स्वामी
सहजानन्द सरस्वती रचनावली-5
सम्पादक
-
राघव शरण शर्मा
क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा
सर्वहारा का एकतन्त्र
और गणतन्त्र
यद्यपि सर्वहारा के एकतन्त्र शासन का बहुत ही ज्यादा जिक्र पहले आ
चुका हैं, सो भी कई बार। तथापि उस पर खासतौर से विचार किये बिना काम चल
नहीं सकता और न क्रान्ति के निरूपण का काम ही पूरा हो सकता हैं। गणतन्त्र,
जनतन्त्र या लोकमतमूलक शासन (democracy) और प्रजातन्त्र शासन (Republic) का
नाम जो लोग जानते एवं इनका वर्णन पढ़ चुके हैं, साथ ही एकतन्त्र शासन
(dectatorship) की भी बातें जानते हैं, वे इस एकतन्त्र के नाम पर काफी
नाक-भौं सिकोड़ते हैं। उन्हें इसे सुनकर ही झल्लाहट होती हैं। क्योंकि इसे
वे बहुत ही बुरी चीज मानते हैं। वे लोग कुछ इस तरह सोचते हैं। एकतन्त्र को
ही यदि नादिरशाही या स्वेच्छाचारिता कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। जो लोग
समस्त जनता को सुखी सम्पन्न देखना और समान बनाना चाहते हैं, जो समाजवाद और
साम्यवाद की दुहाई देते हैं वही जब प्रजातन्त्र और जनतन्त्र की जगह
एकतन्त्र का केवल नाम ही नहीं लेते, बल्कि राग अलापते और इसे अनिवार्यरूपेण
आवश्यक मानते हैं, तो आश्चर्य होता हैं और घबराहट भी होती हैं। साम्यवाद या
समाज और एकतन्त्र शासन ये दोनों परस्पर विरोधी चीजें हैं। इन दोनों का मेल
वे लोग कैसे करते हैं यह आश्चर्य की बात हैं। इसीलिए इंग्लैंड के प्रसिद्ध
विज्ञ श्रीमती और श्रीमान सिडनी वेब ने आश्चर्य के साथ अपने ग्रन्थ 'सोवियट
कम्युनिज्म' में लिखा हैं कि-
''जैसा कि अंग्रेजी में अर्थ करने से पता चलता हैं कि प्रोल्तारियन
डिक्टेटरशिप का मतलब हैं सर्वहारा के द्वारा समस्त समाज पर एकतन्त्र शासन।
लेकिन यदि शब्दों का अक्षरश: अर्थ लिया जाये तो यह ऐसे दो शब्दों का संयोग
हैं जो परस्पर विरोधी हैं। एक आदमी की मर्जी के मुताबिक हुकूमत और एक बहुत
बड़े वर्ग के लोगों की राय से शासन-ये दोनों-एक नहीं हो सकते। साथ ही, अगर
सर्वहारा का अर्थ हैं वह अपार जनसमूह जो अपनी दैनिक जीविका के लिए दूसरों
के मातहत हैं, जैसा कि मार्क्स ने बार-बार कहा हैं कि सर्वहारा मजदूरों का
वह समूह हैं जो मजदूरी के लिए कल-कारखानों में काम करता हैं, तब तो
सर्वहारा के एकतन्त्र का मतलब ग्रेट ब्रिटेन जैसे देशों में, जहाँ पूँजीवाद
के अत्यन्त विकसित होने के कारण काम करने लायक मनुष्यों का तीन-चौथाई
मजदूरी पर ही काम करता हैं, इससे अधिक नहीं होता हैं कि जनसंख्या के बहुत
बड़े बहुमत का शासन। लेकिन तब इसे एकतन्त्र शासन क्यों कहा जाये?''
असल में जो लोग इस एकतन्त्र के भीतरी और वास्तविक अर्थ को समझने लगते हैं
उन्हें इस तरह की शंकाएँ तब तक होती रहती हैं जब तक सारी बातें उनके सामने
साफ-साफ आ नहीं जाती हैं। हमने तो पहले ही लेनिन के 'विदेश के पत्रों' के
एक अंश को उध्दृत करके बताया हैं कि पूँजीवादी युग में जो पार्लिमेण्ट और
कौंसिल, असेम्बली आदि के द्वारा शासन होता हैं वह और कुछ नहीं हैं सिवाय
मुट्ठी भर मालदारों के शासन के, जो अपार जनसमूह के ऊपर उसके नाम से होता
हैं। उसमें वोट देने, उम्मीदवार बनने और अपने पक्ष के प्रचार वगैरह में
इतने बन्धन हैं कि गरीब कमानेवाले तो इस बात की स्वप्न में भी आशा नहीं कर
सकते कि वे पार्लिमेण्ट आदि के मेम्बर चुने जायेगे। और अगर संयोग से दो एक
कभी चुने गये भी, तो शासन चलाने के लिए जिस बहुमत की आवश्यकता होती हैं वह
तो उन्हें हर्गिज हासिल हो ही नहीं सकता। इंग्लैंड के मजदूर-दल वाले
बड़ी-बड़ी डींगें हाँकते हैं। गो कि उनका शासन जब-जब हुआ हैं तब-तब उनने भारत
की बेड़ियों को और भी कस दिया हैं। बंगाल का सार्वजनिक रक्षा आईन (Public
Safety Act) और सन 1930 वाले सत्याग्रह का घोरतम दमन इस बात के ज्वलन्त
प्रमाण हैं कि मजदूर दल ने पूँजीवादियों की भी नाक काट ली। मगर क्या उस दल
को भी बहुमत मिला था? पार्लिमेण्ट में नरमदली लोगों से गँठजोड़ करके ही वे
लोग शासनारूढ़ हुए थे।
इसीलिए लेनिन ने स्पष्ट ही कहा हैं कि पूँजीवादी बहुमत शासन या जनतन्त्र का
सीधा अर्थ यही हैं कि कुछ साल के बाद शोषितों से कहा जाता हैं कि शोषकों
में से ही किसी एक को चुन के अपनी छाती पर बिठा दो। ताकि तुम्हारे नाम परही
तुम्हारा शासन और शोषण करें। मगर सर्वहारा के शासन या एकतन्त्र का अर्थ
इसके उल्टा यह होता हैं, जैसा कि श्री सिडनी वेब ने लिखा हैं कि शोषित अपने
में से ही अपना शासक अपनी पसन्द के अनुसार चुनें। यही बात श्री जौन
स्ट्रेची ने अपनी पुस्तक 'समाजवाद-सैद्धान्तिक और व्यावहारिक' के 150 पृष्ठ
में लिखा हैं-
''हमने देखा हैं कि पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली ने मजबूरन दो वर्ग या गिरोह
पैदा कर दिये हैं, जिनके बीच समाज बँटा हैं। एक दल हैं पूँजीवादियों का,
जिनकी आय सिर्फ इसीलिए होती हैं कि उत्पादन के साधनों पर उन्हीं का
प्रभुत्व हैं। दूसरा दल हैं श्रमिकों का जो काम करके ही पैसा पाता हैं। और
जब तक ये दोनों क्लास (वर्ग) हैं तब तक एक का शासन दूसरे पर हो होगा।''
पहले जो हमने वर्ग संघर्ष के सिलसिले में विस्तार के साथ बताया हैं कि
सरकार तो हमेशा ही एक वर्ग की होती हैं; वह सभी वर्गों की तो हर्गिज हो
नहीं सकती, वही मतलब ऊपर के वचनों का हैं। पहले ही की तरह ये वचन सिद्ध कर
देते हैं कि पूँजीवादी प्रणाली में चन्द पूँजीवादियों का ही शासन कमानेवाली
अपार जनता के ऊपर उन्हीं के शोषण के लिए होता हैं। इस शासन-व्यवस्था को
लोकमतमूलक शासन या जनतन्त्र या गणतन्त्र कहना सरासर धोखा हैं। मगर जिस
प्रकार पूँजीवादी जनतन्त्र मुट्ठी भर पूँजीपतियों के ही लिए जनतन्त्र होता
हैं और शेष जनता पर तो वस्तुत: उनका एकतन्त्र शासन ही होता हैं। ठीक उसी
प्रकार सर्वहारा के एकतन्त्र में कमानेवाले असंख्य शोषितों के लिए जनतन्त्र
तथा मुट्ठी भर मालदारों के लिए एकतन्त्र शासन होता हैं। अन्तर यही होता हैं
कि जहाँ पूँजीवादी वर्ग अपने एकतन्त्र को साफ स्वीकार नहीं करता, तहाँ
श्रमजीवी वर्ग इसे खुले आम कबूल करता हैं। यह बात भी हैं कि पूँजीवादी लोग
हजार जाल और धोखाधाड़ी से अपना एकतन्त्र कायम करते तथा उसे चलाते हैं। मगर
सर्वहारा यह बात खुल के कहते और करते हैं। पूँजीवादियों की तरह नकली आँसू
नहीं बहाते और न लोकमत का ढोंग ही रचते हैं। वह तो साफ कह देते हैं कि हमें
तो पूँजीवादियों पर एकतन्त्र कायम करके उन्हें जड़-मूल से मिटाना
हैं-पूँजीवाद को, न कि पूँजीवादी आदमियों को खत्म करना हैं। यही बात
स्ट्रेची यों लिखता हैं-
''कम्युनिस्ट लोग यह दावा नहीं करते कि उनकी शासन-व्यवस्था पूर्ण जनतन्त्र
हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि उनकी शासन-प्रणाली में जनतन्त्र के विपरीत
दमनकारी और ठीक इसी मानी में जनता के बहुत बड़े बहुमत का शेष अल्पमत
पूँजीवादियों के ऊपर एकतन्त्र अधिकार भी अर्थ सिद्ध हैं। और कम्युनिस्ट तो
राजनीतिक प्रचारक होने की अपेक्षा राजनीति-विज्ञान के प्रचारक कहीं ज्यादा
हैं। इसीलिए वे अपनी इस प्रणाली का ऐसा नाम रखते हैं जो उसकी असलियत को
ठीक-ठीक बता दे-अर्थात एक वर्ग का दूसरे वर्ग पर एकतन्त्र शासन। क्योंकि वे
तो बार-बार दुहराते हैं कि जब तक दोनों वर्गों की हस्ती मिट न जाये और
दोनों मिल के एक वर्ग विहीन (समान) समाज बन नहीं जाये, तब तक सच्ची
जनतन्त्र शासन-प्रणाली जिसमें एक-एक करके सभी शामिल हों और एकतन्त्र या
निरंकुशता का लेश भी न हो, स्थापित हो ही नहीं सकती।''
पूँजीवादी और सर्वहारा वाली प्रणाली को अत्यन्त संक्षेप में स्ट्रेची ने
यों लिखा हैं कि-
''मौजूदा पूँजीवादी लोकतन्त्र और नये तरह के श्रमजीवी वर्ग के लोकतन्त्र,
जिसे रूस के दृष्टान्त से सोवियट लोकतन्त्र भी कहते हैं, में यही फर्क हैं
कि पहले में तो श्रमिकों को केवल यही अधिकार दिया गया हैं कि अपने ऊपर शासन
करने के लिए पूँजीवादियों के द्वारा नामजद लोगों में किसी एक को पसन्द कर
लें। लेकिन दूसरा तो श्रमिकों को इस योग्य बना देता हैं कि वे अपना शासन
खुद कर लें। जिस लोकतन्त्र को श्रमजीवी वर्ग ने पूँजीवाद को मिटाने की अपनी
लड़ाई चलाने तथा समाजवाद की स्थापना के लिए तैयार किया हैं उसकी रूपरेखा इसी
प्रकार की हैं।''
ऊपर के कथनों में दो महत्त्वपूर्ण बातें आ जाती हैं। एक तो यह कि सर्वहारा
क्रान्ति के फलस्वरूप पूँजीवादी लोग हार और दब जाये भले ही। मगर पूँजीवाद
बना रहता हैं और भीतर ही भीतर वह इस बात की तैयारी में रहता हैं कि मौका
पाते ही सर्वहारा को दबा के फिर शासन हथिया ले। पूँजीपतियों की चल
सम्पत्ति, रुपये, पैसे, दिमाग, चालबाजी, संगठन-चातुरी, अनुभव, शासन के
कील-काँटे की जानकारी और बाहर भीतर (देश-विदेश) के सभी तरह के लोगों के साथ
का उनका गहरा सम्बन्ध तो कायम रहता ही हैं। वह तो फौरन मिट जाता नहीं। आम
जनता पर जो उनका पुराना जादू होता हैं वह भी मिट जाता हैं नहीं। फलत: मौका
पा के उभड़ जाते और काम बना लेते हैं। हाल की जो स्पेन की घटना हैं वह इसका
ताजा नमूना हैं। पेरिस में जो 1789 से लेकर 1871 तक बार-बार मजदूरों के हाथ
में शासन आकर भी टिक न सका उसका भी यही रहस्य हैं। इसीलिए पूँजीवादियों का
सारा षडयन्त्र और पूँजीवाद की जड़ खोदने के लिए जिस घोर पशुबल और निर्दय दमन
की अनिवार्य आवश्यकता हैं वह सर्वहारा के एकतन्त्र के बिना हो ही नहीं सकता
हैं। यदि उस समय लोगों की राय ली जाये तो सारा गुड़-गोबर ही हो जाये। जरा भी
आगा-पीछा करने और दया दिखाने से काम नहीं चलता। वहाँ तड़ाक-फड़ाक बेरहमी से
काम करने की जरूरत होती हैं। न्यायालय, पंचायत और कानून की बात उठाने में
भी हर्ज होता हैं। आम जनता का स्वभाव ही कुछ ऐसा होता हैं कि एकाएक
दयार्द्र हो के कह बैठती हैं कि ''जाने दीजिये, जाने दीजिये, अब बेचारे कुछ
न करेंगे''। लेनिन ने 1905 वाली काला सागर के रूसी जहाजी बेड़े के नाविकों
की बगावत की विफलता के सिलसिले में कहा हैं कि-
''1905 का इतिहास तो कुछ उल्टा ही बताता हैं। कुछेक को छोड़ फौज के सभी अफसर
उस समय या तो पूँजीवादी उदार सुधारक थे, या खुल्लम खुल्ला प्रतिगामी। उस
समय फौजी वर्दी पहननेवाले किसान और मजदूर ही तो क्रान्ति की जान थे। उस समय
की क्रान्तियाँ जनता का आन्दोलन बन गयी थीं। रूस के इतिहास में यह पहला ही
मौका था कि बगावत का आन्दोलन शोषितों के बहुमत के भीतर घुस गया। लेकिन एक
ओर तो जनता में साबित कदमी और दृढ़ता नहीं थी। लोगों में विश्वास कर लेने की
बीमारी काफी फैली थी। दूसरी ओर आन्दोलन में क्रान्तिकारी सोशल-डेमोक्रेटिक
पार्टी के मजदूरों के संगठन का अभाव था। नहीं तो वही लोग आन्दोलन के अगुवा
बन जाते, क्रान्तिकारी फौज के आगे-आगे चलते और सरकारी अधिकारियों पर ही
धावा बोल देते।
''हम प्रसंगवश कहे देते हैं कि यह दोनों ही कमी धीरे-धीरे निश्चय ही दूर
होंगी और यह बात होगी न सिर्फ आमतौर से पूँजीवाद की प्रगति से, बल्कि
वर्तमान युद्ध के करते भी। हर हालत में, 1871 वाले पेरिस कम्यून के इतिहास
की ही तरह रूस की इस क्रान्ति का इतिहास भी यह बात पक्का-पक्की बताता हैं
कि किसी भी दशा में फौजी शासन तब तक हराया और मिटाया नहीं जा सकता जब तक
राष्ट्रीय सेना का एक अंश सफलता के साथ दूसरे अंश के साथ की गयी लड़ाई में
विजयी न हो जाये। फौजी शासन को केवल भला-बुरा कहना, कोसना या उसकी आज्ञा न
मानना ही या उसकी समालोचना करना और उसे हानिकारक बताना ही इस बात के लिए
काफी नहीं हैं। चुपचाप फौजी अफसरों की आज्ञा को मानने से शान्ति के साथ
इन्कार कर देना नादानी हैं। असली काम तो यह हैं कि श्रमजीवियों की
क्रान्तिकारी भावना और चेतना को ज्यादे से ज्यादा उभाड़ रखा जाये तथा उन्हें
फौज की मामूली तालीम ही न दी जा कर, उन्हें खास-खास बातों की शिक्षा भी दी
जाये। ताकि जब सार्वजनिक आन्दोलन खूब तेज हो जाये तो क्रान्तिकारी सेना के
अगुवा वही लोग बन सकें।''
इससे थोड़ा ही पूर्व उसने कहा हैं कि जब ता. 24-11-05 को काले सागर के फौजी
बेड़े के फौजी जहाज प्रिन्स पोतमकिन में बगावत हो गयी तो बागी सिपाहियों ने
पीछे चल के ऐसा किया कि ''बिलकुल सिधाई के साथ बड़ी नादानी से गिरफ्तार किये
गये अफसरों को रिहा कर दिया। उन अफसरों के वादों और रोने-धोने मात्र से ही
बागी सिपाही ठण्डे पड़ गये और सन्तुष्ट हो गये। इस तरह अफसरों को वक्त मिल
गया और उनने सहायक सेना बुला ली। फिर तो बागियों को उनने कुचल दिया और
अत्यन्त भयंकर दमन बगावत को दबाने तथा बागियों को फाँसी चढ़ाने के रूप में
शुरू कर दिया।''
लेनिन के इस कथन से साफ हो जाता हैं कि अहिंसा के साथ काम-धम इन्कार कर
देने और असहयोग कर देने मात्र से ही काम नहीं चलता। किन्तु विरोधियों पर
जरा भी विश्वास न करके तथा उन पर रत्ती भर भी दया न दर्शा के निर्दयता से
उन्हें कुचलना पड़ता हैं। सेना के एक भाग का नेतृत्व करके दूसरे को हराना और
पीछे जब कभी पूँजीवादी या उनके साथी सर उठायें तो उन्हें मसल देना जरूरी
होता हैं। जनता में जो दया और चटपट विश्वास कर लेने की आदत हैं उससे सजग
होकर बेरहमी और बेलिहाज से शत्रुओं का घोर दमन अनिवार्य होता हैं। सर्वहारा
के एकतन्त्र का यही रहस्य हैं, यही मतलब हैं। वह कोई स्वेच्छाचारी व्यक्ति
या गुट का शासन नहीं होता। उसकी निरंकुशता तथा एकतन्त्रता विरोधियों के
निर्दय दमन तक ही सीमित होती हैं, सिर्फ उसी काम के लिए होती हैं।
स्ट्रेची के कथन में दूसरी बात यह हैं कि यद्यपि ऊपर से चिकना-चुपड़ा और
निर्दोष बनने के लिए, इस तरह के प्रचार के ख्याल से पूँजीवादियों की ही तरह
श्रमिक भी अपनी सरकार को लोकतन्त्र या जनतन्त्र कह सकते हैं और इसमें कुछ
भी बोलने का हक किसी को नहीं हैं। तथापि वे तो केवल प्रचार नहीं चाहते।
सबसे पहले तो वे लोग हर चीज को राजनीतिक विज्ञान और सिद्धान्त की कसौटी पर
कसते हैं। बाद में ही अमल या प्रचार करते हैं। जो चीज उस विज्ञान और
सिद्धान्त के अनुकूल न हो उसका प्रचार वे हर्गिज कर नहीं सकते। क्योंकि आगे
चलकर उससे धोखा होने की गुंजा हीश रहती हैं। और यदि वैज्ञानिक दृष्टि से वह
चीज सही साबित हुई तो उसे स्वीकार करने और साफ-साफ घोषित करने में वे जरा
भी हिचकते नहीं। चाहे देखने में वह चीज कुछ लोगों को भद्दी और अप्रिय भले
ही लगे। यही बात सर्वहारा के एकतन्त्र शासन के सम्बन्ध में भी लागू हैं।
बहुत से ऐसे भी दल श्रमजीवियों के हैं, उनकी अनेक ऐसी पार्टियाँ हैं जो
साम्यवाद और क्रान्ति का दावा करती हैं जरूर। मगर उसी के साथ लोकतन्त्र,
जनतन्त्र, या जनमतमूलक शासन की भी रट लगाती रहती हैं। उनका हमेशा यही कहना
हैं कि हमें तो हर बात में लोगों की राय और मनोवृत्ति को, भावना को, देख के
ही चलना हैं। हम इस बात से एक इंच भी हट नहीं सकते। इसीलिए सर्वहारा के
एकतन्त्र का मखौल भी उन पार्टियों के नेता उड़ाते हैं और इसे बेकार एवं
हानिकारक मानते हैं। जैसा कि सिडनी वेब का उल्लेख पहले किया जा चुका हैं,
उसी तरह उनका भी कहना हैं कि साम्यवाद और समाजवाद के सिद्धान्त के सर्वथा
प्रतिकूल यह सर्वहारा का एकतन्त्र हैं। वह लोग इसीलिए शुद्ध जनतन्त्र का ही
नाम लेकर अपना काम चलाते हैं। उनकी राय में धनी-गरीब, शोषक-शोषित सभी की
राय से शुद्ध जनतन्त्र (Pure democracy) कायम करना ही ठीक हैं।
लेनिन ने इस शुद्ध जनतन्त्र तथा इसके माननेवालों का उपहास किया हैं और
स्ट्रेची ने भी वही बात प्रकारान्तर से कही हैं। उसका कहना हैं कि जब तक आम
लोगों के दिल में यह बात भर नहीं दी जाती कि पूँजीवाद को जड़-मूल से उखाड़ने
के लिए निरंकुश शासन की ही जरूरत हैं, दूसरे ढंग से काम चल नहीं सकता, तब
तक यह काम होने का नहीं। क्योंकि जब लोगों के दिमाग में यह बात भरी रहेगी
और इसे अनिवार्य मानते रहेंगे तो पूँजीवादियों के निर्दय दमन को देख के उबल
न पड़ेंगे। लेकिन यदि उनके दिमाग में हर बात में लोकमत की ही जरूरत की बात
भरी होगी, तो उस दमन को देखते ही उनमें जोश और उभाड़ आ जाना स्वाभाविक हैं।
क्योंकि लेनिन ने तो कहा ही हैं कि शोषकों की दीनता, उनके वादे, उनके
रोने-धोने और शपथ कसम पर चटपट जनता को विश्वास हो जाता हैं। और वह दयार्द्र
हो उन पर रहम करने को तैयार हो जाती हैं। ऐसी दशा में उस निर्दय दमन को देख
के वह बिगड़ जायेगी और सर्वहारा के शासन को ही अन्यायमूलक समझ के उखाड़
फेंकेगी। जनता को तो दिमाग होता नहीं। केवल भावना होती हैं। इसीलिए तो
भावुकतावश उबल पड़ती हैं। मगर यदि एकतन्त्र की भावना उसमें प्रबल बना दी
जाये तो यह खतरा नहीं होता। यही हैं इसकी वैज्ञानिक दृष्टि और इसीलिए
श्रमजीवी वर्ग इस बात की घोषणा और प्रचार करता हैं। ताकि समय पाकर जनता के
दिल में यह बात बैठ जाये। अमेरिका में जो हब्शी लोगों को जिन्दा जलाने की
घटनाएँ होती हैं वह जनता के दिमाग के फलस्वरूप थोड़े ही होती हैं। दिमाग तो
इस बात को घृणित बताता हैं। किन्तु चिरकाल से उसके दिल में भरी हुई भावुकता
के फलस्वरूप आवेश का ही यह फल हैं।
जो लोग इस एकतन्त्र में शुद्ध निरंकुशता और मनमानी घरजानी की ही बात मानते
तथा सोचते हैं वह भूल जाते हैं कि जहाँ तक श्रमजीवियों का ताल्लुक हैं
इसमें ऐसा जनतन्त्र होता हैं कि कुछ पूछिये मत। किसान सभाओं और ट्रेड
यूनियनों को तो शोषित किसानों तथा मजदूरों की ही संस्थाएँ सभी मानते हैं और
उन्हीं के आधार पर यह एकतन्त्र शासन कायम होता हैं। उन संस्थाओं में तो
पूरा लोकमत चलता हैं। सभी किसानों एवं मजदूरों को पूरा अधिकार होता हैं कि
जैसी राय चाहें दें। यह भी याद रहना चाहिए कि जैसा रूस में पाया जाता हैं,
सर्वहारा क्रान्ति की विजय के बाद जब पंचायती (सोवियट) सरकार
कायम हो जाती हैं तो
किसानों एवं मजदूरों की संस्थाओं में सभी किसान एवं मजदूर मेम्बर बनते हैं।
यह बात निहायत जरूरी होती हैं। यह बाध्यतामूलक नियम होता हैं। इसलिए
पूँजीवादी देशों की तरह यह बात नहीं होती कि जो ही चन्दा दे वही मेम्बर
बने, दूसरे नहीं। वहाँ तो सभी को मेम्बर बनना ही पड़ता हैं। सभी को उन
संस्थाओं का महत्त्व पूर्ण रूप से समझा दिया जाता हैं। वे लोग खाना-पीना
छोड़ के भी सभाओं के काम में भाग लेते हैं और वही सभाएँ अपनी पंचायतें
(सोवियटें) चुनती हैं, जिनके हाथ में शासन रहता हैं। इसलिए जहाँ तक शोषितों
का ताल्लुक हैं सोवियट में सोलह आने लोकमत के ही अनुसार शासन होता हैं।
हाँ, पूँजीवादियों को यह अधिकार नहीं होता कि वे किसी के बारे में राय दें
या बोल सकें। उनका यह अधिकार छिन जाता हैं। क्योंकि यदि उन्हें यह अधिकार
हो तो अपने धन, प्रभाव, सम्बन्ध और प्रभुत्व के बल से पुनरपि गड़बड़ी पैदा कर
दें। रूस में देहात के धनी किसानों (कुलकों) ने इतने पर भी रह-रह के गड़बड़ी
पैदा की। और धनियों ने भी ऐसा ही किया। मगर उनके लिए एकतन्त्र शासन होने के
कारण वे सफल न हो सके। इसलिए सर्वहारा का एकतन्त्र शोषकों और मालदारों के
लिए निरंकुश और शोषितों एवं गरीबों के लिए पूर्ण रूप से लोकतन्त्र शासन
हैं। इसीलिए उनका नाम लोकतन्त्रमूलक सर्वहारा का एकतन्त्र शासन कहते हैं।
यही बात स्ट्रेची अपनी पुस्तक के 154 पृष्ठ में यों लिखता हैं-
''जब ये संस्थाएँ स्वयं सरकार के रूप में परिणत हो गयी हैं तो श्रमिकों के
लिए तो ये जनतन्त्र ही हैं। साथ ही, ये (सोवियट या पंचायत) की संस्थाएँ
उन्हीं श्रमिकों के ही लिए, उनका जहाँ तक पूँजीपतियों से ताल्लुक हैं,
एकतन्त्र शासन का काम देंगी। जब हम कहते हैं कि पूँजीवाद से पिण्ड छुड़ाने
के लिए श्रमिकों के एकतन्त्र शासन की स्थापना आवश्यक हैं, तो उसका मतलब यही
होता हैं। साम्यवादी आर्थिक व्यवस्था कायम करने के लिए यह आवश्यक हैं कि
श्रमजीवी वर्ग पूँजीवादी वर्ग के साथ ठीक उसी तरह पेश आये जिस तरह आज
पूँजीवादी लोग श्रमिकों के साथ पेश आते हैं। मजदूर दल के भीतर तो पूर्ण
जनतन्त्र होगा (और उसी के अनुसार उनका सारा काम होगा) जिस प्रकार
पूँजीवादियों के भीतर आज पूरा लोकतन्त्र कायम हैं। मगर मजदूरों का एकतन्त्र
शासन पूँजीपतियों के ऊपर ठीक उसी प्रकार रहेगा जिस प्रकार पूँजीपतियों का
निरंकुश शासन श्रमिकों पर हैं।''
''मजदूरों के एकतन्त्र शासन का मतलब यही हैं कि मजदूर लोग आपस में मिल कर
ही सबकी राय से कोई निश्चय करेंगे। और उसे अपने आप पर काम में लायेंगे। मगर
जब पूँजीवादियों के साथ कुछ भी करना होगा तो बिना उनसे पूछे ही मजदूरों के
ही फैसले के अनुसार उनके साथ सलूक होगा।''
यहाँ एकाध बातों को साफ कर देना जरूरी हैं। कहने के लिए तो पूँजीपति कहते
हैं कि सारा काम लोगों की राय से ही होता हैं। मगर लोगों की राय की कदर
वहीं तक की जाती हैं जहाँ तक पूँजीवादी वर्ग का स्वार्थ बिगड़ता नहीं। अगर
उस पर धक्के लगे तो सभी लोकमत हवा में मिला दिया जाता हैं। जब आयरलैंड का
प्रश्न तेज हो गया था और ब्रिटिश पार्लिमेण्ट वहाँ की जनता तथा किसानों के
सामने झुकना चाहती थी, आयरलैंड के अल्स्टर के अंग्रेज जमींदारों और उनके
लीडर सर एडवर्ड कारसन के साथ इंग्लैंड के मालदारों और जमींदारों ने खुलेआम
बगावत कर दी और सरकार एवं पार्लिमेण्ट को मजबूर किया। यह तो ऐतिहासिक बात
हैं। सरकार की आज्ञा की खुलेआम अवहेलना और फौज या सरकारी कर्मचारियों को
अपने साथ मिलाना, मिलाने का कोशिश करना आम बात हो गयी थी, जिससे सरकार को
घुटने टेकरनें पड़े थे। जब इंग्लैंड की यह दशा हैं, जहाँ लोकतन्त्र की सबसे
ज्यादा दुहाई दी जाती हैं, तो दूसरे देशों का क्या कहना? फ्रांस में
संयुक्त मोर्चे का जो हाल में सवाल उठा था और उस पर कुछ अमल भी हुआ वह भी
तो आखिर सरकारी निश्चय के विरुद्ध पूँजीवादियों (फासिस्टों) की बगावत का ही
नतीजा था, जिसे मन्त्रिमण्डल के प्रमुखों ने ही उत्साहित किया था। स्पेन
में भी यही बात हुई और बगावत करके ही फ्रांको ने फासिस्टों का शासन कायम
किया। जर्मनी में तो वीमार विधन (Weimar constitution) के विरुद्ध
कैसरवादियों तथा औरों ने बगावत ही की थी, जो कि वे विफल रहे।
मगर यह तो प्रत्यक्ष बगावत की बात हुई। दूसरे तरीके भी तो होते हैं जिनसे
पूँजीवादी शोषक अपना उल्लू सीधा करते और लोकमत को पाँव तले रौंदते हैं।
पार्लिमेण्टों या असेम्बलियों में अपर चेम्बर, सीनेट या हाउस आँफ लार्ड्स
होते हैं और उनमें जमींदारों, मालदारों या उनके साथियों का ही बहुमत होता
हैं। यह अगर लोकमत को रौंदना नहीं हैं तो आखिर हैं क्या? जब
प्रतिनिधिमण्डल, हाउस आँफ कामन्स, या असेम्बली में भी मालदारों के
प्रतिनिधि रहते ही हैं, जब वहाँ प्रतिनिधि भेजने में उन्हें मत देने का,
दिलाने का पूरा हक हुई, तो फिर खास ढंग से अपर चैम्बर की क्या जरूरत? आम
लोगों की राय से चुने प्रतिनिधियों का बहुमत तो वहाँ होता ही नहीं। ऐसे लोग
तो वहाँ जाते ही नहीं, जाने पाते ही नहीं। सिर्फ रूस के द्वितीय या अपर
चैम्बर में यह बात हैं कि सभी राष्ट्रों के प्रतिनिधि आम लोगों के ही चुने
हुए होते हैं। क्योंकि वहाँ पूँजीवाद नहीं हैं। वहाँ का द्वितीय चैम्बर
विभिन्न राष्ट्रों से सम्बन्ध रखनेवाली बातों पर विशेष रूप से विचार करके
ही निर्णय करता हैं। यह बात लोअर चैम्बर में नहीं हो सकती। क्योंकि
छोटे-छोटे राष्ट्रों के प्रतिनिधि वहाँ कम होते हैं और बारीक बातों पर खास
दृष्टि देने का मौका सबको नहीं मिलता। इसलिए यह ऊपर चैम्बर वाला दूसरा
तरीका हैं लोकमत को दबाने का ही।
बादशाह या प्रेसिडेण्ट को अधिकार रहता हैं कि बने-बनाये कानून को रोक दे और
उस पर अपनी सम्मति न दे। यह बात दशा विशेष में ही होती हैं यह सही हैं। मगर
होती तो हैं और बादशाह या प्रेसिडेण्ट तो मालदार घरानों के ही उन्हीं से
सम्बद्ध होते हैं। फलत: यदि और तरह से न हो सका तो उन्हीं के द्वारा मालदार
लोग जनमत को जहन्नुम भेज देते हैं-लतिया देते हैं।
राजविद्रोह, बगावत, बद-अमनी आदि के नाम पर ऐसे कानून बने होते हैं, बनाये
जाते हैं कि किसानों, मजदूरों या शोषितों की आवाज घोंट दी जाती हैं। जब वे
लोग कोई भारी प्रदर्शन करना चाहते, मीटिंग की तैयारी करते या जुलूस
निकालते, तो ख़ामखाह रोक दिये जाते हैं; सो भी उन्हीं कानूनों के नाम पर।
मुकदमे चलाना, नजरबन्द कर देना, अखबारों से भारी जमानतें माँगना, जो दी न
जा सकें, उन्हें बन्द कर देना, मीटिंग वगैरह में सरकारी आज्ञा लेने का पख
लगा देना, खास-खास जगह मीटिंगों की मनाही कर देना, आदि बातें क्या लोकमत को
तिलांजलि देने का सबूत नहीं हैं? नहीं तो, फिर शोषितों के ही लिए ये पख
क्यों लगे होते हैं?
कानून बनने पर उनके अनुसार अमल करने करानेवाले अफसर और हाकिम तथा झमेला
पैदा होने पर कानूनों का अर्थ लगाने वाली अदालतें कैसे चलती हैं? क्या ये
न्यायाधीश ज्यादातर अमीर और मालदार घराने के ही नहीं होते? या मालदारों के
सम्बन्धी या जी-हुजूर श्रेणी के ही नहीं होते? क्या मालदार लोग सैकड़ों
प्रकार से उन पर अपना असर नहीं डालते? क्या अफसरों और हाकिमों पर
रुपये-पैसे आदि का जादू तरह-तरह के काम नहीं करता? यदि और नहीं हुआ तो क्या
अखबारों के जरिये जो अधिकांश मालदारों के ही हाथ के नीचे होते हैं,
न्यायप्रिय हाकिमों और न्यायाधीशों के विरुद्ध झूठे और गन्दे प्रचार करके
उन्हें विवश नहीं किया जाता?
सबसे बड़ी बात तो यह हैं कि अंट-संट प्रचार करके लोगों को धोखे में डालना और
ऐन मौके पर कोई झूठी सनसनीदार खबर निकाल के उन्हें अपने अनुकूल बना लेना यह
तो मालदारों की आम बात हैं। गरीबों के पास प्रचार की भरपूर सामग्री हैं ही
कहाँ? प्रेस, कागज, पैसे उनके पास इफरात हैं कहाँ कि उनका जवाब गरीब दे
सकें? सिनेमा, थियेटर, नाटक, व्याख्यान, नोटिस, किताबों आदि के जरिये, और
आखिर में शोषितों के प्रभावशाली लोगों को तरह-तरह से मिला के मालदार लोग
लोकमत अपने अनुकूल बनाई लेते हैं। रुपये के बल से हजारों लेक्चरबाज भेजकर
लोगों का दिमाग फेर डालते हैं।
और जब यह सभी जाल बेकार होते दीखते हैं तो वे लोग खुल्लम खुल्ला बगावत कर
बैठते हैं, जैसा कि फासिस्टवाद और नात्सीवाद का इतिहास साफ बताता हैं। जब
शोषण असह्य हो जाता और श्रमजीवियों में वर्ग चेतना पूरी जग जाती हैं, तो ये
सभी जाल नकारे साबित होते हैं और किसान-मजदूर किसी की भी एक न सुन के
बलपूर्वक अपना काम बनाने पर उतारू हो जाते हैं। उस समय पर्दा फेंक के
पूँजीवादी लोग सीधे निरंकुशता पर उतर आते हैं। जहाँ पहले उनकी निरंकुशता और
एकतन्त्रता पर्दे में छिपी थी, तहाँ अब काम चलता न देख मजबूरन नग्न रूप
धारण कर लेती हैं।
इन्हीं सब कारणों से मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन तथा उनके अनुयायियों ने साफ
ही कहा हैं कि पूँजीवादी जनतन्त्र प्रच्छन्न निरंकुश शासन हैं। उन्हें जहाँ
तक अपना मतलब गाँठना हैं तहाँ तक तो निरंकुशता का सवाल हुई नहीं। जहाँ तक
लोकमत उनके स्वार्थ के अनुकूल हैं वहाँ तक लोकतन्त्र शासन ठीक हैं। मगर
ज्यों ही उनके स्वार्थ के साथ शोषितों के स्वार्थ का संघर्ष हुआ कि वही
दिखावटी लोकतन्त्र चट-पट एकतन्त्र बन गया। इसीलिए स्ट्रेची कहता हैं कि
पूँजीवादियों का जहाँ तक शोषितों के साथ सलूक हैं, वह निरंकुश शासन ही हैं।
यह दूसरी बात हैं कि जरूरत के मुताबिक कभी वह छिपा रहता हैं और कभी प्रकट।
क्योंकि बिना निरंकुश शासन के श्रमजीवियों को हमेशा के लिए दबा रखना असम्भव
हैं।
ठीक यही बात की जाती हैं जब श्रमजीवियों के हाथ में शासन आ जाता हैं। वह
अपने लिए तो पूर्ण लोकतन्त्र रखते हैं। हर बात का निश्चय भी लोकतन्त्र की
रीति से ही करते हैं। अपने (शोषितों के) बारे में उसका प्रयोग भी सोलहों
आना उसी ढंग से किया जाता हैं मगर वही निश्चय जब पूँजीवादियों और शोषकों के
विरुद्ध किया जाता हैं तो उनसे पूछा तक नहीं जाता हैं। सिर्फ श्रमजीवियों
या पीड़ित जनता की ही राय से निश्चय होता हैं और मालदारों के विरुद्ध उसका
प्रयोग हो जाता हैं। मालदार चूँ भी करने नहीं पाते। यही हैं सर्वहारा के
निरंकुश शासन का मतलब। वे इस बात को छिपाते नहीं, साफ कह देते हैं और हम
इसका कारण कह ही चुके हैं। जहाँ शोषकों का स्वार्थ इसी में हैं कि अपने
खूनी पंजे को छिपाये रहें और मौके पर उसका प्रयोग करके काम निकाल लें, तहाँ
शोषितों का स्वार्थ यही बताता हैं कि वे अपना पंजा बाहर साफ-साफ रखें और कह
दें। इससे यह भी होता हैं कि पूँजीवादी लोग दहल जाते और जल्दी शासन उलटने
की हिम्मत करते नहीं। मगर यदि अमीर लोग साफ-साफ अपना फौलादी पंजा दिखायें
तो उल्टा हो और जनता जल्दी ही बागी हो जाये। इसलिए भी वे छिपाते हैं। इन
सभी बातों को लेनिन ने बहुत ही सफाई के साथ कहा हैं। इसलिए उसके वाक्यों
को, जो इस पर हर पहलू से प्रकाश डालते हैं, उध्दृत कर देना जरूरी हैं। वह
कहता हैं-
''अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी की ताकत और उसके अन्तर्राष्ट्रीय नाते-रिश्ते की
घनिष्ठता तो रह ही जाती हैं, जो सभी पूँजीवादियों को (क्रान्ति की सफलता के
बाद भी) एक सूत्र में बाँध देती हैं।''
''यह बात भी हैं कि क्रान्ति के बाद भी बहुत दिनों तक शोषकों को बहुत-सी
सुविधाएँ जरूर ही हासिल रहती हैं। उनके पास पैसा होता हैं जो फौरन छीना
नहीं जा सकता। वे ईधर-उधर ले जाने योग्य सम्पत्ति और अकसर कीमती जवाहरात भी
रखते हैं। लोगों में उनके व्यक्तिगत सम्बन्ध होते ही हैं। उन्हें संगठन और
शासन सम्बन्धी अनुभव भी होते ही हैं। साथ ही, सरकार की बहुत-सी गोपनीय
बातें भी वे जानते ही हैं, जैसे सरकारी लोगों की आदतें, उनके तौर-तरीके,
साधन और हो सकरनेंवाली बातें। उन्हें उत्तम शिक्षा तो मिली ही होती हैं।
प्रमुख कारीगरों, इंजीनियरों आदि के साथ उनकी घनिष्ठता भी तो होती ही हैं।
क्योंकि इंजीनियर आदि भी तो जीवन के कामों और सोचने-विचारने में
पूँजीवादियों की ही तरह होते हैं। वे लोग लड़ाई के हुनर में तो बहुत ही
पक्के होते हैं और यह बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। इसी तरह की और भी
बातें हैं।''
''लोगों की आदत की ताकत तो रही जाती हैं। छोटे-छोटे पैमाने पर चीजें पैदा
करने की भी ताकत होती हैं। दुर्भाग्य से ये टुटपुँजिये उत्पादन अभी तक
मौजूद हईं, जो खूब फैले हैं और ये हर रोज और हर घण्टे बड़ी शक्ति के साथ
बहुत लम्बी तादाद में पूँजीवाद और पूँजीपतियों को पैदा करते रहते हैं। यदि
हम वर्गों को मिटाना चाहते हैं तो पूँजीपतियों और जमींदारों को भगाने के
अलावे भी हमें बहुत कुछ करना ही होगा। उन्हें भगा तो दिया हमने कम तरद्दुद
से ही, अब हमें टुटपुँजिये ढंग के उत्पादन को भी खत्म करना होगा। मगर ऐसे
कारबारियों को भगा देना गैरमुमकिन हैं। उन्हें यों ही दबा देना भी असम्भव
हैं। फिलहाल तो हमें उन्हीं के साथ चाहे जैसे हो निभाना हैं और इसी बीच में
उनकी कायापलट की कोशिश भी करनी हैं। यह कायापलट का काम तो हम छोड़ नहीं
सकते। यह काम हमीं कर सकते भी हैं। टुटपुँजिये उत्पादकों (किसानों आदि) को
हमें पुनरपि अक्ल देना होगा। लेकिन इसके लिए हमें संगठन का एक लम्बा, थका
देने वाला, मगर खूब सोच-समझ के चालू किया गया, काम हाथ में लेना होगा।''
''सर्वहारा का एकतन्त्र तो पुराने समाज की रूढ़ियों तथा ताकतों के विरुद्ध
सख्ती से लड़ी जानेवाली लड़ाई हैं। यह लड़ाई कभी खूनी और गैर-खूनी, कभी
हिंसामय और कभी शान्तिपूर्ण, कभी फौजी और कभी आर्थिक, कभी प्रचार स्वरूप और
कभी दमन स्वरूप-दोनों ही तरह की होगी।''
''सर्वहारा का निरंकुश शासन तो ऐसा सरकारी ढाँचा हैं जिसमें श्रमजीवियों और
सम्पत्तिहीनों के लिए एक नये प्रकार की लोकतन्त्र शासन-प्रणाली हैं। साथ
ही, पूँजीवादियों के विरुद्ध एक नये प्रकार की निरंकुशता भी हैं।''
''सर्वहारा के एकतन्त्र के समय करोड़ों किसानों तथा टुटपुँजिये उत्पादकों,
लाखों काम करनेवालों (नौकरों), सरकारी अफसरों, पढ़े-लिखे बाबुओं को फिर से
सिखाना-पढ़ाना जरूरी हो जायेगा; श्रमजीवी सरकार और मजदूरों की रहनुमाई की
मातहती में उन्हें लगाना पड़ेगा और पूँजीवादी आदतों एवं रूढ़ियों से उनका
पिण्ड छुड़ाना होगा। उसी प्रकार इस लम्बी कशमकश के दौरान में सर्वहारा के
एकतन्त्र की छत्रछाया में ही खुद सर्वहारा लोगों को भी नये सिरे से शिक्षित
करना जरूरी हो जायेगा। क्योंकि स्वयं श्रमिक लोग भी पल मारते ही अपने
पूँजीवादी संस्कारों को मिटा नहीं देते। क्योंकि यह बात तो किसी
जादू-मन्तर, देवी-देवता की दया, पथदर्शक वचनों, प्रस्ताव या फरमानों के
जरिये हो नहीं जाती। किन्तु पुराने जमे-जमाये पूँजीवादी संस्कारों तथा
प्रभावों के खिलाफ कठिन और थकान लानेवाले सामूहिक संघर्षों के करते ही यह
बात होती हैं।''
''लाखों और करोड़ों लोगों के भीतर बद्धमूल आदतों में जो ताकत होती हैं वह
गजब की खतरनाक चीज होती हैं।''
''सर्वहारा के एकतन्त्र के स्थापित होते ही वर्ग संघर्ष का अन्त नहीं हो
जाता। बल्कि नये ढंग से वही पुराना संघर्ष जारी रहता हैं। सर्वहारा का
एकतन्त्र तो श्रमिकों का वह वर्ग-संघर्ष हैं जो सर्वहारा के विजयी हो जाने
और राजनीतिक शक्ति अपने हाथ में लेने के बाद पूँजीवादियों के विरुद्ध किया
जाता हैं। क्योंकि पूँजीवादी हार जाने पर भी निर्मूल हुआ नहीं होता। किन्तु
अभी भी कायम रहता, मुकाबिला करने को तैयार मिलता और उसमें इतनी योग्यता
रहती हैं कि अपनी ताकत को खूब मजबूत कर ले।''
''जिस वर्ग ने शासन सूत्र हथियाया हैं उसने यह जान कर ही ऐसा किया हैं कि
यह शासन सूत्र उसने केवल अपने ही लिए कब्जे में किया हैं। सर्वहारा के
एकतन्त्र के ही भीतर यह मतलब छिपा हैं। जब हम किसी एक वर्ग के एकतन्त्र
शासन की बात करते हैं तो उसके और कोई मानी नहीं हैं सिवाय इसके कि वह वर्ग
जानबूझ कर ही वह शक्ति अपने हाथ में लेता हैं और न तो अपने आप को और न
गैरों को ही इस बेवकूफी का शिकार बनाता, जो ऐसे वागाडम्बरों से जाहिर होती
हैं जैसा कि यह तो राष्ट्रीय अधिकार बालिग मताधिकार के आधार पर मिला हैं और
समस्त जनता की इच्छा ने इसे पवित्र किया हैं।''
लेनिन के इन वचनों से यह जाहिर हो जाता हैं कि किसानों और मजदूरों के हाथ
में ही शासन आ जाने पर और उसका प्रयोग उन्हीं के हितार्थ किये जाने पर भी
खुद वही लोग अपने पुराने दकियानूसी संस्कारों और ख्यालों के करते अनजान में
ही उसके विरोधी बन जाते हैं और इस तरह अपने दुश्मनों को, पूँजीपतियों को ही
मदद पहुँचाने को तैयार हो जाते हैं। आदतें इतनी मजबूत और खतरनाक होती हैं
कि कुछ कहिये मत। वह दूर भी होती हैं बहुत दिनों की कोशिश के बाद। इसीलिए
मार्क्स ने श्रमिकों से कहा हैं कि-
''तुम्हें पन्द्रह-बीस या पचास साल तक घरेलू और अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध से
गुजरना होगा। यह सिर्फ इसलिए नहीं कि बाहरी हालत बदले। बल्कि अपने आपको भी
बदलने के लिए और इस तरह शासनसूत्र चलाने योग्य बनाने के लिए भी यह करना
होगा।''
इससे स्पष्ट हो जाता हैं कि आदतों की मजबूरी और नादानी से खुद किसान और
मजदूर भी जब अपनी जड़ें कमजोर करने लगेंगे तो उस समय उनका एकतन्त्र ही
उन्हें बचायेगा। जो लोकतन्त्र उनके लिए कायम होगा वह तब तक पूरा नहीं हो
सकता जब तक एक-एक करके वे खुद होशियार और शिक्षित नहीं हो जाते, जब तक अपने
पुराने संस्कार और पुरानी आदतें छोड़ नहीं देते, जब तक उनमें इतनी चेतना
नहीं आ जाती कि अपना राजनीतिक स्वार्थ बखूबी समझ सकें और जब तक हरे एक
किसान-मजदूर में वर्ग-चेतना और राजनीति का पूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता। और
इसके लिए पचासों वर्ष तक लग सकते हैं। हालाँकि रूस में यह बात जल्दी ही हो
गयी हैं। यही कारण हैं कि इस सन्धि-काल और दरम्यानी मुद्दत में ऐसा मौका आ
सकता हैं कि सर्वहारा का एकतन्त्र ही उन पर आनेवाले खतरों से, जो उन्हीं की
नादानी के चलते आ सकते हैं, उनकी हिफाजत करता हुआ उन्हें ठीक रास्ते पर ले
चले। इस दृष्टि से वह एकतन्त्र उनके लिए भी लागू किया जा सकता हैं। यह ठीक
हैं कि लागू होगा भी तो केवल उन्हीं पर जो नासमझी से अपनी भलाई नहीं समझ
पाते, न कि सभी किसानों और मजदूरों पर। सारांश यह हैं कि समाजवाद और
साम्यवाद की प्रगति में बाधाँ डालनेवाली जितनी भी ताकतें होंगी सभी के
विरुद्ध एकतन्त्र लागू होगा।
यहाँ एक बात और भी जान लेने की हैं कि कहीं-कहीं 'सर्वहारा के एकतन्त्र' की
जगह 'सर्वहारा और किसानों का एकतन्त्र' ऐसा भी कहा गया हैं। मगर इसके मतलब
में कोई फर्क नहीं होता जब तक सर्वहारा की मैत्री साधारण और गरीब किसानों
के साथ नहीं हो जाती तब तक वह एकतन्त्रपूर्ण हो ही नहीं सकता और न उसे
सफलता ही मिल सकती हैं। इसीलिए दोनों का एकतन्त्र उसे कहते हैं। उसमें
नेतृत्व तो किसानों के हाथ में होगा नहीं। वह तो श्रमिकों या सर्वहारा के
ही हाथ में होगा। और उनके सब कामों में किसान साथ देंगे। क्योंकि बिना ऐसा
हुए शासन की धाक देश के कोने-कोने में जम सकती हैं नहीं और न साम्यवाद का
निर्माण ही हो सकता हैं। पिछड़े देशों की खेती तो पूँजीवादी ढंग से होती ही
नहीं। तो फिर देहातों में सर्वहारा कहाँ मिलेंगे? वहाँ तो किसान ही होंगे।
क्योंकि छोटे-छोटे खेतों में खेती वही करते हैं। इसीलिए उनके साथ मैत्री
जरूरी हो जाती हैं। उन्हीं के जवान फौज में भर्ती होते हैं यदि वे मित्र न
हों तो सर्वहारा का शासन ही डाँवाडोल हो जाये। हाँ, जो देश पूँजीवाद में बढ़
गये और खेती भी उसी ढंग से करने लगे वहाँ इसकी जरूरत न होगी। क्योंकि वहाँ
साधारण या गरीब किसान होंगे ही नहीं। इसीलिए वहाँ 'किसानों और श्रमजीवियों
के एकतन्त्र' का प्रश्न ही नहीं उठेगा। यह तो रूस, भारत, चीन आदि जैसे
पिछड़े देशों के ही लिए हो सकता हैं, होता।
इस बात को लेनिन ने बहुत ही सफाई के साथ यों कहा हैं कि-
''सर्वहारा का एकतन्त्र एक खास ढंग की वर्गों की मैत्री हैं, जो सभी
श्रमजीवियों के अग्रदूत सर्वहारा और उनसे भिन्न अनेक प्रकार के कमानेवाले
जनसमूह-जैसे टुटपुँजिये बाबू, स्वतन्त्र कारीगर और दस्तकार, किसान और
पढ़े-लिखे लोग-के बीच, या इनके बहुमत के बीच होती हैं। यह दोस्ती पूँजी के
विरुद्ध उसे खत्म करने के ही लिए होती हैं। इसका लक्ष्य होता हैं
पूँजीवादियों की ताकत को मिटा देना और फिर से पूँजीवाद को स्थापित करने के
यत्न को मटियामेट कर देना। यह इसलिए भी होती हैं कि समाजवाद की स्थापना और
उसकी मजबूती हो जाये। यह खास ढंग की दोस्ती विशेष परिस्थिति में ही होती
हैं, जबकि गृह युद्ध चालू रहता हैं। यह मैत्री ऐसे दो दलों के बीच में होती
हैं, जिनमें एक तो समाजवाद का पक्का समर्थक हैं और दूसरा हैं आगा-पीछा
करनेवाला उसका साथी। (ऐसा भी हो सकता हैं कि कुछ साथी लोग तटस्थ रहना
चाहें। ऐसी हालत में परस्पर मिल कर लड़ने का जो समझौता हुआ रहता हैं उसकी
जगह तटस्थता कायम रखने का समझौता हो जाता हैं।) यह दोस्ती ऐसे वर्गों के
बीच होती हैं जो एक-दूसरे से आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सैद्धान्तिक-इन
सभी-बातों में भिन्न होते हैं।''
''जब तक दूसरे देशों में क्रान्ति नहीं हो जाती तब तक रूसी क्रान्ति को कोई
चीज बचा नहीं सकती, सिवाय उस समझौते के जो सर्वहारा का किसानों के साथ हो
जाता हैं।''
''सर्वहारा के एकतन्त्र का पहला सिद्धान्त यही हैं कि सर्वहारा और किसानों
के बीच मैत्री सुरक्षित हो जाये। ताकि सरकारी शासन शक्ति को अपने हाथ में
सर्वहारा-वर्ग रख सके।''
''अगर लैटिन भाषा की वैज्ञानिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक परिस्थिति से अपनी
सीधी-सादी भाषा में 'सर्वहारा के एकतन्त्र' का अनुवाद कर दिया जाये तो उसका
अर्थ यही होता हैं कि शहरों या आमतौर से कल-कारखानों में काम करनेवालों का
वर्ग समस्त श्रमजीवी लोगों का नेतृत्व करने योग्य हैं। ताकि पूँजीवाद का
जुआ फेंका जा सके, विजय को कायम और मजबूत बनाया जाये, नई सामाजिक व्यवस्था
बनायी जाये और सदा के लिए मानव-समाज से वर्ग-विभेद मिटा दिया जाये।''
इसी बात को स्तालिन ने अपनी 'अक्टूबर रेवोल्यूशन' सम्बन्धी पुस्तिका में
यों लिखा हैं-
''सर्वहारा का एकतन्त्र सिर्फ सरकारी कारबार चलाने के लिए अनुभवी लड़नेवालों
के द्वारा चालाकी से चुने गये लोगों का एक गुट मात्र नहीं हैं, जो
बुद्धिमानी से जनता के सभी आवश्यक दलों की सहायता पर निर्भर हो। यह तो
श्रमजीवी किसानों के साथ सर्वहारा की वर्ग मैत्री हैं। यह इसलिए की गयी हैं
कि पूँजीवाद को उखाड़ फेंका जाये और साम्यवाद की अन्तिम विजय प्राप्त की जा
सके। इस मैत्री की बुनियाद इस पारस्परिक समझौते पर हैं कि इसके होते हुए भी
हर बात में नेतृत्व सर्वहारा-वर्ग के ही हाथ में रहेगा।''
(स्तालिन के इस कथन से एक तो नेतृत्व का स्पष्टीकरण हो ही जाता हैं। मगर
इसमें सबसे माके की बात यह हैं कि मजदूरों के साथ जो मैत्री होती हैं वह
सभी किसानों के साथ नहीं, किन्तु अपने हाथ से काम करने वाले और कमानेवाले
किसानों के ही साथ। इसका आशय साफ हैं कि धनी या कुलक किसानों के साथ यह
मैत्री नहीं हो सकती। किन्तु साधारण या गरीबों के साथ ही, जो अपने हाथों
खेती-गिरस्ती का काम करते हैं-खुद कमाते हैं।)
जो लोग ऐसा कहने की धृष्टता करते हैं कि यह तो कुछ चलते-पुर्जे कलाबाजों की
गुटबन्दी हैं, जो होशियारी से अपने मन के ही लोगों को चुन के इसमें शामिल
कर लेते हैं, जिनसे संघर्ष और दलबन्दी के समय काम निकाला जा सके, राजनीतिक
चालबाजी ही इसका असली कारण हैं; किसानों की मैत्री की बात तो सिर्फ
दूरंदेशी से ही होती हैं, क्योंकि यारों का काम उसके बिना निकल सकता ही
नहीं; ऐसों का जवाब भी स्तालिन ने दे दिया हैं। वह तो कहता हैं कि इस
एकतन्त्र का असली लक्ष्य हैं पूँजीवाद की जड़ खोदना और साम्यवाद की न सिर्फ
स्थापना करना, बल्कि उसे स्थायी बना देना। किसानों की मैत्री के बिना
देहातों में साम्यवाद की स्थापना गैरमुमकिन हैं। सम्मिलित खेती के लिए पहले
सहयोगवाली या पंचायती खेती जरूरी हैं। इसके बाद ही किसान सम्मिलित खेती का
महत्त्व समझ उस ओर झुकते हैं। और जब तक किसान सर्वहारा के साथ मैत्री न
करें उन्हें इस ओर कैसे लाया जा सकता हैं? इसी तरह उस काम में बाधाँ होने
पर किसानों की सहायता से ही पूँजीवाद को निर्मूल किया जा सकता हैं।
अब तक के निरूपण से यह भी साफ हो गया हैं कि एकतन्त्र शासन में बल प्रयोग,
हिंसा या पशुबल (Brute Force) को एक खास स्थान प्राप्त हैं। पुरानी शासन
व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करना ही जब सर्वहारा क्रान्ति का काम हैं तो फिर
उसमें बल प्रयोग तो जरूरी हैं। लेनिन ने कहा भी हैं कि शान्तिपूर्वक काम
करने से इन्कार कर देने से ही काम नहीं चलता। किन्तु खुद क्रान्तिकारी फौज
का नेतृत्व करना और उसके लिए खास ढंग की शिक्षा प्राप्त करना जरूरी हैं।
उसने बेमुरव्वती करने का भी आदेश दिया हैं और 1905 में जो रूसी क्रान्ति
विफल हो गयी उसका कारण उसने दया, मुरव्वत और शोषकों पर विश्वास करना ही
बताया हैं। वह और भी कहता हैं कि केवल बल प्रयोग से ही सफलता नहीं मिलती।
उससे भी जरूरी हैं प्रबल संगठन और जीती-जागती वर्ग चेतना। वह कहता हैं-
''सर्वहारा के एकतन्त्र का अर्थ सिर्फ बल प्रयोग नहीं हैं, यद्यपि बलप्रयोग
के बिना वह असम्भव हैं। बलप्रयोग की ही तरह यह श्रमिकों के ऊँचे दर्जे के
संगठन का भी सूचक हैं, जैसा पहले कभी नहीं हुआ हैं।''
''यह एकतन्त्र शोषकों के विरुद्ध केवल बलप्रयोग नहीं हैं और दरअसल बलप्रयोग
इसका प्रधान अंश भी नहीं हैं। यह तो क्रान्तिकारी शक्ति हैं और इसकी विजय
की गारण्टी के रूप में जो चीज इसका मूलाधार हैं वह हैं आर्थिक बात और वह इस
तरह हैं कि श्रमजीवियों का सामाजिक संगठन ऐसा ऊँचे दर्जे का हो जाता हैं
जैसा कि पूँजीवादी व्यवस्था को भी मयस्सर न हो सका हैं। यही तो असली चीज
हैं। साम्यवाद की शक्ति का आधार इसी बात में हैं और उसकी विजय का विश्वास
भी हमें इसी बात से हैं।''
''कमानेवालों के अग्रदूत और उनके एकमात्र नेता सर्वहारा-वर्ग के सुन्दर
संगठन और अनुशासन पालन में ही एकतन्त्र का निचोड़ आ जाता हैं। इस एकतन्त्र
का लक्ष्य हैं समाजवाद की स्थापना, समाज के वर्ग-विभेद को मिटाना, समाज के
सभी आदमियों से काम करवाना और एक आदमी के हाथों दूसरे के शोषण को असम्भव कर
देना। एक ही कदम में यह लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता। पूँजीवाद और समाजवाद
के बीच एक सन्धिकाल जरूर होगा, जो काफी लम्बा होगा। उत्पादन का नये सिरे से
संगठन बहुत कठिन चीज हैं। जीवन के सभी विभागों में मौलिक परिवर्तन लाने के
लिए समय की जरूरत हैं। साथ ही, रीति-रिवाजों की माया भी बहुत बड़ी हैं।
लोगों को तो टुटपुँजिये बाबुओं तथा पूँजीपतियों की आर्थिक व्यवस्था की आदत
हो गयी हैं और यह बदल सकती हैं केवल लम्बे और कष्टसाध्य संघर्ष के फलस्वरूप
ही। इसीलिए तो मार्क्स ने भी पूँजीवाद और समाजवाद के बीच में सन्धिकाल की
बात कही हैं और यही काल हैं सर्वहारा के एकतन्त्र शासन का समय।''
हमें यह समझ लेना होगा कि किसानों की दोस्ती पिछड़े देशों में ही जरूरी हैं।
पूँजीवाद की चरम सीमा या काफी उन्नतिवाले देशों में तो वे होते ही नहीं
हैं। इसलिए जहाँ पिछड़े देशों में लोकतन्त्रमूलक किसानों और मजदूरों का
एकतन्त्र होता हैं तहाँ समुन्नत देशों में केवल मजदूरों का ही जिसे
अंग्रेजी में क्रमश: (democratic dictatorship of the workers and peasants
तथा democratic dictatorship of the workers or proletariat) कहते हैं। इसी
का दूसरा नाम सोवियट या पंचायती शासन हैं। इन्हीं सोवियटों के बारे में
लेनिन ने अपने विदेश से भेजे पत्रों में कहा हैं कि ''वे क्रान्ति को सफल
बनाने के सफल साधन और क्रान्तिकारी शासन सूत्र के सूत्रधार हैं।'' वह इन
सोवियटों या पंचायतों के संगठन के बारे में बहुत जोर देकर उन्हीं विदेश के
पत्रों में लिखता हैं कि-
''इस समय (मार्च क्रान्ति के बाद) हमें संगठन का नारा बुलन्द करना हैं। मगर
केवल संगठन से कुछ ज्यादा काम होने का नहीं। क्योंकि एक तो संगठन हमेशा ही
जरूरी हैं। इसीलिए 'जनता के संगठन' पर केवल जोर देने से कोई बात साफ नहीं
होती। दूसरी बात यह भी हैं कि जो केवल संगठन से अपना सन्तोष कर लेता हैं,
वह तो सुधारवादियों की ही बात दुहराता हैं। क्योंकि सुधारक लोग भी अपने
अधिकार को दृढ़ करने के लिए और कुछ नहीं चाहते सिवाय इसके कि कानूनी ढंग के
संगठनों के आगे बढ़ने से श्रमजीवी लोग इन्कार कर दें, जैसा कि पूँजीवादी
समाज आमतौर से चाहता हैं-वे चाहते हैं कि श्रमिक लोग उनकी पार्टी, उनकी
ट्रेड यूनियन और उनकी सहयोग समिति आदि के सिर्फ सदस्य बन जाये।
''श्रमिकों ने अपनी वर्ग भावनाओं के बल से यह जान लिया हैं कि क्रान्तिकारी
समय में उन्हें एक बिलकुल ही नये ढंग के संगठन की जरूरत हैं, जो आम संगठनों
से ऊँचे दर्जे का हो। हमारी 1905 की क्रान्ति और पेरिसवाली 1871 की कम्यून
के अनुभव के आधार पर उनने यह ठीक रुख अख्तियार किया हैं। उनने मजदूरों के
प्रतिनिधियों की सोवियट (पंचायत या सभा) बनायी हैं। अब वे चाहते हैं कि उसे
बढ़ावें, विकसित करें और मजबूत बनायें। अर्ताथ उसमें वे फौजी सिपाहियों के
प्रतिनिधियों को और खेत-मजदूरों तथा किसी-न-किसी रूप में सभी गरीब किसानों
के प्रतिनिधियों को भी बेशक खींच लाना चाहते हैं।
''किसी एक काम या स्थान को भी छोड़े बिना ही रूस के सभी स्थानों के सभी
कारोबारों और सर्वहारा के दलों के लिए तथा अर्ध्द-सर्वहारा के लिए भी, सभी
जगह उसी प्रकार की संस्थाएँ बनाना, या यों कहिये कि सभी मेहनतकशों और
शोषितों (क्योंकि आर्थिक दृष्टि से उतना ठीक न होने पर भी यही शब्द ज्यादा
प्रचलित हैं) की सोवियटें बनाना हमारा सबसे महान और आवश्यक काम हैं। मैं
इसी जगह यह भी कह देता हूँ कि अपनी पार्टी को सर्वहारा के लिए नये ढंग का
संगठन बनाने के लिए क्या करना होगा यह तो मैं पीछे लिखूँगा; लेकिन किसान
समुदाय के बारे में खासतौर से जोर देकर पार्टी को कहना चाहिए कि
खेत-मजदूरों तथा टुटपुँजिये किसानों की जो अपना गल्ला बेचते नहीं, खास
सोवियटें बनायी जाये और इनका कुछ भी ताल्लुक धनी किसानों के साथ न रहे।
नहीं तो मोटी तौर पर सर्वहारा सम्बन्धी नीति के अनुसार काम करना असम्भव हो
जायेगा। लोगों के जीवन-मरण से सम्बन्ध रखने वाले व्यावहारिक प्रश्नों पर भी
ठीक ढंग से विचार करना गैर मुमकिन हो जायेगा। ये प्रश्न हैं सबों को बराबर
खाना पहुँचाना, उसकी उपज बढ़ाना आदि। अब तो देहातों में टुटपुँजिये तथा
मध्यम किसानों के भी कुछ अंश को लेकर संघर्ष पैदा होगा। जमींदार लोग धनी
किसानों की मदद से उनको पूँजीपतियों की ओर झुकाना और ले जाना चाहेंगे।
हमारा काम हैं कि खेत-मजदूरों और गरीब किसानों की सहायता से उन्हें
सर्वहारा के साथ घनिष्ठ मैत्री के लिए खींच ले जाये।''
जिन सोवियटों, पंचायतों या सभाओं के संगठन पर लेनिन ने बहुत जोर दिया हैं
वे क्रान्ति की सफलता के लिए कितनी जरूरी हैं और शोषितों के कितने काम की
चीजें हैं यह तो 1871 वाली पेरिस कम्यून (साम्यवादी सरकार) और 1905 की रूसी
सोवियटों के दृष्टान्त से ही स्पष्ट हो जाता हैं। उसके बाद 1917 की फरवरी
और अक्टूबरवाली क्रान्तियों की सफलता में भी उनने जो कमाल किया वह सबों को
मालूम ही हैं। ये सोवियटें ऐसी क्यों थीं इसके बारे में श्रीयुत् पेज आरनाट
ने अपनी किताब के द्वितीय भाग के 9वें पृष्ठ में यों लिखा हैं-
''फरवरी क्रान्ति के बाद का शासन सोवियट के रूप में स्थापित किसानों तथा
मजदूरों के क्रान्तिकारी प्रतिनिधिमूलक (लोकतन्त्र मूलक) एकतन्त्र शासन के
निकट पहुँचने को मजबूर था। शहरों की ये सोवियटें प्रधानतया मजदूरों की ही
होती थीं। कारखानों और फैक्टरियों में जो मजदूरों के स्वाभाविक दल थे
उन्हीं के ही अधिकांश प्रतिनिधियों से ये बनती थीं। ये प्रतिनिधि सोवियटों
में कुछ ही समय तक रहते (और फिर नये चुने जाते) थे। इसीलिए मजदूरों के समूह
के रुख में जो भी परिवर्तन होते थे उन्हें ठीक-ठीक सीधे और जल्दी ही ये
सोवियटें जाहिर कर देती थीं। किसान प्रतिनिधियों तथा फौजी सिपाहियों के
प्रतिनिधियों की सोवियटें भी इसी तरह बनी थीं। 1905 की क्रान्ति के समय ये
सोवियटें मजदूरों की प्रतिनिधि संस्थाओं के रूप में ही खड़ी हुई थीं। जब
1917 में ये पुनरपि बनीं, तो इनमें वही पहले जैसी ताकत और पुराना लचीलापन
दीख पड़ा। इनके सभी कामों में परले दर्जे की काम लायक तात्कालिकता थी। यही
कारण हैं कि बड़ी तेजी से बदलनेवाली परिस्थिति में भी ये सोवियटें महान्
जनसमूह का ठीक प्रतिनिधित्व कर सकती थीं (क्योंकि परिस्थिति के अनुसार
तत्काल नये प्रतिनिधि आ जाते थे)। इसीलिए किसी भी अपरिवर्तनशील और
कसी-कसायी संस्था के लिए ऐसा होना असम्भव था।''
मगर खुद लेनिन ने इन सोवियटों का जो सर्वांग वर्णन और इनकी जो उपयोगिता
बतायी हैं वह ऐसी आकर्षक हैं कि हम उसे यहाँ दिये बिना नहीं रह सकते।
अक्टूबर रेवोल्यूशन के पहले सन 1917 के सितम्बर में वह लिखता हैं-
''शासन के इस नये ढाँचे का पहला काम हैं किसानों और मजदूरों की सशस्त्र
शक्ति को शासन पर बिठाना। जो कि यह नई सशस्त्र शक्ति वैसी नहीं हैं जैसी कि
पुरानी स्थायी सेना थी, जो जनता से जुदी चीज थी। यह तो जनता से मिली-जुली
हैं। पहले की सेनाओं की अपेक्षा यह सेना फौजी दृष्टि से भी कहीं ज्यादा
मजबूत हैं, जिससे दूसरी ताकत मुकाबिला कर नहीं सकती। इस ढाँचे की दूसरी बात
यह हैं कि यह जनता के साथ, देशवासियों के बहुमत के साथ ऐसा निकट का और अष्ट
सम्बन्ध जोड़ देता हैं तथा आसानी से बदली जाने और काबू में रखी जानेवाली ऐसी
घनिष्ठता का श्रीगणेश कर देता हैं जो आज तक किसी भी शासन यन्त्र के साथ हो
नहीं सकी हैं। तीसरी बात यह हैं कि यह ढाँचा ऐसा हैं कि बिना किसी नौकरशाही
तरीके की पाबन्दी और रस्म अदाई के जनता की राय से जो भी हो बदला जा सकता
हैं। क्योंकि इसके सभी आदमी चुने हुए होते हैं। इसीलिए अब तक जितनी सरकारें
दुनिया में हो गयी हैं सबों की अपेक्षा यह कहीं ज्यादा लोकमतमूलक हैं। चौथी
बात यह हैं कि मुख्तलिफ पेशों और कारोबारों के साथ यह अपनी दृढ़ शृंखला जोड़
देता हैं। इसका फल यह होता हैं बड़े-से-बड़े महत्त्वपूर्ण सुधार इसमें आसानी
से बिना किसी पेचीदा रस्मअदाई और पाबन्दी के किए जा सकते हैं। दलित किसानों
और मजदूरों के सर्वाधिक प्रगतिशील, अत्यन्त उत्साही एवं सर्वाधिक-वर्ग
चेतनायुक्त भाग यानी उनके अग्रदूत के संगठन को एक निश्चित रूप में ला देना
इस ढाँचे का पाँचवाँ काम हैं। इस तरह इसे एक ऐसे यन्त्र का रूप मिल जाता
हैं जिसके द्वारा और जिसकी मदद से वह शोषितों का अग्रदूत अपने साथ ही इन
वर्गों के विराट समूह को ऊपर उठाता, शिक्षित बनाता, अक्ल देता और खींच लाता
हैं-उस विराट समूह को जो अब तक राजनीतिक जीवन के दायरे से बाहर ही रहा हैं,
जो इतिहास की पहुँच से परे रहा हैं। छठी बात यह हैं कि इसके चलते इस बात की
सम्भावना हो जाती हैं कि पार्लियामेण्टरी प्रणाली की सुविधा में प्रत्यक्ष
और तात्कालिक लोकतन्त्र की सहूलियतों के साथ मिल जाये। इसका सीधा अर्थ यह
होता हैं कि जनता जिन लोगों को शासन कार्य के लिए चुने उन्हें कानून बनाने
और उनके अनुसार काम करने-इन दोनों के अधिकार मिल जाये-वही कानून बनायें और
वही सरकार बन के उसे चलायें। पूँजीवादी पार्लिमेण्टरी जनतन्त्र के मुकाबिले
में यह जनतन्त्र कहीं बढ़ा-चढ़ा हैं और इसका महत्त्व संसार भर के लिए होने के
कारण इसकी कीमत बढ़ जाती हैं-यह वजनदार बन जाता हैं। यदि क्रान्तिकारी वर्ग
की उत्पादक शक्ति के फलस्वरूप इस सोवियट की सृष्टि न हुई रहती तो रूस में
सर्वहारा क्रान्ति की सफलता की कोई आशा न थी। क्योंकि उस दशा में सर्वहारा
के लिए शासन अपने हाथ में रखना असम्भव हो जाता यदि उसे पुराने शासन के
ढाँचे का आश्रय लेना पड़ता। एक ब एक नया ढाँचा खड़ा कर लेने का तो सवाल ही
नहीं था।''
सर्वहारा के एकतन्त्र को जो सबसे ऊँचे दर्जे का लोकतन्त्र या प्रतिमूलक
शासन कहा गया हैं उसका स्पष्टीकरण लेनिन के इस लम्बे अवतरण से अच्छी तरह हो
जाता हैं। सोवियट या पंचायत की यही तो खूबी हैं कि इसमें कायदे-कानून और
खर्च की वाहियात पाबन्दी करनी नहीं पड़ती। पेचीदगी तो यहाँ होती ही नहीं।
स्थानीय जनता ने जब चाहा अपने एक प्रतिनिधि की जगह दूसरे को चुन दिया, यदि
पहले को पसन्द न किया। जो लोग इस प्रकार चुने जाते हैं वही एक तरफ तो जनता
के हित के कानून बनाते और दूसरी ओर उन्हीं कानूनों पर खुद ही अमल करते,
करवाते हैं। सरकारी अफसर कोई दूसरे तो होते नहीं कि वही अमल करें, करायें।
गाँव के किसानों का काम हैं वह अपने प्रतिनिधि चुनकर गाँव की पंचायत, किसान
सभा या सोवियट बना लें। जहाँ किसान और मजदूर दोनों ही हों-जिस गाँव में कोई
कारखाना भी हो वहाँ मजदूर-संघ और किसान सभाएँ अलग-अलग अपने प्रतिनिधि
पंचायत के लिए चुन दें और सबों की एक पंचायत सोवियट बन जाये। जहाँ केवल
मजदूर या दूसरे श्रमजीवी हों वहाँ उनकी ही यूनियनें अपने-अपने प्रतिनिधियों
को चुन के उन्हीं-सी सोवियट बना लेंगी। यही सोवियटें सभी स्थानीय शासन
करेंगी, टैक्स लगायेंगी, खर्च करेंगी, लोगों के आराम वगैरह का पूरा प्रबन्ध
करेंगी। जिले या अपने से ऊपर की सोवियट के लिए प्रतिनिधि चुनना भी इन्हीं
का काम होगा। यदि कोई ऐसी बात हो जो उनके हाथ के बाहर की और उनसे ऊपरवाली
किसी पंचायत के हाथ की हो और उसमें स्थानीय लोगों के हिताहित की दृष्टि से
कोई सुधार या उज्र इष्ट हो, तो इस बात की सिफारिश भी स्थानीय सोवियटें
ऊपरवालियों के पास करेंगी। उनसे ऊपर ऊपरवालियों के साथ उनका भी ऐसा ही
व्यवहार होगा और यही बात होते-होते केन्द्रीय पंचायत तक पहुँचेगी जो समस्त
देश का शासन करेगी। इस प्रकार साफ ही हैं कि सोवियट में पूर्ण लोकतन्त्र
चलता हैं।
फौज और पुलिस भी बाहरी नहीं होती। किन्तु अस्त्र-शस्त्र चलाने योग्य समस्त
जनता को ही इसकी शिक्षा दी जाती हैं और उसे अस्त्र-शस्त्र दे दिये जाते
हैं। वही शान्ति रक्षा और शत्रुओं से भिड़ने का काम करती हैं। जो हाकिम या
अफसर यानी सरकारी नौकर होते हैं वह भी जनता की राय से ही चुने जाते और वेतन
भी उन्हें उतना ही मिलता हैं जितना किसी कारखाने के मजदूर को। जैसे मजदूर
की योग्यता के अनुसार वेतन मिलता हैं वही हालत उनकी भी होती हैं। वह भी तो
मजदूरी ही करते हैं। फिर हाईकोर्ट के जज को एक कुशल मजदूर से ज्यादा वेतन
क्यों मिलने लगा? इस प्रकार समस्त जनता के साथ पंचायती सरकार गुँथ जाती
हैं। सभी लोग शासन के हर काम में निडर होकर अपनी राय देते हैं जो सुनी जाती
हैं और बहुमत से फैसला होता हैं। इसीलिए वह सरकार लोगों की अपनी-निजी-बन
जाती हैं।
सोवियट की इन तथा इसी प्रकार की अनेक खूबियों को दिखला के लेनिन ने कहा हैं
कि यदि 1905 की क्रान्ति के ही समय रूस में सोवियट बनी न होती और उसी का
पुनर्जन्म 1917 में न हुआ रहता तो क्रान्ति को सफलता कभी नहीं मिलती-न तो
फरवरीवाली को ही और न अक्टूबरवाली को। और सफलता के बाद सरकार उनके हाथ में
टिकी भी नहीं रहती। अक्टूबरवाली में तो एकमात्र सोवियट के चलते ही सफलता
मिली। हाँ, मार्च में दूसरी-दूसरी ताकतों ने भी मदद की, जैसा कि लेनिन ने
सभी बातों का विश्लेषण अपने विदेशवाले पत्रों में करते हुए विस्तार के साथ
यों लिखा हैं-
''परिस्थिति के चलते यह अनिवार्य था कि साम्राज्यवादी युद्ध पूँजीवादियों
के विरुद्ध चलनेवाले सर्वहारा के वर्ग-संघर्ष को अत्यधिक तेज और प्रभावशाली
बना दे और इसे फिर परस्पर विरोधी वर्गों का घरेलू युद्ध का रूप दे दे। यह
काम मार्चवाली क्रान्ति ने शुरू कर दिया हैं। उसकी पहली दौर ने हमें पहले
से ही दिखा दिया हैं कि जारशाही के ऊपर दो ताकतें धावा बोल चुकी हैं-एक ओर
तो रूस का समूचा पूँजीवादी और जमींदार वर्ग हैं जिसका साथ उसके नासमझ
अनुयायी और बहुत ही काइयाँ मैनेजर दोनों ही दे रहे हैं। ये मैनेजर हैं
इंग्लैंड और फ्रांस के रूसी राजदूत और पूँजीपति। दूसरी ओर हैं सिपाहियों और
श्रमिकों के प्रतिनिधियों की सोवियट'' (यही दोनों हमला कर चुके हैं)-
''यह तो स्वाभाविक हैं कि जारशाही रूस में, जहाँ बहुत ज्यादा तखड़-पखड़ हो
गयी थी और जहाँ के मजदूर संसार में सबसे ज्यादा क्रान्तिकारी हैं (इसके लिए
उनमें कोई खसूसियत नहीं हैं। किन्तु 1905 की ज्वलन्त स्मृतियों के करते ही
ऐसा हो रहा हैं।) क्रान्तिकारी उथल-पुथल और देशों की अपेक्षा जल्द मच जाये।
रूस और उसके दोस्तों की जो कई माक्र्ं की हारें लड़ाई में हो गयीं, उन्हीं
के करते यह उथल-पुथल जल्द हो गयी। इन हारों के फलस्वरूप सरकार का पुराना
ढाँचा छिन्न-भिन्न हो गया और पुरानी प्रणाली भी। इनके करते रूसियों के सभी
वर्गों में सरकार के प्रति बड़ी नफरत जग उठी और समूची फौज क्रोध से जल उठी।
फलत: पुराने सेनापतियों का दल, जो दकियानूस रईसों और खासकर पतित सरकारी
कर्मचारियों के खानदानों का था, बिलकुल हटा दिया गया और उनकी जगह वे नौजवान
और उत्साही लोग कायम किये गये जो प्रधानत: पूँजीवादियों तथा
निम्न-मध्यमवर्गीयों में से थे या जिनने अपने वर्ग का संस्कार मिटा दिया
था।
''लेकिन अगर फौजी हार के निषेधात्मक प्रभाव ने उथल-पुथल को जल्द लाने में
मदद की तो रूस के अक्टूबरवाले दल (अक्टोबरिस्ट) तथा कान्स्टिटयूशनल
डेमोक्रेटिक दल के पूँजीपतियों के साथ इंग्लैंड और फ्रांस के आर्थिक
पूँजीवादियों और साम्राज्यवादियों का जो गँठजोड़ा हो गया उसके करते यह तूफान
और तेज तथा द्रुतगामी हो गया। मार्च की क्रान्ति का सारा घटना चक्र इस बात
का साफ सबूत हैं कि इंग्लैंड और फ्रांस के राजदूत, उनके दलाल और दोस्तों
ने, जिनने बहुत पहले से ही जी-जान से कोशिश की थी कि जार निकोलस द्वितीय और
विलहेल्म कैसर द्वितीय का परस्पर समझौता तथा सुलह होने न पाये, अब साफ-साफ
यह प्रयत्न किया कि रोमानोफवंशीय निकोलस गद्दी से हटा दिया जाये। (1905 के
अक्टूबर में जार ने डूमा बनाने की जो घोषणा दूसरी बार की थी उसके समर्थक
साम्राज्यवादियों और शाही घराने के समर्थकों का दल अक्टूबरवाला या
अक्टोबरिस्ट कहा जाता था। इसका नेता था गचकोफ। केडेट या कान्स्टिटयूशनल
डेमोक्रेट पार्टी रूस के उदार जमींदारों, मध्यमवर्गीयों तथा पढ़े-लिखे
पूँजीपतियों की पार्टी थी। इसे पार्टी आँफ पीपुल्स फ्रीडम या जनता की आजादी
की पार्टी भी कहते थे। इसका प्रधान नेता मिल्यूकोफ था। मार्च की क्रान्ति
के बाद की तात्कालिक सरकार का अर्थ मन्त्री गचकोफ और वैदेशिक मन्त्री
मिल्यूकोफ था)
''मार्च की क्रान्ति को जो इतनी जल्द सफलता मिली और सहसा ऊपर से देखने से
जिसके बारे में यह भी धारणा होती हैं कि यह क्रान्ति मौलिक भी थी, इसका
कारण हैं घटनाओं का ऐतिहासिक मिलन। हालत यों हो गयी कि सोलहों आने विभिन्न
आन्दोलनों, बिलकुल मुख्तलिफ वर्ग-स्वार्थों और अत्यन्त परस्पर विरोधी
राजनीतिक तथा सामाजिक विचारों का आश्चर्यजनक परस्पर अनुकूल सम्मिलन हो गया।
एक तो उसमें इंग्लैंड और फ्रांस के साम्राज्यवादियों का षडयन्त्र था, जिनने
मिल्यूकोफ और गचकोफ के दलवाले लोगों को उभाड़ा कि वे शासन-सूत्र हथिया लें।
ताकि साम्राज्यवादी युद्ध जारी रहे, युद्ध अधिक निर्दयता और जिद के साथ
चालू रहे और नये-नये लाखों किसानों तथा मजदूरों का कत्ल जारी रहे। ऐसा करने
का उद्देश्य यही था कि रूस के गजकोफ और मिल्यूकोफ वगैरह पूँजीवादियों का
कब्जा तुर्की की राजधानी कुस्तुन्तुनियाँ पर, फ्रांसीसी मालदारों का सीरिया
(शाम) पर, और अंग्रेज पूँजीपतियों का मेसोपोटामियाँ पर अधिकार हो जाये,
आदि-आदि। यह बात तो एक ओर थी। दूसरी ओर थी रूस के सभी शहरों तथा गाँवों के
गरीबों और पीड़ितों की सामूहिक हलचल और मजदूरों की गहरी उथल-पुथल, और यह थी
क्रान्तिकारी ढंग की। इसका लक्ष्य था कि रोटी मिले, शान्ति मिले, आजादी
मिले।''
क्रान्ति की सफलता का जो चित्र यहाँ लेनिन ने खींचा हैं उससे साफ हो जाता
हैं कि अनेक परस्पर विरोधी शक्तियों और स्वार्थों का ऐसा अपूर्व मेल हो गया
था कि ताज्जुब होता था। कभी-कभी ऐतिहासिक परिस्थिति ऐसी ही हो जाती हैं कि
परम मित्र ही जानी दुश्मन हो जाते और घोर-शत्रुओं के साथ गठबन्धन करके
मिटाने पर ही तुल जाते हैं। जो अंग्रेजी और फ्रांसीसी मालदार जारशाही की
निरन्तर स्तुति करते थे और रूस के जो जमींदार मालदार जयजयकार मनाते वही लोग
जारशाही के शत्रु बन गये और उनने उसके परम शत्रु किसानों तथा मजदूरों से
मिल के उसे मिटा ही दिया। क्योंकि जार की स्त्री जारिना थी कैसर की बहन और
उसी के प्रभाव में पड़कर जार तुला बैठा था कि कैसर (जर्मनी के बादशाह) से
मेल कर लें। यह बात फ्रांसीसी तथा अंग्रेजी पूँजीपतियों को असह्य थी। इससे
न सिर्फ उनकी नाक कटती थी, बल्कि बर्बादी भी थी। इसीलिए पहले तो सारी ताकत
लगा के उनने जार को ऐसा करने से रोका। मगर जब उसका रंग-कुरंग देखा तो रूसी
पूँजीपतियों के लीडरों मिल्यूकोफ, गचकोफ आदि को ललकार दिया कि देखते क्या
हो, किसानों और मजदूरों से मिल के इसे खत्म करके शासन-सूत्र हथिया लो। हुआ
भी यही। हार पर हार होने के कारण फौज भी नाखुश थी ही। इसीलिए पुराने
दकियानूस सेनापतियों को अधिकांश हटा के उनकी जगह पर पूँजीवादियों के ही
आदमी या कुछ किसान-मजदूरों से सहानुभूति रखनेवाले आ गये थे। बस, फौज भी साथ
हो गयी। किसान-मजदूर तो चाहते ही थे और बाधक कोई रही नहीं गया। इसीलिए
बात-बात में क्रान्ति सफल हो गयी।
रूस के किसानों और मजदूरों की सम्मिलित क्रान्तिकारी लड़ाई तो पुरानी चीज
थी। उसमें फौज भी साथ देती थी ही। 1905 की क्रान्ति का वर्णन करते हुए
लेनिन ने अपने ज्यूरिच के व्याख्यान में 1917 की 22 जनवरी को कहा था कि-
''लेकिन शहरों में मजदूरों की सामूहिक हड़तालों का गाँवों में किसानों की
हलचलों से मेल हो जाना ही जारशाही के सबसे मजबूत और आखिरी पाये को हिला
देने के लिए काफी था। फौज की ही बात लीजिये। फौज और जहाजी बेड़े में लगातार
बगावतें होती रहीं। जब-जब शहरों में नई हड़तालें और गाँवों में किसानों की
हलचलें उस क्रान्ति के समय होती थीं तब-तब ख़ामखाह रूस के हर भाग में
हथियारबन्द सिपाही बगावत कर देते थे।''
इस प्रकार सोवियटों के ही जरिये क्रान्ति को सफल बनाकर पुरानी शासन
व्यवस्था को मिटाना और नई शासन-प्रणाली कायम करना जरूरी हो जाता हैं। यह नई
व्यवस्था सोवियट के हाथ में ही रहती हैं। इसका संक्षेप रूप पहले कहा जा
चुका हैं। यह सोवियट ही सर्वहारा और किसानों का लोकतन्त्रमूलक एकतन्त्र
शासन हैं। इसके बारे में लेनिन ने अपने विदेशवाले पत्रों में साफ ही लिखा
हैं कि यदि ऐसा शासन न होगा तो हम सबसे हाथ धो बैठेंगे। वह लिखता हैं-
''यदि सर्वहारा (मजदूर) चाहते हैं कि इस मार्च की क्रान्ति के लाभों को
कायम रखें और शान्ति, रोटी तथा आजादी की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ें, तो
उन्हें मार्क्स के ही शब्दों में इस मौजूदा शासन-यन्त्र को नेस्तनाबूद करना
और उसकी जगह नया बनाना होगा, जिसमें पुलिस, फौज और नौकरशाही (समस्त
छोटे-बड़े सरकारी नौकरान) सशस्त्र जनता से जुदा न होंगे। 1871 वाली पेरिस की
साम्यवादी सरकार तथा 1905 वाली क्रान्ति के अनुभवों के आधार आगे बढ़ने के
लिए मजदूरों को सभी शोषितों और गरीबों को संगठित करके उन्हें सशस्त्र बनाना
ही होगा। ताकि वे खुद-ब-खुद सरकारी अधिकार के सभी विभागों को अपने ही हाथों
में ले सकें और वे खुद ही ये सभी विभाग बन जाये।''
''लेकिन हम सभी मजदूरों और कमानेवालों के लिए किस तरह की अपनी फौज चाहिए?
हमें तो जनता ही की फौज की जरूरत हैं। उसकी पहली बात यह होगी कि उसमें
मुल्क के सभी स्त्री-पुरुष बालिग निवासी एक-एक करके शामिल होंगे। दूसरे वह
जनता की अपनी फौज और पुलिस इन दोनों का ही काम करेगी और उसी का काम होगा कि
शासन के ढाँचे के जितने बुनियादी तथा प्रधान विभाग हैं, प्रबन्ध के जितने
महकमे हैं उन्हें भी खुद चलायें।''
''जब तक औरतें सामाजिक सेवा, फौज और राजनीतिक जीवन में नहीं खींचेंगी और जब
तक उन्हें कुन्द बनानेवाले घरेलू एवं रसोई के कारबार से अलग नहीं किया
जायेगा तब तक असली आजादी को हासिल करना और लोकमतमूलक शासन कायम करना मुमकिन
नहीं। समाजवाद की तो बात ही जाने दीजिये।''
इस प्रकार जिस शासनयन्त्र के निर्माण का जिक्र यहाँ लेनिन ने किया जिसे
सर्वहारा का एकतन्त्र कहने में लोग नाक-भौं सिकोड़ते हैं उसे ही उसने
किसानों, मजदूरों और सिपाहियों की सोवियट या पंचायत नाम अपने अप्रैलवाले
पाँचवें मन्तव्य में यों दिया हैं-
''पार्लियामेण्टरी प्रजातन्त्र नहीं चाहिए। क्योंकि सोवियट के स्थान पर उसे
कायम करना पीछे जाना होगा। किन्तु मजदूरों, खेती में काम करनेवालों (गरीब
किसानों) और सिपाहियों की सोवियट (पंचायत) का ही प्रजातन्त्र चाहिए।''
(यहाँ किसान का अर्थ हैं किसानों में ही फौजी सिपाही होते जो हैं।)
''फौज, पुलिस और नौकरशाही को मिटाना होगा।''
''सरकारी काम करनेवाले तो लोगों की राय से ही चुने जायेगे और लोग जभी
चाहेंगे उन्हें बर्खास्त कर देंगे। उनका वेतन एक कुशल मजदूर के औसत वेतन से
ज्यादा नहीं होना चाहिए।''
इसी प्रकार की शासन-व्यवस्था को लेनिन ने एंगेल्स के ग्रन्थ 'सरकार की
बुनियाद' पर टीका-टिप्पणी करते हुए कुछ ऐसा बताया हैं और उसे लोकमतमूलक
प्रजातन्त्र नाम दिया हैं, जैसा कि लोग कहा करते हैं। मगर उसने चेतावनी भी
दी हैं। वह कहता हैं-
''पूँजीवादी व्यवस्था के अन्दर मजदूरों के लिए सर्वोत्तम शासन-प्रणाली को
लोकमतमूलक प्रजातन्त्र के रूप में स्वीकार करने को हम तैयार हैं। मगर हमें
यह बात भूल जाने का कोई हक नहीं कि सर्वोत्कृष्ट पूँजीवादी प्रजातन्त्र में
भी लोगों के लिए मजदूरी के वास्ते गुलामी करने के सिवाय दूसरा कोई चारा हुई
नहीं। एक बात और भी हैं। हरेक सरकार पीड़ित वर्गों के दमन के लिए खास ढंग की
एक दमनकारी ताकत हैं। इसीलिए कोई भी सरकार न तो स्वतन्त्र हो सकती हैं और न
सभी लोगों की।''
लेनिन के कहने का मतलब यह हैं कि एक तो लोकमतमूलक प्रजातन्त्र प्रणाली
सिर्फ पूँजीवादी शासन के ही भीतर होती हैं और उस शासन के रहते हुए वही सबसे
उत्तम प्रणाली श्रमजीवियों के लिए मानी जा सकती हैं। मगर पूँजीवादी प्रणाली
के हटने पर तो सोवियट ही होगी। भले ही उस समय उसे उसी मानी में प्रजातन्त्र
कहिये। दूसरी बात यह हैं कि सरकार जब कभी होगी तो वह सभी लोगों की होगी
नहीं और न स्वतन्त्र होगी। क्योंकि सरकार का काम ही हैं एक वर्ग का दमन
करना। फिर वह वर्ग चाहे किसान-मजदूरों का हो, जैसा कि पूँजीवादी युग में
होता हैं, या पूँजीवादियों का, जैसा कि सोवियट के युग में होता हैं। हर
हालत में कुछ न कुछ लोग सरकार के निर्माण और काम में सम्मति देने से वंचित
रही जाते हैं। उन्हें आजादी होती ही नहीं। फलत: सरकार को स्वतन्त्र कहना या
सब लोगों की कहना भ्रामक बात हैं। इससे लोग धोखे में पड़ जाते हैं। इसी बात
की चेतावनी लेनिन ने दी हैं। गुलामों को स्वतन्त्रता कहाँ? और जब वेतन के
लिए पूँजीवादियों के अधीन होना पड़ता हैं तो यह गुलामी नहीं तो और हैं क्या?
इस प्रकार सर्वहारा का एकतन्त्र या सोवियट शासन आवश्यक और सम्भव हैं यह तो
सिद्ध हो गया। उसका मूलाधार संगठन ही बताया गया हैं, खासकर किसानों के साथ
सर्वहारा की गाढ़ी मैत्री अत्यावश्यक मानी गयी हैं। इस पर बहुतों का कहना
हैं कि यह बात गैरमुमकिन हैं। किसानों और मजदूरों के स्वार्थ परस्पर विरोधी
हैं, इतने विरोधी, कि दोनों का मेल हो ही नहीं सकता। किसान स्वभावत: चाहता
हैं कि उसकी पैदा की गयी गल्ला वगैरह चीजें काफी महँगी बिकें तो पूरा पैसा
मिले। साथ ही मजदूरों के द्वारा कारखानों में बनी कपड़े आदि वस्तुएँ सस्ती
मिलें तो कुछ पैसा बचे। नहीं तो सारी की सारी खेती की कमाई खर्च हो ही
जायेगी। विपरीत इसके मजदूर चाहते हैं कि कारखाने की बनी चीजें महँगी बिकें
तो मालिकों को नफा काफी होगा। फिर तो मजदूरों की तनख्वाह उन्हें बढ़ाना ही
पड़ेगा। मगर गल्ले आदि महँगी होने पर ज्यादा मिली तनख्वाह भी खाने-पीने में
ही खर्च हो जायेगी। इसीलिए किसान की उपज-गेहूँ, चावल आदि-को वे लोग सस्ते
दाम में चाहते हैं। इस प्रकार दोनों उत्तर और दक्षिण ध्रुव पर खड़े हैं।
मजदूर तो स्वभावत: क्रान्तिकारी हैं। वह तो सर्वहारा ठहरा। उसके पास कोई
निजी सम्पत्ति होती ही नहीं। विपरीत इसके किसान के पास कुछ-न-कुछ जमीन,
झोंपड़ी, पशु आदि सम्पत्ति होती ही हैं। फलत: वह दकियानूस और पुराणपन्थी
होता हैं। इसीलिए दोनों दो ढंग से सोचते हैं। यह सम्भव नहीं कि एक रास्ते
पर आ के दोनों सोच सकें। किसान को जहाँ फिक्र होती हैं कि उसका छोटा खेत
जाने न पाये, बना रहे, तहाँ मजदूर सभी छोटे खेतों को मिटा के बड़ा खेत बनाना
और पैदावार बढ़ाना चाहता हैं। इसीलिए भी दोनों का विरोध जरूरी हैं।
मजदूरों के हाथ में शासन आने पर दमन के सिवाय टैक्स वगैरह लगाना जरूरी हो
जाता हैं और किसान इससे ख़ामखाह बचना चाहते हैं। उन्हें जितना ही कम करा लो
उतना ही अच्छा। मगर मजदूर सरकार या सर्वहारा का एकतन्त्र असम्भव हो जाये
यदि कर वसूल न हो। पिछड़े मुल्कों में सरकार की आय का जरिया दूसरा होता ही
नहीं सिवाय ऐसे करों के। इसलिए भी चखचुख मचती ही रहती हैं।
ऐसी हालत में सर्वहारा का एकतन्त्र कायम कैसे होगा? और जब तक सभी या
अधिकांश देशों में क्रान्ति न हो जाये, तब तक तो पूँजीवादी देश गुटबन्दी
करके सर्वहारा के एकतन्त्र को मिटाने के बाद पूँजीवादी प्रणाली उस देश में
भी कायम करना चाहेंगे ही जिस इक्के-दुक्के देश में वह मिट सकी हैं। यह खसरा
तो हमेशा बना रहेगा। जो सोवियट प्रणाली चारों ओर पूँजीवादी राष्ट्रों से
घिरी हो वह एक-न-एक दिन खत्म होगी ही। आखिर बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी?
इसलिए जब तक सभी या अधिकांश देशों में सर्वहारा क्रान्ति सफल होकर
पूँजीवादी प्रणाली न मिटे तब तक साम्यवाद या समाजवाद की स्थापना का विचार,
किसी इक्के-दुक्के मुल्क में सर्वहारा क्रान्ति के सफल होने पर भी, नहीं
किया जा सकता।
हाँ, जब सर्वत्र या अधिकांश देशों में सर्वहारा क्रान्ति सफल हो जायेगी तब
तो पूँजीवादियों के हमले का खतरा रहेगा ही नहीं। और अगर किसी देश के किसान
मजदूर आपस में लड़ें भी, तो उस लड़ाई से फायदा उठानेवाले पूँजीवादी राष्ट्र
होंगे कहाँ कि 'दाल-भात में मूसरचन्द' बनेंगे? उस किसान-मजदूर संघर्ष से
फायदा कौन उठायेगा? सर्वहारा के शासनवाले अधिकांश या सभी देश तो खुद यह
विरोध न चाहेंगे। इसीलिए यह विरोध अपने आप मिट जायेगा। फलत: किसी एकाध देश
में सर्वहारा क्रान्ति की सफलता होने पर वहाँ समाजवाद की स्थापना की कोशिश
बेकार हैं। उसमें सफलता नहीं मिल सकती। होना तो यह चाहिए कि वहाँ की सोवियट
को कायम रखते हुए सारी शक्ति लगा के बाकी मुल्कों में क्रान्ति करने की
कोशिश खूब ही की जाये। जब समाजवाद और मजदूरों की क्रान्ति अन्तर्राष्ट्रीय
वस्तु हैं तो उसे सबसे पहले अन्तर्राष्ट्रीय बनाने की ही कोशिश उचित भी
हैं। उसी से सब झमेले भी तय हो जायेगे। यह सिद्धान्त कुछ लोगों का हैं।
मगर लेनिन तो बहुमत क्रान्ति का हमी हैं, यह पहले ही बताया जा चुका हैं।
यदि अल्पमत क्रान्ति का सवाल होता तो अधिकांश देशों में गुप्त षडयन्त्र आदि
के जरिये वह सफल हो सकती थी। मगर बहुमत क्रान्ति में तो देश की अधिकांश
जनता को पहले उसके लिए तैयार करना होगा। तभी बाहरी मदद से कुछ हो सकता हैं।
जो मुल्क खुद तैयार नहीं उसे बाहरी मदद क्या मिलेगी और कैसे? उससे होगा भी
क्या? ऐसी दशा में सब देशों में क्रान्ति कराने का ठेका लेना बेकार और
नादानी हैं। इसीलिए चीन वगैरह देशों में रूस से ऐसी सहायता नहीं दी गयी कि
फौरन क्रान्ति करायी जाये। क्योंकि वहाँ का बहुमत इसके लिए तैयार न था। यह
भी निश्चय नहीं कि किसी के चाहने या यत्न से क्रान्ति हो ही जायेगी। वह तो
किसी के वश की नहीं। ऐसी दशा में यदि एक मुल्क में सर्वहारा क्रान्ति सफल
हो गयी हो तो वहाँ समाजवाद के निर्माण की कोशिश न करके दूसरे देशों में
क्रान्ति की कोशिश करते-करते मरना मुनासिब नहीं हैं। और अगर इसी दरम्यान
सभी देश मिल के उस एक देश से भी सर्वहारा का शासन मिटा दें तो क्या हो? वह
देश तो मुकाबिला भी नहीं कर सकता। क्योंकि तैयारी तो हैं नहीं। जब समाजवाद
के प्रसार की कोशिश हो तभी तो कल-कारखाने बढ़ें और आधुनिक ढंग के
हर्वा-हथियार से सजी फौज तैयार हो। और बिना समाजवाद के यत्न के तो खुद वहाँ
के किसान-मजदूर ही ऊब जायेगे। क्योंकि सर्वहारा क्रान्ति से उन्हें कुछ
हासिल तो होता नहीं, जब तक समाजवाद का प्रसार न हो। फलत: वे लोग खुद दुश्मन
होकर सर्वहारा का शासन मिटा देंगे। इसीलिए सारी दूसरी फिक्रें छोड़ उस एक
देश में ही समाजवाद के प्रसार की कोशिश होनी चाहिए।
यह भी नियम लेनिन ने बताया हैं कि पूँजीवाद की तरक्की सभी देशों में समरूप
से नहीं होती। कोई देश इसमें आगे होता हैं तो कोई पीछे। जहाँ कोयला, लोहा,
पेट्रोल, रबर, कच्चे माल वगैरह की आसानी होती हैं वह देश पूँजीवाद में आगे
जाता हैं। बाकी पीछे रहते हैं, उसी हिसाब से जिस हिसाब से उन्हें इन चीजों
की सुविधाएँ कमबेश रहती हैं। मगर ऐसा भी होता हैं कि सबसे आगे बढ़ा देश पीछे
चला जाता हैं और पीछे वाले आगे हो जाते हैं। क्योंकि आपस की चढ़ा-बढ़ी से ऊब
के कुछ देश गुटबन्दी कर लेते और लड़ाई में उसे तबाह कर देते हैं। जैसे गत
युद्ध में जर्मनी की दशा हुई थी। शुरू-शुरू में इंग्लैंड सबसे आगे था। मगर
अमेरिका उससे भी आगे चला गया और ईधर जर्मनी तो सबों से बढ़ गया था। इसीलिए
लेनिन ने यह माना हैं कि जैसे पूँजीवाद के प्रसार में विषमता हैं और उसमें
सभी देश समान रूप से साथ नहीं चलते। ठीक उसी प्रकार समाजवाद का विकास भी
विषम रूप से होगा। न कि सभी देशों में एक ही साथ। फलत: वह एक देश में भी हो
सकता हैं। वह तो पूँजीवाद का ठीक विरोधी हैं। इसलिए वह भी विषम रूप से एके
बाद दीगरे धीरे-धीरे सभी देशों में कायम होगा। न कि सभी देशों में एक ही
साथ। सन 1915 ई. के अगस्त में ही लेनिन ने यह बात इस तरह कही थी-
''पूँजीवाद का यह पक्का नियम हैं कि उसकी राजनीतिक तथा आर्थिक प्रगति असमान
होती हैं-सर्वत्र एक-सी नहीं होती। इसीलिए बहुत सम्भव हैं कि शुरू-शुरू में
थोड़े-से ही पूँजीवादी देशों में या सिर्फ एक में ही समाजवाद की विजय हो। इस
प्रकार एक देश में विजयी होने पर सर्वहारा-वर्ग पूँजीवादियों को खत्म करने
तथा समाजवादी ढंग से उत्पादन का संगठन कर लेने के बाद बचे-बचाये पूँजीवादी
देशों के विरुद्ध खड़ा होगा, उन देशों के पीड़ितों को अपने पक्ष में करके
पूँजीवादियों के विरुद्ध बगावत के लिए उन्हें उभाड़ेगा और अगर जरूरत होगी तो
शोषक वर्गों तथा उनकी सरकार के विरुद्ध हथियार भी उठायेगा।''
एक देश में समाजवाद के प्रसार और निर्माण को देख के ही दूसरे देशों के
शोषितों के दिल में सर्वहारा क्रान्ति के लिए उत्तेजना होगी और उसके लिए
जितना वे तैयार होंगे उसका शतांश भी सिर्फ लेक्चरों और गुटबन्दियों से न हो
सकेंगे। क्योंकि ''कह सुनाऊँ या कर दिखाऊँ?'' में यह 'कर दिखाऊँ' की बात जो
होगी, अमली उपदेश जो होगा। इसलिए ''एक पंथ दो काज'' हो जायेगा। दूसरे देशों
में क्रान्ति की तैयारी भी हो गयी और यहाँ समाजवाद का निर्माण भी हो गया।
किसानों और मजदूरों में घबराहट और असन्तोष की भी गुंजा हीश नहीं रहेगी।
क्योंकि समाजवाद के प्रसार से उनके कष्ट दूर हो ही जायेगे। इसीलिए दूसरे
पूँजीवादी देशों के हमले होने पर वे सोवियट की ओर से डट के लड़ेंगे। लड़ाई का
समान भी आधुनिक ढंग से तैयार हो ही जायेगा।
रह गयी किसानों और मजदूरों के स्वार्थ-संघर्ष की बात। सो तो ठीक हैं। मगर
उससे भी बड़ी एक बात हैं जो दोनों की मैत्री के लिए उन्हें विवश करती हैं।
वे तो यह जानते ही हैं कि पूँजीवादी दोनों के ही शत्रु हैं और मौका पाते ही
दोनों की छाती पर चढ़ बैठेंगे। इसका तो करारा अनुभव उन्हें पहले से हैं ही।
क्रान्ति के पहले यदि दोनों न मिलते तो पूँजीवादी और जमींदार कभी हारते ही
नहीं। उस हार का गुस्सा भी उनके दिल में हैं यह भी दोनों ही जानते हैं।
इसलिए वे ख़ामखाह सोचेंगे कि यदि हम दोनों लड़ेंगे तो फिर दोनों को ही दबा के
पूँजीवादी छाती पर चढ़ बैठेंगे। सर्वहारा की सरकार भी उन्हें यह बात
समझायेगी। इसलिए दूरंदेशी से काम ले के वे लड़ना छोड़ देंगे और काम चला
लेंगे। जब साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ने में परस्पर अत्यन्त विरोधी
पूँजीपति और मजदूर या जमींदार और किसान समय पा के मिल सकते हैं, क्योंकि वह
दोनों का ही शत्रु हैं, तो फिर किसान और मजदूर क्यों न मिलेंगे? आखिर उनका
विरोध तो स्वाभाविक हैं नहीं। केवल परिस्थितिवश चन्द रोजा ही हैं। ज्यों ही
समाजवाद का आरम्भ हुआ कि मिट जायेगा।
टैक्स के बारे में भी यही बात होगी। मजदूरों की सरकार जानबूझकर ही ऐसा कम
टैक्स लगायेगी या नहीं लगायेगी जिससे किसान ऊबें नहीं रंज न हों। और टैक्स
भी तो गाँव की ही पंचायत या सोवियट लगा के अधिकांश या सब वहीं खर्च करेगी।
फिर झमेला क्यों होगा? जैसे-जैसे समाजवाद का प्रसार होगा तैसे-तैसे सरकार
की आय के हजारों दूसरे रास्ते होने के कारण किसानों का टैक्स कम होते-होते
एकदम बन्द भी हो सकता हैं।
क्रान्तिकारी और दकियानूसीपन की बात के बारे में तो पहले ही बहुत कहा जा
चुका हैं। किसानों को धीरे-धीरे मजदूर अपने साथ कर लेते हैं। उनमें जो सबसे
नीचे दर्जे के या अत्यन्त गरीब हैं वे तो प्राय: मजदूरों जैसे ही हैं और
उन्हीं की संख्या ज्यादे होती हैं भी। अत: थोड़ी ही कोशिश के बाद वे ठीक हो
जाते हैं। बाद में उन्हीं के द्वारा उनसे ऊपरवाले भी धीरे-धीरे साथ हो जाते
हैं। इसीलिए पहले उध्दृत एक वाक्य में लेनिन ने कहा हैं कि एक ओर धनी किसान
और जमींदार साधारण और मध्य किसानों को मिलाना चाहेंगे और दूसरी ओर मजदूर
तथा अत्यन्त गरीब और दुखिया किसान। इसमें दूसरा ही पक्ष विजयी होता हैं। जो
लोग इसमें शक करते हैं वह मजदूरों की शक्ति नहीं जानते। किसानों को अपनी ओर
खींचने की कितनी ताकत मजदूरों में हैं यह तो 1905 के दृष्टान्तों से ही
लेनिन ने सिद्ध कर दिया हैं। मजदूरों का वर्ग-संघर्ष जितना ही तेज होता हैं
किसान उतने ही उनकी ओर खिंच आते हैं। जो लोग इस सिद्धान्त में विश्वास नहीं
करते वे लेनिनवादी नहीं हो सकते। यह बात भी हैं कि ऐसा तो वही कहते हैं जो
किसानों की क्रान्तिकारी योग्यता में विश्वास नहीं करते। मगर बात ऐसी नहीं
हैं। वे तो क्रान्ति के लिए श्रमिकों का साथ देते ही हैं। इसीलिए स्तालिन
ने 'लेनिनवाद की बुनियाद' (Foundation of Leninism) में लिखा हैं कि-
''इसीलिए लेनिन ने 'सर्वात्रिक क्रान्ति' के समर्थकों का विरोध किया था।
इसका यह मतलब नहीं हैं कि वह क्रान्ति का बराबर जारी रहना नहीं मानता था।
इस बात के समर्थन में तो वह कभी पीछे नहीं हटा। किन्तु उसके विरोध का यही
कारण हैं कि सर्वात्रिक क्रान्तिवादी किसानों के क्रान्तिकारी महत्त्व को
कम कर देते हैं। किसान तो श्रमिकों की संरक्षित, शस्त्रागार और सेना हैं।''
स्तालिन ने अपनी अक्टूबर-क्रान्ति के बारे में लिखी पुस्तिका में सन 1924
ई. में इस बारे में और साफ लिखा हैं। वह कहता हैं-
''अब तक तो आमतौर से यही होता रहा हैं कि 'सर्वात्रिक क्रान्ति' के
सिद्धान्त की केवल एक ही बात की ओर ध्यान दिलाया जाता रहा हैं और वह बात यह
कि किसानों की हलचल में क्रान्तिकारी उथल-पुथल की बहुत ज्यादा गुंजा हीश
हैं, इस बात में वह सिद्धान्त विश्वास नहीं करता। मगर अब हमें इसमें एक
दूसरी बात भी जोड़नी होगी। वह यह हैं कि 'सर्वात्रिक क्रान्तिवादियों' को
रूसी मजदूरों की शक्ति और योग्यता में भी विश्वास नहीं हैं।''
यहाँ एक बात साफ कर देना जरूरी हैं। 'सर्वात्रिक क्रान्ति' के सिद्धान्त
में लोगों को भ्रम हो जाता हैं। असल में क्रान्ति के बारे में दो पक्ष हैं।
एक तो लेनिनवादियों का जो यह कहते हैं कि एक देश में भी सर्वहारा क्रान्ति
सफल होने पर समाजवाद का निर्माण हो सकता हैं। हाँ, बाहर से उस पर आक्रमण का
खतरा तब तक बना ही रहता हैं। जब तक सभी या अधिकांश देशों में सर्वहारा
क्रान्ति सफल न हो जाये। दूसरा पक्ष हैं त्रात्स्की और उसके अनुयायियों का।
वे कहते हैं कि जब तक अधिकांश या सभी देशों में सर्वहारा क्रान्ति सफल न हो
जाये तब तक एक देश में समाजवाद का निर्माण हो नहीं सकता। दूसरे पूँजीवादी
देश ऐसा होने न देंगे और वहाँ के सर्वहारा शासन या सोवियट सरकार को मिटा
देंगे। इसी दूसरे पक्ष को परमानेंट रेवोल्यूशन या सर्वात्रिक क्रान्ति पक्ष
कहा हैं। असल में इसे ही सर्वात्रिक क्रान्ति का पक्ष कहना चाहिए और
परमानेंट रेवोल्यूशन का यही अर्थ मानना उचित भी हैं क्योंकि इस पक्षवाले
सर्वत्र या सब देशों में क्रान्ति होने पर ही समाजवाद का निर्माण सम्भव
मानते हैं। क्रान्ति का सदा जारी रहना जब तक कि साम्यवाद स्थापित न हो
जाये, यह बात तो पहले पक्षवाले या लेनिनवादी भी मानते हैं। इसलिए उनके पक्ष
को ही सतत क्रान्ति का पक्ष कहना उचित हैं। लेनिन तो एक देश में भी
साम्यवाद की स्थापना को सम्भव मानता हुआ कहता हैं कि पूँजीवादी क्रान्ति के
बाद क्रान्ति को जारी रखते हुए सर्वहारा क्रान्ति तक पहुँचना और उसके बाद
समाजवाद तथा साम्यवाद का निर्माण करना होगा। यह बात पहले ही कही जा चुकी
हैं। लेनिन ने सन 1905 ई. में ही लिखा था कि-
''जहाँ तक वर्ग-चेतनायुक्त और संगठित सर्वहारा के वश की बात हैं हम लोग
फौरन ही जनतन्त्र क्रान्ति से समाजवादी क्रान्ति की ओर बढ़ना शुरू कर देंगे।
हम तो क्रान्ति को सदा जारी रखने के ही पक्ष में हैं। हम अधूरी बातों से तो
तुष्ट हो सकते नहीं।''
''साहसिकता का सहारा लिये बिना ही, अपने वैज्ञानिक विचारों को धोखा न देकर
ही और सस्ती लोकप्रियता की कोशिश न करके ही, हम कह सकते हैं और कहते हैं
सिर्फ एक बात। वह यह हैं कि हम अपनी सारी ताकत लगा के संगठित किसानों को इस
बात में मदद देंगे कि वे जनतन्त्र क्रान्ति को सफल बनायें (अर्थात जमीन
वगैरह हासिल कर लें)। ताकि हमारी सर्वहारा की पार्टी के लिए यह आसानी हो
जाये कि जल्द-से-जल्द एक नये और ऊँचे दर्जे के काम की ओर बढ़ें। वह काम हैं
समाजवादी क्रान्ति।''
यहाँ एक बात और जान लेने की हैं। लेनिन के जो वचन पहले लिखे गये हैं उनसे
स्पष्ट हो जाता हैं कि मार्च क्रान्ति में सफलता के लिए काफी समान थे।
इसीलिए उसे सफलता भी मिली। फिर भी वह अप्रैलवाले अपने मन्तव्यों में लिखता
हैं कि सर्वहारा का संगठन और उनकी वर्ग-चेतना इतनी काफी न थी कि वे शासन
सूत्र अपने हाथ में ले सकें। इसीलिए मार्च और नवम्बर के बीच आठ मास का
सन्धि काल जरूरी हो गया, जिसमें उसने अपनी तैयारी पूरी की। वह दूसरे
मन्तव्य में लिखता हैं कि-
''रूस की वर्तमान स्थिति की विलक्षणता यह हैं कि क्रान्ति की पहली सीढ़ी या
दौर के बाद यह सन्धिकाल हैं जिसमें, सर्वहारा का संगठन और उनकी वर्ग-चेतना
परले दर्जे की न रहने के कारण शासन-सूत्र पूँजीवादियों के हाथ में चला गया
हैं। इसके बाद क्रान्ति की दूसरी दौर आयेगी जिसमें शासन-सूत्र सर्वहारा और
गरीब किसानों के हाथों में आयेगा ही।''
मगर इस सन्धिकाल में लेनिन और उसकी पार्टी ने, इस मुस्तैदी तथा दूरंदेशी से
काम किया कि सारी हवा ही पलट गयी और वायुमण्डल इतना अनुकूल हो गया कि
अक्टूबर (नवम्बर) की क्रान्ति के पहले,-
(1) रूस के सबसे ज्यादा क्रियाशील और मुस्तैद सर्वहारा अपनी क्रान्ति के
लिए तैयार थे।
(2) अधिकांश-गरीब किसान और लड़ाई से ऊबे फौजी जवान साथ देने को तैयार थे।
(3) दिन-रात मजदूरों और कमानेवाली जनता में काम करते-करते बोलशेविक पार्टी
अत्यन्त अनुभवी तथा सख्त-से-सख्त अनुशासन (Iron discipline) माननेवाली बन
चुकी थी जिसे सब बातों की पूरी जानकारी थी।
(4) रूस के परेशान पूँजीवादी, किसानों की बगावतों से तबाह जमींदार और सोशल
रेवोल्यूशनरी तथा मेनशेविक ये दोनों अवसरवादी दल जो अपने सिद्धान्त का
दिवाला साम्राज्यवादी युद्ध के दौरान निकाल चुके थे-इन तीनों ही दुश्मनों
को हराना आसान हो गया था।
(5) देश इतना बड़ा था और आवा-जाही के साधनों की इतनी कमी थी कि मौका पड़ने पर
बोलशेविक पार्टी कहीं भी निर्जन प्रदेश में जाकर बीच-बीच में अपनी तैयारी
कर सकती तथा दुश्मनों की पहुँच से बाहर रह सकती थी। इसीलिए तो पीछे के गृह
युद्ध में भी उसे विजय मिली।
(6) जब क्रान्ति-विरोधियों से लड़ाई और गृह युद्ध हुआ तो उसके लिए काफी खाना
वगैरह सभी समान जुट सकते थे। दिक्कत यही थी कि रूस अकेला ही था। चारों ओर
शत्रु देश ही थे, जहाँ के पूँजीवादी क्रान्ति को निगलने पर तैयार बैठे थे।
रूस की आबादी के अधिकांश सर्वहारा लोग न थे। देश पिछड़ा था। यह भी एक दिक्कत
थी। क्योंकि अमेरिका, इंग्लैंड आदि की तरह सर्वहारा का बहुमत होने पर बहुत
आसानी हो जाती। यही बात लेनिन ने क्रान्ति के बाद यों लिखी हैं-
''साफ और बिलकुल ही खास ढंग की नई परिस्थिति के चलते रूस में सर्वहारा
क्रान्ति सहज हो गयी थी। मगर उसे कायम रखना और उसका काम पूरा करना रूस के
लिए, पश्चिमीय यूरोप के दूसरे देशों की अपेक्षा, कहीं ज्यादा कठिन हैं।
1918 के आरम्भ में यही बात बताने का मौका मुझे मिला था। गत दो साल के अनुभव
ने यह सिद्ध कर दिया हैं कि उस समय की मेरी बातें सही थीं। रूस में चार खास
ढंग की परिस्थितियाँ थीं जिनके करते 1917 में वहाँ विलक्षण स्थिति हो गयी
थी। वे ये हैं-
(1) यह मुमकिन था कि सोवियट क्रान्ति के साथ ही साम्राज्यवादी युद्ध भी
खत्म हो जाये-वह युद्ध जो सर्वहारा तथा किसान दोनों को ही समान रूप से घोर
विपदा में डाले हुए था।
(2) जो दो जबर्दस्त दल साम्राज्यवादी लुटेरों में बन चुके थे और जो
एक-दूसरे का गला रेतने में इतने व्यस्त थे कि इस नये सोवियट रूपी शत्रु की
ओर नजर फेरने की उन्हें फुर्सत ही न थी, उनकी इस जिन्दगी और मौतवाली लड़ाई
से फायदा उठाने का मौका था।
(3) देश का विस्तार बहुत ज्यादा होने तथा सड़क, रेल आदि यातायात के साधनों
की बेमरम्मती (तथा कमी) के करते यह सम्भावना थी कि घरेलू युद्ध को देर तक
चलाया जा सके।
(4) किसानों में पूँजीवादी जनतन्त्र क्रान्ति का आन्दोलन इतना ज्यादा जड़
पकड़ गया था कि सर्वहारा की पार्टी (बोलशेविक पार्टी) किसानों की पार्टी
(सोशल रेवोल्यूशनरी पार्टी जिसके अधिकांश मेम्बर बोलशेविकों के घोर विरोधी
थे) की क्रान्तिकारी माँगों का समर्थन कर सकती थी और राजनीतिक ताकत हाथ में
आते ही उन माँगों को पूरा कर सकती थी। (असल में बोलशेविकों का सिद्धान्त तो
यह था नहीं कि किसानों में जमीन बाँटी जाये। वे तो जमीन को राष्ट्र की
सम्पत्ति बनाने के पक्षपाती थे। मगर परिस्थिति ऐसी थी कि किसानों में जमीन
बाँटने का अपने विरोधियों का सिद्धान्त स्वीकार करके ही उनने किसानों को
अपना साथी बना लिया)। आज तो ये खास ढंग की बातें पश्चिमीय यूरोप में पायी
नहीं जाती हैं। उन्हें फिर से पैदा करना या उन जैसी ही हालत में लाना टेढ़ी
खीर हैं। और-और कारणों के साथ ही इस कारण से भी पश्चिमीय यूरोप में सचमुच
क्रान्ति का श्रीगणेश करना रूस की अपेक्षा कहीं ज्यादा कठिन हैं।''
यहाँ यह जान लेना चाहिए कि पुराने जमाने में जो किसानों की पार्टी रूस में
थी और जिसे सोशल रेवोल्यूशनरी पार्टी कहते थे, वह थी पुराणपन्थी लोगों की
ही। जैसा कि पहले कह चुके हैं, जब जमींदारों और पूँजीवादियों की केडेट
पार्टी तथा अक्टोबरिस्ट पार्टी भी किसानों को जमीनें यों ही देने के पक्ष
में निश्चय करती थी और आश्चर्यजनक बातें इस बारे में कहती थी, तो इस किसान
पार्टी का क्या कहना? उसके प्रोग्राम और मन्तव्य तो इस सम्बन्ध में गरमा
गरम थे ही। मगर ये सब बातें दरअसल दिखावटी थीं, हाथी का दाँत थीं। डूमा में
चुने जाने के ख्याल से किसानों के वोट हासिल करने के लिए यह महाजाल था,
जिससे किसान उनकी ओर खिंच आये। ये अवसरवादी किसानों को कुछ देना-दिलाना
ठीक-ठीक चाहते थे नहीं। इनका गँठजोड़ा था जमींदारों और पूँजीवादियों के साथ।
बातों से ही यदि काम बन जाये तो काफी लम्बी बातें करने में हर्ज क्या?
इसीलिए तो मार्च-क्रान्ति के बाद जब ये लोग सोवियट में थे तो कुछ न कर सके।
इन्हीं के आदमी चरनोफ वगैरह सरकार चलाते थे। चरनोफ तो अक्टूबर क्रान्ति के
पहले खुद कृषि-कमिसार या कृषि मन्त्री था। मगर सिर्फ बातें बनाता रहा।
मार्क्स ने अठारहवें ब्रूमेयर के 61वें पृष्ठ में जो कुछ फ्रांसीसी
जनतन्त्रवादियों के बारे में ऐसे मौके पर ही लिखा हैं वही हालत रूस के भी
टुटपुँजिये जनतन्त्रवादियों की थी। वह लिखता हैं, ''लेकिन टुटपुँजिये
बाबुओं और उनके जनतन्त्रवादी प्रतिनिधियों की क्रान्तिकारी बातें (धमकियाँ)
शत्रु को डराने के सिवाय और कुछ नहीं होतीं। जब वे ऐसी जगह जा पहुँचते, तब
उनने अपनी हालत ऐसी कर दी कि बिना उन बातों के पूरे किये गुजर नहीं, तब आधो
मन से कोशिश करते हैं। वे जानबूझ के सफलता का रास्ता नहीं पकड़ते और बहाने
ढूँढ़ते रहते हैं।''
हाँ, इनमें जो वामपक्षी या लेफ्ट सोशल रेवोल्यूशनरी थे, वे कुछ करना चाहते
थे। मगर दूर तक वे भी जा नहीं सकते। उनकी पार्टी का और खासकर उनका किसानों
पर काफी असर था। क्योंकि किसानों में वे तब पहुँचे थे जब न तो बोलशेविक
पार्टी थी और न कोई उनमें जाता था। जब बोलशेविक पार्टी बनी भी तो उसका
ज्यादा काम मजदूरों में ही था। किसानों तक पहुँचने की फुर्सत उसे कम थी।
इसीलिए अक्टूबर क्रान्ति के ऐन मौके पर लेनिन को लेफ्ट सोशल
रेवोल्यूशनरियों से सुलह करनी पड़ी। ताकि किसानों को उनके द्वारा अपने साथ
ले सकें। बात भी यही हुई। वे लोग पहले तो सोवियट की एक्जीक्यूटिव कमिटी
(कार्यकारिणी) में शामिल हुए और पीछे सोवियट कमिसार में एक-दो जगहें भी
उनने कबूल कीं। लेकिन वे लोग भी किसानों के अर्थ में धनी किसानों या कुलक
लोगों को ही विशेष रूप से मानते थे। क्रान्ति का वह अर्थ उन्हें क्या मालूम
जो लेनिन की पार्टी को मालूम था। नतीजा यह हुआ कि लेनिन ने फरमान जारी करके
जमींदारों की सारी जमीनें किसानों को दे दी और कह दिया कि वे लोग अपनी
स्थानीय सोवियटें बना के उन्हीं के जरिये बिना किसी से पूछे-पाछे सभी
जमीनें बलात हथिया लें। इससे उन लेफ्टों की आँखें कुछ-कुछ खुलीं। मगर जमीन
लेने में कहीं-कहीं कुलक लोग भी शामिल थे। इससे पर्दा पड़ा रहा। परन्तु जब
बोलशेविक लोग मजबूती से गरीब किसानों का एक ओर संगठन करने लगे और दूसरी ओर
गृहयुद्ध के समय कुलक लोगों का गल्ला वगैरह युद्ध के खर्च के लिए जबर्दस्ती
लेने लगे तो कुलकों ने विरोध किया और लेफ्ट सोशल रेवोल्यूशनरी लोग उन्हीं
का साथ खुल्लम खुल्ला देने लगे। सोवियट सरकार से तो वे पहले ही हट चुके थे।
दक्षिण पंथी सोशल रेवोल्यूशनरी तो तब तक गृहयुद्ध में पक्के क्रान्ति
विरोधी बन चुके थे। इस प्रकार इस किसान पार्टी का भी पर्दाफाश हो गया।
सवाल यह उठता हैं कि जो सोवियटें 1905 में काफी क्रान्तिकारी थीं, मास्को
में उनने शासन भी कुछ समय तक हथिया लिया था और उसे पूर्ण क्रान्तिकारी ढंग
से चलाती भी रहीं। न कि दकियानूसी ढंग से। वही 1917 के मार्च में दकियानूस
कैसे बन गयीं? असल में शुरू में तो जो लोग पक्के क्रान्तिकारी और जान पर
खेलनेवाले थे वही उनमें आये। बाकी लोग जो दकियानूस और बातें बनानेवाले थे
वे तो सोते थे। फलत: उस समय सोवियट का क्रान्तिकारी होना ठीक ही था।
क्रान्ति कहाँ तक जायेगी और उसका क्या नतीजा होगा यह बात तो लोग समझते भी न
थे। इसलिए सभी लोग उन बातों में शरीक थे। मगर 1917 आते-आते बहुतों की आँखें
खुली थीं। वे सजग हो गये थे। लड़ाई ने उन्हें जगाया था और आशा भी दी थी।
क्रान्ति दूर तक जायेगी ऐसा समझकर छोटे-मोटे सम्पत्तिवाले फूँक-फूँक के
पाँव देने लगे भी थे। इसी से यह हालत रही। पेज आरनाट ने रूसी क्रान्ति के
संक्षिप्त इतिहास के द्वितीय भाग के 11वें पृष्ठ में इस बारे में यों लिखा
हैं-
''यह खींच-तानवाली विशेषता का और सोशल रेवोल्यूशनरियों तथा मेनशेविकों के
सोवियट वाले बहुमत का कारण यह था कि जार के गद्दी छोड़ देने के कारण, करोड़ों
लोग जो बहुत दिनों से पीड़ित थे और जो राजनीतिक दृष्टि से सो रहे थे, एकाएक
जग पड़े थे और उनमें जीवन आ गया था। सभी छोटे-मोटे कारोबारी, छोटे-मोटे
सम्पत्तिशाली और किसान अर्थात सभी निम्न-मध्यम श्रेणीवाले-जाग चुके थे और
उनने दु:ख निशा के प्रभात का स्वागत किया, यह समझकर कि विपत्ति के बादलों
से रहित दिन शुरू हो गया हैं। आजादी प्राप्त निम्न-मध्यम वर्गीयों की
भावनाओं तथा आजादी के बारे में निर्दोष और सीधे विश्वास करनेवाले विचारों
की लहर बह चली जिसने रूस को छा लिया। इसी में मजदूरों का अधिकांश भी बह
गया। लेकिन अब तक तो ये निम्न-मध्यमवर्गीय लोग पूँजीवादियों के ही आश्रित
थे (क्योंकि उनका पथ दर्शक दूसरा था नहीं)। इसलिए विश्वासपूर्वक उन्हीं
पूँजीपतियों की मातहती में अपने आपको सौंप देने को ये लोग तैयार थे। मार्च
के बाद द्वैधा शासन (सोवियट का और पूँजीपतियों का शासन) स्थापित होने पर
उसमें जो ऐतिहासिक अभूतपूर्वता और विशेषता थी उसका असली कारण यही हैं।''
यहाँ यह जान लेने की बात हैं कि मार्च के बाद एक तो तात्कालिक सरकार बनी थी
सिर्फ काम चलाने के लिए। वह पूँजीपतियों के ही हाथ में सोलह आने थी और
कानूनी ढंग से वही शासन करती थी। मगर एक दूसरी गैरकानूनी सरकार थी सोवियट
के रूप में। इसे कानूनी हक शासन का प्राप्त न था। मगर पहली सरकार इसके
विरुद्ध जा नहीं सकती थी। यही हैं द्वैधा शासन का अर्थ। असली ताकत थी
सोवियट के हाथों में। मगर उसके नेता थे दकियानूस, जैसा कि कह चुके हैं।
इसीलिए उस शक्ति को पूरे तौर से काम में लाते न थे-पूँजीवादियों के सामने
झुक जाते थे। काम में लाती थी ताकत को तात्कालिक सरकार। मगर उसमें पूरी
ताकत थी नहीं। वह सोवियट के अधीन थी। उसी की बनायी हुई थी। इसीलिए देखने
में उसकी छाया-जैसी थी। मगर दरअसल में पूँजीवादी मिल्यूकोफ, गचकोफ आदि की
ही प्रधानता थी। इसलिए वह चलती थी, चलना चाहती बार-बार पूँजीवादी ढंग से
ही। इसी से दोनों में संघर्ष होता रहता था। क्योंकि जनता तो सोवियट के
द्वारा उस पर दबाव डालकर रोकना चाहती थी। फलत: सोवियट के नेता जनता से दबकर
सरकार पर दबाव डालते थे। मगर ज्यों ही जनता ठण्डी होती त्यों ही वह फिर
पूर्ववत चलती थी। यही थी उसकी विशेषता और ज्यों-ज्यों सोवियट का नेतृत्व
बदलता जाता था और आगे बढ़नेवाला होता जाता था त्यों-त्यों वह सरकार खत्म
होती जाती थी। अन्त में खत्म भी इसी तरह हुई जब सोवियट पर लेनिन के दल का
प्रभुत्व हो गया। कांग्रेस के मन्त्रिमण्डलों और किसान सभाओं की कुछ झाँकी
इसमें आ जाती हैं।
पेज आरनाट ने उसी स्थान पर सोवियटों के निर्माण का जो ब्योरा उस समय के लिए
दिया हैं वह मजेदार हैं और उससे यह बात पर पूरा प्रकाश पड़ता हैं। वह कहता
हैं-
''यह बात भी याद रखने की हैं कि-
(1) मेनशेविक लोगों को देश भक्त होने के कारण उस समय ज्यादा कानूनी हक
हासिल थे (क्योंकि देश के नाम पर लड़ाई में मदद देने की बात वह कहते जो थे।
फिर उन्हें सरकार क्यों छोड़ती? मगर बोलशेविक तो इसके विरोधी थे। इसीलिए
सरकार ने उन्हें दबा दिया था)। इसीलिए बोलशेविकों की अपेक्षा लोगों में
उनकी प्रसिद्धि ज्यादा थी। बोलशेविक तो फौज में बलात भर्ती करके लड़ने को
भेजे भी गये थे, जहाँ बहुतेरे मर गये। वे या तो जेलों या साइबेरिया के
जंगलों में भी पड़े थे। फिर जनता उन्हें जानती कैसे?
(2) देहातों के सीधे-सादे लोग कारखानों में भर्ती हुए थे (क्योंकि चतुर और
अनुभवी मजदूर फौज में भेजे गये थे)। उनमें बहुतेरे कुलक भी थे, जिनने फौज
में जाने की अपेक्षा अस्त्र-शस्त्र के कारखानों में काम करना ही पसन्द किया
था।
(3) पेट्रोग्राड की सोवियट में बड़े-बड़े कारखानों से प्रति हजार मजदूर पर एक
प्रतिनिधि भेजने का नियम था, जबकि हर एक छोटे कारखाने में एक प्रतिनिधि भेज
सकते थे। नतीजा यह हुआ कि यद्यपि 87 फीसदी मजदूर बड़े कारखानों में थे,
तथापि सोवियट में उनके कुल सिर्फ 120 मत-120 प्रतिनिधि-थीं। विपरीत इसके
शेष 13 फीसदी मजदूर जिन सभी छोटे कारखानों में काम करते थे उनके प्रतिनिधि
थे 122। यह बात भी थी कि इन छोटे-छोटे कारखानों में ही निम्न-मध्यमवर्गीयों
का असर सबसे ज्यादा था। यह भी याद रहे कि किसानों की भी सोवियटें थीं और
फौजी वर्दीधारी किसानों (सिपाहियों) की भी, जिनमें क्रान्ति के शुरू के
महीनों में निम्न-मध्यमवर्गीयों के ही सिद्धान्तों का जोर था और तब तक
लोगों की आँखें खुल न सकी थीं।''
जारशाही ने कारखानों में बोलशेविकों का असर ज्यादा देखकर ऐसे मजदूरों को
चुन-चुन के फौज में भेज दिया था और उनकी जगह गाँवों के किसानों को
ताजा-ताजा भर्ती किया था। इससे उनमें बोलशेविकों का असर बहुत कम था और
मेनशेविकों या सोशल रेवोल्यूशनरियों का ही ज्यादा था। क्योंकि किसानों में
वही पहले से पहुँचे थे। मगर इसका एक उल्टा असर भी हुआ। फौज में बोलशेविकों
का असर बढ़ने लगा और सिपाही बागी होने लगे। ईधर शहरों में लड़ाई के चलते
उथल-पुथल तो थी ही। कारखानों से सभी पुराने मजदूर तो चले गये थे नहीं। फलत:
नये-नये भर्ती हुए किसानों में गर्मी आने लगी और वे बोलशेविकों के असर में
जाने लगे। उन्हीं के द्वारा गाँवों में भी वह असर पहुँचने लगा। इन्हीं सब
कारणों से अक्टूबर आते न आते सर्वत्र लेनिन की पार्टी का पूरा असर और बहुमत
हो गया और अन्त में उसे विजय मिली तथा सोवियट शासन पूर्ण रूप से कायम हो
गया। त्रात्स्की ने रूसी क्रान्ति के इतिहास में यह भी लिखा हैं कि
मार्च-क्रान्ति के समय एकाएक सोवियट की कार्यकारिणी ही बनी पीछे सोवियट
बनायी गयी। कार्यकारिणी में भी नरमी से काम लिया गया। ठीक चुनाव न हो सका।
बाहर से बहुतेरे लोग ले लिये गये इसीलिए वह कमजोर रही। यह बात पीछे अक्टूबर
के पूर्व मिटी।
अब एक ही बात रह जाती हैं। सवाल होता हैं कि क्या सर्वहारा का एकतन्त्र या
सोवियत शासन सदा रहेगा या आगे चलकर खत्म हो जायेगा?
जब उसका लक्ष्य हैं वर्ग-विहीन समाज बनाना ही, तो उसमें सफल तो वह हो हीगा।
चाहे देर हो या अबेर हो यह बात होगी ही। और यह भी मानते हैं कि सभी सरकारें
किसी एकवर्ग की ही होती हैं। ऐसी हालत में वर्ग विहीन समाज में वर्गों के
मिट जाने पर सरकार के लिए गुंजा हीश रही नहीं जाती। जब सर्वहारा नाम का कोई
वर्ग रहेगा ही नहीं, तो फिर उसकी सरकार कैसी? उसका एकतन्त्र कैसा? यदि कहा
जाये कि तब वह भी मिट जायेगी, तो सवाल होता हैं कि कैसे? इस पर हम खुद न
कहकर एंगेल्स की जो किताब 'सरकार की उत्पत्ति' (The origin of state) नाम
वाली हैं उसी में जो कुछ कहा हैं उसे ही यहाँ उध्दृत कर देना उचित समझते
हैं। वह लिखता हैं-
''सर्वहारा लोग शासन-सूत्र को हथियाने के बाद ही उत्पादन के साधनों (जमीन,
कल-कारखानों आदि) को सरकार, राष्ट्र या समाज की सम्पत्ति बना डालते हैं।
लेकिन ऐसा करके वे अपना सर्वहारा वाला रूप खुद ही मिटा देते हैं (कोई भी
सर्वहारा रहने पाता नहीं), सभी वर्ग-विभेदों तथा वर्ग-विरोधों को भी खत्म
कर देते हैं और अन्त में खुद सरकार को भी सरकार के रूप में मिटा देते हैं।
इसका अर्थ यह हैं कि विभिन्न समयों में अपने उत्पादन की बाहरी हालत को कायम
रखने और इसीलिए खासतौर से शोषित वर्ग को जबर्दस्ती दबा रखने और गुलाम,
शर्तबन्द या खेती के गुलाम और वेतन के गुलाम बना रखने के लिए-क्योंकि
विभिन्न समयों की उत्पादन-प्रणाली इस बात का निश्चय करती हैं कि वे किस रूप
में दबाकर रखें जाये-जिस संगठन की जरूरत शोषकवर्ग को होती हैं अब उस रूप
में सरकार रहने नहीं पाती। ऐसा माना जाता हैं कि समूचे समाज का सम्मिलित
प्रतिनिधित्व कानूनी तौर पर सरकार ही करती हैं (वह समस्त समाज की चुनी हुई
कही जाती हैं)-अर्थात सरकार समाज का ही एक ठोस रूपान्तर कही जाती हैं लेकिन
यह तो इसीलिए होता हैं कि अपने समय में वह शोषक वर्ग ही अपने आप को समूचे
समाज का सम्मिलित प्रतिनिधि मानता हैं और सरकार उसी की अपनी होने से वह भी
ऐसी ही कही जाती हैं। दृष्टान्तार्थ, पुराने समय में गुलाम रखनेवाले लोगों
की सरकार थी। मध्ययुग में सामन्त सरदारों और रईसों की थी और हमारे समय में
पूँजीपतियों की हैं। लेकिन जब आखिरकार यह सचमुच ही समूचे समाज का असली
प्रतिनिधित्व करती हैं तब इसकी निरर्थकता स्वयं सिद्ध हो जाती हैं। ज्यों
ही ऐसा हो गया कि समाज में कोई भी वर्ग ऐसा रही नहीं गया जिसे दबा रखा
जाये, ज्यों ही किसी वर्ग का सबों पर प्रभुत्व और उसी के साथ पुराने
समयवाली उत्पादन की अराजकता और गड़बड़ी के चलते होने वाले स्वकीय रक्षार्थ
संघर्षों की जरूरत जाती रही और इन्हीं से होने वाली भिड़न्तों और ज्यादतियों
का भी खात्मा हो गया, कि दबा रखने योग्य कोई भी चीज रही नहीं गयी। इसीलिए
एक खास ढंग की दमनकारी शक्ति या सरकार की कोई जरूरत बचती ही नहीं। समाज की
ओर से सभी उत्पादन के साधनों के हथिया लेने का जो पहला काम समाज की ओर से
ही करने में सरकार की जरूरत होती हैं वही उसका, यानी उस सरकार का आखिरी
स्वतन्त्र काम सरकार के रूप में समझा जाना चाहिए। इसके बाद तो धीरे-धीरे
एके बाद दीगरे समाज के हर विभाग के सामाजिक सम्बन्ध में सरकार का कोई काम
रही नहीं जाता (सब काम उसके बिना ही चलते रहते हैं) और वह खुद मुर्दा बन
जाती हैं। जहाँ पहले लोगों पर शासन होता था वहाँ अब उसके बदले चीजों का
प्रबन्ध और उत्पादन के तरीकों की हिदायतों की ही जरूरत रहती हैं (यही बात
होती हैं)। (इस प्रकार देखते हैं कि) सरकार मिटायी नहीं जाती। वह तो
खुद-ब-खुद मिट जाती हैं-विलीन हो जाती हैं। ''जनता की स्वतन्त्र सरकार'' से
यही मतलब हमें समझना होगा, फिर चाहे ऐसा करने का मौका समय-समय पर आन्दोलन
के औचित्य को सिद्ध करने के लिए आये, या यह बताने के लिए कि वैज्ञानिक रूप
से आखिरकार यह बात अपूर्ण ही हैं क्योंकि सरकार स्वतन्त्र हो ही नहीं
सकती-वह एक वर्ग के हाथ में जो होती हैं। अराजकतावादी जो कहते हैं कि
बात-बात में सरकार को मिटा देना चाहिए उसका भी यही मतलब मानना चाहिए।''
रचनावली 5 : भाग -
7a
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