमिहार ब्राह्मणों के साथ अन्याय किया। पं. धनराज शर्मा जैसे पक्के
कांग्रेसियों को न चुनकर ऐसों को चुना जिनसे कांग्रेस का कोई नाता नहीं था
और जो पहले कांग्रेस के शत्रु थे। कुछ ऐसी ही बात और भी हुई। सर गणेशदत्ता
कहीं से भी चुने न जा सके इसकी भी पूरी बन्दिश की गई। श्री नन्दन बाबू
(छपरे वाले) जिला कांग्रेस कमिटी के उप सभापति थे। पर, उन्हें न लेकर ऐसे
सज्जन को लिया गया जिनकी योग्यता यही थी कि वह कुछ बड़े लोगों के सम्बन्धी
ठहरे। उनके बारे में और भी शिकायतें पीछे पाई गईं। कम से कम मुझे इसी
प्रकार की बातें कही गईं। मेरे सामने ऐसा ही चित्र खड़ा किया गया क्योंकि उस
समय भीतरी बातें जानता न था।
दुर्भाग्य या सौभाग्य से कहिये, लेकिन मैं तो इसे अब दुर्भाग्य ही मानता
हूँ, कि उस समय सर गणेश के साथ मेरा मनमुटाव, जैसा कि बता चुका हूँ, कुछ
समय के लिए हट चुका था। कभी-कभी मेरा आना-जाना भी उनके डेरे पर हो जाता था।
एक दिन जो मैं सवेरे ही पहुँचा तो कुछ कांग्रेसी, कुछ जमींदार और अन्य
भूमिहार ब्राह्मण सर गणेश के साथ बैठे यही बातें कर रहे थे। करम का मारा न
जानें मैं क्यों पहुँच गया। लोगों ने मुझे खामख्वाह रोक के यह चुनाव वाली
दास्तान सुनाई। मैं तो कुछ जानता न था। मैं था अपरिवर्तनवादी। साथ ही ऐसी
गन्दी बातों से सदा अलग रहा। मैं तो राजनीति केवल कांग्रेस की ही चीज मानता
था। फिर जानता कैसे ये बातें? मुझे विश्वास भी न था कि कांग्रेस के बड़े-बड़े
लीडर कभी जातीय पक्षपात या द्वेष की बात उसमें लायेंगे। मैं उन्हें ऐसी
बातों से बहुत ऊपर मानता था।
सच बात तो यह कि मैं समझ भी न सकता था कि कांग्रेस में जातिपाँति की बात
कैसे लाई जा सकती हैं। सो भी जहाँ बड़े से बड़े त्यागी हैं। इसीलिए उन लोगों
ने बार-बार मुझे समझाने और विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया। कुछ कांग्रेसी
भी वहाँ थे। उनकी बात सुनकर विश्वास होने लगा। साथ ही आश्चर्य भी हुआ। पीछे
तो ऐसी बातें बताई गईं कि विश्वास होई गया। फिर तो मैंने साफ कह दिया कि
अच्छा, तो मैं इसमें आप लोगों का साथ दूँगा और उन लोगों की नीचता का
भण्डाफोड़ करूँगा। वे लोग बहुत ही प्रसन्न हुए। जैसा मेरा स्वभाव हैं मुझे
इस कपट और पक्षपात पर कांग्रेसी लीडरों के ऊपर बड़ा क्रोध हुआ। उसी का वह फल
था कि मैंने वचन दे दिया। यह बात चारों ओर फैल गई। कांग्रेसी लोगों को कुछ
घबराहट भी हुई जरूर।
मगर मुझे तो छिपाना न था। इसीलिए जब एक दिन स्टीमर पर बैठा बेगूसराय जाने
के लिए पहलेजा घाट जा रहा था तो स्टीमर पर ही कांग्रेस के एक चलता-पुर्जा
लीडर मिले। वे इस तुम्बाफेरी में बहुत रहते हैं। उनकी यह बात सभी जानते
हैं। वे इसीलिए बदनाम भी हैं। उनने पूछा कि कहाँ चले महाराज! मैंने उत्तर
दिया कि कांग्रेस में बैठ के आपने जो बेईमानी और पक्षपात किया हैं उसी का
भण्डाफोड़ करने। फिर तो वे चुप हो गये। मैंने उस चुनाव में तीन जगह खुल के
स्वराज्य पार्टी का विरोध किया और जी जान से काम किया। फलत: श्री नन्दन
बाबू और सर गणेशदत्ता सिंह चुने भी गये, हालाँकि मेरा ज्यादा जोर श्री
नन्दन बाबू के ही जितवाने में था।
यद्यपि यह चुनाव कांग्रेस के नाम में न था किन्तु स्वराज्य पार्टी के नाम
में। एक बात और थी। उस चुनाव में पंजाब केसरी लाला लाजपत राय और पं.
मदनमोहन मालवीय ने भी स्वराज्य पार्टीं का विरोध किया और स्वतन्त्र
राष्ट्रीय दल के नाम से वह चुनाव वे लोग लड़ते रहे। उसी दल में श्री नन्दन
बाबू वगैरह भी शामिल थे। तथापि आज तो मैं मानता हूँ कि वह तो एक प्रकार से
कांग्रेस की ही ओर से चुनाव था और स्वराज्य पार्टी का विरोध कांग्रेस का ही
प्रकारान्तर से विरोध था। मैं तो अब यह भी मानता हूँ कि मैंने गलती की।
क्योंकि राजनीति का और दुनियाँ का भी पूरा अनुभव उस समय मुझे था नहीं।
कांग्रेस के लीडरों को भी ठीक-ठीक समझ न सका था। अगर आज वैसी बात होती तो
मैं कदापि विरोध नहीं करता। ऐसी बातें तो राजनीति में हुआ ही करती हैं।
गांधीजी के आने या कहने से राजनीति का दूषित रूप बदल थोड़े ही गया हैं। ईधर
तो मैंने 1926 से भी गई-गुजरी बातें इस चुनाव में पाई हैं। फिर भी अलग ही
रहा हूँ, या कांग्रेस की मदद की हैं।
इसलिए जिस आधार पर मैंने वह विरोध किया था वह कच्चा था। राजनीति में उसका
ख्याल कभी नहीं करना चाहिए। हाँ, सिद्धान्तों की बात हो तो उसका विचार होना
चाहिए। मगर वे सिद्धान्त बहुत ही ऊँचे हों, आर्थिक और सामाजिक हों,
क्रान्ति के समर्थक या विरोधी हों। तभी उनके अनुसार समर्थन या विरोध करने
का अधिकार हो सकता हैं। सो भी बहुत सोच-विचार कर। खुशी की बात यही हैं और
सन्तोष भी मुझे इसी से हैं कि उसके बाद फिर कोई दूसरा मौका ऐसी भूल करने का
नहीं हुआ। हालाँकि अनेक साथियों को जो क्रान्ति और रेवोल्यूशन की बातें
करते हैं, ऐसी बातें कभी छिप के और कभी प्रकट रूप से बराबर करते देखा हैं।
ये अवसर मुझे विचलित न कर सके, यह मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ।
सन 1926 ई. की दो और घटनाएँ प्रसंगवश संक्षेप में बता के आगे बढ़ईँगा। इन
दोनों का सम्बन्ध इस दु:खद घटना से साक्षात नही हैं। असल में जाति-पाँति की
चिल्लाहट मचाने और धर्म की दोहाई देने वाले धनियों एवं उनके समर्थकों के
संसर्ग से ही मुझे इस शोचनीय घटना का शिकार होना पड़ा और उन्हीं से उन
घटनाओं का भी सम्बन्ध हैं। जैसे उस घटना के सम्बन्ध में मैंने अनेक बातें
देखीं और सीखीं, ठीक उसी तरह ये बातें भी सामने आयीं।
एक तो 1926 वाली भूमिहार ब्राह्मण सभा के पण्डाल की ही हैं। मेरी ही बगल
में धारहरा के राय बहादुर बाबू चन्द्रधारी सिंह सिर पर चन्दन (भस्म) लगाये
बैठे थे। उन्होंने मुझे एक बार कहा कि आप संन्यासी हैं। आपको तो काशी रहना
चाहिए। मैं चुप रहा कि बूढ़े आदमी से क्या बोलूँ। फिर वह दुबारा यही बात
कहने लगे। मैं पुनरपि चुप रहा और सोचने लगा कि इस आदमी को तमीज नहीं। मुझे
धर्म सिखाने की हिम्मत करता हैं। हालाँकि इस धर्म के ढोंग के पीछे इसका
भौतिक स्वार्थ हैं। क्योंकि एक तो इसने देखा कि पुरोहिती के मामले में इसी
के सम्बन्धी श्री कवीन्द्र नारायण सिंह ने मुँह की खाई हैं। दूसरे यह स्वयं
पहले दर्जे का जुल्म अपनी जमींदारी में करता हैं, ऐसा सभी कहते हैं। तब तक
तीसरी बार उनने फिर वही बात ज्यों ही निकाली कि मैंने साफ सुना दिया कि
आपको शर्म नहीं आती? किससे बातें करते हैं? मैं आपसे अपना धर्म सीख नहीं
सकता। फिर तो बेचारे एकाएक सटक गये। इन धनियों की अजीब खोपड़ी होती हैं। यह
सबों को एक ही तराजू पर तौलना चाहते हैं। और हैं वह तराजू पैसे का।
दूसरी घटना का ताल्लुक भी उस सभा से ही हैं। यह पहला ही मौका था कि सरकार
का बागी उसका सभापति था और यह पहला ही अवसर था जब सभी अमीर, गरीब एक ही सतह
में बिछे एक ही प्रकार के बिछौने पर बैठे थे। सभापति के सिवाय किसी भी और
के लिए ऊँची या खास जगह न थी। हो भी क्यों? वह तो जातीय सभा थी और जाति के
नाते तो सभी बराबर हैं। फिर कोई ऊँचे और कोई नीचे क्यों बैठे? यह भेदभाव
क्यों? इस प्रकार लड़कर मैंने सभा में समानता और गणतन्त्र ला दिया था।
लेकिन बाबुओं के लिए यह जहर की घूँट थी, ज्वलन्त अपमान था कि साधारण लोगों
के साथ एक ही बिछौने पर बैठें। वे लोग मर से गये थे और लाठी से पिटे, पर
लोहे के पिंजड़े में बन्द काले नाग की तरह भीतर ही भीतर फू-फू कर रहे थे।
लेकिन आखिर करते क्या? बस सभा समाप्त होते ही उन लोगों का प्रस्ताव हुआ कि
जो लोग साल में बारह रुपये दें वही इसके मेम्बर और प्रतिनिधि हो सकते हैं।
अब तक केवल एक ही आना चन्दा था। इस प्रकार गरीबों को और जनता को सभा से
निकालकर फिर उसे अपना गढ़ बनाने की बात वे लोग करने लगे।
मैंने कहा कि यह नहीं हो सकता। हो भी क्यों? तब कहा गया कि राजा, महाराजे,
धनी और गरीब सब बराबर बैठते हैं। किसी की इज्जत नहीं रह गई। मैंने कहा कि
इसके लिए सभा को एकमात्र धनियों की चीज बनाने का यह द्रविड़ प्राणायाम क्यों
किया जाये? दर्शकों के चन्दे हजार-पाँच सौ से लेकर पचास-पचीस रुपये तक रख
दीजिए। उसी के अनुसार कुर्सियों, गद्दों आदि का प्रबन्ध कर दिया कीजिए। जो
जितना ज्यादा रुपये देगा वह उतने ही आराम से बैठेगा। ऐसा तो कांग्रेस में
भी होता ही हैं। इतना सुनते ही वे लोग चुप हो गये। इस प्रकार उनकी कलई
मैंने खोल दी और देख भी ली।
जातीय सभाएँ पहले तो सरकारी अफसरों को अभिनन्दन पत्र देने और राजभक्ति का
प्रस्ताव पास करने के लिए बनी थीं। इस प्रकार कुछ चलते-पुर्जे तथा अमीर लोग
जातियों के नाम पर सरकार से अपना काम निकालते थे। अब जमाना पलटने से यदि वह
न हो सके तो चुनावों में उनकी मदद से वोट तो मिलना ही चाहिए। मुझे खुशी हैं
कि हमने भूमिहार ब्राह्मण सभा के जरिये दोनों कामों का होना बन्द कर दिया।
सन 1929 ई. की गर्मियों में मुंगेर में तो उसे दफना ही दिया। ताकि 'रहे
बाँस न बाजे बाँसुरी'। फिर भी कुछ लोग यदि मेरे ऊपर जातीय पक्षपात का दोष
लगाते हैं तो मैं उन्हें रोकने में असमर्थ हूँ।
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