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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-5

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा

 पूँजीवादी क्रान्ति और सर्वहारा क्रान्ति

1
अब तक के विवेचन से यह बात साफ नहीं होती कि किस दशा में कौन-सी क्रान्ति की जरूरत होती हैं। यह भी पता नहीं चलता कि आया सभी क्रान्तियों की कभी न कभी जरूरत होती हैं, या कि इनमें किसी खास से ही काम चल जाता हैं। यह मामला इतना गहन और पेचीदा हैं कि थोड़ा लिखने से समझ में आता नहीं। इसका तो विस्तृत विवेचन किये बिना काम चली नहीं सकता। आमतौर से राजनीति के जो नये विद्यार्थी हैं वह तो घोर जंगल में फँस के राह भटक से जाते हैं और उन्हें कुछ पता चलता ही नहीं कि दरअसल बात क्या हैं। और जब इस बात की सफाई हुई ही नहीं तो आगे बढ़ने का सवाल ही कहाँ रहा? इसीलिए और आगे जाने के पहले कुछ खास बातें जान लेना जरूरी हैं।
अंग्रेजी में जिसे बरूज्वा रेवोल्यूशन, डेमोक्रेटिक रेवोल्यूशन, बरूज्वा डेमोक्रेटिक रेवोल्यूशन और अग्रेरियन रेवोल्यूशन कहते हैं उसे ही पूँजीवादी क्रान्ति, जनतन्त्र या गणतन्त्र क्रान्ति, पूँजीवादी जनतन्त्र क्रान्ति और किसान क्रान्ति नाम दिया गया हैं। बरूज्वा कहते हैं सम्पत्तिजीवी या पूँजीवादी को, पूँजीपति को। डेमोक्रेसी के मानी हैं जनतन्त्र या गणतन्त्र शासन-यानी लोगों की राय से चलनेवाली हुकूमत (अग्रेरियन का मतलब हैं कृषि या खेत, जमीन या किसानों से ताल्लुक रखनेवाली) इस प्रकार इन नामों के देखने से इतना तो जाहिर हो ही जाता हैं कि इस क्रान्ति में पूँजीवादियों की आवाज रहती हैं-उनका स्वार्थ इससे सिद्ध होता हैं। या यों कहिये कि वस्तुओं के पैदा करने, बनाने और बेचने का-खरीद-बिक्री और उत्पादन का-तरीका इस क्रान्ति के फलस्वरूप वही होता हैं जो पूँजीपतियों का होता हैं। साथ ही, शासन में शासितों की राय ली जाती हैं, यह बात भी स्पष्ट हो जाती हैं। इस क्रान्ति में किसानों का जमीन सम्बन्धी सवाल भी हल होता हैं यह भी जान पड़ता हैं। उन्हें जमीनें मिल जाती हैं और उनकी दूसरी माँगें पूरी होती हैं।
इसी प्रकार अंग्रेजी में जिसे प्रोल्तारियन या सोशलिस्ट रेवोल्यूशन कहते हैं उसी का नाम सर्वहारा क्रान्ति हैं। प्रोल्तारियत (Proletoriat) कहते हैं सर्वहारा को। सर्वहारा के मानी हैं जिसका सब कुछ खत्म हो गया हैं, जो सब कुछ छिनवा या गँवा चुका हैं। जो मजदूर कल-कारखानों में, रेल वगैरह में या कोयले वगैरह की खानों में काम करते हैं, मगर जिनके पास सिवाय अपने शरीर या श्रमशक्ति के या स्त्री-बच्चों के और कोई सम्पत्ति नहीं रह गयी हैं, वही सर्वहारा कहे जाते हैं। न तो उनके रहने का अपना मकान या झोंपड़ा होता हैं, न इंच भर जमीन होती हैं, न कोई औजार-हथियार होते हैं और न कोई पूँजी होती हैं। किन्तु अगर कमाएँ तो खाएँ, नहीं तो भूखों मरें, किराये के मकानों से भी हटा दिए जाये, या मिलवाले अपने मकानों से जिन्हें जब चाहें हटा दें, जिनकी नौकरी का भी ठिकाना नहीं होता कि कब तक रहेगी और कब छिन जायेगी, पूँजीपति जब चाहें जिन्हें जवाब दे दें, वही दरअसल सर्वहारा कहे जाते हैं। उनको तनख्वाह भी जो मिलती हैं उसे रोजाना तनख्वाह (daily wage) कहते हैं। वह प्रतिदिन, प्रति सप्ताह, प्रति पखवारा या प्रति मास भी मिलती रहती हैं, जैसा कि कारखानों वालों को अनुकूल हो। उनकी तनख्वाहें भी मामूली होती हैं। असल में तनख्वाह या वेतन या पारिश्रमिक की जगह अंग्रेजी में वेज (wage) और सैलरी (salary) शब्द आते हैं। इनमें दूसरा शब्द तो निश्चित वेतन को कहता हैं। मगर वेज का अर्थ हैं अनिश्चित वेतन। आम तौर से यही मानी लगाया जाता हैं। यों तो अकसर दोनों शब्द एक ही मानी में बोले जाते हैं। इसलिए 'वेज' पानेवाला ही प्राय: प्रोल्तारियत या सर्वहारा कहा जाता हैं। ऐसे लोग ज्यादातर शारीरिक काम ही करते हैं। यों तो प्रोल्तारियत का जो अर्थ बताया हैं उसमें दिमागी काम करनेवाले आ ही जाते हैं।
असल में सैलरी पानेवालों की खास ढंग की वर्दी (uniform) भी काम के अनुसार ही रहती हैं। मगर 'वेज' वालों की यह बात नहीं होती। इसीलिए सैलरी पानेवाले लोग बाबू भी कहे जाते हैं। वह लोग टुटपुँजिये बाबू दल (petty bourgeois) में आ जाते हैं। उनके कामों की प्रतिष्ठा भी होती हैं। मगर कोयला काटने, इंजन चलाने, मिल में सूत कातने और कपड़ा बुनने वालों को कौन पूछता हैं? यही कारण हैं कि बाबू लोग प्रोल्तारियत के भीतर आने पर भी अपना एक अलग ही दल समझते हैं। कपड़ा-लत्ता साफ हैं; मकान भी जरा साफ-सुथरा हैं; वर्दी भी तड़क-भड़क वाली हैं। तब अपनी एक अलग जाति-अपना अलग वर्ग-क्यों न मानें? आँफिसों के अर्दली लोग भी चमकीली वर्दी पहनने और साइकिल वगैरह पर चलने के बाद अपने को साधारण मजदूरों से अलग ही समझते हैं। उनके भीतर भी शान आ जाती हैं। फिर बाबुओं का कहना ही क्या? मगर मैला कुचैला कपड़ा पहननेवाले कुलियों और ड्राइवर वगैरह की तो यह बात होती नहीं। उनमें न तो शान हैं और न वे अपने को मजदूरों से जुदा मानी सकते हैं।
जो लोग कभी कल-कारखानों में काम करते और कभी घर रहते या खेती बारी करते हैं वे मजदूर तो हैं। मगर उन्हें सर्वहारा नहीं कहते। वे अर्ध्द सर्वहारा (Semi-proletariat) भले ही कहे जाते हैं। खेती के मजदूर या मेहनत करके जैसे-तैसे गुजर करनेवाले गरीब किसान भी अर्ध्द मजदूर (अर्ध्द सर्वहारा) कहे जाते हैं। हाँ, जो घर-बार के बिना होने पर भी भीख माँगते या चोरी वगैरह से गुजर करते हैं वे भी प्रोल्तारियत या सर्वहारा न हो के लम्पन प्रोल्तारियत
(Lumpen-proletariat) कहे जाते हैं। क्योंकि वे अपनी श्रमशक्ति (मेहनत करने की ताकत) पैसे के लिए बेचते नहीं। मगर प्रोल्तारियत तो बेचते हैं। सर्वहारा श्रेणी का सबसे बड़ा कष्ट यह होता हैं कि उसकी नौकरी का-जीविका का-कोई निश्चय नहीं रहता हैं। आज हैं, कल छिन गयी। अभी हैं, दूसरे क्षण में छिन गयी। उनके काम की इज्जत भी नहीं की जाती हैं, हालाँकि दरअसल लोगों के आराम की चीजें वही लोग मर-खप के तैयार करते हैं। यही कारण हैं कि सर्वहारा भीतर-ही-भीतर वर्तमान समाज, सामाजिक व्यवस्था और सरकारी कायदे-कानून से जलता और कुढ़ता रहता हैं। वह चाहता हैं कि इसे कब खत्म कर दें-मिटा दें-जहन्नुम में पहुँचा दें।
इसीलिए असली क्रान्तिकारी वही होता हैं। उलटफेर और बुनियादी रद्दोबदल से उसका कुछ बिगड़ने वाला तो रहता नहीं। उसके पास हुई क्या जो नष्ट होगा? हाँ, उसकी गरीबी, गुलामी, भूख, बीमारी आदि आपदायें बची जरूर हैं-उसकी बेड़ियाँ और जंजीरें ही तो रह गयी हैं ! वही खत्म होंगी। लेकिन यह तो वह चाहता ही हैं। इसीलिए कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो के अन्त में मार्क्स ने लिखा हैं कि ''सर्वहारा लोगों के पास हैं ही क्या जो गँवाया जायेगा सिवाय (पराधीनता और मुसीबत की) जंजीरों के? हाँ, उनके जीतने के लिए तो सारी चीजें हैं, दुनिया हैं।'' फिर उन्हें क्रान्ति के लिए उतावलापन न हो के हिचक क्यों हो? वे तो ख़ामखाह क्रान्ति का स्वागत करने को सदा तैयार रहेंगे ही।
हाँ, किसानों, कलाकारों, दस्तकारीवालों, दुकानदारों या इसी तरह के दूसरे लोगों के पास, जो निम्न-मध्यम श्रेणीवाले (petty bourgeoisie) कहाते हैं, थोड़ी बहुत सम्पत्ति रहती हैं। और नहीं तो एक झोंपड़ा और उसके इर्द-गिर्द की जमीन ही रहती हैं। इसीलिए उन्हें हमेशा यह डर बना रहता हैं कि कहीं यही गायब न हो जाये। वे हमेशा अपनी नन्ही-सी सम्पत्ति बचाने की फिक्र में रहते हैं। उन्हें वर्तमान की चिन्ता नहीं हैं। किन्तु भविष्य की। भविष्य में, अगले क्षण में, आज ही, या कल, परसों, जानें कब वह सम्पत्ति चौपट हो जाये, वह खेत और झोंपड़ा, दुकान वगैरह खत्म हो जाये, इसीलिए वे परेशान रहते हैं। उनके लिए भविष्य अन्धकारमय हैं, किन्तु वर्तमान वैसा नहीं हैं। उन्हें भविष्य की चिन्ता जितनी हैं उतनी वर्तमान की नहीं। इसीलिए वे दकियानूस और क्रान्ति विरोधी हैं। बल्कि वे तो चाहते हैं कि जो बड़े-बड़े खेत (फार्म) बन गये हैं और बड़े-बड़े कारखाने खुल गये हैं वह सब-के-सब टूट जाये और उनकी जगह पर फिर छोटे-छोटे खेत और कारखाने बन जाये। वह बीते जमाने को फिर वापस लाना चाहते हैं। इसीलिए वे प्रतिक्रान्तिवादी हैं।
लेकिन सर्वहारा तो वर्तमान की ही चिन्ता रखता हैं। उसके लिए भविष्य तो प्रकाशमय हैं। वह वर्तमान को ही मिटाना चाहता हैं। वह पुराने जमाने को-भूत को-लाना भी नहीं चाहता हैं। वह बड़े-बड़े कारखानों और खेतों को मिटाने के बजाये उनकी और तरक्की चाहता हैं। सारांश, जहाँ किसान वगैरह भूत और भविष्य की ही तरफ नजर रखते, फिक्र रखते हैं तहाँ सर्वहारा भूत को भूलकर केवल वर्तमान की चिन्ता करता हैं। उसे भविष्य के लिए खुशी ही खुशी हैं। इसीलिए मैनिफेस्टो में मार्क्स कहता हैं कि-
''पूँजीवादियों के विरोधी जितने वर्ग हैं उनमें केवल सर्वहारा ही सचमुच क्रान्तिकारी वर्ग हैं। मौजूदा उद्योग-धन्धों के चलते बाकी सभी वर्ग धीरे-धीरे मिटते- मिटाते अन्त में सर्वथा विलुप्त हो जाते हैं। लेकिन सर्वहारा-वर्ग तो पूँजीवाद और इन कल-कारखानों की खास और अनिवार्य उपज हैं, देन हैं।''
''निम्न-मध्यम श्रेणीवाले, छोटे मोटे कारखानेदार, दुकानदार, दस्तकार, किसान-ये सभी पूँजीपतियों से सिर्फ इसीलिए लड़ते हैं कि मध्यम वर्ग के अंग (भाग) की हैंसियत से खुद कायम रह जाये और उनकी हस्ती मिट न जाये। इसीलिए वे लोग क्रान्तिकारी नहीं हैं, किन्तु दकियानूस और पुराणपंथी हैं। इतना ही नहीं, वे तो क्रान्तिविरोधी या प्रतिगामी हैं। क्योंकि वे ऐतिहासिक चक्र को पीछे घसीटना चाहते हैं। और अगर संयोग से कभी वे क्रान्तिकारी बन जाते हैं तो सिर्फ इसीलिए कि उन्हें खतरा हैं कि कहीं वे भी सर्वहारा न बन जाये। इससे साफ हैं कि वे अपने वर्तमान की रक्षा न करके भविष्य की ही करते हैं। और अगर वे अपने को सर्वहारा के स्थान में कभी रखना चाहते हैं तो उन्हें अपने दृष्टिकोण को छोड़ना पड़ता हैं।''
बात असल यह हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था में जब-जब बड़े कारखाने खुलते हैं तो उनमें बननेवाला माल ख़ामखाह सस्ता पड़ता हैं। इसलिए छोटे-मोटे कारखानों या दस्तकारी के माल महँगे होने के कारण बाजार में खप नहीं सकते। अगर बनाने वाले ख़ामखाह खपायें तो घाटा पड़ता हैं। फलत: हर हालत में ऐसे कारखाने बन्द हो जाते हैं और दस्तकारी जाती रहती हैं। एक कपड़े का ही दृष्टान्त काफी हैं। यों तो आटा, तेल, चीनी, आदि की मिलों ने भी पुराने ढंग की चक्कियों, तेली के कोल्हुओं और चीनी के कारखानों को खत्म कर ही दिया। यही बात दूसरों पर भी लागू हैं। इन चीजों के बेचनेवाले दुकानदार भी इसी से दिवालिये हो जाते हैं। अब तो छोटी-बड़ी सभी चीजों का सामूहिक उत्पादन ही होता हैं। फिर छोटे डटें तो कैसे? इसीलिए भिखमंगे और मजदूर बन जाते हैं। यही कारण हैं कि पूँजीवादियों के घोर शत्रु वे लोग होते हैं।
उनमें काम करनेवालों और जीविका चलानेवालों में कुछ को तो बड़े कारखानों में काम मिलता हैं। शेष बेकार होकर मारे-मारे फिरते हैं। बड़े-बड़े कारखानों में भी धीरे-धीरे हर काम के लिए आदमी के बजाये मशीनें बनने लगती हैं। फलत: आदमियों की जरूरत कम होने लगती हैं। ऐसी भी तरकीब निकलती हैं कि सैकड़ों आदमियों का काम एकी-दो कर डालते हैं, जिससे बाकी बेकार हो जाते हैं। फिर तो ये सभी बड़े-बड़े मिलवालों को ही अपना शत्रु समझते हैं। तेली के हजारों कोल्हुओं को मिटा के एक तेल की मिल बनती हैं। तब वे हजार तेली और उनके आश्रित लोग उन मिलवालों को कोसें नहीं, तो क्या आशीर्वाद दें?
इस प्रकार जितने लोग बेकार हो जाते हैं उनकी कुछ आदत ही ऐसी होती हैं कि गैरों के यहाँ मजदूरी करने में हिचकते हैं। यह बात उनकी शान में बट्टा जो लाती हैं। मगर जीवन-यापन का जो साधन उनके पास था वह तो हैं नहीं। इसलिए मजबूर भी रहते हैं। बड़े फार्मों के करते नन्हे-नन्हे खेतवाले किसानों का भी दिवाला हो जाता हैं। क्योंकि उनकी पैदा की हुई चीजें नीचे दर्जे की और महँगी पड़ती हैं। फिर वे करें तो क्या करें? वे या पहले कहे गये लोग मालदार तो थे नहीं। केवल गुजर कर लेते थे। अत्यन्त गरीबों और बड़े मालदारों के बीच में ही वे लोग पहले भी थे। यही खाते-पीते लोग कहे जाते थे। आज भी वे सर्वहारा और पूँजीवादियों के बीच में त्रिशंकु या चिमगादड़ की तरह लटके पड़े हैं। न ईधर के और न उधर के हैं ! उन पर दोनों ओर से धक्के लगते हैं। कभी ईधर खिंच जाते हैं, कभी उधर! बराबर सोचते रहते हैं कि इन पूँजीवादियों का नाश हो ताकि फिर वही छोटे-छोटे खेत, वही दस्तकारी, वही टुटपुँजिये कल-पुर्जे चालू हों। वे बेचारे इतनी समझ तो रखते नहीं कि अब यह चीजें होने की नहीं। अगर उनमें कोई यह समझते हैं भी, तो पुरानी आदत, पुराने संस्कारों और पुरानी रहन से मजबूर होकर पुरानी ही बातें सोचते रहते हैं।
सर्वहारा (proletariat) और पूँजीवादी (bourgeoisie) के बीचवाले ये लोग ही टुटपुँजिये या फटेहाल बाबू, पेट्टी बरूज्वा क्लास के (petty-bourgeoisie) बाबू आज की भाषा में कहे जाते हैं। पहले के बताये आँफिसरों के अर्दली, क्लर्क, किरानी वगैरह तथा वकील, बैरिस्टर, डाँक्टर, वैद्य, हकीम, प्रोफेसर, अध्यापक, सैकड़ों प्रकार के एजेण्ट वगैरह भी इसी दल में शामिल हैं। इनका स्वभाव ऐसा होता हैं कि ऊपर की ओर, पूँजीवादी मालदारों की तरफ ही देखें। मगर जब सर्वहारा-वर्ग क्रान्तिकारी भावना से भरा होता हैं या कम-से-कम उसका अग्रदूत (Vanguard) हर तरह से क्रान्ति की सफलता के लिए तैयार रहता हैं-क्योंकि क्रान्ति की सफलता का दारोमदार उसी अग्रदूत पर ही होता हैं; वही अपने त्याग, अपनी लगन, अपनी धुन, अपनी वर्ग चेतना के बल से बाकियों को अपनी ओर खींचता हैं-तो उसके दबाव से ये लोग धनियों का साथ छोड़ देते हैं और सर्वहारा के साथ जा मिलते हैं। और ज्यों ही सर्वहारा में ठण्डक आती हैं, त्यों ही धनियों की ओर ही झुकते और दुम हिलाते हैं। खूबी तो यह कि जिधर ये जाते हैं उधर ही औरों को भी घसीटते हैं; क्योंकि पढ़े-लिखे होने के कारण इनमें बातें बनाने और सच-झूठ प्रचार की बड़ी ताकत होती हैं। साथ ही, ये बड़े ही बुजदिल और कमजोर होते हैं। इनके बारे में लेनिन ने लिखा हैं कि-
''पूँजीपतियों शोषकों के पिछलग्गू बन के निम्न-मध्यम वर्गवाला जनसमूह चलने लगता हैं। क्योंकि सभी देशों के अनुभव से यह बात सिद्ध हो चुकी हैं कि देशवासियों के इस भाग (निम्न-मध्यम वर्ग) में मजबूती (साबित कदमी) तो होती ही नहीं। कभी तो ये लोग सर्वहारा-वर्ग के साथ चलते हैं। लेकिन ज्यों ही क्रान्ति के काम में कठिनाइयाँ पेश हुईं और सर्वहारा को जरा भी रुकावट हुई कि ये लोग आतंकग्रस्त हो जाते हैं, मारे डर के बदहवास हो जाते हैं, इन्हें सूझता ही नहीं कि कहाँ जाये और बुजदिलों की तरह छाती पीटते हुए कभी ईधर, तो कभी उधर भागते फिरते हैं !''
यह चित्रण कितना सुन्दर हैं ! ऐसा तो नहीं, मगर इसी तरह का कुछ महत्त्वपूर्ण पर विस्तृत वर्णन त्रात्स्की ने भी अपने रूसी क्रान्ति के इतिहास में दिया हैं। वह लिखता हैं कि-
''किसी देश की जनसंख्या सिर्फ सर्वहारा और भारी मालदार-इन्हीं दो-श्रेणियों में बँटी नहीं होती। इन दोनों के बीच में बड़े-बड़े दल फटेहाल बाबुओं के होते हैं जिनमें राजनीतिक और आर्थिक इन्द्रधनुष के सभी रंग पाये जाते हैं। इन्हीं बीचवाले दलों को जो निराशा मौजूदा शासक वर्ग नीति के प्रति होती हैं, उनमें जो असन्तोष और जलन होती हैं और इस प्रकार सर्वहारा-वर्ग के द्वारा किये जानेवाले हिम्मतवर इनकिलाबी कामों के समर्थन की जो मुस्तैदी इनमें पायी जाती हैं, वही हैं क्रान्ति की तीसरी राजनीतिक बुनियाद। यह बुनियाद कुछ अंशों में तो अक्रिय होती हैं, जहाँ तब इसका ताल्लुक इन निम्न-मध्यम वर्गीय बाबुओं के ऊपरी तबकों को तटस्थ बना देने तक हैं। लेकिन अंशत: यह सक्रिय भी होती हैं। क्योंकि इसके चलते इसके नीचेवाले तबके मजदूरों के साथ-साथ क्रान्तिकारी युद्ध में सीधे कूद पड़ते हैं।
''यह तो साफ ही हैं कि ये तीनों राजनीतिक बुनियादें एक-दूसरे पर असर डालती हैं। जितने विश्वास और निश्चय के साथ मजदूर दल काम करेगा उतनी ही अच्छी तरह बीच के दलों को अपनी ओर खींचने में इसे सफलता मिलेगी, उतना ही अधिक शासक वर्ग तनहा और अकेला पड़ जायेगा और उतना ही ज्यादा उस शासक दल के भीतर पस्ती आयेगी। विपरीत इसके यदि शासकों में ही पस्ती आ गयी तो उससे क्रान्तिकारी वर्ग के काम में और भी उत्तेजना मिलेगी।''
''निम्न-मध्यम श्रेणी की मनोवृति ही क्रान्ति की बुनियादों में सबसे कम टिकाऊ चीज हैं। राष्ट्रीय उथल-पुथल के समय यह दल उसी वर्ग के पीछे चलता हैं न सिर्फ जिसकी बातों में, बल्कि कामों में इसे यकीन हो जाता हैं। यह ठीक हैं कि इस वर्ग में भावुकतापूर्ण उत्साह और कभी-कभी क्रान्तिकारी क्रोध भी होता हैं। मगर इसमें मुस्तैदी नहीं पायी जाती, जरा-सी प्रतिकूलता (हार) होने पर चटपट यह पस्त हो जाता हैं और इस प्रकार बहुत बड़ी आशा से एकाएक निराशा (निरुत्साह) में पड़ जाता हैं। और इस वर्ग की मनोवृत्ति में तेजी के साथ होनेवाले कटु परिवर्तन अपनी कमजोरी का असर समूचे क्रान्तिकारी वायुमण्डल में फैलाते हैं। अगर सर्वहारा दल की पार्टी (अर्थात उस वर्ग के चुने-चुनाये लोगों से बना हुआ अग्रदूत या वानगार्ड) पहले से ही इस कदर निश्चित नहीं हैं कि आम जनता की आशा-आकांक्षाओं को ठीक मौके पर क्रान्तिकारी रूप दे सके, तो उत्साह की लहर ऊपर जाने के बजाये नीचे जा गिरती हैं। फलत: बीच वाले दल (मध्यवर्गी दल) अपनी नजर क्रान्ति से फेर लेते और उसके विरोधियों की ओर अपने उद्धार के लिए ताकरनें लगते हैं। और ठीक जिस प्रकार बढ़ती हुई उमंग की लहरों के समय मजदूर दल के साथ मध्यवर्गीय बाबू खिंच आते हैं, उसी तरह उमंग मिट जाने के समय मध्यम दल वाले ही उल्टे मजदूरों के ही एक खासे हिस्से को अपनी तरफ खींच लेते हैं। गत युद्ध के बाद यूरोप में जगह-जगह जो कभी साम्यवाद और कभी फासिस्टवाद की लहर दीख पड़ती हैं उसका यही रहस्य हैं।''
कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो के उदाहरण में यह भी कहा गया हैं कि एक सर्वहारा ही पूँजीवाद की खास और बुनियादी देन और उपज हैं। दूसरे वर्ग तो धीरे-धीरे मिटते जाकर खत्म हो जाते हैं। मिटने की बात बता ही चुके हैं। बीचवाले दलों का शायद ही एकाध आदमी कभी-कभी, बड़ी दिक्कत और मेहनत के बाद पूँजीपति दल में जा मिलता होगा। मगर अधिकांश तो भिखमंगे और मजदूर ही बनते हैं। मजबूरी जो ठहरी। इस प्रकार जो दल खुद पूँजीवाद के धक्के से धाराशायी हो जाता हैं, खत्म हो जाता हैं, वह उससे क्या लड़ेगा? जिसकी कब्र पर ही उसका महल खड़ा होता हैं वह भला लड़ेगा उसी से? जिसे मार कर ही वह फलता-फूलता हैं वह उसके सामने क्यों कर टिक सकेगा?
मगर मजदूर या सर्वहारा-वर्ग तो ख़ामखाह उससे भिड़ेगा। क्योंकि पूँजीवाद के फलने-फूलने के लिए वही बुनियाद हैं। उसके बिना कल-कारखाने चलेंगे कैसे? पूँजीपति तो अपने हाथों उन्हें चला नहीं सकता। मिस्त्री, इंजिन-ड्राइवर, खलासी वगैरह का काम मालिक कैसे करेगा? उसके लिए तो यह असम्भव बात हैं। और जब एक-एक मिल में हजारों हजार मजदूर काम करते हैं तभी वह चालू रहती हैं, तो हजार कोशिश के बाद भी मिलवाला उसे अकेला ही कैसे चला सकेगा, अगर मजदूर जवाब दे दें? यही तो पूँजीपति की मजबूरी हैं और इसी में मजदूरों के लिए उम्मीद हैं।
यह भी बात हैं कि पूँजीवाले सर्वहारा को बराबर ही परेशान करते रहते हैं। यही नहीं कि उसकी नौकरी का ठिकाना नहीं रहता कि कब खत्म हो जाये, या उसकी कोई इज्जत नहीं रहती। सबसे बड़ी विपदा तो उसके लिए यह हैं कि पूँजीपति हमेशा इसी कोशिश में रहते हैं कि उसकी तनख्वाह या मजदूरी कैसे कम की जाये। यह भी नहीं कि कमी की कोई सीमा हो कि उसके आगे मजदूरी न घटेगी। वह तो बराबर घटती ही जाती हैं। कहने के लिए तो यह सिद्धान्त माना जाता हैं, और किताबों में भी लिखा गया हैं, कि कम से कम इतनी मजदूरी तो उसे मिलनी ही चाहिए जिससे उसकी श्रमशक्ति बनी रहे और बाल-बच्चे भी पैदा कर सके। ताकि उसके बुढ़ापे में या मरने पर उसका लड़का काम कर सके और मजदूरों की कमी न हो जाये। मगर व्यवहार में यह बात नहीं आती। मालदार को इसकी परवाह नहीं कि वह मरेगा या जिन्दा रहेगा। आज तो इतने लोग मारे फिरते हैं कि एक के हटने पर दस पहुँचते हैं। वे पहले मजदूर की अपेक्षा कम मजदूरी पर ही तैयार भी हो जाते हैं। इतने पर भी चढ़ा बढ़ी रहती हैं कि हमें रख लो, हमें रख लो। यह तो नर्क और मौत की जिन्दगी हैं।
यदि मजदूरी घटाने में कोई लाज-शर्म हुई या और ही अड़चन दिखी, तो काम के घण्टे ही बढ़ा दिये गये और हुक्म हुआ कि 8 के बजाये 10 घण्टे काम करना होगा। यह भी मजदूरी का घटाना ही हैं। मगर यह नई हिकमत हैं। ऐसा भी होता हैं कि नये ढंग की मशीनें मँगा के एक ही मजदूर के जिम्मे इतना काम सौंपा जाता हैं कि वह पलक मार नहीं सकता। नहीं तो काम ही चौपट हो जाये। उसकी नजर बराबर मशीन पर ही रहती हैं। फलत: उसका दिमाग रोज-रोज की इस सख्त दिमागी मेहनत के चलते बावला-सा बन जाता हैं। उसके अंग-अंग टूटते रहते हैं। वह खुद मशीन-सा बन जाता हैं। यह तीसरा तरीका उसके खून पीने का निकला हैं। चौथी बात यह हैं कि मशीनों की तरक्की इतनी हो गयी और हो रही हैं कि मर्दों की जगह औरतों, लड़कियों और लड़कों से ही काम ज्यादातर लेते हैं। यह बात बढ़ती जाती हैं। इसमें तनख्वाह कम जो देनी पड़ती हैं। फलत: मर्द बेकार हो के औरत- बच्चों की कमाई पर गुजर करते हैं ! उधर औरतों और बच्चे-बच्चियों का स्वास्थ्य चौपट हो जाता हैं। वह सभी कम उम्र में ही रोगी और मौत के शिकार हो जाते हैं !
और जब ऐसा होता हैं तो भला औरत को मर्द के साथ मुहब्बत क्या होगी, या बच्चे को बाप के साथ? वह तो उनके लिए भार बन जाता हैं। क्योंकि औरत और बच्चे ही उसे खिलाते-पिलाते हैं। यह भी होता हैं कि कभी-कभी हफ्तों माँ को फुर्सत ही नहीं मिलती कि बच्चे को आकर देखे। बच्चे की भी यही दशा होती हैं कि माँ-बाप से मिल नहीं सकता। और जब दूर-दराज के देशों में औरत-बच्चे काम के ही लिए चले जाये तो और भी बुरा होता हैं। उनका चरित्र तो चौपट हो ही जाता हैं। स्त्री, पुरुष, बच्चों में कोई पारिवारिक नाता न रह के कमाई और पैसे का ही नाता रह जाता हैं। इसका हृदय विद्रावक वर्णन एंगेल्स ने अपनी किताब 'इंग्लैंड के मजदूरों की दशा' (Working Class Condition in England) में किया हैं। मार्क्स और एंगेल्स के सम्मिलित दिमाग से जो कम्युनिस्ट-मैनिफेस्टो सन 1848 ई. में तैयार हुआ था, उसमें तो इस बात का चित्र ही खींचा गया हैं। उसमें लिखा हैं-
''जिस किसी काम को अब तक प्रतिष्ठा और रोब-दाब की नजर से देखा जाता था उसकी इस विशेषता को पूँजीवादियों ने मिटा दिया हैं। अब तो डाँक्टर, कानूनदाँ लोग, पुरोहित, कवि और वैज्ञानिक-सभी-को मजदूरी के ही लिए काम करना पड़ता हैं।
''परिवार में जो एक भावुकता का सम्बन्ध रहता था, उसे भी पूँजीवादियों ने मिटा के पारिवारिक सम्बन्ध को पैसे के सम्बन्ध में परिणत कर दिया हैं।''
''आज का पूँजीवादी समाज-जिसके भीतर उत्पादन, विनिमय और सम्पत्ति के सम्बन्ध भी आ जाते हैं, और जिसने अत्यन्त विशाल यन्त्रादि उत्पादन और विनिमय के लिए तैयार किए हैं-उस जादूगर और मन्त्र जाननेवाले जैसा हैं जिसने पहले तो अपने जादू-मन्तर से भूत-प्रेतों को वश में किया। मगर पीछे चल के वे भूत-प्रेत उसके मन्तर-यन्तर को सुनते ही नहीं और उसके वश के बाहर हो जाते हैं।
''जिस हथियार से पूँजीवादियों ने सामन्तशाही को धारासात कर दिया था, वही हथियार अब उन्हीं के खिलाफ इस्तेमाल हो रहे हैं !
''सिर्फ यही नहीं कि अपने आपको ही खत्म कर देने वाले हथियारों को ही पूँजीपतियों ने पैदा किया हैं। उनने ऐसे लोगों को भी पैदा कर दिया हैं जो उन हथियारों का प्रयोग करेंगे, और वह हैं आज के मिल मजदूर या सर्वहारा लोग।''
''मध्य युग के परम्परा प्राप्त (पैतृक) कारीगरों की नन्ही-सी दुकान को वर्तमान उद्योग व्यापार ने पूँजीपतियों की बड़ी फैक्टरी के रूप में बदल दिया हैं। वहाँ मजदूरों का समूह संगठित सिपाहियों के रूप में जमा होता हैं। उद्योग-धन्धों की फौज के सिपाहियों के रूप में वे मजदूर साजरेंटों और छोटे-बड़े अफसरों की क्रमबद्ध शृंखला के मातहती में रहते हैं। वे केवल पूँजीवादी श्रेणी और उसकी सरकार के ही गुलाम नहीं हैं। वे तो प्रतिदिन और प्रति घण्टे सबसे पहले तो खुद मशीन के ही गुलाम हैं। उसके बाद उन पर निगरानी करनेवाले अफसरों के और अकसर कारखानेदारों के भी गुलाम रहते हैं। इस तरह यह नियन्त्रण जितना ही साफ-साफ यह घोषित करता हैं कि उसका लक्ष्य और उद्देश्य हैं सिर्फ मुनाफा, उतना ही क्षुद्र, नफरत की चीज और जलन पैदा करनेवाला यह खुद बनता जाता हैं।
''मिल वगैरह के काम में जितनी ही कम चातुरी और शारीरिक श्रम की जरूरत होती जाती हैं, यानी आज के उद्योग-धन्धों का विस्तार जितना ही होता जाता हैं, उतना ही अधिक मर्दों की जगह स्त्रियों से काम लिया जाता हैं। मजदूरों में उम्र और स्त्री-पुरुष के भेद की अब कोई खास कदर रह नहीं गयी हैं। सब-के-सब एकमात्र काम करने के यन्त्र बना दिये गये हैं। फर्क इतना ही हैं कि उनसे काम लेने में उम्र और लिंग के अनुसार कम बेश खर्च पड़ता हैं।''
ऊपर बताये चित्रण ने इस बात की सफाई कर दी हैं कि मजदूर किस कदर सताये जा रहे हैं। साथ ही यह भी साफ हैं कि वे पूँजीवाद से युद्ध करने के लिए न सिर्फ फौजी ढंग से तैयार के दिये गये हैं, बल्कि उन्हें हथियार भी दे दिये गये हैं। आन्दोलन, संगठन, हड़ताल आदि ही उनके हथियार हैं। इन्हीं के द्वारा पूँजीवादियों ने सामन्तशाही को खत्म किया था और अब यही उन्हें भी खत्म करेंगे। पूँजीवाद अपने ही हथियार और अपने ही पैदा किये मजदूरों के द्वारा श्मशान यात्रा करेगा। पूँजीवाद ने ही मजदूरों को सब तरह से तैयार किया हैं। उनके बिना वह टिक सकता नहीं, रह सकता नहीं। मगर वे तो उस पर खार खाये ही बैठे हैं। इसलिए अन्तिम आक्रमण करेंगे। मगर पूरी तैयारी के बाद। वह जब तक बचा हैं तभी तक बहुत हैं। जैसा कहा जाता हैं कि ''केला, बिच्छू, बाँस-अपने जन्मे नाश''-यानी इन तीनों का नाश इन्हीं से पैदा होनेवाले ही करते हैं। ठीक यही बात पूँजीवाद के बारे में भी अक्षरश: लागू हैं।
किसान या निम्न-मध्यम वर्ग के दूसरे लोग यह काम खुद नहीं कर सकते, यह पहले ही कहा गया हैं। वे सर्वहारा-वर्ग की मदद कर सकते हैं। (मगर वह भी मदद वे खुद नहीं कर सकते, जब तक कि सर्वहारा लोग अपने ही कामों के द्वारा उन्हें अपनी ओर खींच न लें।) यह तो बताई चुके हैं। यह ठीक हैं कि निम्न-मध्यम वर्ग के कुछ लोग दिलोजान से मजदूरों में जा मिलते हैं। आजकल की भाषा में उन्हें वर्गच्युत (declassed) कहते हैं। मगर मेरा तो विचार हैं कि कहीं जन्म लेने मात्र से ही या कोई काम कर देने से ही किसी के आर्थिक वर्ग (economic class) का निर्णय नहीं होता। आज का समाज ही ऐसा हैं कि परिस्थिति वश लोग कहीं के कहीं जा पड़ते हैं। इस मामले में जन्म से जाति (वर्ग) मानने का प्रश्न भी उठता नहीं हैं और न तात्कालिक कामों से ही जाति मानने का। हमें तो इस बात का निश्चय करने के लिए मनुष्य की भीतर बनावट-स्वाभाविक झुकाव और मनोवृत्ति-पर ही ध्यान देना चाहिए। यह देखना चाहिए कि उसके सोचने-विचारने का तरीका क्या हैं। इसीलिए देखने के लिए निम्न-मध्यम श्रेणी में पैदा हो के या रह के भी वैसे लोग, जिन्हें वर्गच्युत कहते हैं, असल में सर्वहारा-वर्ग के ही हैं। इस बात का ज्यादा विचार 'किसान क्या करें' पुस्तक में हमने किया हैं। यही कारण हैं कि मजदूर वर्ग में रह के भी कुछ लोग निम्न-मध्यम वर्ग वाली मनोवृत्ति के होते हैं। उन्हें वर्गच्युत मजदूर (declassed proletariat) कहने की अपेक्षा पूर्वोक्त सिद्धान्त ही उनके बारे में भी लागू होना चाहिए।
मगर किसानों के बारे में खासतौर से कुछ जान लेना जरूरी हैं। वे हैं तो निम्न-मध्यमवर्ग के ही और स्वभावत: प्रतिगामी तथा दकियानूस भी हैं। यह तो मार्क्स और एंगेल्स के मैनिफेस्टो वाले पूर्व उदाहरण से सिद्ध ही हैं। फ्रांस के किसानों के बारे में मार्क्स ने अपनी पुस्तक 'लुई बोना पार्ट का 18वाँ ब्रुमेयर' में एक बहुत ही सुन्दर विश्लेषण किया हैं। मगर वह सर्वत्र कमबेश लागू होता हैं। वह यों हैं-
''अपने छोटे-छोटे तख्तों (खेतों) को ही जोत-बो के गुजर करने वाले किसान ही फ्रांस की जनसंख्या के अधिकांश हैं। समस्त देश में वे लोग प्राय: एक-सी ही दशा में रहते हैं। फिर भी उनका एक-दूसरे के साथ सम्बन्ध नहीं के बराबर ही हैं। उनकी खेती-बारी का तरीका उन्हें परस्पर संसर्ग में लाने के बजाये एक-दूसरे को जुदा कर देता हैं। फ्रांस में जो यातायात के साधन काफी नहीं हैं, इसीलिए और उनकी गरीबी के चलते भी उनकी यह 'अपनी-अपनी डफली, अपनी-अपनी गीत' वाली हालत और भी बदतर हो गयी हैं। उनके खेत इतने छोटे हैं कि उनमें काम के बँटवारे के लिए दरहकीकत कोई गुंजा हीश हुई नहीं और न वैज्ञानिक खेती का ही अवसर हैं। इसीलिए किसानों की अभिवृद्धि अनेक प्रकार की हो ही नहीं सकती। उनके बुद्धिविकास में भी तारतम्य नहीं होता। सामाजिक आदान-प्रदान से ताल्लुक रखनेवाली सम्पत्ति का तो नाम ही नहीं। हरेक परिवार अपने ही पर निर्भर करता हैं, अपने ही खेतों में अपनी जरूरत की अधिकांश चीजें पैदा करता हैं और इस प्रकार समाज के भीतर लेन-देन और विनिमय के बदले प्रकृति के साथ विनिमय करके ही अपनी जरूरतें पूरी कर लेता हैं। कहीं एक छोटा-सा खेत का टुकड़ा हैं और एक किसान परिवार वहीं बसता हैं। दूसरी जगह दूसरे टुकड़े पर दूसरा किसान अपने स्त्री-बच्चों के साथ रहता हैं। ऐसे ही नन्हे-नन्हे टुकड़े एक या दो कोड़ी मिला के गाँव कहे जाते हैं और इन चन्द कोड़ी गाँवों को मिला के सरकारी प्रबन्ध का एक विभाग बन जाता हैं।
''इस तरह फ्रांस राष्ट्र का बहुमत केवल एक ही प्रकार के लोगों को एक साथ जोड़ देने से तैयार हो जाता हैं, जिस तरह एक बोरा आलू का अर्थ यही होता हैं कि बहुत से आलू एक बोरे में जमा कर दिये गये हैं। किसानों के ये परिवार केवल इसी मानी में एक वर्ग या श्रेणी कहे जाते हैं कि लक्ष-लक्ष किसान परिवारों की जिन्दगी की आर्थिक हालत ऐसी होती हैं जिसे उनके जीवन-यापन का ढंग, उनके स्वार्थ और उनकी संस्कृति दूसरे वर्गों की इन्हीं बातों से भिन्न होती हैं और इस प्रकार वे कम बेश दूसरे वर्गों के विरोधी बन जाते हैं। लेकिन अगर देखा जाये कि इन परिवारों के आपसी ताल्लुक सिर्फ खानदान तथा वंश परम्परा के ही होते हैं और इनके स्वार्थों की एकता सम्मिलित रूप से प्रकट नहीं होती, फिर चाहे वह राष्ट्रीय संस्थाओं के द्वारा हो या राजनीतिक संस्थाओं के द्वारा, तो मानना होगा कि सचमुच इन किसान परिवारों का कोई वर्ग हुई नहीं। इसीलिए अपने वर्ग के स्वार्थों को वे अपनी ओर से दावे के साथ पेश नहीं कर सकते-न तो पार्लिमेण्ट के ही द्वारा और न अपनी कांग्रेस के ही जरिये। वे खुद अपना प्रतिनिधित्व कर नहीं सकते। उनका प्रतिनिधित्व किसी और को करना ही होगा। मगर उनका प्रतिनिधि जो होगा उसे उनकी नजरों में उनका मालिक और शासक भी होना चाहिए, जिसका उन पर अधिकार हो, जिसका शासनाधिकार निरंकुश हो, जो दूसरे वर्गों से उनकी रक्षा कर सके और जो उनके लिए आसमान से धूप और पानी भी दिलाये। परिणामस्वरूप किसानों का राजनीतिक प्रभाव ऐसी ही शासक संस्था के द्वारा प्रकट होता हैं जो अपनी स्वच्छन्द मर्जी के नीचे समाज को दबाये रहे।''
मार्क्स का यह किसान-चित्रण हैं तो उन्नीसवीं सदी के मध्य में रहने वाले फ्रांसीसी किसानों का। मगर अधिकांश में उन सभी किसानों पर भी लागू होता हैं जो पिछड़े हुए मुल्कों में रहते हैं, जहाँ पूँजीवादी ढंग से खेती नहीं होती। भारत के किसानों में अधिकांश की मनोवृत्ति, उनकी रहन-सहन, उनकी विचारधारा ऐसी ही होती हैं। यों तो फ्रांस में भी कहीं-कहीं के किसानों को क्रान्तिकारी बताया गया हैं और मार्क्स ने खुद इसी चित्रण के बाद ही लिखा हैं कि जाग्रत और समझदार किसानों की मनोवृत्ति क्रान्तिकारी होती हैं। मगर वे अपवाद हैं। किसान वर्ग का सामान्य वर्णन यही हैं। वह वर्ग प्रतिगामी और दकियानूस होता हैं, यह ठीक हैं।
हाँ, इस दकियानूसीपन में तारतम्य जरूर हैं। असली सवाल हैं कमाने और भूख का। जो जितने ही गरीब हैं और इसीलिए जिन्हें जितनी ही ज्यादा कमाई करनी पड़ती हैं, लेकिन फिर भी जिनकी भूख शान्त हो नहीं पाती और न मोटी जरूरतें ही पूरी होती हैं, वह उतने ही क्रान्ति के नजदीक होते हैं-क्रान्तिकारी होते हैं। उनकी बेबसी उन्हें क्रान्ति की तरफ बलात् घसीटती हैं। इसीलिए मार्क्स और एंगेल्स ने मध्यम किसानों से क्रान्ति में मदद की उम्मीद जाहिर की हैं। लेनिन ने बार-बार जो मेहनत करनेवाले, गरीब और अत्यन्त गरीब किसानों का जिक्र क्रान्ति तथा सर्वहारा के एकतन्त्र शासन (proletarian dictatorship) के सम्बन्ध में किया हैं और उनके साथ सर्वहारा-वर्ग की मैत्री पर जोर दिया हैं उसका भी यही मतलब हैं। उन्हीं को अर्ध्द सर्वहारा (semi-proletarians) कहने का भी यही आशय हैं।
अतएव यह सिद्ध हैं कि क्रान्ति का नेतृत्व किसान हर्गिज नहीं कर सकते। वे सिर्फ उसमें मददगार बन सकते हैं। यही वजह हैं कि दूसरी क्रान्ति को किसान क्रान्ति न कह के सर्वहारा क्रान्ति या प्रोल्तारियन रेवोल्यूशन कहते हैं। बल्कि पूँजीवादी क्रान्ति को ही किसान क्रान्ति
(Agrarian revolution) कहा जाता हैं। इससे भी यही सिद्ध होता हैं कि किसान बरूज्वा वर्ग का ही हैं, कम से कम उसका प्रसिद्ध स्वार्थ बरूज्वा से ही मिलता हैं। यह दूसरी बात हैं कि वह पेट्टी बरूज्वा (फटेहाल बाबुओं) के स्वार्थ से ही मिले।
अब केवल एक ही बात और कह के इस बात को पूरा करेंगे और आगे बढ़ेंगे। हमने अब तक प्रोल्तारियन रेवोल्यूशन का मोटा-मोटी अर्थ समझाया हैं। उस पर विशेष प्रकाश तो आगे डालेंगे। लेकिन रह गया हैं, सोशलिस्ट रेवोल्यूशन (समाजवादी विप्लव)। सर्वहारा क्रान्ति का ही नाम समाजवादी क्रान्ति भी हैं। रूस में जो अक्टूबर सन 1917 ई. में क्रान्ति हुई थी, जिसे नवम्बर की क्रान्ति भी कहते हैं, उसे ही लेनिन ने अपने लेखों में कहीं प्रोल्तारियन रेवोल्यूशन और कहीं सोशलिस्ट रेवोल्यूशन कहा हैं। एक या दो बार नहीं, किन्तु सैकड़ों बार यह बात आयी हैं। असल में सर्वहारा क्रान्ति के बाद ही सोशलिज्म या समाजवाद का अवसर आता हैं, न कि पूँजीवादी क्रान्ति के बाद ही। इसीलिए सर्वहारा क्रान्ति को ही समाजवादी क्रान्ति भी कहते हैं। जब तक सर्वहारा के हाथ में शासन सूत्र न आ जाये और किसानों के साथ उनकी घनिष्ठ मैत्री के आधार पर सर्वहारा लोगों का एक तन्त्र शासन कायम न हो जाये तब तक सोशलिज्म के लिए गुंजा हीश होगी कैसे? रह-रह के पूँजीवादी सिर उठाते ही रहेंगे। इसीलिए मुल्क से पूँजीवाद को मटियामेट करना होगा, जड़मूल से उखाड़ फेंकना होगा। तभी समाजवाद का बीज बोया जा सकेगा। खेत में दूसरी जड़ें रहने पर कोई भी बीज उगता ही नहीं, उगने पर भी फलता-फूलता ही नहीं। इसीलिए तो लेनिन ने साफ ही लिखा हैं कि-
''सर्वहारा क्रान्ति तब तक हो ही नहीं सकती जब तक बल प्रयोग पूर्वक पूँजीवादी शासन का यन्त्र तहस-नहस करके उसकी जगह नया शासन यन्त्र खड़ा किया न जाये।''
लेनिन के आशय की स्पष्टता इससे ज्यादा क्या हो सकती हैं? सोशलिज्म के प्रतिद्वन्द्वी कैपिटलिज्म (पूँजीवाद) शासन के ढाँचे को नष्ट कर देने से ही तो रास्ता साफ हो जाता हैं। बेशक, बहुतेरे ऐसे माननेवाले भी हैं जो पहली या गणतन्त्र क्रान्ति को ही आखिरी ध्येय मानते हैं। वह तो यहाँ तक कह डालते हैं कि सर्वहारा का एकतन्त्र भी जरूरी नहीं हैं। जनतन्त्र क्रान्ति के बाद ही धीरे-धीरे शान्ति से ही समाजवाद स्थापित हो सकता हैं। उनकी बुद्धि पर हमें तरस आता हैं और हँसी भी आती हैं। पता नहीं, उन्हें कुछ आता हैं या नहीं।


2
अब हमें पूँजीवादी क्रान्ति और सर्वहारा क्रान्ति का विवेचन करना हैं। जब ऐसा करने चलते हैं तो जान पड़ता हैं कि पूँजीवादी क्रान्ति कुछ ऐसी चीज होगी जिसमें पूँजीवादियों का ही बोलबाला होगा। जिन्हें इसकी तह में घुसने और क्रान्तियों की चरम सीमा तक सोचने का मौका नहीं मिला हैं वह ऐसा ही मानते भी हैं। मगर बीसवीं सदी के शुरू होते न होते लेनिन ने दूसरी ही बात कहनी शुरू की। उसने तदनुसार ही काम भी किया। रूस में उसे उसी से सफलता भी मिली-ऐसी सफलता कि दुनिया में वह अपने ढंग की पहली ही चीज हुई। रूस में ऐसी बात हो गयी कि जिसकी किसी को भी आशा न थी। इसीलिए क्रान्ति को व्यावहारिक रूप देने में लेनिन को ही आचार्य माना जाता हैं। बाकी लोगों ने तो उसे सिद्धान्त के रूप में ही कहा और लिखा था। उसके पहले उसे पूरी तरह अमली जामा किसी ने भी पहनाया न था।
बीसवीं सदी के श्रीगणेश के पूर्व तक लोग यही मानते थे कि पूँजीवादी क्रान्ति का नेतृत्व पूँजीवादी ही करते हैं। क्योंकि वह क्रान्ति होती ही हैं पूँजीवाद के विकास के लिए। पूँजीवादी युग के पहले का युग सामन्तशाही और गुलामी का माना जाता हैं। उस युग में स्वेच्छाचारी शासन का ही बोलबाला रहता हैं। या तो मुल्क में एक ही शासक होता हैं और वह अपनी मर्जी के अनुसार ही हुकूमत करता हैं। उसपर कोई अंकुश होता ही नहीं। दृष्टान्त के लिए रूस की जारशाही को ही ले सकते हैं। रूस में जो भी जार बादशाह होते गये सबके सब स्वेच्छाचारी ही थे। और अन्तिम जार द्वितीय निकोलस का तो कुछ पूछिये मत। उसे तो खूनी जार नाम दिया गया हैं। उसके मन में जो ही आता वही कर डालता था। उसकी महारानी जारिना भी वैसी ही थी। फ्रांस के 14वें, 15वें और 16वें लुई भी ऐसे ही माने जाते हैं। इंग्लैंड का द्वितीय चार्ल्स भी ऐसा ही माना जाता हैं। यह ठीक हैं कि वह लुई और जार जैसा निरंकुश नहीं था। फिर भी उसमें भी निरंकुशता काफी थी। इंग्लैंड जैसे व्यापारी देश में सत्रहवीं सदी के मध्य में उसी के चलते मार-काट और क्रान्ति हुई। उसके प्राय: सौ वर्ष के बाद फ्रांस में भी ऐसा ही हुआ। फिर करीब सवा सौ साल गुजरने पर रूस में उसी की पुनरावृत्ति हुई।
एक निरंकुश शासक अपनी मातहती में छोटे-छोटे शासक नियुक्त रखता हैं जिन्हें सामन्तशाह (feudal lords) कहते हैं। इनके नीचे या सीधे उसी की मातहती में जमींदार, जागीरदार और साहूकार होते हैं। इनका काम होता हैं खुद भी खेती कराना और किसानों को जमीन देके उन्हें खेती में लगाना। महाजन और साहूकार मनमाने दर पर किसानों और दूसरों को कर्ज देते हैं। जमींदार और जागीरदार जमीन के बदले किसानों से न सिर्फ लगान लेते हैं, सो भी बँधा हुआ, किन्तु बेगार, नजराना, हरी, हुकूमत वगैरह के रूप में जाने कितने बेहूदे काम करते और वसूलियाँ जारी रखते हैं। कोई नियम-कानून तो होता नहीं। उनने जब जैसा चाहा किया। अपनी खेती के लिए किसानों के ही हल-बैलों से ज्यादातर काम लेते हैं। यही तो हरी हैं। रूस आदि देशों में भी क्रान्ति के पूर्व यह बात थी। जमीन पर किसानों का आधिपत्य तो होता नहीं। इसीलिए वे मजबूरन जमींदारों के अत्याचारों को बर्दाश्त करके खेती करते हैं। यही कारण हैं कि उन्हें जमीन की भूख सबसे से ज्यादा होती हैं। वह चाहते हैं कि खेती के लायक जमीनों पर उन्हीं का स्वामित्व हो।
जमींदार लोग ऐसा भी करते हैं कि गरीबों को थोड़ी-सी जमीन देके उसी में उन्हें बसा देते हैं और उन्हीं से अपनी खेती का काम लेते हैं। यह बात दूसरे मुल्कों में पहले बहुत चलती थी। खेती का काम जिनसे लेते थे उन्हें खेती के गुलाम (serf) कहते थे। फ्रांस की सन 1789 ई. वाली क्रान्ति के बाद ही वहाँ के ये गुलाम स्वतन्त्र हुए। उन्हें कामचलाऊ थोड़ी-थोड़ी जमीनें मिलीं। वे खुश हो गये, जमीन के मालिक जो बन गये। यही तो चाहते थे। इस काम में नेपोलियन बोनापार्ट का ज्यादा हाथ रहा। इसलिए फ्रांसीसी किसान उसी के भक्त थे। फ्रांस में जहाँ ज्येष्ठ बोर्बन राजवंश के हिमायती जहाँ जमींदार और उनके दोस्त थे, तहाँ ओर्लीयन्जवाली राजवंश की कनिष्ठ शाखा के हिमायती नये पूँजीवादी थे। मगर नेपोलियन ने चालाकी से किसानों को अपने साथ किया। उन्हीं को फौज में भर्ती भी किया। इसीलिए उसकी तूती बोली। क्योंकि देशवासियों में अधिकांश किसान ही थे और वे थे उसी के साथ।
रूस में यह गुलामी सन 1861 ई. की 19वीं फरवरी को जार द्वितीय अलेग्जैंडर के समय में कानून के जरिये मिटायी गयी। मगर व्यावहारिक रूप में तो वह बराबर किसी-न-किसी रूप में बनी ही रही। वह दरअसल मिटी सन 1917 ई. की क्रान्ति के बाद ही। किसानों को पूर्णत: जमीनें मिलीं उस साल की अक्टूबर वाली क्रान्ति के फलस्वरूप ही। इसीलिए रूसी किसानों ने लेनिन और उसकी बोल्शेविक पार्टी का साथ दिया। इटली और जर्मनी वगैरह मुल्कों में तो अनेक स्वतन्त्र शासक थे और उनकी मातहती में सामन्तशाही का बोलबाला था। यह सामन्तशाही भी क्रान्ति के चलते ही मिटी।
कर्ज देनेवाले साहूकार भी एक तो सूद दर सूद लेते हैं। दूसरे सूद की दर का कोई ठिकाना नहीं रहता। चाहे जितना रख लिया। यह भी नहीं कि साल में सूद न मिलने पर ही उसका भी सूद बाँध जायेगा। तीन, चार-या छ: महीनों के बाद ही सूद जोड़ के मूल में मिला देते और समूचे पर नये सिरे से सूद चालू होता हैं। गल्ले के सूद का तो कुछ पूछिये ही नहीं। वह तो चार या छ: मास में ही कहीं डयोढ़ा और कहीं दूना हो जाता हैं ! कहीं-कहीं तो असल के चार छ: गुने तक साल में सूद हो जाया करता हैं। उसका हिसाब भी ठीक लिखा नहीं जाता। जो रुपये वसूल होते हैं उन्हें भी महाजन ठीक-ठीक लिखते नहीं। कोई कानूनी बन्धन तो होता नहीं। इसीलिए जो ही चाहा किया। यही कारण हैं कि कुछी दिनों बाद कर्जदार लोग बर्बाद हो जाते हैं। उनका घर-बार, माल-मवेशी, खेती-बाड़ी महाजन ले लेते हैं। यही वजह हैं कि इन कर्जों की मंसूखी की पुकार मचती हैं। जो लोग यह काम कर देते हैं या कम से कम इस कष्ट में काफी कमी कर देते हैं किसान और शोषित लोग उन्हीं का साथ देते हैं। इसीलिए इस बात की होड़ रहती हैं कि किसानों को जमीनें किसके हाथ से मिलेंगी, सूद, कर्ज आदि के भार से उन्हें और दूसरों को मुक्ति कौन दिलायेगा और खेतीवाली गुलामी (serfdom) कौन मिटायेगा। इसमें जिसे ही सफलता मिलती हैं मुल्क का बहुमत उसी का साथी होता हैं। क्रान्ति की सफलता की यही कुंजी हैं। फिर चाहे वह पूँजीवादी क्रान्ति हो, या सर्वहारा क्रान्ति।
सामन्तशाही (feudalism) के युग में कल-कारखाने नाममात्र को ही होते हैं। छोटे-मोटे दस्तकार होते हैं और पुराने ढंग की बढ़ई, लोहार आदि की मशीनें होती हैं, करघे, चरखे होते हैं। लोग उन्हीं के जरिये अपनी जरूरत की चीजें बनाते हैं। कितना कौन-सा माल बने जिससे सबका काम चले और ''बासी बचे, न कुत्ता खाये'' वाली बात हो, इसका भी प्रबन्ध करना पड़ता हैं। नहीं तो या तो जरूरत ही पूरा न हो, या ज्यादा चीजें बनने पर बेकार सड़ती रहें और उनमें लगी पूँजी एवं श्रम-दोनों ही-बेकार जाये। ऐसा भी हो सकता हैं कि कुछी लोगों ने गुटबन्दी करके ज्यादा कपड़ा वगैरह तैयार कर लिया और धनी बन बैठे। फलत: बाकी लोग बेकाम होकर भूखों मरने लगे। इसलिए इस बात का भी अंकुश और नियन्त्रण जरूरी होता हैं। कौन माला कब, कहाँ, कैसे जाये, किस दर से बिके, यह काम भी करना होता हैं। ये सभी बातें उन कारीगरों की पंचायतें करती हैं, जिन्हें अंग्रेजी में गिल्ड (guild) कहते हैं। यह बात पहले समय में होती थी। बड़ी सख्ती से ये पंचायतें पेश आती थीं। किस कारीगर के पास कितने औजार या आदमी काम करेंगे इस बात का भी हिसाब रखा जाता था। जो न माने उसे पंचायत से निकाल देते और उसका हर तरह से बहिष्कार करते थे।
मगर आखिर दुनिया तो आगे बढ़ती हैं। मनुष्य का दिमाग पत्थर तो हैं नहीं। वह तो विकसित होता हैं। चीजों के बनाने में धीरे-धीरे तरक्की होती गयी। सस्ती और ज्यादा चीजें बनने लगीं। जहाँ पहले जरूरत के ही लिए बनती थीं, तहाँ अब बाजारों में बिकरनें लगीं। जो पंचायतों से बाहर हटे उनमें कुछ ने मनमानी तरक्की की। उनका दल देखादेखी बढ़ चला। अन्त में गिल्ड जाते रहे। कुछ चलते-पुर्जे लोगों ने सारे कारबार हथिया लिये। बाकियों को अपने यहाँ मजदूरी पर रख लिया। उन्हें काफी नफा होने लगा। इस प्रकार आज के पूँजीपतियों (bourgeoisie) के पूर्वजों का जन्म हो गया। वे स्वभावत: चाहते थे कि उनका कारबार खूब चले। कोई रोकटोक न हो, लूटपाट न हो। मगर सरकारी सहायता के बिना यह बात असम्भव थी। कानून की मदद जरूरी थी। नहीं तो निरंकुश शासक सारा मुनाफा ही छीन लेंगे। और नहीं तो वे चोर-लुटेरों को ही न रोकेंगे-उनसे न बचायेंगे और सब कमाई गायब हो जायेगी। इतना ही नहीं कारबार चलाने में सरकार की आर्थिक सहायता मिले तो पौबारह हो। कच्चा माल मिलने में और उसके तथा बने माल के लाने, ले जाने में भी सरकार की कृपा से बहुत सुविधाएँ मिल सकती हैं, किराया कम लग सकता हैं, चुंगी और दूसरे टैक्सों से पिण्ड छूट सकता हैं और अगर दूसरों के माल हमारे बाजार में न आने पायें तो हमारा माल खूब ही बिक सकता हैं। इसी तरह की हजारों बातें उस समय के पूँजीपतियों को-या यों कहिये कि भावी पूँजीपतियों को, क्योंकि उस समय वे नाममात्र के ही पूँजीवादी थे-बेचैन कर रही थीं।
इसीलिए जब उन्हें और तरह से सफलता न मिली और निरंकुश शासक उनकी बातें सुनने को तैयार न हुए तो उनने उनके शासन को मिटा देने की ही बात सोची। शासक तो अपने को अजय समझते थे। मगर जहाँ एक ओर पूँजीवादी लोग बेचैन थे, तहाँ दूसरी ओर किसान वगैरह भी सामन्तशाही के अत्याचारों से ऊबे थे। बस, यही तो सुनहला मौका था। उनने (पूँजीवादियों ने) शोषित जनता को लम्बी-लम्बी आशाएं दिलायीं, सब्जबाग दिखाये, कि वर्तमान शासकों को मिटा के उनकी जगह हमें बैठा दो। फिर तो तुम्हारी भी पाँचों अँगुलियाँ घी में होंगी। हम पलक मारते तुम्हारी माँगें पूरी कर देंगे। लोग उनकी बात में पड़ गये। उनने फौज के जवानों पर भी कुछ असर डाला। कुछ चलते-पुर्जे लोगों को भी मिलाया। इस तरह तैयारी करके मौके की ताक में रहे और अवसर पाते ही धावा बोल दिया। पुराना शासन तो जीर्ण-शीर्ण था ही। जनता के असन्तोष ने उसे भस्म कर दिया और नये शासकों-पूँजीपतियों-को उसकी जगह बिठा दिया। यही हैं पूँजीवादी क्रान्ति का संक्षिप्त रूप। यह बात सभी जगह पायी गयी हैं।
जब तक मजदूरों (सर्वहारा) का उदय नहीं हुआ था-क्योंकि नये ढंग के कल-कारखानों ने ही उनको जन्म दिया हैं-तब तक तो किसान और दूसरे लोग ही पूँजीवादियों का साथ देते रहे। मगर सन 1789 ई. में पेरिस में जो क्रान्ति हुई और जिसका सिलसिला सन 1871 ई. तक चलता रहा, उसमें सर्वहारा ने भी जम के लड़ाई लड़ी। यह ठीक हैं कि उनकी तादाद अभी ज्यादा न थी। अभी तो उनका श्रीगणेश ही हुआ था। फिर भी वे लड़े और खूब ही लड़े। वही तो आगे थे। उनने विजय के बाद एक के बाद दीगरे कोशिश भी 1871 तक बार-बार की कि उनके ही हाथ में शासन-सूत्र रहे। (सन 1871 ई. में तो 14 मार्च से 28 मई तक-72 दिनों तक-उनने सचमुच ही आदर्श शासन कायम भी किया।) जिसे पेरिस कम्यून (paris-commune) कहते हैं। उसके पहले तो उनने 1789 से 1794 तक कोशिश खूब ही की थी और कुछ-कुछ वैसा किया भी। मगर उसमें सफल न हो सके। मगर उनमें पूर्ण जागृति, वर्ग-चेतना और राजनीतिक ज्ञान न होने से ही वे सदा के लिए सफल न हो सके। फलत: पूँजीवादियों के ही हाथ में फिर हुकूमत गयी। दूसरे देशों में तो पूँजीवादियों को मजदूरोंवाली इतनी दिक्कत का भी सामना करना पड़ा और सीधे शासन-सूत्र को उनने हथिया लिया। असल में उन्नीसवीं सदी के अन्त तक मजदूरों का समय आया ही न था। वे पूरे तैयार हो सके ही न थे। इसके लिए जिन बातों की जरूरत थी वे तब तक हो न सकी थीं। इसी से वे विफल रहे। फलत: फ्रांस, इंग्लैंड, अमेरिका आदि सभी मुल्कों में पूँजीपतियों के हाथों में शासन सौंप के क्रान्ति सो गयी, खत्म हो गयी। वह आगे बढ़ न सकी।
कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में जिस बात का सजीव वर्णन हैं, जो चित्र खींचा गया हैं और मजदूरों को सफलता मिलने के लिए जो बुनियादी तौर पर जरूरी हैं उसका सम्पादन सामन्तशाही कर नहीं सकती थी। यह तो पूँजीपतियों का ही काम था कि वह बात करें। सारे संसार की कायापलट कर देना, भूमण्डल के एक छोर से दूसरे छोर को नाथ देना, यातायात और आवागमन के सभी साधन मुहैंया कर देना, सर्वहारा को पैदा करके उसे अपार संख्यावाला बनाना, उसे फौजी ढंग से शिक्षित करना और लड़ाई का अस्त्र-शस्त्र संगठन तथा हड़ताल के रूप में उसे सौंप देना-यह दूसरों की शक्ति की चीज न थी। यह तो पूँजीवादी ही कर सकते थे। जैसा कि मार्क्स ने मैनिफेस्टो में स्पष्ट लिखा हैं। ऐसा करने में उनकी मजबूरी थी। जैसे रेशम का कीड़ा अपने स्वभाव से मजबूर होके अपनी मौत का समान खुद पैदा करता हैं, ठीक यही बात वर्तमान पूँजीवादियों की हैं।
इसीलिए पूँजीवादी लोग जब गद्दी पर जा विराजे तो उनने बेशक अपनी कुछ बातों को पूरा किया, किसानों को जमीनें दीं, देने का प्रबन्ध कर लिया, गुलामी को भी मिटाया और सूदखोरी वगैरह पर नियन्त्रण किया। फ्रांस के सन 1789 ई. वाले विप्लव के बाद ही वहाँ जमींदारी जो मिटी सो फिर पनप नहीं सकी। दूसरे मुल्कों में भी कुछ इसी तरह की बातें हुईं। सिर्फ इंग्लैंड में ही जमींदारी रह गयी हैं। मगर वहाँ तो पूँजीवाद सभी मुल्कों की अपेक्षा पहले विकसित हुआ। इसीलिए वहाँ का तरीका कुछ और ही रहा। फ्रांस में किसानों के हक पूँजीवादियों ने ही दिलाये थे, दिये थे। इसीलिए किसान उन्हीं के साथी बन गये, और यही कारण हैं कि उसके बाद सन 1848 ई., या सन 1871 ई. में जब-जब सर्वहारा श्रेणी ने पूँजीवादियों की सरकार पर हमले किये तब-तब किसानों ने पूँजीवादियों का ही साथ दिया। इसी कड़वे अनुभव के बल पर रूस में लेनिन और बोल्शेविक पार्टी ने शुरू से ही किसानों को मिलाने की कोशिश की। यद्यपि उन लोगों के मत में भूमि को व्यक्तिगत सम्पत्ति न बना के राष्ट्र, या समूचे समाज की सम्पत्ति बनाना जरूरी था। तथापि शासनसूत्र हाथ में आते ही लेनिन ने पहली घोषणा करके किसानों को जमीनें दे दीं। इसी से वहाँ के किसान बराबर लेनिन के ही दल के साथ रहे। नहीं तो विरोधी हो जाते। वहाँ के पूँजीवादी इसी बात में चूक गये और हुकूमत को खो बैठे।
लेकिन पूँजीवादी क्रान्ति के बाद पूँजीपतियों का असल काम यह जमीन वगैरह का देना-दिलाना न था। उनका तो लक्ष्य था पूँजीवाद की जड़ को जमाना, उसे मजबूत बनाना और खूब फलने-फूलने का मौका देना। यही कारण था कि फ्रांस में सन 1870-71 ई. आते न आते किसानों के छोटे-छोटे खेत साहूकारों और सूदखोरों के हाथ में बन्धक हो जाने तथा किसानों की हजार तबाही के होते हुए भी उनने उनकी परवाह न की कि उन्हें सुखी बनायें। वे तो अपना ही काम बनाते रहे। मजदूरों पर तो किसानों का विश्वास था नहीं। जमींदार मिटी चुके थे और दूसरा दल था नहीं जो उन्हें फोड़ लेता। पूँजीवादियों ने पहले उन्हें जमीनें दी थीं ही। इसीलिए हर हालत में किसान उनके खिलाफ जा सकते थे नहीं। बस, पूँजीपतियों के लिए इतना ही काफी था। वे बेखटके अपनी ताकत बढ़ाते रहे। पूँजीवादी क्रान्ति ने उस समय क्या किया, या आम तौर से उसका काम बीसवीं सदी के शुरू होने के पहले तक क्या रहा, इसका सुन्दर वर्णन मार्क्स ने पूर्वोक्त पुस्तक '18वें ब्रूमेयर' में यों किया हैं-
''पूँजीवादी क्रान्ति का लक्ष्य था पूँजीवादियों को स्वतन्त्र करना और वर्तमान पूँजीवादी समाज का संगठन करना। जिस जमीन में सामन्तशाही की जड़ जमी थी उसे फ्रांसीसी क्रान्ति की जैकोबिन पार्टी ने छिन्न-भिन्न कर दिया, तथा उस पर जो जमींदार फूलते-फलते थे उनका खात्मा कर दिया। उसके बाद नेपोलियन ने समूचे फ्रांस में ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी जिसके करते व्यापार में स्वतन्त्र चढ़ा-बढ़ी फूल-फल सकी, बड़ी-बड़ी जमींदारियों को तोड़-ताड़ के जमीन की पैदावार से काफी फायदा उठाया गया और इस प्रकार देश की उद्योग-धन्धो सम्बन्धी ताकत का पूरा-पूरा उपयोग किया गया। फ्रांस के पूँजीवादी समाज के लिए उसके बाहर यूरोप में (कच्चे और पक्के माल के बाजार वगैरह के रूप में) जिस अनुकूल वातावरण की उस समय जरूरत थी उसे उसने सभी जगह सामन्तशाही को मिटा कर बना दिया।''
मानव समाज को आगे बढ़ने में जिन बातों की जरूरत होती हैं उनकी पूर्ति समय-समय पर होती रहती हैं। पूँजीवादी क्रान्ति भी उन्हीं की पूर्ति के लिए होती हैं। इसीलिए मनुष्यों की उन्नति की सीढ़ियों में एक वह भी हैं। अगर बड़े-बड़े कारखानों के खोलने में लगे रुपयों की हिफाजत और वृद्धि का इन्तजाम न कर सकें तो पूँजीवादी उनमें पैसे और दिमाग खर्च क्योंकर करेंगे? उनके माल के बिकरनें का पूरा इन्तजाम न हो और जरूरत के मुताबिक इफ़रात से रूई आदि कच्चा माल मिल सके नहीं, तो कारखाने चौपट ही हो जाये। इसलिए इसकी गारण्टी होनी चाहिए। देश-विदेश में माल भेजने या वहाँ से कच्चा माल मँगाने में भी सुविधा चाहिए। यदि दूसरे देशवाले रुकावटें डालें तो उनका जवाब देने की ताकत भी चाहिए। दूर-दराज देशों में खुले कारबार की हिफाजत का भी पूरा इन्तजाम चाहिए। अगर वहाँ कोई गड़बड़ी हो तो चटपट खबर मिले, फौरन फौज वगैरह भेजी जा सके। इसके लिए रेल, तार, बेतार के तार वगैरह का पूरा इन्तजाम चाहिए। माल के आने-जाने में भी इन साधनों की सख्त जरूरत होती हैं। मगर जब तक सोलहों आना सरकार पूँजीपतियों की न हो यह बात होगी कैसे? हरेक काम उनकी मर्जी के मुताबिक होगा कैसे? इसीलिए वे सरकार को हथियाना चाहते हैं और दूसरा उपाय न देखकर ही क्रान्ति करते हैं।
किसानों को जमीन देने या और सुविधाएँ करने के लिए जो वे लोग तैयार होते हैं वह प्रतिज्ञा-पूर्ति के लिए ही नहीं, जैसा कि पहले बताया गया हैं। असल में जमीन मिल जाने पर खूब परिश्रम करके किसान पूँजीपतियों के कारखानों की जरूरत के मुवाफिक ही रूई, जूट, ऊख वगैरह तैयार करेगा। वे उसे कर्ज या मदद देकर अपने मन-मुताबिक माल तैयार करायेंगे। और न होगा तो ज्यादा रुपये देके उसकी जमीनें खुद खरीदेंगे और लम्बे-लम्बे खेतों (फार्मों) में आधुनिक ढंग से खेती करके अपनी जरूरत भर कच्चा माल पैदा करेंगे। क्योंकि जैसे-जैसे कारखानों की तरक्की होती जाती हैं वैसे-वैसे कच्चे माल की जरूरत ज्यादा होती हैं। अन्त में हालत यह हो जाती हैं कि छोटे-छोटे खेतों की पैदावार से काम चलता ही नहीं, जब तक सामूहिक रूप से लम्बे फार्मों में रूई वगैरह कच्चा माल तैयार न किया जाये। सामूहिक रूप से पक्का माल पैदा करने के लिए सामूहिक रूप से ही कच्चा माल पैदा करना जरूरी हैं। मगर जब तक किसान जमीनों का मालिक न हो उन्हें पूँजीवादियों के हाथ बेचेगा कैसे? जमींदारों को तो गरज नहीं, और अगर वाजिब कीमत से कई गुना पायें तो शायद बेचें-मगर ऐसा करने पर तो पूँजीवाद का दिवाला ही हो जायेगा।
यही कारण हैं कि किसानों को जमीन वगैरह का हक वे लोग दिलाते हैं। इसमें उनकी अपनी गरज हैं। एक बात और भी हैं कि जमींदारों का एक दल पूँजीवाद का विरोधी रहता हैं और जिसके करते आगे भी पूँजीवादियों के रास्ते में रोड़े अटकते रहते हैं। इंग्लैंड में तो जमींदारों तथा कारखानेदारों के संघर्ष अकसर हुए हैं। एंगेल्स ने अपनी पूर्वोक्त किताब में इसका जिक्र किया हैं। मार्क्स के 'कैपिटल' के द्वितीय भाग में भी यह बात आयी हैं। इंग्लैंड में जो 'गल्ले के कानून' (Corn Low) नेपोलियन की लड़ाई के जमाने में ही बने थे उनके मंसूख कराने में भी जमींदारों और पूँजीवादियों में काफी कशमकश हुई थी। जमींदार उनकी मंसूखी नहीं चाहते थे और कारखानेदार चाहते थे। जमींदारी की शान में आकर भी वे लोग अपनी डेढ़ ईंट की मस्जिद अलग ही बनाना चाहते हैं। इसीलिए चुनावों में भी उनके करते अड़ंगे पड़ते हैं, पड़ सकते हैं। इसीलिए जमींदारी मिटाना जरूरी हो जाता हैं।
कहने का मतलब यह हैं कि पूँजीवादी लोग पूँजीवादी-क्रान्ति के बाद जो कुछ करते हैं वह उसी व्यवस्था की मजबूती के लिए। न कि किसी और मतलब से। ऊपर के विवेचन से यह भी साफ हो गया कि पूँजीवादी-क्रान्ति को किसान क्रान्ति क्यों कहते हैं। जमींदारी-प्रथा का खात्मा और किसानों की दूसरी माँगों की पूर्ति उससे होती हैं। इसीलिए उसे 'अग्रेरियन रेवोल्यूशन' भी कहते हैं। उसमें किसानों की बेड़ियाँ कटती जैसी मालूम होती हैं। उनकी छाती पर पड़ी चट्टान हटती जैसी प्रतीत होती हैं। बहुत अंशों में हट भी जाती हैं। यदि वही बरूज्वा क्रान्ति सर्वहारा के नेतृत्व में हो, तब तो किसानों का दु:ख सदा के लिए ही भाग जाता हैं और वे आजाद हो जाते हैं। सर्वहारा का स्वार्थ उनकी वास्तविक आजादी में ही जो हैं। यह बात आगे बतायी जायेगी। मगर पूँजीवादियों के नेतृत्व में यह बात हो नहीं सकती। उन्हें अपनी सामाजिक व्यवस्था कायम जो रखना हैं। फिर सोलहों आने आजादी किसानों को वे दें तो कैसे दें?
उसी क्रान्ति को डेमोक्रेटिक या जनतन्त्र क्रान्ति भी कहा जाता हैं। बात यों होती हैं कि पूँजीवादी क्रान्ति के लिए जब बरूज्वा-वर्ग लड़ता हैं तो यह थोड़े ही कहता हैं कि हम अपने ही वर्ग के लिए लड़ रहे हैं। जैसा कि कह चुके हैं, वह तो बराबर यही पुकार मचाता हैं कि हम तो सभी मजलूमों के ही लिए लड़ते हैं-हमारी क्रान्ति का ध्येय हैं शोषितों और पीड़ितों को हक दिलाना। यह ठीक हैं कि शोषितों में अधिकांश किसान ही होते हैं। इसीलिए उनको जमीनें मिलती हैं। मगर दूसरों को भी कुछ न-कुछ मिलता हैं। लेकिन फिर आगे क्या होगा, यह सवाल आता हैं। आगे भी किसानों का तथा औरों का विश्वास पूँजीवादियों पर बना रहे इसका उपाय वह यह करते हैं कि सबको मताधिकार देते हैं, चुनाव में राय देने का हक आम लोगों को देते हैं। यह ठीक हैं कि उन्हें खतरा रहता हैं कि यह वोट कहीं उन्हीं के विरुद्ध काम में न लाया जाये। इसीलिए पहले तो बालिग मताधिकार नहीं मानते। किन्तु हजार बहानेबाजी करके कुछ खास सम्पत्तिवालों को ही यह हक देते हैं। औरतों को भी पहले नहीं देते। सम्पत्तिवाले तो ख़ामखाह चाहते हैं कि कोई आकस्मिक शासन परिवर्तन या उलटफेर न हो। नहीं तो वे घाटे में रहेंगे। इसीलिए पूँजीवादी लोग उन्हीं पर विश्वास करते हैं और हमेशा ही यह तरकीब करते हैं कि चुनाव में बहुमत उन्हें मिले।
इस तरह समय पा के जब वे चुनाव की हिकमत में पूरे कामयाब हो जाते हैं और अपनी नाकेबन्दी तरह-तरह से कर लेते हैं, तो बालिग मताधिकार भी देते हैं। औरतों को भी यह हक सौंपते हैं तो भी अपने समाचार-पत्रों, अपने पक्ष के साहित्य, प्रचार, सिनेमा और प्रलोभन आदि के जरिये अपने पक्ष में बहुमत का निश्चय हमेशा रखते हैं। निरंकुश शासन को हटाने के बाद जनता की राय से ही तो शासन होना चाहिए। यही तो उनकी मजबूरी होती हैं। इसीलिए उस राय को ही ठगने के लिए उन्हें बंदिशें करनी पड़ती हैं-हजारों झूठी बातें बनानी पड़ती हैं। लोकमत के शासन से उन्हें यह भी फायदा होता हैं कि जनता शासन को अपना समझने लगती हैं। इसीलिए यदि उसपर कोई हमला करे तो खुद लड़ने को तैयार हो जाती हैं। इस प्रकार पूँजीवादी शासन में मजबूती भी आती हैं और यही सबसे बड़ा लाभ पूँजीवादियों के लिए लोकमत मूलक शासन से होता हैं। यही कारण हैं कि बरूज्वा-क्रान्ति को जनतन्त्र क्रान्ति कहा जाता हैं। कहने के लिए बेशक लोगों की राय से ही शासन होता हैं। मगर वह राय तो पूँजीवादियों के लिए तरह-तरह से खरीदी हुई ही होती हैं। यही कारण हैं कि उस जनतन्त्र को पूँजीवादी जनतन्त्र या बरूज्वा-डेमोक्रेसी के ही नाम से पुकारते हैं। लेनिन ने अपनी पुस्तक 'साम्राज्यवाद' (Imperialism) में इस पूँजीवादी जनतन्त्र के बारे में यों लिखा हैं-
''इस तरह धन की सर्वशक्तिमत्ता पूँजीवादी गणतन्त्र में कहीं ज्यादा सुरक्षित रहती हैं। क्योंकि उस समय उसे पूँजीवाद के कमजोर राजनीतिक जिरह-बख्तर का सहारा लेना नहीं पड़ता। उसकी रक्षा का सर्वोत्तम राजनीतिक कवच तो यह शासन खुद बन जाता हैं। इसलिए ज्योंही एक बार पूँजीवाद ने पालचिन्स्की, चरनोफ, सेरेतली वगैरह अवसरवादियों के जरिये किसी प्रकार इस सर्वश्रेष्ठ कवच पर कब्जा कर लिया कि वह अपनी ताकत इस दृढ़ता और मजबूती के साथ जमा लेता हैं कि चाहे हजार पार्टियाँ, संस्थाएँ या आदमी बदलते रहें, मगर उस पूँजीवाद को कोई हिला नहीं सकता।''
लेनिन ने ही मार्क्स के 'गोथा प्रोग्राम' नामक लेख का विश्लेषण करते हुए भी इसी के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा हैं-
''यह जनतन्त्र तो केवल मुट्ठी भर अमीरों के ही लिए हैं। पूँजीवादी समाज का जनतन्त्र शासन यही तो हैं। अगर हम इस जनतन्त्र की रचना पर विचार करें तो हमें सर्वत्र-तथाकथित ब्योरे की बातों में, जैसे मतदान की योग्यता में (क्योंकि मकान वगैरह पास में होने की शर्तें होती हैं, स्त्रियों को मताधिकार नहीं होता, आदि- आदि) और प्रतिनिधि मूलक संस्थाओं के जो काम के तरीके होते हैं, सभा वगैरह करने में असली बाधाँएँ होती हैं (क्योंकि 'भुक्खड़ों' को सार्वजनिक मकान सभा के लिए मिलते ही नहीं) और दैनिक समाचार पत्रादि तो शुद्ध पूँजीवादी ढंग से ही चलाये जाते हैं, आदि आदि-सभी जगह एके बाद दीगरे जनतन्त्र पर जकड़बन्द बन्धन लगे हैं। गरीबों के लिए जो ये बन्धन, अपवाद, बहिष्कार और अड़ंगे लगाये गये हैं वे उन लोगों की नजरों में बेशक मामूली से जँचते हैं जिन्हें खुद किसी आवश्यकता का अनुभव हुआ ही नहीं और जिन्हें पीड़ित जनों के सामूहिक जीवन से कोई ताल्लुक नहीं हैं। अगर सौ में निन्यानवे नहीं तो दस में नौ पूँजीवादी राजनीतिज्ञ और व्याख्याता ऐसे ही होते भी हैं। लेकिन इन सब शर्तों और बन्धनों का सम्मिलित परिणाम यही होता हैं कि गरीब लोग राजनीति और जनतन्त्र शासन में भाग लेने से सोलहों आना महरूम रह जाते हैं।
''मार्क्स ने बहुत ही खूबी के साथ इस जनतन्त्र की असलियत पहचानी थी, जब उसने पेरिस के कम्यून के अनुभव का विश्लेषण करते हुए यह कहा था कि कुछ वर्षों का अन्तर दे-देके शोषितों तथा पीड़ितों को केवल एक मौका दिया जाता हैं कि वे बतावें कि अपने सताने वालों में से किस आदमी को वे चाहते हैं कि जो पार्लिमेण्ट में उनका प्रतिनिधित्व करे और उन्हें सताये, दबाये।''
'चीन में लाल तारा' के अन्तिम प्रकरण 'लाल क्षितिज' में उसके सुयोग्य लेखक मिस्टर एडगर स्नो ने, पूँजीवादी जनतन्त्र का पूँजीपतियों की ही दृष्टि से क्या महत्त्व हैं, यह बात, यों लिखी हैं-
''क्योंकि जनतन्त्र का प्रसार वर्तमान राष्ट्र की पूर्णता की ही तरह इस बात की जरूरत को जाहिर करता हैं कि कोई ऐसी ताकत और ऐसा तरीका निकाला जाये जिससे वर्गों के जो परस्पर बुनियादी विरोध हैं और जिनका पूँजीवादी समाज में सामंजस्य नहीं हो सकता, उनके मिटाने की कोशिश की जा सके। पूँजीवादी जनतन्त्र शासन का यही सबसे-सीधा सादा निरूपण हैं।''
''आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक स्वार्थों का केन्द्रीभूत होना, जिसे तथाकथित एकीकरण की प्रक्रिया कहते हैं,-अर्थात जिन बातों के करते ही यह प्रथा पैदा होती हैं वही-साथ ही साथ यह भी चाहती हैं कि उन्हें कायम रखने के लिए क्रमश: विस्तृत दलों का प्रतिनिधित्व केन्द्र में हो। ताकि वर्गों के स्वार्थ संघर्ष जो तेज होते जा रहे हैं और जिनकी सुलझन असम्भव सी प्रतीत होती हैं उनके सुलझाने का यत्न किया जा सके। और नानकिंग की सरकार जितने ही ज्यादा देश के विस्तृत और विभिन्न स्वार्थों के प्रतिनिधित्व की ओर झुकेगी, अर्थात जनतन्त्र शासन के जितना ही निकट जायेगी उतना ही अधिक उसे इस बात की मजबूरी होगी कि राष्ट्र के सर्वोच्च अधिकार को पुनरपि स्थापित करके उसी के द्वारा अपनी रक्षा की कोशिश करे।''
अब तक पूँजीवादी जनतन्त्र शासन का जो विवेचन किया गया हैं उससे उसकी असलियत पर प्रकाश पड़ जाता हैं और यह भी पता लग जाता हैं कि पूँजीवादी क्रान्ति को ही पूँजीवादी जनतन्त्र क्रान्ति क्यों कहते हैं। असल में किसान-क्रान्ति, जनतन्त्र-क्रान्ति या पूँजीवादी-क्रान्ति कहने से उसके अर्थ का स्पष्टीकरण नहीं होता हैं। ये सभी शब्द केवल आंशिक रूप से, या यों कहिये कि पर्दे के भीतर, उस चीज को बताते हैं। मगर पूँजीवादी जनतन्त्र क्रान्ति (bourgeois democratic revolution) शब्द ही उसके असली भेद और कच्चे चिट्ठे को जाहिर कर देता हैं। उसी से यह भी स्पष्ट हो जाता हैं कि उसके अन्तर्गत जो किसान क्रान्ति हैं वह भी संकुचित चीज ही हैं। वह केवल पूँजीवाद को दृढ़ करनेवाली ही हैं। लेकिन पूँजीवादी क्रान्ति का सनातनी स्वरूप तो यही माना जाता हैं। उसका लक्ष्य भी यही कहा जाता हैं।

3

परन्तु जैसा कि पहले कहा जा चुका हैं, बीसवीं सदी आते न आते लेनिन के नेतृत्व में इस बरूज्वा क्रान्ति की काया पलट हो गयी। लेनिन ने इसे और ही रूप दे दिया। इसके यह मानी हर्गिज नहीं, कि उसके बाहरी रूप में कुछ उलटफेर हुआ। सामन्तशाही का खात्मा करना यही तो उसका बाहरी और प्रकट काम माना जाता था। ज्यों-ज्यों इस बात की पूर्ति होती जाती थी त्यों-त्यों उस क्रान्ति का रूप स्पष्ट होता जाता था। घोषणा भी तो इसी बात की की जाती थी। पूँजीवाद की जड़ को जमाने का काम तो अप्रत्यक्ष रूप से ही-खुल के नहीं-किया जाता था। पूँजीवादी लोग यह बात साफ-साफ कभी स्वीकार थोड़े ही करते थे। वह तो किसानों, मजदूरों और अन्य शोषितों को धोखे में डाल के ही अपना काम बना लेते थे। इसीलिए पूँजीवादी क्रान्ति का जो घोषित रूप और काम अब तक माना जाता था और जो सर्वसम्मत था उसे तो लेनिन और उसके दल ने भी स्वीकार किया ही।
मगर उसने जो असली काम किया वह यह कि पूँजीवाद की जड़ मजबूत होने न पाये, ऐसी तरकीब ढूँढ़ निकाली। अब तक क्रान्ति के तथाकथित आचार्य और नेता केवल किताबों और लेखों में ही यह बात दुहराते आ रहे थे कि पूँजीवादी क्रान्ति के बाद सर्वहारा क्रान्ति होती हैं। मगर वह कब, कैसे होती हैं इसकी परवाह किसी को न थी। यह सोचने का किसी ने कष्ट ही न उठाया कि उस क्रान्ति को व्यावहारिक रूप कैसे दिया जाये। उनके अमलों से पता चलता था कि वे पूँजीवादी-क्रान्ति से ही सन्तुष्ट थे। वहीं अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मानते थे। उनमें अधिकांश लसाले, कौत्स्की वगैरह तो यहाँ तक कहते थे कि इस क्रान्ति के बाद क्रान्ति की जरूरत रही नहीं जाती। धीरे-धीरे वैधनिक तरीकों और आन्दोलन के फलस्वरूप, और साम्राज्यवाद के भीतरी संकटों के चलते भी, खुद-ब-खुद शोषित और पीड़ित जनता के हाथ में शासनसूत्र चला आयेगा। इसमें केवल समय लगेगा। जर्मनी के क्रान्तिकारी नेता और मार्क्सवादी कहे जानेवाले कार्ल कौत्स्की ने तो यह भी कह दिया था कि साम्राज्यवाद का अत्यन्त विकास हो जाने पर वही अत्युच्च रूप (Ultra or super imperialism) में परिणत हो जायेगा, जिसमें किसी को कष्ट होगा ही नहीं। सभी लोग समान रूप से सुखी होंगे। उस समय पूँजीवादी जनतन्त्र के स्थान पर-'शुद्ध जनतन्त्र' (pure democracy) अपने आप ही स्थापित हो जायेगी। इसे ही किसान-मजदूर राज्य, समाजवाद या साम्यवाद कह सकते हैं। हमें आश्चर्य हैं कि वर्तमान युग के कितने ही समाजतन्त्रावादी भी इसी सड़ी चीज को स्वीकार करते हैं। हालाँकि इसकी बुरी तरह खबर लेनिन ने अपनी पुस्तकों ''सर्वहारा का एकतन्त्र और पथ-भ्रष्ट कौत्स्की'' (The dictatorship of the proletariat and Kautsky the renegade) आदि में ली हैं। लेनिन के दो उदाहरण जो हमने कुछ ही पहले दिये हैं। उनसे इसका कुछ पता चलता हैं।
हाँ, तो लेनिन ने जो नया तरीका सुझाया उसी को हमें देखना हैं। सबसे पहला प्रश्न जो इस सम्बन्ध में उठा और अब भी उठता हैं वह हैं नेतृत्व का। पूँजीवादी क्रान्ति का नेतृत्व कौन करे इस बात को लेनिन ने सबसे पहले छेड़ा। क्योंकि सर्वहारा क्रान्ति का मौका ही नहीं आ सकता यदि यह बात तय न हो जाये। अगर हमें सर्वहारा क्रान्ति करनी हैं और उसे सफल बनाना हैं, तो उसने सोचा कि पूँजीवादी क्रान्ति से ही शुरू करना चाहिए। रूस में बीसवीं सदी के आने के पहले क्रान्तिकारियों की एक ही पार्टी थी, जिसका नाम था सोशल डेमोक्रेटिक रशन लेबर पार्टी। लेनिन और उसके साथी उसी के मेम्बर थे। ये सभी उग्र क्रान्तिकारी थे। मगर जो लोग नरम दलीय थे और इसीलिए समझौते से भी काम लेते थे, वह भी उसमें शामिल थे। वे लोग दरअसल अवसरवादी थे। इसलिए समझौता और सुधार ही उनका लक्ष्य था। क्रान्ति का नाम तो यों ही लोगों की आँखों में धूल झोंकरनें के ही लिए लेते थे। उनमें भी दो प्रधान दल थे। एक को मेनशेविक और दूसरे को सोशल रेवोल्यूशनरी कहते थे। असल में था तो पहले एक ही दल सोशल रेवोल्यूशनरियों का ही। मगर जब रूस की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी में दो दल हो गये तब अल्पमतवालों का नाम मेनशेविक और बहुमतवालों का बोलशेविक पड़ा। उस अल्पमत में सोशल रेवोल्यूशनरियों के सिवाय दूसरे लोग भी थे। इसीलिए मेनशेविक नाम का सोशल रेवोल्यूशनरियों से एक जुदा ही दल माना जाने लगा। सन 1903 ई. की गर्मियों में जो रूस की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की दूसरी कांग्रेस लन्दन में हुई थी उसमें जो उसके पूर्वोक्त दो दल हो गये वह प्रधानतया पूँजीवादी क्रान्ति के नेतृत्व को ही लेकर हुए थे। पार्टी के संगठन का भी प्रश्न वहाँ उठा था कि उसमें कैसे लोग लिए जाये और इसमें भी मतभेद हो गया। मगर पार्टी की बात की जड़ में भी वही क्रान्ति के नेतृत्व की ही बात थी। पार्टी का सवाल भी उसी के करते खड़ा हो गया था। इस सम्बन्ध में पहले खुद कुछ न कह के मिस्टर आर. पेजआरनाट की लिखी 'रूसी क्रान्ति की संक्षिप्त हिस्ट्री' (A Short History of the Russian Revolution) के पहले भाग से कुछ लम्बा उदाहरण देना ही उचित समझते हैं। वह लिखता हैं-
''आइये पहले 1905 वाली क्रान्ति, जो निकट आ रही थी, के स्वरूप और उसे आगे ले चलनेवाली ताकत (नेतृत्व) का विचार करें। दो प्रकार के विप्लवों को साफ-साफ अलग समझना होगा। इन दोनों में पूँजीवादी विप्लव तो सामन्तशाही या मध्ययुगीन बातों और रिवाजों के खिलाफ हैं। और सर्वहारा विप्लव हैं पूँजीवाद या साम्राज्यवाद का शत्रु। दोनों के उदाहरण हमें फ्रांस के इतिहास में मिल सकते हैं। सन 1789 के सिलसिले में फ्रांस में जो महान क्रान्ति हुई वह पूँजीवादी क्रान्ति का दृष्टान्त थी। 1871 वाली पेरिस-कम्यून सर्वहारा क्रान्ति का नमूना थी।
''जो लोग सन 1903 ई. वाली लन्दन की कांग्रेस में मौजूद थे उनमें अधिकांश को क्रान्तियों का यह भेद मालूम था। उस महत्त्वपूर्ण विलक्षणता को वे लोग जानते थे जिसके करते इंग्लैंड की प्यूरिटन क्रान्ति (प्यूरिटन उस समय ईसाई धर्म का एक राजनीति से मिला-जुला सम्प्रदाय था), जो सत्राहवीं सदी के मध्य में हुई, सन 1776 वाली अमेरिका की क्रान्ति, फ्रांस की महत्त्वपूर्ण क्रान्ति जो 1789 में हुई और एके बाद दीगरे जो अनेक पूँजीवादी क्रान्तियाँ उन्नीसवीं सदी में और बीसवीं में भी होती रहीं,-ये सबकी सब-पूँजीवादी क्रान्तियों में गिनी गईं। वे यह भी जानते थे कि जिन फ्रांस, अमेरिका और इंग्लैंड आदि मुल्कों में पूँजीवादी क्रान्तियाँ पूर्ण हो चुकी हैं उनमें जो पहेली मजदूरों तथा आम जनता के सामने थी वह थी समाजवादी सर्वहारा क्रान्ति की।
''लेकिन जो समस्या रूस के लिए और दूसरे मुल्कों के लिए भी थी वह यह थी कि पूरी अठारहवीं सदी और उन्नीसवीं के पूर्व भाग में जो क्रान्तियाँ हुई थीं उनके बाद एक नया वर्ग कायम हो गया, जिसे सर्वहारा या प्रोल्तारियत कहते हैं। प्रश्न यह था कि सबों के मत से जो क्रान्ति पूँजीवादी क्रान्ति हैं उसमें इस नये सर्वहारा-वर्ग का क्या भाग होगा? जो पीछे मेनशेविक के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनने दकियानूसी 'बाबा वाक्यं प्रमाण' के अनुसार यह निर्णय किया कि जब वह पूँजीवादी क्रान्ति हैं, तब तो उसका असली नेतृत्व ख़ामखाह पूँजीवादी ही करेंगे। इसका आशय यह था कि रूस में जारशाही और मध्ययुगीन बची-बचायी घृणित प्रथाओं के विरुद्ध उन्हें मिटाने के लिए, जो क्रान्ति होगी उसके नेता बनेंगे पूँजीवादी ही। वहाँ का सर्वहारा-वर्ग उन्हीं की सहायता करेगा।
''इसके विपरीत बोलशेविकों का कहना था कि अन्त तक क्रान्तिकारी बने रहने वाला तो केवल सर्वहारा-वर्ग हैं। इसीलिए यह जरूरी हैं कि रूसी जनता की जो लड़ाई जारशाही निरंकुशता के विरुद्ध होगी उसका नेतृत्व वह सर्वहारा-वर्ग ही करे। यह ठीक हैं कि यह सर्वहारा की समाजवादी क्रान्ति न होगी। ताहम आजादी की इस क्रान्तिकारी लड़ाई का नेतृत्व केवल सर्वहारा ही कर सकते हैं। क्यों? इसीलिए कि पूँजीवाद की प्रगति, या यों कहिये कि पूँजीवादी वर्ग की प्रगति मजदूर श्रेणी के साथ निरन्तर संघर्ष के सिलसिले में ही होने के कारण यह बात साफ हैं कि रूसी पूँजीवादी जारशाही से सुलह कर लेंगे। क्योंकि उन्हें भय हैं कि ''कहीं क्रान्ति बहुत दूर न चली जाये''। इसीलिए सच पूछिये तो क्रान्ति की विजय होने न पायेगी।
''इस पर मेनशेवकों की यह दलील हुई कि मान लीजिये कि क्रान्ति का नेतृत्व सर्वहारा ही करेंगे। लेकिन उन्हें यह काम पूँजीवादियों से मिल के ही करना होगा। ताकि सभी प्रगतिशील शक्तियाँ जारशाही के विरुद्ध मिल के लड़ सकें। क्योंकि जारशाही के मददगार न सिर्फ जमींदार होंगे। बल्कि भोले-भाले और पिछड़े हुए किसानों की जमात भी उसकी सहायक होगी।
''बोलशेविकों ने यह बात भी न मानी और उत्तर दिया कि सच पूछिये तो ये भोले-भाले और पिछड़े किसान ही इसमें सर्वहारा के मित्र बन सकते हैं और सर्वहारा उनका नेतृत्व कर सकते हैं। क्योंकि उनकी दशा बहुत ही बदतर हैं, उनका शोषण परले दर्जे का हो रहा हैं और उनकी विपदा युग-युगान्तर से चली आ रही हैं। ऐसी हालत में सिर्फ सर्वहारा श्रेणी का ही काम हैं कि सबों को आगे ले चलने में प्रमुख बने। वही किसानों की लम्बी जमात के साथ मिल के जारशाही की मनमानी घरजानी को मिटा सकती और इस काम में समझौतावादी पूँजीवादियों को तटस्थ होने के लिए विवश कर सकती हैं।''
इस सम्बन्ध में और कुछ कहने के पहले इस लम्बे उदाहरण की तीन बातों पर विशेष ध्यान दिलाना जरूरी हैं। इस छ: पैराग्राफ के अवतरण में चौथे तथा छठे पैरा में जो कुछ लिखा हैं उसका सम्बन्ध हमारे देश की आजादी की लड़ाई से भी हैं। छठे पैरा में जो अन्त में यह कहा गया हैं कि ''सर्वहारा श्रेणी इस काम (लड़ाई) में पूँजीवादियों को तटस्थ होने को विवश कर सकती हैं,'' उससे साफ हो जाता हैं कि पहले चाहे जो कुछ रहा हो। मगर सर्वहारा श्रेणी के तैयार हो जाने पर इस युग में पूँजीवादियों से क्रान्ति या आजादी की लड़ाई में सक्रिय और प्रमुख भाग लेने की आशा नहीं की जा सकती हैं। वे तटस्थ रह जाये और विरोधियों का साथ न दें यही बहुत हैं और यही बात की जानी चाहिए। भरसक उन्हें दुश्मनों से जा मिलने का मौका नहीं दिया जाना चाहिए। कोशिश यही हो कि वे तटस्थ रहें। यह बात भी आरजू-मिन्नत या उनसे सुलह-सपाटा करने से नहीं होगी। इसका तो नतीजा उल्टा ही होगा। वे तटस्थ भी रहेंगे जब सर्वहारा श्रेणी खूब संगठित होकर प्राण पन से लड़े और मजलूम किसानों को बखूबी अपने साथ कर ले। वे इस अपार शक्ति से डर के ही चुपचाप बैठेंगे।
चौथे पैराग्राफ में दो बातें हैं। पहले लिखा हैं कि ''ताहम आजादी की इस क्रान्तिकारी लड़ाई का नेतृत्व केवल सर्वहारा ही कर सकते हैं''। हमारे मुल्क में भी जो आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही हैं उसमें भी यही बात होगी। यह ठीक हैं कि औपनिवेशिक और गुलाम मुल्कों में बाहरी देशों की हुकूमत होती हैं, जैसा कि भारत में हैं। रूस की जारशाही तो विदेशी न थी-वहीं की थी। मगर यह कोई खास फर्क नहीं हैं, जिससे परिस्थिति में महत्त्वपूर्ण अन्तर आ जाये। यह बात सही हैं कि गुलाम देशों के पूँजीवादी एक हद तक क्रान्तिकारी लड़ाई में भाग ले सकते हैं। मगर साम्राज्यवादी देशों के पूँजीवादी ऐसा नहीं करते। फिर भी यह बात पुराने युग की हैं। साम्राज्यवाद की चरम उन्नति और सर्वहारा श्रेणी के विशेष जागरणवाले इस युग में यह बात सम्भव नहीं। अब तो सभी देशों के पूँजीवादी समान रूप से प्रतिक्रियावादी हो गये हैं और हो रहे हैं। यों तो किसी समय ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका के पूँजीवादियों ने भी क्रान्तिकारी लड़ाई लड़ी थी।
इसलिए जहाँ कहीं आजादी की लड़ाई लड़ी जायेगी वहीं उसका नेतृत्व मजदूर श्रेणी को ही करना होगा। यह तो कही चुके हैं कि आजादी की लड़ाई का ही नाम पूँजीवादी क्रान्ति हैं। इसलिए हर मुल्क में इस क्रान्ति के नेता मजदूरों को ही होना पड़ेगा। तभी किसानों और मजदूरों की-मजलूमों की-मुसीबतें दूर होंगी। लेकिन हमने यदि इस ओर ध्यान नहीं दिया और भूलकर खिचड़ी या सम्मिलित नेतृत्व (Mixed Leadership) का रास्ता अख्तियार किया, तो धोखा होगा। यह सम्मिलित नेतृत्व और कुछ नहीं। केवल टुटपुँजिये बाबुओं (Petty bourgeoisie) का ही, या दूसरे शब्दों में मध्यमवर्ग और पूँजीवादियों का ही नेतृत्व होगा। क्योंकि ये बाबू तो बेपेंदी के लोटे की तरह स्वभावत: मालदारों की ही ओर लुढ़कते हैं। और जब क्रान्तिकारी मजदूरों का दबाव न हो तब तो ख़ामखाह उधर झुकते हैं। क्रान्तिकारी श्रमिकों के दबाव का तो मतलब ही हैं सर्वहारा का नेतृत्व।
चौथे पैराग्राफ में जो यह कहा गया हैं कि पूँजीवादी जारशाही से जरूर सुलह कर लेंगे और उसमें जो कारण दिया गया हैं कि मजदूरों से लड़ते-लड़ते ही उनकी वृद्धि हुई हैं, वह बहुत ही महत्त्व रखता हैं। यह बात सभी पूँजीवादियों पर लागू हैं। रूस का नाम तो दृष्टान्त के रूप में हैं, या यों कहिये कि उसी के बारे में विचार ही हो रहा था। फिर दूसरे देश की बात कहते कैसे? समझौता करने के लिए जो वजह के तौर पर दलील दी गयी हैं उसी से यह बात साफ हो जाती हैं। दलील तो यही हैं कि पहले के पूँजीवादियों से आज के पूँजीपति विलक्षण हैं। क्योंकि जहाँ पहले वालों ने अपनी तरक्की करते समय सर्वहारा श्रेणी के साथ होनेवाले संघर्ष का बहुत ही कम या नहीं के बराबर सामना किया था, तहाँ आज के पूँजीपतियों को निरन्तर मजदूरों के संघर्ष का ही सामना करना पड़ता हैं। इसीलिए यह लड़ाई लड़ते-लड़ते ही उनने तरक्की की हैं। फलत: वे लोग मजदूरों की ताकत और मनोवृत्ति का पता लगा चुके हैं। वह अच्छी तरह जानते हैं कि मजदूर पूँजीवाद को मिटाने के पहले दम न लेंगे और इनकी ताकत अपार हैं। इसीलिए पूँजीवादी मजदूरों से काफी डरते हैं।
यही कारण हैं कि वे निरंकुश शासन से-जारशाही से-समझौता ख़ामखाह कर लेंगे। क्योंकि ऐसा न करने में उन्हें यह खतरा दीखता हैं कि क्रान्ति बहुत दूर चली जायेगी। अर्थात पूँजीवादी-क्रान्ति समाजवादी क्रान्ति में परिणत हो जायेगी। फिर तो हम कहीं के न रह जायेगे ! यह बात तो सभी मुल्कों के सरमायादारों (पूँजीपतियों) पर अक्षरश: लागू हैं। सब के सब तो मजदूरों के साथ बराबर ही लड़ते-लड़ते आगे बढ़ते हैं, बढ़ सके हैं। इसीलिए सबों को उनसे खतरा हैं। यदि निरंकुश शासन या विदेशी शासन से वे सुलह न कर लेंगे, तो समाजवादी क्रान्ति होके ही रहेगी। फिर उनकी हस्ती कहाँ रहेगी?
इस प्रकार ये तीन बातें महत्त्वपूर्ण हैं। मगर इन्हीं से मिलती-जुलती एक चौथी बात भी हैं, जो उस लम्बे अवतरण में कई बार आयी हैं। वहाँ केवल 'आजादी की लड़ाई' यही नहीं कहा गया हैं। किन्तु मनमानी घरजानी (absolutism), निरंकुशता (autocracy), सामन्तशाही (feudalism), मध्ययुगीन बर्बरता का अवशेष (survivals of medevalism) आदि कहा गया हैं। वहाँ साफ ही बताया गया हैं कि पूँजीवादी क्रान्ति या आजादी की लड़ाई इन्हीं बातों को मिटाने के लिए होती हैं। उसका यही काम ही हैं। लेकिन ये बातें केवल रूस में ही न थीं। वे तो सर्वत्र पायी जाती हैं। भारत में भी कम-बेश उसी तरह पायी जाती हैं, जैसा कि अन्य देशों में। अगर इनमें कुछ कमी हैं, अगर इनका अब उतना भीषण रूप नहीं हैं, तो यह बात सर्वत्र हैं और समय के प्रभाव से ही इनमें पुरानी भयंकरता रहने न पायी हैं। इसलिए इनकी जड़ तो बनी ही हैं, जिसे खत्म करना हैं और आजादी के युद्ध, जनवादी क्रान्ति, किसान क्रान्ति, या पूँजीवादी क्रान्ति की जरूरत इसीलिए हैं भी। इन्हें मिटाना उसी का काम हैं। फलत: रूस के बारे में कही बातें सर्वत्र-यहाँ भी-पूर्ण रूप से लागू हैं। अर्थात आजादी की लड़ाई में जिसे सर्वहारा श्रेणी का नेतृत्व (Proletarian hegemony or Leadership) कहते हैं उसके बिना हमें भी यहाँ सफलता मिल सकती नहीं।
हाँ, तो हम लेनिन और उसके साथियों की उस खास बात पर फिर आयें, जो उनने पूँजीवादी क्रान्ति के बारे में कही थी। जो उदाहरण हमने पहले दिया हैं उसके चौथे पैराग्राफ के अन्त में कहा गया हैं कि अगर पूँजीवादियों का नेतृत्व रहा-और आजकल तो वे लोग खुले आम न आकर फटेहाल बाबुओं के द्वारा ही अपना काम निकालते हैं-तो सिर्फ यही बात न होगी कि वे लोग निरंकुश शासन के साथ सुलह कर लेंगे। किन्तु क्रान्ति की विजय हो ही न सकेगी-उसकी हार हो जायेगी-‘revolution would be defeated.’ यह बात माके की हैं। सन 1850 ई. में, कम्यूनिस्ट लीग कायम होने के बाद, मार्क्स ने जो सक्र्यूलर मजदूरों के नाम भेजा था उसमें लिखा हैं कि-
''टुटपुँजिये जनतन्त्रवादी बाबू लोग तो चाहते ही हैं कि ज्योंही उनकी चन्द माँगें पूरी हो जाये जल्द से जल्द क्रान्ति को खत्म कर दें। लेकिन यह तो मजदूरों का ही काम हैं कि क्रान्ति को सर्वकालिक (स्थायी) बना दें। ताकि करीब-करीब सभी पूँजीवादियों और मालदारों के हाथ से शासन सूत्र छिन न जाये, ताकि सर्वहारा के हाथ में शासन की बागडोर न आ जाये और एक ही मुल्क में नहीं, किन्तु संसार के सभी समुन्नत देशों में, सर्वहारा का संगठन ऐसा जबर्दस्त न हो जाये कि वहाँ मजदूरों में आपसी चढ़ाबढ़ी खत्म हो जाये और कम से कम मूलाधार रूप जो उद्योग-धन्धो हैं वह सर्वहारा के हाथ में आ जाये।''
यहाँ जो टुटपुँजिये बाबू या निम्न-मध्यम श्रेणी (Petty bourgeois democrate) लिखा हैं उसका तात्पर्य पूँजीवादियों से ही हैं क्योंकि जैसा अभी कहा हैं, ये बाबू तो उन्हीं के कठपुतले होते हैं। इसीलिए लेनिन ने अपनी पुस्तक 'साम्राज्यवाद' (Imperialism) की भूमिका में इनके बारे में साफ ही लिखा हैं कि-
''पूँजीवादी मनोवृत्तिवाले ये मजदूर ही तो, जिन्हें 'मजदूर-अशराफ' कहते हैं, जिनका जीवन निम्न-मध्यवर्गीयों जैसा ही होता हैं, जिनकी आय भी वैसी ही होती हैं और विचार भी उसी तरह के रहते हैं, सेकण्ड इण्टरनेशनल (अवसरवादी मजदूरों की पुरानी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था) के मुख्य स्तम्भ तथा समाज में पूँजीवादियों के निश्चय ही सबसे बड़े विश्वसनीय मददगार हैं। ये लोग पूँजीपतियों के पक्के दलाल, मजदूरों के बीच में उनके लिए बड़ी मुस्तैदी से काम करनेवाले, उनकी वकालत करनेवाले और आज कल की साम्राज्यवादी युद्ध की मनोवृत्ति एवं सुधारवाद के बड़े भारी हिमायती होते हैं।''
असल में अवसरवादी और सुधारक लोग तो चाहते ही हैं कि संघर्ष न हो, या कम से कम हो। इसीलिए पूँजीवादी क्रान्ति में यदि मजबूरन पड़ भी जाते हैं, तो भी उनकी ख्वाहिश बराबर यही रहती हैं कि यह बला जल्द से जल्द मिटे और भविष्य में पुनरपि इसमें फँसने का मौका न आये। और अगर कहीं पूँजीवादी विप्लव का नेतृत्व उनके ही हाथों में या उनके मालिकों (पूँजीवादियों) के ही अधीन रहा, तब तो वे खामखा उसी के बाद रुकी जायेगे। आगे बढ़ना कभी नहीं चाहेंगे। इसीलिए मजदूरों का नेतृत्व जरूरी हैं। जिस प्रकार पूँजीवादियों का मकसद पूरा हो जाने के कारण पूँजीवादी क्रान्ति से आगे बढ़ना वे नहीं चाहते, ठीक उसके उल्टा मजदूरों का उद्देश्य पूरा न हो सकरनें के कारण वे ख़ामखाह आगे बढ़ना और सर्वहारा क्रान्ति तक पहुँचना चाहते हैं। ताकि पूँजीवाद के मिट जाने से उनकी विपदा दूर हो और वे सुख की जिन्दगी न सिर्फ खुद बितायें, बल्कि समस्त मानव के लिए भी वह जिन्दगी सुलभ कर दें। वह तो लड़नेवाले होते हैं। उनका अस्तित्व ही लड़ाई की भट्ठी में बनता और कायम रहता हैं। और लड़ाई से ही तो पूँजीवादी क्रान्ति को सर्वहारा क्रान्ति का रूप दिया जा सकता हैं। तथाकथित मार्क्स मतानुयायी और अवसरवादी कार्ल कौत्स्की, हिल्फरडिंग, चरनोफ, मारटोफ आदि नेता यह बात नहीं मानते हैं। इसीलिए पहले कदम के बाद ही रुक जाते हैं। वे सर्वहारा क्रान्ति को दूसरी तरह लाना चाहते हैं। उन्हें क्या पता कि पूँजीवादी-क्रान्ति को ही आगे बढ़ा के सर्वहारा-क्रान्ति के रूप में बदला जाता हैं। लेनिन ने इस बारे में स्पष्ट लिखा हैं-
''कौत्स्की आदि ने यह समझा ही नहीं हैं कि पूँजीवादी-क्रान्ति और सर्वहारा क्रान्ति का आपस में सम्बन्ध क्या हैं। पहली (पूँजीवादी) क्रान्ति ही दूसरे के रूप में परिणत हो जाती हैं। जैसे-जैसे क्रान्ति आगे बढ़ती जाती हैं तैसे-तैसे पूँजीवादी क्रान्ति की समस्याओं को सर्वहारा क्रान्ति हल ही कर देती हैं। यह दूसरी क्रान्ति पहले के कामों को मजबूत भी कर देती हैं। संघर्ष और केवल संघर्ष इस बात का फैसला करता हैं कि कहाँ तक पूँजीवादी जनतन्त्र क्रान्ति के गर्भ से सर्वहारा-समाजवादी क्रान्ति पैदा हो सकती हैं।''
जब संघर्ष ही इस बात का निर्णायक हैं और उसी के बल से पूँजीवादी क्रान्ति के गर्भ से ही सर्वहारा क्रान्ति पैदा की जा सकती हैं, फलत: जितना ही तेज तथा निरन्तर चलनेवाला यह संघर्ष होगा उतनी ही मजबूती और तेजी के साथ पहली क्रान्ति के बाद दूसरी क्रान्ति आयेगी और सफल होगी, तब तो दोनों के मध्य में जरा भी विराम की गुंजा हीश हो ही नहीं सकती। लेकिन अगर पहली क्रान्ति के नेता पूँजीवादी या उनके गण लोग होंगे, यदि उसे लाने में पूँजीवादियों या उनके पिट्ठुओं का ही प्रधान हाथ होगा, तब तो बीच में, उसके बाद विराम अवश्यम्भावी हैं। इसीलिए पहले की क्रान्तियों के बाद ऐसा विराम हुआ कि आगे काम ही रुक गया। लेनिन ने इसीलिए उनकी जगह मजदूरों का नेतृत्व स्थापित करके रूस में पूर्ण सफलता प्राप्त की। जब 'पूँजीवादी क्रान्ति' का अधूरा काम सर्वहारा क्रान्ति ही पूरा करती हैं, उसे मजबूत भी वही करती हैं और जब उसके बिना पहली क्रान्ति का काम पूरा हो ही नहीं सकता, तब तो शुरू से ही सर्वहारा-वर्ग का नेतृत्व निहायत जरूरी हैं।
 

रचनावली 5 : भाग - 3
 

 

 

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