स्वामी
सहजानन्द सरस्वती रचनावली-5
सम्पादक
-
राघव शरण शर्मा
क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा
वर्ग संघर्ष और सरकार
..इस तरह वे सामूहिक रूप से क्रान्तिकारी युद्ध के लिए
सुसज्जित किये जाते हैं। ऐसा हो जाने पर सामूहिक रूप से वे इस काम में कूद
पड़ें यह बात हड़ताल के जरिये होती हैं और उसी से शत्रु का अन्त होता हैं। इन
दोनों को मिलाने के बाद ही सर्वहारा क्रान्ति सफल होती हैं और शासन शोषितों
के हाथ में आ जाता हैं। वर्ग-संघर्ष ही दूध और पानी को अलग कर देता
हैं-दूध-का-दूध और पानी-का-पानी कर देता हैं।
कमानेवाली जनता को सामूहिक रूप से वर्ग-चेतनायुक्त किये बिना उसका
निस्तार नहीं हो सकता हैं इसका प्रतिपादन पहले ही खूब किया गया हैं।
वर्ग-संघर्ष के द्वारा ही यह बात होती हैं इसे एंगेल्स ने मार्क्स की
पुस्तक 'फ्रांस में वर्ग युद्ध' की भूमिका में यों लिखा हैं-
''यदि राष्ट्रों के पारस्परिक युद्ध की हालतें अब बदल गयी हैं तो
वर्ग-संघर्ष के बारे में भी यही बात हैं। एकाएक हमला कर देने और भोली-भाली
जनता के आगे-आगे चलके क्रान्ति में विजय पानेवाले सिर्फ मुट्ठी-भर कुशल
लोगों के दिन लद गये। जहाँ समूची सामाजिक व्यवस्था के जड़-मूल से बदल देने
की बात हैं वहाँ खुद आम लोगों को ही यह काम करना होगा, उन्हें इस काम के
पहले ही अच्छी तरह जान लेना होगा कि क्या हारना-जीतना हैं, और किस बात के
लिए दिलो-जान से उन्हें पड़ जाना हैं। गत पचास वर्षों के इतिहास ने हमें यही
सिखाया हैं। लेकिन जनता यह बखूबी समझ सके कि क्या करना हैं, इसके लिए
लगातार अधिक मुद्दत तक उसमें काम करने की जरूरत हैं और हम ठीक यही काम कर
रहे हैं। हमें ऐसी सफलता मिल रही हैं कि हमारे शत्रु निराश हो रहे हैं।''
असल में जो दिक्कत हमारे सामने आती हैं वह यह हैं कि निम्न-मध्यम
श्रेणी के बाबू लोग और उन्हीं के साथ पूँजीवादी वर्ग भी सदा इस बात की
कोशिश करता रहता हैं कि कमानेवाली जनता के सामने वर्ग-संघर्ष का यह सवाल
आने ही न पाये। वे बार-बार यही रट लगाते रहते हैं कि हम तो जनतन्त्र शासन
(democracy) चाहते हैं, राम राज्य चाहते हैं, जिसमें सबों की राय से शासन
का काम चले। हम तो जनसमूह की भलाई चाहते हैं, न कि किसी दल विशेष की। हम तो
सब लोगों का स्वराज्य चाहते हैं। किसी खास वर्ग का स्वराज्य तो हमें अभीष्ट
हैं नहीं। इसीलिए हमारी इच्छा हैं कि पूँजीपति और मजदूर या किसान और
जमींदार आदि का भेदभाव भुला के सभी लोग एक साथ मिल के लड़ें। तभी लक्ष्य
सिद्धि होगी। वह तो यहाँ तक कह डालते हैं कि पहले स्वराज्य प्राप्त कर लें।
पीछे यह सोचने का मौका आयेगा कि वह किसका होगा। जो चीज मिली ही नहीं उसके
बँटवारे का प्रश्न पहले ही उठाना नादानी नहीं तो और क्या हैं? मतलब यह हैं
कि वे लोग हर वक्त वर्ग सामंजस्य (Class-colloboration) की ही बातें करते
हैं। स्वराज्य मिलने पर जमींदार और पूँजीपति किसानों तथा मजदूरों के
थातीदार (Trustee) बनेंगे यह भी ख्याली पुलाव पकाया जाता हैं। ताकि
वर्ग-संघर्ष का ख्याल सामने आये ही नहीं और किसान, मजदूर उसमें पड़ने ही न
पायें।
मगर मार्क्स और एंगेल्स तो यह बात बराबर मानते थे कि चाहे बातें हजार
बनायी जाये और ऊपर हजार मुलम्मा चढ़ाया जाये, फिर भी वर्ग-संघर्ष के
सिद्धान्त को छिपाया नहीं जा सकता हैं। इन चिकनी-चुपड़ी बातों की तह में वही
बात छिपी हैं। इस प्रकार शोषितों को वर्ग सामंजस्य के घपले में डालकर शोषक
लोग अपनी ओर से वर्ग-संघर्ष खूब मुस्तैदी से निरबाधाँ चलाते रहते हैं।
बाधाँ हटाने के ही लिए तो रामराज्य, सबके राज्य और वर्ग सामंजस्य की
गोल-मोल बातें की जाती हैं। मार्क्स ने 'अठारहवें ब्रुमेयर' नामक पुस्तक
में इन बातों के बारे में ऐसा लिखा हैं जिससे इस पर पूरा प्रकाश पड़ जाता
हैं कि इसमें चाल क्या हैं। वह कहता हैं कि-
''सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की विशेषता का संक्षिप्त रूप इस बात से
मालूम हो जाता हैं कि वे लोग जनतन्त्र संस्थाओं की माँग इसलिए पेश नहीं
करते कि उनके द्वारा पूँजी और मजदूरी जैसी अत्यन्त परस्पर विरोधी बातों को
दूर कर दिया जाये- अर्थात न शोषक पूँजी रहे और न मजदूरी करनेवाले शोषित
रहें,-किन्तु वे तो इनके जरिये इन दोनों के परस्पर विरोध को कम करके दोनों
को मिला देना चाहते हैं। इसकी सिद्धि के लिए चाहे कितने ही विलक्षण उपाय
किये जाये और उन्हें क्रान्तिकारी ख्यालों के पर्दे में चाहे कितना ही
सजाया जाये, मगर उनकी असलियत ज्यों की त्यों रह जाती ही हैं। यह असलियत हैं
समाज को जनतन्त्र के तरीके से बदलना। मगर यह रद्दोबदल निम्न-मध्यमवर्ग के
स्वार्थों के दायरे के भीतर ही हो। सिर्फ खास बात यही हैं कि किसी को यह
तंग ख्याल इसके बारे में नहीं बना लेना चाहिए कि निम्न-मध्यम श्रेणीवाले
सिद्धान्त की दृष्टि से अपने निजी वर्ग स्वार्थों को जबर्दस्ती समाज पर
लादना चाहते हैं। प्रत्युत उनका तो यही विश्वास होता हैं कि जिस विशेष
परिस्थिति के करते उन्हें आजादी मिली हैं वही वर्तमान समाज की साधारण
परिस्थिति हैं और सिर्फ उसी में उसकी रक्षा की जा सकती तथा वर्ग-संघर्ष से
बचा जा सकता हैं। यह ठीक उसी तरह हैं जिस तरह वह बात शायद ही कोई सोच सकता
हैं कि जनतन्त्र के प्रतिनिधिगण या तो खुद दुकानदार हैं या उन्हीं के
समर्थक। उनका जो समाज में स्थान और उनकी जो शिक्षा हैं उसके मुताबिक तो
दुकानदारों और उनमें उतना ही अन्तर हैं जितना जमीन और आसमान में। असल में
जिस बात के करते वे लोग निम्न-मध्यमवर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं वह यह
हैं कि यह वर्ग अपने जीवन में अमली तौर पर जिस सीमा के बाहर नहीं जाता हैं
उसके प्रतिनिधि ये बाबू लोग अपने ख्याल में ही उस सीमा के बाहर नहीं जाते।
यही कारण हैं कि सैद्धान्तिक दृष्टि से ये प्रतिनिधिगण उसी बात और उपाय को
मानते हैं जिसे निम्न-मध्यम श्रेणीवाले अपने भौतिक स्वार्थ तथा सामाजिक
स्थिति के चलते विवश होके करते हैं। साधारणतया यही सम्बन्ध, राजनीति तथा
पढ़ने-लिखने के मामलों में प्रतिनिधि वर्ग तथा जिनका वे प्रतिनिधित्व करते
हैं उनका, हैं।''
इस लम्बे अवतरण ने इस बात को स्पष्ट कर दिया हैं कि जनतन्त्र के नाम पर
जो लोग पूँजीवादी प्रणाली में प्रतिनिधि चुने जाते हैं उनकी वास्तविक
स्थिति का कोई भी मेल उन लोगों की स्थिति से नहीं होता जिनके प्रतिनिधि वे
बनते हैं। दोनों का पढ़ना-लिखना और दोनों की सामाजिक स्थिति अत्यन्त विभिन्न
होती हैं। इन दोनों में इतना ही अन्तर होता हैं जितना जमीन और आसमान में।
फिर भी यदि वे लोग प्रतिनिधि बन जाते हैं तो विचार-दृष्टि से यह गलत बात
हैं-उल्टी चीज हैं। क्योंकि ''की दुख जानै दुखिया, की दुखिया की माय'', या,
''जाके पाँव न फटै बिवाई। सो क्या जाने पीर पराई।'' जो खुद भुक्तभोगी न हो
वह दूसरों के कष्ट क्या जानेगा? क्योंकि ''कहाँ से लायेगा कासिद बयाँ मेरा
जबाँ मेरी। मजा जब था कि खुद मुझसे वह सुनते दास्ताँ मेरी।''
फिर भी वही मुट्ठी भर पढ़े-लिखे बाबू समस्त निम्न-मध्यम श्रेणी और शोषित
जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं ! यह बात क्योंकर होती हैं-उनका यह दावा
कैसे सही माना जाता हैं-इस विषय में मार्क्स ने दो उत्तर उक्त उद्धरण में
दिये हैं। पहली बात यह हैं कि प्रतिनिधि लोग यह मानते हैं कि उनके अधिकार
जिस सामाजिक परिस्थिति के करते उन्हें प्राप्त हो सके हैं, जिस वायुमण्डल
में उन्हें सफलता मिली हैं वह पहले की अपेक्षा विलक्षण जरूर हैं, खास ढंग
का हैं। नहीं तो उनकी विजय नहीं हो पाती। मगर वे यह भी समझते हैं कि यही
वायुमण्डल समस्त मध्यम श्रेणी और वर्तमान समाज की रक्षा के अनुकूल हैं,
दूसरा नहीं। इसी में वर्ग-संघर्ष से बचा जा सकता हैं। दूसरी परिस्थिति आने
पर फिर समाज में उथल-पुथल होगी और वर्ग-संघर्ष का प्रसार होगा। इससे
स्वभावत: वह सबके प्रतिनिधित्व का दावा करते हैं और आगे बढ़ना नहीं चाहते।
दूसरी बात यह हैं कि निम्न-मध्यम वर्ग का जो वास्तविक जीवनयापन हैं और
जिस खान-पान वगैरह से उन्हें अपना काम चलाना पड़ता हैं वह उन तथाकथित
प्रतिनिधियों का न होने पर भी वे अपने दिमाग में उसकी कल्पना कर लेते हैं।
मतलब यह कि ख्याली बातों को सामने रखके उनकी दशा पर नकली आँसू बहाते और
गर्म-गर्म लेक्चर देते हैं, झूठी प्रतिज्ञाएँ करते हैं। अर्थात ''तुम्हारा
हाथी मरा, पड़ोसी की भैंस मरी और मेरी काली हँड़िया फूट गयी। क्या कहा जाये,
काले धन पर ही ग्रह मालूम पड़ता हैं,'' यही बातें वे करते हैं। इसी प्रकार
बनावटी बातों और काल्पनिक ख्यालों के जरिये आम लोगों की श्रेणी में अपने को
लाते हैं ! मगर यह तो ठीक नहीं। बनावटी बातों के लिए, जो दिल में हैं नहीं,
कोई कैसे लड़ सकता हैं? यही कारण हैं कि वे अन्त में धोखा देते हैं और
''उघरहिं अन्त न होय निबाहू'' को चरितार्थ करते हैं। बनावटी से हमारा मतलब
दिमागी से हैं। जब ईमानदारी से अच्छी तरह सोचने का मौका आता हैं तब तो
उन्हें मानना पड़ता हैं कि जिनका प्रतिनिधित्व हम करते हैं उनकी ही माँगें
ठीक हैं, उनकी हालत अच्छी नहीं हैं। मगर अमल के समय उनकी कमजोरी उन्हें आ
दबोचती हैं। क्योंकि अपनी स्थिति अच्छी होने के कारण सारी शक्ति से उन
लोगों के लिए वे लड़ नहीं सकते। किन्तु पैंतरेबाजी करके ही रुक जाते हैं, बस
कर लेते हैं। दिल में बात चुभती हो तब न लड़ेंगे?
जो लोग वर्गों को न मानकर जनसमूह या जनता को मानते हैं और कहते हैं कि
वर्गों की कल्पना तो नाहक ही की जाती हैं; हमें तो सामूहिक रूप से सभी
लोगों (Masses) को ही मानना हैं; हम यत्न भी उन्हीं के स्वराज्य के लिए
करते हैं, उनकी मनोवृत्ति और स्थिति के बारे में उसी पुस्तक में मार्क्स ने
अच्छा चित्रण किया हैं। वह कहता हैं-
''निम्न-मध्यमवर्ग जैसे बीच के चन्दरोजा वर्ग-जिसमें दो परस्पर विरोधी
श्रेणियों (शोषितों तथा शोषकों) के स्वार्थ कुन्द और अस्फुट हो जाते हैं-का
प्रतिनिधि होने के नाते जनतन्त्रवादी ऐसा मानता हैं कि वह खुद साधारणतया
वर्ग-विरोध से अलग (ऊपर) हैं। वह इतना तो कबूल करता हैं कि उसके मुकाबिले
में मालदार और शक्तिशाली वर्ग खड़ा हैं। लेकिन वह यह भी मानता हैं कि वह तथा
उसके इर्द-गिर्द जो बाकी लोग हैं-इन दोनों को मिला के ही आम लोग कहे जाते
हैं। इसलिए वह समझता हैं कि वह आम लोगों (जनता) के हकों का ही प्रतिनिधि
हैं और उसका जो स्वार्थ हैं वही जनता का भी स्वार्थ हैं। इसीलिए लड़ाई के
मौके पर ये जनतन्त्रवादी इस बात की जरूरत ही नहीं समझते कि विभिन्न
श्रेणियों के स्वार्थों एवं स्थितियों की जाँच करें। वह इसकी भी जरूरत नहीं
समझते कि अपने साधनों का विचार तो जरा गृद्ध दृष्टि से करें-उनकी खूब
छानबीन करें। वे मानते हैं कि उन्हें तो केवल इशारा कर देने की जरूरत हैं।
फिर तो जनता अपने अमित साधनों के बल पर शोषकों पर टूट पड़ेगी। और अगर इस काम
में उस समय उनके स्वार्थ बेकार साबित हो जाये, लोगों को न जँचें और उनकी
ताकत भी रद्दी मालूम हो तो इसमें एकमात्र दोष हैं उन उल्टी-सीधी बात
गढ़नेवाले शैतानों का, जो अविभजनीय जनता को अनेक परस्पर विरोधी दलों में
बाँट देते हैं; या यह कि लड़नेवाली फौज इस कदर अन्धी और नासमझ बना दी गयी
हैं कि वह जनतन्त्र के शुद्ध लक्ष्य को ही अपने लिए सर्वोत्तम मानने को
तैयार नहीं; या ऐसा हो गया कि काम पूरा करने के ऐन समय सारी बात की उधोड़बुन
करके सारा गुड़ गोबर कर दिया गया हैं, और अगर कुछ और नहीं तो यही हुआ कि इस
बार किसी आकस्मिक घटना ने ही सारा आटा ही गीला कर दिया। सारांश, हर हालत
में जनतन्त्रवादी तो बुरी से बुरी हार के बाद भी अपने आपको ठीक वैसे ही दूध
का धोया साबित करते हैं, जैसे निर्दोष वे लड़ाई में पड़ने के पहले थे।
विशेषता यही होती हैं कि उन्हें अब यह नया विश्वास हो जाता हैं कि अगली बार
अवश्य जीतेंगे और यह भी इसलिए नहीं कि उनने और उनकी पार्टी ने अपने
पूर्ववाले विचार हार के बाद बदल दिये हैं। बल्कि इसलिए कि परिस्थिति उन्हीं
के अनुकूल तैयार हो जायेगी।''
जनतन्त्र का दमामा बजाने तथा रामराज्य, स्वराज्य आदि गोल-मोल बातों की
ही शकल में स्वतन्त्रता का स्वप्न देखनेवाले बाबू लोग कितने गहरे पानी में
होते हैं इसका पता उन्हें खुद नहीं होता। वे तो सारी बातों को अपने ही आईने
में देखते हैं। दुनिया बदलती रहती हैं, परिस्थितियाँ बदल जाती हैं और समाज
का नये सिरे से संगठन होके वह परस्पर विरोधी अनेक दलों में विभक्त हो जाता
हैं। इन दलों की हालत यह होती हैं कि एक-दूसरे को हजम कर डालना, मिटा देना
चाहते हैं। ये ऐसे होते हैं कि 'ऐसे एक तिनहि धरि खाहीं। एक न के डर एक
पराहीं'। फिर भी जनतन्त्रवादी महाशय इस बात को स्वीकार ही नहीं करते ! और
अगर इसके करते ही उन्हें विजय न मिली, आजादी नहीं हाथ लगी, तो उल्टे इसके
लिए अपराधी उन्हीं लोगों को बना डालते हैं, जो समाज की असलियत को-इसके
श्रेणी विभाग को-स्वीकार करते और तदनुसार ही काम करने की राय देते हैं !
जनतन्त्रवादी भलेमानस तो अपने आपको ठीक रास्ते पर ही मानते हैं। इसीलिए हार
पर हार होने के बाद भी उन्हें अक्ल नहीं आती हैं। वे तो यही सोचते रहते हैं
कि उनका रास्ता ही सही हैं। दुनिया को उनके ही ख्याल के अनुसार एक-न-एक दिन
बदलना होगा और उनकी जीत इसी तरह होगी। ये भयंकर खूसट और दकियानूस होते हैं।
मार्क्स ने इनका यही चित्रण उक्त वाक्यों में किया हैं।
उदयनाचार्य नाम के एक अत्यन्त प्रौढ़ नैयायिक हजारों वर्ष पहले हो गये
हैं। उनने अनात्मवादियों का खण्डन तथा आत्म सिद्धि के लिए संस्कृत में एक
विशिष्ट ग्रन्थ 'आत्मतत्त्व विवेक' नाम से लिखा हैं। उसमें शून्यवाद के
सिलसिले में उनने एक सनकी की कहानी लिखी हैं। वह कहते हैं कि किसी राजा के
दरवाजे पर बँधा हाथी दूर से देखकर एक पागल ने सोचा कि यह क्या हैं। उसने
हाथी तो कभी देखा न था, या यह कि दिमाग ठीक न होने के कारण उसे वह दूर से
पहचान न सका। फिर उसकी पिनक चली। उसके लम्बे-लम्बे कान, हिलनेवाली लम्बी
पूँछ, रह-रह के गुदा मार्ग से गिरनेवाली लीद, और पेशाब, काला शरीर और आवाज
आदि को जानकर उसने तर्क किया कि यह काला पहाड़ लाठी तो नहीं घुमा रहा हैं?
या कि मेघ हैं, जो गर्जता और बरसता हैं? आदमी के सैकड़ों सिर रह-रह के
उगलनेवाला कोई राक्षस हैं क्या? या हमारा कोई बन्धु-बान्धव हैं; क्योंकि
नीतिकार कहते हैं कि राजद्वार और श्मशान में जो पाया जाये वही बन्धु हैं
''राजद्वारे श्मशाने च, यस्तिष्ठति स बान्धव:।'' फिर उसने एक-एक करके इन
सभी कल्पनाओं का खुद ही खण्डन कर डाला और अन्त में कहा कि इसलिए यह कुछ भी
नहीं हैं-''तस्मान्न किमप्येतत्''।
इस पर उदयनाचार्य ने टिप्पणी करते हुए कहा हैं कि तो क्या उस पगले की
दलील और तन्मूलक उसके नतीजे को मान के यह बात कभी हो सकती हैं कि हाथी ही न
हो? ''किमेतावता द्विरदरूपो नरिवत्तताम्''? ठीक यही दशा इन दकियानूस वर्ग
सामंजस्यवादियों की हैं। ये हजार दलीलें देकर यही सिद्ध करने की कोशिश करते
हैं कि वर्तमान समाज में वर्ग हुई नहीं। सभी एक हैं। इसीलिए वर्ग-युद्ध की
जरूरत हुई नहीं। लेकिन उनकी इन वाहियात बातों के फलस्वरूप क्या ठोस सत्य
खत्म हो जायेगा? रोज ही देखा जाता हैं कि धनी-गरीब, किसान-जमींदार,
पूँजीपति-मजदूर आदि दल एक-दूसरे पर खार खाये बैठे हैं और एक-दूसरे को मिटा
देना चाहते हैं। फिर भी इन्हें सरासर इन्कार करना तो जीती मक्खी निगलना
क्या ऊँट निगलना हैं। लेकिन ये भलेमानस यही करते हैं !
मार्क्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो को आरम्भ किया ही हैं इसी
वर्ग-संघर्ष को लेकर ही। उसका पहला वाक्य कहता हैं कि अब तक जिन-जिन समाजों
का पता लगता हैं उनका इतिहास वर्ग-संघर्ष का ही इतिहास हैं। इसके बाद इसी
बात का विस्तृत विवेचन किया गया हैं। मार्क्स कहता हैं कि यह वर्ग-संघर्ष
और संघर्षों की तरह हमेशा खुलके ही हो यह जरूरी नहीं हैं। यह तो कभी
भीतर-ही-भीतर राख में दबी आग की तरह सुलगता तथा धक-धक करता रहता हैं और कभी
ऊपर आता हैं। ''शोषक और शोषित अनवरत रूप से एक-दूसरे के मुकाबिले में खड़े
होकर इस संघर्ष को, कभी प्रकट, कभी अप्रकट रूप से, अविरल चलाते आ रहे
हैं।'' वह यही मानता हैं कि इसी वर्गयुद्ध के फलस्वरूप पुराने समाज का नाश
और नये की रचना होती हैं। कभी-कभी लड़नेवाले दोनों की ही तबाही होकर एक
तीसरा वर्ग खड़ा होता और समाज को अपने रंग में ढालता हैं और कभी दो में एक
का ही नाश होकर दूसरे के द्वारा ही नया समाज बनता हैं।
पुराने लोगों ने जो ''जीवो जीवस्य जीवनम्'' कहा हैं और नई भाषा में आज
जिसे 'जीवन संग्राम' (struggle for existence) कहते हैं, उसका भी मतलब इस
वर्ग-संघर्ष से ही हैं। यह जीवन-संघर्ष कोई व्यक्तिगत रूप से नहीं चलता
हैं। बकरी और बाघ की लड़ाई व्यक्तिगत नहीं हैं। चूहे और बिल्ली की भी यही
बात हैं। जमींदार और किसान तथा पूँजीपति और मजदूर निजी तौर पर हर्गिज नहीं
लड़ते। जमींदार की बात सुनते ही हजार कोस दूर का जमींदार व्यक्तिगत
फायदा-नुकसान न होने पर भी उसी के पक्ष का समर्थन करता हैं। यही बात
पूँजीपतियों की भी हैं। जाति, धर्म, सम्प्रदाय, देश आदि किसी बात की परवाह
न करके शोषक शोषक मिल जाते और एक ही आवाज, हुआं में हुआं, जाहिर करते हैं।
खूबी केवल इतनी ही हैं कि वे अपनी लड़ाई को राष्ट्रीयता, धर्म, देश और
सार्वजनिक कल्याण का नकली जामा पहनाते और इसमें अधिकांश सफल होते भी हैं।
इसीलिए तो यह लड़ाई अप्रकट हो जाती हैं। मगर इसके चलते ज्यादा खतरनाक बन
जाती हैं। क्योंकि शोषित लोग अपने भोलेपन के चलते धोखा जो खा जाते हैं।
यह ठीक हैं कि शोषितों-किसान-मजदूरों-में यह बात नहीं हैं। वह आसानी से
अपनी लड़ाई को वर्गगत बना नहीं पाते। क्योंकि उनमें न तो इतनी जानकारी ही
हैं और न योग्यता ही। वे तो जान-बूझकर नादान, अपढ़ और अन्धविश्वासी बनाके
रखे ही गये हैं। ताकि असलियत समझ न सकें। नहीं तो अपनी अपार संस्था के बल
पर बात की बात में शोषकों को उठा फेंकेंगे। उनके इर्द-गिर्द इतने प्रकार के
जाल बिछाये गये हैं कि वे एक-न-एक में फँस ही जाते हैं। यही कारण हैं कि
सर्वहारा के नेतृत्व के मूल में यह वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त रखा गया हैं।
किसान-मजदूरों की आँखें दूसरे ढंग से खुल ही नहीं सकती हैं और न उन्हें
असलियत का पता ही लग सकता हैं। यह वर्ग-संघर्ष तो उनकी भीतरी आँख के लिए
अंजन का काम देता हैं।
बेशक पूँजीवाद का विकास जैसे-जैसे होता गया हैं मजदूरों और किसानों की
आँखें खुलती गयी हैं। अब तो अत्यधिक विकास के चलते वे बहुत ज्यादा सतर्क और
सचेष्ट हो गये हैं। पूँजीवादी हजार न चाहने पर भी ऐसा करने को मजबूर हैं।
इससे उनकी जड़ खोखली होती हैं सही। मगर करें क्या? यही तो पूँजीवाद का भीतरी
विरोध हैं जो एक-न-एक दिन उसे खत्म करके छोड़ेगा। मार्क्स ने जिस
द्वन्द्ववाद (dialectical theory) को माना हैं और उस पर सबसे ज्यादा जोर
दिया हैं, उसका मतलब ही यही हैं कि हरेक पदार्थ में ही उसके नाश का बीज
निहित हैं, जो प्रौढ़ होने पर उसे ले बीतता हैं। वर्ग-संघर्ष का मूलाधार भी
यही सिद्धान्त हैं। कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में उसने इस बात को विवरण के साथ
बताया हैं कि किस प्रकार बरूज्वा वर्ग ने इस वर्ग-संघर्ष को अत्यन्त विकसित
कर दिया हैं। जो चीज पुराने जमाने में अनेक अस्पष्ट जातियों और दलों के बीच
में चलती थी और इसीलिए स्पष्ट न थी, उसे उसने साफ और आसान बना दिया। धर्म
और जाति-पाँति का बुर्का उस चीज पर से उसने उतार फेंका और उसे सीधा आर्थिक
जामा पहना दिया हैं। इसीलिए आज का जो वर्ग-संघर्ष हैं वह दो परस्पर विरोधी
आर्थिक वर्गों के ही बीच हैं। मार्क्स ने केवल आर्थिक वर्गों को ही स्वीकार
किया हैं। बाकियों को इन्हीं का रूपान्तर माना हैं। उसकी नजर में शोषित और
शोषक यही दो असली वर्ग हैं और इन्ही की लड़ाई अविराम चालू हैं। बरूज्वा और
प्रोल्तारियत शब्द भी आज की भाषा में इन्हीं दो वर्गों को बताते हैं।
मार्क्स मैनिफेस्टो में इस बात को जिस सफाई के साथ लिखता हैं वह तो पहले ही
बताया जा चुका हैं। वह और भी कहता हैं-
''हमारे युग में जो बरूज्वा (पूँजीवादी) का युग हैं यह एक विशेषता हैं
कि इसने वर्ग-विद्वेष को सीधा और सरल रूप दे दिया हैं। समूचा समाज तेजी के
साथ दो बड़े परस्पर विरोधी वर्गों में बँटता जा रहा हैं। ये दोनों बड़े वर्ग
ऐसे हैं कि एक-दूसरे के सामने डटे हैं। इन्हें पूँजीवादी और सर्वहारा कहते
हैं।''
हमने इस बात का कुछ विस्तार के साथ 'किसान क्या करें' पुस्तक में वर्णन
किया हैं। इसीलिए यहाँ ज्यादा लिखना ठीक नहीं समझते। यहाँ तो संकेत रूप में
इतना ही कहना काफी होगा कि ज्यों-ज्यों पूँजीवाद का विकास होता जाता हैं
पुराने पेशे, रोजी के पुराने तरीके, पुराने रीति-रिवाज और समाज के पुराने
विभाग त्यों-त्यों तेजी के साथ मिटते जाते हैं। तेल पेरनेवाली एक कल हजारों
तेली के कोल्हुओं को खत्म करके उनके परिवार को भिखमंगा और मजदूर बना देती
हैं। आटे की कल भी पुरानी चक्कियों का सफाया यों ही करती हैं। एक चीनी की
मिल हजारों पुराने चीनी के कारखानों को मिटा के लाखों आदमियों को बेकार और
मजदूर बना डालती हैं। रेल, ट्राम, बस आदि के चलते लाखों इक्के, टमटम,
बैलगाड़ियाँ टूट जाती हैं और उनके चलानेवाले सचमुच सर्वहारा बनते जाते हैं।
हमें पता नहीं चलता। मगर धीरे-धीरे यह काम होता रहता हैं। यही हैं अप्रकट
वर्ग-संघर्ष। नये कारखानों, नई मिलों और नई सवारियों के सामने पुरानी चीजें
टिक नहीं सकती हैं और खत्म हो जाती हैं। इतना ही नहीं। एक ही साथ कई मिलें
जुट जाती हैं और एक-एक मिल जुदा-जुदा चलानेवाले उनके सामने डट नहीं सकरनें
के कारण खत्म हो जाते हैं। छोटे कारखानों को बड़े हजम कर जाते और उन्हें भी
उनसे बड़े चट कर लेते हैं ! इस तरह निरन्तर संहार जारी हैं, जो प्रतिदिन
भीषण होता जाता हैं। जो बरूज्वा अपने ही कमजोर और छोटे भाईयों को हजम करने
में जरा भी नहीं हिचकता वह दूसरों को कैसे छोड़ेगा? वह उनके साथ रिआयत क्यों
करने लगा?
पुराने सामन्तशाही, खूसट, दकियानूस या सनातनी समाज में जो इतना तेज
वर्ग-विद्वेष न था वही अब तेज हो गया। वहाँ भी एक-दूसरे के साथ संघर्ष तो
रहता ही हैं। गुलामों और अर्ध्द गुलामों का अपने मालिकों के साथ, महाजनों
का कर्जदारों के साथ, छोटे-छोटे किसानों का बड़ों के साथ और उनका महान्
भूस्वामियों के साथ। वह तो पूँजीवादी समाज में नहीं दीखता। मगर उसकी जगह
दूसरे संघर्ष ले लेते हैं-पुरानों को नया रूप मिल जाता हैं। कल-कारखानों के
साथ-साथ पूँजीवादी ढंग से खेती का विकास होने के कारण वहाँ भी दो ही वर्ग
रह जाते हैं-एक बड़े-बड़े खेतवाले और दूसरे उनमें मजदूरी करनेवाले। बड़े-बड़े
फार्मों की खेती के सामने नन्हे-नन्हे खेतोंवाले किसान खत्म हो जाते और
अपनी जमीनें बेचकर भाग जाते हैं। छोटे-छोटे महाजनों की जगह पूँजीपतियों के
बड़े बैंक ले लेते हैं और उनका लेन-देन दूसरी तरह से चल पड़ता हैं। उनके
कर्जदार बड़े-बड़े कारखाने और मुल्क हो जाते हैं। इस प्रकार शोषक और शोषित ये
दो ही वर्ग अन्त में रह जाते हैं। बीचवाले स्वतन्त्र खाते-पीते दल का, जो
पहले था, पता भी नहीं रह जाता हैं। खूबी तो यही हैं कि पुराने सामन्तशाही
समाज की समाधि पर ही बने होने पर भी यह पूँजीवादी समाज उसके वर्ग-संघर्ष को
मिटाने के बदले अपने भीतर रख के उसे और भी तेज और स्पष्ट बना देता हैं। उस
समाज को मिटाके भी उसके इस गुण को नहीं मिटा सकता। मैनिफेस्टो में लिखा
हैं-
''सामन्तशाही समाज की कब्र पर ही बनने पर भी आधुनिक पूँजीवादी समाज ने
उसके वर्ग-विद्वेषों को मिटाया नहीं हैं। प्रत्युत इसने नये-नये वर्गों,
उत्पीड़न के नये-नये तरीकों और युद्ध के नये-नये रूपों को पुरानों के स्थान
पर पैदा कर दिया हैं।''
जो लोग ऐसा सोचते हैं कि सरकार तो किसी वर्ग की तरफदारी नहीं करती हैं,
वह तो सभी वर्गों से परे होकर न्याय का पलड़ा सबों के बीच में बराबर रखती
हैं और इसीलिए अन्याय करनेवालों को दबाती हैं, वह निरे भोंदू हैं। जो ही
वर्ग शक्तिशाली और चलतापुर्जा होता हैं उसी के हाथ की कठपुतली सरकार हुआ
करती हैं। प्रभुत्व प्राप्त शक्तिशाली वर्ग के विरुद्ध बगावत करनेवालों का
दबाना ही सरकार का एकमात्र काम होता हैं। इसीलिए पूँजीवादी समाज में सरकार
पूँजीवादियों की ही चेरी होती हैं, उन्हीं के इशारे पर नाचती हैं। चाहे
हजार जुल्म ज़मींदार और मालदार करें। मगर ज्यों ही पीड़ित और शोषित लोग
संगठित या असंगठित रूप से उनके विपरीत सिर उठाते या चूँ तक करने को तैयार
हुए कि सरकार की लाडली पुलिस और फौज उन्हें लाठी और गोली के घाट उतारती
हैं, जेलों में बन्द करती हैं, नजरबन्द करती हैं तथा फाँसी पर लटकाती हैं।
फिर भी उसे निरपेक्ष और मध्यस्थ मानना कोरी मूर्खता हैं। न्याय तो शोषितों
की ही ओर हैं। फिर भी उन्हीं का दमन? इसीलिए मैनिफेस्टो में मार्क्स लिखता
हैं-
''अन्ततोगत्वा पूँजीवादियों ने नये ढंग के कल-कारखानों की स्थापना और
संसार-व्यापी बाजार के खुल जाने के वक्त से ही मौजूदा प्रतिनिधिमूलक शासन
में अपने लिए सोलहों आना राजनीतिक प्रभुत्व को जीत लिया हैं। इसलिए आजकल की
सरकारों की जो शासन समिति होती हैं वह समस्त पूँजीवादी समाज के सर्वसाधारण
मामलों की प्रबन्धक समिति के अलावे और कुछ नहीं हैं।''
मगर इसका यह मतलब हर्गिज नहीं हैं कि पूँजीवादी जैसे चलतेपुर्जे और
प्रभावशाली वर्ग का अधिकार शासनसूत्र के ऊपर इसी समय मिला हैं। यह तो इतना
ही कहता हैं कि आज उसका शासन पर एकछत्रा अधिकार हैं। जो मालदार लोग हैं
उन्हीं की मर्जी से ही सरकार का हरेक काम होता हैं। इस मामले में
पूँजीवादियों ने आखिरी तरक्की की हैं सही। मगर पहले भी प्रभावशाली वर्ग का
ही बोलबाला शासन में रहा करता था जरूर। हाँ, उस समय प्रतिनिधिमूलक शासन न
होने के कारण ऐसी बात न थी जैसी आज हैं। तब तो निरंकुश शासक कभी-कभी
उलट-पलट भी कर देते थे। मगर अब यह बात नहीं हैं। इसीलिए तो पूँजीवादियों ने
वर्तमान प्रतिनिधिमूलक शासन व्यवस्था की स्थापना लड़ कर की हैं। क्योंकि
चुनावों में विजय पाने के लिए उनके पास हजार हथकण्डे हैं, जिनसे वे ख़ामखाह
जीतते ही हैं। इसीलिए तो सोलहों आना अधिकार (exclusive control) की बात कही
गयी हैं। मगर पहले भी कमबेश यही दशा परिस्थिति के अनुसार थी। जैसे-जैसे
परिस्थिति बदली हैं तैसे वह भी बदलती और पूर्ण होती गयी हैं। इसीलिए ऊपर
लिखे वाक्यों के ठीक पहले मार्क्स कहता हैं-
''पूँजीवादी वर्ग की प्रगति के प्रत्येक कदम के साथ ही उसकी राजनीतिक
प्रगति भी उसी के अनुकूल होती गयी हैं। सामन्तशाही के समय में तो शोषित और
पीड़ित वर्ग के ही रूप में यह चीज थी। फिर मध्ययुग की कम्यून (स्वायत्ता
संस्था) में यही वर्ग शस्त्रधारी और स्वशासनाधिकार प्राप्त संस्था के रूप
में आगे बढ़ा। उसके बाद कहीं-कहीं स्वतन्त्र नागरिक गणतन्त्रों के रूप में
पाया जाता था, जैसे कि इटली और जर्मनी में, और कहीं-कहीं तृतीय विभाग (थर्ड
इस्टेट) के नाम से बादशाह के कर का दारोमदार उसी पर था। उसके अनन्तर जब
दस्तकारी और छोटे-मोटे कारखानों की तरक्की हो चली तो अर्ध्द सामन्त या
एकच्छत्रा शाहंशाही के युग में सामन्तों और रईसी के रक्षक रूप में और
वस्तुत: सामान्य रूप से शाहंशाहियतों के मूलाधार के रूप में यही वर्ग पाया
जाता था।''
एंगेल्स ने 'फ्रांस में गृहयुद्ध' नामक पुस्तक में सरकार की हकीकत इस
तरह लिखी हैं-
''हकीकत में एक वर्ग के द्वारा दूसरे वर्ग को सताने की मशीन के सिवाय
सरकार और कोई चीज नहीं हैं, बेशक चाहे वह जनमतमूलक हो या बादशाही हो।
कम-से-कम वह एक तरह की बुराई तो जरूर हैं, जिसे सर्वहारा ने अपने वर्ग के
प्रभुत्व के युद्ध में उत्तराधिकार के रूप में पाया हैं और उसका काम हैं कि
उस सरकार के सबसे बुरे अंशों को तो जल्द-से-जल्द मौका मिलते ही काट-छाँट कर
दे, जैसा कि पेरिस की कम्यून ने किया था। उसके शेषांश भी तभी तक रहेंगे जब
तक नये और स्वतन्त्र सामाजिक वायुमण्डल में पली नई पीढ़ी इस सरकार रूपी
कूड़े-कचरे को कूड़ेखाने में फेंक देने लायक बन न जाये।''
यहाँ पर एंगेल्स ने कई मार्क की बातें कही हैं। पहली तो यह कि एक वर्ग
के हाथ में यन्त्र की तरह बनकर सरकार दूसरे वर्ग के सताने का काममात्र देती
हैं। इसका दूसरा प्रयोजन हुई नहीं। चाहे यह सरकार किसी बादशाह की हो या
गणतन्त्र की, दोनों का यही एक काम हैं। दूसरी बात यह हैं कि श्रमिक वर्ग ने
अपने हाथ में इसकी बागडोर जो ली हैं वह मजबूरन। इस बुराई को केवल इसीलिए
उसने हथियाया हैं कि इसके द्वारा शोषकों को दबाकर और मिटाकर नई सामाजिक
व्यवस्था कायम करे। 'विषस्य विषमौषधम' के अनुसार पूँजीवादियों के शोषण आदि
रूप जहर को मारने के ही लिए श्रमिकों ने इस सरकार रूपी जहर को स्वीकार किया
हैं। फलत: उस जहर को मिटा देने के बाद यह जहर भी खुद ही मिटेगा, मिटा दिया
जायेगा। तीसरी यह कि जब तक मिट नहीं जाता तब तक भी इसका रूप पूँजीवादी
सरकारों जैसा हर्गिज नहीं रहना चाहिए। श्रमजीवी लोग इसके भद्दे और बेहूदे
हिस्से को तो फौरन काट-छाँट के निकाल देंगे, जैसा कि पेरिस कम्यून ने किया
था। कम्यून में एक तो हाकिम लोगों का चुनाव होता था। दूसरे जनता की राय से
वे जब चाहे हटा दिये जाते थे। तीसरे उनका वेतन ज्यादे से ज्यादा उतना ही
होता था जितना किसी कुशल श्रमिक का। वहाँ पुलिस और फौज अलग न होकर समस्त
जनता को ही शस्त्रास्त्रा की शिक्षा दी गयी थी और वही पुलिस एवं फौज का काम
करती थी। पूँजीवादी सरकार में ये चारों बातें नहीं होती हैं।
वहाँ तो वेतनभोगी फौज और पुलिस जनता से अलग रहती हैं जो मौके पर शोषकों
की आज्ञा से जनता की छाती पर जा बैठती हैं। हाकिम-हुक्काम की नियुक्ति तो
सरकार के बड़े अफसर ही करते हैं, यहाँ तक कि रिपब्लिक और गण शासन में भी ऐसा
ही होता हैं। उनका वेतन भी बहुत ज्यादा होता हैं। जनता जब चाहे उन्हें हटा
तो सकती ही नहीं। ये सब बातें जनता के दबाने के लिए जरूरी हैं। अगर उसकी ही
राय से सब कुछ हो तो फिर हाकिम, पुलिस या फौज उससे ख़ामखाह डरेगी। इसीलिए
उसकी छाती पर बैठने की हिम्मत उसे होगी ही नहीं। जब अपने ही आदमी सर्वत्र
रहेंगे तो फिर सतायेंगे कैसे? इसीलिए स्वतन्त्र रूप में हाकिम-हुक्काम रखे
जाते हैं। जनता ईधर भूखों मरती हैं उधर उन्हें इतनी तनख्वाह मिलती हैं कि
उनके घर घी के चिराग जलते और तवायफें नाचती हैं। इसीलिए एंगेल्स ने कहा हैं
कि ये सब चीजें तो श्रमजीवियों की सरकार में रहने न दी जायेगी। किन्तु मौका
पाते ही फौरन हटा दी जायेगी।
चौथी बात यह हैं कि अन्ततोगत्वा सारी की सारी सरकार ही एक दिन खुद खत्म
हो जायेगी, मिट जायेगी, गल जायेगी-"will wither away". उसकी जरूरत रही न
जायेगी। सभी लोग इतने विज्ञ, मुस्तैद और कर्त्तव्यनिष्ठ बन जायेगे कि वह
सारा काम खुद कर लेंगे, जो सरकार करती हैं। पुलिस और फौज का काम तो शुरू से
ही खुद करने लगते हैं। बाकी भी समय पाके स्वयं करने लग जायेगे। मगर यह बात
तभी होगी जब श्रमिकों की नई सरकार स्वतन्त्र और नये समाज की रचना कर देगी,
जब श्रेणी हीन समाज बना देगी। उनकी जो पीढ़ी इस नवीन समाज में पलेगी वही
सरकार को खत्म कर देगी, उसके चलते ही सरकार खुद-ब-खुद अपने को मिटा देगी।
यानी सरकार के द्वारा बनाया गया श्रेणीविहीन नया समाज उसे मिटा देगा।
''केला, बिच्छू, बाँस। अपने जन्मे नाश'' वाली बात हो जायेगी।
फिर 'वंश का मूल' (Origin of Family) ग्रन्थ में इसी बात को एंगेल्स ने
और भी सफाई से लिखा हैं, जिससे सरकार की असलियत पर पूरा प्रकाश पड़ता हैं।
वहाँ लिखा हैं-
''सरकारी अफसरों के हाथ में फौज और पुलिस हो जाने तथा कर वसूलने का
अधिकार आ जाने पर वे लोग समाज के ही एक हिस्से के रूप में समाज के ऊपर जा
बैठते हैं।''
''साथ ही, इतिहास जिन सरकारों का पता बताता हैं उनमें अधिकांश में
नागरिकों को जो हक मिले थे वह सम्पत्ति के अनुसार ही थे। इस तरह यह बात साफ
सिद्ध हो जाती हैं कि सरकार तो मालदारों की संस्था हैं जो भुक्खड़ों से उनकी
हिफाजत करती हैं।''
''सभ्य समाज को एक सूत्र में जोड़ने का काम सरकार का हैं। यह सरकार हर
खास-खास समयों में शासक दल की ही चीज रही हैं और बराबर इसका सचमुच यही काम
रहा हैं कि शोषितों एवं मजलूमों को दबाये रहे।''
'मकान का सवाल' नामक लेख में वह जरा और भी साफ कह देता हैं कि-
''सरकार और कुछ नहीं हैं सिवाय सम्पत्तिवाले जमींदारों और पूँजीपतियों
के वर्गों की एक सम्मिलित और सुसंगठित ताकत के। इसका काम हैं
शोषितों-किसान, मजदूर दलों-को दबाना।''
इस अन्तिम कथन से किसानों और मजदूरों को सरकार की असलियत का बखूबी पता
लग जाता हैं। वे जान जाते हैं सरकार तो जमींदारों और पूँजीपतियों की ही
हैं, चाहे उस पर ऊपर से लाख मुलम्मा चढ़ाया जाये और बहानेबाजी की जाये।
इसीलिए जब-जब मौका आता हैं यह मुलम्मा और यह बुर्का फेंक के वह किसानों एवं
मजदूरों को आ दबोचती हैं। वर्ग-संघर्ष की जरूरत भी इसीलिए हैं कि माँ-बाप
सरकार का पर्दाफाश हो जाये, न्याय की दुहाई देनेवाली सरकार की कलई खुल जाये
और किसान तथा मजदूर उसका नंगा रूप देख लें-गधो की खाल में छिपे बाघ का खूनी
पंजा पहचान के सजग हो जाये। ज्यों ही बकाश्त जमीन की लड़ाई या कोई ऐसा ही
सवाल किसान खड़ा करते हैं कि पुलिस की लाठी, गोली और हथकड़ी आ धमकती हैं।
मजदूर अगर वेतन बढ़ाने, काम का घण्टा कम करने या छुट्टी के लिए मिल-मालिकों
के सामने डटने का ख्याल करें, तो भी यही समाँ नजर आती हैं। इससे पता लग
जाता हैं कि सरकार, कानून या कानूनी तरीकों से वे कोई आशा कर नहीं सकते। ये
सभी-तीनों ही-बेगाने जो ठहरे।
इसी प्रसंग से हम एक और बात कहकर आगे बढ़ेंगे। जो लोग ऐसा समझते हैं कि
सरकार सदा से रही हैं, और क्रान्तिकारी कहे जाने वालों तक को भी हमने ऐसा
कहते और लिखते पाया हैं, उन्हें एंगेल्स ने अपनी पुस्तक 'सरकार की बुनियाद'
में यों करनेंठी दी हैं-
''इसलिए सरकार ऐसी शक्ति नहीं हैं जो किसी भी तरह समाज के माथे बाहर से
लादी गयी हो। ''यह नैतिक विचारों का वास्तविक रूप,'' और ''ज्ञान की प्रतिमा
और वास्तविकता'' भी नहीं हैं, जैसा कि हेगल ने कहा था। बल्कि उत्पादन की
प्रगति की दशा विशेष में इसे समाज ही खुद पैदा करता हैं। सरकार इस बात का
सबूत हैं कि समाज के भीतर ऐसा विरोध पैदा हो गया हैं जो हटाया जा नहीं
सकता-यह समाज ऐसे परस्पर विरोधी दलों में बँट गया हैं, जिन्हें खुद शान्त
करने में असमर्थ हैं। लेकिन कहीं ऐसा न हो जाये कि ये भीतरी विरोध और
विरोधी स्वार्थों वाले वर्ग अपने आपको और समाज को भी वाहियात संघर्षों के
बीच स्वाहा कर बैठें, एक ऐसी शक्ति की जरूरत होती हैं जो जाहिरा तौर पर
समाज से अलग हो और जिसका काम यही हो कि इस संघर्ष को धीमा कर सके और अमन
कानून के भीतर ही सीमित रखे। यही शक्ति, जो समाज से ही पैदा होती हैं,
लेकिन अपने को समाज के ऊपर रखती और अधिकाधिक रूप में समाज से अपने आपको
जुदा करती रहती हैं, सरकार कही जाती हैं।''
''राष्ट्र के भीतर वर्ग विद्वेष जितने ही तेज होते जाते हैं और
पास-पड़ोस की सरकारों का विस्तार और उनकी जनसंख्या जितनी ही बढ़ती हैं, सरकार
की शक्ति भी उतनी ही ज्यादा होती हैं। यदि हम वर्तमान यूरोप पर नजर डालें
तो पता चलेगा कि वहाँ वर्ग-संघर्ष और गैरों के जीतने में चढ़ा-बढ़ी ने सरकारी
शक्ति को इतना ज्यादा बढ़ा दिया हैं जिससे अंदेशा हैं कि कहीं वह समस्त समाज
को ही और खुद अपने को भी हजम न कर डाले।''
''इसलिए सरकार की सत्ता अनादिकाल से नहीं हैं। पूर्व समय में ऐसे भी
समाज रहे हैं जिनका काम बिना सरकार के ही चलता रहा हैं, जिनके दिमाग में
सरकार और सरकारी ताकत का ख्याल तक नहीं आया। लेकिन आर्थिक विकास के दौरान
में एक ऐसी स्थिति आ गयी जबकि समाज ख़ामखाह वर्गों में बँट गया। इसी के चलते
सरकार की जरूरत आ पड़ी। अब हम पुनरपि इस विकास की प्रगति की उस दशा में बड़ी
तेजी से पहुँच रहे हैं जब कि इन वर्गों की अनावश्यकता ही नहीं हैं। किन्तु
इनके करते उत्पादन को सचमुच बड़ा धक्का पहुँच रहा हैं। जिस तरह पूर्वकाल में
ये वर्ग पैदा हुए थे उसी तरह अब ये जरूर ही लुप्त हो जायेगे और उन्हीं के
साथ सरकार भी गायब हो जायेगी। जिस व्यवस्था में सभी कमानेवालों को
स्वतन्त्र और बराबर अधिकार हर चीज में रहे उसी के अनुसार जो समाज उत्पादन
की प्रणाली नये सिरे से चालू करेगा वही सरकार के समूचे ढाँचे को वहीं
पहुँचा देगा जो इसके लिए उचित स्थान होगा-अर्थात सरकार एक अजायेबघर में रख
दी जायेगी, जहाँ इसकी बगल में ही चरखा और काँसे की कुल्हाड़ी भी रखी होगी।''
इस लम्बे विवेचन ने यह सिद्ध कर दिया कि वर्ग-संघर्ष इस संसार का नियम
हैं और जो भी सामाजिक व्यवस्था या उसे चलानेवाली सरकार बनती हैं वह इसी
वर्गयुद्ध के ही आधार पर होती हैं। जो भी दल विजयी, प्रभुत्वसम्पन्न और
चलता पुर्जा होता हैं, जो भी कल, बल, छल से बाकियों को-अन्य वर्ग या वर्गों
को-दबा लेता हैं वही अपने ही अनुकूल समाज की व्यवस्था रचता और उसे
चलानेवाली सरकार कायम करता हैं। लेकिन इसमें खूबी यही होती हैं कि यह बात
इस चालाकी से की जाती हैं कि आम लोगों को, जनता को-किसानों और मजदूरों
को-इस बात का पता ही नहीं चलता हैं कि सरकार शोषक वर्ग की ही हैं, उसपर उसी
वर्ग की छाप लगी हैं, वह उसी के हाथ की कठपुतली हैं। पढ़े-लिखे लोग, वकील,
प्रोफेसर, पण्डित, मौलवी, पादरी, पत्र-पत्रिकाएँ, सभाएँ, व्याख्यान और
छोटे-बड़े पोथी-पोथे- सब-के-सब-सरकार का असली रूप छिपाने में ही लगे रहते
हैं। राजा या राष्ट्रपति देवताओं का ही अंश हैं, भगवान का ही अवतार हैं,
धर्म की मूर्ति हैं, न्याय और अन्याय के पलड़े को ठीक रखने के ही लिए उसका
अवतार हुआ हैं, मन्त्री और कार्यकारिणी के सदस्य एकमात्र परोपकारी जीव हैं,
वे किसानों, मजदूरों और अन्य दुखियों के कष्टों से मरे जा रहे हैं, उनमें
पूरा विश्वास कीजिए, आदि-आदि ढिंढोरे बराबर पीटे जाते हैं। फिर जनता को
धोखा क्यों न हो। वह तो जानती हैं कि इतने लोग कभी झूठ बोल नहीं सकते। भला
ये धार्माचार्य, जो प्रतिदिन ध्यान में भगवान से मिलते और बातें करते हैं,
झूठ कैसे कहेंगे ! उसे क्या पता कि ये सभी बगुला-भगत हैं, जमींदारों और
मालदारों के, जान में या अनजान में, दलाल हैं?
ऐसे जाल का भंडाफोड़ सभाओं, अखबारों, किताबों और प्रचार मात्र से नहीं
हो सकता। इन सबों से रास्ता कुछ-कुछ साफ होता हैं जरूर। मगर जनता की आँखें
नहीं खुल पाती हैं। यह तो आपबीती के ही करते होता हैं। जब लोगों के माथे आ
बीतती हैं, उन्हें स्वयं अनुभव होता हैं तभी उनकी आँखें खुलती हैं। इसीलिए
पहले बताया गया हैं कि अपने अनुभव के ही बल पर जब जनता हमारी बातों को दिल
से माने तभी हमारे साथ मर मिटेगी। इसीलिए लेनिन का यह उपदेश भी बताया जा
चुका हैं कि जनता की वास्तविक शिक्षा स्कूलों, तथा किताबों वगैरह से नहीं
होती। उससे उल्टा उसका दिमाग विकृत हो जाता हैं और उसमें मालदारों के
संस्कार भर जाते हैं। उसकी असली शिक्षा लड़ाई में ही होती हैं। हजारों
लेक्चरों और बीसियों वर्षों के काम एक संघर्ष कर देता हैं, एक लड़ाई कर देती
हैं। यह संघर्ष आँखों के पर्दे को रत्ती-रत्ती करके फाड़ फेंकता और सरकार
तथा समाज का नग्न रूप सामने ला खड़ा करता हैं। जो बगुला-भगत नकली आँसू बहाते
रहते हैं उनका भी पर्दा इस संघर्ष में खुल जाता हैं।
लेनिन ने यह भी बता दिया हैं कि यह संघर्ष और कुछ नहीं सिवाय
वर्ग-संघर्ष के। चाहे कारखानों में मजदूरों की हड़ताल और देहात में किसानों
की हड़ताल हो, या बकाश्त जमीन की सीधी लड़ाई हो, स्कूल-काँलेजों में छात्रों
की स्ट्राइक हो, या इक्के, टमटम, लौरी वालों की स्ट्राइक हो। काम करनेवाले
अपना काम बन्द कर दें जब तक उनकी उचित माँगें पूरी न हों, चाहे इसके लिए
उन्हें जो भी बला भुगतनी पड़े। यही हैं असली संघर्ष, वर्ग-संघर्ष। जहाँ यह
संघर्ष छिड़ा कि शोषकों की दया, धर्म, उदारता की सारी बातें गयीं और उनने
खूनी पंजा दिखाना शुरू कर दिया। उनकी मदद में सरकार भी आ धमकी। फलत: सबका
कच्चा चिट्ठा खुल गया और शोषितों ने देख लिया कि हकीकत क्या हैं, कौन उनके
साथी हैं, कौन नहीं ! नकली नेताओं की पोल भी इसी में खुलती हैं। मगर फिर भी
आँखें बन्द हो जा सकती हैं। ऐसा होता हैं। समाज के खूसट संस्कार फिर अन्धा
बना देते हैं। इसीलिए यह लड़ाई बराबर चालू रहे, स्थान-स्थान पर होती रहे।
तभी सभी शोषितों के दिल-दिमाग पर यह बात बज्रलीक हो जायेगी कि सरकार या
उसके नायक मालदार तक तब नहीं सर होंगे जब तक उनकी छाती पर चढ़ने को हम तैयार
न हों, जब तक उन्हें मजबूर न कर दें। अर्ताथ हर प्रकार की सीधी लड़ाई,
संघर्ष, हड़ताल जरूरी हैं। चाहे यह संघर्ष आर्थिक हो या राजनीतिक। चाहे यह
अपने ही लिए हो, या दूसरों की सहानुभूति में हो। इसके करते जनता की आँखें
खुलेंगी, वह तैयार होगी तथा करोड़ों की तादाद में लड़ाई खिंच आयेगी। इसीलिए
लेनिन ने 'हमारा कार्यक्रम' में लिखा हैं, जो सन 1905 के पहले लिखा गया था-
''श्रमजीवियों का वर्ग-संघर्ष दो भागों में बँटा हैं-
(1) आर्थिक लड़ाई, जो व्यक्तिगत पूँजीपतियों या उनकी जमातों से लड़ी जाती हैं
और जिसका लक्ष्य होता हैं श्रमिकों की दशा सुधारना।
(2) राजनीतिक लड़ाई, जो सरकार के विरुद्ध जनता के अधिकारों के विस्तार के
लिए की जाती हैं-जो जनतन्त्र शासन और मजदूरों को राजनीतिक शक्ति के बढ़ाने
के उद्देश्य से लड़ी जाती हैं।
''कोई भी आर्थिक संघर्ष कमानेवालों की दशा में स्थायी उन्नति प्राप्त
कर नहीं सकता। जब तक श्रमिकों को सभा करने का पूरा अधिकार न हो, उन्हें
यूनियन बनाने का पूरा हक न हो, वे अपने समाचार-पत्र निकाल न सकें और
राष्ट्रीय असेम्बली में अपने प्रतिनिधि भेजने की आजादी उन्हें हासिल न हो,
जैसा कि रूस और टर्की के सिवाय यूरोप के जर्मनी आदि सभी देशों के श्रमिकों
को प्राप्त हैं, तब तक विस्तृत रूप से कोई भी आर्थिक लड़ाई लड़ी जा सकती
नहीं। इसीलिए इन हकों को हासिल करने के लिए राजनीतिक युद्ध लड़ना ही होगा।
रूस में तो सिर्फ जार ही अपने मन से कानून बनाता, अफसरों को बहाल करता और
उन पर कब्जा रखता हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता हैं कि जार और उसकी सरकार किसी
वर्ग के आश्रित नहीं हैं, उन्हें किसी की परवाह नहीं हैं-वे सभी को बराबर
मानते हैं। लेकिन हकीकत तो यह हैं कि सभी अफसर मालदारों की जमात से ही लिए
जाते हैं और सबों पर पूँजीपतियों का पूरा प्रभाव होता हैं। इसीलिए मालदार
जो ही चाहते हैं हो ही जाता हैं-मन्त्री लोग बड़े-बड़े पूँजीपतियों की
दरबारदारी करते रहते हैं। लेकिन रूसी मजदूर तो दुहरी गुलामी में मर रहा
हैं। एक ओर तो उसे पूँजीवादी और जमींदार लूटते-खसोटते हैं। लेकिन ऐसा न हो
कि कहीं वह उनसे लड़ बैठे, इसीलिए पुलिस उसके हाथ-पाँव बाँधे हुए हैं, और
उसकी जबां बन्द कर दी गयी हैं। और अगर उसने लोगों के हकों की रक्षा के लिए
जरा भी कोशिश की तो उसे तंग तबाह किया जाता हैं। पूँजीपतियों के विरुद्ध की
गयी हड़ताल का नतीजा यह होता हैं कि श्रमिकों के ऊपर फौज और पुलिस की छूट हो
जाती हैं-वे धावा बोल देते हैं। इसीलिए मजबूरन हरेक आर्थिक हड़ताल को भी
राजनीतिक रूप मिल ही जाता हैं। इसीलिए सोशल डेमोक्रेटिक दल का काम हैं कि
आर्थिक और राजनीतिक-दोनों-संघर्षों को अभिन्न रूप से मिश्रित कर उन्हें
श्रमजीवियों के वर्ग-संघर्ष का रूप दे।''
इस प्रकार यह बात साफ हो गयी कि वर्ग-संघर्ष ही असली लड़ाई हैं, उसका
जहाँ तक शोषितों एवं पीड़ितों से ताल्लुक हैं। मामूली से मामूली आर्थिक लड़ाई
से ही किसान और मजदूर शुरू करें, शुरू करते हैं और यही आर्थिक लड़ाई
धीरे-धीरे राजनीतिक लड़ाई के रूप में परिणत हो जाती हैं। चाहे हम हजार न
चाहें। फिर भी यदि हम ईमानदारी से शोषितों के हकों को प्राप्त करना चाहते
हैं तो हमारी लड़ाई को राजनीतिक रूप मिली जायेगा-हमें उसे वैसा बनाना ही
पड़ेगा। लेनिन के कहने का यही मतलब हैं। राजनीति तो हमारे पग-पग पर पहाड़ की
तरह से रास्ता रोके खड़ी रहती हैं जब तक हम उसे अपना न लें। बात-बात में
सरकार टाँग अड़ाये जो चलती हैं। न्याय, ईमानदारी, हक, सच्चाई वगैरह सभी
चीजें, मालूम होता हैं, माल जायेदाद और सम्पदा की चेरी हैं। जमींदार और
कारखानेदार जो कहे वही सच! वह जो करे वही ठीक ! वह न्याय और ईमानदारी का
पुतला माना जाता हैं ! किसान कहीं जमीन के लिए किसी जमींदार से लड़ता हैं तो
जमींदार कचहरी में केस करता हैं। वहाँ हाकिम तो जमींदार या जमींदारों के
दोस्त और नाते-रिश्तेदार आमतौर से होते हैं, पुलिस का भी यही हाल होता हैं।
जमींदार का पैसा भी उस वक्त कमाल करता हैं। वह भी देखा जाता हैं कि हाकिम
लोग ज्यादातर किसी जमींदार या उसके दोस्त को ही केस की जाँच में भेज देते
हैं ! यही तो न्याय हैं ! भला बाघ बकरी का न्याय क्या करेगा? किसान को
सर्वत्र अँधेरा ही अँधेरा नजर आता हैं। सिवाय अपने ऊपर ही भरोसा करने के।
इसीलिए मर-मिट के लड़ना ही वह असली उपाय मानता हैं।
वर्ग-संघर्ष करोड़ों लोगों को अपनी ओर खींच लाता हैं। यह मुर्दों में भी
जीवन लाता हैं। इससे सबों में बिजली दौड़ जाती हैं। बढ़ते-बढ़ते यही
बड़ी-से-बड़ी आजादी की लड़ाई का रूप बन जाता हैं। शोषितों के निस्तार के लिए
कोई आशा नहीं हैं यदि वर्ग-संघर्ष को ही विस्तृत, दृढ़ और व्यापक बनाकर
राजनीतिक संघर्ष में परिणत न किया जाये। किसानों और मजदूरों की और बातें
जमींदार-मालदार बर्दाश्त कर सकते हैं। मगर इस वर्ग-संघर्ष को वे लोग फूटी
आँखों भी देख नहीं सकते। वे तो इसके नाम से ही चौंक पड़ते और सहम जाते हैं।
और लड़ाईयाँ तो गोल-मटोल करती हैं-किसी बात की सफाई होने नहीं देती हैं। मगर
वर्गयुद्ध तो दूध-का-दूध और पानी-का-पानी कर देता हैं। यह गोल बातें चलने
नहीं देता। इसके चालू होने से ही पूँजीवादी क्रान्ति को आगे चलकर सर्वहारा
क्रान्ति का रूप ख़ामखाह मिल जाता हैं।
लेनिन ने यह भी बताया हैं कि इस वर्ग-संघर्ष को व्यापक रूप कैसे दिया
जा सकता हैं; सभी तरह के अन्यायों और अत्याचारों के खिलाफ यह लड़ाई कैसे लड़ी
जा सकती हैं; किसानों और मजदूरों के सिवाय दूसरे तबकों और दलों पर जुल्म और
अत्याचार होने पर किसान और मजदूर वर्ग युद्ध कैसे कर सकते हैं और उसे असली
राजनीतिक लड़ाई बना सकते हैं। यह बात उसने अच्छी तरह समझाई हैं। ''मेरे तो
गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई'' के अनुसार किसान-मजदूरों को ऐसे हर मौकों पर
अत्याचारों के विरोध में प्रदर्शन और हड़ताल ही सूझती हैं और यही उनका असली
अस्त्र हैं। वे ऐसे किसी भी मौके पर नहीं चूकते, उनकी राजनीतिक चेतना की
यही पहचान भी हैं कि हर ऐसे मौके पर न चूकें, और आगे बढ़ें। वह लिखता हैं
उसी 'हमारे कार्यक्रम' में ही कि-
''क्रान्तिकारी सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी वाले मजदूरों की लड़ाई का
नेतृत्व केवल इसीलिए नहीं करते हैं कि जिस सामाजिक व्यवस्था के चलते
सम्पत्तिहीन लोग मजबूरन अपने आपको धनियों के हाथ बेचते हैं उसे मिटा दें।
वे लोग संगठित राजनीतिक शक्तिशाली सरकार के सामने श्रमिकों का ही
प्रतिनिधित्व कारखानेदारों के मुकाबिले में नहीं करते। किन्तु वर्तमान समाज
के हर वर्ग के सम्बन्ध में प्रतिनिधित्व करते हैं ! इससे सिर्फ यही नतीजा
नहीं निकलता कि वे केवल आर्थिक लड़ाईयों तक ही सीमित न रहें या वे ऐसा भी न
होने दें कि आर्थिक बातों का भंडाफोड़ ही उनके आन्दोलन और कार्यवाही का
मुख्य भाग न रहे। हमें तो मुस्तैदी के साथ मजदूरों की शिक्षा और उनकी
राजनीतिक चेतना के विकास का काम भी हाथ में लेना होगा।
''क्या यह सही हैं कि आमतौर से जनता को राजनीतिक संघर्ष में खींच लाने
का सबसे व्यापक रास्ता आर्थिक संघर्ष ही हैं? यह तो सोलहों आना गलत बात
हैं। आर्थिक संघर्ष जिन बातों को लेके किया जाता हैं उनके अलावे उन जैसी ही
अनेक बातें और भी हैं, जैसे सभी तरह की पुलिस की ज्यादतियाँ और
स्वेच्छाचारिता के जघन्यकृत्य, जो जनता को राजनीति में घसीटती हैं।
''डिस्ट्रिक्टबोर्डों और प्रान्तीय असेम्बलियों के सरदारों के
अत्याचार, किसानों पर बेंतबाजी, सरकारी अफसरों का पतन, शहरों के सर्वसाधारण
के साथ दरुव्यवहार, अकालपीड़ितों के लिए आन्दोलनों पर बाधाँ, ज्ञान-प्रसार
और सर्वसाधारण की जानकारी बढ़ानेवाले कामों की मनाही, जबर्दस्ती कर उगाहना
और विद्यार्थियों एवं उदार विचार के पढ़े-लिखों के साथ फौजी सलूक-ये सभी और
इसी तरह की हजारों जालिमाना बातें, जो कि सीधे आर्थिक मामलों से सम्बद्ध
नहीं हैं। लेकिन क्या आम लोगों को राजनीतिक संग्राम में खींचने में और
राजनीतिक आन्दोलन में वे बहुत ही व्यापक रूप से काम लायी नहीं जा सकती हैं?
हकीकत तो बिलकुल ही उल्टी हैं-अर्थात इस काम में ये बातें खूब लायी जा सकती
हैं।
''क्या ऐसा कहना ज्यादा युक्तिसंगत न होगा कि आर्थिक संघर्ष इस प्रकार
व्यापक रूप में चलाये जाये ताकि उनका उपयोग राजनीतिक आन्दोलन के लिए खूब
किया जा सके?
''आर्थिक संघर्ष तो श्रमजीवियों का वह सम्मिलित युद्ध हैं जो
कारखानेदारों के खिलाफ इसलिए चलाया जाता हैं कि उनकी श्रम-शक्ति की कीमत
अच्छी मिले और उनके काम करने एवं जीवनयापन की हालत अच्छी हो।
''क्रान्तिकारी सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ने हमेशा ही सुधार के लिए भी
लड़ाई लड़ी हैं और आज भी ऐसा करती हैं। लेकिन आर्थिक आन्दोलन को वह इस तरह
काम में लाती हैं कि सरकार पर न सिर्फ सभी प्रकार की सुविधाओं के लिए जोर
डाले। किन्तु प्रधान रूप से यह माँग रखे कि सरकार निरंकुश रहने न पाये। साथ
ही, यह पार्टी अपना यह फर्ज मानती हैं कि वह यह माँग भी एकमात्र
आर्थिक-संघर्षों के बल पर ही न पेश करके सभी तरह की सार्वजनिक और राजनीतिक
हलचलों के ही बल पर पेश करे। संक्षेप में, यह सुधार की लड़ाई को ठीक वैसी ही
आजादी तथा समाजवाद के लिए लड़ी जानेवाली क्रान्तिकारी लड़ाई के मातहत बना
देती हैं, जैसे किसी का एक अंश उस समूचे के मातहत होता हैं।
''जब तक मजदूरों को यह शिक्षा न दी जाये कि सभी प्रकार के जुल्मों,
दमनों, खून-खराबियों और बुराइयों के विरुद्ध फौरन आवाज उठायें, फिर चाहे
उनके शिकार कोई दूसरे ही वर्ग क्यों न हों, तब तक उनमें वास्तविक राजनीतिक
चेतना आयी नहीं सकती।
''श्रमजीवी वर्ग को सोशल डेमोक्रेट बनने के लिए यह निहायत जरूरी हैं कि
वह अपने दिमाग में, जमींदारों, पुरोहितों, बड़े अफसरों, किसानों,
विद्यार्थियों और आवारागर्दों के सामाजिक तथा राजनीतिक पहलुओं के आर्थिक
रुख की पूरी तस्वीर बना ले। उसे उनकी भली और बुरी सभी बातों को जानना होगा।
उसे उन लफ्फाजियों एवं बनावटी दलीलों को भी जान लेना होगा जिनकी ओट में
हरेक श्रेणी और समाज का हरेक स्तर (भाग) अपने असली रूप और निजी स्वार्थ के
लिए किये गये यत्नों को छिपा लेता हैं। उसे यह भी जान लेना होगा कि खास-खास
संस्थाएँ और कानून किन स्वार्थों के द्योतक हैं और किस तरह। लेकिन इसकी
पूरी जानकारी (असलियत का ज्ञान) सिर्फ किताबों से नहीं हो सकता। यह बात हो
सकती हैं ताजे उदाहरणों से और उन भण्डाफोड़ों से भी हो सकती हैं जो किसी
घटना के बाद फौरन ही किये जाये कि हमारे इर्द-गिर्द की घटनाओं का क्या
रहस्य हैं, किन बातों पर बहस-मुबाहसा जारी हैं, सो भी हरेक व्यक्ति और
संस्था अपने ही ढंग से जो कानाफूसी करके यह काम कर रही हैं, अमुक-अमुक
घटनाओं का क्या मतलब हैं, इन आँकड़ों से क्या अर्थ निकलता हैं, अदालतों में
जो खास-खास हुक्म होते या सजाएँ होती हैं उनका क्या रहस्य हैं, आदि-आदि।
जनता को क्रान्तिकारी कामों के लिए तैयार करने के लिए आमतौर से पूर्वोक्त
भण्डाफोड़ और रहस्यों का पता लगाना निहायत जरूरी और बुनियादी चीज हैं।
''जहाँ तक जनता को किसी आन्दोलन के लिए हुक्म देने का ताल्लुक हैं, वह
तो खुद हो जायेगा अगर इस तरह के राजनीतिक आन्दोलनों को मुस्तैदी से करने के
फौरन बाद ही काम का कोई ताजा और आकर्षक दृष्टान्त पेश कर दिया जाये। किसी
बदमाश को ऐन मौके पर काम करते ही समय पकड़ के फौरन ही सार्वजनिक तौर पर अगर
उसकी लानत-मलामत शुरू कर दी जाये तो लोगों पर उसके विरुद्ध काम करने के लिए
इसका कहीं ज्यादा असर होगा, बनिस्बत इसके कि हजार अपील अर्ताथ निकाल ली
जाये। अकसर तो बदमाशों को इस तरह पकड़ के सजा देने का असर लोगों की भीड़ पर
ऐसा हो जायेगा और खुद ऐसा प्रदर्शन वगैरह करने लग जायेगी कि पता ही न चलेगा
कि इस बात की उससे अपील किसने की। किसी आन्दोलन के लिए गोलमोल अपील निकालने
और पुकार मचाने से कुछ न होगा। असल में घटनास्थल पर ही कुछ खास काम ऐसे ढंग
से करना होगा जिससे लोग खुद उस ओर आकृष्ट हो जाये। सिर्फ वही लोग संघर्ष और
आन्दोलन को चालू कर सकते हैं जो जबान से कहने की अपेक्षा खुद संघर्ष और
आन्दोलन का श्रीगणेश कर देते हैं।
''सारे संसार में और रूस में भी खुद-ब-खुद पुलिस ही प्राय: आर्थिक
लड़ाईयों को राजनीतिक युद्ध बना देती हैं, और अब तो श्रमजीवी यह बात समझने
भी लगे हैं कि दरअसल सरकार किसकी मदद करती हैं।''
''(श्रमिक लोग अपने बातूनी नेताओं से कहते हैं कि) आपको हमें इस बात की
जानकारी करा देनी होगी कि इस समय सरकार तथा शासक वर्गों की कौन-कौन-सी
हरकतें हरेक बातों के सम्बन्ध में हो रही हैं। मगर गुस्ताखी माफ हो, यह
जानकारी सिर्फ दलीलों, पुस्तिकाओं और लेखों के जरिये न करायी जाये। क्योंकि
ये कभी-कभी तो ऐसी होती हैं कि उनका असर कुछ भी नहीं होता। इसके लिए तो उन
हरकतों का जीता-जागता भण्डाफोड़ चाहिए। कृपया 'श्रमिकों के बीच ज्यादा हलचल'
के मुतल्लिक बातें कम कीजिये और अधिक उत्साह के साथ हमारा बताया ही काम कर
दीजिये। जितना आप हमें समझते हैं उससे कहीं ज्यादा क्रियाशील हम हैं और
यकीन रखिये, हम उन माँगों का भी समर्थन खुली लड़ाई के जरिये करने के लिए
पूरे तैयार हैं जिनमें हमें कोई दिखावटी (जाहिरा) फायदा नजर नहीं आता। जब
आप खुद-ब-खुद अच्छी तरह क्रिया-परायण हैं नहीं, तो हमें क्या बनाइयेगा?
भलेमानसों, हममें खुद-ब-खुद आन्दोलन आ जायेगा, इस ख्याल को छोड़ के अपनी
क्रियाशीलता को ही बढ़ाने की फिक्र करो।''
लेनिन का यह अवतरण कुछ लम्बा हो गया हैं। मगर इससे इस बात की पूरी सफाई
हो गयी हैं कि नेताओं को खुद वही काम करने में आगे बढ़ना होगा जो दूसरों से
करवाना चाहते हैं। उनमें हिम्मत भी चाहिए कि अत्याचारियों को ऐन मौके पर
पकड़ के उनकी खिदमत करें। किसी की भी परवाह या डर न करें। तभी जनता को जगा
सकेंगे-उसमें बिजली दौड़ा सकेंगे। राजनीतिक लड़ाई कैसे की जाती हैं यह भी साफ
बताया गया हैं। जैसा कि रूस की तीनों क्रान्तियों में हुआ था, किसान और
मजदूर तो प्रदर्शन, हड़ताल और अपनी सीधी लड़ाई के ही जरिये शासकों एवं शोषकों
को पछाड़ सकते हैं। वे तो वर्ग-संघर्ष को ही बढ़ाते-बढ़ाते इतना व्यापक कर
देते हैं कि हर तरह की लड़ाईयों का समावेश उसी में हो जाता हैं-सभी संघर्ष,
यहाँ तक कि आजादी के युद्ध का अन्तिम मोर्चा भी, वर्ग-संघर्ष के भीतर ही
समा जाता हैं। वह तो यह मानते हैं कि असली शासक हैं शोषक लोग ही, जिन्हें
जमींदार कहिये, या पूँजीपति और मालदार शासन का सूत्र तो उन्हीं के हाथ में
हैं। वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त के अनुसार शोषित वर्ग को दबा रखने के ही लिए
शोषक-वर्ग ने सरकार को हथियाया हैं। वह सदा से ऐसा ही करता आया हैं। इसलिए
असली राजनीतिक लड़ाई यही हैं कि जब न तब उसी पर धक्का मारा जाये। हड़ताल,
सीधी लड़ाई, बकाश्त संघर्ष के जरिये या जैसे भी हो सके उन शोषकों पर ही धावा
बोला जाये। समूचे कारखाने को बन्द करने के लिए हरेक कलपुर्जे पर हाथ फेरने
और उसे तोड़ने की क्या जरूरत? जहाँ से विद्युत् शक्ति आकर उसे चालू करती हैं
उसी पर हाथ साफ क्यों न किया जाये? उसे ही क्यों न तोड़ा और बन्द कर दिया
जाये?
सर्वहारा के नेतृत्व का यही रहस्य हैं, उसकी यही कुंजी हैं। जो लोग इसे
नहीं समझ पाते वह न तो सच्चे क्रान्तिकारी हैं और न उनसे मजलूमों की असली
और कायमी भलाई ही हो सकती हैं।
रचनावली 5 : भाग - 5
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