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कविता

उद्धव-शतक

जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’

अनुक्रम 6. गोपी-वचन उद्धव-प्रति पीछे     आगे

३४.

रस के प्रयोगनि के सुखद सु जोगनि के,

जेते उपचार चारु मंजु सुखदाई हैं।

तिनके चलावन की चरचा चलावै कौन,

देत ना सुदर्शन हूँ यौं सुधि सिराई हैं॥

करत उपाय ना सुभाय लखि नारिनि को,

भाय क्यौं अनारिनि कौ भरत कन्हाई हैं।

ह्याँ तौ विषमज्वर-वियोग की चढ़ाई यह,

पाती कौन रोग की पठावत दवाई हैं॥

३५.

ऊधौ कहौ सूधौ सौ सनेस पहिले तौ यह,

प्यारे परदेश तैं कबै धौ पग पारिहैं।

कहै रतनाकर तिहारी परि बातनि मैं,

मीड़ि हम कबलौं करेजौ मन मारिहैं॥

लाइ-लाइ पाती छाती कब लौं सिरेहैं हाय,

धरि-धरि ध्यान धीर कब लगि धारिहैं।

बैननि उचारिहैं उराहनौं सबै धों कबै,

श्याम कौ सलौनो रूप नैननि निहारिहैं

३६.

षटरस-व्यंजन तौ रंजन सदा ही करें,

ऊधौ नवनीत हूँ सप्रीति कहूँ पावै हैं।

कहै रतनाकर बिरद तौ बखानैं सब,

साँची कहौ केते कहि लालन लड़ावै हैं॥

रतन सिंहासन बिराजि पाकसासन लौं,

जग चहुँ पासनि तो शासन चलावै हैं।

जाइ जमुना तट पै कोऊ बट छाँह माहिं,

पाँसुरी उमाहि कबौं बाँसुरी बजावै हैं॥

३७.

कान्ह-दूत कैंधौं ब्रह्म-दूत ह्वै पधारे आप,

धारे प्रन फेरन को मति ब्रजवारी की।

कहै रतनाकर पै प्रीति रीति जानत ना,

ठानत अनीति आनि नीति लै अनारी की॥

मान्यौ हम, कान्ह ब्रह्म एक ही, कह्यौ जो तुम,

तौहूँ हमें भावति ना भावना अन्यारी की।

जैहे बनि बिगरि न वारिधिता वारिधि की,

बूँदता बिलैहैं बूँद बिबस बिचारी की॥

३८.

चोप करि चंदन चढ़ायौ जिन अंगनि पै,

तिनपै बजाइ तूरि धूरि दरिबौ कहौ।

रस रतनाकर सनेह निखारयौ जाहि,

ता कच कों हाय जटा-जूट बरिबौ कहौ॥

चंद अरविंद लौं सराह्यौ ब्रजचंद जाहि,

ता मुख कौं काकचंचुवत करिबौ कहौ।

छेदि-छेदि छाती छलनी कै बैन-बाननि सौं,

तामें पुनि ताइ धीर-नीर धरिबौ कहौ॥

३९.

चिंता-मनि मंजुल पँवारि धूरि-धारनि मैं,

काँच-मन-मुकुर सुधारि रखिबौ कहो।

कहै रतनाकर वियोग-आगि सारन कौं,

ऊधौ हाय हमकौ बयारि भखिबौ कहौ॥

रूप-रस-हीन जाहि निपट निरूपि चुके,

ताकौ रूप ध्वाइबौ औ' रस चखिबौ कहौ।

एते बड़े बिस्व माहिं हेरें हूँ न पैये जाहि,

ताहि त्रिकुटी मैं नैन मूँद लखिबौ कहौ॥

४०.

आए हौ सिखावन कौं जोग मथुरा तैं तोपै,

ऊधौ उए वियोग के बचन बतरावौ ना।

कहै रतनाकर दया करि दरस दीन्यौ,

दुख दरिबै कौं, तोपै अधिक बढ़ावौ ना॥

टूक-टूक ह्वै है मन-मुकुर हमारौ हाय,

चूकि हूँ कठोर-नैन पाहन चलावौ ना।

एक मनमोहन तौ बसिकै उजारयौ मोहिं,

हिय मैं अनेक मनमोहन बसावौ ना॥

४१.

चुप रहौ ऊधौ पथ मथुरा कौ गहौ,

कहौ न कहानी जो बिविध कहि जाए हौ।

कहै रतनाकर न बूझिहैं बुझाएँ हम,

करत उपाय बृथा भारी भरमाए हौ॥

सरल स्वभाव मृदु जानि परौ ऊपर तैं,

उर पर घाव करि लौन सौ लगाए हौ।

रावरी सुधाई में भरि है कुटिलाई कूटि,

बात की मिठाई मैं लुनाई लाइ ल्याए हौ॥

४२.

नेम ब्रत संजम के पींजरे परे को जब,

लाज-कुल-कानि-प्रतिबंधहिं निवारि चुकीं।

कौन गुन गौरव कौ लंगर लगावै जब,

सुधि बुधि ही का भार टेक करि टारि चुकीं॥

जोग रतनाकर मैं साँस घूँटि बूड़े कौन,

ऊधौ हम सूधौ यह बानक विचारि चुकीं।

मुक्ति-मुकता कौ मोल माल ही कहा है जब,

मोहन लला पै मन-मानिक ही वारि चुकीं॥

४३.

ल्याए लादि बादि ही लगावन हमारे गरैं,

हम सब जानी कहौ सुजस-कहानी ना।

कहै 'रतनाकर' गुनाकर गुबिंद हूँ कें,

गुननि अनत बेधि सिमिटि समानी ना॥

हाथ बिन मोल हूँ बिकी न मग हूँ मैं कहूँ,

तापै बटमार-टोल लोय हूँ लुभानी ना।

केती मिली मुकुति बधूबर के कूबर मैं,

ऊबर भई जौ मधुपुर में समानी ना॥

४४.

हम परतच्छ मैं प्रमान अनुमाने नाहिं,

तुम भ्रम-भौंर मैं भलैं हीं बहिबौ करौ।

कहै रतनाकर गुबिंद-ध्यान धारैं हम,

तुम मनमानौ ससा-सिंग गहिबौ करौ॥

देखति सो मानति हैं सूधो न्याव जानति हैं,

ऊधो ! तुम देखि हूँ अदेख रहिबौ करौ।

लखि ब्रज-भूप अलख अरूप ब्रह्म,

हम न कहैंगी तुम लाख कहिबौ करौ॥

४५.

रंग-रूप रहित लखात सबही हैं हमै,

वैसो एक और ध्याइ धीर धरिहैं कहा।

कहै रतनाकर जरी हैं बिरहानल मैं,

और अब जोति कौं जगाइ जरिहैं कहा॥

राखौ धरि ऊधौ उतै अलख अरूप ब्रह्म,

तासौं काज कठिन हमारे सरिहैं कहा।

एक ही अनंग साधि साधन सब पूरीं अब,

और अंग-रहित अराधि करिहैं कहा॥

४६.

कर बिनु कैसे गाय दुहिहैं हमारी वह,

पद-बिनु कैसे नाचि थिरकि रिझाइहै।

कहै रतनाकर बदन-बिनु कैसें चाखि,

माखन बजाइ बैनु गोधन गवाइहै॥

देखि सुनि कैसें दृग-स्रवन बिनाही हाय,

भोरे ब्रजवासिनि की बिपति बराइहै।

रावरौ अनूप कोई अलख अरूप ब्रह्म,

ऊधौ कहो कौन धौ हमारे काज आइहै॥

४७.

वै तो बस बसन रँगावैं मन रँगत ये,

भसम रमावैं वे ये आपुहीं भसम हैं।

साँस-साँस माहिं बहु बासर बितावत वे

इनकै प्रत्येक साँस जात ज्यों जनम हैं॥

ह्वै कै जग-भुक्ति सौं बिरक्त मुक्ति चाहत वे

जानत ये भुक्ति मुक्ति दोऊ विष सम हैं।

करिकै बिचार सूधौ उधौ मन माहिं लखौ

जोगी सौं वियोग-भोग-भोगी कहा कम हैं॥

४८.

जोग को रमावै और समाधि को जगावै इहाँ

दुख-सुख साधनि सौं निपट निबेरी हैं।

कहै रतनाकर न जानैं क्यों इतै धौं आइ

साँसनि की सासना की बासना बखेरी हैं॥

हम जमराज की धरावतिं जमा न कछू

सुर-पति-संपति की चाहति न हेरी हैं।

चेरी हैं न ऊधौ ! काहू ब्रह्म के बबा की हम

सूधौ कहे देति एक कान्ह की कमेरी हैं॥

४९.

सरग न चाहैं अपबरग न चाहैं सुनो

भुक्ति-मुक्ति दोऊ सौं बिरक्ति उर आनैं हम।

कहै रतनाकर तिहारे जोग-रोग माहि

तन मन साँसनि की साँसति प्रमानैं हम॥

एक ब्रजचंद कृपा-मंद-मुसकानि ही मैं

लोक परलोक कौ अनंद जिय जानैं हम।

जाके या बियोग-दुख हू में सुख ऐसो कछू

जाहि पाइ ब्रह्म-सुख हू मैं दुख मानैं हम॥

५०.

जग सपनौ सौ सब परत दिखाई तुम्हैं

तातैं तुम ऊधौ हमैं सोवत लखात हौ।

कहै रतनाकर सुनै को बात सोवत की

जोई मुँह आवत सो बिबस बयात हौ॥

सोवत मैं जागत लखत अपने कौ जिमि

त्यौं हीं तुम आपहीं सुज्ञानी समुझात हौ।

जोग-जोग कबहूँ न जानै कहा जोहि जकौ

ब्रह्म-ब्रह्म कबहूँ बहकि बररात हौ॥

५१.

ऊधौ यह ज्ञान कौ बखान सब बाद हमैं

सूधौ बाद छाँड़ि बकबादहिं बढ़ावै कौन।

कहै रतनाकर बिलाय ब्रह्म काय माहिं

आपने सौं आपनुपौ आपुनौ नसावै कौन॥

काहू तौ जनम मैं मिलैंगी श्यामसुंदर कौ

याहू आस प्रानायाम-साँस मैं उड़ावै कौन।

परि कै तिहारी ज्योति-ज्वाल की जगाजग मैं

फेरि जग जाइबे की जुगती जरावै कौन॥

५२.

वाही मुख मंजुल की चहतिं मरीचैं सदा

हमकौं तिहारी ब्रह्म-ज्योति करिबौ कहा।

कहै रतनाकर सुधाकर-उपासिनि कौं

भानु की प्रभानि कैं जुहारि जरिबौ कहा॥

भोगि रहीं बिरचे विरंचि के संजोग सबै

ताके सोग सारन कौं जोग चरिबौ कहा।

जब ब्रजचंद को चकौर चित चारु भयौ

बिरह चिंगारिनि सौं फेरि डरिबौ कहा॥

५३.

ऊधौ जम-जातना की बात न चलावौ नैकु,

अब दुख सुख कौ बिबेक करिबौ कहा।

प्रेम-रतनाकर-गंभीर परे मीननि कौं,

इहिं भव-गोपद की भीति भरिबौ कहा॥

एकै बार लैहैं मरि मीच की कृपा सौं हम,

रोकि-रोकि साँस बिनु मीच मरिबौ कहा॥

छिन जिन झेली कान्ह-बिरह-बलाय तिन्हैं,

नरक-निकाय की धरक धरिबौं कहा॥

५४.

जोगिनि की भोगिनि की बिकल बियोगिनि की

जग मैं न जागती जमातैं रहि जाइँगी।

कहैं रतनाकर न सुख के रहे जो दिन

तौ ये दुख-द्वंद्व की न रातैं रहि जाइँगी॥

प्रेम-नेम छाँड़ि ज्ञान-छेम जो बतावत सो

भीति ही नहीं तो कहा छातैं रहि जाइँगी।

घातैं रहि जाइँगी न कान्ह की कृपा तें इती

ऊधौ कहिबै कौं बस बातैं रहि जाइँगी॥

५५.

कठिन करेजौ जो न करक्यौ बियोग होत

तापर तिहारौ जंत्र मंत्र खँचिहै नहीं।

कहै रतनाकर जरी हैं बिरहानल मैं

ब्रह्म की हमारैं जिय जोति जँचिहै नहीं॥

ऊधौ ज्ञान-भान की प्रभानि ब्रजचंद बिना

चहकि चकोर चित चोपि नचिहै नहीं।

स्याम-रंग-राँचे साँचे हिय हम ग्वारिनि कै

जोग की भगौंहीं भेष-रेख रँचिहै नहीं॥

५६.

नैननि के नीर औ उसीर सौं पुलकावलि

जाहि करि सीरौ सीरी बातहिं विलासैं हम।

कहै रतनाकर तपाई बिरहातप की

आवन न देति जामैं बिषम उसासैं हम॥

सोई मन-मंदिर तपावन के काज आज

रावरे कहे तैं ब्रह्म-ज्योति लै प्रकासैं हम।

नंद के कुमार सुकुमार कौं बसाइ यामैं

ऊधौ अब लाइ कै बिसास उदबासैं हम॥

५७.

जौहैं अभिराम स्याम चित की चमक ही मैं

और कहा ब्रह्म की जगाइ जोति जौहैंगी।

कहै रतनाकर तिहारी बात ही सौं रुकी

साँस की न साँसति कै औरौ अवरौहैंगी॥

आपुही भई है मृगछाला ब्रजबाला सूखि

तिनपै अपर मृगछाला कहा सौहैंगी।

ऊधौ मुक्ति-माल बृथा मढ़त हमारे गरैं

कान्ह बिना तासौं कहौ काकौ मन मोहैंगी॥

५८.

कीजै ज्ञान भानु कौ प्रकास गिरि-सृंगनि पै

ब्रज मैं तिहारी कला नैंकु खटिहैं नहीं।

कहै रतनाकर न प्रेम-तरु पैहै सूखि

यकी डार-पात तृन-तूल घटिहैं नहीं॥

रसना हमारी चारु चातकी बनी हैं ऊधौ

पी-पी कौ बिहाई और रट रटिहैं नहीं।

लौटि-पौटि बात कौ बवंडर बनाबत क्यों

हिय तैं हमारे घनश्याम हटिहैं नहीं॥

५९.

नैननि के आगै नित नाचत गुपाल रहैं,

ख्याल रहै सोई जो अनन्य-रसवारे हैं।

कहै रतनाकर सो भावना भरीयै रहै,

जाके चाव भाव रचैं उर मैं अखारे हैं॥

ब्रह्म हूँ भए पै नारि ऐसियै बनी जौ रहैं,

तौ तौ सहै सीस सबै बैन जो तिहारे हैं।

यह अभिमान तौ गवैहैं ना गये हूँ प्रान,

हम उनकी हैं वह प्रीतम हमारे हैं॥

६०.

सुनीं गुनीं समझीं तिहारी चतुराई जिती

कान्ह की पढ़ाई कविताई कुबरी की हैं।

कहै रतनाकर त्रिकाल हूँ त्रिलोक हूँ मैं

आनैं हम नैंकु ना त्रिदेव की कही की हैं॥

कहहि प्रतीति प्रीति नीति हूँ त्रिबाचा बाँधि

ऊधौ साँच मन की हिये की अरु जी की हैं।

वे तो हैं हमारे ही हमारे ही हमारे ही औ

हम उनहीं की उनहीं की उनहीं की हैं॥

६१.

नेमु ब्रत संजम के आसन अखंड लाइ

साँसनि कौं घूँटिहैं जहाँ लौं गिलि जाइगौ।

कहै रतनाकर धरैंगी मृगछाला अरु

धूरि हूँ दरैंगी जऊ अंग छिलि जाइगौ॥

पाँच आँचि हूँ की झार झेलिहैं निहारि जाहि

रावरौ हू कठिन करेजौ हिलि जाइगौ।

सहिहैं तिहारे कहैं साँसति सबै पै बस

एती कहि देहु कै कन्हैया मिलि जाइगौ॥

६२.

साधि लैहैं जोग के जटिल जे बिधान ऊधौ

बाँधि लैहैं लंकनि लपेटि मृगछाला हू।

कहै रतनाकर सु मेलि लैहैं छार अंग

झेलि लैहैं ललकि घनेरे घाम पाला हू॥

तुम तौ कही औ अनकही कहि लीनी सबै

अब जौ कहौ तो कहैं कछु ब्रज-बाला हू।

ब्रह्म मिलिबै तै कहा मिलिबै बतावौ हमें

ताकौ फल जब लौं मिलै ना नंदलाला हू॥

६३.

साधिहैं समाधि औ अराधिहैं सबै जो कहौ

आधि-व्याधि सकल स-साध सहि लैहैं हम।

कहै रतनाकर पै प्रेम-प्रन-पालन कौ

नेम यह निपट सछेम निरबैहैं हम॥

जैहैं प्रान-पट लै सरूप मनमोहन कौ

तातें ब्रह्म रावरे अनूप कौम मिलैंहैं हम।,

जौंपे मिल्यौ तौ धाइ चाय सौं मिलैंगी पर

जौ न मिल्यौ तो पुनि इहाँ ही लौटि एहैं हम॥

६४.

कान्ह हूँ सौं आन ही विधान करिबे कौं ब्रह्म

मधुपुरियान की चपल कँखियाँ चहैं।

कहैं रतनाकर हँसैं कै कहौं रोवैं अब

गगन-अथाह-थाह लेन मखियाँ चहैं॥

अगुन-सगुन-फंद-बंद निरवारन कौं

धारन कौं न्याय की नुकीली नखियाँ चहैं॥

मोर-पँखियाँ कौ मौर-वारौ चारु चाहन कौ

ऊधौ अँखियाँ चहैं न मोर-पँखियाँ चहैं॥

६५.

ढोंग जात्यौ ढरकि परकि उर सोग जात्यौ

जोग जात्यौ सरकि स-कंप कँखियानि तैं।

कहै रतनाकर न लेखते प्रपञ्च ऐंठि

बैठि धरा न लेखते कहूँधौं नखियानि तैं॥

रहते अदेख नाहिं वेष वह देखत हूँ

देखत हमारी जान मोर पँखियानि तैं।

ऊधौ ब्रह्म-ज्ञान कौ बखान करते न नैंकु

देख लेते कान्ह जौ हमारी अँखियानि तैं॥

६६.

चाव सौं चले हौ जोग-चरचा चलाइबै कौं

चपल चितौनी तैं चुचात चित-चाह है।

कहै रतनाकर पै पार न बसैहैं कछु

हेरत हिरैहैं भरयौ जो उर उछाह है॥

अंडे लौं टिटहरी के जहै जू बिबेक बहि

फेरि लहिबै की ताके तनक न राह है।

यह वह सिंधु नाहिं सोखि जो अगस्त्य लियौ

ऊधौ यह गोपिन के प्रेम कौ प्रवाह है॥

६७.

धरि राखौ ज्ञान गुन गौरव गुमान गोइ

गोपिन कौं आवत न भावत भड़ंग है।

कहै रतनाकर करत टायँ-टायँ वृथा

सुनत न कौ इहाँ यह मुहचंग है॥

और हूँ उपाय केते सहज सुढंग ऊधौ

साँस रोकिबै कौं कहा जोग ही कुढंग है।

कुटिल कटारी है अटारी है उतंग अति

जमुना-तरंग है, तिहारौ सतसंग है॥

६८.

प्रथम भुराइ चाह-नाय पै चढ़ाइ नीकै

न्यारी करौ कान्ह कुल-कूल हितकारी तैं।

प्रेम-रतनाकर की तरह तरंग पारि

पलटि पराने पुनि प्रन-पतवारी तैं॥

और न प्रकार अब पार लहिबै कौ कछु

अटकि रही हैं एक आस गुनवारी तैं।

सोऊ तुम आइ बात विषम चलाइ हाय

काटन चहत जोग कठिन कुठारी तैं॥

६९.

प्रेम-पाल पलटि उलटि पतवारी-पति

केवल परान्यौ कूब-तूँबरी अधार लै।

कहै रतनाकर पठायौं तुम्हैं तापै पुनि

लादन कौं जोग कौ अपार अति भार लै॥

निरगुन ब्रह्म कहौ रावरौ बनैहै कहा

ऐहै कछु काम हूँ न लंगर लगार लै।

विषम चलावौ ज्ञान-तपन-तपी ना बात

पारी कान्ह तरनी हमारी मँझधार लै॥

७०.

प्रथम भुराइ प्रेम-पाठनि पढ़ाइ उन

तन-मन कीन्हें बिरहागि के तपेला हैं।

कहै रतनाकर त्यौं आप अब तापै आइ

साँसनि की साँसति के झारत झमेला हैं॥

ऐसे-ऐसे सुभ उपदेश के दिवैयनि की

ऊधौ ब्रजदेश मैं अपेल रेल-रेला हैं॥

वे तौ भए जोगी जाइ पाइ कूबरी कौ जोग

आप कहैं उनके गुरु हैं किधौं चेला हैं॥

७१.

एते दूरि देसनि सौं सखनि-संदेसनि सौं

लखन चहैं जो दसा दुसह हमारी है।

कहै रतनाकर पै विषम बियोग-बिथा

सबद-बिहीन भावना की भाववारी है॥

आनैं उर अंतर प्रतीति यह तातैं हम

रीति नीति निपट भुजंगनि की न्यारी है।

आँखिनि तैं एक तो सुभाव सुनिबै कौ लियौ

काननि तैं एक देखिबै की टेक धारी है॥

७२.

दौनाचल कौ ना यह छटक्यौ कनूका जाहि

छाइ छिगुनी पै छेम-छत्र छिति छायौ है।

कहै रतनाकर न कूबर बधू-वर कौ

जाहि रंच राँचे पानि परस गँवायौ है॥

यह गरु प्रेमाचल दृढ़-ब्रत-धारिनि कौ

जाकै भर भाव उनहूँ कौ सकुचायौ है।

जानै कहा जानि कै अजान ह्वै सुजान कान्ह

ताहि तुम्हैं बात सौं उड़ावन पठायौ है॥

७३.

सुधि-बुधि जाति उड़ी जिनकी उसाँसनि सौं

तिनकौं पठायौ कहा धीर धरि पाती पर।

कहै रतनाकर त्यौं बिरह-बलाय ढाइ

मुहर लगाइ गए सुख-थिर-थाती पर।

और जो कियौ सौ कियौ ऊधौ पै न कोऊ बियौ

ऐसी घात घूनी करै जनम-संघाती पर।

कूबरी की पीठ तैं उपारि भार भारी तुम्हैं

भेज्यौ ताहि थापन हमारी दीन छाती पर॥

७४.

सुघर सलोने स्यामसुंदर सुजान कान्ह

करुना-निधान कें बसीठ बनि आए हौ।

प्रेम-प्रनधारी गिरधारी को सनेसौ नाहिं

होत हैं अँदेस झूठ बोलत बताए हौ॥

ज्ञान-गुन गौरव-गुमान-भरे फूले फिरौ

बंचक के काज पै न रंचक बराए हौ।

रसिक सरौमनि कौ नाम बदनाम करौ

मेरी जान ऊधौ कूर-कूबरी-पठाए हौ॥

७५.

कान्ह कूबरी के हिए हुलसे-सरोजनि तैं

अमल अनंद-मकरंद जो ढरारै है।

कहै रतनाकर यौं गोपी उर संचि ताहि

तामैं पुनि आपनौ प्रपंच रंच पारै है॥

आइ निरगुन-गुन गाइ ब्रज मैं जो अब

ताकौ उद्गार ब्रह्मज्ञान-रस गारै है।

मिलि सो तिहारौ मधु मधुप हमारैं नेह

देह मैं अछेह विष विषम बगारै है॥

७६.

सीता असगुन कौं कटाई नाक एक बेरि

सोई करि कूब राधिका पै फेरि फाटी है।

कहै रतनाकर परेखौं नाहिं याकौ नैंकु

ताकी तौ सदा की यह पाकी परिपाटी है॥

सोच है यहै कै संग ताके रंगभौन माहिं

कौन धौं अनोखौ ढंग रचति निराटी है।

छाँटि देत कूबर कै आँटि देति डाँट कोऊ

काटि देति खाट किधौं पाटि देति माटी है॥

७७.

आए कंसराइ के पठाए वे प्रतच्छ तुम

लागत अलच्छ कुबजा के पच्छवारे हौ।

कहै रतनाकर बियोग लाइ लाई उन

तुम जोग बात के बवंडर पसारे हौ॥

कोऊ अबलानि पै न ढरकि ढरारे होत

मधुपुरवारे सब एकै ढार ढारे हौ।

लै गए अक्रूर क्रूर तन तैं छुड़ाइ हाय

ऊधौ तुम मन तैं छुड़ावन पधारे हौ॥

७८.

आए हौ पठाए वा छतीसे छलिया के इतै

बीस बिसै ऊधौ वीरवामन कलाँच ह्वै।

कहै रतनाकर प्रपञ्च न पसारौ गाढ़ै

बाढ़ै पै रहौगे साढ़े बाइस ही जाँच ह्वै॥

प्रेम अरु जोग मैं है जोग छठैं-आठैं परयौ

एक ह्वै रहैं क्यों दोऊ हीरा अरु काँच ह्वै।

तीन गुन पाँच तत्व बहकि बतावत सो

जैहै तीन-तेरह तिहारी तीन-पाँच ह्वै॥

७९.

कंस के कहे सौं जदुबंस कौ बताइ उन्हैं

तैसैं हीं प्रसंसि कुब्जा पै ललचायौ जौ।

कहै रतनाकर न मुष्टिक चनूर आदि

मल्लनि कौ ध्यान आनि हिय कसकायौ जौ॥

नंद जसुदा की सुखमूरि करि धूरि सबै

गोपी ग्वाल गैयनि पै गाज लै गिरायौ जौ।

होते कहूँ क्रूर तौ न जानैं करते धौं कहा

एतो क्रूर करम अक्रूर ह्वै कमायौ जौ॥

८०.

चाहत निकारत तिन्हैं जो उर-अंतर तैं

ताकौ जोग नाहिं जोग मंतर तिहारे में।

कहै रतनाकर बिलग करिबे मैं होति

नीति विपरीत महा कहति पुकारे में॥

तातैं तिन्हैं ल्याइ लाइ हियँ तैं हमारे बेगि

सौचियै उपाय फेरि चित्त चेतवारे में।

ज्यौं-ज्यौं बसे जात दूरि-दूरि प्रान-मूरि

त्यौं-त्यौं धँसे जात मन-मुकुर हमारे में॥

८१.

ह्याँ तो ब्रजजीवन सौ जीवन हमारौ हाय

जानैं कौन जीव लैं उहाँ के जन-जन मैं।

कहैं रतनाकर बतावत कछू कौ कछू

ल्यावत न नैंकु हूँ बिबेक निज मन मैं॥

अच्छिनि उधारि ऊधौ करहु प्रतच्छ लच्छ

इत पसु-पच्छिनि हूँ लाग है लगन मैं।

वाहू की न जीहा करै ब्रह्म की समीहा सुनौ

पीहा-पीहा रटत पपीहा मधुवन मैं॥

८२.

बाढ़्यौ ब्रज पै जो ऋन मधुपुर-बासिनि कौ

तासौं ना उपाय काहू भाय उमहन कौं।

कहै रतनाकर बिचारत हुतीं हीं हम

कोऊ सुभ जुक्ति तासौं मुक्त ह्वैं रहन कौं॥

कीन्यौ उपकार दौरि दोउनि अपार ऊधौ

सोई भूरिभार सौं उबारता लहन कौं।

लै गयौ अक्रूर क्रूर तब सुख-मूर कान्ह

आए तुम आज प्रान-ब्याज उगहन कौं॥

८३.

पुरतीं न जोपै मोर चंद्रिका किरीट-काज

जुरतीं कहा न काँच किरचैं कुभाय की।

कहै रतनाकर न भावते हमारे नैन

तौ न कहा पावते कहूँधौं ठाँय पाय की॥

मान्यौ हम मान कै न मानती मनाएँ बेगि

कीरति-कुमारी सुकुमारी चित चाय की।

याही सोच माहिं हम होतिं दूबरी के कहा

कूबरी हू होती ना पतोहू नंदराय की॥

८४.

हरि-तन-पानिप के भाजन दृगंचल तैं

उमगि तपन तैं तपाक करि धावै ना।

कहै रतनाकर त्रिलोक-ओकमंडल में

बेगि ब्रह्मद्रव उपद्रव मचावै ना॥

हर कौं समेत हर-गिरि के गुमान गारि

पल मैं पतालपुर पैठन पठावै ना।

फैले बरसाने मैं न रावरी कहानी यह

बानी कहूँ राधे-आधे कान सुनि पावै ना॥

८५.

आतुर न होहु ऊधौ आवति दिबारी अवै

वैसियै पुरंदर-कृपा जौ लहि जाइगी।

होत नर ब्रह्म-ज्ञान सौं बतावत जो

कछु इहि नीति को प्रतीति गहि जाइगी॥

गिरिवर धारि जौ उबारि ब्रज लीन्यौ बलि

तौ तौ भाँति काहूँ यह बात रहि जाइगी।

नातरु हमारी भारी बिरह-बलाय-संग

सारी ब्रह्म-ज्ञानता तिहारी बहि जाइगी॥

८६.

आवति दीवारी बिलखाइ ब्रज-वारी कहैं

अबकै हमारै गाँव गोधन पुजैहै को।

कहै रतनाकर विविध पकवान चाहि

चाह सौं सराहि चख चंचल चलैहै को॥

निपट निहोरे जोरि हाथ निज साथ ऊधौ

दमकति दिव्य दीपमालिका दिखैहै को।

कूबरी के कूबर तैं उबारि न पावैं कान्ह

इंद्र-कोप-लोपक गुबर्धन उठैहै को॥

८७.

विकसित विपिन बसंतिकावली कौ रंग

लखियत गोपिन के अंग पियराने में।

बौरे बृंद लसत रसाल-बर बारिनि के

पिक की पुकार है चबाव उमगाने में॥

होत पतझार झार तरुनि-समूहनि कौ

बैहरि बतास लै उसास अधिकाने में।

काम बिधि बाम की कला मैं मीन-मेष कहा

ऊधौ नित बसत बसंत बरसाने में॥

८८.

ठाम-ठाम जीवनबिहीन दीन दीसै सबे

चलति चबाई-बात तापत घनी रहै।

कहै रतनाकर न चैन दिन-रैन परै

सूखी पत-छिन भई तरुनि अनी रहै॥

जारयौ अंग अब तौ बिधाता है इहाँ कौ भयौ

तातैं ताहि जारन की ठसक ठनी रहै।

बगर-बगर बृषभान के नगर हित

भीषम-प्रभाव ऋतु ग्रीष्म बनी रहै॥

८९.

रहति सदाई हरियाई हिय-घायनि में

ऊरध उसास सौ झकोर पुरवा की है।

पीव-पीव गोपी पीर-पूरित पुकारति है

सोई रतनाकर पुकार पपिहा की है॥

लागी रहै नैननि सौं नीर की झरी औ

उठै चित मैं चमक सो चमक चपला की है।

बिनु घनश्याम धाम-धाम ब्रज-मंडल मैं

उधौ नित बसंति बहार बरसा की है॥

९०.

जात घनश्याम के ललात दृग कंज-पाँति

घेरि दिख-साध-भौंर भीरि की अनी रहै।

कहै रतनाकर बिरह बिधु बाम भयौ

चन्द्रहास ताने घात घायल घनी रहै॥

सीत-घाम बरषा-बिचार बिनु आने ब्रज

पंचवान-बानि की उमड़ ठनी रहै।

काम बिधना सौं लहि फरद दवामी सदा

दरद दिवैया ऋतु सरद बनी रहै॥

९१.

रीते परे सकल निषंग कुसुमायुध के

दूर दुरे कान्ह पै न तातै चालै चारौ है।

कहै रतनाकर बिहाइ बर मानस कौं

लीन्यौ हे हुलास हंस बास दूरिवारौ है॥

पाला परै आस पै न भावत बतास बारि

जात कुम्हिलात हियौ कमल हमारौ है।

षट ऋतु ह्वै है कहूँ अनत दिगंतनि मैं

इत तौ हिमंत कौ निरंतर पसारौ है॥

९२.

काँपि-काँपि उठत करेजौ कर चाँपि-चाँपि

उर ब्रजवासिनि के ठिठुर ठनी रहै।

कहै रतनाकर न जीवन सुहात रंच

पाला की पटास परी आसनि घनी रहै॥

वारिनि में बिसद बिकास न प्रकास करै

अलिनि बिलास में उदासता सनी रहै।

माधव के आवन की आवतिं न बातैं नैंकु

नित प्रति तातैं ऋतु सिसिर बनी रहै॥

९३.

माने जब नैंकु ना मनाएँ मन-मोहन के

तोपै मन-मोहिनि मनाए कहा मानौ तुम।

कहै रतनाकर मलीन मकरी लौं नित

आपुनौंहीं जाल अपने हीं पर तानौ तुम॥

कबहुँ परे न नैन-नीर हूँ के फेर माहिं

पैरिबौ सनेह-सिंधु माहिं कहा ठानौ तुम।

जानत न ब्रह्म हूँ प्रमानत अलच्छ ताहि

तोपै भला प्रेम कौं प्रतच्छ कहा जानौ तुम॥

९४.

हाल कहा बूझत बिहाल परी बाल सबै

बसि दिन द्वैक देखि दृगनि सिधाइयौ।

रोग यह कठिन न ऊधौ कहिबै के जोग

सूधो सौ सँदेस याहि तू न ठहराइयौ॥

औसर मिलै और सर-ताज कछू पूछहिं तौ

कहियौ कछू न दसा देखी सो दिखाइयौ।

आह के कराहि नैन नीर अवगाहि कछू

कहिबौ कौं चाहि हिचकी लैं रहि जाइयौ॥

९५.

नंद जसुदा औ गाय गोप गोपिका की कछु

बात बजभान-भौन हूँ की जनि कीजियौ।

कहै रतनाकर कहतिं सब हा-हा खाइ

ह्याँ के परपंचनि सौं रंच न पसीजियौ॥

आँस भरि ऐहैं और उदास मुख ह्वै हैं हाय

ब्रज-दुख त्रास की न तातैं साँस लीजियौ।

नाम कौ बताइ और जताइ गाम ऊधौ बस

स्याम सौ हमारी राम-राम कहि दीजियौ॥

९६.

ऊधौ यहै सूधौ सौ सँदेश कहि दीजौ एक

जानति अनेक न विवेक ब्रज-बारी हैं।

कहै रतनाकर असीम रावरी तौ क्षमा

क्षमता कहाँ लौं अपराध की हमारी हैं॥

दीजै और ताडन सबै जो मन भावै पर

कीजै न दरस-रस बंचित बिचारी हैं।

भली हैं बुरी हैं और सलज्ज निरलज्ज हू हैं

को कहै सौ हैं पै परिचारिका तिहारी हैं॥


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