(अप्रैल 10, 1600 को सैनफ़्रांसिस्को क्षेत्र में दिया गया भाषण)
तुममें जो बाइबिल के अध्येता हैं, वे सभी ...समझते हैं कि समस्त यहूदी
इतिहास और यहूदी विचार-संपत्ति का निर्माण दो (प्रकार के) शिक्षकों-पुरोहितों
और पैगंबरों--द्वारा हुआ है। पुरोहित रूढि़वादी शक्ति के प्रतिनिधि हैं और
पैगंबर प्रगति की शक्ति के। बात यह है कि सब जगह एक रूढि़मय कर्मकांड घुस आता
है, औपचारिकता प्रत्येक वस्तु को जकड़ लेती है। यह बात हर देश और प्रत्येक
धर्म पर लागू होती है। उसके बाद नयी दृष्टि वाले कुछ नए द्रष्टा आते हैं, वे
नए आदर्शों और विचारों का प्रचार करते हैं और समाज को एक नयी गति देते हैं।
कुछ पीढि़यों में उनके अनुयायी अपने गुरुओं के विचारों के प्रति इतने भक्त हो
जाते हैं कि वे उनके अतिरिक्त कुछ और नहीं देख पाते। इस के सर्वोपरि
प्रगतिशील उदार उपदेशक कुछ वर्षों में सर्वाधिक रूढि़ग्रस्त पुरोहित बन
जाएंगे। यह प्रगतिशील विचारक अपनी बारी आने पर, किंचित् भी आगे बढ़नेवाले
मनुष्य को रोकने लगेंगे। उन्होंने जो स्वयं पा लिया है, वे उससे आगे किसी
को नहीं जाने देंगे। वे, जो वस्तु जैसी है उसे, वैसा ही रहने देने में
संतुष्ट हैं।
वह शक्ति, जो प्रत्येक देश में प्रत्येक धर्म के निर्णायक सिद्धांतों द्वारा
काम करती है, धर्म के बाह्य रूपों में प्रकट होती है।...सिद्धांत और
पुस्तकें, कुछ नियम और अंग संचालन खड़े होना, बैठ जाना, ये सब उपासना की उसी
कोटि से संबंध रखते हैं। आध्यात्मिक उपासना इसलिए पार्थिव बन जाती है कि
अधिकांश मान-जाति उसे अपना सके। किसी भी देश में मनुष्य जाति की विशाल
बहुसंख्या आत्मा की उपासना आत्मा के रूप में कदापि नहीं कर सकेगी। यह अभी
संभव नहीं है। मैं नहीं जानता कि कभी ऐसा समय आएगा, जब वह ऐसा कर पाएगी। इस
नगर में कितने हजार ऐसे हैं, जो ईश्वर की उपासना सूक्ष्म रूप में करने की
क्षमता रखते हैं? बहुत कम। वे नहीं कर सकते; वे अपनी इंद्रियों में रहते हैं।
तुमको उन्हें स्पष्ट, निश्चित विचार देने होंगे। उनसे कुछ भौतिक करने को
कहो: बीस बार खड़े होओ, बीस बार बैठो। यह उनकी समझ में आएगा। उनसे कहो कि एक
नथुने से साँस लें और दूसरे से बाहर निकालें। इसे वे समझ जाएंगे। सूक्ष्म के
विषय में यह आदर्शवाद वे बिल्कुल स्वीकार नहीं कर सकते। इसमें उनका दोष नहीं
है। ...यदि तुममें सूक्ष्म रूप में ईश्वर की उपासना की क्षमता है, तो ठीक!
पर एक समय था, जब तुम यह नहीं कर सकते थे। यदि लोग असंस्कृत होते हैं, तो
धार्मिक धारणाएँ स्थूल होती हैं, धर्म के बाह्य रूप भद्दे और भौतिक होते हैं।
यदि लोग परिष्कृत और संस्कृत होते हैं, तो ये रूप अपेक्षाकृत सुंदर होते
हैं। रूप होने ही चाहिए, समय के साथ वे केवल बदलते रहते हैं।
यह एक विचित्र बात है कि संसार में इस्लाम से अधिक (रूपों की उपासना का)
विरोधी दूसरा धर्म नहीं उत्पन्न हुआ। मुसलमान न चित्रकला सहन कर सकते हैं, न
मूर्ति, न संगीत।...ये मूर्तिपूजा के मार्ग हैं। इमाम अपने श्रोताओं की ओर
मुँह नहीं करता। यदि वह ऐसा करता है, तो भेद उत्पन्न होता है। इस प्रकार यह
नहीं होता। पर फिर भी पैगंबर की मृत्यु को दो शताब्दियाँ भी नहीं बीतने पायी
कि पीर पूजा (आरंभ) हो गई! यहाँ पीर का अंगूठा है! यहाँ चमड़ी है! और इसी
प्रकार। औपचारिक उपासना उन अवस्थाओं में से एक है, जिनमें होकर हमें गुज़रना
होता है। इसलिए इसके विरुद्ध आंदोलन करने के बजाए हमें उपासना में से
सर्वोत्तम को ले लेना और उसके आधारभूत सिद्धांतों का अध्ययन करना चाहिए।
निश्चय ही, उपासना का निम्नतम स्वरूप वह है, जो (वृक्ष और प्रस्तर-पूजा)
कहलाती है। प्रत्येक अपरिष्कृत, असंस्कृत व्यक्ति किसी भी वस्तु को ले
लेगा, उसमें कुछ (अपने) विचार जोड़ देगा: और इससे वह सहारा पाएगा। वह हड्डी के
टुकडे़ अथवा पत्थर-किसी की भी--पूजा कर सकता है। उपासना की इन सब अपरिष्कृत
अवस्थाओं में मनुष्य ने कभी पत्थर को पत्थर समझकर वृक्ष को वृक्ष समझकर
नहीं पूजा। इस बात को तुम अपनी सहज बुद्धि से जानते हो। विद्वान् कभी-कभी कहते
हैं कि मनुष्य पत्थरों और वृक्षों को पूजते हैं। वह सब बकवास है। वृक्ष-पूजा
उन दशाओं में से एक है, जिनमें होकर मानव जाति गुज़री है। मनुष्य ने वासतव
में कभी भी चेतना के अतिरिक्त और किसी की पूजा नहीं की। वह आत्मा है (और)
आत्मा के अतिरिक्त कुछ और अनुभव नहीं कर सकता। दैवी मन कभी (आत्मा की
पदार्थ के रूप में पूजा करने की) भद्दी भूल नहीं कर सकता। इस दशा में मनुष्य
ने पत्थर में चेतना की अथवा वृक्ष में चेतना की धारणा की। उसने (कल्पना की)
कि उस सत्ता का कुछ भाग (पत्थर) में अथवा वृक्ष में रहता है, और (पत्थर में
अथवा) वृक्ष में आत्मा होती है।
वृक्ष-पूजा और सर्प-पूजा सदा साथ होती हैं। ज्ञान का वृक्ष माना जाता है।
वृक्ष तो सदा होना ही चाहिए और वृक्ष किसी प्रकार सर्प से संबंधित है। ये
प्राचीनतम (पूजा के रूप) हैं। यहाँ भी तुम देखते हो कि कोई विशेष वृक्ष अथवा
कोई विशेष पत्थर पूजा जाता है, संसार के सब वृक्ष अथवा पत्थर नहीं पूजे
जाते।
(रूपों की उपासना की) एक उच्चतर अवस्था (पूर्वजों और ईश्वर की) प्रतिमाओं
का पूजन है। लोग दिवंगत मनुष्यों की मूर्तियाँ और ईश्वर की कल्पित प्रतिमाएँ
बनाते हैं और फिर इन मूर्तियों ओर प्रतिमाओं को पूजते हैं।
इससे उच्चतर उपासना दिवंगत संतों और सत्कर्मी स्त्री-पुरुषों की है।
मनुष्य उनके अवशेषों को पूजते हैं। (वे अनुभव करते हैं कि) किसी प्रकार इन
अवशेषों में संतों का आभास है और वह उनकी सहायता करेगा। (वे विश्वास करते हैं
कि) यदि वे संत की अस्थियों का स्पर्श करेंगे, तो रोगमुक्त हो जाएंगे। यह
नहीं कि अस्थियाँ रोग शमन करती हैं, वरन् यह कि उनमें जो संत रहता है, वह करता
है।...
ये सब उपासना की निम्न अवस्थाएँ हैं और फिर भी उपासना हैं। हम सबको उनमें से
पार होना पड़ता है। केवल बौद्धिक दृष्टिकोण से ही उनमें कमी पायी जाती है।
अपने ह्दयों में हम उनसे छुटकारा नहीं पा सकते। (यदि) तुम किसी मनुष्य से सब
संत और प्रतिमाएँ छीन लो और उसे मंदिर में न जाने दो, तो भी वह सारे देवताओं
की कल्पना कर लेगा। उसे करना होगा। एक अस्सी वर्ष के बूढ़े ने मुझसे कहा कि
वह ईश्वर की कल्पना बादल पर बैठे हुए एक लंबी दाढ़ीवाले बूढ़े मनुष्य के
अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता। यह क्या दर्शाता है? उसका शिक्ष्ाण पूर्ण
नहीं है। उसको आध्यात्मिक शिक्षा बिल्कुल नहीं मिली है। और वह मानवस्वरूप
के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की कल्पना करने में असमर्थ है।
औपचारिक उपासना का एक इससे ऊँचा स्तर भी है--प्रतीकवाद का जगत्। रूप वहाँ भी
हैं। पर वे न वृक्ष हैं, (न पत्थर), न प्रतिमाएँ और न संतों के अवशेष। वे
प्रतीक हैं। संसार भर में सभी प्रकार (के प्रतीक) हैं। वृत्त नित्यता का
महान प्रतीक हैं।...वर्ग है; हमारा सुपरिचित प्रतीक क्रूस है; और S तथा Z के
समान एक दूसरी को काटती हुई दो अँगुलियाँ।
कुछ लोग प्रतीकों से कोई भी अर्थ न ग्रहण करने का निश्चय कर लेते हैं द्य ...
और (दूसरे) उनमें सब प्रकार के जादू-टोने (चाहते है)। यदि तुम उन्हें
सीधी-सादी सच्चाई बताते हो, तो वे उसे स्वीकार नहीं करेंगे।...मनुष्य की
प्रकृति ही ऐसी है; (वे समझते हैं) कि तुम जितना कम समझते हो, तुम उतने ही
अधिक अच्छे अधिक महान हो। सभी युगों में, सभी देशों में ऐसे उपासक कुछ
चित्रों और रूपों द्वारा ठगे जाते हैं। ज्यामिति सब वीज्ञानों में श्रेष्ठतम
थी। अधिकांश जनता उसके बारे में कुछ नहीं जानती थी। उनका विश्वास था कि यदि
ज्यामितिशास्त्री बस एक वर्ग खींच दे और उसके चारों कोनों पर जादू का मंतर
फूँक दे, तो सारा संसार पलटने लगेगा, आकाश फट जाएगा, ईश्वर नीचे आ जाएगा और
इधर-उधर उछलेगा और दास बन जाएगा। आज ऐसे पागलों का एक पूरा समुदाय है, जो
दिन-रात ऐसी बातों में धुँध रहते हैं। यह सब एक प्रकार का रोग है। यहाँ
आवश्यकता दार्शनिक की नहीं, डॉक्टर की है।
मैं मज़ाक उड़ा रहा हूँ, पर मुझे बहुत दु:ख है। भारत में मुझे यह समस्या बहुत
(गंभीर) लगती है। ये जाति के विनाश, अध:पतन और संकट के चिन्ह्र हैं।
स्फूर्ति का चिन्ह्र, जीवन का चिन्ह्र, आशा का चिन्ह्र, स्वास्थ्य का
चिन्ह्र, प्रत्येक ऐसी वस्तु का चिन्ह्र, जो अच्छी है, शक्ति होती है। जब
तक शरीर जीवित है, शरीर में शक्ति, मन तें शक्ति, हाथ में (शक्ति) होनी चाहिए।
(इस सब जादू-टोने) के द्वारा आध्यात्मिक शक्ति-प्राप्ति की इच्छा में एक भय
है, जीवन का भय। मेरा तात्पर्य इस प्रकार के प्रतीकों से नहीं है।
पर इन प्रतीकों में कुछ सत्य है। ऐसा कोई असत्य नहीं हो सकता, जिसके पीछे
कुछ सत्य न हो। कोई नकल नहीं हो सकती, जब तक कि कुछ असल न हो।
विभिन्न धर्मो में पूजा के प्रतीकात्मक रूप हैं। उनमें कुछ नूतन, स्फूर्त,
कवित्वमय, स्वस्थ प्रतीक हैं। क्रूस के प्रतीक ने करोड़ों मनुष्यों के
जीवन पर जो अद्भुत प्रभुत्व रखा है, उस पर विचार करो! द्वितीया के चंद्रमा के
प्रतीक का स्मरण करो। इस एक प्रतीक की आकर्षण-शक्ति पर विचार करो। संसार में
सर्वत्र उत्तम और महान प्रतीक हैं। वे भावना को प्रत्यक्ष बनाते हैं और मन
में कुछ विशिष्ट अवस्थाएँ उत्पन्न करते हैं, हम देखते हैं कि अनपवाद रूप
से सदा विश्वास और प्रेम की महान शक्ति का (वे सृजन करते हैं)।
प्रोटेस्टैंट और कैथोलिक (चर्च) की तुलना करो। पिछले चार सौ वर्षों में (जिस
अवधि में) वे दोनों रहे हैं, किसने अधिक संत और शहीद उत्पन्न किया है?
कैथोलिक अनुष्ठानों का अत्यंत तीव्र प्रभाव उन सब दीपकों, सुगंधित धूप,
मोमबत्तियों और पुजारियों की पोशाकों का स्वयं अपने में बड़ा प्रभाव होता है।
प्रोटेस्टैंटवाद काफ़ी नीरस और कवित्वहीन है। प्रोटेस्टैंटों ने बहुत कुछ
उपलब्ध किया है, कुछ बातों में उन्होंने कैथोलिकों की अपेक्षा काफ़ी अधिक
स्वतंत्रता दी है, और इसलिए उनकी धारणा अधिक स्पष्ट और अधिक वैयक्तिक है।
यह सब ठीक है, पर उन्होंने काफ़ी खो भी दिया है। गिरजाघरों की चित्रकारी को
लो। वह काव्य की सृष्टि करने का एक प्रयास है। यदि हम कविता के भूखे हैं, तो
उसका आस्वाद क्यों न करें? आत्मा जो चाहती है, वह उसे क्यों न दें? हम
संगीत चाहते हैं। प्रेसबिटेरियन संगीत के भी विरोधी हैं। वे ईसाईयों के
'मुसलमान' हैं। समस्त कविता का नाश हो! सब अनुष्ठानों का नाश हो! तब वे
संगीत का सृजन करते हैं। वह इंद्रियों को भाता है। मैंने देखा है कि वे
सामूहिक रूप से उपदेश-मंच के ऊपर किस प्रकार प्रकाश की किरण के लिए प्रयत्न
करते हैं।
बाहरी स्तर पर जीवात्मा को जितनी कविता और जितने धर्म की आवश्यकता है, लेने
दो। क्यों नहीं?...तुम (औपचारिक उपासना से) लड़ नहीं सकते। वह बार-बारविजयिनी
होगी।... यदि, जो कैथोलिक करते हैं, वह तुमको पसंद नहीं है तो, उनसे अच्छा
करो। पर हम न तो किसी वस्तु को बढि़या बनायेंगे और न उस कविता को स्वीकार
करेंगे, जो पहले से है। यह एक भयावह स्थिति है! कविता नितांत आवश्यक है। तुम
संसार के सब से बड़े दार्शनिक हो सकते हो, पर दर्शन उच्चतम कविता है। वह सूखी
हड्डीयाँ नहीं हैं। वह वस्तुओं का सार-तत्व है। सत्य स्वयं किसी द्वैतवाद
से अधिक कतित्वमय है।...
धर्म में विद्वत्ता का कोई स्थान नहीं है। बहुसंख्या के लिए विद्वत्ता इस
मार्ग में बाधा है।.. हो सकता है कि किसी मनुष्य ने संसार के सब पुस्तकालय
पढ़ डाले हों। और हो सकता है कि वह बिल्कुल धार्मिक न हो, और कोई दूसरा, जो
कदाचित् अपना नाम भी नहीं लिख सकता, धर्म का अनुभव करता है और उसे प्राप्त
करता है। समस्त धर्म हमारी अंत: अनुभूति है। जब मैं 'मानव-निर्मायक धर्म'
शब्दों का उपयोग करता हूँ, तो मेरा तात्पर्य न पुस्तकों से होता है, न
विश्वासों से न सिद्धांतों से। मेरा तात्पर्य उस मनुष्य से होता है, जिसने
अपने ह्दय में स्थित उस अनंत आभास के कुछ अंश को पा लिया है, पूर्णतया अनुभव
कर लिया है।
मैं जीवन भर जिस मुनष्य के चरणों में बैठा हूँ और वे उसके कुछ थोडे़ से विचार
हैं, जिनके प्रचार का मैं यत्न कर रहा हूँ (कठिनता से) अपना नाम लिख सकता था।
मैंने अपने जीवन में उसके समान दूसरा मनुष्य नहीं देखा, और मैंने सारा संसार
घूमा है। जब मैं उस मनुष्य के बारे में सोचता हूँ, तो मैं अपने को मूर्ख जैसा
अनुभव करता हूँ, इसलिए कि मैं पुस्तकें पढ़ना चाहता हूँ और उसने कभी नहीं
पढ़ीं। दूसरों के खा चुकने के बाद वे पत्ता चाटना नहीं चाहते थे क्योंकि वे
स्वयं अपनी पुस्तक थे। मैं अपने समस्त जीवन भर यही दोहराता रहा हूँ कि जैक
ने क्या कहा है, जॉन ने क्या कहा है, और मैं स्वयं कुछ नहीं कहता। इसमें
क्या महानता है कि तुम जानते हो कि जैक ने पच्चीस वर्ष पहले क्या कहा था और
जॉन ने पाँच वर्ष पहले क्या कहा है? मुझसे वह कहो, जो 'तुमको' कहना है।
ध्यान रखो कि विद्वता का कोई मूल्य नहीं है। विद्वता के विषय में तुम सब
ग़लती करते हो। ज्ञान का एकमात्र मूल्य इस बात में है कि वह मस्तिष्क को
शक्ति देता है, उसे नियमित करता है। इस निरंतर निगलते रहने के कारण, यह
आश्चर्य की बात है कि, हम सभी को क़ब्ज नहीं हो गया। हम अब रुक जाएं सब
पुस्तकों को जला दें, अपने को पकड़ें और सोचें। तुम सब अपने 'व्यक्तित्व'
(की बात) करते हो और उसके नष्ट होने की बात पर बौखला उठते हो। इस निगलते
रहने के कारण तुम उसे अपने जीवन का प्रत्येक क्षण गँवा रहे हो। यदि तुममें से
कोई भी मेरे उपदेश पर विश्वास करे, तो मुझे दु:ख होगा। यदि मैं तुममें अपने
लिए सोचने की शक्ति को स्फुरित कर सकूँ, तो मुझे अत्यंत प्रसन्नता होगी।...
मेरी इच्छा नर-नारियों से बात करने की हैं, भेड़ों से नहीं। नर और नारियों से
मेरा तात्पर्य व्यक्तियों से है। तुम नन्हें बच्चे नहीं हो कि गली में से
गंदे चिथड़े खींच लाओ और उन्हें बाँध-बूँधकर गुडि़या बना लो!
'यह विद्या का स्थान है! वह व्यक्ति विश्वविद्यालय में कार्य करता है! वह
उन सब बातों के बारे में जानता है, जो श्री रिक्तजी ने कही हैं।' पर श्री
रिक्तजी ने कुछ नहीं कहा है! यदि मेरा बस होता, तो मैं...प्रोफ़ेसर से कहता,
"यहाँ से निकल जाओ! तुम कुछ नहीं हो!" याद रखो इस व्यक्तित्व को, जिसे हम
कितना भी मूल्य चुकाकर रखना चाहते हैं! चाहो तो ग़लत सोचो, चिंता नहीं, तुमको
सत्य प्राप्त होता हैं, या नहीं। ध्येय है, मन को संयमित करना। वह सत्य,
जिसे तुम दूसरों से लेकर निगलते हो, तुम्हारा नहीं होगा। तुम न मेरे मुँह से
सत्य की शिक्षा दे सकते हो और न मेरे मुँह से सत्य की शिक्षा ले सकते हो।
कोई दूसरे को सिखा नहीं सकता। तुमको स्वयं ही सत्य का अनुभव करना है और उसे
अपनी प्रकृति के अनुसार विकसित करना है।...सबको व्यक्तित्व प्राप्त करने
का, अपने पैरों पर खड़े होने का, अपने विचार स्वयं सोचने का, अपनी आत्मा को
प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। दूसरों के, द्वारा दिए हुए सिद्धांतों को
निगलने से कोई लाभ नहीं--जेल में सिपाहियों की भाँति एक साथ खड़े होने का, एक
साथ बैठने का एक साथ भोजन करने का और एक साथ सबके सिर हिलाने का। विविधता जीवन
का चिन्ह्र है। एकरूपता मृत्यु की निशानी है।
एक बार मैं एक भारतीय नगर में था। एक वृद्ध पुरुष मेरे पास आया। उसने कहा,
"स्वामी, मुझे मार्ग दिखाओं।" मैंने देखा कि वह मनुष्य मेरे सामने की इस
मेज़ के समान मुर्दा था। मानसिक और आध्यात्मिक रूप से वह सच-मुच निर्जीव था।
मैंने पूछा, "क्या मैं जो कहँ, वह तुम करोगे? क्या तुम चोरी कर सकते हो?
क्या तुम शराब पी सकते हो? क्या तुम मांस खा सकते हो?"
मनुष्य चकित बोला, "आप यह क्या सिखा रहे हैं!"
मैंने उससे कहा, "क्या इस दीवार ने कभी चोरी की है? क्या इस दीवार ने कभी
शराब पी है?"
"जी, नहीं।"
मनुष्य चोरी करता है, और वह शराब पीता है, और ईश्वर बन जाता है। "मैं जानता
हू, मेरे मित्र, कि तुम दीवार नहीं हो। कुछ करो, कुछ करो!" मैंने देखा कि यदि
वह मनुष्य चोरी करे, तो उसकी आत्मा मुक्ति के मार्ग पर चल पड़ेगी।
मैं कैसे जानूँ कि तुम सब जो एक बात कहते हो, साथ खड़े होते हो, साथ बैठते हो,
अलग अलग व्यक्ति हैं? यह मार्ग मृत्यु की ओर जाता है! अपनी आत्माओं के लिए
कुछ करो। यदि इच्छा हो, तो कुछ ग़लत करो, पर करो अवश्य! यदि मेरी बात
तुम्हारी समझ में अभी नहीं आती,तो धीरे-धीरे आ जाएगी। जैसा आत्मा पर बुढ़ापा
उतर आया है। वह मोर्चा खा गई है। मोर्चे को छुड़ा दो, और तब हम आगे बढ़ें। अब
तुम समझते होगे कि संसार में बुराई क्यों है। घर जाओ और उसके विषय में सोचो,
केवल इस मोर्चे को छुड़ाने के लिए!
हम पार्थिव वस्तुओं के लिए प्रार्थना करते हैं। किसी मंतव्य को प्राप्त करने
के लिए हम दुकानदारी रीति से ईश्वर की पूजा करते हैं। जाओ और भोजन-वस्त्र के
लिए याचना करो! पूजा अच्छा बात है! कुछ सदा कुछ-नहीं से अच्छा होता है। 'एक
अंधा मामा होना, एक भी मामा न होने से अच्छा है।' एक बहुत धनी युवक बीमार पड़
जाता है और अपनी बीमारी से मुक्ति पाने के लिए गरीबों को दान देने लगता है। यह
अच्छा काम है, पर तो भी धर्म नहीं है, आध्यात्मिक धर्म। यह सब पार्थिव स्तर
पर है। क्या पार्थिव है और क्या नहीं है? जब ध्येय संसार होता है और
ईश्वर उसकी प्राप्ति का साधन बनता है, तो यह पार्थिव है। जब ध्येय ईश्वर
होता है और संसार उस ध्येय के प्राप्त करने का साधन मात्र बन जाता है, तो
आध्यात्मिकता आरंभ हो जाती है।
इस प्रकार, (पार्थिव) जीवन के प्रचुर आकांक्षी के लिए सारे स्वर्ग इस जीवन के
ही विस्तार होते हैं। वह मरे हुए सभी लोगों से मिलना चाहता है और एक बार फिर
हँसी-खुशी में समय बितान चाहता है।
एक महिला जो माध्यम थीं, दिवंगत आत्माओं को हम तक उतारती थी। वे बहुत उदार
ह्दय थीं, पर माध्यम कहलाती थीं। बहुत ठीक! यह महिला मुझे बहुत पसंद करती थीं
और उन्होंने मुझे आमंत्रित किया। सब आत्माएँ मेरे प्रति बहुत नम्र रहीं।
मुझे बहुत विचित्र अनुभव हुआ। तुम समझते हो कि यह एक (आध्यात्मिक बैठक),
मध्य रात्रि थी। माध्यम बोली,..."मैं यहाँ एक भूत खड़ा देखती हूँ। भूत कहता
है कि उस बेंच पर एक हिंदू सज्जन बैठे हैं।" मैं उठ खड़ा हुआ। बोला, "आपको यह
कहने के लिए किसी भूत की आवश्यकता नहीं थी।"
वहाँ एक विवाहित युवक मौजूद था, बुद्धिमान और सुशिक्षित। वहाँ वह अपनी माँ से
मिलने आया था। माध्यम ने कहा, "अमुक की माँ यहाँ है।" यह युवक मुझे अपनी माँ
के बारे में बता रहा था। जब उनकी मृत्यु हुई थी, तो वे बहुत दुबली थीं, पर जो
माँ परदे में से आयीं। काश, तुमने भी उसे देखा होता! मैं देखना चाहता था कि यह
युवक क्या करेगा। मैं चकित हुआ, जब वह उछलकर खड़ा हो गया और प्रेत को छाती से
लगाकर बोला, "अरे माँ, तुम आत्माओं के देश में कितनी सुंदर हो गई हो।" मैंने
कहा, मैं धन्य हूँ, जो यहाँ हूँ। यह मुझे मानव-प्रकृति में सूझ प्रदान करता
है।"
अपनी औपचारिक उपासना को लौटते हुए जब तुम ईश्वर की उपासना इस जीवन अथवा इस
संसार जैसे किसी साध्य के साधन के रूप में करते हो, तो वह उपासना की निम्न
अवस्था है।... अधिकांश लोगों को कभी इस मांस के पिंड ओर इंद्रियों के आनंदों
से ऊँची किसी वस्तु की धारणा ही नहीं हुई। इस जीवन में भी इन बेचारों को जो
अनंद मिलते हैं, वे वही हैं,जो पशुओं को प्राप्त है।...वे पशुओं को खाते हैं।
वे अपनी संतान को प्यार करते हैं। क्या मनुष्य का समस्त ऐश्वर्य यही है?
और हम सर्वशक्तिमान ईश्वर की पूजा करते हैं! किसलिए? केवल हमें इन पार्थिव
वस्तुओं को देने के लिए और सदा उनकी रक्षा करने के लिए।...इसका अर्थ होता है
कि हम पशुओं और पक्षियों से आगे नहीं बढ़े हैं। हम उनसे अच्छे नहीं हैं। हम
उनसे अधिक नहीं जानते। और हम पर बला पड़े, हमें उनसे कुछ अधिक का ज्ञान होना
चाहिए! अंतर केवल यही है कि उनके पास हमारे ईश्वर के समान ईश्वर नहीं है
...हमारे पास भी वैसी ही पाँच इंद्रियां हैं (जैसी कि पशुओं के हैं), केवल
उनकी हमसे अच्छी हैं। हम एक कौर भोजन भी उतने स्वाद से नहीं खा सकते, जिससे
कुत्ता हड्डी चिचोरता है। जीवन में हमारी अपेक्षा उन्हें अधिक आनंद आता है;
इस प्रकार हम पशुओं से तनिक हीन हैं।
तुम कुछ ऐसा क्यों बनना चाहते हो, जिसे प्रकृति की कोई भी शक्ति तुमसे अधिक
अच्छी तरह कार्यान्वित कर सकती हो? तुम्हारे विचारने के लिए यह सबसे
महत्वपूर्ण प्रश्न है। क्या तुम चाहते हो, इस जीवन को, इन इंद्रियों को, इस
शरीर को, अथवा उस वस्तु को, जो अनंत गुनी ऊंची और उत्तम है, उस वस्तु को,
जहाँ से फिर गिरना नहीं है, फिर परिवर्तन नहीं है?
तो इसका अर्थ क्या होता है?... तुम कहते हो, "हे ईश्वर, मुझे मेरी रोटी दो,
मेरा पैसा दो! मेरे रोग दूर करो! यह करो और वह करो!" प्रत्येक बार जब तुम यह
कहते हो, तो तुम स्वयं को सम्मोहित करते हो, इस विचार से, 'मैं भौतिक तत्व
हूँ और वही मेरा ध्येय है।' प्रत्येक बार जब तुम किसी भौतिक इच्छा की
पूर्ति का प्रयत्न करते हो, तो तुम अपने से कहते हो --मैं शरीर हूँ, मैं
आत्मा नहीं हूँ।
ईश्वर को धन्यवाद है कि यह एक स्वप्न है। ईश्वर को धन्यवाद है कि यह
विलीन हो जाएगा। ईश्वर को धन्यवाद है कि मृत्यु है, शानदार मृत्यु, इसलिए
कि वह अंत करते है इस भ्रम का, इस स्वप्न का, इस हाड़-मांस का, इस कष्ट का।
कोई भी स्वप्न चिरस्थायी नहीं हो सकता; उसे देर सबेर समाप्त होना ही है।
ऐसा कोई नहीं है, जो इस स्वप्न को सदा जीवित रख सके। मैं ईश्वर को धन्यवाद
देता हूँ कि यह ऐसा है! फिर भी पूजा का यह रूप ठीक है। बढ़े चलो! किसी वस्तु
के लिए प्रार्थना करना न करने से अच्छा है। ये अवस्थाएँ हैं, जिनमें से हम
गुजरते हैं। ये पहले पाठ हैं धीरे-धीरे मन किसी ऐसी वस्तु के बारे में सोचने
लगता है, जो इंद्रियों से, शरीर से, इस संसार के आनंदों से ऊँची है।
(मनुष्य) इसे कैसे करता है? पहले वह एक विचारक बनता है। जब तुम किसी समस्या
के बारे में विचार करते हो, तो उसमें विषयानंद बिल्कुल नहीं होता,पर विचार का
अविकल आनंद होता है।...यह है, जो मनुष्य को बनाता है।... कोई महान विचार लो!
वह गहरा होता जाता है। मन एकाग्र होने लगता है। तुमको अब अपने शरीर का अनुभव
नहीं होता। तुम्हारी इंद्रियां रूक जाती हैं। तुम सब भौतिक अनुभवों से ऊपर उठ
जाते हो, जो सब इंद्रियों के द्वारा अभिव्यक्त हो रहा था, वह अब एक विचार पर
केंद्रित हो जाता है। उस क्षण तुम पशु से ऊँचे होते हो। तुमको एक रहस्य
प्राप्त होता है, जिसे तुमसे कोई नहीं ले सकता--शरीर से ऊँची किसी वस्तु का
प्रत्यक्ष अनुभव।...इसी स्तर में मन का लक्ष्य है, इंद्रियों के स्तर पर
नहीं।
इस प्रकार इंद्रियों के स्तर में गुज़रते हुए तुम दूसरे क्षेत्रों में
अधिकाधिक प्रवेश पाते हो, और तब यह संसार स्वयं ही तुमसे अलग गिर पड़ता है।
तुम उस चेतना की एक झाँकी पा लेते हो, तो तुम्हारी इंद्रियां और तुम्हारे
इंद्रियग्रस्त -सुख, शरीर से तुम्हारा चिपकना, सब तुमसे परे विलीन हो जाएगा।
आत्मा के क्षेत्र से झाँकियों पर झाँकियाँ आयेंगी। तुम्हारा योग समाप्त हो
जाएगा और आत्मा तुम्हारे सामने आत्मा के रूप में प्रकट होगी। तब तुम आत्मा
के रूप में ईश्वर की उपासना का आरंभ करोगे। तब तुम्हारी समझ में यह आने
लगेगा कि पूजा किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए नहीं है। मूलत: हमारी उपासना
अनंत तत्व-प्रेम-है, जिसे आत्मा अपने प्रभु के चरणों में एक सनातन बलि के रूप
में अर्पित करती (है)। 'मैं नहीं, तू। मैं मृत हूँ। तू है, मैं नहीं हूँ। मुझे
धन नहीं चाहिए, सौंदर्य नहीं, नहीं, विद्वत्ता भी नहीं। यदि तेरी इच्छा हो,
तो मुझे दो करोड़ नरकों में भेज। मेरी इच्छा केवल एक है: मैं तू बन जाऊँ,
मेरे प्रिय!'