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वैचारिकी

फेंस के उस पार

विभूति नारायण राय

अनुक्रम देह भाषा का तिलिस्म पीछे     आगे

एक पुरानी कहावत है कि विदेश नीति का खेल घरेलू दर्शकों को ध्यान में रख कर खेला जाता है। इस्लामाबाद में अगस्त की चार और पाँच तारीख़ों को भारत और पाकिस्तान के गृह मंत्रियों के बीच जो कुछ घट रहा था उसे भी वहाँ से दूर अपने टेलीविजन सेटों पर नजरें गड़ाये भारतीय और पाकिस्तानी दर्शक देख रहे थे।

ज़रा सोचिए कि सामान्य परिस्थितियों में क्या राजनाथ सिंह और चौधरी निसार अहमद एक-दूसरे के सामने पड़ने पर मुस्कुराना तो दूर हाथ भी इस ढंग से मिलाएँगे कि कहीं दूसरा छू न जाए। यह तब जब प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ सारी परंपराओं और विरोध को छोड़कर मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में नई दिल्ली आ चुके हों और मोदी बिना किसी निर्धारित कार्यक्रम के नवाज़ की नतिनी की शादी में लाहौर जा चुके हों। दोनों देशों में उनके विरोधी यह आरोप लगाते रहे हैं कि उन्होंने देश का हित दांव पर लगा कर दूसरे पक्ष से दोस्ती करने का प्रयास किया है पर उन्होंने मेंल मुलाक़ातों का सिलसिला पूरी तरह से खत्म नहीं किया फिर ऐसा क्या हुआ कि सार्क सम्मेलन के दौरान दोनों गृहमंत्री पूरी कोशिश करते रहे कि उनके हाव भाव से भूल कर भी ऐसा आभास न हो कि वे दोस्ती के हामी है। आम तौर से दुनिया भर में ऐसा नहीं होता। राजनय के क्षेत्र में आस्तीन में खंजर छिपाए लोग भी मुस्करा के मिलते हैं।

दरअसल दोनों अपनी खुद की बनाई छवि में बुरी तरह से उलझ के रह गए हैं। मोदी चुनाव प्रचार के पूरे दौर में पाकिस्तान विरोधी शब्दावली इस्तेमाल करते रहे। भाषणों में बार बार इस्तेमाल होने वाला 'मियाँ मुशर्रफ' सिर्फ जुमलेबाजी नहीं थी बल्कि यह उस मानसिक बनावट का द्योतक था जिससे संघ परिवार वर्षों से राजनीति कर रहा था। इसके विपरीत कुछ भी बोलना श्रोताओं की पारंपरिक समझ को गड़बड़ाना था। इसलिए मोदी ने जब पाकिस्तान से संबंध सुधारने की कोशिश की तो उनके बोल उनके समर्थकों के पल्ले नहीं पड़े। मुख्य विरोधी पक्ष कांग्रेस भी कश्मीर और पाकिस्तान को लेकर वही रणनीति अपनाता है जो विपक्ष में बैठने वाली भाजपा अपनाती थी। दोस्ती की कोई भी पहल उसे सरकार की कमजोरी लगती है। यह रुख मोदी सरकार को और बैक फुट पर ला देता है।

इसी तरह का परिदृश्य सीमा पार पाकिस्तान में भी है। यह एक खुला रहस्य है कि नवाज मूलत: फौज की निर्मिति हैं और शुरुआती वर्षों में वे उसे सुहाने वाली भारत विरोधी भाषा बोलते रहे हैं। सैनिक और असैनिक संबंधों के नाजुक संतुलन देश की बिगड़ती अर्थ व्यवस्था ने मूलत: कारोबारी नवाज को अपना स्वर बदलने पर मजबूर जरूर किया पर वहाँ भी यह परिवर्तन उस श्रोता के गले नहीं उतर रहा जो उनसे एक खास शब्दावली की अपेक्षा करता है। खासतौर से फौज तो इसे बिलकुल पचा नहीं पाएगी।

हाल में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चुनाव हुए। सबको पता था कि चली आ रही परंपरा के अनुसार, केंद्रीय सत्ता पर क़ाबिज़ मुस्लिम लीग (नवाज) ही इस बार चुनाव जीतेगी और यहीं हुआ भी। 41 में से 31 सीटें उसे मिली पर चुनाव में भाग सभी राष्ट्रीय दलों ने लिया और प्रचार में पर्याप्त गहमा गहमी रही। चुनाव प्रचार के दौरान पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता बिलावल भुट्टो का नारा - जो मोदी का यार है, गद्दार है गद्दार है - नवाज के धर्म संकट को बखूबी बयान करता है। नवाज भी यहाँ अपने ही चक्रव्यूह में फँसे। लगातार भारत विरोधी भंगिमा अपनाने वाले के लिए स्वाभाविक ही है कि उसे अपने घरेलू श्रोताओं के गले के नीचे शांति की भाषा उतारने में दिक्कत आ रही है।

अपने बनाए चक्रव्यूह में फसने का ही परिणाम है कि आज़ादी की सत्तरवीं वर्षगाँठ को नवाज ने कश्मीर में चल रही तथाकथित आजादी की लड़ाई को समर्पित किया और दूसरे ही दिन लालकिले से पहली बार किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने बलूचिस्तान का नाम लिया।

सार्क सम्मेलन के दौरान इस्लामाबाद में जो कुछ हुआ उसे इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। बांग्लादेश ने हमारे मुकाबले ज्यादा साफगोई से काम लिया है। पाकिस्तान से रिश्तों की खटास को स्वीकार करते हुए उसने अपने विदेश मंत्री को सम्मेलन में न भेज कर सचिव स्तर के अधिकारी से काम चला लिया। भारत की स्थिति इस अर्थ में, कुछ अधिक नाजुक है कि एक बड़ी औद्योगिक और सामरिक शक्ति के रूप में उभर रहे देश के रूप में वह नहीं चाहेगा कि सार्क के टूटने का ठीकरा उसके सर पर टूटे। इससे उसकी अंतरराष्ट्रीय छवि पर आघात पहुँचेगा। फिर इसी साल के अंत में इस्लामाबाद में सार्क के राष्ट्राध्यक्षों का सम्मेलन होने वाला है और उसमें मोदी को भी जाना है। नवाज़ के पारिवारिक कार्यक्रम में शिरकत करने वाले मोदी के लिए उसमें भाग न होना बहुत असुविधाजनक होता।

गृहमंत्री राजनाथ सिंह की भागीदारी मोदी की अगली पाकिस्तान यात्रा की पूर्व पीठिका है पर इसमें सबसे बड़ी दिक्कत दोनों प्रधानमंत्रियों के घरेलू उपभोक्ता हैं। शत्रुता के खाद पानी पर पले बढ़े ये दर्शक टी.वी. के परदे पर वही तनाव देखना चाहते हैं जो राजनाथ सिंह और चौधरी निसार अहमद की देह भाषा से झलक रहा था। पर क्या यह संभव हो सकता है कि इस बार नवाज शरीफ की दावत छोड़कर मोदी वापस चले आए और लोकसभा में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच घोषित करें कि वे इस्लामाबाद भोज खाने नहीं गए थे?

इस पूरी भूलभुलैया में मोदी के जोखिम ज्यादा है। उनके विरोधी भी मानते हैं कि वर्षों बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री को विदेशों में इतना महत्व मिल रहा है। वर्षों बाद इतनी आक्रामक विदेश नीति भारत ने अपनाई है और ताबड़तोड़ विदेशी दौरे करने वाले किसी भारतीय प्रधानमंत्री को गौर से सुना जा रहा है। इसके पीछे पिछले कुछ वर्षों में एक आर्थिक महाशक्ति बन कर उभरे देश की कद काठी तो है ही मोदी द्वारा विदेश नीति को दिया जाने वाला महत्व भी है। इस पूरे घटनाक्रम में मोदी की यह महत्वाकांक्षा भी झलक ही जाती है कि उन्‍हें एक विश्व नेता का दर्जा मिले। पाकिस्तान से संबंधों में बिगाड़ इस पर पानी फेर सकता है। याद रखना होगा कि युद्ध की नहीं बल्कि शांति की बात करने वाले को ही विश्व जनमत स्वीकृति देता है।

दोनों प्रधानमंत्रियों के लिए जरूरी है कि वे अपने घरेलू समर्थकों को शांति की भाषा सुनने के लिए प्रशिक्षित करे। यह दुस्तर कार्य है पर इस चुनौती को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा। घरेलू चुनौतियों खासतौर से एक दुराग्रही सेना की महत्वाकांक्षाओं से घिरे नवाज के लिए यह ज्यादा मुश्किल है। मोदी इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए बेहतर स्थिति में हैं - आखिर हाल में ही गो रक्षकों को ललकार उन्होंने अपने पारंपरिक अराजक समर्थकों से छुटकारा पाने का एक दुस्साहसिक प्रयास तो किया ही है। शांति की वकालत भी ऐसा ही एक प्रयास हो सकता है।


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