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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-5

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा

किसान और क्रान्ति

क्रान्ति के सिलसिले में जो एक बहुत बड़ा सवाल उठता हैं और जो निहायत ही अहम सवाल हैं, वह हैं किसानों का सवाल। क्रान्ति में उनका कोई महत्त्वपूर्ण हिस्सा होता हैं या नहीं, होगा या नहीं, और अगर होगा तो किस तरह का? वे क्रान्ति के सहायक होंगे या विरोधी? अगर विरोधी न हों तो अनुकूल होने का क्या उपाय हैं? फ्रांस में तो श्रमजीवियों के विरुद्ध ही वे हमेशा रहे और पूँजीवादियों या उनके दोस्तों का ही साथ दिया। नेपोलियन के इशारे पर चलकर उनने क्या-क्या नहीं किया? फौज में वही भर्ती हुए और फौज ने क्रान्ति के खिलाफ बहुत कुछ किया। मगर रूस में और चीन में ठीक इससे उल्टी बात हुई। अथ से इति तक उनने क्रान्ति के काम में मजदूरों का साथ पूरा-पूरा दिया। मजदूरों के इशारे पर ही वे लोग मरते- मिटते रहे। तो फिर इसका असली रहस्य क्या हैं? वे परस्पर विरोधी काम क्यों करते हैं? क्रान्ति में तो उनका किसी प्रकार का निश्चित भाग होना चाहिए, जैसा कि श्रमजीवियों का हैं।
इस सम्बन्ध में लेनिन ने भी 'कार्ल मार्क्स के उपदेशों की ऐतिहासिक गति' में लिखा हैं कि-
''सन 1848 ई. के जून में पेरिस में प्रजासत्ता मूलक शासनवादी पूँजीपतियों ने जो श्रमिकों पर गोलियाँ चलवायीं उससे सदा के लिए यह तय पाया गया कि केवल सर्वहारा साम्यवादी होते हैं। और तरह के विरोधियों की अपेक्षा इस सर्वहारा-वर्ग की स्वतन्त्रता से उदार पूँजीवादी हजार गुना ज्यादा डरते हैं। नपुंसक उदार दलली इसके सामने थर्राते हैं। किसानों की यह हालत रही कि सामन्तशाही के बचे-खुचे अंश को मिटा देने से ही खुश होके अमन-कानूनवादियों के साथ जा मिले। केवल कुछी मौकों पर वे आगा-पीछा करते रहे कि आया श्रमिकों के जनतन्त्र का साथ दें या उदार पूँजीवाद का। इससे साफ हो जाता हैं कि वर्गवादी साम्यवाद और वर्गवादी राजनीति के सिवाय जो कुछ उपदेश दिये जाते हैं उनके कुछ मानी नहीं हैं।''
लेनिन के कथन का साफ अर्थ यही हैं कि दरअसल किसान वर्ग क्रान्तिकारी नहीं हैं। वह तो जमीन का भूखा हैं। बुखारिन के शब्दों में वह अपने नन्हे खेत के आगे देख नहीं सकता। उसे तो जमीन चाहिए, जमींदारी जुल्मों से छुटकारा चाहिए, हरी, बेगारी, नजराना, गुलामी, अर्ध्द गुलामी वगैरह सामन्तयुग के अत्याचारों से मुक्ति मिलना चाहिए। उसका पहला ध्यान इन्हीं बातों की ओर जाता हैं। साम्यवाद, समाजवाद, व्यक्तिगत सम्पत्ति का नाश, सम्मिलित सम्पत्ति, सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण आदि बातें समझने में वह बिलकुल ही असमर्थ होता हैं। इन बातों की जरूरत तो धीरे-धीरे उसे परिस्थितिवश महसूस होती हैं, जब नन्हे-नन्हे खेतों से उसका काम चलता नहीं दीखता, जब दिन-रात मर-खप के कमाने पर भी ये खेत उसका न तो पेट ही भर सकते और न उसे मकान, कपड़ा और दवा-दारू ही दे सकते। फलत: बैंकों, कोआपरेटिव सोसायटियों या महाजनों के यहाँ नीलाम होके चले जाते हैं। तभी उसकी आँखें खुलती हैं, तभी उसे तमाचे लगते हैं और वह घबरा के सर्वहारा का साथी बनता और सोचने लगता हैं कि कुछ और बात होना चाहिए। जिन लोगों ने-पूँजीवादियों ने-जमींदारों की जमीनें छीनकर किसानों को दी थीं और इस प्रकार उन्हें जमींदारों के खिलाफ अपना साथी बनाया था, उन्हीं के शत्रु वही किसान कार्य-कारणवश पीछे हो जाते हैं। इसका सुन्दर वर्णन मार्क्स ने अपने 'अठारहवें ब्रूमेयर' में इस तरह किया हैं-
''लेकिन उन्नीसवीं सदी में आगे बढ़ने पर सामन्त युग के बलपूर्वक कर आदि उगाहने वाले का स्थान शहर के सूदखोर ने ले लिया। पहले जो फर्ज जमीन जोतने वालों पर जमींदारों के सम्बन्ध में लादा गया था वही अब रेहनदारों के सम्बन्ध में हो गया। जमींदारी बाबुआनी की जगह सम्पत्तिजीवी पूँजीवादी प्रणाली आ गयी। लेकिन अब तक किसान का वही छोटा-सा खेत एक जरिया रहा ! जिससे पूँजीवादी मुनाफा, सूद और लगान सब कुछ उगाहता हैं और उसके बाद किसान को छोड़ देता हैं कि अपनी मजदूरी उसी खेत से नोचे-छीने। फ्रांस की खेतीवाली जमीनें इस कदर रेहन में फँसी हैं कि इन रेहनों के लिए जितना सूद देना पड़ता हैं वह ब्रिटेन के राष्ट्रीय कर्ज के सूद के बराबर हैं। नन्हे-नन्हे खेतों की मलिकाई तो ख़ामखाह पूँजीवाद की गुलामी में किसानों को फँसाती ही हैं। इसका फल यह हैं कि फ्रांसीसी राष्ट्र गुफा निवासी बन गया हैं। स्त्री-बच्चों को मिला के कुल एक करोड़ साठ लाख किसान गुफाओं की तरह के रद्दी घरों में रहते हैं, जिनमें अधिकांश में एक ही खिड़की होती हैं। किसी-किसी में दो और शायद ही कुछ खुशकिस्मतों में तीन होती हैं। ये खिड़कियाँ मकानों में उतनी ही जरूरी हैं जितनी माथे में पाँच इन्द्रियाँ।
''उन्नीसवीं सदी के शुरू में तो पूँजीवादी सामाजिक प्रणाली ने सरकार को किसानों के छोटे-छोटे खेतों का सन्तरी बना दिया था और उन जमीनों में एक खास हरे घास-पात की खाद दी जाती थी। लेकिन आज वही प्रणाली रक्त की प्यासी पिशाचिनी बनकर किसानों के इन नन्हे खेतों का खून और मज्जा सब कुछ पी रही हैं और उन्हें पूँजीवाद की भट्ठी में झोंक रही हैं। अब तो नेपोलियन के वे नियम-कायदे और कुछ न रह गये हैं सिवाय खेतों की फसलों की जब्ती कुर्की और खेतों की बिक्री की फरमान के। सरकारी आँकड़ों के ही मुताबिक इस समय फ्रांस में चालीस लाख गरीब, आवारागर्द, चोर, बदमाश और वेश्याएँ हैं। उनके बाद नम्बर आता हैं उन पचास लाख स्त्री, पुरुष, बच्चों का जो किसी प्रकार गुजर करते हैं और जो कभी चिथड़े लपेटे देहातों में रहते हैं, तो कभी शहरों में जा धमकते हैं।
''परिणाम यह हुआ हैं कि प्रथम नेपोलियन के जमाने की तरह अब पूँजीवादियों और उनकी प्रणाली के स्वार्थों के साथ किसानों के स्वार्थों का कोई मेल नहीं रह गया हैं। अब तो दोनों स्वार्थों का संघर्ष हैं। इसीलिए अब किसानों को सूझ रहा हैं कि उनके असली मित्र और पथदर्शक तो शहर के मजदूर ही हैं, जिनका लक्ष्य यही हैं कि पूँजीवादी समाज की व्यवस्था मिटा दी जाये। मगर जबदस्त और निरंकुश लुई बोनापार्ट की सरकार का ध्येय हैं इस भौतिक व्यवस्था की बलपूर्वक रक्षा करना। यही कारण हैं कि 'इस व्यवस्था की रक्षा' वाला आकर्षक और भ्रामक शब्द उसकी उन हर फरमानों में पाया जाता हैं जिन्हें उसने शोख किसानों के विरुद्ध जारी किया हैं।''
इस वर्णन में मार्क्स ने इस बात का सुन्दर चित्र खींच दिया हैं कि पूँजीवादी प्रणाली किस तरह किसानों का शोषण करते-करते उन्हें अपना विद्रोही बना डालती हैं। पहले तो उनके दकियानूसी ख्यालों और निरुद्ध धारणाओं का लिहाज करती हुई उन्हें छोटे-छोटे खेत देके अपना साथी बनाती और काम निकालती हैं। बड़ी-बड़ी जमींदारियों को मिटाकर छोटे-छोटे खेत बनाने में भी उसकी अपनी गर्ज होती हैं। शुरू में जमींदारों से अपनी रक्षा वह इसी प्रकार कर सकती हैं। मगर मजबूत हो जाने पर जब छोटे-छोटे किसानों की जरूरत नहीं रह जाती, बल्कि उनके मिट जाने में ही उसका फायदा होता हैं, तो बेमुरव्वती से उनका शोषण करती हैं और इस प्रकार उन्हें अपना घोर शत्रु बना डालती हैं। तभी वे क्रान्तिकारी मजदूरों का खुल के साथ देते हैं। पूँजीवाद की भी यह मजबूरी हैं। वह दूसरी बात करी नहीं सकता। पहले तो वह पादरियों और पण्डा-पुरोहितों को, मौलवियों को, उनके पास भेज-भेज के लेक्चर दिलवाता हैं कि भगवान की कृपा से आप लोगों को खेत मिले हैं, आदि-आदि। वे भी इस बात को मानते और खुश होते हैं। मगर जब पीछे शोषण का चक्र चलने पर जमीनें बन्धक हो जाती हैं, बिक जाती हैं, फसलें जब्त हो जाती हैं और किसान भूखों मरने लगते हैं तब हवा पलट जाती हैं। उस समय जब वही पादरी, पुरोहित किसानों को समझाने की कोशिश करते हैं कि सन्तोष करो, खेत गये तो गये, भगवान तो मिलेंगे ही, तो वे किसान इन्हें गर्दनियाँ देते और नास्तिक बन जाते हैं। मार्क्स ने इस बात का इतना विशद वर्णन आगे किया हैं कि उसे यहाँ उध्दृत किये बिना जी नहीं मानता। वह कहता हैं-
''पूँजीवाद ने छोटे-छोटे किसानों को रेहननामे के ही नीचे नहीं दबाया हैं। टैक्स का बोझ भी उन्हीं पर हैं। शासन-यन्त्र के सारे कल-पुर्जों-नौकरशाही, फौज, पादरी और कचहरी-के कायम रखने का आधार यह टैक्स ही तो हैं। जबर्दस्त सरकार और कमरतोड़ टैक्स, ये दोनों एक ही मानी रखते हैं। टुटपुँजिये सम्पत्तिवालों की हालत ही ऐसी हैं कि सर्वशक्तिशाली और असंख्य नौकरशाही के लिए वही आधार हैं। इसके चलते समूचे देश में समान स्थिति और एक ही तरह के लोग रह जाते हैं-सभी कुछ बराबर हो जाता हैं। नतीजा यह होता हैं कि सरकारी केन्द्र से जो असर पैदा होता हैं वह सबों पर एक-सा पड़ता हैं। सामन्त युग में जो सरकार और जनता के बीच छोटे-बड़े अनेक स्तर और दर्जे होते हैं उन्हें खत्म कर दिया जाता हैं। इसीलिए जरूरत हो जाती हैं कि सरकार के अधिकार और प्रभुत्व को सीधे सबों पर समान रूप से लादा जाये। आखिरी बात यह होती हैं कि इस व्यवस्था के फलस्वरूप जनसंख्या में एक तादाद ऐसी भी हो जाती हैं जो उन बेकारों की होती हैं जिन्हें न तो गाँवों में जमीन और न शहरों में ही कोई काम मिलता हैं। वे लोग इसीलिए सरकारी ओहदों की ओर, उन्हें प्रतिष्ठित खैरातखाना समझ, अपने हाथ बढ़ाते हैं और भरसक कोशिश करते हैं कि ऐसे ओहदों की तादाद बढ़ती रहे। प्रथम नेपोलियन ने तो तलवार के बल से नये बाजार खरीद-बिक्री के वास्ते फ्रांस के लिए जारी किये और यूरोप के समस्त महाद्वीप को लूटा। नतीजा यह हुआ कि उसने फ्रांसीसी लोगों से जो टैक्स लिया उसे सूद सहित चुका दिया। उस समय तो टैक्स वसूली से किसानों को अपने काम में प्रोत्साहन मिलता था। मगर अब तो इसके चलते खेती-बारी का आखिरी सहारा छिन जाता और गरीबी का द्वार खुल जाता हैं।''
''नेपोलियन की खास प्रचारित दूसरी बात यह थी कि सरकार के सहायक के रूप में पुरोहितों का बोलबाला था। शुरू में तो यह बात चल सकती थी भी। क्योंकि उस समय छोटे-छोटे गिरस्तों की स्थिति समाज के अनुकूल ही थी, उन्हें प्राकृतिक शक्तियों-वृष्टि, धूप आदि-का ही आसरा भी था और उनके शासक भी ऐसे थे जो ऊँचे स्थान पर रहके उनकी रक्षा करते थे। इसीलिए स्वभावत: वे गिरस्त लोग धार्मिक थे। लेकिन अब तो उन पर कर्ज लदा हैं, समाज से भी उनका मेल नहीं खाता और सरकार से भी, और अपनी पुरानी रहन-सहन से भी वे लोग अलग जा पड़े हैं। फलत: वे लोग स्वाभाविक तौर पर नास्तिक हो गये हैं। जब शुरू में उन्हें नई-नई जमीन मिली थी तो उस समय स्वर्ग की बात उनके लिए एक अतिरिक्त प्राप्ति थी। यह बात खासकर इसलिए भी थी कि स्वर्ग से ही वृष्टि होती और धूप मिलती थी। लेकिन अब जमीन छिन जाने पर उसके बदले स्वर्ग प्राप्ति की बात करना उनका अपमान था-जले पर नमक देना था। और अगर पुरोहित (पादरी) लोग उन्हें यही चीज दे रहे थे तो यह साफ हैं कि पुरोहित गण खून की प्यासी पुलिस के गद्दीधारी खूँखार कुत्ते थे।''
मार्क्स के इस विशद वर्णन से और आगे चलकर जो उसने यह कहा हैं कि किसानों की जमीनें छिन जाने पर उन्हें पहले जैसी पितृभूमि की ममता रही नहीं गयी, और धीरे-धीरे फौज वगैरह की नौकरियों में भी दूसरे ही लोग भर्ती होने लगे, जो बेरहमी से मौके पर किसानों को दबाने में धनियों की मदद करते थे, उससे स्वार्थ संघर्ष और भी स्पष्ट हो जाता हैं। अब तो देश भक्ति की कुछ भी कीमत उनके लिए रही नहीं गयी। उन्हें अपना तो कुछ नजर आता नहीं। हर चीजों पर तो दूसरों का ही कब्जा हैं। जब किसान जवानों की जगह आवारागर्द और भिखमंगे ही फौज और पुलिस में भर्ती किये जाने लगे, तो पता चल गया कि सरकार का किसानों पर भी अविश्वास हैं। वह उन्हें भी अमन कानून का करारा पाठ पढ़ाने पर तुली बैठी हैं। फिर तो लाजिमी था कि किसान लोग असलियत को समझें और अपनी नादानी पर पछतायें, कि क्यों श्रमजीवियों के विरुद्ध अब तक क्रान्ति में लड़ते रहे। पूँजीपतियों ने और उनकी सरकार ने भी अपना काम निकालने के बाद किसानों को वैसे ही छोड़ दिया-फेंक दिया-जैसे चूसे हुए नीबू को फेंक देते हैं।
इंग्लैंड में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। दूसरे मुल्कों की भी यही हालत रही। पूँजीवादियों ने किसानों की मनोवृत्ति और कमजोरियों का पता पा लिया था। इसीलिए उन्हें अपनी ओर मिला लेने में वे सफल रहे। क्रान्ति में उनकी सफलता भी इसीलिए हुई, जिससे बरूज्वा रेवोल्यूशन तक ही होके बात खत्म हो गयी। इनकिलाब की गाड़ी ऐसे कीचड़ में जा फँसी कि आगे बढ़ी न सकी। मार्क्स और एंगेल्स ने इस कठोर सत्य का अनुभव कर लिया था। इसलिए उनने क्रान्ति के सिलसिले में या उसके बाद फौरन ही जमीनों पर राष्ट्र या समाज का प्रभुत्व कायम करने के बदले किसानों का ही प्रभुत्व कायम किया जाना उचित स्वीकार किया और सभी जमीनें उनमें ही बाँट देने की पक्की राय जाहिर की। एंगेल्स ने लिखा था कि-
''सोशलिस्ट पार्टी के हाथ में शासन की बागडोर जीत कर आनेवाली ही हैं। लेकिन शासन को जीतने के लिए यह जरूरी हैं कि यह पार्टी अपने कामों को शहर से देहातों में फैलाये और उसे वहाँ शक्तिशाली बनना होगा।''
एंगेल्स ने और भी निहायत सफाई के साथ कहा हैं। वह कथन ऐसा हैं-
''हम पक्कापक्की टुटपुँजिये किसानों के पक्ष में हैं। हम से जितना हो सकेगा करेंगे, ताकि उसकी हालत सुधार सके और अगर वह चाहे तो अपने भाईयों के साथ पंचायती खेती में आसानी से शामिल हो सके। लेकिन अगर वह अभी इस फैसले पर पहुँचने के काबिल न हो तो हम उसे काफी मौका देंगे कि अपने नन्हे से खेत पर ही इस मामले पर पूरा गौर करे। हम यह बात सिर्फ इसीलिए नहीं करेंगे कि जो ऐसा किसान अपनी ही जमीन जोतता-बोता हैं वह असलियत में हमारे ही दल का हैं। बल्कि इसलिए भी कि ऐसा करना हमारी पार्टी के सीधे कायदे का हैं। जितने ही ज्यादा किसान सर्वहारा श्रेणी में दाखिल होने से बचाये जा सकें और जब तक वे किसान हैं तभी तक हमारे पक्ष में आ सकें उतनी ही आसानी और तेजी के साथ सामाजिक व्यवस्था बदली जा सकती हैं। अगर हम इस बात का इन्तजार करें कि यह सामाजिक परिवर्तन तभी हो सकेगा जब कि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली अपनी चरम सीमा तक पहुँचकर आखिरी नतीजा दिखा दे और एक-एक करके सभी दस्तकार, कारीगर और छोटे-मोटे किसान उसके शिकार बन जाये, तो यह हमारे फायदे की चीज न होगी। बेशक, पूँजीवादी आर्थिक दृष्टि से यह माना जायेगा कि सार्वजनिक कोष से जो पैसा इस प्रकार इन किसानों की भलाई के लिए खर्च किया जायेगा वह तो पानी में फेंकरनें के समान ही होगा। लेकिन दरअसल यह खर्च तो निहायत ही लाभकारी ढंग से रुपया लगाना हैं। क्योंकि सामाजिक पुन: संगठन के खर्च के लिए हमें आम तौर से जो दस गुना पैसा खर्चना पड़ता वह इस तरह से बच जाता हैं। इस मानी में तो हमें ऐसे किसानों के प्रति बहुत अधिक उदार होना चाहिए।''
एंगेल्स का यह कथन कई अर्थों में बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। इससे पहली बात तो यह साफ हो जाती हैं कि जो लोग ऐसा मानते हैं कि जब तक पूँजीवाद का चरम विकास हो के किसी देश के भीतर पूँजीपति और मजदूर दो ही श्रेणियाँ रह नहीं जाती हैं और छोटे-मोटे किसान, दस्तकार, व्यापारी, कारीगर वगैरह सभी के सभी मिट नहीं जाते हैं तब तक सर्वहारा की साम्यवादी क्रान्ति सफल हो नहीं सकती, वह गलती करते हैं। एंगेल्स इस बात का विरोधी हैं। वह तो उल्टे यह मानता हैं कि पूँजीवाद की वह आखिरी तरक्की हो जाने पर हमारी दिक्कतें दस गुनी-बहुत ज्यादा-बढ़ जायेगी। फलत: क्रान्ति में आसानी तो होगी नहीं, हाँ; परेशानी हो सकती हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस आदि देशों में यही बात देखी भी जाती हैं। मालूम होता हैं कि वहाँ पूँजीवाद की उन्नति के साथ ही क्रान्ति और भी दूर भागती जा रही हैं। जो लोग किसानों और मजदूरों के स्वार्थों के परस्पर विरोध की बात उठाकर ऐसा कहते हैं उन्हें इन देशों की दशा से सबक सीखना चाहिए। रूस ने इस विरोध को किस आसानी से मिटाके सफलता प्राप्त की हैं यह बात एंगेल्स के वक्तव्य का समर्थक हैं। क्योंकि वहाँ तो पूँजीवाद प्रारम्भिक अवस्था में ही था जब साम्यवादी क्रान्ति सफल हुई। इसीलिए एंगेल्स का कहना केवल दिमागी बात न होकर अमली और व्यावहारिक भी हैं।
दूसरी बात यह हैं कि वह छोटे-मोटे किसानों को अपने पक्ष-साम्यवाद-के लिए सहायक मान के उन्हें कायम करना, बढ़ाना और उनकी सहायता करना निहायत जरूरी मानता हैं। वह उनके साथ जोर-जुल्म करके या उन्हें दबा के पंचायती खेती में लगाना नहीं पसन्द करता। बेशक पंचायती खेती साम्यवाद की पहली सीढ़ी हैं। मगर किसान यदि उस पर खुशी-खुशी पाँव देने को तैयार न हो तो हमें घबराना नहीं चाहिए। उसे अपने नन्हे से खेत पर ही छोड़ देना चाहिए। उसी में उसकी सहायता करते रहके उसे मौका देना चाहिए कि अपनी इस खेती और पंचायती खेती का हानि-लाभ खुद सोचे-समझे। बेशक, हम उसके सामने पंचायती खेती के फायदे बातों के जरिेये और अमली तौर पर भी रखेंगे। उसके पास-पड़ोस में या निकट ही पंचायती खेती करवा के उसका फायदा उसकी आँखों के सामने हम जरूर रखेंगे। ताकि वह बखूबी गौर कर सके। मगर घबरा के जल्दबाजी में हम उसे पंचायती खेती में आने को विवश न करेंगे। जब अधिकांश किसान उसमें आ गये तब चन्द लोगों को यदि बलात भी लाना हो तो वह बात दूसरी हैं। मगर सामूहिक रूप से जब तक वे खुद उसकी अहमियत और जरूरत महसूस न करें तब तक उनके लाने से अन्त में हानि ही होगी और वे टिक न सकेंगे।
तीसरी बात यह हैं कि एंगेल्स किसानों की मनोवृत्ति खूब ही समझता हैं। वह जानता हैं कि वे जमीन के भूखे होते हैं। ''भूखा बंगाली भात-भात पुकारता हैं'' की ही तरह वे जमीन पाने की ही पुकार मचाते रहते हैं। ऐसी दशा में उन्हें साम्यवाद, पंचायती खेती, राष्ट्रीयकरण आदि का ज्ञान सिखाना वैसा ही हैं जैसा भूखे को त्याग और ज्ञान की बातें कहना। पहले भूख मिटाइये, पीछे ज्ञान दीजिये, तो वह दिल लगाके सुनेगा। उसी तरह पहले किसान को जमीन दे दीजिये, पीछे दूर की बातें समझाइये तो वह सुनेगा खुशी-खुशी। पूँजीवादियों ने फ्रांस वगैरह देशों में यही करके किसानों को अपनी ओर मिला लिया, जिससे मजदूर विफल रहे। जिस प्रकार बच्चों का कान छेदने के पहले उन्हें गुड़ देकर फुसलाते हैं, ठीक वही बात यहाँ भी हैं। क्रान्ति की सफलता देश के अधिकांश लोगों से लड़कर या उन्हें शत्रु बनाकर हो नहीं सकती। उन्हें तो मित्र बनाना ही होगा। और देश के अधिकांश तो किसान ही होते हैं, खासकर पिछड़े देशों के। इसीलिए जमीन और खेती-बारी की सुविधा उन्हें पहले-पहल पहुँचाना निहायत जरूरी हैं।
चौथी बात हैं क्रान्ति में आसानी की। सभी लोग सर्वहारा बन जाये उसके पहले ही हमें किसानों को कायम रखना या बनाना क्यों जरूरी हैं यह बात एंगेल्स ने खूब ही सोची थी। असलियत भी तो ऐसी ही हैं। देश के कोने-कोने में ये किसान फैले होते हैं। कुलक या धनी किसान और जमींदार ही ऐसे हैं जो गिने-गुंथे ही होते हैं। इसीलिए खास-खास जगहों में ही उनका अस्तित्व होता हैं। मगर गरीब या खाते-पीते किसान तो झोंपड़े बना के मुल्क के सुदूरवर्ती कोने में भी रहते पाये जाते हैं। मुल्क का कोई हिस्सा खाली नहीं रहता। उनके सामने कोई प्रलोभन भी नहीं रहता। उन्हें बहुत आगे बढ़ने की आशा भी नहीं रहती और न इस बात का कोई मौका ही रहता हैं। ऐसी हालत में यदि उन्हें श्रमिक श्रेणी जमीन दिला दे, यदि उसके करते उन्हें जमीन मिल जाये, तो वे सदा के लिए उस श्रेणी के आभारी और मित्र बन जाते हैं, उसके साथ एक सूत्र में बँधा जाते हैं। पूँजीवाद के विरुद्ध भयंकर लड़ाई लड़ने में मुल्क के कोने-कोने में सर्वहारा-वर्ग के लिए ये किसान साथी कितने काम के होंगे यह बात इससे साफ हो जाती हैं। सरकारी कारोबार, पुलिस और फौज में तो ज्यादातर इन्हीं किसानों के जवान भर्ती होते हैं और इन्हीं से शासन चलता हैं। खाने-पीने की चीजें और दूसरे समान भी यही पैदा करते हैं। और अगर यही सर्वहारा के दोस्त और साथी हो गये तब तो विजय आसान हो ही जायेगी। यही समझ के एंगेल्स ने कहा हैं कि हम तो इन्हीं के पक्ष में हैं। पूँजीवाद से इन्हें मिल जाने का खतरा भी बराबर रहता हैं। इसलिए उसके खिलाफ मजदूरों के साथ आसानी से मिल भी जाते हैं।
विपरीत इसके यदि पूँजीवाद के पूर्ण विकास की बाट देखी जाये तो समय तो लगेगा ही। क्योंकि इंग्लैंड आदि मुल्कों में सैकड़ों साल में कुछ हो ही न सका। कई सौ साल लगे हैं। इस दरम्यान में मजदूरी की कमजोरियों को पूँजीवादी जान जाते और उन्हीं से फायदा उठाते हैं। उन्हें यह भी मौका मिल जाता हैं कि मजदूरों के भीतर ही कुछ चलते-पुर्जों को अपने दलाल बना डालें। मजदूरों में पेट्टी बरूज्वा या निम्न-मध्यम श्रेणी की मनोवृत्ति के जो बाबू लोग हैं वह बड़े ही खतरनाक होते हैं। वही तो उन्हें फोड़-फाड़ के तीन-तेरह कर देते हैं। जैसे-जैसे पूँजीवाद विकसित होता जाता हैं तैसे-तैसे बेकार और आवारागर्द भिखमंगे, खानाबदोशी करनेवाले बढ़ते जाते हैं। जिस प्रकार पेरिस में सन 1848 ई. की क्रान्ति के समय वैसे ही लोगों को राष्ट्रीय संरक्षक दल में भर्ती करके मजदूरों की क्रान्ति को उन्हीं की संगीनों के जरिये धूल में मिला दिया गया, ठीक वही बात सर्वत्र होती हैं, हो सकती हैं। फौज में और पुलिस में भी, जैसा कि पहले कहा गया हैं, ऐसे ही लोग जानबूझकर भर्ती किये जाते हैं, जो निर्दयता के साथ किसानों और मजदूरों को संगीनें भोंकते और गोलियों से घाट उतारते हैं। इस प्रकार पूँजीवाद की असीम प्रगति के करते जिस ख्याली फायदे को सोचा जाता हैं कि मजदूर ही मजदूर रह जाने और किसान के न रहने पर दोनों का विरोध जाता रहेगा और निष्कंटक रूप से मजदूर अपनी क्रान्ति के लिए लड़ेंगे ही, वह तो देखा जाता हैं नहीं; वह तो संदिग्धा-सी चीज हैं। मगर सरासर क्रान्ति विरोधी अनेक ताकतें पैदा हो जाती हैं। यह बात तो साफ ही हैं। जब पूँजीवादी तरीके से खेती होगी तो हजारों बीघे के खेत बनेंगे जिनमें पहले के किसान-मजदूर का काम करेंगे। फलत: वे देश में बिखरे होंगे नहीं। किन्तु जगह-जगह जमा रहेंगे। मगर क्रान्ति की सफलता के लिए तो हर कोने में मजदूरों के मददगारों की जरूरत हैं।
किसानों और मजदूरों के स्वार्थों के संघर्ष की जो बात कही जाती हैं वह भी महज ख्याली हैं। यह ठीक हैं कि किसान स्वभावत: चाहता हैं कि वह जो गल्ले, घी, दूध वगैरह पैदा करता हैं वह महँगा बिके तो ठीक हो। क्योंकि तभी तो उसे ज्यादा दाम मिलेगा। इसी के साथ वह यह भी चाहता हैं कि मिलों की बनी चीजें, कपड़े वगैरह सस्ते मिलें। ताकि खेती की कमाई का थोड़ा ही अंश उनके लिए खर्च किया जा के शेष बचाया जाये। किसानों के विपरीत मजदूर चाहते हैं कि मिल की बनी चीजें महँगी बिकें, तो मिलवालों को ज्यादा नफा हो। फिर तो ख़ामखाह वे हमारी तनख्वाहें बढ़ायेंगे, बोनस वगैरह के नाम पर हमें ज्यादा पैसे देंगे। इसी के साथ वह यह भी चाहता हैं कि गल्ले वगैरह सस्ते बिकें। ताकि हम थोड़े ही पैसों में खा-पी सकें। इस प्रकार किसानों और मजदूरों के स्वार्थ साफ ही परस्पर विरोधी दीखते हैं।
मगर इसी के साथ एक बात और हैं और हैं वह बुनियादी। यह जो दोनों के स्वार्थों का परस्पर विरोध हैं वह आखिर पूँजीवाद का ही तो पैदा किया हुआ हैं। जब पहले जमाने में सभी लोग कपड़े-लत्तें, अन्न-पानी वगैरह जरूरत की चीजें खुद पैदा कर लेते, या आसपास में ही एक-दूसरे से बदला-बदली करके काम चला लेते थे, तब यह सवाल कहाँ था? सामन्त युग में ही यह बात थी और उस समय पूँजीवाद था नहीं। यह बात तो पीछे हुई हैं ज्यों-ज्यों उस युग की जगह पूँजीवादी युग लेने लगा हैं, या ले चुका हैं। इसलिए यह तो निर्विवाद हैं कि यह दोनों का स्वार्थ संघर्ष एकमात्र पूँजीवाद की उपज हैं, उसी की देन हैं, उसी की करतूत हैं।
इसी के साथ दूसरी बात यह हैं कि किसानों और मजदूरों को भी आखिर समझ तो होती हैं। वे दूर के स्वार्थ को भी देखते ही हैं। अपने बाल-बच्चों की फिक्र करते हैं। उनके पढ़ाने-लिखाने और गुजर का समान भी एकत्र करते हैं। ऐसी हालत में यह जरूरी हैं कि पूँजीवाद की इस करतूत को वे अच्छी तरह समझें। यदि यों न भी समझ सकें तो समझाने-बुझाने पर तो ख़ामखाह समझेंगे। वह यह तो जानते ही हैं कि यदि हमने इस स्वार्थ-संघर्ष को ज्यादा महत्त्व दिया तो हम दोनों की खासी भिड़न्त होती रहेगी, जिससे अगर किसी का फायदा होगा तो वह सिर्फ पूँजीवाद का। कम-से-कम इतना तो निश्चित ही हैं कि समझाने पर यह बात वे जरूर ही तोड़ जायेगे। पूँजीवाद ने यह संघर्ष तो इसीलिए पैदा किया ही हैं कि वे दोनों आपस में मिल न सकें-हमेशा लड़ते रहें। तभी पूँजीवाद की खैरियत हैं। इस मोटी-सी बात को किसान और मजदूर न समझें और उनके दिमाग में यह बात न घुसे कि हम दोनों की लड़ाई में दोनों तबाह होंगे और पूँजीवाद घी के चिराग जलायेगा, जैसे दो बिल्लियों की लड़ाई में बन्दर की बन आयी, यह कैसे माना जाये? एंगेल्स के दिमाग में यही बात थी जब उसने साम्यवाद के शीघ्र से शीघ्र और कम परेशानी से ही पदार्पण के लिए छोटे-छोटे किसानों का समर्थन किया।
लेनिन ने भी क्रान्ति की सफलता के लिए यह जरूरी समझा कि किसानों को अपने साथ लिया जाये और यह बात तभी सम्भव थी जब उन्हें जमीन मिलने का पक्का निश्चय हो। इसीलिए उसने साफ ही कहा कि हमें पहले जारशाही और उसके पुछल्ले के रूप में खड़ी जमींदारशाही को मिटाना हैं। इसके बिना एक कदम भी आगे बढ़ना गैरमुमकिन हैं। लेकिन किसानों को जमीन दिये बिना यह हो ही नहीं सकता। उन्हें यह विश्वास दिला दीजिये कि जमींदारी को मिटा कर जमीनें बाँट लो। फिर तो रूस के कोने-कोने में क्रान्ति की आग धधक उठेगी। मुल्क के हर कोने को-इसकी इंच-इंच जमीन को-क्रान्ति का केन्द्र बनाने का आसान रास्ता यही हैं कि किसानों को यह आजादी दे दी जाये और इस काम में उन्हें पूरी मदद दी जाये कि वे जमींदारियों को मिटा के जमीनें खुद हथिया लें, बाँट लें। वह कहता हैं सन 1902 ई. में अपनी पार्टी के प्रोग्राम में ही कि-
''अपवाद के तौर पर और हमारे मुल्क की विलक्षण ऐतिहासिक दशा के चलते हम टुटपुँजिये ही मलिकाई के संरक्षक बन गये हैं। लेकिन यह हम सिर्फ इसीलिए करते हैं कि पुरानी शासन व्यवस्था के विरुद्ध लड़ाई चालू हो और उसके फलस्वरूप जारशाही निरंकुशता की सबसे बड़ी ताकत वाली और जालिमाना गुलामी से लोगों को पूरी आजादी मिले और वे स्वच्छन्द आन्दोलन कर सकें, इच्छानुसार जमीन का इस्तेमाल कर सकें, और बड़ी-बड़ी जमींदारियों को मिटा डालें।''
लेनिन की आँखें तो भविष्य को साफ-साफ देखती थीं जबकि किसानों की व्यक्तिगत यह जमीन की सम्पत्ति जमींदारी को मिटाकर खुद मिट जायेगी। 'विषस्य विषमौषधाम्' के अनुसार ही इस व्यक्तिगत सम्पत्ति रूप विष का उसने प्रयोग किया। वह तो जानता था कि पुराने जहर को मिटाने के बाद यह खुद खत्म हो जायेगा। उसकी आँखें तो देहातों में और इसीलिए समूचे रूस में क्रान्ति की प्रचण्ड ज्वाला को लहराती देखने की प्यासी थीं और वह बखूबी जानता था कि उस समय (सन 1902 के फरवरी, मार्च में) रूस का मतलब था वहाँ के किसान। इसीलिए वह चाहता कि किसान मस्त हो के यह आग फैलायें। 'पीछे हम उससे फायदा उठायेंगे।' इसीलिए 'रूसी किसान आन्दोलन' में मिस्टर ओवेन ने लेनिन के वाक्यों को अपने शब्दों में ढालते हुए लिखा हैं कि-
''आगे जो दलबन्दी होनेवाली थी और जिसका बहुत बड़ा असर न सिर्फ सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के लोगों पर किन्तु रूस और समस्त संसार पर होनेवाला था, उसका केवल यही कारण न था कि लेनिन ने इस बात पर बहुत जोर दिया कि पार्टी का काम सख्ती और एक ढंग से किया जाये। उसकी तह में यदि ज्यादा नहीं तो उतना ही महत्त्व रखनेवाला सवाल यह भी था कि हमारा रुख जमीन के सम्बन्ध में क्या हो। लेनिन इस बात के पक्ष में था कि किसानों में आम तौर से बगावत फैलायी जाये, चाहे इसका यह नतीजा भी यह क्यों न मालूम हो कि छोटे-छोटे खेतों की खेती को मजबूती मिल जायेगी।''
लेनिन ने इसीलिए पार्टी के कार्यक्रम के ही सिलसिले में कहा कि-
''रूस जैसे किसानों के देश में यदि साम्यवादियों का कोई भी खेती-बारी सम्बन्धी प्रोग्राम होगा तो वह अगर सोलहों आना नहीं, तो प्रधानतया किसानों का ही प्रोग्राम होगा, जिसका मतलब होगा कि हमारी पार्टी का क्या रुख और ताल्लुक किसानों के सवालों के साथ हैं। रूस में तो हमारी पार्टी बिलकुल नई हैं। क्योंकि यहाँ जितनी भी सोशलिस्ट पार्टियाँ पहले बनीं, वे अन्ततोगत्वा 'किसानी साम्यवाद' वाली ही थीं।''
मिस्टर ओवेन ने लेनिन के इरादे पर और भी प्रकाश डालते हुए लिखा हैं कि-
''अधिकांश किसान तो तेजी के साथ भुक्खड़ बनते जा रहे थे। क्योंकि 1861 में गुलामी से मुक्त होने के समय जो जमीन के टुकड़े उन्हें मिले थे और जिनके खेती के लायक हिस्से सन 1906 तक उनकी अपनी मिलकियत थे भी नहीं, उन्हीं के करते वास्तविक सर्वहारा-वर्ग देहातों में पैदा हो गया। यह ठीक हैं कि कहने के लिए उनके पास जमीनों के टुकड़े थे। इसलिए उन्हें यों सर्वहारा कहा जा सकता था नहीं। मगर बड़ी तेजी के साथ इनकी दशा ऐसी होती जा रही थी कि खेती के दूसरे साधन हल, बैल वगैरह इनके पास से छिनते चले जा रहे थे।''
लेनिन ने बखूबी समझ लिया था कि जो किसान दुविधा में पड़े हुए कभी श्रमिकों की ओर तो कभी पूँजीवादी नरमदलियों की ओर आशा भरी नजरों से देख रहे हैं उन्हें जब तक श्रमिक अपनी ओर बेखटके कर नहीं लेंगे तब तक क्रान्ति को सफलता नहीं मिलेगी। इसलिए उसने कहा था कि-
''रूसी इनकिलाब की जीत हो नहीं सकती जब तक यह जड़-मूल से परिवर्तनवादी मध्यमवर्गीय (किसान) सर्वहारा की क्रान्तिकारी लड़ाई के समर्थन के लिए तैयार न हो-वह किसान जो आज केडेट पार्टी (मालदारों की पार्टी जिसे कान्स्टिटयुशनल डेमोक्रेटिक पार्टी भी कहते हैं और जिसका सबसे अधिक प्रभाव 1906 की डूमा में था। मगर 1907 की डूमा में कम हो गया था और बराबर घटता जाता था) और मजदूर पार्टी के बीच में आगा-पीछा करता नजर आता हैं-कभी ईधर और कभी उधर जाता हैं।
''इन बातों ने सर्वसाधारण किसान की अपनी जबर्दस्त ख्वाहिश जाहिर की कि जमींदारों का जुआ उठा फेंकें। उनने मध्ययुगीन (जमींदारी आदि की) बातों तथा नौकरशाही के प्रति अपनी घोर घृणा दिखलायी और इसी के साथ परले दर्जे की प्राय: भोली-भाली, लेकिन बहुत ही साफ तात्कालिक क्रान्तिकारी मनोवृत्ति भी दिखायी हैं। लम्बी बहसों की अपेक्षा इस बात ने कहीं सफाई से दिखा दिया कि रईसों, जमींदारों और जार के खानदान के विरुद्ध किसान जनता के भीतर कितनी ताकतवर और नाशकारी शक्ति इस समय जमा हो गयी हैं। जमीन सम्बन्धी उथल-पुथल के बारे में किसानों के दिल में जो निम्न-मध्यम श्रेणी की धोखाधड़ी, अर्ध्द-साम्यवादी शब्द जाल और बच्चों जैसी भोली-भाली आशा बँधी पड़ी हैं उसका भण्डाफोड़ करना और उसे दूर करना वर्ग चेतना-सम्पन्न श्रमिकों का कर्त्तव्य हैं। जिस प्रकार केडेट पार्टीवाले करते हैं उसी तरह किसानों को खुश करने के लिए ही श्रमजीवी यह काम नहीं करेंगे। किन्तु इसलिए करेंगे कि जनता में फौलादी ढंग की अविचल और अमिट क्रान्तिकारी भावना पैदा हो। जब तक किसानों में यह मनोवृत्ति न पैदा होगी और जब तक निर्दयता के साथ वे जम कर लड़ेंगे नहीं, तब तक जमींदारों की जमीनों की जब्ती, जनतन्त्र शासन, सार्वजनिक, समान और प्रत्यक्ष मतदान का अधिकार-ये बातें कभी न हासिल होनेवाले ख्याली पुलाव जैसी ही होंगी।''
लेनिन के इतने ज्यादा वचनों को यहाँ लिखने का प्रयोजन यही हैं कि जरा इस पर पूरी रोशनी पड़ जाये कि इसमें कौन-कौन बातें हैं। साथ ही किसान समस्या के हरेक पहलू पर पूरा प्रकाश पड़ जाये। रूस में जो सोशल रेव्योल्यूशनरी और नैरोदनिक पार्टियाँ थीं उनका पुराना नारा यही था कि सभी जमीन किसानों में बाँट दी जाये। इस नारे के दो मानी हो सकते थे। एक तो यह कि छोटे-छोटे किसान देश भर में पैदा कर दिये जाये और जो जमीनें उन्हें खेती के काम के लिए दी जाये वे सदा के लिए उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति हो जाये। लेनिन इस बात का सख्त विरोधी था। दूसरा मतलब इस नारे का यह था कि क्रान्तिकारी ढंग से देश भर में किसान उथल-पुथल मचा के जमींदारी का खात्मा कर दें। लेनिन इस बात का समर्थक था। क्योंकि यही नारा क्रान्तिकारी वायुमण्डल मुल्क के कोने-कोने में फैलाकर उसके उद्देश्य को आगे चल के सिद्ध करने वाला था। सर्वत्र देहातों में वर्ग-संघर्ष प्रबल रूप में आसानी से इसी तरह फैल सकता था और वह कायम भी रह सकता था। वह तो सुधारवादी था नहीं कि चुपके से जमीनें दिलवा देता। तब तो सभी गुड़-गोबर हो जाता।
दरअसल लेनिन यह मानता था कि पूँजीवादी व्यवस्था के जमाने में तो केवल सर्वहारा लोग ही समाजवादी क्रान्ति सफल कर सकते हैं। इसलिए बरूज्वा क्रान्ति मंर भी उन्हीं का नेतृत्व जरूरी हैं। वह यह भी मानता था कि बरूज्वा क्रान्ति के बाद पूँजीवाद का विकास अवश्यम्भावी हैं। फलत: गाँवों में भी एक तरफ धनी किसान और दूसरी ओर अधिकाधिक बढ़नेवाले मजदूरों का होना अवश्यम्भावी हैं। फलत: वहाँ भी कल-कारखानों की ही तरह वर्ग-संघर्ष चलेगा ही। फिर तो साम्यवाद के लिए मैदान साफ हो ही जायेगा। लेकिन पुराने जमींदारों के मिटाने के सिलसिले में बीच में ही एक युग आयेगा जब देहात के धनी गरीब सभी मिल जायेगे। क्योंकि सभी को जमीन की भूख हैं। फलत: जमींदारी मिटाने को सभी तैयार होंगे। सभी को जमीन मिलने की आशा जो होगी। इस प्रकार थोड़े समय के लिए धनी, गरीब का वर्ग-संघर्ष रुका रहेगा सही। लेकिन वह तो इसके लिए तैयार इसीलिए था कि यह अनिवार्य था। इसके बिना प्रगति ही असम्भव थी। इस अनिष्ट चीज को-जहर को-उसने भविष्य का ख्याल करके पी लिया-पी लेना ठीक समझा।
लेनिन तो व्यावहारिक आदमी था। उसने देखा कि यदि जमीन को राष्ट्र की सम्पत्ति बनायेंगे तो पूँजीवादी क्रान्ति के जमाने में उसका केवल यही मतलब होगा कि सरकार को लगान भर मिलेगा। सरकार तो सामूहिक खेती करेगी नहीं। इसीलिए जमीन पूँजीपतियों के ही प्रबन्ध में रहेगी। ताकि वे पूँजीवादी तरीके से खेती करें। ऐसी दशा में जमीनों का प्रबन्ध अगर व्यक्तियों के हाथ में ही रहा तो पूँजीपतियों की जगह छोटे-छोटे किसानों के ही हाथ में क्यों न रहे? क्योंकि ऐसा होने से तो क्रान्ति में काफी मदद भी मिलेगी और वह समाजवाद तक पहुँच भी सकेगी। यही तो उसकी सूक्ष्म दृष्टि और दूरदर्शिता थी। लेनिन यह थोड़े ही चाहता था कि जमींदारों की जगह जमीन की मलिकाई छोटे-छोटे किसानों को दी जाये। उसका तो इरादा केवल यह था कि जो पुराने समय से किसानों को जमीनें बाँट-बाँट के देने की प्रणाली रूस में चली आती थी और जिसे जमींदारी प्रथा ने खत्म-सा कर दिया था, वह फिर से सारे मुल्क में जारी हो जाये। जमींदारी प्रथा के पहले तो किसानों में जमीन का बँटवारा होता ही था। दूसरा तो कोई था नहीं जो जमीनें लेता। क्योंकि दूसरा जोतता-बोता कौन? मगर जमींदारों ने ज्यादा जमीनें हथिया ली थीं। फलत: किसान तरसते थे। पुरानी बातें याद करके तिलमिला जाते थे। और लेनिन ने उनकी इसी भावना से फायदा उठाना उचित समझ के जमीनें उन्हें जोतने-बोने के लिए देने का निश्चय किया। यही तो उसकी दूरदर्शिता थी कि किसानों की उमड़ती भावना से क्रान्ति को सफल करे और आगे बढ़ाये।
लेनिन ने 'सर्वहारा क्रान्ति और पथ-भ्रष्ट कौत्स्की' में लिखा हैं कि किसानों के करते इस तरह क्रान्ति में जो बड़ी मदद मिलती हैं उसकी परवाह वही नहीं करते जो अवसरवादी और दकियानूस होते हुए भी ऊपर से क्रान्तिकारी बनने का स्वांग रचते हैं। वह लिखता हैं-
''सन 1848 ई. वाली फ्रांसीसी क्रान्ति विफल हो गयी। क्योंकि अन्यन्य बातों के साथ ही वह वहाँ के किसानों का सहानुभूतिपूर्ण सहयोग पाने में असमर्थ रही। सन 1871 वाली पेरिस की कम्यून भी इसीलिए टिक न सकी कि और-और बातों के सिवाय उसे मध्यमवर्गीयों के और खासकर किसानों के विरोध से काम पड़ गया। 1905 वाली रूसी क्रान्ति के बारे में भी यही बात कही जा सकती हैं। कौत्स्की के नेतृत्व में कुछ भद्दे मार्क्सवादियों ने अपने यूरोपीय क्रान्तियों के अनुभव के बल पर यह नतीजा निकाला कि मध्यम श्रेणी के लोग और खासकर किसान तो सर्वहारा क्रान्ति के प्राय: जन्म से ही शत्रु हैं। इसीलिए यह बात जरूरी हैं कि पूँजीवादी की प्रगति के लिए लम्बी मुद्दत तक इन्तजार की जाये। क्योंकि विकसित पूँजीवाद के युग में राष्ट्र के बहुमत हो जायेगे श्रमजीवी लोग ही और इस प्रकार सर्वहारा क्रान्ति की सफलता के लिए जिस परिस्थिति की जरूरत हैं वह पैदा हो जायेगी।
''हमारे देश में किसानों को अपने साथ करने का काम साम्यवादी झण्डे के नीचे चालू रहा। किसानों को जमीन मिली थीं मजदूरों के ही हाथों, यहाँ जमींदारी को उनने मिटाया था मजदूरों की ही सहायता से और उनके हाथ में शासन भी आया सर्वहारा के ही नेतृत्व में। इसलिए उनने लाजिमी तौर पर यह मान लिया कि उनकी आजादी का काम चालू था और रहेगा भी सर्वहारा के लाल झण्डे के ही नीचे। साम्यवाद का जो झण्डा पहले किसानों को साम्यवाद से भड़कानेवाला माना जाता था वही अब उनका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करनेवाला बन गया और उनने मान लिया कि उसी के नीचे दमन, दुर्दशा और दरिद्रता से आजादी मिलने में आसानी होगी।''
अक्टूबर वाली क्रान्ति के पहले विदेशों से लेनिन ने जो पत्र लिखे थे उनमें उसने किसानों के इस पहलू और उनकी इस अहमियत पर सर्वहारा का ध्यान पूर्ण रूप से आकृष्ट किया था। जैसा कि पहले कहा जा चुका हैं उसकी नजर में तो वे सभी किसान सर्वहारा ही कहे जा सकते थे जो अपनी जमीन से पेट भरने में असमर्थ थे, यद्यपि सर्वहारा की परिभाषा के भीतर इसीलिए नहीं आते थे कि उनके पास जरामरा जमीन थी। इसीलिए देहातों में सर्वहारा के लँगोटिया यार और दिली दोस्त वही बन सकते। इसीलिए सर्वहारा का यह पहला फर्ज था कि उनको संगठित करे, उनमें चेतना लाये और उन्हें अपना पक्का साथी बना ले। अर्ध्द-सर्वहारा के रूप में देश के कोने-कोने में फैले इन असंख्य किसानों को अपने पक्ष में लाये बिना समाजवादी क्रान्ति की सफलता सम्भव न थी। वह लिखता हैं कि-
''सर्वहारा के दो दोस्त हैं। अव्वल दर्जे के दोस्त तो अर्ध्द-सर्वहारा लोगों का महान समूह हैं और आंशिक मित्र छोटे किसानों की जनसंख्या हैं। ये दोनों करोड़ों की तादाद में हैं और रूस की जनसंख्या का अत्यधिकांश यही हैं। इस अपार जनसमूह को आज शान्ति, रोटी, आजादी और जमीन की जरूरत हैं। अवश्य ही यह समूह मध्यमवर्गीयों और खासकर निम्न-मध्यमवर्गीयों के असर में रहेगा। क्योंकि इसी वर्ग से इसका ज्यादातर मेल, अपने जीवन में खाता हैं। उन्हीं की तरह यह भी सर्वहारा और पूँजीपतियों के बीच में ईधर-उधर लुढ़कता जो रहता हैं। महायुद्ध की भयंकर शिक्षा तो और भी भयंकर होती जायेगी ठीक उसी हिसाब में जिस हिसाब में गचकोफ, लोफ, मिल्यूकोफ आदि का गुट्ट इस लड़ाई में अपनी शक्ति अधिकाधिक लगायेंगे। नतीजा यह होगा कि यह समूह सर्वहारा की ओर खिंच आयेगा और उन्हीं का नेतृत्व मजबूरन कबूल करेगा। नई शासन व्यवस्था में जो आजादी मिली हैं उससे और मजदूरों तथा सिपाहियों की सोवियटों से फायदा उठाके हमें सबसे पहले और सबसे अधिक इस बात की कोशिश करनी होगी कि यह अपार जनसमूह संगठित हो जाये और इसकी आँखें खुल जाये। हमारे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और जरूरी कामों में ही किसानों और खेत-मजदूरों की सोवियटें बनाना भी हैं। ऐसा करने में हम सिर्फ यही कोशिश न करेंगे कि खेत मजदूर अपनी खास सोवियटें जुदा बनायें। किन्तु यह भी करेंगे कि गरीब-से-गरीब और सम्पत्तिहीन किसानों की भी सोवियटें धनिकों की सोवियटों से निराली ही बनें।
''इन्हीं दो मित्रों के साथ कन्धो-से-कन्धो भिड़ा के रूस का सर्वहारा-वर्ग आगे बढ़ सकता हैं और बढ़ेगा। साथ ही वह इस सन्धि काल की विशेषताओं से फायदा उठाके पहले तो वह प्रजातन्त्र शासन कायम करने में सफलता प्राप्त करेगा। और जमींदारों के ऊपर किसानों की विजय प्राप्त करेगा। उसके बाद साम्यवाद की स्थापना में विजय हासिल करेगा। क्योंकि युद्ध से जीर्ण-शीर्ण लोगों को केवल साम्यवाद शान्ति, रोटी और आजादी दे सकता हैं।''
यहाँ प्रसंगवश एक बात कह देना जरूरी हैं। लेनिन कहता हैं कि पहले तो जमींदारी खत्म होगी और जनमत मूलक लोकशासन कायम होगा। इसका अर्थ हैं कि बरूज्वा रेवोल्यूशन के बाद भी यह बातें नहीं हो पायी हैं क्योंकि यह पत्र मार्च की क्रान्ति के बाद लिखा गया था। हालाँकि यह काम उसी क्रान्ति का हैं। उसे किसान क्रान्ति भी इसलिए कहते हैं और जनतन्त्र क्रान्ति भी। यह एक विचित्र बात हैं। इसी प्रकार कहा जाता हैं पूँजीवादी क्रान्ति के करते आजादी भी मिलती हैं क्योंकि आजादी की लड़ाई का ही नाम पूँजीवादी क्रान्ति हैं। मगर लेनिन कहता हैं कि बिना साम्यवाद के रोटी, शान्ति और आजादी मिल नहीं सकती। इसमें भी विचित्रता प्रतीत होती हैं।
असल में जिस क्रान्ति का जो लक्ष्य होता हैं वह कभी पूरा नहीं होता हैं। कुछ-न-कुछ कमी रही जाती हैं, जिसकी पूर्ति अगली क्रान्ति में भी शायद ही होती हैं। फिर ज्यों-ज्यों क्रान्ति की प्रगति होती जाती हैं त्यों-त्यों कमी पूरी होती जाती हैं। असल में समूची सामाजिक व्यवस्था बदले बिना उसकी बुराइयाँ दूर हो नहीं सकती हैं और सारी-की-सारी व्यवस्था बदलने में बड़ी लम्बी मुद्दत लगती हैं-कभी-कभी तो सैकड़ों साल लग जाते हैं। पुराने संस्कार, पुरानी रूढ़ियाँ, पुरानी आदतें छूटती ही नहीं हैं। जिन्हें उनसे हानि होती हैं वही उन्हीं से चिपके रहते हैं ! यही तो अनोखी बात हैं। लेकिन यह हैं भी ठोस सत्य। मगर जनता की मनोवृत्ति में ऐसा फर्क हो जाता हैं और परिस्थिति ऐसी हो जाती हैं कि क्रान्ति की दूसरी दौर शुरू हो जाती हैं। असल में अगली दौर में ही ऐसा मौका आता हैं कि पिछली दौर के काम के पूरा होने में आसानी हो जाती हैं। और अगर वहाँ भी यह काम पूरा न हुआ तो उसके बाद की दौर की जरूरत होती हैं। लेनिन के एक वचन से, जो पहले दिया जा चुका हैं, यही बात मालूम होती हैं। इसीलिए स्तालिन ने चीन के सम्बन्ध में सन 1927 ई. के अगस्त में जो कुछ कहा था उसमें यह भी कहा कि-
''क्या चीनी क्रान्ति की पहली दौर ने विदेशी साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकरनें का अपना लक्ष्य पूरा कर पाया हैं? नहीं, ऐसा नहीं हुआ हैं। इसने तो इसकी पूर्ति को उत्तराधिकार के रूप में चीन की क्रान्तिकारी जनता के लिए छोड़ दिया हैं। ताकि वह क्रान्ति की दूसरी दौर में इस साम्राज्यवाद के विरुद्ध उठ खड़ी हो, उसे साफ कह दे कि बस। और बाकी काम आगे के लिए छोड़ दे। यह मान लेना चाहिए कि क्रान्ति की दूसरी दौर भी साम्राज्यवादियों को चीन से निकाल बाहर करने में पूर्णत: समर्थ न होगी। हाँ, वह दौर चीन के मजदूरों और किसानों की लड़नेवाली जमात को एक ऐसा सहारा जरूर दे देगी कि वह साम्राज्यवाद के विरुद्ध बगावत कर दे। मगर ऐसा करते हुए वह क्रान्ति की अन्तिम यानी सोवियट वाली दौर के लिए ही यह आखिरी काम छोड़ देगी कि वह जड़-मूल से साम्राज्यवाद को मिटा दे।''
समाज की पेचीदा हालत के कारण ही जो लक्ष्य सिद्धि में देर होती हैं और ज्यादा समय लग जाता हैं, यह बात समझ में आ जाती हैं। मगर जो लोग अपने मतलब को क्रान्ति की पूर्ण सफलता के द्वारा सिद्ध करना चाहते हैं उनके लिए एक ही रास्ता हैं और वह हैं अविराम वर्ग-संघर्ष का। यदि यह बात बराबर जारी रही तो इसी से क्रान्ति की सभी दौरें अपने-अपने मौके पर आई जायेगी और समाज तथा देश के कूड़े-कचरे को बहा ले जायेगी। सच्चे क्रान्तिकारी के वश की वह एक ही चीज हैं। मगर हैं वह अमृतधारा। यह बात नहीं हुई, वह नहीं हुई इस झमेले में पड़ के तो तबाह हो जाना पड़ता हैं। रेलगाड़ी को बराबर चलती रहने दो। सभी स्टेशन आप ही आप पास हो जायेगे, गुजर जायेगे। इसीलिए लेनिन ने 'हमारा कार्यक्रम' में साफ ही लिखा हैं-
''अनुभव ने हमें बताया हैं कि लोगों की पुरानी आदतों, राजनीतिक दाँव-पेंचों, पेचीदे कानूनों और काइयाँपन के सिद्धान्तों के पर्दे के भीतर हम वर्ग-संघर्ष को ही देखें। इसका अर्थ यह हैं कि इन आडम्बरों की ओट में एक ओर अनेक तबकों में बँटे मालदार और सम्पत्तिशाली लोगों और दूसरी ओर सम्पत्तिविहीन जनसमूह का नेतृत्व करनेवाला सर्वहारा-वर्ग-इन्हीं दोनों का वर्ग-संघर्ष सतत जारी हैं। अनुभव ने हमें साफ-साफ झलका दिया हैं कि किसी भी क्रान्तिकारी सोशलिस्ट पार्टी का असली काम हैं क्या। इसका काम यह नहीं हैं कि समाज की काया पलट के लिए निर्माण के काम शुरू कर दे, पूँजीपतियों और उनके पिछलग्गुओं को यह लेक्चर (उपदेश) दे कि वह श्रमिकों की दशा सुधारें, या षडयन्त्रों का ताँता शुरू करें। किन्तु उसका तो एक ही काम हैं कि सर्वहारा के वर्ग-संघर्ष का संगठन करे और इसे चालू रखे। इसका अन्तिम लक्ष्य यही हैं कि शासन-सूत्र को सर्वहारा हथिया लें-धार-दबोचें और साम्यवादी ढंग से समाज का संगठन करें।''
विदेशों से भेजे लेनिन के पत्रों से जो उदाहरण हमने थोड़ा पहले दिया हैं उसमें एक बात और भी ध्यान देने की हैं। वह कहता हैं कि अब धनी किसानों से अलग ही संगठन दुखिया किसानों का होना चाहिए। खेत के मजदूरों का भी स्वतन्त्र संगठन वह चाहता था। बात असल यह हैं कि जब तक जारशाही से लड़ाई थी तब तक तो धनी, गरीब सभी किसान साथ ही थे। सभी उस लड़ाई में शामिल थे। मगर अब पूँजीवादियों के साथ लड़ने के समय धनियों की मनोवृत्ति वैसी न रहेगी। वह भी सम्पत्ति वाले जो ठहरे। ऐसी दशा में उन्हीं के साथ दुखिया लोग भी कहीं घपले में न पड़ जाये इसीलिए उनका संगठन जुदा करना ही होगा। ताकि उन्हें उनका कर्त्तव्य समझा के लड़ने को तैयार रखा जाये। एक ही संगठन दोनों का रहने पर चालाकी से धनी लोग लड़ाई के विरुद्ध अपने संगठन का फैसला करवा के गरीबों को भी रोक दे सकते हैं उसी संगठन और सभा के नाम पर। मगर हमें तो इस घपले से बचना हैं। इसीलिए गरीबों का संगठन अब जुदा चाहिए। ऐसी परिस्थिति जब जिस देश में आ जाये तब गरीब किसानों का जुदा संगठन होना ही चाहिए।
इसका दूसरा मतलब यह हैं कि, जैसा कुछ देर पहले कह चुके हैं, लेनिन की नजरों में गरीब किसान और खेत-मजदूर-अर्ध्द-सर्वहारा-एक ही हैं, और यहाँ जब वह गरीबों के संगठन के साथ ही अर्ध्द-सर्वहारा का भी अलग संगठन कहता हैं तो उसका मतलब स्पष्ट हो जाता हैं कि इन दोनों को वह एक में मिलाना चाहता हैं। जब तक खेत-मजदूर या अर्ध्द-सर्वहारा का भी संगठन न हो, जो अब तक न था तब तक उनके साथ दुखिया किसानों के मिलने का मौका ही नहीं आता। मगर इनके संगठन के साथ ही ज्योंही दुखिया किसानों को धनियों से पृथक् किया त्यों ही ये दोनों-खेत-मजदूर और दुखिया किसान-एक सूत्र में बँधा जायेगे। इस पर ज्यादा प्रकाश 'खेत-मजदूर' नामक पुस्तक में डाला गया हैं।
अत्यन्त सफाई के साथ लेनिन ने किसानों के सम्बन्ध के अपने विचारों को 'कार्ल मार्क्स के उपदेश' में यों लिखा हैं कि-
''अन्त में अगर हम यह जानना चाहते हैं कि मार्क्सवादी साम्यवाद का क्या रुख छोटे-छोटे किसानों के बारे में हैं-ऐसा रुख जो शोषकों का सर्वमोचन करने के समय बराबर बना रहेगा-तो हमें उस घोषणा की ओर नजर दौड़ानी होगी जो एंगेल्स ने मार्क्स के मन्तव्यों के बारे में की थी।'' इसके बाद लेनिन ने एंगेल्स की वह घोषणा खुद लिख दी हैं। वह यों हैं-

''(फ्रांसीसी तथा जर्मन किसानों की समस्याएँ-नामक घोषणा में एंगेल्स कहता हैं कि) जब हमें सरकार की बागडोर मिलेगी तो हम स्वप्न में भी यह न सोचेंगे कि गरीब किसानों को, मुआवजा देकर या बिना मुआवजा के ही, जमीनों से बलात बेदखल कर दें, जैसा कि बड़े-बड़े जमींदारों के बारे में हमें करना ही होगा। इन छोटे-छोटे किसानों के सम्बन्ध में हमारा पहला काम यही होगा कि हम उनकी व्यक्तिगत खेती और जमीनों को सहकारी खेती और सहकारी सम्पत्ति के रूप में बदलें। सो भी यह काम जबर्दस्ती न किया जायेगा। किन्तु इस बात का नमूना पेश करके और ऐसा करनेवालों को सरकार की ओर से मदद देकर ही। तभी हम किसानों को इस प्रणाली तथा इस परिवर्तन के सब लाभों को दिखा सकेंगे और ये लाभ ऐसे हैं कि वे किसान उन्हें आज भी समझ सकेंगे।''
इससे यह साफ हो जाता हैं कि क्रान्ति की सफलता होते ही और सर्वहारा के हाथ में शासन सूत्र आते ही सबसे पहला काम होगा कि किसानों को इस बात की पूर्ण आजादी हो कि वे जमींदारियों को मिटा के जमीनें बाँट लें। जिनके पास पहले से ही जमीनें हों उनका तो कहना ही नहीं। इस तरह मुल्क में अधिकांश किसान मध्यमवर्गीय हो जायंगे, जिनके पास इतनी जमीनें होंगी कि उनसे अपनी गुजर खेती-बारी के जरिये कर सकें। साम्यवाद के नाम पर ऐसा न होगा कि सभी की जमीनें राष्ट्र या समाज की सम्पत्ति बना दी जायेगी। ऐसा होने पर तो महान विस्फोट होगा और प्रलय मच जायेगी। तब तो किसान ही क्रान्ति-विरोधी बन के मालदार जमींदारों से जा मिलेंगे और तख्ता ही उलट देंगे। साधारण किसानों के साथ ऐसा करना आग से खेलने के बराबर ही होगा। फिर तो जल जाना और झुलस जाना जरूरी हैं। इसलिए नौसिख और अपरिपक्व साम्यवादी की तरह का काम कोई भी समझदार नहीं करेगा।
मगर किसानों को साम्यवाद की ओर लाने का सुन्दर यत्न किया जायेगा और वह ऐसा होगा कि उन्हें विज्ञप्तियों, पुस्तकों, समाचार-पत्रों, व्याख्यानों, नाटकों, सिनेमाओं आदि के द्वारा सहयोग मूलक खेती का लाभ समझाया जायेगा। बहुत से किसान अपनी-अपनी जमीनों को एक में मिला के लम्बे खेत में वैज्ञानिक ढंग से खेती करें यह बात उन्हें बखूबी समझायी जायेगी, ताकि उनके दिल दिमाग में घुस जाये। पैदावार की जमीन के ही हिसाब से बाँट लें, या समूची पैदावार एक ही जगह से बेच के कीमत ही बाँट लें, ऐसा उन्हें बताया जायेगा, सिर्फ आगे की खेती के लिए बीज, खर्च और कुछ संरक्षित कोष में अन्न, द्रव्यादि रख देना होगा, जो किसी आपत्ति-विपत्ति या आकस्मिक जरूरत में काम आये। खेती के पुराने समान, मकान वगैरह की मरम्मत में भी संरक्षित कोष से ही खर्च किया जायेगा।
व्याख्यान, विज्ञप्ति आदि के सिवाय इस सम्बन्ध में जो सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण काम श्रमजीवियों की सरकार कर सकती हैं वह यह कि जमींदारों से छीनी गयी जमीन किसानों को देने के साथ ही उनकी जिरात और खुद काश्त की जमीनों को-लम्बे-लम्बे खेतों को-वह सरकार अपने ही पास रख के उसमें वैज्ञानिक ढंग से आधुनिक खेती कराये। पुरानी सरकार के जो फार्म हों उनमें भी इस तरह की खेती की जा सकती हैं। जब छोटे-छोटे किसानों को नमूने के तौर पर ऐसी खेती दिखाई जायेगी तभी उसका फायदा वे लोग बखूबी समझ पायेंगे। हजार उपदेशों का काम एक नमूना कर देता हैं। होगा यह कि उसके फलस्वरूप किसान उस तरफ आसानी से खिंच आयेंगे।
मगर किसानों के पास वैज्ञानिक खेती का समान तो होगा नहीं। उनके पास पूँजी कहाँ कि वह समान खरीदें? टुटपुँजिये लोगों की पहुँच के तो बाहर की वह चीजें हैं। इसीलिए सरकार की तरफ से सार्वजनिक कोष से ही उनकी सहायता की जानी चाहिए। ट्रैक्टर, खाद, अच्छे बीज, आबपाशी का अच्छा प्रबन्ध वगैरह सभी बातों में उन्हें काफी मदद देने की जरूरत होगी। तभी तो वे आसानी से इस काम में झुकेंगे और तभी वे लोग सफल भी होंगे। अगर सचमुच उन्हें अन्ततोगत्वा पंचायती खेती के जरिये सम्मिलित खेती में लगाना हैं तो यह सहायता निहायत जरूरी हैं। पीछे पता चलेगा कि इसमें जो खर्च होगा वह बेकार नहीं जाकर हजार गुना फायदा करेगा। क्योंकि इसके करते जब किसान समूह इसमें खिंच आयेगा तो साम्यवाद का काम बहुत ही सरल हो जायेगा। इसीलिए इस प्रकरण के शुरू में ही एंगेल्स का यह वचन दिया गया हैं, जिसमें लिखा हैं कि और तरीके से इसमें दसगुना लाभ होगा।
इतना कर लेने पर यह निश्चित हैं कि अधिकांश किसान खुद-ब-खुद सम्मिलित खेती में शरीक हो जायेगे। हाँ, यह हो सकता हैं कि कुछ पूँजीपतियों और मालदारों के दलाल एवं कुलक वगैरह इसमें बाधाँ डालें और किसानों को उल्टा फुसलायें। उनकी बातों में पड़ के कुछ भोले-भाले लोग शायद बहक भी जाये। ऐसों के ही लिए संभवत: बल प्रयोग और कानून की जरूरत होगी। बेशक ऐसे लोग ज्यादा न होंगे। वे तो मुट्ठी भर ही होंगे, जैसे दाल में नमक। इसलिए उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही और बल प्रयोग करने में भी कोई हर्ज नहीं हैं। एंगेल्स ने या लेनिन ने भी तो यही कहा हैं कि बल प्रयोग अन्त में किया जाना चाहिए यदि वह अनिवार्य हो। सो भी थोड़े से ही लोगों के सम्बन्ध में, न कि अधिकांश के बारे में।
यदि इस तरीके से काम किया जाये और किसानों की यथार्थ मनोवृत्तियों एवं भावनाओं को ठीक-ठीक समझ के तदनुकूल ही काम-बहुत ही होशियारी से शुरू किया जाये तो उनसे क्रान्ति की सफलता में जो अपूर्व सहायता मिल सकती हैं वह किसी से भी नहीं। उन्हीं की मदद से ही क्रान्ति को असली सफलता मिल सकती हैं और शोषितों एवं पीड़ितों का बेड़ा पार हो सकता हैं। भारत जैसे देशों में तो रूस के ही किसानों की तरह जमीन का प्रेम किसानों में बहुत ही ज्यादा हैं और ये लोग उन्हीं की तरह उस अर्थ में दल-के-दल बने (Regimented) हैं। ये जमीनों के नाम पर टूट पड़ते हैं। इसीलिए वैसा ही तरीका यहाँ भी काम में लाया जाना जरूरी हैं।
जो लोग हमारे मुल्क में मजदूर आन्दोलन को बर्दाश्त तो किसी प्रकार कर सकते हैं, लेकिन किसान आन्दोलन को मुल्की आजादी के लिए घातक मानते हैं, उन्हें एंगेल्स का सन 1865 ई. के एक पत्र का वह अंश पढ़ना चाहिए जिसमें वह लिखता हैं कि-
''प्रधानतया किसानों का ही जो देश हो उसमें कल-कारखानों के मजदूरों के नाम पर सिर्फ पूँजीवादियों पर ही हमले करने में अपने आपको लगा देना और बड़े-बड़े सामन्तशाही अशराफ (जमींदारों) के द्वारा कोड़े के हाथ पैतृक ढंग से गाँवों के श्रमजीवियों के शोषण के बारे में एक शब्द तक नहीं बोलना, यह बड़ी ही बेहूदी और नीच हरकत हैं।''
यहाँ यह भी जान लेना चाहिए कि रूस में जो सफलता क्रान्ति को मिली और जो कहीं भी नहीं मिली उसकी वजह यही थी कि वहाँ के क्रान्तिकारी नेताओं ने किसानों की इस मनोवृत्ति का ठीक-ठीक अध्ययन करके तदनुकूल ही काम किया था। दूसरे देशों के पूँजीवादियों ने जिस प्रकार किसानों की भावनाओं से अनुचित लाभ उठाकर उन्हें धोखे में अन्ततोगत्वा डाला वह बात रूस में होने न पायी। लेनिन और उसके साथियों की यही तो बुद्धिमानी थी कि पूँजीवादियों और उनके दोस्तों के चकमे में किसानों को आने ही न दिया। कुछ तो रूसी पूँजीवादियों को इंग्लैंड, फ्रांस, अमेरिका आदि की तरह मौका ही न मिला कि किसानों पर अपना जादू डाल सकें। वे लोग सोचते ही रहे कि क्या करें, तब तक दूसरी ही परिस्थिति पैदा हो गयी और वे खुद ही बला में फँस गये। कुछ ऐसा भी हुआ कि सत्रहवीं, अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी का जमाना अब था नहीं। अब तो बीसवीं सदी थी और इसमें पूँजीवादी प्रणाली खुद करवटें बदल रही थी। यह युग व्यापारी, पूँजी और औद्योगिक पूँजी का तो रह नहीं गया था। उन्नीसवीं सदी का प्राय: समूचा और कुछ-कुछ अठारहवीं के उत्तरार्ध्द का भी भाग ही औद्योगिक युग माना जाता हैं। अठारहवीं का शेष और सत्राहवीं तथा सोलहवीं शताब्दी को व्यापारी युग कहते हैं। क्योंकि कोलम्बस और वास्को-द-गामा के द्वारा क्रमश: अमेरिका और भारतवर्ष का पन्द्रहवीं सदी के अन्त-1498-में पता लग जाने पर वास्तविक व्यापारी युग-व्यापारी पूँजीवाद का युग-शुरू हुआ था। उसके पहले का व्यापार तो कुछ ऐसा ही वैसा था। उसे व्यापारी पूँजीवाद का युग कहना उचित नहीं जान पड़ता। इन नये देशों का पता लग जाने पर व्यापार में क्रान्ति हो गयी। इसीलिए उसके बाद का ही युग व्यापारी पूँजी का युग हैं। ठीक उसी प्रकार आगे चल कर मशीनी और भाप वगैरह के चमत्कारों के आविष्कार से उद्योग-धन्धों में क्रान्ति हो जाने पर अठारहवीं के उत्तरार्ध्द और उन्नीसवीं के प्राय: सर्वांश को ही औद्योगिक पूँजीवादी युग कहते हैं। मगर रूसी पूँजीवादियों को तो साम्राज्यवादी युग से ही मुकाबिला पड़ गया और उसमें वे किसानों या मजदूरों को आसानी से अपने पक्ष में कर ही नहीं सकते थे। उन्हें फुर्सत ही न थी कि परेशानी उठाकर भी ऐसा काम कर सकें।
इसीलिए स्तालिन ने 'लेनिनवाद की बुनियाद' में लिखा हैं कि-
''सोवियट संघ (यूनियन) के किसानों की तुलना पश्चिमीय यूरोप के किसानों से की जा सकती नहीं। रूसी किसानों को तीन क्रान्तियों के स्कूल में शिक्षा मिली हैं, वे श्रमिकों के कन्धो-से-कन्धा भिड़ा के उन्हीं के नेतृत्व में जार और पूँजीवादियों से लड़ चुके हैं, वे सर्वहारा क्रान्ति के ही फलस्वरूप अपनी जमीन सम्बन्धी भूख बुझा सके और शान्ति की अभिलाषा पूरी कर सके हैं और इस प्रकार वे इस देश के श्रमिकों के लिए सुरक्षित शक्ति बन गये हैं। इस प्रकार के किसान तो उन (पश्चिमी यूरोप के) किसानों से बिलकुल ही निराले हैं, जो पूँजीवादी क्रान्ति के युग में उदार पूँजीवादियों के नेतृत्व में ही लड़ते रहे, जिन्हें उन्हीं पूँजीवादियों के हाथों से जमीन मिली और इस तरह जो उन पूँजीवादियों के ही लिए सुरक्षित शक्ति बन चुके हैं। यह बात साफ हैं कि सोवियट संघ के किसान, जिनने श्रमिकों के साथ अपनी राजनीतिक मैत्री का मूल्य समझ लिया हैं और उनके साथ मिल के काम करने का राजनीतिक महत्त्व जान लिया हैं, यह बात समझने में कभी पीछे न रहेंगे कि आर्थिक क्षेत्र में भी उनसे मिल के ही काम करना चाहिए।''
आगे चल के स्तालिन फिर लिखता हैं कि जो लोग रूस की दिहाती दशा और आर्थिक व्यवस्था को पश्चिमीय यूरोप जैसी मान के काम करना चाहते हैं वह भूलते हैं। रूस में तो निराली ही हालत हैं, यहाँ की तो दुनिया ही जुदी हैं और हैं यह छोटे-छोटे किसानों की दुनिया जो क्रान्ति तथा साम्यवाद के सर्वथानुकूल हैं। वह कहता हैं-
''रूस की देहाती आर्थिक व्यवस्था का मुकाबिला पश्चिमी यूरोप की देहाती व्यवस्था से किया नहीं जा सकता। यूरोपीय व्यवस्था तो प्रसिद्ध पूँजीवादी ढंग पर ही विकसित हुई हैं। इसीलिए वहाँ एक ओर मालदार किसान हैं, जिनकी लम्बी-लम्बी जिम्मेदारियाँ और बड़े-बड़े खेत (फार्म) हैं, और दूसरी ओर छोटे-छोटे किसान तथा दरिद्रताग्रस्त खेत मजदूर हैं। और इन दोनों का अन्तर बहुत साफ हैं। इसीलिए वहाँ देहात के रहनेवाले इन दो दलों में बड़ा जबर्दस्त संघर्ष हैं। मगर सोवियट रूस में बातें दूसरी ही हैं। यहाँ एक तो सोवियट का शासन हैं और दूसरे उत्पादन के सभी प्रधान साधन राष्ट्रीय सम्पत्ति बना लिए गये हैं। इसीलिए यहाँ का आर्थिक विकास ख़ामखाह निराले ही रास्ते से हो रहा हैं। रूस के गाँवों की आर्थिक व्यवस्था की प्रगति इस तरह होती हैं कि करोड़ों-करोड़ गरीब एवं मध्यम किसानों की सहयोग समितियाँ बनी हैं, बनती हैं और कृषि सम्बन्धी ऐसी ही दूसरी समितियाँ भी बनती हैं, जिन्हें सुविधा के साथ सरकार की ओर से आर्थिक सहायता मिलती हैं और मदद की जाती हैं। सहयोग के बारे में लेनिन ने जो लेख लिखे हैं उनमें उसने ठीक ही लिखा हैं कि हमारे गाँवों की आर्थिक प्रणाली बिलकुल नये ढंग से विकसित होगी, जिसमें अधिकांश किसान सहयोग समितियों के जरिये साम्यवाद के प्रसार में भाग लेंगे और इस तरह सम्मिलित खेती के सिद्धान्त को धीरे-धीरे खेती के रग-रग में भर दिया जायेगा। पहले तो यह बात केवल गल्ले आदि की बिक्री से ही शुरू होगी। फिर समय पाकर गल्ले वगैरह के उत्पादन में भी जा घुसेगी। यह तो साफ हैं कि किसानों का अत्यधिक बहुमत इस मार्ग को खुशी-खुशी अपनायेगा। ताकि पूँजीवादी तरीके से व्यक्तिगत बड़े-बड़े फार्मों के बनने का रास्ता बन्द हो जाये-ऐसा रास्ता जो मजदूरी की गुलामी, गरीबी और बर्बादी की ओर जाता हैं।''
इन वाक्यों में यह बात बहुत सफाई के साथ बतायी गयी हैं कि किसानों के सहयोग से क्रान्ति में सफलता मिलने पर साम्यवाद के निर्माण में उनसे किस प्रकार सहयोग समितियों के द्वारा मदद मिलती हैं और सम्मिलित खेती की ओर वे क्योंकर अग्रसर होते हैं। इस काम में मजदूरों की सरकार उन्हें किस प्रकार मदद करके आगे बढ़ा सकती हैं यह बात भी बतायी गयी हैं। साम्यवाद के निर्माण में गरीब और मध्यम श्रेणी के किसान ही सहायक होते हैं, न कि धनी किसान। वे तो पूँजीवादी प्रणाली चाहते हैं। इसलिए हमें मध्यम तथा गरीब किसान वर्ग का स्वागत करने के बजाये उनसे घबराने की जरूरत नहीं। असल में फ्रांस की पहली क्रान्ति के बाद मध्यम किसानों की तादाद बढ़ जाने के कारण वहाँ जो गड़बड़ी हुई थी उसी का ख्याल करके क्रान्तिकारी लोग अन्य मध्यम श्रेणी की ही तरह मध्यम श्रेणी के किसानों से भी डरते रहे हैं। मार्क्स तथा एंगेल्स ने भी फ्रांस के गृहयद्ध की बात याद करके कम्युनिस्ट लीग वाले अपने व्याख्यान में यह बात प्रकट की हैं। क्योंकि उससे पूँजीवाद की नींव पड़ जाती हैं। मगर वहाँ तो दूसरी ही बात थी। जमीन तो रूस में भी किसानों को दी गयी थी। फिर भी वहाँ पूँजीवाद के प्रसार के बदले उन्हीं किसानों ने साम्यवाद का प्रसार किया। क्योंकि वहाँ उनका नेतृत्व ठीक लोगों-सर्वहारा-वर्ग-के हाथ में था। फ्रांस में यही बात न होने से गड़बड़ी मची। क्योंकि वहाँ का नेतृत्व पूँजीवादियों और उनके दोस्तों के हाथ में था। इसीलिए पूँजीवादी क्रान्ति के बाद ही क्रान्ति का प्रवाह, प्रसार रुक गया। वह आगे न बढ़ सकी। नहीं तो सब ठीक होता। रूस में तो क्रान्ति का प्रवाह चालू रहा और सर्वहारा क्रान्ति को पूरा करके ही रुका। इसीलिए कोई भी दिक्कत नहीं हुई। क्रान्ति का प्रवाह गंगा की धारा की तरह अगर निरन्तर जारी रहे तो वह निर्मल बनी रहती हैं। प्रवाह रुक जाने पर ही उसमें गन्दगी आ जाती हैं।
ऊपर के उदाहरण में जिस पूँजीवादी विषमता का जिक्र गाँवों की आर्थिक प्रणाली को लेकर बताया गया हैं उसका स्पष्टीकरण मिस्टर पाल लाफार्ग ने अपनी पुस्तक 'सम्पत्ति का विकास' के 154-155 पृष्ठों में यों किया हैं-
''संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के गल्ले पैदा करनेवाले राष्ट्रों के खेतिहरों (किसानों) के चार मुख्य विभाग किये जा सकते हैं-
(1) खेती के सर्वहारा, खेत-मजदूर या बँधो-बँधाये दिनों तक ही काम करनेवाले;
(2) छोटे किसान जिनकी या तो अपनी ही जमीनें हों या जो बँटाई पर खेती करते हों;
(3) ऐसे खेतवाले किसान जो अपनी खेती की देखभाल खुद करते हैं;
(4) बड़े-बड़े पूँजीपति खेतिहर, यूरोप में जिनके जैसे खेतिहर रूमानिया के विभिन्न भागों और रूस के दक्षिणी हिस्से में पाये जाते हैं।
''अत्यधिक बहुमत उन्हीं खेती करनेवालों का हैं जो सर्वहारा हैं, जिनके पास न तो एक इंच जमीन होती और न मिट्टी की झोंपड़ी और जिस बिस्तरे पर वे सोते या जिस चम्मच से खाते हैं वह भी उनके अपने नहीं होते। दैनिक भोजन या कपड़ों के सिवाय जिनके पास कोई भी व्यक्तिगत सम्पत्ति न हो ऐसे (सर्वहारा) लोगों के नमूने के तौर पर वे होते हैं। जिन खेतों को वे जोतते-बोते उनमें भी उनके रहने के लिए कोई निश्चित स्थान (घर) नहीं होता। फलत: ज्यों ही काम पूरा हुआ कि वे उन खेतों को छोड़कर चले जाते हैं। ऐसे पूँजीवादी फार्मों के मैनेजर उन मजदूर की भर्ती सभी जगह करते हैं। सभी गाँवों और शहरों में ये मजदूर रोजाना, हफ्तेवारी या मासिक मजदूरी पर भर्ती किये जाते हैं। खेती के ही काम में वे लगाये जाते हैं। इसीलिए निरीक्षकों और संचालकों के अन्दर वे रखे जाते हैं। और उसी रूप में बड़े खेतों में पहुँचाये जाते हैं। वे डेरों में रखे जाते हैं, खिलाये जाते हैं, उन्हें दवा दी जाती और तनख्वाह दी जाती हैं। उन्हें कवायद सिखाई जाती हैं और वे खेती सम्बन्धी फौजी टुकड़ी के रूप में रखे जाते हैं। वहाँ फौजी अनुशासन की पाबन्दी होती हैं-वे नियत समय पर ही सो के उठते, खाते और सोते हैं। हफ्ते भर उन्हें शराब पीने की मनाही रहती हैं। केवल रविवार को ही उन्हें यह आजादी रहती हैं कि पास की भट्ठी में जाये और शराब पियें। जब बरसात में काम खत्म हो जाता हैं तो वे बर्खास्त कर दिये जाते हैं। जाड़ों में तो थोड़े से ही आदमी खेतों पर सिर्फ इसलिए रखे जाते हैं कि पशुओं को खिलायें-पिलायें और खेती के औजारों की हिफाजत करें। बाकी सभी लोग गाँवों और शहरों में लौटकर जिसे जो भी मिले वही काम करता हैं।''
इस वर्णन में जिस सर्वहारा की तस्वीर खींची गयी हैं वह कल-कारखानों के मजदूरों से भी बुरी हैं। असल में यही तो असली खेत-मजदूर हैं जिनके बारे में देहातों की ''तर धरती न ऊपर बज्जर'' वाली कहावत अक्षरश: लागू हैं। यही लोग तो असली सर्वहारा हैं। जिनके पास झोंपड़ी और बर्तन-भांडे हैं वे भी पक्के सर्वहारा नहीं हैं। इसीलिए इन्हें आदर्श या नमूना बताया हैं। जहाँ पूँजीवादी तरीके से खेती नहीं वहाँ खेतों के सर्वहारा हो ही नहीं सकता। इसलिए हिन्दुस्तान जैसे देश के नन्हे-नन्हे खेतों के मजदूरों को सर्वहारा कहना सरासर भूल हैं। यहाँ खेत मजदूर तो हकीकत में किसान ही हैं। हमने इसका स्पष्टीकरण 'खेत-मजदूर' में अच्छी तरह किया हैं। जब तक जमींदारी प्रथा को मिटाकर पूँजीवादी ढंग से बड़े-बड़े फार्मों में ऊपर बताये पैमाने पर खेती नहीं होती तब तक बरूज्वा रेवोल्यूशन की सफलता हो भी नहीं सकती। इसीलिए तो पूँजीवादी जमींदारी मिटाने का पक्षपाती होता हैं। बेशक इस जमींदारी के मामले में पूँजीवादियों में भी दो दल हैं। फिर भी इतना तो सभी मानते हैं कि जब तक पूरी तौर पर पूँजीपतियों के काबू में जमीन नहीं आ जाती, ताकि जैसे चाहें खेती करें, तब तक पूँजीवादी क्रान्ति को सफल कहा नहीं जा सकता हैं।
यही कारण हैं कि मार्क्स ने लिखा हैं कि जमीनों पर पूँजीपतियों का पूरा अधिकार हो जाने पर वे प्रतिगामी या क्रान्ति विरोधी बन जाते हैं। इसका मतलब हैं कि वे ख़ामखाह जमींदारी मिटाने के हामी नहीं रह जाते हैं। यदि जमींदार ही पूँजीपति बनकर उस तरह की खेती शुरू कर दें, तो भी उनका काम हो जाता हैं। अगर सरकार ही ऐसा प्रबन्ध कर दे कि उन्हें जरूरत भर जमीन मिलने लगे, तो भी उनका मतलब पूरा हो जाता हैं। असल में जमीन के खरीदने में जितना भी पैसा लगे उतना पूँजी में ही तो कम होगा। फलत: खेती को पूँजीवादी ढंग से करने में पूँजी उतनी कम हो जायेगी। इसीलिए पूँजीवाद के पूर्ण विकास के लिए जरूरी हैं कि मुफ्त जमीन मिले। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की सरकार ने वहाँ ऐसी खेती के लिए बहुत जगह पूँजीपतियों को बराबर मुफ्त ही जमीनें दी हैं। आस्ट्रेलिया में भी कुछ ऐसा ही हुआ हैं। इसीलिए लेनिन के लेखों के संग्रह के 12वें भाग के 194 पृष्ठ में लिखा हैं कि ''इसका अर्थ हैं कि संयुक्त राष्ट्र का पश्चिमी हिस्सा सोलहों आना घरवाली (जिसके बीच में ही रहने का घर भी हो) जमीनों में बँटा हैं। यह ऐसा प्रदेश हैं जहाँ की पड़ती जमीनें लोगों को मुफ्त ही दी गयीं, ठीक उसी तरह जैसे कि रूस के बाहरी भागों में आस्ट्रेलिया की तरह भेड़िहरों को मुफ्त जमीनें दे के उन्हें बसाया गया। यह बात पूँजीवादी ढंग से की गयी और जिसने चाहा उसे जमीन मिल गयी।'' यह इस तरह साधारणत: 160 एकड़ से कम किसी को दी जाती न थी। साम्राज्यवादी युग में तो सख्त मुकाबिला होता हैं। जिस फार्म का गल्ला वगैरह सस्ता होगा वही बेच सकेगा और फूले-फलेगा। मगर खेत की कीमत के रूप में कुछ भी रुपया लगाने पर पैदावार उतनी महँगी तो जरूर ही हो जायेगी और बिक न सकेगी। इसलिए मुफ्त ही जमीन मिलना जरूरी हो जाता हैं। जमीन की कीमत की तो बात ही नहीं। उसका लगान भी देना ठीक नहीं होता। ऐसा मौका आ जाता हैं जब सरकार को अपने पूँजीपतियों के फार्मों को कायम रखने और बढ़ने के लिए मालगुजारी या लगान भी छोड़ देना पड़ता हैं।
जमींदारी मिटाने की इस बात के लिए मार्क्स के वचनों को उध्दृत करके लेनिन ने उस पर अपनी टिप्पणी विस्तार के साथ लिखी हैं। लेनिन ग्रन्थावली (Selected Works) के बारहवें भाग के अन्त में लेनिन के सन 1907 ई. के इस कथन को यों दिया हैं-
''यह बताने के बाद कि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में जमींदार बिलकुल ही बेकार हैं; क्योंकि उस प्रणाली का काम तभी पूरा हो सकता हैं जब जमीन पर सरकार का अधिकार हो, मार्क्स कहता हैं कि-
'''यही कारण हैं कि आमूल परिवर्तनवादी (क्रान्तिकारी) पूँजीपति सिद्धान्त की दृष्टि से इस निश्चय पर पहुँचता हैं कि जमीन पर किसी का भी व्यक्तिगत हक नहीं होना चाहि
ए। लेकिन अमली तौर पर काम करने की हिम्मत उसमें इसलिए नहीं होती कि एक प्रकार की व्यक्तिगत सम्पत्ति, जिस पर औरों से काम कराया जाये, पर हमला होने का परिणाम ऐसी दूसरी सम्पत्ति के लिए भी खतरनाक हो जायेगा। यह बात भी हैं कि पूँजीपति जमीन को सोलहों आने अपने काबू में कर चुका होता हैं।'
''मार्क्स यहाँ यह बात नहीं कहता हैं कि यदि खेती पूँजीवादी ढंग से न होती हो तो वह जमीन को राष्ट्र की सम्पत्ति बनाने में बाधक होती हैं। वह तो दूसरी ही बाधाँओं की ओर निर्देश करता हैं जिनसे यह बात और भी ज्यादा साफ हो जाती हैं कि पूँजीवादी क्रान्ति के युग में ही जमीन का राष्ट्रीयकरण हो सकता हैं।
''पहली बाधाँ यह हैं कि आमूल परिवर्तनवादी सम्पत्तिजीवी (पूँजीपति) को हिम्मत ही नहीं होती कि जमीन के व्यक्तिगत अधिकार पर हमला करे। क्योंकि उसे यह डर बराबर बना रहता हैं कि इसे ही देख के सभी प्रकार की व्यक्तिगत सम्पत्ति पर साम्यवादी हमला हो जायेगा-साम्यवादी क्रान्ति हो जायेगी।
''दूसरी बाधाँ यह हैं कि पूँजीपति ने जमीन को अच्छी तरह अपने काबू में कर लिया हैं। इसमें मार्क्स का साफ मतलब यही हैं कि जमीन की व्यक्तिगत सम्पत्ति होते हुए भी पूँजीवादी तरीके का उत्पादन उसमें जम गया हैं, अर्थात जमीन की व्यक्तिगत सम्पत्ति अब सामन्तयुग की जैसी होने की अपेक्षा कहीं ज्यादा पूँजीवादी बन चुकी हैं। जबकि पूँजीवादी वर्ग ने बहुत बड़े पैमाने पर जमीन की सम्पत्ति से अपने आपको पहले से ही बाँध दिया हैं, जमीन पर जम गया हैं और जमीन की सम्पत्ति को बखूबी अपने कब्जे में कर लिया हैं, तब जमीन को राष्ट्रीय सम्पत्ति बनाने के लिए वास्तविक आन्दोलन पूँजीवादियों की तरफ से होना असम्भव हैं। यह इसीलिए असम्भव हैं कि कोई वर्ग अपने ही खिलाफ कोई भी काम नहीं कर सकता।
''आम तौर से ये दोनों बाधाँएँ सिर्फ पूँजीवाद के चढ़ाव के ही समय में दूर की जा सकती हैं, न कि उसके हास के समय में-अर्थात पूँजीवादी क्रान्ति के ही युग में यह बात हो सकती हैं, न कि साम्यवादी क्रान्ति के श्रीगणेश के समय।''
बहुतों की ऐसी धारणा हैं कि पूँजीवादी लोग जो पिछड़े मुल्कों में रहते हैं क्रान्तिकारी होते हैं। ऐसा भी माना जाता हैं कि सभी पूँजीवादी क्रान्तिकारी होते हैं। मगर अभी-अभी लेनिन का जो वचन उध्दृत किया गया हैं उससे तो यह बात साफ हो जाती हैं कि यह बात सही नहीं हैं। खासकर साम्राज्यवादी युग में, जबकि पूँजीवाद का हास हो रहा हैं, जब उसके विकास की गुंजा हीश रही नहीं गयी हैं, यह पूँजीवादी सोलहों आना दकियानूस और प्रतिगामी बन चुका हैं। इसीलिए जमींदारी मिटाने के नाम से डरता हैं, काँपता हैं। हाँ, मूल्य देकर यदि उसे खत्म करना हो तो जरूर चाहेगा। क्योंकि यह तो खरीद-बिक्री ठहरी और उसका यही काम ही हैं। मूल्य देने में बड़ा लाभ यह हैं कि उसी पैसे से कल-कारखाने खोले जायेगे और किसानों को प्रकारान्तर से लूटा जा सकेगा। उनका गल्ला, गन्ना, जूट, रूई वगैरह सस्ते में खरीदकर उन्हें तबाह करेंगे और घर-बार विहीन होने पर कल-कारखानों में कुछ लोगों को नाममात्र की मजदूरी पर लगायेंगे। इसीलिए आगे लेनिन साफ ही कहता हैं कि-
''प्रगतिशील सम्पत्तिजीवी (पूँजीवादी), अत्यन्त समुन्नत पूँजीवाद के जमाने में, हिम्मतवर हो नहीं सकता। ऐसे समय में पूँजीवादी प्रधानतया प्रतिगामी हो चुका होता हैं। ऐसे युग में सम्पत्तिजीवियों का प्राय: पूर्णरूपेण जमीन से लिपट जाना पहले से ही अनिवार्य हो गया रहता हैं। लेकिन, पूँजीवादी क्रान्ति के जमाने में तो बाहरी परिस्थिति ही उन्हें हिम्मतवर बनने को विवश करती हैं। क्योंकि उस समय की ऐतिहासिक (महत्त्वपूर्ण) समस्याओं को सुलझाने में उन्हें अपने वर्ग के लिए सर्वहारा क्रान्ति का खतरा नहीं रहता। असल में पूँजीवादी क्रान्ति के युग में वे जमीन से पूरी तरह लिपटे नहीं होते। क्योंकि उस समय जमीन की सम्पत्ति के पेट में सामन्तशाही का बहुत ज्यादा अंश रहा करता हैं। पूँजीवादी खेतिहरों के समूह के लिए तब यह बात सम्भव होती हैं कि जमीन की मिल्कियत की खास सूरतों के खिलाफ लड़ें। इसीलिए उनके लिए यह भी मुमकिन होता हैं कि पूँजीवादी ढंग से जमीन को आजाद कर दें, यानी उसे राष्ट्र की सम्पत्ति बना दें।
''इन सभी बातों में रूस की पूँजीवादी क्रान्ति के लिए खासतौर से अनुकूल परिस्थिति हैं। सिर्फ आर्थिक दृष्टि से दलील करने पर हमें बिना हीला-हवाला के मानना ही होगा कि रूस में सामन्तशाही तरीके, जमीन की मिल्कियत के बारे में, ज्यादे से ज्यादा पाये जाते हैं। फिर चाहे वह जमींदारी की बात हो या किसानों को दिये जमीन के टुकड़ों की ही हो। ऐसी हालत में एक ओर अपेक्षाकृत समुन्नत पूँजीवादी उद्योग-धन्धों और दूसरी ओर देहाती जिलों की भयंकर पिछड़ी हालत में जो परस्पर विरोध हैं वह चिल्लाता नजर आता हैं। उस दशा में बाहरी परिस्थिति के चलते पूँजीवादी क्रान्ति को मजबूरन पूर्ण बनना पड़ जाता हैं, जिससे खेती-बारी की तेज तरक्की के लिए अनुकूल परिस्थिति पैदा हो जाये। रूस की खेती में तेजी के साथ पूँजीवाद का प्रसार हो इसके लिए जमीन का राष्ट्रीयकरण खासतौर से जरूरी हैं। रूस में एक ही प्रगतिशील सम्पत्तिजीवी अभी तक मौजूद हैं जिसने जमीन को अभी तक हथियाया नहीं हैं और जिसे आज सर्वहारा-वर्ग के आक्रमण का डर हो ही नहीं सकता। वह हैं रूस का किसान।
''इस दृष्टि से, जमीन को राष्ट्र की सम्पत्ति बनाने के बारे में रूस के उदार पूँजीवादियों के गिरोह और किसानों के समूह के रुख में जो फर्क हैं वह अच्छी तरह समझ में आ जाता हैं। उदार जमींदार, वकील, बड़े कारखानेदार और व्यापारी-ये सभी-जमीन को काफी हथिया चुके हैं। इसलिए उन्हें श्रमजीवियों के हमले का डर ख़ामखाह हैं। इसीलिए उन्हें स्टालिपिन और केडेट पार्टी का रास्ता ही अवश्य पसन्द हैं। देखिये न, सोने की कैसी नदी जमींदारों, सरकारी हुक्कामों, वकीलों और व्यापारियों की ओर बह रही हैं और 'किसान बैंक' करोड़ों की तादाद में यह सोना भयभीत जमींदारों में बाँट रहे हैं। केडेट पार्टी के तरीके के अनुसार जमीन का मुआवजा देने में यह सोने की नदी किसी कदर दूसरी दिशा में बहने लगती और शायद यह सोने की बाढ़ कुछ कम होती। फिर भी करोड़ों से कम तो होती नहीं और यह सब कुछ उन्हीं लोगों को मिलता।
''अगर क्रान्तिकारी ढंग से जमीन की पुरानी मिल्यिकत (जमींदारी) मिटा दी जाती तो सरकारी हुक्कामों और कानूनदां लोगों को तो एक पैसा भी नहीं मिलता। सौदागरों की तो प्रधान रूप से यह हालत हैं कि वे इतने दूरंदेश हुई नहीं कि तत्काल जमींदारों से कुछ-न-कुछ नोचने की अपेक्षा आगे चलकर पास-पड़ोस के किसानों की खरीद-फरोख्त की ताकत की ज्यादा कद्र करें। रूस की पुरानी प्रणाली के चलते जो किसान मौत के मुख में बलात् ठूँसा जा रहा हैं सिर्फ उसी की यह ताकत हैं कि जमीन की मिल्कियत को बिलकुल ही नये ढंग (क्रान्तिकारी) से स्थापित करने की कोशिश करे।''
लेनिन के इस लम्बे विवरण पर ज्यादा टीका-टिप्पणी करने की गुंजा हीश हुई नहीं। यह इतना साफ और विस्तृत हैं कि सभी लोग आसानी से समझ सकते हैं। लेकिन उसके लिखने का जो विलक्षण तरीका हैं उससे कुछ लोग गड़बड़ी में पड़ सकते हैं। यही कारण हैं कि दो-एक जरूरी बातें बता दी जाये।
बीसवीं सदी के आरम्भ में जारशाही के प्रधानमन्त्री स्टालिपिन ने एक ऐसा कानून बनाया था जिसके चलते गाँवों की जमीनों की जो सम्मिलित सम्पत्ति किसानों को प्राप्त थी वह मिट जाये। जहाँ पहले कोई भी किसान अपने हिस्से की जमीन गाँव की पंचायत से अलग कर नहीं सकता था, तहाँ स्टालिपिन ने किसानों को ऐसा हक दे दिया कि यदि वे चाहें तो बँटवारा कर लें। इसका एकमात्र उद्देश्य यही था कि देहातों में भी सम्पत्तिजीवी (पूँजीवादी) या बरूज्वा वर्ग पैदा हो जाये। कुलक लोगों की वृद्धि का श्रीगणेश उसी से हुआ। यह भी हुआ कि किसानों ने अपनी जमीनें तो पंचायत से अलग कर लीं। मगर हल-बैल वगैरह पास में न होने के कारण, या जमीन बहुत ही अल्प होने की वजह से कुलकों के हाथ उनने बेच दी।
एक बात यह भी हुई कि किसानों को जब अपनी जगह जमीन न मिली तो वे साइबेरिया भेजे गये और सरकार ने उनके लिए रुपये कर्ज दिये, कि उन्हीं से जमीनें आबाद करके सूद सहित उन्हें वापस करें और जमीनों की कीमत भी दें। यह बात धीरे-धीरे किस्तों में होगी यही नियम बना था। उसी के लिए 'किसान बैंक' खोले गये थे। इससे जमींदारों की रद्दी और बेकार जमीनों के भी रुपये उन्हें मिले। किसान लोग उन्हीं 'किसान बैंकों' को किस्त-किस्त करके रुपये देते थे। और बैंक जमींदारों को देते थे। इस मामले में लिखा-पढ़ी आदि के सिलसिले में वकीलों और सरकारी अफसरों को भी काफी रुपये मिलते थे। सौदागर लोग जमींदारों के यहाँ माल देकर उनसे कीमत पाते थे। अगर जमींदारों को जमीन की कीमत नहीं मिलती तो सौदागरों, वकीलों आदि को क्या खाक मिलता? इसी बात की ओर लेनिन का इशारा हैं। केडेट पार्टी के लोग भी जमीनों की कीमत जमींदारों को देने के पक्षपाती जरूर थे। मगर जो जमीनें किसानों को लगान पर पहले से दी गयी थीं, या जिनके बदले उन्हें जमींदारों के खेतों में काम करना पड़ता था उनकी कीमत वे देने के पक्षपाती न थे। इसी प्रकार जिन जमीनों की खेती में किसानों के ही हल-बैल आदि को जमींदार काम में लाते थे उनकी भी कीमत उनसे ली जाये यह उनका कहना था। इसी से लेनिन कहता हैं कि उनके रास्ते से शायद कुछ कम पैसे जमींदार आदि को मिलते। यही थोड़ा-सा अन्तर स्टालिपिन और केडेट पार्टी की नीति में था। केडेट पार्टी का ही दूसरा नाम कान्स्टिटयूशनल डेमोक्रेटिक पार्टी था। यह थी तो बड़े-बड़े जमींदारों और मालदारों की साम्राज्यवादी पार्टी। मगर परिस्थितिवश ऐसा कहने को मजबूर थी। क्योंकि किसानों को शान्त करने का दूसरा उपाय था ही नहीं। इससे कम पर वे बगावत करने से कभी न रुकते।
लेनिन के उदाहरण के अन्त में सौदागरों की बात कही गयी हैं। जिसका मतलब कपड़े आदि तैयार करनेवाले और बेचनेवाले कारखानेदारों से ही हैं। ये लोग सोचते थे कि जमीन की कीमत जमींदारों को जरूर दी जाये। तभी तो अपना माल उन्हें देकर उनसे हम पैसे लेंगे और मुनाफा कमायेंगे। अगर जमींदारों को मुआवजा नहीं मिला तो वे भिखमंगे हो जायेगे। फिर हमारा माल कैसे खरीदेंगे? मगर उनकी यह मनोवृत्ति दूरंदेशी से दूर थी। क्योंकि कीमत देने पर किसान दरिद्र के दरिद्र रह जायेगे और कुछ माल खरीद न सकेंगे। विपरीत इसके उन्हें यदि कीमत न देनी हो और जमीन मुफ्त ही मिले तो करोड़ों-करोड़ किसान सुखी होकर खूब माल खरीदेंगे। इस प्रकार सौदागरों के माल का बाजार घर में ही, देश में ही या पड़ोस में ही खुल जायेगा। नहीं तो उन्हें दूर देश भेजना और परेशान होना पड़ेगा। पूँजीवाद के निर्विघ्न प्रसार के लिए मुफ्त जमीनों की प्राप्ति का जिक्र जो हमने पहले किया हैं, लेनिन का इशारा उसी ओर हैं और यह बात साफ हैं।
लेनिन ने जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात कही हैं वह हैं पूँजीवादियों (बरूज्वा) के बारे में। वह कहता हैं कि जब पूँजीवाद का बहुत ज्यादा विकास हो जाता हैं तो पूँजीपति प्रतिगामी और दकियानूस हो जाता हैं, क्रान्ति विरोधी बन जाता हैं और किसी भी क्रान्तिकारी काम के करने की उसे हिम्मत होती नहीं। वह हमेशा डरता रहता हैं कि कहीं यही देख के सर्वहारा-वर्ग उभड़ न पड़े और अपनी क्रान्ति कर डाले-साम्यवादी क्रान्ति की आग जला दे। वह हमेशा साम्यवादी क्रान्ति का भूत देखता रहता हैं। उसे खतरा बना रहता हैं कि किसी क्षण में भूखे-नंगे और संगठित श्रमजीवी अपनी क्रान्ति का सफल झण्डा बुलन्द कर दे सकते हैं।
सबसे माके की बात तो उसने यह कही हैं कि पूँजीवादी प्रणाली की खूब तरक्की हो जाने पर न सिर्फ उन पूँजीवादी देशों में, जहाँ यह तरक्की हो चुकी हैं, किन्तु पिछड़े देशों में भी पूँजीवादी दकियानूसी बन जाते हैं। यद्यपि पिछड़े देशों में पूँजीवाद के लिए काफी गुंजा हीश होती हैं और आमतौर से यही ख्याल किया जाता हैं कि वहाँ के पूँजीवादी जमींदारी को क्रान्तिकारी ढंग से ही मिटा देंगे। क्योंकि उन्हें सोशलिज्म का खतरा नहीं रहता। अभी तो कल-कारखाने हजारों की तादाद में खोले जाकर उनमें बेकार लोगों को काम दिया जाने के साथ किसानों के द्वारा पैदा किये गये कच्चे माल का भी काफी दाम दिया जा सकता हैं और इस प्रकार मुल्क की सम्पत्ति खूब ही बढ़ायी जा सकती हैं। फिर भी लेनिन ऐसा नहीं मानता हैं। वह तो रूस में इन सभी बातों की सम्भावना के होते हुए भी यह बात साफ ही कहता हैं कि वहाँ के पूँजीवादी लोग दकियानूस और क्रान्ति विरोधी बन गये हैं। जिन ऊँचे तबकों से ऐसी आशा थी कि मध्यम वर्ग के नाते कहिये या सम्पत्तिजीवी (बरूज्वा) होने के नाते, क्रान्तिकारी मार्गों को पसन्द करेंगे और अगर प्रोत्साहन किसी कारण न भी दें तो कम-से-कम उनका विरोध तो नहीं ही करेंगे, वही लोग दकियानूस बन गये, क्रान्ति विरोधी (प्रतिगामी) बन गये हैं। वह तो कहता हैं कि प्रगतिशील कहे जाने वाले मध्यवर्गीयों या सम्पत्तिजीवियों में केवल किसान ही बच रहा हैं जो क्रान्तिकारी ढंग से जमींदारी मिटाना चाहता हैं। जहाँ और लोग मुआवजा देकर जमींदारी खरीदना और मिटाना चाहते हैं तहाँ वह बेमुरव्वती से छीन लेना चाहता हैं। इसका कारण यह हैं कि वह दाने-दाने को मर रहा हैं, परेशान हैं, तबाह हैं और उसके पास दूसरा चारा हैं ही नहीं। ऐसे दकियानूस लोग किसानों और मजदूरों से मिल के लड़ेंगे ऐसा ख्याल जो आज भी करते हैं और भारत में पूँजीवादियों के साथ संयुक्त मोर्चे का राग अलापते हैं उनकी आँखें लेनिन के इस कथन से खुलनी चाहिए। भारत की दशा उस समय के रूस जैसी ही तो हैं। जरा ही मरा फर्क होगा।
लेनिन के कथन से यह भी साफ हैं कि किसान की गणना बरूज्वा वर्ग में ही हैं और वह परिस्थितिवश से ही क्रान्तिकारी बनता हैं, न कि सर्वहारा-वर्ग की तरह जन्म से ही, स्वभाव से ही। इसीलिए तो क्रान्ति का नेतृत्व सर्वहारा ही कर सकते हैं, न कि किसान ! यही मार्क्स का मत हैं, सिद्धान्त हैं।

रचनावली 5 : भाग - 6
 

 

 

 

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