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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-5

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा

सर्वहारा का नेतृत्व

हमें यहाँ अब इस बात की जरूरत मालूम होती हैं कि सर्वहारा-वर्ग के जिस नेतृत्व का बार-बार नाम अब तक लिया गया हैं उस पर विशेष प्रकाश डाला जाये। पूँजीवादी क्रान्ति का नेतृत्व भी जब सर्वहारा श्रेणी ही करेगी, उसे ही करना चाहिए, यह माना जाता हैं, तो इस नेतृत्व की सफाई हुए बिना काम चल नहीं सकता। हम कैसे जान सकते हैं कि किसका नेतृत्व हैं? आखिर पूँजीवादी क्रान्ति की लड़ाई में तो पूँजीवादी भी भाग लेते ही हैं और निम्न-मध्यम-वर्ग के बाबू लोग भी। किसान भी-सभी तरह के धनी-गरीब-उसमें शामिल होते ही हैं। तब इस बात की पहचान क्या हैं कि किसका नेतृत्व हैं? यह भी नहीं कि जिससे पूछके काम किया जाये वही नेता हो। हमेशा तो कमेटियों के द्वारा ही यह काम होता हैं और उनमें जो लोग चुने जाते हैं वह सबों की राय से ही। किसी एक श्रेणी या वर्ग की न तो वे कमेटियाँ ही बनती हैं और न खास श्रेणी के लोग उस काम में राय ही देते हैं कि कमेटी में कौन रखे जाये, कौन नहीं। वह तो क्रान्ति के लिए लड़नेवाले सभी वर्गों की सम्मिलित सम्मति से बनती हैं। हमारे देश में कांग्रेस को ही ले सकते हैं। जब वह आजादी के लिए लड़नेवाली मानी जाती हैं, तब तो कहना ही होगा कि बरूज्वा क्रान्ति ही उसका लक्ष्य हैं। मगर उसकी सभी कमेटियाँ सभी वर्गों के मेम्बरों की राय से ही बनी मानी जाती हैं। इस हालत में नेतृत्व किस वर्ग का हैं इसका निश्चय किसी और ढंग से करना ही होगा। इसी के साथ यह भी सवाल होता हैं कि सर्वहारा का नेतृत्व रहने से उस क्रान्ति को भी सर्वहारा क्रान्ति ही क्यों नहीं कहते?
बात तो सही हैं। नेतृत्व की कोई पक्की पहचान हुए बिना धोखा हो सकता हैं, हो जाता हैं। उसकी तो पहचान ख़ामखाह इतनी साफ होनी चाहिए कि कोई भी आसानी से जान सके कि किसका नेतृत्व हैं। सर्वहारा का नेतृत्व रहने के कारण उसे सर्वहारा क्रान्ति कहने में तो कोई हर्ज हैं नहीं। लेनिन ने ऐसा कहा भी हैं। पूँजीवादी क्रान्ति तो उसे इसीलिए कहते हैं कि उसकी असलियत, उसका हीर,
उसकी भीतर-बाहर की बनावट दरअसल पूँजीवादी हैं, पूँजीवादी विकास के ही लिए हैं। मगर इस सम्बन्ध में हम अपनी ओर से कुछ न कहके इसके आचार्य लेनिन की ही राय देना उचित समझते हैं। सन 1905 ई. की 22वीं जनवरी, रविवार को जारशाही ने जो अपने महल के सामने हजारों निरस्त्रा स्त्री-पुरुष-मजदूरों का गोली से वध करवाया था। उसके करते तभी से उस रविवार को खूनी (Bloody Sunday) कहने लगे हैं। इसी खूनी रविवार की 12वीं वर्षगाँठ मनाने के समय सन 1917 ई. की 22वीं जनवरी को स्विट्जरलैंड के जूरिच नगर में व्याख्यान देते हुए लेनिन ने कहा था कि-
''चन्द ही महीनों में हालत सोलहों आना बदल गयी। सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के मेम्बर जहाँ पहले थे सैकड़ों, तहाँ वे हो गये एकाएक अब हजारों। हजारों तो बीस से तीस लाख तक श्रमिकों (सर्वहारा) के नेता बन गये। शहरों में सर्वहारा की लड़ाई का नतीजा यह हुआ कि पाँच से लेकर दस करोड़ तक किसानों के भीतर उथल-पुथल और अकसर क्रान्तिकारी आन्दोलन शुरू हो गया। और किसानों के इस आन्दोलन का प्रभाव फौज पर पड़ा। जिससे फौजी सिपाहियों में बगावत फैल गयी और उनमें एक दल की सशस्त्र मुठभेड़ दूसरे दल से होने लगी। इस प्रकार तेरह करोड़ निवासियों वाला यह बड़ा-सा देश, रूस, क्रान्ति की लड़ाई में पड़ गया। इसी तरह सदियों का सोया रूस क्रान्तिकारी सर्वहारा और विप्लवी जनता के रूस के रूप में परिणत हो गया।
''इस परिणति को लाने में जिस प्रधान साधन ने काम किया था वह थी मजदूरों की हड़ताल। इस रूसी क्रान्ति की विलक्षणता यह हैं कि यद्यपि इसकी सूरत- शक्ल तथा भीतरी बनावट हैं पूँजीवादी जनतन्त्र क्रान्ति की। तथापि लड़ाई के
तरीके के लिहाज से इसे सर्वहारा क्रान्ति भी कह सकते हैं। यह पूँजीवादी जनतन्त्र क्रान्ति तो इसलिए कही जाती हैं कि जिस लक्ष्य के लिए इसने प्रत्यक्ष रूप से यत्न किया और जिसे अपनी शक्ति के बल से स्पष्ट तथा सीधे हासिल भी किया वह थी जनतन्त्र शासन-प्रणाली, मजदूरों के लिए दिन में आठ घण्टे से ज्यादा काम करना नहीं पड़ता, और बड़े-बड़े जमींदारों की जमींदारियों की जब्ती ! ये चीजें ऐसी हैं
जिन्हें फ्रांस की पूँजीवादी क्रान्ति ने ही 1792 और 1793 में प्राय: पूर्णरूप से प्राप्त किया था।
''साथ ही साथ यह रूसी क्रान्ति सर्वहारा क्रान्ति भी थी। यह केवल इसी मानी में नहीं कि इसकी मुख्य नेतृत्व शक्ति सर्वहारा की थी, वही इस आन्दोलन के अग्रदूत थे। लेकिन इस मानी में भी यह सर्वहारा क्रान्ति थी कि इसमें लड़ाई का प्रधान साधन थी सर्वहारा की अपनी चीज, यानी हड़ताल। इसी के जरिये प्रधान रूप से जनसमूह को तैयार किया गया-उठाया गया। उस समय लहरों के ताँतों की तरह जो निर्णायक घटनाएँ घटीं उनके लिए खासतौर से इसी हड़ताल को जवाबदेह माना जाता हैं।''
लेनिन के इस लम्बे वाक्य ने कई बातें साफ कर दी हैं। एक तो उसने बार-बार कहा हैं कि पूँजीवादी क्रान्ति को उसकी लड़ाई के मुख्य साधन और अस्त्र-हड़ताल-की दृष्टि से उसे सर्वहारा क्रान्ति कहने में कोई हर्ज नहीं हैं। मगर सिर्फ इसी ख्याल से। न कि उसकी रूपरेखा और भीतरी बनावट के ख्याल से। उस विचार से और जिन बातों के लिए वह की गयी उनके लिहाज से भी उसे पूँजीवादी क्रान्ति ही कहना वाजिब हैं। जिन सामाजिक सुधारों या किसान-मजदूरों की माँगों को उसने पूरा किया, या यों कहिये कि जिन्हें पूरा करने के लिए वह की गयी उनकी दृष्टि से तो वह पूँजीवादी जनतन्त्र क्रान्ति ही थी। मजदूरों के लिए आठ घण्टे काम करना, बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियाँ मिटा के किसानों को जमीन मिलना और गणतन्त्र शासन ये तीनों बातें तो पूँजीवादी क्रान्ति के ही फल हैं।
दूसरी बात की जो सफाई इसमें हैं वह हैं सर्वहारा के नेतृत्व की। इस सम्बन्ध में दो बातें कही गयी हैं। सर्वहारा का नेतृत्व मानने के लिए पहली जरूरी शर्त यह हैं कि क्रान्ति की लड़ाई का अग्रदूत, उसमें आगे-आगे चलनेवाला, उसकी लड़ाई का श्रीगणेश करनेवाला और लड़नेवाली सभी जमातों को-सभी लोगों को-खींच कर अपने साथ ले चलनेवाला सर्वहारा-वर्ग ही होना चाहिए। उसने सबसे पहले लड़ाई का बिगुल बजा के उसका रास्ता जब दिखा दिया कि यह कैसे लड़ी जाये, तो उसके बाद चाहे भले ही दूसरे-दूसरे लोग भी मौका देखके बीच-बीच में जहाँ-तहाँ लड़ाई चलाते रहें और उसे सँभालते रहें। मगर आखिरी जवाबदेही और समय-समय पर पथ-दर्शन सर्वहारा ही के जिम्मे रहना चाहिए। वही जब चाहे जैसे वह लड़ाई चलाये या बन्द करे।
नेतृत्व की दूसरी और महत्त्वपूर्ण शर्त, जिससे साफ-साफ नेतृत्व का पता लग जाये और लड़ाई पर सर्वहारा की मुहर लग जाये, यह हैं कि हड़तालें हों। सार्वजनिक हड़तालें (general strikes) या स्थानीय हड़तालें (local strikes) परिस्थिति के अनुसार जरूरत देखकर की जाये। हड़तालें भी दो तरह की होती हैं-आर्थिक और राजनीतिक। काम का घण्टा कम करने, वेतन बढ़ाने या इसी तरह की मजदूरों की अपनी खास माँगों को मनवाने के लिए जो हड़ताल की जाती हैं और इस तरह जिसके द्वारा कारखानेदार मजबूर किये जाते हैं उसे ही आर्थिक हड़ताल (Economic Strike) कहते हैं। इसका लक्ष्य होता हैं मजदूरों को आराम पहुँचाना, उनकी आर्थिक जिन्दगी सुधारना और उनमें आत्म-सम्मान लाना। मगर इस हड़ताल का असली लक्ष्य होता हैं मजदूरों को लड़ाई की तालीम देना। इस मामले में ये हड़तालें अखाड़े और शिक्षण शिविर (Training Camp) का काम देती हैं। इन्हें चलाते-चलाते मजदूर लड़ने में कुशल हो जाते हैं, उनमें संगठन, एकता और जत्थेबन्दी पैदा हो जाती हैं। उनमें अपनी ताकत का ज्ञान, संगठन की महत्ता का अनुभव और वर्ग चेतना इन्हीं हड़तालों के फलस्वरूप आ जाती हैं। फिर मौका पड़ने पर राजनीतिक हकों के लिए वे जब चाहें बखूबी लड़ सकते हैं।
राजनीतिक हड़ताल (Political strike) उसे कहते हैं जो किसी राजनीतिक माँग को पूरा करनें के लिए की जाती हैं। रूस के गृहयुद्ध (civil war) के समय-सन 1917 ई. की अक्टूबर वाली क्रान्ति के बाद-जब इंग्लैंड से अस्त्र-शस्त्रादि जहाजों पर लाद के क्रान्ति-विरोधियों की सहायता के लिए भेजे जा रहे थे, तो वहाँ के मजदूरों ने हड़ताल कर दी। फलत: वे जहाज रवाना हो ही न सके और ब्रिटिश सरकार को यह काम बन्द कर देना पड़ा। वही राजनीतिक हड़ताल थी। इसी प्रकार जब जर्मनी की राजधनी बर्लिन के प्रधान सेनापति जनरल बैरन वान लटविज ने बीमार वाले विधन (Weimar Constitution of republic) को मटियामेट करने के लिए ता. 12-3-1920 को अपने आठ हजार फौजी सिपाहियों की मदद से बर्लिन पर कब्जा करके एक जनरल वान कैप (Vonkapp) को नये प्रजातन्त्र का प्रेसिडेण्ट घोषित कर दिया तो, बीमार प्रजातन्त्र के प्रेसिडेण्ट मिस्टर इबर्ट के पास एक भी फौजी सिपाही न था कि उसका मुकाबिला करें। उस समय उस प्रजातन्त्र को बचाया और कैप के यत्न को विफल किया बर्लिन के मजदूरों ने ही। उनने अपनी यूनियन के नेताओं के हुक्म का भी इन्तजार न किया और ऐसी हड़ताल कर दी कि बर्लिन का सारा कारबार ही बन्द हो गया-न पानी मिलता था, न रोशनी मिलती थी, न ट्राम चलती थी और न रेल। नतीजा यह हुआ कि कैप और उसके सिपाही कर्त्तव्य विमूढ़ होकर भाग गये। कैप स्वीडन भाग गया और मजदूरों की विजय हो गयी। वह हड़ताल भी राजनीतिक हड़ताल थी।
जहाँ क्रान्ति में सर्वहारा का नेतृत्व होता हैं वहाँ ऐसी ही हड़तालें होती हैं। राजनीतिक हड़तालों का ताँता बँधा जाता हैं। एके बाद दीगरे हड़तालें होती रहती हैं। रूस की सन 1905 ई. वाली तथा सन 1917 ई. की फरवरी और अक्टूबर वाली क्रान्तियों का श्रीगणेश इन हड़तालों से ही हुआ था। लगातार कई दिनों तक वे जारी रहीं। आम हड़तालों ने ही सबसे बड़ा काम किया। यह ठीक हैं कि स्थानीय हड़तालों के द्वारा ही मजदूरों में और आम जनता में गर्मी लायी जाती हैं। हड़तालों के साथ प्रदर्शन और जुलूस (Processions and demonstrations) होते हैं और लोगों में काफी उत्तेजना आ जाती हैं। उसके बाद आम हड़ताल के साथ ही विराट प्रदर्शन होते हैं। फिर तो युगान्तर होके ही रहता हैं। यह भी सही हैं कि कहीं-कहीं आर्थिक हड़तालों से ही शुरू करके उन्हें राजनीतिक हड़तालों में परिणत कर देते हैं। ये स्थानीय हड़तालें ही फिर व्यापक बन जाती हैं। मगर क्रान्ति की लड़ाई की सफलताओं और जीत राजनीतिक हड़तालों से ही होती हैं। राजनीतिक हड़तालों को सफल बनाने में ही परिस्थिति के अनुसार आर्थिक हड़तालें सहायक होती हैं। उनका स्वतन्त्र मूल्य क्रान्ति में नहीं होता। इन्हीं राजनीतिक हड़तालों का महत्त्व लेनिन के उध्दृत वाक्यों में बताया गया हैं।
रूस के ही अनुभव से उसने बताया हैं कि मजदूरों की इन हड़तालों की बिजली किसानों में दौड़ गयी और करोड़ों-करोड़ किसान उस लहर में बह गये ! जगह-जगह जमींदारियों पर उनने हमले कर दिये। और जब किसानों में यह गर्मी तेज हुई तो फौजी सिपाहियों में भी उत्तेजना आयी। फौज में भी बगावत का झण्डा खड़ा हो गया। वहाँ जो दल जारशाही के नमकहलाल और भक्त थे उनसे और उत्तेजित सिपाहियों के दलों से जगह-जगह भिड़न्त हो गयी ! क्रान्तिकारियों की संख्या जो सैकड़े की तादाद में मुश्किल से थी वह हजारों की हो गयी। यहाँ तक कि बीस से तीस लाख तक मजदूर इस ओर सिर्फ आये ही नहीं, किन्तु केवल उनके नेतृत्व का काम हजारों क्रान्तिकारी ही करने लगे। इस प्रकार एक कोने से दूसरे कोने तक आग लग गयी-किसान, मजदूर और फौजी सिपाही सभी क्रान्ति की लहर में बह चले !
रूस के सम्बन्ध में एक और बात जान लेना निहायत जरूरी हैं। वहाँ के किसान और शहर के मजदूर ऐसे मिले-जुले थे कि कुछ कहिये मत। शहरों के बाशिन्दे ज्यादातर किसान ही थे-यहाँ तक कि दूरदराज के गाँवों तक में ऐसे किसान थे जो आधो-साझे शहरों में रह चुके थे-रहते थे। कभी खेती-गिरस्ती करते थे, तो कभी शहरों में जाकर कोई रोजगार-व्यापार। एक आदमी शहर में रहता था, तो उसी परिवार का दूसरा देहात में। इसीलिए मजदूरों की हड़ताल और उनकी उथल-पुथल की छूत देहातों में फौरन पहुँच जाती थी। फिर तो आगे-आगे काम बढ़ता जाता था। फौजी जवान तो किसानों के ही बच्चे होते हैं। वहाँ भी ऐसी ही बात थी। इसीलिए फौज में भी क्रान्ति की बीमारी किसानों से ही जा पहुँचती थी। रूस की इस दशा के बारे में 'रूस' नाम की हाल की छपी पुस्तक में लेखक ने अपने ही अनुभव के बल पर यों लिखा हैं-
''खास-खास गाँवों के किसान खास-खास ढंग की तिजारतें करते हुए ऐसी जगहों में चले जाते थे जहाँ वे तिजारतें बहुतायत से नहीं होती थीं। दृष्टान्त के लिए माली, बढ़ई, मोची, सवारी-गाड़ीवाले वगैरह-वगैरह। गाँव की पंचायत उन्हें गाँव से बाहर इसी शर्त पर जाने देती थी कि गाँव का टैक्स चुकाने के लिए वे अपनी कमाई में से कुछ भेजा करें। यह भी होता था कि बुढ़ापे में शहरों की अपनी तिजारत या अपना पेशा अपने लड़कों या भतीजों को सौंप कर किसान लोग अपने गाँवों में इसलिए चले जाते थे कि वहाँ खेती-गिरस्ती का अपने हिस्से का काम करें। मैं ऐसे गाँव के गाँव को जानता हूँ जिनका काम मुख्यतया शहरों की कमाई से चलता हैं। जब गर्मी में कारखाने मरम्मत के लिए बन्द हो जाते थे, तो पेट्रोग्राड रेलवे स्टेशन पर गाँववालों के झुण्ड-का-झुण्ड मिलता था, जो फसल काटने के लिए घर जाता था। मास्को शहर के एक इलाके के पादरी ने मुझसे कहा कि उसके इलाके में एक पेन्शनयाफ्ता कर्नल के अलावे सभी-के-सभी निवासी किसान ही हैं। क्रान्ति के पहले एक गाँव में, जो किसी भी रेलवे स्टेशन से काफी दूर था और जहाँ बाहरी मैं ही था, बाकी वहीं के निवासी थे, एक सभा के समय मुझे पता चला कि करीब चालीस फीसदी निवासी ऐसे थे जिनने पेट्रोग्राड या मास्को में कभी न कभी काम किया था।''
विपरीत इसके अगर कल-कारखानों में काम करनेवाले सचमुच सर्वहारा हो जाये जिनका गाँवों से ताल्लुक ही न हो, तो यह आसानी नहीं होती-कम-से-कम मजदूरों के द्वारा यह लहर गाँवों में नहीं पहुँचती। इसीलिए कुछ दिक्कतें होती हैं। यह ठीक हैं कि इस जमाने में शहरों के इर्द-गिर्द ही गाँवों की जिन्दगी कायम रहती हैं। बिना शहरों के घनिष्ठ सम्बन्ध के गाँवों का काम चली नहीं सकता। कपड़ा-लत्ता, लोहा-लक्कड़ आदि हजार चीजों की जरूरत गाँववालों को रोज ही रहती हैं और यह चीजें शहरों में ही पायी जाती हैं। कचहरियाँ, अस्पताल, काँलेज वगैरह तो शहरों में ही होते हैं और इनमें किसान बराबर ही जाते हैं। काँलेजों में उनके लड़के, भाई वगैरह पढ़ने जाते ही हैं। इस तरह गाँवों का ताल्लुक शहरों से जुटा ही रहता हैं। यह दिन-ब-दिन और भी घनिष्ठ होता जा रहा हैं। फिर भी खुद भुक्तभोगी होके जो मजदूर अपने घर देहात में जायेगा उसमें और दूर से देख-सुनके सन्देशा लानेवालों में बहुत ही अन्तर होता हैं। भुक्तभोगी वाली आग उसमें नहीं होती। विद्यार्थी लोग खुद हड़तालों में पकड़े या मजदूरों की बातें जान के देहातों में उसकी छूत ज्यादा अच्छी तरह ले जा सकते हैं, यदि वे सतर्क और सजग हों। रूस में भी पहले वही लोग यह काम करते थे। मगर उसका उतना असर नहीं होता था जितना खुद भुक्तभोगी किसानों का हुआ।
भारतवर्ष में भी कल-कारखानों के मजदूर अधिकांश वैसे ही हैं जैसे क्रान्ति से पहले रूसवाले थे। यहाँ भी पूँजीवाद विकसित हो पाया हैं नहीं। यह देश उसी तरह पिछड़ा हुआ हैं। शहरों की गर्मी देहातों में आसानी से यहाँ भी फैल जाती
हैं। फैल सकती हैं। यहाँ भी साइमन कमीशन और बादशाह के चर्चा के सन
1921 ई. में आने के समय-और दूसरे भी अनेक अवसरों पर-राजनीतिक हड़तालें देशव्यापी हुई हैं। उनने देश में काफी गर्मी और उथल-पुथल भी पैदा की हैं।
जितनी प्रगति उनकी सफलता से हो सकी हैं उतनी और तरह नहीं, यह भी मानने की बात हैं। नया यूरोपीय युद्ध छिड़ने पर भी बम्बई आदि शहरों के मजदूरों ने राजनीतिक आम हड़ताल एक दिन की की थी। इसीलिए हमारे लिए यह कोई नई बात नहीं हैं।
सर्वहारा के नेतृत्व का मूल तत्त्व यह हड़तालें क्यों मानी जाती हैं और दूसरे ढंग से आम जनता क्यों नहीं लड़े या तैयार की जाये इस बारे में भी लेनिन की उक्ति बहुत ही अहमियत रखती हैं। दूसरे ढंग से भी जनता को तैयार करने को वह मना नहीं करता। मगर वह मानता हैं कि हड़ताल वाली लड़ाई के मुकाबिले में और तरीके फीके पड़ जाते हैं, उनकी कोई कीमत रही नहीं जाती, वे नकली ठहरते हैं। एक तरफ ये हड़तालें-आर्थिक और राजनीतिक दोनों ही-जनता को राजनीति की व्यावहारिक शिक्षा देती हैं, जो व्याख्यानों, अखबारों और किताबों में कभी मिल नहीं सकती। दूसरी ओर जब आर्थिक हड़तालें राजनीतिक हड़तालों से मिला दी जाती हैं और इस प्रकार उनकी काया-पलट हो जाती हैं तो क्रान्ति को विजय भी फौरन मिल जाती हैं। जन्म-भर में भी लोग जितना और तरह से नहीं सीख पाते उतना एक ही हड़ताल में सीख जाते हैं। इस सम्बन्ध में लेनिन खुद कहता हैं कि-
''जब मालदार रईस और आँख मूँद के उनके पिछलग्गू लोग, जिन्हें समाज सुधारवादी कहते हैं, आम जनता की शिक्षा की बातें बहुत ही शान के साथ बोलते हैं तो आमतौर से स्कूल मास्टरों की ही बातों से उनका मतलब होता हैं। वह बातें किताबी ज्ञान की ही होती हैं जो जनता को कमजोर बनाती और उसमें पूँजीवादियों के संस्कार भर देती हैं।
''जनता की वास्तविक शिक्षा को कभी उसकी स्वतन्त्र, राजनीतिक और खासकर क्रान्तिकारी लड़ाई से अलग कर सकते ही नहीं। शोषित जनता को तो केवल अपनी लड़ाई ही शिक्षित करती हैं। सिर्फ वह लड़ाई ही उसकी अपनी शक्ति के विस्तार को उस पर जाहिर करती हैं, उसकी दृष्टि को विस्तृत करती हैं, उसकी योग्यता बढ़ाती हैं, उसके दिमाग को साफ करती हैं, उसकी इच्छा-शक्ति (दृढ़ संकल्प) को दृढ़ करती हैं। इसीलिए प्रतिक्रियावादियों को भी यह मानना पड़ता हैं कि सन 1905 ई. के साल ने ही, जिसे लड़ाई का साल और इसीलिए 'पागल साल' भी कहते हैं, निश्चित रूप से पुराने दकियानूस रूस को दफना दिया था।''
''सन 1905 के शुरू में अधिकांश आर्थिक और अन्त में अधिकांश राजनीतिक हड़तालें जो लोहे आदि धातुओं के कारखानों के श्रमिकों ने कीं, उससे यह बात साफ ही सिद्ध हो जाती हैं कि मजदूरों की दशा को फौरन और सीधे-सीधे सुधारने के लिए जो आर्थिक लड़ाईयाँ लड़ी जाती हैं सिर्फ वही शोषित जनता के अत्यन्त पिछड़े भाग को जाग्रत और प्रबुद्ध कर सकती हैं, उन्हें वास्तविक शिक्षा देती हैं और क्रान्ति के युग में कुछी महीनों के अन्दर उन्हें बदल के राजनीतिक लड़ाई की सेना में परिणत कर देती हैं।''
इन हड़तालों और सीधी लड़ाईयों का शोषित जनता की दृष्टि से जो महत्त्व हैं उसका इतना सुन्दर वर्णन कहीं नहीं मिलेगा। लेनिन ने जो शोषितों (किसानों और मजदूरों आदि) की 'स्वतन्त्र राजनीतिक' लड़ाईयों का उल्लेख किया हैं वह बड़ा ही महत्त्वपूर्ण हैं। जो लोग राष्ट्रीय संग्राम को किसी खास संस्था की बपौती मानते हुए यह कहने में शर्माते नहीं कि किसानों और मजदूरों को, मुल्क की गुलामी की दशा में, स्वतन्त्र राजनीतिक लड़ाई लड़ने का हक नहीं हैं, उनकी अक्ल पर हमें तरस आता हैं, खासकर जबकि वे अपने को मार्क्सवादी घोषित करते हैं। उन्हें पता ही नहीं कि मार्क्स ने अपने ऐतिहासिक 'कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो' में यह ऐलान कर दिया हैं कि हरेक 'वर्ग-संघर्ष राजनीतिक लड़ाई हैं'-इसीलिए लेनिन ने उसी सिलसिले में, जिसका उल्लेख अभी हुआ हैं, साफ ही लिखा हैं कि-
''बेशक, शोषितों की विजय के लिए यह जरूरी हैं कि श्रमजीवियों में जो अग्रदूत हैं वह समझ लें कि वर्ग-संघर्ष इसलिए नहीं किया जाता हैं कि उससे मुट्ठी भर मालदारों का उल्लू सीधा हो-उनका काम बने, जैसा कि सुधारवादी लोग मजदूरों को समझाने की कोशिश करते हैं। दरअसल अधिकांश शोषित जनता की लड़ाई के अग्रदूत और पथदर्शक बनकर ही सर्वहारा आगे आये हैं और इसी तरह वे उन अधिकांश लोगों को अपने साथ घसीट लेते हैं, जैसा कि सन 1905 ई. में रूस में हुआ था। यूरोप के भावी विप्लव में भी ऐसा ही होगा।''
इन हड़तालों में क्या जादू हैं, इनकी क्या करामात हैं, ये कितनी तेजी के साथ मुर्दा लोगों में जान और जागृति ला देती हैं, उनमें क्रान्ति का भाव भर देती हैं, उन्हें उसके लिए लड़ने और मर मिटने को तैयार कर देती हैं, यदि यह बात बखूबी समझना हो तो सन 1905 ई. के शुरू में रूस के मजदूरों की हालत को जान लेना जरूरी हैं। वे कितने नीचे गिरे थे, राजनीतिक दृष्टि से उनका पतन कितना गहरा था इसे जाने बिना हम हड़ताल की महिमा समझ ही नहीं सकते।
जब 22-1-1905 रविवार को मजदूरों का जुलूस पेट्रोग्राड में जार के महल विण्टर पैलेस के सामने गया तो उसकी अजीब हालत थी। मजदूरों की असीम श्रद्धा-भक्ति जार में थी। उन्हें विश्वास था कि वह उनका दु:ख दूर करेगा। वह तो जार को अपना दुखड़ा सुनाने गये ही थे जुलूस बाँध कर। जुलूस में मर्द, स्त्री, बच्चे सभी थे। उनके पतन का दूसरा प्रमाण यह था कि उनका नेता एक पादरी, जार्ज गेपन था, जिसके बारे में माना जाता हैं कि खुफिया पुलिस का दूत था। एक तो पादरी ही दकियानूस। तिस पर भी जारशाही के पादरी, और अगर वह खुफिया का आदमी हो तो गजब हो गया। फिर भी वही मजदूरों के लम्बे जुलूस का नेता था और आगे-आगे जारशाही का झण्डा लिये जार की जय मनाता चलता था। पीछे-पीछे मजदूर भी वही करते थे। ता. 2-1-05 को रूस जापान युद्ध में पोर्ट आर्थर की हार के तीन हफ्ते बाद ही यह जुलूस निकला था।
अब जरा उनकी प्रार्थना की बात सुनिये। लेनिन के शब्दों में उनकी माँग थी कि कैदी छोड़े जाये, नागरिक स्वतन्त्रता प्राप्त हो, उचित वेतन मिले, जमीन धीरे-धीरे किसानों को मिले, विधन परिषद् बुलायी जाये और उसका चुनाव बालिग मताधिकार के आधार पर हो। उनने यह भी कहा था कि ''सेंट पीटर्सबर्ग के हम मजदूर भगवान की शरण आये हैं। हम लोग बदकिस्मत, बदनाम गुलाम हैं। अत्याचार और जुल्म के नीचे हम पिस रहे हैं। आखिर जब हमारी सहनशक्ति के बाहर बात हो गयी, तो हमने काम बन्द कर दिया और अपने मालिकों से यही अर्ज किया कि हमें उतना ही दीजिए जिसके बिना जीवन दु:खमय हो जाता हैं। मगर हमारी प्रार्थना अनसुनी कर दी गयी। कारखानेदारों को हमारा हरेक काम गैरकानूनी जँचता हैं। रूस की समस्त जनता की ही तरह हम अनेक सहस्र श्रमिकों को कोई भी मानवीय हक हासिल नहीं हैं। भगवन्, आपके अफसरों के करते ही हम गुलाम बने हैं।''
जार के प्रति उनके अपार विश्वास का पता लगता हैं उनके प्रार्थना-पत्र के अन्तिम वाक्यों से। वे कहते हैं कि 'हे पिता, अपने जनों की सहायता से मुँह मत मोड़िये ! हुजूर और हुजूर की जनता के बीच में जो दीवार खड़ी हैं उसे गिरा दीजिये। आज्ञा दीजिये और शपथ कीजिये कि हमारी प्रार्थना पूरी होगी और भगवान् (हुजूर) रूस को सुखी बनायेंगे। अगर ऐसा न होगा तो हम यहीं मरने को तैयार हैं। हमारे लिए दो ही रास्ते हैं-आजादी और आराम या मौत।'
नतीजा क्या हुआ? यही न कि उन पर जार के ही हुक्म से गोलियाँ चलीं और हजारों लोट गये? एक हजार मरे, दो हजार जख्मी हुए-मर्द, औरत, बच्चे सभी! ऐसी पुलिस की रिपोर्ट थी ! खून की धारा बह निकली और खूनी रविवार के नाम से वह रविवार तभी से पुकारा जाने लगा हैं।
सिर्फ जार के पास प्रार्थना पत्र ले जाने से ही मजदूरों का पूरा पतन सिद्ध नहीं होता। उस समय जार ने गोली हर्गिज न चलवायी होती, यदि उसे विश्वास नहीं होता कि लोग कुछ न करेंगे। क्योंकि ये भेड़-बकरों जैसे हैं। उस समय जो लोग सुधारवादी थे वह थे तो पूँजीवादी ही। ऐसे लोग जनता की मनोवृत्ति की अच्छी परख रखते हैं यह मानी हुई बात हैं। उस समय रूस में उनका नेता था पीटर स्ट्रूव। वह कहता था कि हमारा देश तो अपढ़ किसानों का ही हैं। यहाँ क्रान्ति की बात करना पागलपन के सिवाय और कुछ नहीं हैं। दकियानूस सुधारक माने बैठे थे कि वास्तविक क्रान्ति यहाँ असम्भव हैं। यहाँ तक कि खूनी रविवार के दो दिन पहले उसी पीटर स्ट्रूव ने कह डाला था कि रूस की जनता अभी तक क्रान्तिकारी नहीं हैं। उन दिनों मजाक से लेनिन की पार्टी को एक सम्प्रदाय कहा जाता था।
मगर खूनी रविवार के गोलीकाण्ड ने काया पलट कर दी। उसी समय से हड़तालें शुरू हुईं। 26वीं जनवरी को तो मास्को में आम हड़ताल की ही घोषणा हो गयी। रूस के जितने प्रमुख नगर थे, सर्वत्र हड़ताल हो गयी ! यह सिलसिला साल भर जारी रहा। जहाँ सन 1905 ई. से पूर्व के दस वर्षों में कुल मिला के 430000 मजदूरों ने हड़ताल में भाग लिया था, तहाँ इस साल केवल जनवरी में ही 440000 उसमें सम्मिलित हुए और नवम्बर आते-आते ऐसी गर्मी आयी कि सिर्फ नवम्बर में ही जनवरी से भी बढ़ गये और पाँच लाख से भी ज्यादा शामिल हो गये ! और साल भर में? पूरे अट्ठाईस लाख ! जून मास में इवानो वो-बोज्ने सेन्स्क के कपड़े की कलों के मजदूरों ने अपनी पंचायत-सोवियेट कायम कर ली। सितम्बर में सेंट पीटर्सबर्ग में भी सोवियेट बनी। तारीख 20-10-05 को मास्को में आम हड़ताल हुई। सारा कारबार चौपट हो गया। लोग मरने लगे। उसी बीच में 26-10-05 को वहाँ भी सोवियेट बनी जो 16 दिसम्बर तक-50 दिनों तक-जीवित रही। और जहाजी बेड़ों में तो हड़ताल हुई ही। वहाँ बगावत भी हुई। एक बार जून में काले सागर के ओडेसा के नजदीक प्रिंस पोटमकिन नामक लड़ाई के जहाज के सिपाहियों ने बगावत कर दी। फिर 24-11-05 को सेबास्टपोल में यही बात हुई।
मास्को की सोवियेट ने बाकायदा शासन सूत्र हाथ में लेने जैसा कर लिया था। घोषणाएँ निकालती थी। टैक्स देना बन्द करवा दिया था। आठ घण्टे से ज्यादा काम मजदूर न करें ऐसी भी घोषणा उसने 13-11-05 को निकाल दी थी। 14-12-05 को टैक्स बन्दी का मैनिफेस्टो भी उसने निकाला था, जिसे फाइनेन्स मैनिफेस्टो कहते हैं। उसने पूँजीवादियों को चेतावनी भी दी थी कि क्रान्ति की सफलता के बाद जारशाही के सभी कर्ज रद्द कर दिये जायेगे। जारशाही ने पीटर्सवर्ग की सोवियेट पर पहला हमला 9-12-05 को किया, जब उसका द्वितीय सभापति नोसार पकड़ा गया। पहला था ज्बोरोस्की। नोसार के बाद एक हफ्ते तक त्रात्स्की अधयक्ष रहा। मगर नोसार के पकड़े जाने और सोवियेट के गैर-कानूनी होने की खबर पहुँचते ही 19-12-05 को मास्को की सोवियेट ने फिर आम हड़ताल का हुक्म दिया और दो ही दिनों के भीतर डेढ़ लाख मजदूरों ने काम छोड़ दिया। फिर तो 22-12-05 से लेकर 1-1-06 तक सरकारी पक्ष की फौज और क्रान्तिकारी फौजों में वहाँ घमासान होती रही। जोश इतना था कि केवल आठ ही हजार क्रान्तिकारी जवानों ने नौ दिनों तक सरकार का डटकर मुकाबिला किया। तब कहीं हारे। फिर भी गर्मी खत्म नहीं हुई और सन 1906 ई. के मध्य में फिनलैंड की खाड़ी में लेनिनग्राड के निकट क्रान्स्ताद और स्वीवोर्ग के फौजी जहाजी अवें में भी बगावत हो गयी। इसी दौरान में सन 1905 ई. में अक्टूबर में जार ने फिनलैंड को आजादी भी दी और वहाँ पार्लिमेण्ट भी बनी। बालिग मताधिकार माना गया।
यद्यपि इस तूफान से घबरा के जार ने समस्त रूस के लिए भी पार्लिमेंट (डूमा) की घोषणा ता. 19-8-05 को की थी, जिसे उसके प्रधानमन्त्री बुलिगिन के नाम से बुलिगिन डूमा भी कहते हैं। परन्तु उसे कोई अधिकार नहीं दिया गया था। वह सिर्फ जार से सिफारिश कर सकती थी। इसीलिए जनता ने इसका बायकाट किया। हार कर जार ने तारीख 30-10-05 को दूसरी डूमा की घोषणा की। इसे कानूनी अधिकार कम वेश दिये गये। औरों ने तो इसका भी विरोध किया। मगर साम्राज्यवादी लोगों ने इसे मान लिया। इसलिए तभी से उस दल को अक्टूबर वाला या अक्टोबरिस्ट कहने लगे। यह बड़े-बड़े पूँजीवादियों और जमींदारों का ही दल था। इसका लीडर मास्को का बड़ा पूँजीपति गचकोफ था। चुनाव होके पहली डूमा (एक हिसाब से दूसरी) की पहली बैठक 27-4-06 को हुई। मगर नर्मदली पूँजीवादी पार्टी, केडेट पार्टी के लीडर नबोकोफ ने जो व्याख्यान उसमें दिया उसमें गिर्जों एवं मन्त्रियों या जार के खानदान की जमीनों के सिवाय जमींदारों की भी जमीनें छीन के किसानों को देने पर जोर दिया और बहुमत से सरकार को हरा दिया। यह याद रखना चाहिए कि यह वही केडेट पार्टी हैं जिसका मुख्य नेता मिल्यूकोफ फरवरी रेवोल्यूशन के बाद में तात्कालिक सरकार का विदेशी मन्त्री था। उधर जार के प्रधानमन्त्री स्टालिपिन ने 20-6-06 को एक घोषणा जारी की, जिसके जरिये किसान गाँवों की पंचायती जमीनों का भी बँटवारा करके पंचायत से अलग हो सकते थे। फलत: सरकार के साथ डूमा की लड़ाई हो गयी। पूँजीवादियों के नर्म दल ने तारीख 6-7-06 को किसानों के नाम घोषणा निकाली कि जमीनें छीनकर तुम्हें दी जायेगी। सरकार डर गयी और 8-7-06 को इस डूमा को उसने भंग कर दिया।
मगर जब फिर चुनाव हुआ तो पुनरपि नरमदली बहुमत में आये। उसकी मीटिंग 20-2-07 में हुई। फिर वही बात रही। जार घबराया तारीख 2-6-07 की रात में वह भी भंग कर दी गयी। और सन 1907 के अन्त में चुनाव का नया कानून प्रकाशित हुआ, जिसमें ऐसा किया गया कि गरीब लोग मत दे न सकें। इस प्रकार सन 1907 ई. के बीतते-न बीतते जो तीसरी डूमा बनी वह जारशाही के मन लायक थी और उसी ने स्टालिपिन की घोषणा को कानूनी रूप दिया। जारशाही की ताकत भी लगातार तीन वर्षों के तूफान के बाद सन 1907 ई. के अन्त में मजबूत हो सकी। गत यूरोपीय युद्ध के समय तो चौथी डूमा थी।
मास्को में जो आम हड़ताल 20 अक्टूबर से शुरू हुई थी उसके फलस्वरूप सरकार की साँस-डकार बन्द थी। सभाओं और मीटिंगों की आजादी थी। अखबार निकालने की स्वतन्त्रता थी। कोई किसी को पूछता न था। सरकार को लोग भूल से गये थे। चाहे जो छापो और प्रचार करो। सरकारी अफसरों को हिम्मत न थी कि चूँ भी करें। तीन क्रान्तिकारी पत्र खुलेआम छपते थे !
इस प्रकार सर्वहारा की लड़ाई के साधन, हड़ताल ने कमाल किया और जारशाही के नाकों चने चबवा दिये। फौज और जंगी जहाजों पर क्या असर हुआ यह तो कहा ही गया हैं। किसानों में भी बिजली दौड़ गयी। बेशक सन 1905 ई. के पहले भी किसानों में उत्तेजना थी। और सन 1900 तथा 1904 के भीतर 670 बार उनने बगावत की थी, जिनमें 441 बार तो जमींदारों के विरुद्ध और बाकी में 196 सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध। शेष ईधर-उधर। मगर सन 1905 ई. की गर्मियों (वसन्त) में यह आग ऐसी फैली कि रूस के जितने जिले थे उनके सातवें हिस्से में विप्लव भड़क उठा था। बहुत-सी जिम्मेदारियाँ खत्म हो गयीं। बरसात आते-आते तो यह आग एक तिहाई से भी अधिक जिलों में भड़क गयी और कम-से-कम दो हजार बड़े-बड़े जमींदार चौपट हो गये ! मजदूरों की राजनीतिक हड़तालों के साथ-साथ किसानों की भी हड़तालें हुईं। तभी इतनी गर्मी आयी। इस बात का बहुत ही मार्मिक वर्णन लेनिन ने सन 1905 वाली क्रान्ति के बारे में बताते हुए किया हैं।
सर्वहारा के नेतृत्व के सम्बन्ध में एक बात और कह देना हैं। मध्यवर्गीय नेतृत्व या सम्मिलित नेतृत्व में और इसमें मौलिक अन्तर यह हैं कि जहाँ दूसरे नेता जनता के हक में भला-बुरा निश्चय करके तदनुसार ही काम करने की आज्ञा देते हैं, तहाँ सर्वहारा के नेतृत्व में उल्टी बात पायी जाती हैं। जैसा कि लेनिन के कई वाक्यों को उध्दृत करके बहुमत क्रान्ति के ही सिलसिले में यह बताया जा चुका हैं, सर्वहारा-वर्ग जनता या श्रम करनेवाले लोगों को यह मौका देता हैं कि वह अपने अनुभव के जरिये उस बात की जरूरत महसूस कर लें, जिसे सर्वहारा दल के नेता उनके लिए कर्त्तव्य बताते हैं। मूलभूत सिद्धान्त इसमें यही हैं कि जब तक जनता को सर्वहारा की नीति, कार्यक्रम और नारे आदि में अपने अनुभव के जरिये विश्वास न हो जाये और वह उसे अवश्य कर्त्तव्य न मानने लगे तब तक सर्वहारा के नेताओं को उस नीति पर हर्गिज अमल नहीं करना चाहिए और अगर अमल शुरू करने के बाद पता चले कि जनता को इसमें विश्वास हो नहीं पाया हैं, वह तहेदिल से इसकी उपयोगिता और जरूरत महसूस नहीं करती हैं तो उस काम को फौरन रोक देना चाहिए। हर्गिज प्रतिष्ठा और इज्जत का ख्याल दिल में न लाना चाहिए।
नई आर्थिक व्यवस्था का श्रीगणेश करने के समय लेनिन ने कहा था कि-
''हमें किसी बात का तोप-ताप हर्गिज नहीं करना चाहिए। हमें साफ-साफ कहना चाहिए कि जो प्रणाली हमने जारी की हैं उससे किसान असन्तुष्ट हैं। और वे अब इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते। इसमें विवाद की गुंजा हीश हैं ही नहीं। बेशक, उनने अपनी मर्जी बहुत ही साफ तौर से जाहिर की हैं। कमानेवाली जनता की बहुत बड़ी जमात की मर्जी हमारे सामने डँटी हैं। उनकी मर्जी का ख्याल हमें करना ही होगा और राजनीतिज्ञ की हैंसियत से हमें असलियत को कबूल करके कहना होगा कि आइये, उस प्रश्न पर फिर नये सिरे से विचार करें।''
मध्यमवर्गीय या अन्य नेतृत्व में यह बात नहीं होती। उनके सामने तो कदम-कदम पर प्रतिष्ठा का सवाल चट्टान की तरह आ खड़ा होता हैं और उसी के सामने दब जाते हैं। सर्वहारा दल के नेताओं में यह बात होती ही नहीं। वह तो जनता को समझा-बुझाकर साथ ले चलना चाहते हैं। वे हजार बार ऐसी हालत में पीछे हट आयेंगे, अगर जनता का दिल अपने साथ नहीं पाते। 'क्रान्ति और सरकार' नामक पुस्तक में लेनिन ने लिखा हैं कि-
''मजदूरों की पार्टी को सिखाने-पढ़ाने के रूप में मार्क्सवाद सर्वहारा के अग्रदूत को ही शिक्षित करता हैं और इस प्रकार इसे तैयार करता हैं कि शासन-सूत्र को छीन ले, नई सामाजिक व्यवस्था को संगठित करे और चलाये और जो लोग मेहनत करनेवाले हैं उन सबों का शिक्षक, पथदर्शक और नेता बने। यह इसलिए कि उनकी नई सामाजिक जिन्दगी को पूँजीवादियों के बिना ही, संगठित करे और उनके विरुद्ध भी जनता का शिक्षक, पथदर्शक और नेता बने।''
वह और भी लिखता हैं कि अगर ढाई साल तक शासन सूत्र सफलतापूर्वक अपने हाथ में रखने के बाद भी हमें रूस में यह शर्त लगानी पड़े कि जो सर्वहारा के एकतन्त्र शासन के सिद्धान्त को स्वीकार न करे वह ट्रेड यूनियनों का मेम्बर नहीं बन सकता, तो हमारे लिए शर्म की बात होगी और मेनशेविक आदि अवसरवादियों से हममें विशेषता क्या होगी? वह कहता हैं कि-
''अगर लगातार ढाई साल तक रूसी पूँजीपतियों तथा मित्र राष्ट्रों के सरमायादारों के विरुद्ध सफल युद्ध करने के बाद भी आज हमें ट्रेड यूनियनों की मेम्बरी के लिए यह शर्त लगानी पड़े कि सर्वहारा के एकतन्त्र शासन का सिद्धान्त मेम्बरों को मानना होगा, तो यह बड़ी भारी भूल होगी, इससे जनता के ऊपर अपना असर हम खो बैठेंगे, और हम मेनशेविकों के मददगार बन जायेगे। क्योंकि कम्युनिस्टों का तो असली काम यही हैं कि अपने वर्ग (श्रमिकों) के पिछड़े हुए लोगों में अपने प्रति विश्वास पैदा करें और उनके बीच काम करें। न कि बनावटी और बच्चों जैसे अति वामपक्षी नारों को लगाके उनसे अपने आपको जुदा कर दें।''
जो लोग नेतृत्व के सिलसिले में अनुशासन की कार्यवाही, दण्ड और बल प्रयोग की बातें करते हैं और मानते हैं कि कोई संस्था या पार्टी दण्ड और अनुशासन के बिना दृढ़ नहीं हो सकती; इसीलिए रह-रह के अपने लोगों के खिलाफ अनुशासन की कार्यवाही करना जो जरूरी समझते हैं, उन्हें मीठे-मीठे सुनाते हुए लेनिन ने कम्युनिस्ट पार्टी की दसवीं कांग्रेस के व्याख्यान और ट्रेड यूनियन सम्बन्धी अपनी पुस्तिका में यों बताया हैं-
''जब लोग एक भूल कर चुकरनें पर उसके समर्थन की कोशिश करते हैं, तो राजनीतिक परिस्थिति खतरनाक हो जाती हैं। यदि कुतुजोफ के विचारों पर अमल करने के सम्बन्ध में जनतन्त्रीय तरीके से जो भी सम्भव था किया न गया होता तो राजनीतिक विस्फोट हुआ रहता। हमें पहले लोगों को समझा-बुझा के मनाना चाहिए और बल प्रयोग या दण्ड को पीछे रखना चाहिए। हर हालत में हमें लोगों को पहले समझाना-बुझाना होगा और बल प्रयोग उसके बाद ही करना होगा। इस मौके पर हमने लोगों को रुजू करने में सफलता प्राप्त नहीं की। नतीजा यह हुआ कि अग्रदूत और आम लोगों के बीच का सम्बन्ध खराब हो गया।''
''जहाँ-जहाँ हमने लोगों को समझा-बुझा के अपने अनुकूल कर लिया वहीं हमारा बल प्रयोग ठीक और सफलीभूत हुआ हैं।''
इस सम्बन्ध में ज्यादा न कहके स्तालिन के वक्तव्य का वह आखिरी अंश यहाँ देना हम जरूरी समझते हैं जो उसने सन 1927 ई. के अगस्त में चीन के सम्बन्ध में दिया था। उस समय भी यही नेतृत्ववाला झमेला सोवियट की कम्युनिस्ट पार्टी में पेश था। इसलिए वह वक्तव्य महत्त्व रखता हैं। खासकर चीन के बारे में कुछ लोगों का यह इल्जाम था कि स्तालिन के दल ने चीन के कम्युनिस्टों का ठीक पथ प्रदर्शन नहीं किया। उसके जवाब में स्तालिन कहता हैं कि-
''हमारे विरोधियों ने उस समय (जबकि नानकिंग की क्यूमिनटांग के सिवाय जो क्यूमिनटांग हैंकाऊ में थी वह कम्युनिस्टों के प्रभाव में थी) यह पुकार मचाई कि किसानों और मजदूरों के प्रतिनिधियों की सोवियट चीन में कायम की जाये। मगर यह तो दुस्साहसिकता थी-यह दुस्साहसपूर्ण अगला छलाँग मारना था। क्योंकि उसी समय फौरन सोवियट शासन के प्रचार का सीधा अर्थ होता क्यूमिनटांग के वामपक्षीय प्रगति की दशा को पार कर जाना। क्यों? क्योंकि जो क्यूमिनटांग वूहान (हैंकाऊ) में थी और जिसका सहयोग कम्युनिस्टों के साथ था उसने किसानों और मजदूरों के जनसमूह के सामने अपना भंडाफोड़ और अप्रतिष्ठा जाहिर कर नहीं दी थी-पूँजीवादी क्रान्ति की संस्था के रूप में उसने तब तक अपना दिवाला निकाला न था। जब तक अपनी आँखों जनता ने वूहान की सरकार के सड़ेपन को देख नहीं लिया और इसीलिए उसे उठा फेंकरनें की जरूरत समझ न ली उसके पहले ही उसे खत्म करने और सोवियट शासन कायम करने का नारा बड़ी छलाँग मारने जैसा हैं। इसका फल यही होगा कि आम लोगों से वहाँ के कम्युनिस्ट अलग पड़ जायंगे, उन्हें लोगों का समर्थन प्राप्त न हो सकेगा और इस तरह इस छलाँग का नतीजा होगी हार।
''विरोधी लोग समझे बैठे हैं कि अगर खुद उनने वूहान की क्यूमिनटांग की निरर्थकता, कमजोरी तथा उसमें क्रान्तिकारी सिद्धान्तों का अभाव समझ लिया-और यह बात कोई भी चतुर श्रमजीवी आसानी से समझ सकता हैं-तो उसके मानी यह हो जाते हैं कि आम लोग भी यह बात ठीक उसी तरह समझने लगे हैं। यहाँ तक कि वह लोग मानने लगे हैं कि लोगों को तैयार किया जा सकता हैं कि क्यूमिनटांग की जगह सोवियट शासन कायम करें। मगर यही तो हमारे विरोधियों की सनातनी भूल हैं जिसे अति वाम पक्षवाद कहा जाता हैं। इसमें जो असली ऐब हैं वह यह हैं कि हमारे विरोधी लीडर लोग अपनी जानकारी और समझ को ही करोड़ों किसान-मजदूरों की जानकारी और समझ माने लेते हैं।
''हमारी पार्टी को सिर्फ खुद आगे न बढ़के जनसमूह को भी अपने साथ ले चलना चाहिए। क्योंकि लोगों को बिना साथ लिये आगे बढ़ने का असली मतलब हैं पीछे पड़ जाना-आन्दोलन का पुछल्ला बन जाना।
''लेनिनवादी नेतृत्व का निचोड़ यही हैं कि अग्रदूत को ऐसा करना चाहिए कि बाकी लोग उसके पीछे-पीछे चलें, और अग्रदूत आगे इस तरह बढ़े कि जनसमूह से अलग न पड़ जाये। लेकिन ऐसा होने के लिए-अग्रदूत के पीछे लक्ष-लक्ष जनता जरूर चले; इसके लिए-एक अनिवार्य शर्त हैं जिसका प्रभाव नतीजे पर ख़ामखाह पड़ता हैं, और वह यह हैं कि जनसमूह को अपने ही अनुभव के आधार पर यह पक्का यकीन हो जाना चाहिए कि अग्रदूत की नीति, उसकी हिदायतें और उसके नारे बिलकुल सही हैं। असल में हमारे विरोधियों के साथ दिक्कत यही हैं कि वे लेनिनवादी नेतृत्व के इस सीधे-सादे कायदे को समझ पाते ही नहीं कि असंख्य पीड़ित जनता की दिली मदद के बिना अकेली पार्टी या अकेला प्रगतिशील दल क्रान्ति कर नहीं सकता। क्योंकि अन्ततोगत्वा क्रान्ति को बनाती हैं, जन्म देती हैं असंख्य श्रमिकों की जमात ही।''
इससे ज्यादा सफाई के साथ और विस्तृत रूप में सर्वहारा के नेतृत्व का रूप प्रकट किया जा सकता नहीं। स्तालिन ने लेनिन के बाद सन 1927 ई. के उत्तरार्ध्द तक के अनुभव के आधार पर इस बात को पक्का ठहराया हैं और उसी ने इस पर मुहर भी दी हैं। आज्ञाधारिता, डिसिप्लीन और नेतृत्व के नाम पर जनता को जबर्दस्ती अपने मन के मुताबिक घसीटने की कोशिश खतरनाक और गलत नेतृत्व की निशानी हैं। सर्वहारा का नेतृत्व जनता को समझा-बुझा कर, उसे यह मौका देकर कि वह अपनी आँखों और दिल-दिमाग से क्रान्ति की जरूरत महसूस करे और उसके लिए तैयार हो जाये, जनता को दिल से साथ ले चलने में ही हैं।
लेकिन इस सम्बन्ध में एक बात सदा याद रखने की हैं कि समझाने-बुझाने और धैर्य के साथ जनता के भीतर काम करते रहने का मतलब यह नहीं हैं कि सर्वहारा-वर्ग के नेताओं या उनकी संस्थाओं में आज्ञा-पालन और अनुशासन (discipline) की ओर से लापरवाही हैं-वहाँ इसकी वैसी कदर नहीं हैं जैसी चाहिए। जनता के और मजदूर-किसानों के जबर्दस्त बहुमत को अपने साथ लाने तक तथा अपने संगठन के भीतर भी ऐसा ही बहुमत होने तक तो धैर्य के साथ काम करना ही होगा। चाहे समय कितना ही लगे। इसमें घबराहट के लिए गुंजा हीश हैं नहीं। लेकिन जब एक बार पूरे विचार-विमर्श और निजी अनुभव के आधार पर बहुमत से कोई बात तय पा गयी, तो फिर किसी को हक नहीं कि आगा-पीछा करे। सभी को आँख मूँद के उस पर अमल करना ही होगा। नहीं करने पर बेमुरव्वती के साथ अनुशासन की कार्यवाही जरूर की जायेगी। जरा भी रिआयत न होगी। इसी का नाम फौलादी अनुशासन (Iron discipline) हैं।
किसी भी नई बात के बारे में नेता लोग या कार्यकारिणी समिति कुछ भी निर्णय करने के पहले ख़ामखाह संस्था के सभी लोगों को, या यों कहिये कि जिन्हें उस निर्णय के अनुसार खटना और मरना-मिटना होगा उन्हें, जरूर मौका देगी, पूरा अवसर देगी कि वे उसपर अच्छी तरह सोच-विचार के राय दें। इस बात में जरा भी कसर नहीं की जायेगी। मगर एक बार नीचे से ऊपर तक सभी की राय लेने के बाद जब बहुमत से कोई निर्णय हो गया, तो किसी को भी हक नहीं रह जाता कि उसके खिलाफ जाये। सभी को उसपर अमल करना ही होगा। जो ऐसा न करे उसे उस संस्था और संगठन से बाहर चला जाना होगा। इस तरह इस तरीके में जनमत और बहुमत के लिए पूरा अवसर मिलने के साथ ही काम करने में निरंकुश शासन जैसा प्रतीत होता हैं। क्योंकि निर्णय के अनुसार काम कराने में जरा भी चींचपड़ और ढीलेपन को गुंजा हीश नहीं दी जाती। इसे ही अंग्रेजी में डेमोक्रेटिक सेंट्रलाइजेशन कहते हैं। लेनिन ने जो पहले रुजू करने और समझाने तथा पीछे बल प्रयोग की बात कही हैं उसका भी यही मतलब हैं। वह और भी कहता हैं कि-
''इस समय जबकि भयंकर घरेलू युद्ध चालू हैं, कम्युनिस्ट पार्टी अपना फर्ज केवल इसी शर्त पर अदा कर सकती हैं कि वह अत्यन्त केन्द्रित शक्ति रखती हो, उसमें फौलादी आज्ञा-पालन का ही प्रभुत्व हो, यह फौलादी आज्ञा-पालन अपनी सख्ती के करते नीम-फौजी हो, इसके जो पथ-प्रदर्शक केन्द्र में हों उनमें सर्वसाधारण सदस्यों का पूर्ण विश्वास हो, उन्हें पूरा अधिकार प्राप्त हो और आज्ञा निकालने तथा काम करवाने के विस्तृत अधिकार उन्हें दिये गये हों।''

 

रचनावली 5 : भाग - 4
 

 

 

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