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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-5 सम्पादक - राघव शरण शर्मा क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा संयुक्त मोर्चा - A हमने जो किसानों के बारे में लिखते हुए लेनिन का वचन दिया था कि पूँजीवाद की पूर्ण प्रगति के युग में पूँजीवादी प्रधानत:-in the main-क्रान्ति-विरोधी हो जाते हैं उसका महत्त्व बहुत कुछ हैं। उसका स्पष्ट मतलब यही हैं कि साम्राज्यवादी युग में पूँजीवादियों से क्रान्तिकारी काम करने की आशा नहीं की जा सकती हैं। वह तो जमींदारी मिटाना नहीं चाहते। यदि यह बात हो भी तो दाम देके जमींदारी खरीद लेने के पक्षपाती वे लोग हैं। क्योंकि जमींदारी यदि यों ही छीनकर मिटा दी जाये तो खतरा यह हैं कि उनके कल-कारखाने भी छीन लिये जायेगे। इस प्रकार यम का रास्ता खुल जायेगा यही डर उन्हें बना रहता हैं। इसी तरह सर्वहारा के एकतन्त्र के सिलसिले में लेनिन का दूसरा वचन हमने दिया हैं, जिसमें यह बात कही गयी हैं कि एक ओर जमींदार और धनी किसान मिल के छोटे-छोटे किसानों को तथा मध्यम किसानों के कुछ अंश को भी अपनी ओर खींचना चाहते हैं। दूसरी ओर मजदूर (सर्वहारा) खेत-मजदूरों तथा गरीब किसानों के साथ मिल के उन्हें अपनी ओर खींचना चाहते हैं। अन्त में जिसका बल ज्यादा होता हैं उसी की तरफ छोटे किसान तथा मध्यम किसानों का वह भाग खिंच जाता हैं। रूस में किसानों को जमीन देने के बाद मध्यम किसानों की संख्या बहुत ज्यादा हो जाने के कारण स्तालिन ने उन्हें आखिर अपनी ओर मिलाया और इस प्रकार सम्मिलित खेती के जरिये समाजवाद को वहाँ मजबूत किया हैं। वहाँ के सभी मध्यम किसान, न कि उनका केवल एक ही भाग, स्तालिन के दल का-सर्वहारा का-साथी बन गया। खेत-मजदूर और गरीब किसान तो पहले से ही साथी थे। नई आर्थिक-व्यवस्था के बाद धीरे-धीरे बाकियों को उसने अपने साथ कर लिया। देहात का बहुमत बिना उनके आये स्तालिन के पक्ष में हो नहीं सकता था। क्योंकि रूस उस समय मध्यम किसानों का ही देश हो गया था। भूखे, गरीब किसान या खेत मजदूर तो रहने नहीं पाये थे। वे तो जमीन मिलने के पहले ही वहाँ थे और उन्हीं को क्रान्ति के बाद जमीन मिली। इतना कहने का हमारा कुछ खास मतलब हैं। ईधर सन 1934 ई. में नात्सीवाद और फासिज्म के बहुत ज्यादा जोर पकड़ने पर सभी मुल्कों के पूँजीवादियों में, जो एकतन्त्र को पसन्द नहीं करते और लोकमतमूलक शासन के हामी हैं, मजदूरों, किसानों और निम्न-मध्यमवर्गीयों में आतंक छा गया कि संसार में तानाशाही शासन की ही तूती बोलने लगेगी। इसीलिए सबों ने अपना विरोध तत्काल दबाकर नात्सियों एवं फासिस्टियों के विरुद्ध मिल के लड़ने का फैसला किया, करना शुरू किया। फ्रांस और स्पेन में यह बात कुछ हद तक अमल में भी लायी गयी। जब वे पूँजीवादी मजदूरों वगैरह के साथ मिल के लड़ते थे तो उसके लिए कोई आधार पहले ही तय कर लिया जाता था कि विजय होने पर फलाँ-फलाँ बातें की जायेगी। जिन बातों में सभी की राय मिल जाती उन्हीं पर समझौता होके उन्हीं के अनुसार अमल होने की बात तय हो जाती थी। बाकी बातों में सभी दलों को आजादी थी कि अपने-अपने सिद्धान्त के अनुसार प्रचार और काम करें। इसे ही यूनाइटेड फ्रण्ट या संयुक्त मोर्चा कहने की रिवाज चल पड़ी हैं। इसमें भी आगे चल के मतभेद हुए हैं कि यह संयुक्त मोर्चा हो तो किनमें हो। कुछ लोग कहते हैं यह तो समान स्वार्थवालों का ही हो सकता हैं। इसका मतलब यह हैं कि पूँजीवादियों के साथ मजदूरों का स्वार्थ मिल सकता नहीं। फिर संयुक्त मोर्चा कैसा? वे तो एक-दूसरे के जानी-दुश्मन हैं। फलत: मजदूरों का ही संयुक्त मोर्चा हो सकता हैं-यानी मजदूरों की जितनी पार्टियाँ हैं उनका संयुक्त मोर्चा इसे ही वे वर्कर्स फ्रण्ट कहते हैं। इसमें किसान भी आ सकते हैं। वे भी शोषित ही तो ठहरे। दूसरे दल का कहना हैं कि समान शत्रु के विरुद्ध लड़ने में स्वार्थ का मेल तो हो ही जाता हैं। यदि और नहीं, तो उस शत्रु को पछाड़ना ही क्या कम बात हैं? वह तो दोनों को ही खत्म करना चाहता हैं। फिर दोनों मिलें क्यों नहीं? एक-एक करके दोनों को ही वह चट कर जायेगा-दोनों ही खत्म हो जायेगे। चतुर शत्रु तो यही करता हैं कि विरोधियों में भेदनीति और फूट से काम लेके उन्हें मिलने नहीं देता। फिर एके बाद दीगरे सबों को मार गिराता हैं। कुशल लोगों का तो यही काम हैं कि पहले से ही मिल जाये। विपत्तियाँ परस्पर विरोधियों को ख़ामखाह एक साथ कर देती हैं। इसके बिना फासिज्म या नात्सीवाद का मुकाबिला किया जा सकता ही नहीं। यह भी सम्भव हैं कि अनेक छोटी-मोटी स्वार्थ की और बातों में भी एक राय हो जाये, जैसा कि फ्रांस और स्पेन में हुआ था, जहाँ पूँजीवादी, किसान और मजदूर साथ मिल के लड़ते रहे। इसे ही जनता का, लोगों का या जनवादी सुयंक्त मोर्चा या पापुलर फ्रण्ट कहते हैं। इन दोनों के बारे में किताबें लिखी जा चुकी हैं। बड़े-बड़े खण्डन-मण्डन होते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं हैं कि पहले इस संयुक्त-मोर्चे की चर्चा नहीं होती थी। खुद स्तालिन ने चीन के बारे में कहते हुए सन 1927 के अगस्त में ही संयुक्त मोर्चे (United Front) की बात बार-बार कही हैं। लेनिन के लेखों में भी यह बात स्पष्ट मिलती हैं। मेल, समझौता, दोस्ती-आदि की चर्चा पायी जाती हैं। खुद मार्क्स और एंगेल्स ने 1848 में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो प्रकाशित करने के बाद जो व्याख्यान कम्युनिस्ट लीग में दिया था उसमें भी यह बात पायी जाती हैं। यह ठीक हैं कि इस बात को बार-बार दुहराना और तोते की तरह रटना जितना आजकल पाया जाता हैं उतना पहले मिलता न था। पहले तो वस्तुस्थिति को समझ तथा परिस्थिति को देख के अलग-अलग या मिलके काम करने की बात लोग कह दिया करते थे। न तो पहले पार्टियों की इतनी भरमार थी और न लीडरी की इतनी बीमारी, कि ग्रामोफोन की तरह ये बातें जपी जाये। आज तो इसकी अति हो गयी हैं और बिना पूर्णत: परिस्थिति का अध्ययन किये ही लोग चटपट संयुक्त मोर्चा चिल्लाने लगते हैं। यह तो आज एक तरह की गुलामी तथा पार्टी के प्रचार की चीज हो गयी हैं। यदि दूसरों को गाली देना हुआ तो भी इसी की ओट में वह काम आसानी से किया जाता हैं। इस संयुक्त मोर्चे की असली बुनियाद तो यह हैं कि आजादी और क्रान्ति के लिए जो लड़ाई लड़ी जाये उसमें कौन-सी हिकमत की जाये कि लड़नेवालों की ताकत ज्यादा-से-ज्यादा हो जाये, उनके साथी अधिक से अधिक हो जाये। इसी के साथ यह बात भी हो कि शत्रु अकेला-हो जाये और जो उससे मिलना चाहें वह भी भक्कू बन के हिम्मत ही हार जाये तभी तो विजय आसानी से और जल्दी हो सकती हैं। अपने लक्ष्य का पूरा-पूरा ख्याल रख के ही यह बात की जाती हैं। नहीं तो इसका कोई भी मतलब हो सकता नहीं। जब हमारा लक्ष्य ही नहीं रहा, या उसके सिद्ध होने का रास्ता ही साफ न हो सका, तो यह संयुक्त मोर्चा कैसा? तब तो यह दूसरों की गुलामी या पागलपन के सिवाय और कुछ हो सकता नहीं। हमें तो पद-पद पर यह सोचना होगा कि अपनी ताकत को कहाँ लगायें, किन-किन शक्तियों से इसमें मदद लें, किसे अपनी संरक्षित सेना-बनायें और समझें, लड़ाई के समय अपनी फौज को किस अनुकूल स्थान में कैसे खड़ा करें और दुश्मन की चालों से कैसे बचें कि जल्द-से-जल्द विजय प्राप्त हो। जिसे युद्ध विज्ञान में सेना-विन्यास-चातुरी कहते हैं उसी के भीतर यह संयुक्त मोर्चा भी आ जाता हैं। इसीलिए संयुक्त मोर्चे की बात उठाने तथा सोचने के पहले हमें अपनी लड़ाई के सभी कदमों, सभी दौरानों, सभी शक्लों और सभी परिस्थितियों पर पूरा-पूरा गौर कर लेना होगा। इसका नेतृत्व कब किसके हाथ में रहेगा यह भी तय कर लेना पड़ेगा। यह सबसे पहली और बुनियादी बात इस संयुक्त मोर्चे के सिलसिले में समझ जानी चाहिए। तभी यह निश्चय किया जा सकेगा कि कौन कदम कब उठेगा, कौन सीढ़ी कब खत्म होगी और कब शुरू होगी, कौन दौर कब आयेगी और उसमें कहाँ तक किससे कितनी सहायता मिलेगी। फिर तो सब काम वैसे ही होगा और औरों के साथ मैत्री भी उसी तरह की जा सकेगी। दृष्टान्त के लिए रूसी क्रान्ति की बात ले सकते हैं। उस क्रान्ति की दो सीढ़ियाँ या दौरें थीं जिन्हें पूँजीवादी क्रान्ति और सर्वहारा क्रान्ति या जनतन्त्र-क्रान्ति और समाजवादी कहते हैं। पहली तो शुरू हुई सन 1902 से ही जबकि छोटे रूस तथा केन्द्रीय कृषि प्रदेश के किसानों ने उस साल के वसन्त में ही उत्पात शुरू कर दी। और यह चालू रही ठेठ 1917 की फरवरी (आधुनिक मार्च) तक। दूसरी दौर का श्रीगणेश मार्च से ही शुरू होकर 1917 के अक्टूबर (आधुनिक नवम्बर) में पूरा हुआ। पहला समय जनतन्त्र क्रान्ति का और दूसरा सर्वहारा क्रान्ति का माना जाता हैं। नवम्बर के बाद तो सर्वहारा क्रान्ति के उद्देश्य को ही पूरा करने-समाजवाद तथा साम्यवाद के स्थापित करने-की तीसरी दौर मानी जाती हैं। पहली दौर में जारशाही और जमींदारशाही के विरुद्ध लड़ना और उसे खत्म करना ही लक्ष्य था और यह था तात्कालिक। क्योंकि आखिरी लक्ष्य तो सदा यही था कि किसानों और मजदूरों के हाथ में शासन ला के समाजवाद एवं साम्यवाद की स्थापना करना, इस तरह वर्गभेद को मिटाकर वर्ग-विहीन समाज को स्थापित करना और मानव-जीवन को सुखमय एवं मंगलमय बनाना। सारांश यह कि 'वसुधौव कुटुम्बकम्' को अक्षरश: चरितार्थ करना यही अन्तिम ध्येय था। इस युद्ध का नेतृत्व किसे प्राप्त होना था यह भी बात जानने की हैं। यह ख्याल रखना जरूरी हैं कि नेतृत्व के बारे में चरम लक्ष्य का ख्याल करके ही उसे निश्चित किया जा सकता हैं। इस तरह वर्गविहीन समाज ही जब चरम लक्ष्य हैं और उसी ओर बढ़ना हैं तो शुरू से लेकर अन्त तक नेतृत्व तो सर्वहारा का ही होगा। क्योंकि उसे दूसरों के हाथ में जाने पर युद्ध की गाड़ी भटक जायेगी और दूसरी ओर चली जायेगी, जैसा कि फ्रांस वगैरह में हुआ। उन देशों में मध्यमवर्ग या पूँजीवादियों का ही नेतृत्व होने के कारण ही गड़बड़ी हुई और क्रान्ति का अन्तिम लक्ष्य खटाई में पड़ा ही रह गया। वे लोग समाजवाद से डरते जो थे। रूस में शुरू से ही सर्वहारा का ही नेतृत्व रहा और काम भी ठीक हो गया। इस काम में सर्वहारा का साथ केवल रूसी किसान दे सकते थे। क्योंकि जमींदारी मिटाकर जमीनें लेने की इच्छा उन्हीं को थी। गरीब, धनी सभी किसानों को जमीन की चाह थी। इसीलिए सभी साथ दे सकते थे। निम्न-मध्यम श्रेणी के बाबुओं को भी साथ लिया जा सकता था। हालाँकि वे लोग थे कुछ आगा-पीछा करने वाले। मगर जारशाही और जमींदारशाही से ऊबे रहने के कारण वे उसके शत्रु थे। उनका खास स्वार्थ कोई था ही नहीं। मगर रूस के पूँजीवादी भरसक जार पर दबाव देकर अपने लिए अधिकार प्राप्त करना चाहते थे। क्रान्ति से वे स्वभावत: डरते थे। इसीलिए समझौते से ही काम निकालना चाहते थे। जार पर दबाव डालने के लिए जितने क्रान्तिकारी कामों की जरूरत थी उतना ही करने को वे लोग राजी थे। मगर वह भी दबे पाँव से। बराबर यह चाहते थे कि जो भी लड़ाई हो उसमें हमारा प्रभुत्व रहे, लड़ाई हमारे कब्जे से बाहर न जाये। लड़नेवालों को अपने कब्जे में रख के ही लड़ें और जभी समझौते का मौका देखें रोक दें। जब जार नहीं मानता था, तो ऊब के वे लोग भी लड़ने को तैयार हो जाते थे सही। मगर फिर इस डर से कि कहीं लड़नेवाली ताकतें हमारे हाथ से बाहर न चली जायें-क्रान्ति दूर तक न बढ़ जाये-वे लोग रुक जाते थे। इस प्रकार सदा 'राम खुदैया' (wavering) करते थे। इसीलिए किसानों को और मध्यमवर्ग को अपनी ओर मिलाना चाहते थे। ताकि जार पर दबाव डालकर सुलह करें। मगर उस समय मजदूरों ने पूँजीवादियों की एक भी न चलने दी और किसानों को अपनी ओर मिला के पूँजीवादियों को अकेला तथा भक्कू बना दिया। इन दोनों के मेल का यह नतीजा हुआ कि निम्न-मध्यम श्रेणी के बाबू लोग भी उधर न जा सके। इस प्रकार किसानों तथा मजदूरों का संयुक्त मोर्चा बना, जिसमें मजबूरन टुटपुँजिये बाबू भी शामिल हुए। यही बात लेनिन के निम्न वाक्य में कही गयी हैं, जिसका मतलब क्रान्ति निरूपण के अवसर पर लिख चुके हैं। वह लिखता हैं- “The proletariat must push the democratic revolution through to an end inducing the mass of peasanry to join forces with the workers, in order to break the power of autocracy and to overcome the vacillation of the bourgeoisie.” यहाँ साफ नजर आता हैं कि सर्वहारा का नेतृत्व कायम रहा। इसीलिए समझौता न होकर क्रान्तिकारी ढंग से ही जारशाही और जमींदारशाही का खात्मा हुआ, जिससे क्रान्ति को आगे बढ़ने का मौका बना रहा। समझौता होने पर यह बात नहीं होती और क्रान्ति की गाड़ी कीचड़ में फँस जाती। इसलिए यही संयुक्त मोर्चा कहा जाता हैं। किसानों और मजदूरों को हड़ताल वगैरह करने की पूरी आजादी इसमें थी और यही तो ठीक था। किसान जबर्दस्ती जमीनें छीनते थे और इसमें उन्हें रोक करनें के बजाये प्रोत्साहन मिलता था। मगर हमारे यहाँ तो अजीब बात हैं। मजदूरों और किसानों को अपने हक के लिए हड़ताल, बकाश्त संघर्ष आदि के जरिये सीधी लड़ाई लड़ने से रोक के ही कांग्रेस के लीडर और उनके दोस्त निराले क्रान्तिकारी लोग संयुक्त मोर्चा कायम करना चाहते हैं। यह तो गुलामी हैं और क्रान्ति की गाड़ी को कीचड़ में फँसाना हैं। इसे संयुक्त मोर्चा क्यों कर कहा जाये? रूस में पहली क्रान्ति के बाद मार्च में ही जब सर्वहारा क्रान्ति की दौर शुरू हो गयी तो अब जारशाही के बजाये रूसी पूँजीपतियों से ही युद्ध करना था। इससे पहले मजदूरों और किसानों का खूब अच्छा संगठन न होने तथा उनमें पूरी वर्ग-चेतना के अभाव के कारण ही शासन मालदारों के हाथ में चला गया। मगर वे काँपते थे और मजदूर किसानों की ताकत बनी थी। इसी में तो भविष्य की आशा थी, जब पूँजीपतियों के हटाने का यत्न चला, तो उनने निम्न-मध्यम श्रेणी के बाबुओं को मिला के अपनी हस्ती कायम रखनी चाहीए। ईधर बड़े-बड़े किसानों (कुलकों) को भी अब भय हो गया कि कहीं हमारी जमीनें न छिन जाये वे इस बात की कोशिश करने लगे कि गरीब किसानों को और खेत-मजदूरों को या तो जमीनें मिलें ही न, बहुत ही थोड़ी-थोड़ी मिलें। ज्यादा जमीनें वे खुद हथियाना चाहते थे। फलत: खेत-मजदूर, गरीब किसान और छोटे किसान घबराकर सर्वहारा के पास जाते और कहते कि बाबा, हमें भी जमीनें दिलाओ। असल में उनका संगठन न होने के कारण ही कुलकों से उनका पार पाना कठिन था। इस प्रकार किसानों में ही दो दल हो गये और गरीब किसानों या खेतहीनों को साथ लेके सर्वहारा ने उन्हें संगठित किया। इस समय खतरनाक थे निम्न-मध्यम श्रेणी के ही लोग। यही लोग दुतरफी करते थे। कभी मालदारों की ओर जाते और डर के कभी मजदूरों की ओर आते। मगर खेत-मजदूरों तथा छोटे और गरीब किसानों को अपने साथ मिला कर सर्वहारा ने इन्हें त्रास्त किया और दबाया। फलत: ये कुछ न कर सके और पूँजीवादी अकेले पड़ जाने से हार गये। तात्कालिक सरकार और सोवियट के साथ जो मार्च और नवम्बर के बीच कशमकश होती रही वह यही हैं और निम्न-मध्यम वर्ग की दुहरी नीति तथा दोमुहिया चाल के चलते ही आठ महीने लग गये, जब पूँजीपति हारे। यहाँ भी मजदूरों और गरीब किसानों का संयुक्त मोर्चा बहुत ही उचित था। यही बात लेनिन ने पहले के उध्दृत वचनों के बाद ही यों कही हैं- इन दोनों दौरों में संयुक्त मोर्चा सर्वहारा के साथ हुआ वह उचित इसलिए था कि सर्वहारा का नेतृत्व कायम रहा। इसीलिए लेनिन ने यह कहा कि सर्वहारा-वर्ग अपने साथ मिलने के लिए किसानों और गरीबों तथा अर्ध्द-सर्वहारा को राजी करता हैं, प्रेरित करता हैं। मगर हमारे यहाँ तो कुछ क्रान्तिकारी नेता इस बात की जी-जान से कोशिश करते हैं कि पूँजीवादियों तथा निम्न-मध्यमवर्गीयों का ही नेतृत्व रहे और उन्हीं के साथ जाकर सर्वहारा और गरीब लोग दु:खी किसान वगैरह-मिलें। यह एक निराली बात हैं और हमें इस पर हँसी भी आती हैं और ताज्जुब भी होता हैं। क्रान्तिकारी बनने का दावा छोड़ के यदि यह बात वे लोग करें तो आश्चर्य नहीं होगा। मगर ऐसी बात हमेशा होती आयी हैं। पूँजीवादियों ने और खासकर टुटपुँजिये बाबुओं ने सदा यह कोशिश की हैं कि किसानों तथा मजदूरों का न तो जुदा और स्वतन्त्र संगठन हो और न उनके आन्दोलन की अलग कोई हस्ती हो। वे तो अपनी दुम बनाकर ही किसान-मजदूरों तथा उनके आन्दोलनों को रखना चाहते हैं। क्योंकि इसी से उनकी ताकत बनती हैं। कम्युनिस्ट लीग के सामने जो लेक्चर मार्क्स का तथा एंगेल्स का पहली बार हुआ था और जिसमें कम्युनिस्ट लीग का कार्यक्रम बताया गया था उसमें यह कहा गया हैं कि- ''इस वक्त जबकि जनतन्त्रवादी निम्न-मध्यमवर्गीयों का सर्वत्र विरोध हो रहा हैं, वे सर्वहारा को उपदेश देते हैं और प्रोत्साहित करते हैं कि उनके साथ वे लोग (सर्वहारा) मेल-जोल और एकता स्थापित करें। वे चाहते हैं सबों को मिला के एक ऐसी विरोधी पार्टी बनायें, जिसके भीतर लोकतन्त्र चाहनेवाले सभी दलों के लोग शामिल हों। इसका साफ अर्थ यह हैं कि वे लोग सर्वहारा को फँसा के एक ऐसी पार्टी के संगठन में डालना चाहते हैं जिसमें आमतौर से आजादी, स्वतन्त्रता, समानाधिकार, समाजवाद आदि के सूचक शब्दों का जाल फैला के उन्हीं के पर्दे में उन निम्न-मध्यमवर्गीयों के अपने स्वार्थ छिपे रहें और शान्ति, तथा आपसी एकता के बहाने, उसमें सर्वहारा की अपनी खास माँगों का जिक्र होने न पाये। मगर ऐसी एकता तो एकमात्र उन निम्न-मध्यमवर्गीय लोगों के ही फायदे की होगी और सर्वहारा के लिए जहर का काम करेगी। ऐसा होने पर तो संगठित मजदूर वर्ग अपने कठिन त्याग बल से प्राप्त आजादी को खो के उन बाबुओं के ही स्वार्थों और संगठनों का पुछल्ला बन जायेगा। इसलिए ऐसी एकता और मेलजोल का विरोध दृढ़ता के साथ करना ही होगा। ''मालदारों के संगठनों और चालबाजियों का गुणगान करने में पड़ जाने के बजाये मजदूरवर्ग और खासकर कम्युनिस्ट लीग को चाहिए कि उन मध्यमवर्गीयों की संस्थाओं से जुदा अपनी स्वतन्त्र तथा गुप्त एवं कानूनी मजदूर पार्टी संगठित करें। मजदूरों के हर समुदाय में श्रमिक समाज का अपना केन्द्र और अव बनायें और वहीं पर मालदारों के प्रभाव से बच के स्वतन्त्र रूप से मजदूर दल के स्वार्थों और रुखों पर बहस-मुबाहसा करें ! मजदूरों के साथ की जानेवाली उस दोस्ती और एकता की कितनी कम परवाह ये जनतन्त्रवादी मालदार और उनके दोस्त करते हैं, जिस दोस्ती में मजदूर लोग उनके बराबर के साझीदार हों और उन्हें उन्हीं के समान हक तथा दर्जा हासिल हो, इस बात का पता ब्रेसला के निवासी उन लोकतन्त्रवादियों के रुख से लग जाता हैं, जो अपने समाचार-पत्र 'ओदरजीतंग' के जरिये हमारे उन मजदूरों पर हमला करते हैं जिनका अपना स्वतन्त्र संगठन हैं और जिन्हें वे मखौल के रूप में सोशलिस्ट हक के बहुत ही बुरी तरह सताते हैं।'' आजकल के नकली और धोखेबाज संयुक्त मोर्चे का, जिसकी हद से ज्यादा चर्चा हमारे अभागे देश में होती हैं, कितना नग्न वर्णन इन वाक्यों में हैं ! मार्क्सवाद के प्र्रवर्त्तकों ने इस बात का भंडाफोड़ इसमें बड़ी बेरहमी से करने के साथ ही शोषितों-किसान-मजदूरों-केर् कर्त्तव्यों का भी सफाई से करने के साथ निर्देश किया हैं। यदि हम इण्डियन नेशनल कांग्रेस और उसके नेतृत्व की ओर नजर दौड़ायें और इस बात का भी ख्याल करें कि क्रान्ति, साम्यवाद और समाजवाद की पुकार मचानेवाले निम्न-मध्यमवर्ग के बाबू लोग उस कांग्रेस के भीतर रहने तथा उसके साथ संयुक्त मोर्चा कायम करने पर जोर देते हैं, तो ऊपर लिखी सारी बातें अक्षरश: घट जाती हैं। केवल आजादी, स्वतन्त्रता आदि मधुर एवं मोहक शब्दों के जाल के पीछे मालदारों तथा उनके दोस्तों का कितना गहरा स्वार्थ भरा हैं और उसका पर्दा किस बेरहमी से ऊपर के वाक्य करते हैं ! जो लोग कांग्रेस को ही संयुक्त मोर्चा कहने की हिम्मत करते हैं उनकी इस चालबाजी की कलई ये वचन बखूबी खोल देते हैं ! सहसा यही प्रतीत होता हैं कि हमारे देश की ही आज की हालत को मद्देनजर रख के मार्क्स और एंगेल्स बोल रहे हैं ! मगर आज के सौ साल पूर्व के ये वचन आज भी इसीलिए सही उतरते हैं कि इतिहास की पुनरावृत्ति हुआ ही करती हैं। उनने कमानेवालों की स्वतन्त्र संस्थाएँ और उनके स्वतन्त्र संगठन बनाने पर जो हद से ज्यादा जोर दिया हैं और इस नकली एवं खतरनाक संयुक्त मोर्चे का दृढ़ता के साथ विरोध करने का जो आदेश दिया हैं वह हमारे लिए पथप्रदर्शक और बड़े काम की बात हैं। हम इसे भूल कर ही धक्के खा रहे हैं ! अब भी चेतें तो काम चले ! हमें इस संयुक्त मोर्चे के सम्बन्ध में एक खास बात याद रखनी चाहिए। संयुक्त मोर्चें और तत्काल काम चलाने के लिए कोई बातचीत या समझौता इन दोनों में फर्क हैं। तत्काल काम की बात को ही अंग्रेजी 'अण्डरस्टैंडिंग' कहा हैं। उसे ही 'ब्लॉक' कह के भी पुकारा हैं। यदि 'एलायन्स' शब्द कहीं-कहीं आया हैं तो वह भी इसी मानी में समझा जाना चाहिए। 'यूनिटी' और 'यूनिफिकेशन' शब्द जिस एकता और मेलजोल के मानी में बोले जाते हैं उसी अर्थ में 'यूनाइटेडफ्रण्ट' या संयुक्त मोर्चा बोला जाता हैं। यूनाइटेड फ्रण्ट या संयुक्त मोर्चे में सभी दलों की सारी ताकतें मिल के एक ही संचालक, सेनापति या कमाण्डर की मातहती में लड़ती हैं। वहाँ भिन्न-भिन्न नेतृत्व और संचालन नहीं होता। जैसे गत महासमर में फ्रांस तथा इंग्लैंड की सेनाओं को अन्त में मिला के एक ही प्रधान सेनापति फील्ड मार्शल कोश का नेतृत्व स्थापित किया गया था। आज भी चीन में चियांग कै शेक या क्यूमिटांग तथा कम्युनिस्ट पार्टी की सेनाओं को मिला के केवल चियांग कै शेक के ही हाथ में नेतृत्व दिया गया हैं। वहाँ दो स्वतन्त्र सेनापति हैं नहीं। यही तो यथार्थ में संयुक्त मोर्चा हैं। मगर जहाँ पहली बात हैं और कुछ देर के ही लिए तत्काल कामचलाऊ मेल-जोल कर लिया गया हैं, 'अण्डरस्टैंडिंग' हो गयी हैं, वहाँ तो कोई बात हैं नहीं। वहाँ दोनों दलों की स्वतन्त्र हस्ती, उनके स्वतन्त्र संगठन, स्वतन्त्र कार्यक्रम वगैरह ज्यों के त्यों बने रहते हैं। कोई किसी के बारे में चूँ तक नहीं करता, किसी को कुछ भी बोलने का हक नहीं रहता। सिर्फ इतना ही तय रहता हैं कि लड़ाई के लम्बे मोर्चे पर कहाँ और कैसे कौन-कौन दल रह के लड़ेंगे। ताकि दोनों की शक्तियों का पूरा-पूरा प्रयोग हो और किसी की भी शक्ति का जरा भी दुरुपयोग या उसकी व्यर्थता न हो। आपस में बात तय न होने पर एक ही स्थान पर दोनों की ताकतें व्यर्थ में लग सकती हैं और उनकी बेकार क्षीणता हो सकती हैं इसी बात को लक्ष्य करके मार्क्स और एंगेल्स ने ऊपर लिखे वाक्यों के बाद ही यों कहा हैं- ''सारांश यह हैं कि सर्वसाधारण शत्रु पर हमला करने की बात अगर आ जाये तो इसके लिए किसी खास ढंग की एकता जरूरी नहीं हैं। उस समय तो ऐसे शत्रु से लड़ने में मध्यमवर्ग और मजदूर वर्ग-दोनों ही-के स्वार्थ मिल जाते हैं। फलत: तत्काल कामचलाऊ राय-मशविरा करके दोनों ही दल इस लड़ाई को चलायेंगे ही। पहले भी ऐसा ही होता आया हैं और आगे भी होगा। यह बात पक्की हैं कि आगे की भयंकर भिड़न्तों में भी पहले की ही तरह, अपनी हिम्मत, दृढ़ संकल्प और त्याग के बल पर, मजदूर लोग ही विजय प्राप्त करने में प्रधान लड़नेवाले होंगे। जैसा कि अब तक हुआ हैं वैसा ही आगे भी निम्न-मध्यम श्रेणी के लोग आमतौर से कादरता, आगा-पीछा और अकर्मण्यता का रुख तब तक अख्तियार करेंगे जब तक सम्भव होगा (ताकि लड़ाई का सामूहिक रूप हो जाने से वह उनके कब्जे के बाहर न हो जाये), जिससे विजय के निश्चित होते ही वह यह दावा कर सके कि इसे उनने प्राप्त किया हैं और मजदूरों को यह आदेश दे सकें कि शान्त रहें, अपने कामों पर चले जाये, तथाकथित ज्यादतियों (अत्याचारियों के घर-बार को जलाना आदि) से बाज आयें और इस प्रकार वे (श्रमिक) लोग विजय के फल से महरूम रहें। मजदूरों की शक्ति के बाहर की यह बात हैं कि लोकतन्त्रवादी निम्न-मध्यमवर्गीयों को ऐसा करने में उस समय रोक सकें। लेकिन वे इतना तो अवश्य कर सकते हैं कि सशस्त्र मजदूरों के माथे पर यों ही चढ़ बैठना इन बाबुओं को कठिन हो जाये। श्रमिक लोग इन बाबुओं को ऐसी शर्तें मानने के लिए विवश भी कर सकते हैं जिनके चलते उनका लोकतन्त्र शासन शुरू से ही अपने विनाश के कीटाणुओं को अपने भीतर पैदा कर लें, जिससे अन्त में उसकी जगह सर्वहारा के शासन का स्थापित हो जाना बहुत कुछ आसान हो जाये। ''लड़ाई के समय में और फौरन ही उसके बाद मजदूरों का सबसे बड़ा कर्त्तव्य यह हैं कि जहाँ तक हो सके इस बात की कोशिश जरूर करें, ताकि मध्यमवर्गीयों के द्वारा समझौते की कोशिश सफल न हो सके और इन लोकतन्त्रवादियों को विवश करें कि जो आतंकवाद फैलाने की धमकियाँ देते हैं उन्हें पूरा करें। (अर्थात उनकी धमकियों से डरें नहीं)। उन्हें इस तरह काम करना होगा कि विजय के बाद ही फौरन क्रान्तिकारी सरगर्मी खत्म न हो जाये। विपरीत इसके ज्यादा-से-ज्यादा देर तक इसे कायम रखने की कोशिश उन्हें करनी होगी। पूर्वोक्त तथाकथित ज्यादतियों का विरोध करना तो दूर रहे और जिन मकानों या आदमियों के बारे में लोग घृणा से याद करते हैं उन्हें सार्वजनिक प्रतिशोध का शिकार बनने से रोक करनें की बात कौन चलाये, ऐसे कामों को न केवल होने ही देना चाहिए, प्रत्युत उनका संचालन खुद अपने हाथों में लेना होगा। युद्ध के समय तथा उसके बाद भी मजदूरों को हर मौके से लाभ उठा के पूँजीवादी लोकतन्त्रवादियों की माँगों के अलावे अपनी खास माँगों को भी लोगों के सामने रखना होगा। ज्योंही ये लोकतन्त्रवादी शासन अपने हाथ में ले लें, उनसे मजदूरों के सम्बन्ध की हर तरह की गारण्टी तलब करनी होगी। जरूरत होने पर ये गारण्टियाँ उनसे कबूल करायी जाये। आमतौर से मजदूरों को यह ख्याल भी रखना होगा कि नये शासक अपने आपको तरह-तरह की सुविधाओं के लिए वादे करके उसी में बाँध दे। क्योंकि वही सबसे पक्का उपाय हैं जिससे उनकी कलई खुलेगी। क्रान्तिकारी लड़ाई की सफलता के बाद जो उत्साह और आनन्द का श्वोत नये शासन के लिए उमड़ता हैं उसमें मजदूर लोग बह न जाये यह ख्याल रहे। नई परिस्थितियों का ठण्डे दिल से गम्भीर विचार करके उन्हें अपने इस उमंग को मिटा देना होगा और नई सरकार के प्रति अपने अविश्वास को खुल्लम खुल्ला प्रदर्शित करना होगा। नियमित रूप से बनी सरकार के अलावे उन्हें स्थानीय कार्यकारिणियों या सार्वजनिक कौंसिलों, मजदूर क्लबों या मजदूर कमिटियों के रूप में अपनी क्रान्तिकारी सरकार भी कायम करनी होगी। ताकि सिर्फ यही न हो कि फौरन ही पूँजीवादियों की लोकतन्त्र सरकार मजदूरों के सारे समर्थन से हाथ धो बैठे। बल्कि अपने जन्म के ही समय से वह अपने को ऐसे अधिकारियों की देख-रेख और धमकियों के नीचे पाये, जिनके पीछे मजदूर वर्ग का विराट समूह खड़ा हो। संक्षेप में विजय के क्षण से ही हमें अपने पुराने पराजित दकियानूस दुश्मनों के ऊपर अविश्वास का प्रदर्शन करना छोड़के अपने पुराने साथियों पर ही उसे प्रकट करना होगा-उस पार्टी के खिलाफ हमें अपना अविश्वास जाहिर करना होगा जो अब सार्वजनिक विजय का उपयोग केवल अपने ही स्वार्थ साधन के लिए करना चाहती हैं।'' हमें यहाँ यह बात याद दिला देना जरूरी हैं कि मार्क्स और एंगेल्स का यह और इससे पहले का समूचा उपदेश संसार के मजदूरों के भावी कार्यक्रम के रूप में ही उसी सिलसिले में हैं। न कि यह किसी खास देश, समय, या मौके के लिए हैं। मजदूरों के ही द्वारा यह समस्त शोषितों तथा पीड़ितों के सम्बन्ध में भी अक्षरश: लागू हैं, फिर चाहे वह मजदूर हों, किसान हों या दूसरे ही कोई। जैसे कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो उन्हीं दो महानुभावों के द्वारा समस्त संसार के मजदूरों के नाम में शोषितों एवं पीड़ितों के लिए भविष्य के लिए पथदर्शक सिद्धान्त के रूप में तैयार किया गया हैं, तैसे ही फौरन उसके बाद उन्हीं सिद्धान्तों को अमली तथा व्यावहारिक रूप देने के लिए यह कार्यक्रम बताया गया हैं। लेकिन अफसोस तो यह हैं कि जहाँ बहुतेरे लोग मैनिफेस्टों को मन्त्र की तरह जपते रहते हैं, तहाँ उसके व्यावहारिक स्वरूप इस कार्यक्रम को या तो जानते ही नहीं, या भूल जाते हैं। इसी से सारी गड़बड़ियाँ और दिक्कतें पेश आती हैं। अब अगर हम इस कार्यक्रम को गौर से देखते हैं तो हमारी आँखों का पर्दा खुल जाता हैं। जो लोग संयुक्त मोर्चा और आजादी की लड़ाई के नाम पर किसानों के संघर्षों, प्रदर्शनों और मजदूरों की हड़तालों, सीधी लड़ाईयों को फूटी आँखों भी न देख सकरनें के कारण चाहे जैसे हो बन्द करवाना चाहते हैं उनकी असली सूरत का पता इस आईने में चल जाता हैं। इसके बाद यह कहने की तो जरूरत रही नहीं जाती कि वे लोग किनके दोस्त हैं, किनके आदमी हैं। शोषितों एवं पीड़ितों के तो हर्गिज-हर्गिज हो नहीं सकते, चाहे और किसी के भले ही हों। जब हमने-किसानों तथा मजदूरों ने-कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों के बनने पर प्रदर्शन शुरू किये और साफ-साफ अपने रुखों से हमने बता दिया कि उन पर हमारा विश्वास नहीं होता और इसके लिए अनेक ज्वलन्त उदाहरण भी ताजे-ताजे ही पेश किये, तो हम पर देश द्रोह का इल्जाम लगाया गया और कहा गया कि हम तो आजादी की लड़ाई को कमजोर करते हैं। हम देश में दुश्मनों से जा मिले हैं यह इल्जाम भी हम पर थोपा गया। कांग्रेस को हम कमजोर करते हैं यह आरोप मामूली था। हालाँकि हमने मन्त्रिमण्डल के ही विरुद्ध ऐसा किया था। और अगर अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस भी उसमें खिंच आती थी, तो हम लाचार थे। उसने मन्त्रियों को ठीक-ठीक चलाया क्यों नहीं? कांग्रेस की चुनाव घोषणा और फैजपुर के प्रोग्राम को वह एक प्रकार से भूल क्यों गयी, जहाँ तक किसानों और मजदूरों का ताल्लुक था? और अगर भूली तो शिकायत उसकी न होती तो और किसकी होती? हमने तो उस पर रहम की, जो प्रत्यक्ष आरोप नहीं लगाया। अभी जो कुछ मार्क्स और एंगेल्स का उपदेश बताया गया हैं उसके मुताबिक तो कांग्रेस की ही शिकायत होनी जरूरी थी-अनिवार्य थी। इससे तो उसने साफ सिद्ध कर दिया कि वह शोषितों और पीड़ितों की अपनी संस्था हर्गिज नहीं हैं। किन्तु लोकतन्त्रवादी पूँजीपतियों की ही हैं। उसके जो लक्षण अभी-अभी मार्क्स और एंगेल्स ने बताये हैं वे अक्षरश: घट गये। यों तो उसके नेता ऐसा दिखाने की कोशिश करते ही हैं कि गाय शोषितों एवं पीड़ितों के ही लिए मरे जा रहे हैं। इन वचनों में यह भी कहा गया हैं कि सर्वसाधारण शत्रु के साथ लड़ने में तात्कालिक समझौता या बातचीत और परामर्श हो जाने से ही काम चल जायेगा। एकता या संयुक्त मोर्चे की जरूरत नहीं हैं। यदि यहाँ राष्ट्रवादी नेताओं को इसकी जरूरत हैं कि साम्राज्यशाही से लड़ा जाये तो यहाँ भी संयुक्त मोर्चे का क्या सवाल हैं? क्या राय परामर्श से काम नहीं चलेगा? उन्हें यकीन रखना चाहिए कि हमें-शोषितों और पीड़ितों को-तो हर हालत में लड़ना ही हैं। चाहे वे लड़ें या न लड़ें। और अगर उन्हें भी यही करना हैं तो फिर घबराने की क्या बात हैं? यहाँ तो दोनों ही एकमत हो जायेगे और लड़ेंगे ही। असल में तो वही लड़ना नहीं चाहते। मार्क्स और एंगेल्स ने तो यह भी कहा हैं कि हमें सारी शक्ति लगाकर समझौते को रोकना होगा। जब कांग्रेसी मन्त्रियों ने बिहार में जमींदारों के साथ खुलेआम समझौता कर लिया और बम्बई में मिलवालों के साथ भी यही किया, तो फिर हमारा काम तो यह ख़ामखाह हो गया कि उनका पर्दाफाश करें। इसमें मुरव्वत या आगा-पीछा की गुंजा हीश कहाँ थी? और यह करके हमने गलत किया क्या? संयुक्त मोर्चे के टूटने का सवाल ही वहाँ कहाँ था? वह वो चाहते ही थे कि हम किसानों और मजदूरों की लड़ाई छोड़ के उनकी ही हाँ में हाँ मिलायें। मगर यही तो खतरनाक चीज थी जिसे हमने खूब समझा। हम उनकी स्तुति और तारीफ के पुल क्यों बाँधते? इस कार्यक्रम में जो यह कहा गया हैं कि हमेशा तो मजदूर या कमानेवाले ही लड़ते रहे हैं और आगे भी वही लड़ेंगे; दृढ़ता, त्याग और हिम्मत तो वही रखते हैं; इसलिए लड़ाई में सफलता दरअसल उन्हीं के करते मिलती हैं; मध्यवर्गीय लोग तो बगलें झाँकते, आगा-पीछा करते और लड़ाई से दुबकते हैं; सो तो ठीक ही हैं। हम तो यहाँ यह नज़ारा ईधर बराबर देख रहे हैं। इस समय अच्छे से अच्छा मौका मिला था कि जमकर लड़ें। मगर उनको हिम्मत कहाँ? उन्हें तो रह-रह के सुलह, अहिंसा और शत्रु को परेशान न करने की हूक उठती रहती हैं और हमें हैं आजादी न मिलने की हूक; भूख, गरीबी, पामाली की हूक। फिर संयुक्त मोर्चे का सवाल ही कहाँ? यहाँ तो ''कहु रहीम कैसे बनै केर-बेर को संग। वे सुख झूमै आपने इनके काटत अंग'' वाली बात हैं। मार्क्स एंगेल्स ने ठीक ही कहा हैं कि लड़ाई तेज होने में उन्हें खतरा रहता हैं कि कहीं उनके काबू से बाहर न चली जाये, जरूरत से ज्यादा आगे बढ़ न जाये। क्योंकि तब कब्जे में रह जो न जायेगी। फिर यह दावा ये मालदार और उनके दोस्त कैसे कर बैठेंगे कि विजय उनने प्राप्त की हैं? उनकी तब सुनेगा कौन? यही बात तो यहाँ भी हैं। अब तो हमारे नेता जनता से ही, किसानों और मजदूरों से ही डरने लगे हैं। ये लोग जाग जो गये हैं। फलत: आँखें मूँद के तेली के बैल की तरह निश्चित दायरे के भीतर चलाये जा नहीं सकते। इस नकली संयुक्त मोर्चे की बात से हमें चीन की बात याद हो आती हैं। 1927 के पहले ही वहाँ की कांग्रेस जिसे क्यूमिनटांग कहते हैं, की नीयत खराब हो चली थी। क्योंकि वहाँ के जबर्दस्त किसान आन्दोलन तथा मजदूरों के संगठन से उसके लीडरों को अपने नेतृत्व पर खतरा नजर आता था। उसी समय रूस से कम्युनिस्टों के केंद्रीय संघ, कोमिन्टर्न ने वहाँ के किसानों तथा मजदूरों के लिए हिदायतें भेजीं। असल में 1925 के मध्य में जून से लेकर सितम्बर तक शंघाई और हांगकांग में मजदूरों की ऐसी जबर्दस्त राजनीतिक हड़तालें हुईं कि साम्राज्यवादियों में आतंक छा गया था। इसकी सम्भावना पहले तो थी नहीं। बात यों हुई कि जैसे भारत में कांग्रेसी नेताओं ने 1921 और 1930 में आम जनता को उभाड़ के अपना काम निकालना चाहा। ठीक वैसे ही चियांग ने भी वहाँ मजदूरों की हड़तालें करवा के साम्राज्यवादियों पर धाक जमायी। मगर जब देखा कि अब बात बेढंगी हो रही हैं, मजदूर आगे बढ़ रहे हैं तो वह घबराया जैसे यहाँ हो रहा हैं। इसीलिए क्यूमिनटांग के नेता चियांग कै शेक और उसके दोस्त घबराये। बाद में भी इसी तरह की और भी घटनाओं ने उनके कान खड़े कर दिये। नतीजा यह हुआ कि उनने 1927 के मार्च-अप्रैल में मजदूरों और किसानों तथा उनके नेताओं का कत्लेआम शुरू किया और जून आते-आते उन्हें क्यूमिनटांग से निकाल के शासन हथिया लिया। क्यूमिनटांग के केन्द्र-स्थान कैन्टन में ही यह बात हुई। हैंकाऊ में भी आतंक राज्य स्थापित हो गया। इसे ही चियांग कै शेक का 'कूदिताह' कहते हैं। वह चीन का सर्वेसर्वा (तानाशाह) बन बैठा। इस तूफानी घटना-चक्र के पहले ही लक्षण-कुलक्षण देख के कोमिन्टर्न ने चीन के कम्युनिस्टों के पास यह हिदायत भेजी थी कि- ''क्यूमिनटांग की और फौजवाली कम्युनिस्ट शाखाओं को भी क्रियाशील बनाना जरूरी हैं। जहाँ ये न हों वहाँ संगठित की जाये, जहाँ भी ऐसा करना सम्भव हो। जहाँ ऐसा न हो सके वहाँ गुप्त कम्युनिस्टों की ही मदद से हलचल तेज करना जरूरी हैं। ''यह जरूरी हैं कि हम मजदूरों और किसानों को शस्त्रास्त्रा से सज्जित करने की ओर बढ़ें; स्थानीय किसान सभाओं को ही वास्तविक शासन संस्था बनाने में लग जाये और अर्ताथ उन्हें आत्मरक्षा के लिए संगठित करें। ''सभी जगह खुद कम्युनिस्ट पार्टी का ही यह काम करना होगा। अपने आपको स्वयं अर्ध्द-कानूनी बनाना ठीक नहीं। जनता के सामूहिक आन्दोलनों को रोकना कम्युनिस्ट पार्टी का कर्त्तव्य नहीं हैं। क्यूमिनटांग के दक्षिण पन्थियों की क्रान्तिविरोधी और धोखेबाज नीति पर पर्दा डालना इस पार्टी का फर्ज नहीं हैं। किन्तु इस नीति का भण्डाफोड़ करने के लिए यह जरूरी हैं कि क्यूमिनटांग और कम्युनिस्ट पार्टी के इर्द-गिर्द जनता को सामूहिक रूप से तैयार किया जाये। ''जो मजदूर क्रान्ति में ईमानदारी से विश्वास करते और तदर्थ काम करते हैं उनका ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट करना जरूरी हैं कि इस समय विभिन्न वर्गों की ताकतों की नई गुटबन्दी होने तथा साम्राज्यवादी फौजों के जमाव के करते चीन की क्रान्ति खतरे के समय से गुजर रही हैं और इसकी प्रगति तभी सम्भव हैं जबकि जन-आन्दोलन को तेज करने और बढ़ाने के लिए निश्चित ढंग से काम किया जाये। नहीं तो क्रान्ति के ऊपर भयंकर तबाही के शनिचरी नजर पड़ी हैं। इसीलिए जो नीति निर्धारित की गयी हैं उस पर अमल करना आज और समयों की अपेक्षा कहीं ज्यादा आवश्यक हैं।'' यहाँ यह जान लेना चाहिए कि क्यूमिनटांग में तो सभी दल के लोग थे और जनता के नाम पर ही काम करते थे, जैसा कि यहाँ कांग्रेस करती हैं। और उन्हीं पर विश्वास करके जनता चुपचाप अपने काम-धन्धों में लगी रहती थी। इसमें उसके लिए खतरा था। क्योंकि अधिकांश नेता लोग तो पूँजीवादी थे और मनोवृत्ति भी उनकी ऐसी ही थी। इसलिए आदेश दिया गया हैं कि क्यूमिनटांग के इर्द-गिर्द जनता तैयार की जाये। इसका मतलब यह हैं कि जनता को उसके स्वार्थ समझाये जाये और वह हर घड़ी तैयार रह के क्यूमिनटांग की हरकतों तथा उसके नेताओं की चालों पर कड़ी नजर रखे। वह विश्वास में सोयी न रहे। अर्ताथ उसके प्रदर्शन, जुलूस और सभाएँ की जाये, जहाँ उसकी माँग बराबर दुहरायी जाये। यह काम वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी ही करवा सकती थी। क्योंकि किसानों और मजदूरों की अपनी पार्टी वहाँ वही थी। क्यूमिनटांग तो सबकी खिचड़ी थी। इसीलिए यह भी कहा गया हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी के भी इर्द-गिर्द जनता तैयार की जाये। पार्टी अपने ही नाम में खुल के यह काम करे और इस प्रकार किसानों तथा मजदूरों का नेतृत्व हासिल करे, यही इस आदेश का मतलब हैं। इसीलिए यह भी कहा गया हैं कि जब तक पार्टी गैर-कानूनी करार न दे दी जाये तब तक लुक-छिप के काम करना नाम या अर्ध्द कानूनी होगा और यह बात ठीक नहीं हैं। चीनी क्रान्ति के लिए जो बहुत बड़ा खतरा 1927 के फरवरी-मार्च महीनों में नजर आ रहा था उसके लिए एक ही उपाय बताया गया हैं। वह यह हैं कि दक्षिणपन्थी नेताओं की धोखेबाजी और प्रतिगामी कार्यों की पोल खोली जाये और इसके लिए सामूहिक आन्दोलन को रोक करनें के बजाये कम्युनिस्ट लोग खुद इसे संगठित करें और चलायें। दक्षिण पन्थियों के साथ जो संयुक्त मोर्चा या समझौता कई साल से चला आ रहा था उसके करते कहीं वे लोग इस काम में आगा-पीछा न करें, इसीलिए जन-आन्दोलन को बढ़ने की बात कही गयी हैं। जब तक यह आन्दोलन खूब विस्तृत न हो क्रान्ति बच नहीं सकती। यह बात स्पष्ट रूप से कही गयी हैं। यहाँ एक बात और भी ध्यान देने योग्य हैं। क्रान्ति के रक्षार्थ यह कहा गया हैं कि क्यूमिनटांग की सरकार और शासन-व्यवस्था के बावजूद गाँवों की किसान सभाओं को स्वतन्त्र शासन संस्थाओं का रूप दिया जाये और किसानों को आत्म रक्षार्थ अस्त्र-शस्त्र से सज्जित किया जाये। इसका मतलब यह हैं कि सोवियटों की जगह ये किसान सभाएँ हो जाये और वही क्रान्ति के लिए लड़ें तथा शासन भी चलायें। इस बात की तैयारी करने की बात कही गयी हैं। जिस संयुक्त मोर्चे की दुहाई दी जाती हैं उसी के समय में यह बात करने को कही गयी हैं। इस बात पर और प्रकाश आगे डाला जायेगा। मगर यह तो साफ हैं कि अभी-अभी बताये मार्क्स एंगेल्स के उपदेशों की ही पाबन्दी पर इसमें जोर दिया गया हैं कि स्वतन्त्र सरकार बनाओ। आगे बढ़ने के पूर्व चीन की उस समय की परिस्थिति पर थोड़ा संक्षिप्त प्रकाश डालना जरूरी हैं। तभी ये और आगे बातें समझ में आ सकेंगी। यह जान लेना चाहिए कि बीसवीं सदी में भी चीन छोटे-छोटे किसानों का ही देश रहा हैं। वहाँ के 80 फीसदी किसानों के खेतों की यह हालत रही हैं कि उनके ये नन्हे-नन्हे खेत इतने छोटे हैं कि 5 से लेकर 40 तक टुकड़ों को एक किसान जोतता हैं। खूबी तो यह हैं कि ये टुकड़े कभी-कभी एक-दूसरे से मीलों दूर होते हैं। यह बात कैसी हैं यह हम तब समझ पाते हैं जब जान जाते हैं कि चीन के गरीब किसानों के पास कितनी जमीन होती हैं। यहाँ के वर्तमान कम्युनिस्ट लीडर मावसेतुंग ने अपनी जीवनी के सिलसिले में बताया हैं कि उनका बाप जब मध्यमवर्गीय किसान था तो उसके घर के कुल पाँच आदमियों के लिए पन्द्रह माऊ जमीन थी। एक माऊ प्राय: एक एकड़ के छठे भाग के बराबर होता हैं। इसके साफ मानी हैं कि मुश्किल से ढाई-तीन एकड़ जमीन होने पर ही वे मध्यम किसान कहे जाते थे। और जब उनने सात माऊ और खरीद ली तो उनकी गिनती धनी किसानों में हो गयी। धन ही तो वहाँ की प्रधान उपज हैं और एक माऊ में मोटा-मोटी चार तान या साढ़े छ: मन धन होता हैं और हर आदमी के लिए प्राय: सात तान धन साल भर के खाने के लिए चाहिए। इससे साफ हैं कि गरीबों के पास तो एक ही डेढ़ एकड़ जमीन होगी और अगर उसी के तीस-चालीस टुकड़े मीलों में जहाँ-तहाँ फैले हैं या एक-दूसरे से कभी-कभी मीलों दूर हैं तो उसकी कैसी दशा होगी। लेकिन खेती की बड़ी इज्जत होने के कारण वे उसमें लगे रहते हैं। दूसरा उपाय भी तो जीविका का नहीं हैं। कहा जाता हैं कि संसार में इतने छोटे खेत किसी देश के किसानों के पास नहीं हैं। पैदावार भी सबसे कम वहीं होती हैं। उद्योग-धन्धों की यह हालत हैं यांगसी नदी या पीली नदी के तट पर और प्रधान बन्दरगाहों के शहरों में-चीन के प्रधान व्यापारिक केन्द्रों में-अंग्रेजों, फ्रांसीसियों, जर्मनों, अमेरिकनों और जापानियों के अड्डे, उनकी मिल, बस्तियाँ और जहाजी बेड़े रहते हैं। 1914 की लड़ाई में केवल जर्मन बेदखल हो गये और उनकी जगह जापानी या दूसरे आ गये। इन सबने मंचूराज वंश के ही समय असाधारण सुविधाएँ प्राप्त कर ली थीं। इनके अपने मुकदमे इन्हीं की अदालतें करती थीं। चीनी सरकार कुछ न कर सकती थी। इन असाधारण अधिकारों को ही अंग्रेजी में एक्स्ट्रा टेरिटोरियल राइट्स कहते हैं। इनमें कुछ तो अब खत्म हो गये हैं। मगर कुछ हईं। व्यापार तो अधिकांश उन्हीं के हाथ में हैं। चीनी मध्यमवर्ग के ही लोग वहाँ इन्हीं विदेशियों की दलाली और एजेन्सी करते रहे हैं। इन्हें अंग्रेजी में कम्प्रादर कहते हैं। यही लोग उन व्यापारियों तथा जनता के बीच काम करते हैं। 1920 और 1930 के बीच चीन में कपड़े या रूई की मिलें 58 से 127 हो गयीं और दूसरी फैक्टरियों की तादाद भी 673 से 1975 हो गयी थी। फिर भी 1930 में भी चीन की चौथाई रेलों, तीन चौथाई लोहे की खानों तथा कोयले की आधी खानों पर विदेशियों का ही कब्जा था। कपड़े की मिलों की आधी से ज्यादा पूँजी, उससे कुछ कम ऊनी मिलों की पूँजी तथा आटे की मिलों, तम्बाकू की फैक्टरियों और बैंकों की पूँजी विदेशियों की ही थी। खानों और मिलों में काम की यह हालत हैं कि बारह से पन्द्रह घण्टे तक रोजाना काम मजदूरों से लिया जाता हैं। कोयले की खानों में भी बारह घण्टे रहना होता हैं। बीच में दो-तीन बार थोड़ी-थोड़ी देर के लिए मजदूर खाने-पीने निकलते हैं। बच्चों और औरतों से भी आम तौर से काम लिया जाता हैं। शंघाई की मिलों आदि में 70 फीसदी औरतें ही काम करती हैं ! ज्यादे से ज्यादा मजदूरी जो खानों में ही दी जाती हैं और वह हैं चालीस सेण्ट या प्राय: डेढ़ रुपये रोज। मजदूरों की ट्रेड यूनियनें बनने नहीं पाती हैं कि उनके लिए लड़ें। 1918 से ही कुछ-कुछ ट्रेड यूनियनें बनने लगी थीं। 1925-26 में वे काफी मजबूत थीं जब हांगकांग, शंघाई, हैंकाऊ आदि में उनने विदेशियों के छक्के छुड़ा दिये और चियांग को विजयी बनाया। मगर चियांग कैशेक ने उन्हें 1927 के बाद मिटा दिया। बेशक जहाँ तक सोवियट शासन था, मजदूरों को पूरा आराम था। लेकिन व्यापारिक केन्द्रों पर तो कम्युनिस्टों का शासन था ही नहीं। फलत: मजदूरों की बुरी गति थी। केवल क्यांगसी प्रान्त में 1934 तक सोवियट शासन रहा। यदि शंघाई आदि में मजदूरों की हड़तालें होती थीं तो विदेशी साम्राज्यवादियों की फौजों और जहाजी बेड़ों के सिपाही उन पर गोलियाँ दाग के उन्हें ठण्डे कर देते थे। उनको कोई रोक सकता न था। सन 1911 ई. की पहली चीनी क्रान्ति के बाद मंचू राजवंश का तो अन्त हो गया और शासन सूत्र डाँ. सनयात सेन की क्यूमिनटांग पार्टी के हाथ में आ गया। मगर उनके पास संगठित सेना न होने तथा भीतरी मतभेदों के कारण वह शासन फिर उनके हाथ से निकल के मालदारों, डाकू सरदारों और उनके दोस्तों के हाथ में 1915 में चला गया। युआन शिहकाई नामक फौजी सेना नायक प्रेसिडेण्ट बन बैठा। डाँ. सनयात सेन परेशान थे। कोई उपाय न सूझने पर उनने 1921 में अमेरिका, इंग्लैंड और जापान से आर्थिक सहायता चाहीए। ताकि अपने क्यूमिनटांग दल का पूरा संगठन करें। मगर किसी ने उन पर विश्वास नहीं किया। क्योंकि वे तो किसानों और मजदूरों के हाथ में शासन देना चाहते थे। इसी से उन्हें सहायता नहीं मिली। अंग्रेजों की ज्यादा कोठियाँ यांग्सी नदी के किनारे और शंघाई वगैरह में मध्य चीन में थीं। वहाँ के डाकू सरदार और विद्वान् वूपेईफू को रुपये-पैसे देके उन लोगों ने अपने पक्ष में रखा। उसी का शासन उस अंचल में था भी। उसी पैसे से उसकी फौजें अंग्रेजों की पीठ पर तैयार रहती थीं। उधर उत्तर में मंचूरिया के डाकू सरदार चांगसोलिन को जापान ने मिला लिया था। रुपये-पैसे उसी को वह देता था। 1918 से 1922 तक चांगसोलिन का वहाँ बड़ा ही दबदबा था। 1904-5 वाले रूस-जापान युद्ध में उसने जापान को काफी मदद की थी। पीछे चीन सरकार के मातहत होने पर भी जापान से उसे घूस मिलता ही रहा। मुकदन में उसकी राजधनी थी और वहीं अस्त्र-शस्त्र का एक बड़ा कारखाना उसने बना लिया था, जिससे अपना काम लड़ाई में चलाता था। चीन के उत्तरी प्रान्तों पर जिनकी राजधनी पेकिंग (आज का पीपिंग) हैं, अधिकार जमाने के लिए वूपेईफू और चांगसोलिन की लड़ाई बराबर रहती थी। वूपेई का कब्जा हैंकाऊ से पेकिंग जाने वाली रेल तथा यांग्सी की लम्बी घाटी पर था। चांगसोलिन की तरह उसके पास भी हानयांग में अस्त्र-शस्त्र बनाने का कारखाना था। पहली बार 1920 में दोनों के युद्ध में चांग जीता और पेकिंग पर उसने दखल जमाया। मगर जब 1920 में फिर लड़ाई हुई तो चांग हार के मंचूरिया भाग गया। इसमें वूपेई की जीत का कारण उसका ईसाई जनरल फेंगहूसियांग था। इसलिए वू ने उसे ही पेकिंग को गद्दी दे दी। 1924 में पुनरपि चांगसोलिन ने पेकिंग पर धावा किया। उधर वूपेई भी पहुँचा। फिर भी चांग हारा। मगर इस बार फेंग ने अपने सरदार वूपेई को भी धाकिया के पेकिंग पर निष्कंटक शासन जमाया। वूपेई हैंकाऊ भाग गया। फेंगहूसियांग ने पेकिंग में वैसा ही शासन जारी किया जैसा कि कैन्टन में क्यूमिनटांग पार्टी का था। वह शुद्ध डाकू सरदार नहीं था। उसने धीरे-धीरे सोवियट रूस से दोस्ती भी की और जब 1926 में चांगसोलिन और वूपेईफू दोनों ने गुटबन्दी करके पेकिंग पर धावा किया तो फेंगहूसियांग तो मास्को भाग गया और उसकी सेना बड़ी दिक्कत से उत्तर पश्चिमीय चीन के भाग में जैसे-तैसे जा पहुँची और वहीं रही। उधर जब डाँ. सनयात सेन को किसी ने मदद न दी तो 1921 में ही सोवियट रूस से उनने मदद माँगी। यह जान लेना चाहिए कि पहले से ही डाँ. सनयात सेन ने अपनी राष्ट्रीय सभा या पार्टी बना ली थी जिसका नाम क्यूमिनटांग था। इस चीनी शब्द का अर्थ हैं राष्ट्रीय जनसंघ या पार्टी। ठीक यह वैसी ही हैं जैसी कि भारतीय कांग्रेस। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी भी बाकायदा 1921 में ही बनी, जिसे कुंग चांग टांग या भाग-उत्पादन-दल कहते हैं। लेनिन के साथ डाँ. सनयात सेन की बातचीत बराबर चालू रही और 1924 में दोनों की रजामन्दी से क्यूमिनटांग का नये सिरे से संगठन हुआ, जिसमें कम्युनिस्ट लोग भी शामिल हुए। कैन्टन में ही राजधनी रही। कैन्टन के पास ही हम्पोआ में फौजी काँलेज खोल के किसानों और मजदूरों को सैनिक शिक्षा दी जाने लगी। उसी काँलेज का प्रिंसिपल चियांग कैशेक था। काँलेज ने काफी फौजी जवान तैयार करके क्यूमिनटांग की सेना खड़ी कर दी और क्वांगटुंग प्रान्त में, जिसकी राजधनी कैन्टन थी, अमन शान्ति स्थापित हो गयी। इस तरह चीन के दक्षिणी भाग में क्यूमिनटांग का प्रभाव था, मध्य में वूपेईफू का और उत्तर में फेंगहूसियांग या यांगस्टोलिन का। बिचले भाग में ही यांग्सी के इलाके में अंग्रेजों का और पोली नदी के अंचल में फ्रांसीसियों का ज्यादा प्रभाव था। जापान का तो उत्तर में ही था। शुरू-शुरू में जब क्यूमिनटांग का पुन: संगठन हुआ तो प्राय: रूस की कम्युनिस्ट पार्टी की ही लाइन पर ही हुआ। मगर पीछे ढीला हो गया। कम्युनिस्टों का पहले उसमें काफी असर भी इसीलिए था। मगर लेनिन और सोवियट रूस की मदद से क्यूमिनटांग का जो नया संगठन हो रहा था उससे उसके सभी मेम्बर खुश न थे। यह ठीक हैं कि रूस से जो संगठन लीडर बोरोडिन वहाँ आया था वह चाहता था कि उसे किसानों तथा कैन्टन के मजदूरों के बल पर उन्हीं की पार्टी बना लें। तभी वह जनता की पार्टी होगी। उन मजदूरों और किसानों का संगठन भी कम्युनिस्टों ने बोरोडिन के नेतृत्व में बहुत सुन्दर किया था। मगर क्यूमिनटांग में जो व्यापारी और मध्यमवर्ग के सदस्य थे वह तो सिर्फ इस फिक्र में थे कि विदेशियों के साथ उनका व्यापार ठिकाने से फायदे के साथ चलता रहे। उन्हें सर्वहारा क्रान्ति की तो जरा भी चिन्ता न थी। बल्कि उसके वे विरोधी थे। इसी से संगठित किसानों तथा मजदूरों की पार्टी वह बने ऐसा वे चाहते न थे। 1925 के शुरू में ही क्यूमिनटांग के भीतर का यह मतभेद जाहिर होने लगा था। मगर उसी साल पेकिंग में मार्च के महीने में चीन तथा क्यूमिनटांग के सबसे बड़े और धुनी नेता एवं मसीहा डाँ. सनयात सेन की मौत हो जाने के कारण सभी मेम्बर शोकाकुल हो गये और कुछ समय के लिए वह मतभेद दब गया। इतने में 1925 की मई में शंघाई की ब्रिटिश फैक्टरी के कुछ मजदूर बर्खास्त कर दिये गये। इस पर बड़ा जबर्दस्त प्रदर्शन हो गया। साम्राज्यवादियों के विरुद्ध इस प्रदर्शन में ज्यादातर विद्यार्थी ही थे और थे वे निरस्त्रा। वहाँ की अन्तर्राष्ट्रीय वाली की विदेशी पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोली दाग दी। इस पर आम हड़ताल और अंग्रेजी माल का बहिष्कार शुरू हुआ। समूचे चीन में ब्रिटेन के विरुद्ध क्रोध की आग भड़क उठी। क्यूमिनटांग के अड्डे कैन्टन के पास ही हांगकांग में अंग्रेजों का बड़ा अड्डा हैं। कैन्टनवालों ने शंघाई की घटना से पैदा हुई उत्तेजना से लाभ उठाकर हांगकांग वाले अंग्रेजों के विरुद्ध भारी प्रदर्शन जून में करवाया। इस पर अंग्रेजी और कैन्टन की फौजों में मुठभेड़ हो गयी और गोली चलने से 52 चीनी मरे तथा 117 जख्मी हुए, ऐसी बात कैन्टन-पक्ष की ओर से कही गयी। फिर तो क्यूमिनटांग दल ने हांगकांग का बायकाट करके वहाँ के तीस हजार चीनी मजदूरों को अपने बाल-बच्चों के साथ कैन्टन वापस कर लिया। इससे अंग्रेजों की फैक्टरियों में वहाँ ताले लग गये। जैसा कि पहले कहा जा चुका हैं, हैंकाऊ में जो डाकू सरदार वूपेईफू था उसका झमेला बराबर ही 1920 से 1926 तक बना रहा। ईधर 1925 के उत्तरार्ध्द में सारे चीन में साम्राज्यवादियों के विरुद्ध घोर तूफान मचा था और चारों ओर हड़तालें हो रही थीं। इसी मौके से फायदा उठा के कैन्टन की क्यूमिनटांग पार्टी की सरकार ने 1926 के जून में निश्चय किया कि यही मौका हैं कि हैंकाऊ पर कब्जा कर लिया जाये। वह मध्य में पड़ता हैं। वहाँ से पेकिंग और शंघाई, नानकिंग वगैरह जाने की रेलें भी हैं। वहीं से कैन्टन को भी रेल जाती हैं। फलत: वहाँ कब्जा होने पर उत्तरी प्रान्त पर आसानी से अधिकार हो सकता हैं। यांग्सी नदी भी इसमें खूब मददगार होगी। हाम्पोआ काँलेज ने फौजी जवानों को लाखों की तादाद में तैयार कर दिया था ही। रूस से शस्त्रास्त्र भी काफी आये थे। चियांग कैशेक के नेतृत्व में उनकी फौजों ने हैंकाऊ पर धावा बोल दिया। वूपेईफू तो पेकिंग की लड़ाई में फँसा था। हैंकाऊ वाली उसकी फौज हार गयी और हैंकाऊ में ही क्यूमिनटांग की राजधनी बनी। हान और यांग्सी का वहीं संगम हैं। चीन का वह वक्षस्थल हैं। हैंकाऊ के पास वृहान में वे लोग जमे। वहीं से उनकी फौजें पूर्व में शंघाई और नानकिंग की ओर बढ़ीं और सर्वत्र कब्जा हो गया। ईधर हैंकाऊ में राष्ट्रीयता का केन्द्र कायम हो जाने से मजदूरों का जबर्दस्त संगठन हो गया। दो ही मास के भीतर हड़तालों का ऐसा ताँता बँधा कि मिलवालों ने हार कर मजदूरों के वेतन डयोढ़े कर दिये। चालाकी से जापानी कारखानों ने ही ऐसा किया। मगर अंग्रेजों की जो सबसे बड़ी सिगरेट फैक्टरी थी उसने ऐसा न मान के कारबार बन्द कर दिया। यांग्सी के किनारे हैंकाऊ, नानकिंग आदि जितने बड़े शहर थे और जहाँ कारखाने थे सर्वत्र बड़ी उथल-पुथल थी। जगह-जगह चीनियों के दल के दल गलियों में प्रदर्शन करते और लाल झण्डों के साथ साम्राज्यवाद विरोधी नारे लगाते फिरते थे। मालूम पड़ता था कि किसी भी क्षण दंगा हो के सभी यूरोपीय विदेशियों की जान खतरे में पड़ सकती हैं। यदि अंग्रेजी जहाजों और फौजों से गोलियाँ दागी जातीं तो और भी आफत होने का खतरा था। शंघाई के अंग्रेजी समाचार पत्र अपनी सरकार पर जोर दे रहे थे कि क्रान्तिकारियों के विरुद्ध घोषणा कर दी जाये। मगर अंग्रेजी सरकार ने देखा कि चीन की समस्त जनता क्यूमिनटांग के साथ हैं। फलत: हैंकाऊ में क्यूमिनटांग के राष्ट्रवादी विदेश-मन्त्री यूजेनचेन से सुलह की बातें करने के लिए अपने दूत ओमाली को ब्रिटिश सरकार ने भेजा। 1927 के शुरू के दिन थे। सम्भवत: मार्च का महीना था। यूजेनचेन ने समझ लिया कि जब अंग्रेज लोग समझौते पर तैयार हैं तो चलो आधा साझा ही सही। सुलह हो गयी। हैंकाऊ, क्यूकियांग आदि स्थानों की सभी विशेष सुविधाएँ अंग्रेजों ने छोड़ दीं। चीनी राष्ट्रवादियों का पूरा अधिकार समूची यांग्सी की घाटी पर हो गया और ऐसा प्रतीत होता था कि सभी विदेशी राष्ट्र चीन से सुलह कर लेंगे। उधर फेंगहूसियांग भी मास्को से लौट कर क्यूमिनटांग से आ मिला। ताकि पेकिंग को हथियाने में पूरी मदद दे सके। इस सफलता के बाद ही चियांग कैशेक का दिमाग आसमान पर चढ़ गया। क्यूमिनटांग में दो पक्ष-दक्षिण और वाम-तो थे ही। दक्षिण पक्ष में व्यापारी, मध्यवर्गीय विदेशियों के एजेण्ट और पढ़े-लिखे लोग थे, जो चाहते थे कि पूँजीवादी प्रणाली के अनुसार शासन चला के विदेशों से व्यापार में फायदा उठाया जाये। दूसरी ओर वाम पक्ष में बोरोडिन, यूजेनचेन और डाँ. सेन की युवती विधवा थी। ये सभी क्रान्ति चाहते थे। ताकि जमींदारी मिटा के सबको खाना कपड़ा दिया जाये और उद्योग-धन्धो स्वतन्त्र रूप से जारी हों। चियांग कैशेक था दक्षिण पक्षियों की ओर फौज भी उसी के हाथ में थी। मगर हैंकाऊ की क्यूमिनटांग में बहुमत था वामपक्षियों का। इसलिए मार्च वाली शंघाई आदि स्थानों की विजय के बाद वह क्यूमिनटांग के दक्षिणपक्षियों से मिल गया और नानकिंग में एक स्वतन्त्र सरकार अप्रैल, 1927 में स्थापित करके हैंकाऊ की सरकार को गैरकानूनी करार दे दिया। ठीक उसी समय, कहा जाता हैं, मास्को से एम.एन. राय भेजे गये कि मामले को सुलझायें। मगर इनके आने के बाद और भी गड़बड़ हो गयी। वामपक्षियों में एकता नहीं रही। कम्युनिस्टों के साथ जो शुरू में समझौता हुआ था उसके अनुसार ही साम्यवाद की बात छोड़ के पूँजीवाद क्रान्ति के ही लिए वे लोग यत्न करते थे। मगर दुर्भाग्य से वहाँ जो मास्को की आज्ञा के नाम पर सर्वहारा क्रान्ति की निराधार पुकार मचायी गयी उसके करते कम्युनिस्टों के भीतर मतभेद हो गया। इसी से लाभ उठा के चियांग कैशेक ने हैंकाऊ में अपनी फौज भेज दी। बोरोडिन, यूजेनचेन, श्रीमती सनयात सेन ने तो मास्को का रास्ता लिया। बाकी में बहुत से क्यूमिनटांग के सदस्यों ने चियांग का साथ दे दिया। जो विरोधी थे उनका कत्लेआम जुलाई में हो गया। किसानों और मजदूरों की संस्थाओं पर आफत आ गयी। ऐसी निर्दयता से कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रहार किया गया कि कुछ कहिये मत। हैंकाऊ से कम्युनिस्टों का सफाया हो गया। रह गया कैन्टन। वहीं पर अपनी सरकार की घोषणा कम्युनिस्टों ने पेरिस कम्यून के ढंग पर 14 दिसम्बर को उसी साल की। मगर चियांग ने वहाँ भी चढ़ाई की और तीन दिन की घोर लड़ाई के बाद वे भी पस्त कर दिये गये। सन 1927 के जून में ही चियांग ने पेकिंग पर भी कब्जा करके उसका नाम पीपिंग रख दिया, जिसका अर्थ हैं उत्तर की शान्ति। मगर निश्चित तौर पर चियांग की राजधनी नानकिंग ही रही। चियांग के मददगार व्यापारी और जमींदार वर्ग थे। उन्हें खुश करने के ही लिए उसने ट्रेड यूनियनों को खत्म कर दिया और जो किसान जमींदारों की जमीनों पर धावा बोलते थे उन्हें तबाह करके वह काम भी बन्द कर दिया। वह कहता था कि अब तो जमींदारों तथा पूँजीपतियों का जुल्म किसानों और मजदूरों पर होने के बजाये किसान और मजदूर ही उल्टे जमींदारों तथा पूँजीपतियों पर अत्याचार करते हैं ! इन्हीं सब काले कारनामों को, जिनके द्वारा चियांग ने अपनी तानाशाही कायम कर ली, चियांग का 'कूदिताह' कहा जाता हैं। मगर कम्युनिस्टों के साथ चियांग का झगड़ा यहीं खत्म न हो के 1937 के उत्तरार्ध्द तक गया, जबकि पुनरपि उन दोनों का संयुक्त मोर्चा जापान से लड़ने के लिए स्थापित हुआ। इस बीच कम्युनिस्टों ने अपना काम जारी रखा और विदेशी यात्रियों तथा लेखकों ने इस बात को आँखों देख के लिखा हैं कि 1931 ई. में यांग्सी के उत्तरी किनारे पर हैंकाऊ से 60 मील पश्चिम से ही सोवियट शासन शुरू होता था और डेढ़ सौ मील तक चला जाता था। यांग्सी के दक्षिण तो कैन्टन तक उन्हीं का शासन था। यहाँ सोवियट का सिक्का, नोट वगैरह चालू था। अपने ही तार, डाक, टेलीफोन, स्कूल, अस्पताल थे और फौज भी थी। इसीलिए चियांग ने एक के बाद दीगरे उन पर प्रधानतया पाँच बार धावे बोले जिनमें कुल मिला के उसकी अट्ठारह से बीस लाख तक फौजें शामिल हुईं और बड़ी तबाही हुई। पहला हमला 1930 के दिसम्बर से 1931 की जनवरी तक एक लाख फौजों से हुआ। दूसरा 1931 के मई-जून में, दो लाख फौजों से; तीसरा उसी साल जुलाई से अक्टूबर तक तीन लाख से; चौथा 1933 के अक्टूबर से 1934 के अक्टूबर तक दस लाख फौजों से किया गया। बीच में पाँच लाख फौजें 1932 में भी चियांग ने भेजीं। मगर इस बार हमला न करके कम्युनिस्टों के हमलों से अपने इलाके की रक्षा का ही काम उन्हें करना पड़ा। इसी को कोई-कोई चौथा हमला कहते हैं। इस प्रकार तो पचीस लाख फौजों ने हमलों में भाग लिया। आखिरी हमले के समय तंग आके कम्युनिस्टों ने 16/10/34 को उत्तर-पश्चिम का ऐतिहासिक महाप्रस्थान किया, जो पूरे एक साल के बाद 20/10/35 में उत्तर शेन्सी प्रान्त में पीली नदी के पश्चिम खत्म हुआ और वहीं पर उत्तर-पश्चिमी चीन में उनने पावआन में अपना शासन जमाया। इस एक साल में उनने पाँच से छ: हजार मील तक की भयंकर यात्रा की और ऐसी बहादुरी से कई बार चियांग के घेरों को रास्ते के विकट स्थानों में पार किया कि आश्चर्य होता हैं और उनकी बहादुरी एवं तत्परता से दिल बाग-बाग हो जाता हैं। यह तो ऐतिहासिक घटना हैं। यह भी नहीं भूलना होगा कि चियांग के सभी हमलों का मुकाबिला उनने आमतौर पर ज्यादे से ज्यादा तीस-चालीस हजार सैनिकों से ही सफलतापूर्वक किया। इस तरह चियांग के नाकों चने चबवा दिये। हमने संक्षेप में जो चीन की परिस्थिति बतायी हैं उससे साफ हैं कि 1924 से लेकर 1927 के मार्च तक का समय वहाँ राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चे का समय माना गया हैं। इसी दरम्यान में कम्युनिस्टों तथा चांग कैशेक के पक्षवालों के साथ मिल के सामन्तशाही, जमींदारी और साम्राज्यशाही के विरुद्ध लड़ने की बात तय पायी थी और क्यूमिनटांग में सभी दल मिल के काम करते थे। इसे सनयात-जाफ़े समझौता कहते हैं, जो 1924 में ही डाँ. सनयात सेन और लेनिन के प्रतिनिधि एडोल्फ जाफे के बीच हुआ था। मगर इस समय के पूरा होने के पहले ही कोमिन्टर्न ने वहाँ के कम्युनिस्टों को हिदायत भेजी कि दक्षिणपक्षियों का भंडाफोड़ करो। क्योंकि वे गड़बड़ी करना चाहते हैं। चियांग वगैरह साम्राज्यवादियों से मिल रहे जो थे। आखिर संयुक्त मोर्चे की कुछ शर्तें होती हैं और कोई लक्ष्य होता हैं। जब उसकी पूर्ति न हो, पूर्ति होने की आशा न हो और एक पक्ष शर्तें तोड़ने को उतारू दीखे तो दूसरा क्यों माने? और जब हमारा लक्ष्य ही पूरा होता न दिखे तो, हम उस संयुक्त मोर्चे को जहन्नुम क्यों न भेजें? जिन हिदायतों का वर्णन पहले आया हैं वह तो च्यांग की शैतानियत खुल्लम-खुल्ला शुरू होने के दो ही मास पहले भेजी गयी थी। मगर पूरा एक साल पहले ही यह अन्देशा मालूम हुआ था कि गड़बड़ी हो रही हैं, होनेवाली हैं। इसीलिए 1926 के अप्रैल में ही कोमिन्टर्न ने यह ताकीद की थी कि, ''क्यूमिनटांग से दक्षिण पन्थी जिस तरह निकाले जा सकें या वे खुद हट जाये वैसा ही काम करना होगा''। इससे और भी साफ हो जाता हैं कि संयुक्त मोर्चा कोई प्रतिज्ञा या शपथ कसम की बात नहीं हैं। यह तो अपने लक्ष्य की सफलता के लिए एक चाल जिसे अंग्रेजी में मैनुवर कहते हैं। फलत: यदि सफलता में कोई गड़बड़ी दीखे तो संयुक्त मोर्चे की दरम्यान में ऐसा उपाय किया जाना चाहिए जिससे दूसरा दल अंटा चित्ता गिरे। आखिर चालों का तो मतलब ही होता हैं कि विरोधी मात हो। और जब वह उस लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ रहा हैं जिसकी सिद्धि के लिए संयुक्त मोर्चा बना था तो उस बीच में ही, पता पाते ही, ऐसा गिराना चाहिए कि लक्ष्य सिद्धि में बाधाँ देने की उसे ताकत ही न रह जाये। खास कर सर्वहारा के नेतृत्व को कायम रखने और सफल बनाने का काम जिसने उठाया हैं उनकी तो जवाबदेही इस मामले में और भी बढ़ जाती हैं। उन्हें बराबर ही आँख खोल रखना हैं और आगे-पीछे, दायें-बायें, नीचे-ऊपर देखते रहना हैं कि उनके उस नेतृत्व में कहीं बाधाँ तो नहीं खड़ी हो रही हैं, कहीं धोखा तो नहीं हो रहा हैं। ऐसा पता चलते ही फौरन उन्हें लड़ने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। यदि सभी माया-मोह और वादों को छोड़कर बेदर्दी और मुस्तैदी से वे ऐसा न करेंगे तो धोखा खा जायेगे। चीन के ही दृष्टान्त से यह बात भी मानी जाती हैं कि उपनिवेशों और गुलाम देशों में क्रान्ति की तीन सीढ़ियाँ, तीन दौरें होती हैं। या यों कहिये कि पूँजीवादी, किसान-क्रान्ति या जनतन्त्र क्रान्ति के ही दो हिस्से हो जाते हैं। सर्वहारा क्रान्ति तो ज्यों की त्यों रहती हैं। उन हिस्सों को सार्वजनिक राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चे का समय और किसान या जनतन्त्र क्रान्ति का समय कहते हैं। जहाँ तक पूँजीवादी या मध्यम वर्ग के लोग मजदूरों और किसानों के संगठन के साथ मिल के लड़ना और काम करना चाहते हैं, तहाँ तक ऐसा होता हैं। ऐसा होने की जहाँ तक सम्भावना और गुंजा हीश होती हैं वहीं तक संयुक्त मोर्चे की दौर या सीढ़ी मानी जाती हैं। उसके बाद संयुक्त मोर्चे का सवाल जाता रहता हैं। सभी लोग अलग-अलग लड़ते हैं। हाँ, ऐसा भी होता हैं कि कभी-कभी मार्क्स और एंगेल्स के शब्दों में तात्कालिक राय परामर्श करके एक साथ भी लड़ते हैं। मगर यह जरूरी नहीं हैं और न इसके होने पर भी कोई खास ढंग की शर्तें इसमें किसी को करनी पड़ती हैं। दोनों पक्षों का नेतृत्व भी अलग-अलग होता हैं। न कि संयुक्त मोर्चे की तरह एक ही नेतृत्व होता हैं। क्योंकि एक नेतृत्व मानने में जैसे क्यूमिनटांग में शामिल होने और उसी के नेतृत्व में लड़ने के समय शर्तें तय पायी थीं, ठीक वैसी शर्तें यहाँ होती हैं नहीं। इसी से यह दूसरी दौर होती हैं और चीनी क्रान्ति की इस समय यही दूसरी दौर मानी जाती हैं। वह इसी दौर से गुजर रही हैं। 1927 की पहली अगस्त को चीन के बारे में रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय (सेण्ट्रल) कमिटी के सामने जो भाषण स्तालिन ने दिया था उसमें कहा था कि- ''लेनिन के अप्रैल वाले मन्तव्यों को लीजिये और आप देखेंगे कि लेनिन ने हमारे (रूसी) रेवोल्यूशन की दो सीढ़ियाँ (दौरें) मानी हैं। पहली पीढ़ी तो पूँजीवादी जनतन्त्र क्रान्ति की थी, जिसका प्रधान धूरा थी किसानों की हलचल-अर्थात वह क्रान्ति किसानों की हलचलों और जमीनें छीनने आदि के ही इर्द-गिर्द घूमती थी और उसका यही प्रधान काम था। दूसरी सीढ़ी थी अक्टोबर क्रान्ति की, जिसमें प्रधान धूरा-प्रधान काम था- सर्वहारा के द्वारा शासन-सूत्र को हथियाया जाना। चीनी क्रान्ति की कितनी सीढ़ियाँ हैं? मेरे जानते वहाँ तीन सीढ़ियाँ होनी चाहिए। पहली तो सार्वजनिक राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चे वाली थी, जिसे कैन्टन-युग भी कहते हैं (क्योंकि कैन्टन ही उस समय राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चे का केन्द्र था)। इस समय क्रान्ति ने अपना प्रधान धक्का विदेशी साम्राज्यवाद पर लगाया और उस समय चीन के राष्ट्रीय पूँजीवादी और मध्यमवर्ग वाले क्रान्तिकारी आन्दोलन का समर्थन करते रहे। दूसरी दौर तो पूँजीवादी जनतन्त्र क्रान्ति की थी, जो उस समय से शुरू हुई जब कि राष्ट्रीय फौजें यांग्सी नदी के इर्द-गिर्द विजयी हो गयीं और जबकि राष्ट्रवादी पूँजीपतियों ने क्रान्ति से मुँह मोड़ लिया। मगर किसानों की हलचल उस समय बड़ी जबर्दस्त हो गयी और करोड़ों किसान उसमें खिंच आये। इस समय चीनी क्रान्ति इसी दूसरी दौर से ही गुजर रही हैं जो (अप्रैल 1927 में शुरू हुई थी)। चीनी क्रान्ति की तीसरी दौर होगी सोवियट क्रान्ति की, जो अभी तक आयी नहीं हैं और पीछे आयेगी।'' यहाँ एक बात जान लेने की हैं कि आमतौर से पूँजीवाद की पूर्ण उन्नति के समय यद्यपि पूँजीवादी लोग क्रान्ति विरोधी हो जाते हैं, जैसा कि लेनिन का वचन पहले दिखाया जा चुका हैं। फिर भी अपवादस्वरूप कहीं-कहीं कुछ पूँजीवादी कुछ समय के लिए परिस्थितिवश क्रान्तिकारी भी बन जाते हैं। लेनिन ने भी 'प्रधानतया' लिखा हैं, जिसका मतलब यही हैं कि आमतौर से तो वही होता हैं। मगर अपवाद स्वरूप कहीं कुछ लोग कुछ ही समय के लिए क्रान्तिकारी काम करते हैं। सो भी अब तो साम्राज्यवाद और आर्थिक पूँजी तथा फासिज्म के युग में खत्म हो रहा हैं। इसीलिए स्तालिन ने उसी भाषण में कहा हैं कि- ''साम्राज्यवादी देशों की क्रान्ति निराली होती हैं। वहाँ का पूँजीवादी दूसरे देशों को सताने वाला होता हैं। इसीलिए वह क्रान्ति की सभी दौरों में प्रतिगामी होता हैं। वहाँ राष्ट्रीयता का भी सवाल नहीं होता, जिसके करते आजादी की लड़ाई चलती हैं। लेकिन उपनिवेशों और पराधीन देशों की क्रान्ति की तो हालत ही जुदी हैं। साम्राज्यवादी देशों का जुआ वहाँ क्रान्ति के लिए प्रेरक होता हैं। वहाँ यह गुलामी राष्ट्रवादी पूँजीपतियों को भी खलती हैं। इसीलिए वहाँ का राष्ट्रवादी पूँजीपति क्रान्ति की किसी दौर में कुछ समय तक साम्राज्यवाद के विरुद्ध चलनेवाली अपने देश की क्रान्तिकारी लड़ाई का समर्थन करे यह सम्भव हैं। वहाँ आजादी की लड़ाई का प्रेरक जो राष्ट्रीयता की भावना हैं वही क्रान्ति का प्रेरक बन जाती हैं।'' स्तालिन ने जो गुलाम देश के पूँजीवादियों के सम्बन्ध में अत्यन्त दबी जबान से दशा विशेष में सिर्फ कुछी समय के लिए क्रान्तिकारी बन जाने की सम्भावना बतायी हैं वह अपवादस्वरूप ही हैं, जैसा कि पहले कह चुके हैं। लेनिन के पूर्व उध्दृत वचन में जहाँ यह लिखा हैं वहीं पर यह भी लिखा हैं कि पूँजीवाद की पूर्ण उन्नति के युग में आमूल परिवर्तनवादी मध्यमवर्गीय सिर्फ एक ही दल हैं, जिसे किसान कहते हैं। किसान भी तो आखिर निम्न-मध्यमवर्गीय या पेट्टी बरूज्वा हैं और पूँजीवादी भी उच्च-मध्यमवर्गीय हैं। किसान को तो जमीन की भूख होती हैं। और वह बिना पैसा- कौड़ी के ही जमीन चाहता हैं। यह भी नहीं कि सिर्फ भुक्खड़ किसान ही चाहता हैं। सुखी, धनी और खाते-पीते किसान भी इसी तरह जमीन चाहते हैं जो बिना छीना-झपटी के हासिल हो नहीं सकती और यही हैं क्रान्तिकारी तरीका। दरअसल गुलाम देश के पूँजीवादी भी यही चाहते हैं कि हम भी साम्राज्यवादी देशों के पूँजीपतियों के समकक्ष हर बात में हो जाये। यही वजह हैं कि उन जैसे ही शासक बनना चाहते हैं और ऐसा न हो सकरनें पर लड़ते हैं। मगर ज्यों ही शासन हाथ में आया, या आने पर भी किसान-मजदूरों का रुख बुरा देखा कि दकियानूस बन गये। नहीं तो लेने के देने जो पड़े। इससे सिद्ध हैं कि गुलाम देशों में जब क्रान्ति की दूसरी सीढ़ी (दौर) शुरू होती हैं तो संयुक्त मोर्चे का सवाल रही नहीं जाता। क्योंकि पूँजीवादी क्रान्ति के विरोधी बन जाते हैं। आज यही दशा हैं चीन की और भारत की भी आज की स्थिति ठीक वैसी ही हैं। क्योंकि किसान क्रान्ति के बिना हमारे देश का भी निस्तार हो नहीं सकता, जैसा कि चीन की बात हैं। मगर यहाँ के पूँजीवादी राष्ट्रवादी यही चीज नहीं चाहते। वे तो इससे डरते हैं। असल में उनका तथा जमींदारों का स्वार्थ एक-दूसरे से मिला हैं। फिर उनके साथ संयुक्त मोर्चा कैसा? वे तो चियांग कैशेक की तरह क्रान्ति से मुँह मोड़ चुके हैं। यही बात पामेदत्ता ने अपनी ताजी पुस्तक 'आज का भारत' में यों लिखी हैं- ''किसान क्रान्ति को अब टाला नहीं जा सकता। नवीन भारत के निर्माण की बुनियाद एवं तदनुकूल परिवर्तन को लानेवाली यही क्रान्ति ही प्रधान आकर्षण शक्ति हैं।'' ''भारतीय पूँजीवादियों की जो अनिच्छा जमींदारी प्रथा मिटाने की जरूरत को कबूल करने में देखी जाती हैं उसका केवल यही कारण नहीं हैं कि जमींदारों के साथ उसका गहरा गठबन्धन हैं और दोनों के स्वार्थ एक ही हैं। किन्तु उन्हें इस बात का डर भी हैं कि किसान क्रान्ति के फलस्वरूप जो ताकतें निकल पड़ेंगी वह उनके वर्ग की खास सुविधाओं तथा पूँजीवादी सम्पत्ति के आधिपत्य एवं शोषण की सारी बुनियाद को ही मिटा देंगी।'' ''हमने भारतीय पूँजीवादियों की आगा-पीछा वाली तथा अविश्वसनीय चालें देखी हैं। उनने जहाँ एक ओर राष्ट्रीय आन्दोलन की सेवा की हैं, तहाँ दूसरी ओर उसे आगे बढ़ने से रोका हैं और साम्राज्यवादी प्रभाव को यहाँ फैलाने का काम किया हैं। राष्ट्रीय युद्ध में मजदूरों और किसानों ने जितना ही अधिक भाग लिया हैं, लड़ाई उतनी ही मजबूत हुई हैं, उसका लक्ष्य उतना ही पक्का तथा समझौता विरोधी सिद्ध हुआ हैं, लड़ाई में उसके दाँव-पेंच उतने ही जबर्दस्त हुए हैं और हमारी माँगों की ओर जबर्दस्ती लोगों का ध्यान खींच लाने की शक्ति उसमें उतनी ही ज्यादा हुई हैं। किसानों और मजदूरों की तरफ से यह काम और भी जितना ही ज्यादा किया जायेगा, सार्वजनिक राष्ट्रीय आन्दोलन में समाजवाद और मजदूरों का नेतृत्व और जोर जितना ही अधिक होगा, किसान आदि दलों में जितना ही ज्यादा एकता होगी, राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रोग्राम तथा आधार क्रमश: जितना ही ज्यादा शोषित जनता के निजी स्वार्थों की तरफ बढ़ता जायेगा और उसे ही प्रगट करेगा, राष्ट्रीय संग्राम की विजय उतनी ही ध्रुव होती जायेगी। राष्ट्रीय युद्ध को केवल सफलतापूर्वक चलाने के लिए ही यह बात जरूरी नहीं हैं। किन्तु पूर्ण स्वतन्त्रता की पक्का-पक्की प्राप्ति के लिए भी यह अनिवार्य हैं।'' ''पचास लाख मैंबरों वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने विस्तृत राष्ट्रीय मोर्चे की सिद्धि के लिए एक ऐतिहासिक प्रगति की दौर को अब तक पूरा कर लिया हैं। मगर राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चे की सिद्धि को पूरा कर देने के लिए अभी इस मामले में बहुत ज्यादा प्रगति अपेक्षित हैं। ताकि भारत की जनता को एक सूत्र में बाँध के संगठित रूप से इस संग्राम में सफलतापूर्वक लगाया जाये।'' पामेदत्ता के कथन के अन्तिम वाक्यों से साफ हो जाता हैं कि कांग्रेस और उसके नेतृत्व ने राष्ट्रीय संग्राम का मोर्चा काफी विस्तृत किया हैं सही और यह इसीलिए हो सका हैं कि जनता की बातें और उसके स्वार्थों का प्रतिबिम्ब कांग्रेस में दीखा हैं, जनता-किसान, मजदूर वगैरह-की लड़ाई शुरू की करायी गयी हैं, उसे प्रोत्साहन दिया गया हैं और उस लड़ाई का रूप बहुत कुछ क्रान्तिकारी रहा हैं। लेकिन इतने से राष्ट्र का पूरा संयुक्त मोर्चा नहीं बन सका। वह विस्तृत मोर्चा सभी शोषितों और पीड़ितों का सच्चा संयुक्त मोर्चा बने इसके लिए और इस बात के लिए भी कि विराट् जनसमूह ऐक्य सूत्र में बाँध के संगठित किया जाये और सफलता के साथ आजादी की लड़ाई में उसे भिड़ाया जाये, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को और भी आगे बढ़ना होगा, अपनी लड़ाई को बहुत ज्यादा क्रान्तिकारी ढंग से चलाना होगा, किसान-मजदूर संगठनों को अपनी सीधी लड़ाई के लिए अधिकाधिक प्रोत्साहित करना होगा, कांग्रेस के प्रोग्राम में किसान मजदूर आदि शोषित जनता के स्वार्थ और उनकी माँगें अच्छी तरह आ जाये, उन्हीं के आधार पर वह प्रोग्राम बने और उन्हें साफ प्रकाशित करें। यह काम करना होगा। संयुक्त मोर्चे की यह कम से कम शर्तें हैं, यदि हम उसे वास्तविक चीज बनाना तथा सच्ची स्वतन्त्रता-पूर्ण स्वराज्य-प्राप्त करना चाहते हैं। केवल मोर्चे को लम्बा और विस्तृत करने से काम नहीं चलेगा। क्योंकि उस दशा में जो लोग इसमें आयेंगे वह विशृंखलित होंगे, एक सूत्र में बँधे न होंगे और उनका नेतृत्व भी ठीक-ठीक किया जा न सकेगा। उस मोर्चे को संयुक्त रूप में बनाये बिना काम नहीं चलने का। मगर क्या कांग्रेस यह काम कर रही हैं? क्या वह यह काम कर सकती हैं? वह तो उल्टी बात कर रही हैं। किसानों और मजदूरों की सीधी लड़ाईयों को उसने बन्द कर दिया हैं और जो ऐसा करते हैं उन्हें कांग्रेस में जगह हैं ही नहीं ! उन पर अनुशासन की कार्यवाही की जाने लगी हैं। वे मुल्क के बागी और कांग्रेस के शत्रु करार दिये जाने लगे हैं। मालूम होता हैं, उसे अपनी ही परछाईं से डर लगने लगा हैं। कांग्रेस ने जो ताकत पैदा की, उसकी लड़ाई के चलते जो ताकतें ऊपर आयीं उन्हीं से अब उसे भय होने लगा हैं ! ऐसा प्रतीत होता हैं, उसे अपने ही किये पर पश्चात्ताप होने लगा हैं ! ठीक उसी तरह जिस तरह 1927 में चियांग कैशेक को चीन में हुआ था। इसका कारण हैं और पामेदत्ता ने उसे साफ बता दिया हैं। जहाँ एक ओर वह यह कहते हैं कि कांग्रेस का मध्यमवर्गीय तथा पूँजीवादी नेतृत्व अब जनता की लड़ाई की प्रगति को रोक करनें लगा हैं, उसके लिए ब्रेक का काम करने लगा हैं और उसी के साथ साम्राज्यवादी प्रभाव को इस देश में बढ़ाने का जरिया खुद बन रहा हैं, जहाँ दूसरी ओर वह यह भी साफ बताते हैं कि एक तो जमींदारों और पूँजीपतियों के स्वार्थ एक-दूसरे के साथ झोल मट्ठा बने हुए हैं, गुँथे हैं। दूसरे उन्हें यह भय हैं कि कहीं ऐसी शक्तियाँ जाग न जाये जो पूँजीवाद, तनमूलक शोषण या व्यक्तिगत सम्पत्ति को ही इस मुल्क से बहा लें जाये-मिटा दें। ऐसी दशा में संयुक्त मोर्चे का सवाल ही कहाँ उठता हैं जबकि यहाँ उल्टी ही गंगा बहती हैं? उसके लिए समाजवादी विचारों और मजदूर-वर्ग का नेतृत्व चाहिए, जिसमें किसान पूरा-पूरा हाथ बँटाते हों। यही उनका कहना हैं। मगर यहाँ तो कांग्रेस के मध्यमवर्गीय नेता अपना नेतृत्व अक्षुण्ण रखने पर तुले बैठे हैं। फिर संयुक्त मोर्चे की आशा ही क्यों कर हो? हम इस मृगमरीचिका के पीछे मरें क्यों? जैसे कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों के बनने के पूर्व यहाँ की दशा से चीन की उस दशा का मेल था जो 1924 और 1927 के मार्च के बीच में थी, उसी प्रकार यहाँ भी एक प्रकार की संयुक्त मोर्चे जैसी चीज थी। कांग्रेस में उस समय किसान, मजदूर और अन्य वर्गों का संयुक्त मोर्चा पक्का और सही था यह तो कहा नहीं जा सकता। क्योंकि चीन के जाफे डाँ. सनयात सेन समझौते जैसी कोई चीज यहाँ न थी। यहाँ के किसान-मजदूर नेताओं ने मध्यमवर्गीय नेताओं के साथ ऐसी कोई भी शर्त करके कांग्रेस में अपने को शामिल नहीं किया था। याद रहे कि जाफे डाँ. सनयात सेन ऐग्रीमेण्ट में अन्यन्य शर्तों के साथ यह शर्त भी थी कि क्यूमिनटांग का संगठन कम्युनिस्ट पार्टी के ही ढंग का होगा, जिसमें किसानों और मजदूरों के पूर्ण प्रतिनिधित्व के लिए भरपूर गुंजा हीश हो और उनकी लड़ाईयाँ ठिकाने से चलायी जा सकें। आज जो कम्युनिस्टों के चीनी नेता मावसेतुंग वगैरह हैं उन्हीं के जिम्मे किसानों और मजदूरों के संगठन का डिपार्टमेण्ट क्यूमिनटांग सरकार ने खोला भी था। मगर कांग्रेस में क्या कभी भी ऐसा हुआ हैं, होने दिया गया हैं? क्या क्यूमिनटांग जैसा कांग्रेस का विधान बन सका हैं, बना हैं? पहले तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मगर जब हमारी किसान सभा ने 1935 में फंक्शनल रेप्रेजेण्टेशन या कामों तथा पेशों के अनुसार कांग्रेस में प्रतिनिधित्व की अत्यन्त सीमित योजना रखी, तो साफ-साफ इन्कार किया गया कि ऐसा नहीं हो सकता हैं ! मुख्य दलील यह दी गयी कि किसान और मजदूर सभाएँ कांग्रेस पर कब्जा कर लेंगी। हालाँकि इस खतरे की गुंजा हीश ही नहीं रखी गयी थी। पीछे क्या होता यह दूसरी बात थी। मगर तत्काल तो ऐसी बात नहीं थी। मगर उन लीडरों को तो दूर तक की चिन्ता थी। वे तो सोचते थे और आज भी सोचते हैं कि कांग्रेस पर कभी भी किसानों और मजदूरों का नेतृत्व हो ही नहीं। गाय मुल्क में बहुमत जमींदार, मालदारों और उनके दोस्तों का ही हैं। यदि किसान सभा और मजदूर सभी का प्रभुत्व कांग्रेस में रोकना था और हैं और कांग्रेसी लीडर यह दावा करते हैं कि किसानों का प्रतिनिधित्व वही करते हैं, तो फिर उन्हें खतरा क्या हैं? तब तो किसान सभाएँ और मजदूर सभाएँ ताकती ही रह जायेगी। मगर बात दरअसल यह हैं कि यही सभाएँ सचमुच किसान-मजदूरों का प्रतिनिधित्व करती हैं, कर सकती हैं। इसीलिए वे डरते हैं और कांग्रेस में चवनियाँ मेम्बरों का नकली प्रतिनिधित्व बराबर कायम रखना चाहते हैं। इस बात को पामेदत्ता ने यों लिखा हैं- ''सबसे बड़ी बात यह हैं कि आम जनता का राष्ट्रीय संग्राम में पूरा भाग लेना अभी बाकी ही हैं। इसीलिए तदनुकूल ही उसके संगठन का राजनीतिक स्पष्टीकरण भी नहीं हुआ हैं। मौजूदा कांग्रेस का आधार तो व्यक्तिगत सदस्यता हैं, जिसके लिए सालाना चार आना चन्दा देना पड़ता हैं (पश्चिमीय घटकों को यह चन्दा बहुत ही थोड़ा लगता होगा। लेकिन वास्तव में यह किसान समूह की शक्ति के बाहर हैं। यही कारण हैं कि प्रारम्भिक (प्राइमरी) कांग्रेस कमिटियों के चुनाव में गाँवों के गरीब किसानों तथा चुनाव के असली मतदाताओं में कोई मेल नहीं होता। गाँववाले बेचारे अकसर चुनावों में आते और चाहते भी हैं कि फलाँ आदमी चुना जाये। मगर मत तो वे दे सकते नहीं-फलत: जिन्हें वे नहीं चाहते वही चुने जाते हैं !) देखने के लिए जो कांग्रेस के पचास लाख मेम्बर कहे जाते हैं। इससे लोगों को यह धोखा हो जाता हैं कि सचमुच अंग्रेजी भारत के सत्ताईस करोड़ लोगों में जो नीचे दबा हुआ जनसमूह हैं उसके बहुत ही निकट कांग्रेस हैं। प्रान्तीय कांग्रेसों (काँन्फ्रेंसों) तथा राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधियों और प्रान्तीय कांग्रेस कमिटियों, आल इण्डिया कांग्रेस कमिटी एवं वर्किंग कमिटी के मेम्बरों की सामाजिक स्थिति (कि कौन किस वर्ग का वास्तव में हैं) का यदि विश्लेषण किया जाये तो इस बात पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ेगा कि जोतने-बोनेवाले किसानों और कल-कारखानों के मजदूरों-जो देश की जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा हैं-को कांग्रेस की प्रमुख संस्थाओं के निर्माण में अमली तौर पर कितना अधिकार मिला हैं। बेशक कांग्रेस इसी माने में जनता के निकट हैं कि उसे राष्ट्रीय संस्था माना जाता हैं जो उनके नाम पर बोलती हैं और जिसकी संस्थाएँ जनता के भीतर दूर तक फैली हुई हैं। लेकिन किसी संस्था में, जिसके क्रियाशील कार्यकर्ता, जो जनता में काम करते हैं, प्रधानतया एक-दूसरे ही वर्ग के हैं और उस संस्था में जिसके कार्यकर्ता सीधे ही जनता की अपनी संस्थाओं के द्वारा चुने जाये, सचमुच ही महान अन्तर अवश्यम्भावी हैं। कांग्रेस के बड़े नेताओं में, जो पूँजीवादी असर के नीचे अच्छी तरह दबे हैं, और जनता के सामूहिक (किसान-मजदूर) आन्दोलनों में जो खाई अकसर देखी जाती हैं उसे समझने के लिए वह असली कुंजी हैं।'' संक्षेप में जो चित्रण ऊपर किया गया हैं वह वर्तमान कांग्रेस की असली दशा का पता बता देता हैं। जो लोग संयुक्त मोर्चे की रट बराबर लगाते रहते हैं और उसमें तथा तात्कालिक राय सलाह में कोई अन्तर नहीं देखते, उन्हें इस पर पूरा गौर करना चाहिए। लेकिन इतना तो साफ हो ही जाता हैं कि मन्त्रिमण्डल बनने के पूर्व भी वास्तविक संयुक्त मोर्चे की बात कांग्रेस में नहीं थी। क्योंकि दोनों के बीच कोई ऐसी शर्त नहीं थी कि क्या-क्या करना होगा। क्यूमिनटांग की तरह उसका संगठन नये सिरे से न तो बनाया गया और न उस पर जोर दिया गया। पुराना संगठन तो वैसा था ही नहीं। उसके बाद तो कांग्रेस की वही हालत हो गयी हैं जो क्यूमिनटांग की 1927 के मार्च के बाद हो गयी। फलत: अगर वहाँ संयुक्त मोर्चे व तात्कालिक परामर्श का सवाल न पैदा हुआ तो फिर यहाँ क्या कहना? हाँ, आज चीन में फिर संयुक्त मोर्चा बना हैं, जो 1937 के आखिर में बना और अब तक चालू हैं। जिस परिस्थिति में वहाँ यह कायम हुआ हैं उसी परिस्थिति में उसी तरह यहाँ भी हो सकता हैं। इस बात पर विशेष प्रकाश तो आगे डाला जायेगा। मगर इतना तो यहाँ जान ही लेना होगा कि चियांग कैशेक और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच 1936 के अन्त में 12/12/36 के बाद कुछ शर्तें तय पायी गयी थीं और उनके फलस्वरूप यह संयुक्त मोर्चा जापान से लड़ने के लिए 1937 में कायम हुआ हैं। जिस प्रकार पहले दोनों की गर्ज से संयुक्त मोर्चा बना था, इसीलिए दोनों ने मिल कर शर्तें तय की थीं, ठीक उसी प्रकार इस बार भी दोनों की गर्ज से ही यह बात हुई थी। यदि पहले डाँ. सनयात सेन को मजबूरन वैसा करना पड़ा तो इस बार चियांग कैशेक को ही वैसी बात करनी पड़ी हैं। उसके लिए दूसरा रास्ता रह ही नहीं गया था। अगर कम्युनिस्टों से वह मेल नहीं करता तो न तो खुद बच पाता और न उसकी पार्टी (क्यूमिनटांग) की ही खैरियत थी। वह खुद तो कम्युनिस्टों के हाथ में कैद हो चुका था और साफ ही उसने कहा था कि मुझे फौरन मार डालो। मगर उनने ऐसा नहीं किया। उसकी पार्टी और सरकार को तो जापान मिटाने पर तुला बैठा था। आज भी वह ऐसा ही चाहता हैं। इसीलिए मजबूरन उसने कम्युनिस्टों से सुलह की। यदि इस महायुद्ध के बाद कहीं वैसी ही स्थिति यहाँ भी आ गयी, तो शायद यहाँ भी वही बात हो, हालाँकि इसकी बहुत ही कम आशा हैं। यदि विजयी ब्रिटिश साम्राज्यशाही ने जापान की ही तरह भारत पर अपना खूनी पंजा कस के जमाना चाहा, तो इसका मौका यहाँ भी आ सकता हैं। मगर मौके से क्या होगा? कांग्रेस के नेतृत्व में हिम्मत शेष रही तभी न? इसके लिए और भी बातें जरूरी हैं, जिन पर आगे प्रकाश डाला जायेगा जहाँ चीन के वर्तमान संयुक्त मोर्चे पर विचार करेंगे और उसकी हकीकत का ब्योरा बतायेंगे। यहाँ तो इतना ही कह देना काफी हैं कि हम यहाँ क्रान्ति की दूसरी दौर से, जिसे किसान क्रान्ति का दौर कहते हैं, गुजर रहे हैं और इसमें कांग्रेस का नेतृत्व न तो किसान क्रान्ति का समर्थन करेगा और न संयुक्त मोर्चा बनेगा। क्योंकि हम उस क्रान्ति को तो छोड़ सकते हैं नहीं। चाहे संयुक्त मोर्चा हो या तात्कालिक राय परामर्श और समझौता। हर हालत में हम अपना असली लक्ष्य और उसके साधनों को छोड़ कर कुछ भी नहीं कर सकते हैं। उपनिवेशों के बारे में इस सम्बन्ध में लेनिन ने जो कुछ कहा हैं उससे हमारे लिए गुंजा हीश रही नहीं जाती कि हम भारतीय कांग्रेस से संयुक्त मोर्चा, या तात्कालिक समझौता कर सकें। हाँ, वह साम्राज्यवाद पर जो भी धक्के लगायेगा, फिर चाहे वे कितने ही कमजोर हों, उनमें हम डाल नहीं सकते। वह चाहे तो हमसे तात्कालिक काम चलाऊ समझौता भी कर ले। मगर हम अपना आन्दोलन और कार्यक्रम छोड़ के यह बात न करेंगे, यही लेनिन का आदेश हैं। वह कहता हैं- ''कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल (कम्युनिस्टों की अन्तर्राष्ट्रीय संस्था या थर्ड (तीसरा) इण्टरनेशनल) को चाहिए कि उपनिवेशों तथा पिछड़े मुल्कों के पूँजीवादियों की जनतन्त्रवादी संस्थाओं के साथ तात्कालिक समझौता, या दोस्ती भी, कर लें। मगर उनमें घुल-मिल तो हर्गिज न जाये। किन्तु बिना किसी बन्धन और शर्त के क्रान्तिकारी (सर्वहारा का) आन्दोलन, चाहे अत्यन्त सूक्ष्म, बीज या प्रारम्भिक रूप में ही क्यों न हो, की स्वतन्त्रता कायम रखे। हम कम्युनिस्ट लोग उपनिवेशों में होने वाले पूँजीवादियों के द्वारा संचालित आजादी या जनतन्त्र-शासन के आन्दोलनों का समर्थन तभी करेंगे जबकि वे सचमुच क्रान्तिकारी हों और जब उनके प्रतिनिधि (नेता) हमें किसानों तथा बहुसंख्य शोषितों को क्रान्तिकारी ढंग से संगठित करने एवं शिक्षित करने में बाधाँ न डालें।'' इतना ही नहीं, 1926 में रूस स्थित कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल (कोमिण्टर्न) ने चीन के बारे में नवम्बर में जो निर्णय किया था वह भारत जैसे सभी उपनिवेशों तथा गुलाम या अर्ध-गुलाम देशों में लागू हैं। चीन को भी अर्ध्द-उपनिवेश या अर्ध्द-गुलाम कहते हैं। वहाँ भी साम्राज्यवाद के विरुद्ध ही संग्राम चालू हैं और किसान क्रान्ति की सीढ़ी से ही वह देश गुजर भी रहा हैं। वह निर्णय यों हैं- ''वर्तमान स्थिति का जो निरालापन हैं वह यही हैं कि यह सन्धिकाल हैं, जिसमें सर्वहारा को दो में से एक को पसन्द करना होगा। यह या तो पूँजीवादियों के एक खासे दल के साथ गुटबन्दी कर ले, या किसानों के साथ वाली अपनी मैत्री और भी मजबूत बना डाले। यदि इस समय सर्वहारा (कम्युनिस्ट लोग) किसानों के सम्बन्ध के आमूल परिवर्तन लानेवाले कार्यक्रम के अनुसार काम करने में चूके, तो उनके लिए गैरमुमकिन होगा कि किसानों को अपनी क्रान्तिकारी लड़ाई में खींच सकें। फलत: राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के आन्दोलन में वे अपना नेतृत्व खो बैठेंगे।'' ''कैन्टन की राष्ट्रीय सरकार अपने हाथों में शासन-सूत्र रख न सकेगी, विदेशी साम्राज्यवाद पर पूरी विजय पाने के लिए क्रान्ति अग्रसर हो न सकेगी, और स्वदेशी प्रतिगामियों पर भी उसकी पूरी जीत हो न सकेगी जब तक राष्ट्रीय आजादी के आन्दोलन को किसान क्रान्ति का रूप नहीं दिया जायेगा।'' इसी वक्तव्य पर जो भाषण स्तालिन ने दिया था वह और भी माके का हैं। वह कहता हैं कि- ''मैं जानता हूँ कि क्यूमिनटांग में और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में भी ऐसे आदमी हैं जिनको यह विश्वास नहीं हैं कि क्रान्ति की लहर गाँवों में ले जाना सम्भव हैं। उन्हें डर हैं कि इस प्रकार किसानों को क्रान्तिकारी उथल-पुथल में खींच लाने पर साम्राज्यवाद विरोधी संयुक्त मोर्चा टूट जायेगा। लेकिन, साथियो, यह भारी भूल हैं। जितनी ही तेजी और जितना ही पूर्ण रूप से किसानों को क्रान्ति में लाया जायेगा चीन में साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चा उतना ही बलवान और शक्तिशाली बनेगा। ''मुझे मालूम हैं कि चीनी कम्युनिस्टों में ऐसे भी साथी हैं जिनका विश्वास हैं कि भौतिक सुखों और कानूनी सुविधाओं के लिए इस समय मजदूरों की हड़ताल का होना अवांछनीय हैं। इसीलिए वे मजदूरों को हड़ताल करने से रोकते हैं। ''साथियो, यह बड़ी भारी भूल हैं। इसका तो यह मतलब हैं कि चीन के मजदूरों के खास महत्त्व और कर्त्तव्य की कीमत हम समझ नहीं रहे हैं। मन्तव्यों में इस बात को अत्यन्त निषेधात्मक दृश्य के रूप में रखना होगा। वर्तमान अनुकूल परिस्थिति से फायदा उठा के यदि चीनी कम्युनिस्ट मजदूरों की सहायता नहीं करते, ताकि वे अपनी खान-पान आदि और कानूनी (सभा वगैरह करने की) सुविधाएँ, यदि जरूरत हो तो, हड़ताल के जरिये भी प्राप्त करें, तो यह बहुत बड़ी भूल होगी। तब चीन में क्रान्ति से फायदा ही क्या?'' इसके एक महीने बाद जब दिसम्बर में चीन से कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के पास तार-पर-तार, पत्र-पर-पत्र और संवाद पर संवाद आने लगे थे और बड़ी सनसनी थी, बड़ा अन्देशा था कि हड़तालों आदि के चलते बहुत-सी मिलें बन्द हो रही हैं, बहुतेरे मजदूर बेकार हो रहे हैं और इस तरह मजदूरों के संघर्ष से स्थिति संगीन होती जा रही हैं, तब इण्टरनेशनल ने जो उत्तर भेजा था वह भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। संवाद भेजने वाले चाहते थे कि हड़ताल और प्रदर्शन वगैरह बन्द हो जाये। मगर इण्टरनेशनल ने साफ लिखा कि ऐसा नहीं हो सकता हैं। साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ी जानेवाली लड़ाई का दूसरा रूप तो हो सकता ही नहीं और अगर इसके करते संयुक्त मोर्चा टूटता हैं तो टूटे। तब तो वह मोर्चा निरा नकली ही माना जाना चाहिए। इण्टरनेशनल का उत्तर सुनिये- ''शहरों में आमतौर से लड़ाई से पीछे हट जाना और मजदूरों के लिए सुविधाएँ दिलाने की लड़ाईयाँ बन्द कर देना, यह नीति गलत हैं। गाँवों में भी संघर्षों को बढ़ाना चाहिए। लेकिन साथ ही अनुकूल समय से फायदा उठा के मजदूरों की भौतिक और कानूनी दशा को सुधारना चाहिए। मगर हर तरह से यह कोशिश होनी चाहिए कि मजदूरों की लड़ाई संगठित ढंग से हो, जिससे ज्यादतियाँ होने न पायें और जल्दबाजी में कोई काम न हो। विशेष ध्यान इस बात पर रहे कि शहरों के संघर्ष बड़े साम्राज्यवादियों के विरुद्ध चलाये जाये। ताकि चीन के टुटपुँजिये और मध्यमवर्गीय सम्पत्तिजीवियों को जहाँ तक हो सके सर्वसाधारण शत्रु के विरुद्ध वाले संयुक्त मोर्चे में साथ रखा जा सके। (शुरू में जो आमतौर से पीछे हटना मना किया हैं उसका मतलब यहाँ स्पष्ट हो जाता हैं कि टुटपुँजिये और मध्यमवर्गीयों के विरुद्ध जहाँ तक हो, संघर्ष रोका जा सकता हैं। वह बड़ों के विरुद्ध चलाया जाना चाहिए)। समझौता संघ, पंचायती अदालतें आदि कायम करना हम ठीक मानते हैं, बशर्ते कि इनकी उचित नीति मजदूरों के बारे में ठीक की जा सके। लेकिन इसी के साथ हम यह कह देना जरूरी मानते हैं कि हड़तालों और मजदूरों की मीटिंगों को रोक करनें के लिए फरमान जारी कर देना बिलकुल ही अनुचित हैं। यह प्रश्न बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। इसलिए हमारा आपसे कहना हैं कि नियमित खबरें भेजते रहें।''
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