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उपन्यास

खोया पानी

मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

अनुवाद - तुफ़ैल चतुर्वेदी

अनुक्रम धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा पीछे     आगे

फेल होने के फायदे

बिशारत कहते हैं कि बी.ए. का इम्तहान देने के बाद यह चिंता सर पड़ी कि अगर फेल हो गये तो क्या होगा, वजीफा पढ़ा तो खुदा पर भरोसे से यह चिंता तो दूर हो गयी लेकिन इससे बड़ी एक और समस्या गले आ पड़ी कि खुदा-न-ख्वास्ता पास हो गये तो क्या होगा। नौकरी मिलनी मुहाल, यार दोस्त सब तितर-बितर हो जायेंगे, वालिद हाथ खींच लेंगे। बेकारी, बेरोजगारी, बेपैसे, बेकाम... जीवन नर्क हो जायेगा। अंग्रेजी अखबार सिर्फ 'वांटेड' के विज्ञापन देखने के लिए खरीदना पड़ेगा। फिर हर बौड़म मालिक के सांचे में अपनी क्वालिफिकेशंस को इस तरह ढाल कर प्रार्थना-पत्र देना पड़ेगा कि हम मृत्युलोक में इसी नौकरी के लिए अवतरित हुए हैं। इक-रंगे विषय को सौ-रंग में बांधना पड़ेगा। रोज एक कार्यालय से दूसरे कार्यालय तक जलील होना पड़ेगा, जब तक कि एक ही दफ्तर में इसकी स्थायी व्यवस्था न हो जाये। हर चंद कि फेल होने की संभावना थी मगर पास होने का डर भी लगा हुआ था।

कई लड़के इस जिल्लत को और दो साल स्थगित करने के लिए एम.ए. और एलएल.बी. में प्रवेश ले लेते थे। बिशारत की जान-पहचान में जिन मुसलमान लड़कों ने तीन साल पहले यानी 1927 में बी.ए. किया था वो सब जूतियां चटखाते फिर रहे थे, सिवाय एक सौभाग्यशाली के, जो मुसलमानों में सर्वप्रथम आया और अब मुस्लिम मिडिल स्कूल में ड्रिल मास्टर हो गया था। 1930 की भयानक विश्व-स्तरीय बेरोजगारी और महंगाई की तबाहियां समाप्त नहीं हुई थीं। माना कि एक रुपये का गेहूं 15 सेर और देसी घी एक सेर मिलता था, लेकिन एक रुपया था किसके पास?

कभी-कभी वो डर-डर के, मगर सचमुच की इच्छा करते कि फेल ही हो जायें तो बेहतर है, कम से कम एक साल निश्चिंतता से कट जायेगा। फेल होने पर बकौल मिर्जा सिर्फ एक दिन आदमी की बेइज्जती खराब होती है इसके बाद चैन ही चैन। बस यही होगा ना कि जैसे ईद पर लोग मिलने आते हैं उसी तरह उस दिन खानदान का हर बड़ा बारी-बारी से बरसों की जमा धूल झाड़ने आयेगा और फेल होने तथा खानदान की नाक कटवाने का एक अलग ही कारण बतायेगा। उस जमाने में नौजवानों का कोई काम, कोई हरकत ऐसी नहीं होती थी जिसकी झपट में आ कर खानदान की नाक न कट जाये। आजकल की-सी स्थिति नहीं थी कि पहले तो खानदानों के मुंह पर नाक नजर नहीं आती और होती भी है तो ट्यूबलेस टायर की तरह जिसमें आये दिन हर साइज के पंक्चर होते रहते हैं और अंदर ही अंदर आप-ही-आप जुड़ते रहते हैं। यह भी देखने में आया है कि कई बार खानदान के दूर-पास के बुजुर्ग छठी-सातवीं क्लास तक फेल होने वाले लड़कों की, संबंधों की निकटता व क्षमता के हिसाब से अपने निजी हाथ से पिटाई भी करते थे, लेकिन जब लड़का हाथ-पैर निकालने लगे और इतना सयाना हो जाये कि दो आवाजों में रोने लगे यानी तेरह, चौदह साल का हो जाये तो फिर उसे थप्पड़ नहीं मारते थे, इसलिए कि अपने ही हाथ में चोट आने और पहुंचा उतरने का अंदेशा रहता था, केवल चीख-पुकार, डांट से काम निकालते थे। हर बुजुर्ग उसकी सर्टिफाइड नालायकी की अपने झूठे शैक्षिक रिकार्ड से तुलना करता और नयी पौध में अपनी दृष्टि की सीमा तक कमी और गिरावट के आसार देख कर इस सुखद निर्णय पर पहुंचता कि अभी दुनिया को उस जैसे बुजुर्ग की जुरूरत है। भला वो ऐसी नालायक नस्ल को दुनिया का चार्ज देकर इतनी जल्दी कैसे विदा ले सकता है। मिर्जा कहते हैं कि हर बुजुर्ग बड़े सिद्ध पुरुषों के अंदाज में भविष्यवाणी करता था कि तुम बड़े होकर बड़े आदमी नहीं बनोगे। साहब यह तो अंधे को भी... हद तो ये है कि खुद हमें भी... नजर आ रहा था। भविष्यवाणी करने के लिए सफेद दाढ़ी या भविष्यवक्ता होना आवश्यक नहीं था। बहरहाल यह सारी Farce एक ही दिन में खत्म हो जाती थी, लेकिन पास होने के बाद तो एक उम्र का रोना था। जिल्लत ही जिल्लत, परेशानी ही परेशानी।

 

बिशारत और शाहजहां की तमन्ना

अंततोगत्वा दूसरा अंदेशा पूरा हुआ। वो पास हो गये। जिस पर उन्हें खुशी, प्रोफेसरों को आश्चर्य और बुजुर्गों को शॉक हुआ। उस दिन कई बार अपना नाम, उसके आगे बी.ए. लिख-लिख कर, देर तक भिन्न-भिन्न कोणों से देखा किये, जैसे हुसैन अपनी पेंटिंग को समझने के लिए पीछे हट-हट कर देखते हैं। एक बार तो बी.ए. के बाद ब्रेकिट में (फर्स्ट अटेंप्ट) भी लिखा, मगर इसमें वाचालता और घमंड का पहलू दिखाई दिया। थोड़ी देर बाद गत्ते पर अंग्रेजी में नीली रौशनाई से नाम और लाल रौशनाई से बी.ए. लिख कर दरवाजे पर लगा आये। पंद्रह-बीस दिन बाद उर्दू के एक स्थानीय समाचार-पत्र में विज्ञापन देखा कि धीरजगंज के मुस्लिम स्कूल में, जहां इसी साल नवीं क्लास शुरू होने वाली है, उर्दू टीचर की जगह खाली है। विज्ञापन में यह लालच भी दिया गया था कि नौकरी स्थायी, वातावरण पवित्र और शांत तथा वेतन उचित है। वेतन की उचितता का स्पष्टीकरण ब्रैकिट में कर दिया गया था कि एलाउन्स समेत पच्चीस रुपये मासिक होगा। सवा रुपया वार्षिक उन्नति अलग से। मल्कुश्शोअरा-खाकानी-ए-हिंद शेख मुहम्मद इब्राहीम 'जौक' को बहादुर शाह जफर ने अपना उस्ताद बनाया तो पोषण की दृष्टि से चार रुपये मासिक राशि तय की। मौलाना मुहम्मद हुसैन आजाद लिखते हैं कि 'वेतन की कमी पर नजर करके बाप ने अपने इकलौते बेटे को इस नौकरी से रोका... लेकिन किस्मत ने आवाज दी कि चार रुपये न समझना। ये ऐवाने-मल्कुशोराई के चार खंभे हैं, मौके को हाथ से न जाने देना।' इनकी इच्छा का महल तो पूरे पच्चीस खंभों पर खड़ा होने वाला था।

लेकिन वो शांत वातावरण पर मर मिटे। धीरजगंज कानपुर और लखनऊ के बीच में एक बस्ती थी जो गांव से बड़ी और कस्बे से छोटी थी। इतनी छोटी कि हर एक शख्स एक दूसरे के बाप-दादा तक की करतूतों तक से परिचित था और न सिर्फ ये जानता था कि हर घर में जो हांडी चूल्हे पर चढ़ी है उसमें क्या पक रहा है बल्कि ये भी कि किस-किस के यहां तेल में पक रहा है। लोग एक दूसरे की जिंदगी में इस बुरी तरह घुसे हुए थे कि आप कोई काम छुप कर नहीं कर सकते थे। ऐब करने के लिए भी सारी बस्ती का हुनर और मदद चाहिए थी। बहुत दिनों से उनकी इच्छा थी कि भाग्य ने साथ दिया तो टीचर बनेंगे। लोगों की नजर में शिक्षक का बड़ा सम्मान था। कानपुर में उनके पिता की इमारती लकड़ी की दुकान थी, मगर घरेलू कारोबार के मुकाबले उन्हें दुनिया का हर पेशा जियादा दिलचस्प और कम जलील लगता था। बी.ए. का नतीजा निकलते ही पिता ने उनके हृदय की शांति के लिए अपनी दुकान का नाम बदल कर 'एजुकेशनल टिंबर डिपो' रख दिया, मगर तबीयत इधर नहीं आई। मारे, बांधे कुछ दिन दुकान पर बैठे, मगर बड़ी बेदिली के साथ। कहते थे कि भाव-ताव करने में सुब्ह से शाम तक झूठ बोलना पड़ता है। जिस दिन सच बोलता हूं उस दिन कोई बोहनी-बिक्री नहीं होती, दुकान में गर्दा बहुत उड़ता है, ग्राहक चीख-चीख कर बात करते हैं।

होश संभालने से पहले वो इंजन-ड्राइवर और होश संभालने के बाद स्कूल टीचर बनना चाहते थे। क्लास रूम भी किसी सल्तनत से कम नहीं। शिक्षक होना भी एक तरह का शासन है, तभी तो औरंगजेब ने शाहजहां को कैद में पढ़ाने की अनुमति नहीं दी। बिशारत स्वयं को शाहजहां से अधिक सौभाग्यशाली समझते थे, विशेष रूप से इसलिए कि इन्हें तो बदले में पच्चीस रुपये भी मिलने वाले थे।

इसमें शक नहीं कि उस जमाने में शिक्षण का पेशा बहुत सम्मानित और गरिमामय समझा जाता था। जिंदगी और कैरियर में दो चीजों की बड़ी अहमियत थी। पहला इज्जत और दूसरे मानसिक शांति। दुनिया के और किसी देश में इज्जत पर कभी इतना जोर नहीं रहा जितना कि इस महाद्वीप में। अंग्रेजी में तो इसका कोई ढंग का समानार्थक शब्द भी नहीं है, इसलिए अंग्रेजी के कई पत्रकारों तथा प्रसिद्ध लिखने वालों ने इस शब्द को अंग्रेजी में ज्यों-का-त्यों इस्तेमाल किया है।

आज भी दुनिया देखे हुए बुजुर्ग किसी को दुआ देते हैं तो चाहे सेहत, सुख-चैन, अधिक संतान, समृद्धि का जिक्र करें या न करें, यह दुआ जुरूर करते हैं कि खुदा तुम्हें और हमें इज्जत-आबरू के साथ रक्खे, उठाये। नौकरी के संदर्भ में भी हम गुणसंपन्नता, तरक्की की दुआ नहीं मांगते, अपने लिए हमारी अकेली दुआ होती है कि सम्मान के साथ विदा लें। यह दुआ आपको दुनिया की किसी और जबान या मुल्क में नहीं मिलेगी। कारण ये कि बेइज्जती के जितने प्रचुर अवसर हमारे यहां हैं दुनिया में कहीं और नहीं। नौकरीपेशा आदमी बेइज्जती को प्रोफेशनल हेजर्ड समझ कर स्वीकार करता है। राजसी परंपराएं और उनकी जलालतें जाते-जाते जायेंगी। उन दिनों नौकरी-पेशा लोग खुद को नमकख्वार कहते और समझते थे (रोम में तो प्राचीन काल में नौकरों को वेतन के बदले नमक दिया जाता था और दासों की कीमत नमक के रूप में दी जाती थी), वेतन मेहनत के बदले नहीं बल्कि बतौर दान और बख्शिश दिया और लिया जाता था। वेतन बांटने वाले विभाग को बख्शीखाना कहते थे।

 

नेकचलनी का साइनबोर्ड

विज्ञापन में मौलवी सय्यद मुहम्मद मुजफ्फर ने, कि यही स्कूल के संस्थापक, व्यवस्थापक, संरक्षक, कोषाध्यक्ष और गबनकर्ता का नाम था, सूचित किया था कि उम्मीदवार को लिखित आवेदन करने की आवश्यकता नहीं, अपनी डिग्री और नेकचलनी के दस्तावेजी सुबूत के साथ सुब्ह आठ बजे स्वयं पेश हो। बिशारत की समझ में न आया कि नेकचलनी का क्या सुबूत हो सकता है, बदचलनी का अलबत्ता हो सकता है। उदाहरण के लिए चालान, मुचलका, गिरफ्तारी-वारंट, सजा के आदेश की नक्ल या थाने में दस-नंबरी बदमाशों की लिस्ट। पांच मिनट में आदमी बदचलनी तो कर सकता है नेकचलनी का सुबूत नहीं दे सकता। मगर बिशारत की चिंता अकारण थी। इसलिए कि जो हुलिया उन्होंने बना रक्खा था यानी मुंड़ा हुआ सर, आंखों में सुरमे की लकीर, एड़ी से ऊंचा पाजामा, सर पर मखमल की काली रामपुरी टोपी, घर, मस्जिद और मुहल्ले में पैर में खड़ाऊं... इस हुलिए के साथ वो चाहते भी तो नेकचलनी के सिवा और कुछ संभव न था। नेकचलनी उनकी मजबूरी थी, स्वयं अपनायी हुई अच्छाई नहीं और उनका हुलिया इसका सुबूत नहीं साइनबोर्ड था।

यह वही हुलिया था जो इस इलाके के निचले मिडिल क्लास खानदानी शरीफ घरानों के नौजवानों का हुआ करता था। खानदानी शरीफ से अभिप्राय उन लोगों से है जिन्हें शरीफ बनने, रहने और कहलाने के लिए व्यक्तिगत कोशिश बिल्कुल नहीं करनी पड़ती थी। शराफत, जायदाद और ऊपर वर्णित हुलिया पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस तरह विरसे में मिलते थे जिस तरह आम आदमी को जीन्स और वंशानुगत रोग मिलते हैं। आस्था, प्रचार, ज्ञान और हुलिए के लिहाज से पड़पोता अगर हू-ब-हू अपना पड़दादा मालूम हो तो ये खानदानी कुलीनता, शराफत और शुद्धता की दलील समझी जाती थी।

इंटरव्यू के लिए बिशारत ने उसी हुलिए पर रगड़ घिस करके नोक-पलक संवारी। अचकन धुलवायी, बदरंग हो गयी थी इसलिए धोबी से कहा कलफ अधिक लगाना। सर पर अभी शुक्रवार को जीरो नंबर की मशीन फिरवायी थी, अब उस्तरा और उसके बाद आम की गुठली फिरवा कर आंवले के तेल की मालिश करवायी। देर तक मिर्चें लगती रहीं। टोपी पहन कर आईना देख रहे थे कि अंदर मुंडे हुए सर से पसीना इस तरह रिसने लगा जिस तरह माथे पर विक्स या बाम लगाने से झरता है। टोपी उतारने के बाद पंखा चला तो ऐसा लगा जैसे किसी ने हवा में पिपरमेंट मिला दिया हो। फिर बिशारत ने जूतों पर फौजियों की तरह थूक से पालिश करके अपनी पर्सनेलिटी को फिनिशिंग टच दिया।

सलेक्शन कमेटी का चेयरमैन तहसीलदार था। सुनने में आया था कि एपाइंटमेंट के मुआमले में उसी की चलती है। फक्कड़, फिकरेबाज, साहित्यिक, मिलनसार, निडर और रिश्वतखोर है। घोड़े पर कचहरी आता है, 'नादिम' (शर्मिंदा) उपनाम रखता है, आदमी बला का जहीन और तबीयतदार है। उसे अपना तरफदार बनाने के लिए बादामी कागज का एक दस्ता, छह-सात निब वाले कलम खरीदे और रातों-रात अपनी शायरी का चमन यानी सत्ताईस गजलों का गुलदस्ता स्वयं तैय्यार किया। 'मखमूर' उपनाम रखते थे जो उनके उस्ताद जौहर इलाहाबादी का दिया हुआ था। इसी लिहाज से अपनी अधूरी आद्योपांत किताब का नाम 'खुमखाना-ए-मखमूर कानपुरी सुम लखनवी' रखा (लखनऊ से केवल इतना संबंध था कि पांच साल पहले अपना पित्ता निकलवाने के सिलसिले में दो सप्ताह के लिए अस्पताल में लगभग अर्द्धमूर्च्छित हालत में रहे थे) फिर उसमें एक विराट संकलन भी मिला दिया।

इस विराट संकलन की कहानी यह है कि अपनी गजलों और शेरों का चयन उन्होंने दिल पर पत्थर बल्कि पहाड़ रख कर किया था। शेर कितना ही घटिया और कमजोर क्यों न हो उसे स्वयं काटना और रद्द करना उतना ही मुश्किल है जितना अपनी औलाद को बदसूरत कहना या जंबूर से खुद अपना हिलता हुआ दांत उखाड़ना। गालिब तक से ये पराक्रम न हो सका। कांट-छांट मौलाना फज्ले-हक खैराबादी के सुपुर्द करके खुद ऐेसे बन के बैठ गये जैसे कुछ लोग इंजेक्शन लगवाते वक्त दूसरी तरफ मुंह करके बैठ जाते हैं।

बिशारत ने शेर छांटने को तो छांट दिये मगर दिल नहीं माना, इसलिए अंत में एक परिशिष्ट अपनी रद्द की हुई शायरी का सम्मिलित कर दिया। यह शायरी उस काल से संबंधित थी जब वो बेउस्ताद थे और 'फरीफ्ता' उपनाम रखते थे। इस उपनाम की एक विशेषता यह थी कि जिस पंक्ति में भी डालते वो छंद से बाहर हो जाती। चुनांचे अधिकतर गजलें बगैर मक्ते के थीं। चंद मक्तों में शेर का वज्न पूरा करने के लिए 'फरीफ्ता' की जगह उसका समानार्थक 'शैदा' और 'दिलदादा' प्रयोग किया, उससे शेर में कोई और दोष पैदा हो गया। बात दरअस्ल यह थी कि आकाश से जो विचार उनके दिमाग में आते थे उनके दैवी जोश और तूफानी तीव्रता को छंद की गागर में बंद करना इंसान के बस का काम न था।

 

मौलवी मज्जन से तानाशाह तक

तहसीलदार तक सिफारिश पहुंचाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। अलबत्ता मौलवी मुजफ्फर (जो तिरस्कार, संक्षेप और प्यार में मौली मज्जन कहलाते थे) के बारे में जिससे पूछा, उसने नया ऐब निकाला। एक साहब ने कहा, कौम का दर्द रखता है हाकिमों से मेलजोल रखता है पर कमीना है, बच के रहना। दूसरे साहब बोले, मौलवी मज्जन एक यतीमखाना शम्स-उल-इस्लाम भी चलाता है। यतीमों से अपने पैर दबवाता है। स्कूल की झाड़ू दिलवाता है और मास्टरों को यतीमों की टोली के साथ चंदा इकट्ठा करने कानपुर और लखनऊ भेजता है, वो भी बिना टिकिट। मगर इसमें कोई शक नहीं कि धुन का पक्का है। धीरजगंज के मुसलमानों की बड़ी सेवा की है। धीरजगंज के जितने भी मुसलमान आज पढ़े-लिखे और नौकरी करते नजर आते हैं वो सब इसी स्कूल के जीने से ऊपर चढ़े हैं। कभी-कभी लगता था कि लोगों को मौलवी मुजफ्फर से ईश्वरीय बैर हो गया है। बिशारत को उनसे एक तरह की हमदर्दी हो गयी। यूं भी मास्टर फाखिर हुसैन ने एक बार बड़े काम की नसीहत की थी कि कभी अपने बुजुर्ग या बॉस या अपने से अधिक बदमाश आदमी को सही रास्ता बताने की कोशिश न करना। उन्हें गलत राह पर देखो तो तीन ज्ञानी बंदरों की तरह अंधे, बहरे और गूंगे बन जाओ! ठाठ से राज करोगे!

एक दिलजले बुजुर्ग, जो 'जमाना' पत्रिका में काम करते थे, फर्माया, वो जकटा ही नहीं, चरकटा भी है। पच्चीस रुपये की रसीद लिखवा कर पंद्रह रुपल्ली हाथ पे टिका देगा। पहले तुम्हें जांचेगा, फिर आंकेगा, इसके बाद तमाम उम्र हांकेगा। उसने दस्तखत करने उस वक्त सीखे जब चंदे की जाली रसीदें काटने की जुरूरत पड़ी। अरे साहब! सर सय्यद तो अब जा के बना है मैंने अपनी आंखों से उसे अपने निकाहनामे पे अंगूठा लगाते देखा है। ठूंठ जाहिल है मगर बला का गढ़ा हुआ, घिसा हुआ भी। ऐसा-वैसा चपड़कनात नहीं है, लुक्का भी है, लुच्चा भी और टुच्चा भी। बुजुर्गवार ने एक ही सांस में पाजीपन के ऐसे बारीक शेड्स गिनवा दिये कि जब तक आदमी हर गाली के बाद शब्दकोश न देखे या हमारी तरह लंबे समय तक भाषाविदों की सुहबत के सदमे न उठाये हुए हो वो जबान और नालायकी की उन बारीकियों को नहीं समझ सकता।

सय्यद एजाज हुसैन 'वफा' कहने लगे, 'मौली मज्जन पांचों वक्त टक्करें मारता है। घुटने, माथे और जमीर पर ये बड़े-बड़े गट्टे पड़ गये हैं। थानेदार और तहसीलदार को अपनी मीठी बातचीत, इस्लाम-दोस्ती, मेहमान-नवाजी और रिश्वत से काबू में कर रखा है। दमे का मरीज है। पांच मिनट में दस बार आस्तीन से नाक पोंछता है।' दसअस्ल उन्हें आस्तीन से नाक पोंछने पर इतना एतराज न था जितना इस पर कि आस्तीन को अस्तीन कहता है, यखनी को अखनी और हौसला का होंसला। उन्होंने अपने कानों से उसे मिजाज शरीफ और शुबरात कहते सुना था। जुहला (गंवारों) किसानों और बकरियों की तरह हर वक्त मैं! मैं! करता रहता है। लखनऊ के शुरफा (शरीफ का बहुवचन - भद्र लोग) अहंकार से बचने की गरज से खुद को हमेशा हम कहते हैं। इस पर एक कमजोर और सींक-सलाई बुजुर्ग ने फर्माया कि जात का कसाई, कुंजड़ा या दिल्ली वाला मालूम होता है, किस वास्ते कि तीन बार गले मिलता है। अवध में शुरफा केवल एक बार गले मिलते हैं।

ये अवध के साथ सरासर जियादती थी इसलिए कि सिर्फ एक बार गले मिलने में शराफत का शायद उतना दख्ल न था जितना नाजुक-मिजाजी का और ये याद रहे कि यह उस जमाने के पारंपरिक चोंचले हैं जब नाजुक मिजाज बेगमें खुश्के और ओस का आत्महत्या के औजार की तरह प्रयोग करती थीं और यह धमकी देती थीं कि खुश्कखार ओस में सो जाऊंगी। वो तो खैर बेगमें थीं, तानाशाह उनसे भी बाजी ले गया। उसके बारे में मशहूर है कि जब वो बंदी बना कर दरबार में बेड़ियां पहना कर लाया गया तो सवाल ये पैदा हुआ कि इसे मरवाया कैसे जाये। दरबारियों ने एक से एक उपाय पेश किये। एक ने तो मशवरा दिया कि ऐसे अय्याश को तो मस्त हाथी के पैर से बांध कर शहर का चक्कर लगवाना चाहिए। दूसरा कोर्निश बजा कर बोला, दुरुस्त, मगर मस्त हाथी को शहर का चक्कर कौन माई का लाल लगवायेगा। हाथी शहर का चक्कर लगाने के लिए थोड़े ही मस्त होता है, अलबत्ता आप तानाशाह की अय्याशियों की सजा हाथी को देना चाहते हैं तो और बात है। इस पर तीसरा दरबारी बोला कि तानाशाह जैसे अय्याश को इससे जियादा तकलीफ देने वाली सजा नहीं हो सकती कि इसे हीजड़ा बना कर इसी के हरम में खुला छोड़ दिया जाये। एक और दरबारी ने तजवीज पेश की कि आंखों में नील की सलाई फिरवा कर अंधा कर दो, फिर किला ग्वालियर में दो साल तक रोजाना खाली पेट पोस्त का पियाला पिलाओ कि अपने जिस्म को धीरे-धीरे मरता हुआ खुद भी देखे। इस पर किसी इतिहासकार ने विरोध किया कि सुल्तान का तानाशाह से खून का कोई रिश्ता नहीं है, ये बरताव तो सिर्फ सगे भाइयों के साथ होता आया है। एक दिलजले ने कहा कि किले की दीवार से नीचे फेंक दो मगर यह तरीका इसलिए रद्द कर दिया गया कि इसका दम तो मारे डर के रस्ते में ही निकल जायेगा, अगर मकसद तकलीफ पहुंचाना है तो वो पूरा नहीं होगा। अंत में वजीर ने, जिसका योग्य होना साबित हो गया, ये मुश्किल हल कर दी। उसने कहा कि मानसिक पीड़ा देकर और तड़पा-तड़पाकर मारना ही लक्ष्य है तो इसके पास से एक ग्वालिन गुजार दो।

जिन पाठकों ने बिगड़े रईस और ग्वालिन नहीं देखी उनकी जानकारी के लिए निवेदन है कि मक्खन और कच्चे दूध की बू, रेवड़ बास में बसे हुए लहंगे और पसीने के नमक से सफेद पड़ी हुई काली कमीज के एक भबके से अमीरों और रईसों का दिमाग फट जाता था। फिर उन्हें हिरन की नाभि से निकली हुई कस्तूरी के लखलखे सुंघा कर होश में लाया जाता था।

 

हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता

इंटरव्यू की गरज से धीरजगंज जाने के लिए बिशारत सुब्ह तीन बजे ही निकल खड़े हुए। सात बजे मौलवी मुजफ्फर के घर पहुंचे तो वो जलेबियों का नाश्ता कर रहे थे। बिशारत ने अपना नाम पता बताया तो कहने लगे, 'आइये आइये! आप तो कान ही पुर (कानपुर ही) के रहने वाले हैं। कानपुर को गोया लखनऊ का आंगन कहिये। लखनऊ के लोग तो बड़े घमंडी और नाक वाले होते हैं। लिहाजा मैं नाश्ते के लिए झूठों भी नहीं टोकूंगा।'

'ऐ जौक तकल्लुफ में हैं तकलीफ बराबर (जी हां उन्होंने सरासर को बराबर कर दिया था) जाहिर है नाश्ता तो आप कर आये होंगे। सलेक्शन कमेटी की मीटिंग अंजुमन के दफ्तर में एक घंटे बाद होगी। वहीं मुलाकात होगी, और हां! जिस बेहूदे आदमी से आपने सिफारिश करवायी है, वो निहायत कंजूस और नामाकूल है।'

इस सारी बातचीत में अधिक से अधिक दो मिनट लगे होंगे। मौलवी मुजफ्फर ने बैठने को भी नहीं कहा, खड़े-खड़े ही भुगता दिया। घर से मुंह अंधेरे ही चले थे, मौलवी मुजफ्फर को गर्म जलेबियां खाते देखकर उनकी भूख भड़क उठी। मुहम्मद हुसैन आजाद के शब्दों में 'भूख ने उनकी अपनी ही जबान में जायका पैदा कर दिया।' घूम फिर के हलवाई की दुकान पता की। डेढ़ पाव जलेबियां घान से उतरती हुई तुलवायीं। दोने से पहली जलेबी उठायी ही थी कि हलवाई का कुत्ता उनके पूरे अरज के गरारेनुमा लखनवी पाजामे के पांयचे में मुंह डाल के बड़े आवेग से लपड़-लपड़ पिंडली चाटने लगा। कुछ देर वो चुपचाप, निस्तब्ध और शांत खड़े चटवाते रहे। इसलिए कि उन्होंने किसी से सुना था कि कुत्ता अगर पीज करे या आपके हाथ-पैर चाटने लगे तो भागना या शोर नहीं मचाना चाहिए वर्ना वो आजिज आकर सचमुच काट खायेगा। जैसे ही उन्होंने उसे एक जलेबी डाली, उसने पिंडली छोड़ दी। इसी बीच में उन्होंने खुद भी एक जलेबी खाई। कुत्ता अपनी जलेबी खत्म होते ही पांयचे में मुंह डाल के फिर शुरू हो गया। जबान भी ठीक से साफ नहीं की।

अब नाश्ते का ये पैटर्न बना कि पहले एक जलेबी कुत्ते को डालते तब एक खुद भी खा पाते। जलेबी देने में जरा देर हो जाती तो वो लपक कर बड़े चाव और दोस्ती से पिंडली चिचोड़ने लगता, शायद इसलिए कि उसके अंदर एक हड्डी थी। लेकिन अब दिल से कुत्ते का डर इस हद तक निकल चुका था कि उसकी ठंडी नाक से गुदगुदी हो रही थी। उन्होंने खड़े-खड़े दो बहुत महत्वपूर्ण निर्णय लिए, पहला ये कि कभी कानपुर के जाहिलों की तरह सड़क पर खड़े होकर जलेबी नहीं खायेंगे; दूसरा लखनऊ के शरीफों की तरह चौड़े पांयचे का पाजामा हरगिज नहीं पहनेंगे, कम-से-कम जिंदा हालत में।

कुत्ते को नाश्ता करवा चुके तो खाली दोना उसके सामने रख दिया। वो शीरा चाटने में तल्लीन हो गया तो हलवाई के पास दुबारा गये। एक पाव दूध कुल्हड़ में अपने लिए और डेढ़ पाव कुत्ते के लिए खरीदा ताकि उसे पीता छोड़ कर सटक जायें। अपने हिस्से का दूध गटागट पी कर कस्बे की सैर को रवाना होने लगे तो कुत्ता दूध छोड़ कर उनके पीछे-पीछे हो लिया। उन्हें जाता देख कर पहले कुत्ते के कान खड़े हुए थे, अब उनके खड़े हुए कि बदजात अब क्या चाहता है। तीन-चार जगह जहां उन्होंने जरा दम लेने के लिए रफ्तार कम करने की कोशिश की या अपनी मर्जी से मुड़ना या लौटना चाहा तो कुत्ता किसी तरह राजी न हुआ। हर मोड़ पर गली के कुत्ते उन्हें और उसे घेर लेते और खदेड़ते हुए दूसरी गली तक ले जाते, जिसकी सीमा पर दूसरे ताजादम कुत्ते चार्ज ले लेते। कुत्ता बड़े अनमनेपन से अकेला लड़ रहा था। जब तक युद्ध निर्णायक ढंग से समाप्त न हो जाता या कम-से-कम अस्थायी युद्ध विराम न हो जाता अथवा दूसरी गली के शेरों से नये सिरे से लड़ायी शुरू न हो जाती, वो U.N.O. की तरह बीच में खामोश खड़े देखते रहते। वो लौंडों को कुत्तों को पत्थर मारने से बड़ी सख्ती से मना कर रहे थे। इसलिए कि सारे पत्थर उन्हीं के लग रहे थे, वो कुत्ता दूसरे कुत्तों को उनकी तरफ बढ़ने नहीं देता था और सच तो ये है उनकी हमदर्दी अब अपने ही कुत्ते के साथ हो गयी थी। दो फर्लांग पहले जब वो चले थे तो वह महज एक कुत्ता था, मगर अब रिश्ता बदल चुका था। वो उसके लिए कोई अच्छा-सा नाम सोचने लगे।

उन्हें आज पहली बार मालूम हुआ कि गांव में मेहमान के आने का ऐलान कुत्ते, चोर और बच्चे करते हैं उसके बाद वो सारे गांव और हर घर का मेहमान बन जाता है।

 

टीपू नाम के कुत्ते

उन्हें यह देख कर दुख हुआ कि हलवाई और बच्चे उस कुत्ते को टीपू! टीपू! कह कर बुला और दुतकार रहे हैं। श्रीरंगापट्टम के भयानक रक्तपात से भरे संग्राम में टीपू सुल्तान के मरने के बाद अंग्रेजों ने कुत्तों के नाम टीपू रखने शुरू कर दिये और एक जमाने में यह उत्तरी भारत में इतना आम हुआ कि खुद भारतीय भी आवारा और बेनाम कुत्तों को टीपू कह कर ही बुलाते और हुश्कारते थे, ये जाने बगैर कि कुत्तों का ये नाम कैसे पड़ा। नेपोलियन और टीपू सुल्तान के अलावा अंग्रेजों ने ऐसा व्यवहार अपने किसी और दुश्मन के साथ नहीं किया, इसलिए कि किसी और दुश्मन की उनके दिल में ऐसी दहशत नहीं बैठी।

 

तलवार देख कर किस्मत का हाल बतानेवाला

हालांकि उनका घर पक्का और स्कूल आधा पक्का था लेकिन मौलवी मुजफ्फर ने अपनी ईमानदारी और इस्लाम के आरंभिक काल के मुसलमानों की सादगी का नमूना पेश करने की गरज से अपना दफ्तर एक कच्चे टिनपोश मकान में बना रखा था। सैलेक्शन कमेटी का दरबार यहीं लगने वाला था। बिशारत समेत कुल तीन उम्मीदवार थे। बाहर दरवाजे पर बायीं तरफ एक ब्लैक बोर्ड पर चाक से यह निर्देश लिखे हुए थे -

(1) उम्मीदवार अपनी बारी का इंतजार धैर्य और विनम्रता से करें।

(2) उम्मीदवार को सफर खर्च और भत्ता हरगिज नहीं दिया जायेगा। जुहर की नमाज के बाद उनके खाने का इंतजाम यतीमखाना शम्स-उल-इस्लाम में किया गया है।

(3) इंटरव्यू के वक्त उम्मीदवार को मुबलिग एक रुपये चंदे की यतीमखाने की रसीद पेश करनी होगी।

(4) उम्मीदवार कृपया अपनी बीड़ी बुझाकर अंदर दाखिल हों।

बिशारत जब प्रतीक्षालय यानी नीम की छांव तले पहुंचे तो कुत्ता उनके साथ था। उन्होंने इशारों में कई बार उससे विदा चाही, मगर वो किसी तरह साथ छोड़ने को तैयार न हुआ। नीम के नीचे वो एक पत्थर पर बैठ गये तो वो भी उनके कदमों में आ बैठा और अत्यधिक उचित अंतराल से दुम हिला-हिला कर उन्हें कृतज्ञ आंखों से टुकर-टुकर देख रहा था। उसका ये अंदाज उन्हें बहुत अच्छा लगा और उसकी मौजूदगी से उन्हें कुछ चैन-सा महसूस होने लगा। नीम की छांव में एक उम्मीदवार जो खुद को इलाहाबाद का एल.टी. बताता था, उकड़ूं बैठा तिनके से रेत पर 20 का यंत्र बना रहा था। जिसके खानों की संख्याएं किसी तरफ से भी गिनी जायें, जोड़ 20 आता था। स्त्री-वशीकरण तथा अफसर को प्रभावित करने के लिए यह यंत्र सर्वोत्तम समझा जाता था। कान के सवालिया निशान '?' के अंदर जो एक और सवालिया निशान होता है, उन दोनों के बीच उसने खस के इत्र का फाया उड़स रखा था। जुल्फे-बंगाल हेयर ऑयल से की हुई सिंचाई के रेले, जो सर की तात्कालिक आवश्यकता से कहीं जियादा थे, माथे पर बह रहे थे। दूसरा उम्मीदवार जो कालपी से आया था, खुद को अलीगढ़ का बी.ए.-बी.टी. बताता था। धूप का चश्मा तो समझ में आता था, मगर उसने गले में सिल्क का लाल स्कार्फ भी बांध रखा था जिसका इस चिलचिलाती धूप में यही उद्देश्य मालूम पड़ता था कि चेहरे से टपका हुआ पसीना सुरक्षित कर ले।

अगर उसका वज्न 100 पौंड कम होता तो वो जो सूट पहन कर आया था, बिल्कुल फिट आता। कमीज के नीचे के दो बटन तथा पैंट के ऊपर के दो बटन खुले हुए थे। सिर्फ सोलर हैट सही साइज का था। फीरोजे की अंगूठी भी शायद तंग हो गयी थी, इसलिए कि जब इंटरव्यू के लिए आवाज पड़ी तो उसने जेब से निकाल कर छंगुलिया में पहन ली। जूते के फीते, जिन्हें वो खड़े होने के बाद नहीं देख सकता था, खुले हुए थे। कहता था - गोलकीपर रह चुका हूं। इस मोटे-ताजेपन के बावजूद खुद को नीम के दो शाखे 'Y' में इस तरह फिट किया था कि दूर से एक 'V' नजर आता था, जिसकी एक नोक पर जूते और दूसरी पर हैट रखा हो। ये साहब ऊपर टंगे-टंगे ही बातचीत में हिस्सा ले रहे थे और वहीं से पीक की पिचकारियां और सिगरेट की राख चुटकी बजा-बजा कर झाड़ रहे थे।

कुछ देर बाद बिशारत के पास एक जटाधारी साधू आ बैठा। अपना सोंटा उनके माथे पर रखकर कहने लगा, 'किस्मत का हाल बताता हूं पांव के तलवे देख कर, अबे जूते उतार नहीं तो साले यहीं भस्म कर दूंगा।' उन्होंने उसे पागल समझकर मुंह फेर लिया। लेकिन जब उसने नर्म लहजे में कहा 'बच्चा, तेरे पेट पर तिल है और सीधी बगल में मस्सा है', तो उन्होंने घबरा कर जूते उतार दिये। इसलिए कि उसने बिल्कुल ठीक बताया था। थोड़ी दूरी पर एक बरगद के पेड़ के नीचे तीसरी क्लास के बच्चे ड्रिल कर रहे थे। उस समय उनसे दंड लगवाये जा रहे थे। पहले ही दंड में 'हूं' कहते हुए सर ले जाने के बाद केवल दो लड़के हथेलियों के बल उठ पाये। बाकी वहीं धूल में छिपकली की तरह पट पड़े रह गये। सब गर्दन मोड़-मोड़ कर बड़ी बेबसी से ड्रिल मास्टर को देख रहे थे जो उन्हें ताना दे रहा था कि तुम्हारी मांओं ने तुम्हें कैसा दूध पिलाया है?

दरवाजे पर सरकंडों की चिक पड़ी थी, जिसका निचला हिस्सा झड़ चुका था। सुतली की लड़ियां रह गयी थीं। सबसे पहले अलीगढ़ के उम्मीदवार को इस तरह आवाज पड़ी जैसे अदालत में नाम मय-वल्दियत के पुकारे जाते हैं। पुकारने के अंदाज से पता लगता था कि शायद डेढ़-दो सौ उम्मीदवार हैं जो डेढ़ दो मील दूर कहीं बैठे हैं। उम्मीदवार पहले वर्णित नीम की गुलैल पर से धम्म-से कूद कर सोलर हैट समेत दरवाजे में दाखिल होने वाला था कि चपरासी ने रास्ता रोक लिया। उसने यतीमखाने के चंदे की रसीद मांगी और सिगरेट की डिबिया, जिसमें दो सिगरेट बाकी थे, लगान के तौर पर धरवा ली। फिर जूते उतरवा कर लगभग घुटनों के बल चलाता हुआ अंदर ले गया। पचास मिनट बाद दोनों बाहर निकले। चपरासी ने दरवाजे के पास रक्खे हुए घड़ियाल को एक बार बजाया, जिसका उद्देश्य गांव वालों और उम्मीदवारों को खबर करना था कि पहला इंटरव्यू समाप्त हुआ। बाहर खड़े हुए लड़कों ने जम कर तालियां बजायीं। उसके बाद इलाहाबादी उम्मीदवार का नाम पुकारा गया जो बीसे का यंत्र मिटा कर लपक-झपक अंदर चला गया। पचास मिनट बाद फिर चपरासी ने बाहर आ कर घंटे पर दो बार इतनी जोर से चोट लगाई कि कस्बे के सारे मोर चिंघाड़ने लगे। (हर इंटरव्यू का समय वही था जो घंटों का) चपरासी ने आंख मार कर बिशारत को अंदर चलने को कहा।

 

ब्लैक होल आफ धीरजगंज

बिशारत इंटरव्यू के अंदर दाखिल हुए तो कुछ नजर न आया। इसलिए कि केवल एक गोल मोखे के अतिरिक्त, रौशनी आने के लिए कोई खिड़की या रौशनदान नहीं था। फिर धीरे-धीरे इसी अंधेरे में हर चीज की आउटलाइन उभरती, उजलती चली गयी। यहां तक कि दीवारों पर पीली मिट्टी और गोबर की ताजा लिपाई में मजबूती और पकड़ के लिए जो कड़बी की छीलन और भुस के तिनके डाले गये थे, उनका कुदरती वार्निश अंधेरे में चमकने लगा। दायीं तरफ कम-अंधेरे कोने में दो बटन चमकते नजर आये। वो चलकर उनकी तरफ बढ़े तो उन्हें डर महसूस हुआ। ये उस बिल्ली की आंखें थीं जो किसी अनदेखे चूहे की तलाश में थी।

बायीं तरफ एक चार फुट ऊंची मकाननुमा खाट पड़ी थी जिसके पाये शायद साबुत पेड़ के तने से बनाये गये थे। बिसौले से जल उतारने का कष्ट भी नहीं किया गया था। उस पर सलेक्शन कमेटी के तीन मैंबर टांगें लटकाये बैठे थे। उसके पास ही एक और मैंबर बिना पीठ के मूढ़े पर बैठे थे। दरवाजे की तरफ पीठ किये मौलवी मुजफ्फर एक टेकीदार मूढ़े पर विराजमान थे। एक बिना हत्थे वाली लोहे की कुर्सी पर एक बहुत हंसमुख व्यक्ति उल्टा बैठा था यानी उसकी पीठ से अपना सीना मिलाये और किनारे पर अपनी ठोढ़ी रखे। उसका रंग इतना सांवला था कि अंधेरे में सिर्फ दांत नजर आ रहे थे। यह तहसीलदार था जो इस कमेटी का चेयरमैन था। एक मैंबर ने अपनी तुर्की टोपी खाट के पाये को पहना रखी थी। कुछ देर बाद जब बिल्ली उसके फुंदने से तमाचे मार-मार कर खेलने लगी तो उसने पाये से उतार कर सर पर रख ली। सबके हाथों में खजूर के पंखे थे। मौली मज्जन पंखे की डंडी गर्दन के रास्ते शेरवानी में उतार कर बार-बार अपनी पीठ खुजाने के बाद डंडी की नोक को सूंघते थे। तहसीलदार के हाथ में जो पंखा था, उसके किनारे पर लाल गोटा और बीच में गुर्दे की शक्ल का छेद था जो उस काल में सब स्टूलों में होता था। इसका उपयोग एक अरसे तक हमारी समझ में न आया। कई लोग गर्मियों में इस पर सुराही या घड़ा रख देते थे ताकि सूराख से पानी रिसता रहे और पैंदे को ठंडी हवा लगती रहे। बिशारत अंत तक ये फैसला न कर सके कि वो खुद नर्वस हैं या स्टूल लड़खड़ा रहा है।

तहसीलदार पेड़े की लस्सी पी रहा था और बाकी मैंबर हुक्का। सबने जूते उतार रखे थे। बिशारत को ये पता होता तो निःसंदेह साफ मोजे पहन कर आते। मूढ़े पर बैठा हुआ मैंबर अपने बायें पैर को दायें घुटने पर रखे, हाथ की उंगलियों से पांव की उंगलियों के साथ पंजा लड़ा रहा था। एक उधड़ी हुई कलई का पीकदान घूम रहा था। हवा में हुक्के, पान के बनारसी तंबाकू, कोरी ठिलिया, कोने में पड़े हुए खरबूजे के छिलकों, खस के इत्र और गोबर की लिपाई की ताजा गंध बसी हुई थी और उन पर हावी भबका था जिसके बारे में विश्वास से नहीं कहा जा सकता था कि यह देसी जूतों की बू है जो पैरों से आ रही है या पैरों की सड़ांध है जो जूतों से आ रही है।

जिस मोखे की चर्चा पहले की जा चुकी है उसके बारे में यह फैसला करना कठिन था कि वो रौशनी के लिए बनाया गया है या अंदर के अंधेरे को कंट्रास्ट से और अधिक अंधेरा दिखाने के लिए रखा गया है। अंदर के धुएं को बाहर फेंकने के लिए है या बाहर की धूल को अंदर का रास्ता दिखाने के इरादे से बनाया गया। बाहर के दृश्य देखने के लिए झरोखा है या बाहर वालों को अंदर की ताक-झांक के लिए झांकी उपलब्ध करायी गयी है। रौशनदान, हवादान, दर्शनी-झरोखा, धुएं की चिमनी, पोर्ट होल... बिशारत के कथनानुसार यह एशिया का सर्वाधिक बहुउद्देशीय छेद था जो बेहद ओवरवर्क्ड था और चकराया हुआ था। इसलिए इनमें से कोई भी काम ठीक से नहीं कर पा रहा था। इस समय इसमें हर पांच मिनट बाद एक नया चेहरा फिट हो जाता था। हो यह रहा था कि बाहर दीवार तले एक लड़का घोड़ा बनता और दूसरा उस पर खड़ा हो कर उस वक्त तक तमाशा देखता रहता जब तक घोड़े के पैर न लड़खड़ाने लगते और वो कमर को कमानी की तरह लचका-लचका कर यह मांग न करने लगता कि यार! उतर, मुझे भी तो देखने दे।

यदा-कदा यह मोखा ऑक्सीजन और गालियों की निकासी के रास्ते के रूप में भी इस्तेमाल होता था। इस संक्षिप्त विवरण का विस्तार यह है कि मौली मज्जन दमे के मरीज थे। जब खांसी का दौरा पड़ता और ऐसा लगता कि शायद दूसरा सांस नहीं आयेगा तो वो दौड़ कर मोखे में अपना मुंह फिट कर देते थे और जब सांस का पूरक रेचक ठीक हो जाता तो सस्वर अल्हम्दुलिल्लाह कह कर लौंडों को सड़ी-सड़ी गालियां देते। थोड़ी देर बाद धूप का कोण बदला तो सूरज का एक चकाचौंध लपका कमरे का अंधेरा चीरता चला गया। इसमें धुएं के बल खाते मरगोलों और धूलकणों का नाच देखने लायक था। बायीं दीवार पर दीनियात (धार्मिक विषय) के जत्रों के बनाये हुए इस्तंजे (पेशाब के बाद कतरों को सुखाने के लिए मुसलमान मिट्टी के ढेले इस्तेमाल करते हैं, उन्हें इस्तंजा कहा जाता है) के निहायत सुडौल ढेले करीने से तले ऊपर सजे थे जिन पर अगर मक्खियां बैठी होतीं तो बिल्कुल बदायूं के पेड़े मालूम होते।

दायीं दीवार पर जार्ज-पांचवें की फोटो पर गेंदे का सूखा खड़ंक हार लटक रहा था। उसके नीचे मुस्तफा पाशा का फोटो और मौलाना मुहम्मद अली जौहर की तस्वीर जिसमें वो चोगा पहने और समूरी टोपी पर चांद-तारा लगाये खड़े हैं। इन दोनों के बीच मौलवी मज्जन का बड़ा-सा फोटो और उसके नीचे फ्रेम किया हुआ मान-पत्र जो अध्यापकों और चपरासियों ने उनकी सेवा में हैजे से ठीक होने की खुशी में लंबी उम्र की प्रार्थना के साथ अर्पित किया था। उनकी तन्ख्वाह पांच महीने से रुकी हुई थी।

ये बात तो रह ही गयी। जब बिशारत इंटरव्यू के लिए उठ कर जाने लगे तो कुत्ता भी साथ लग गया। उन्होंने रोका मगर वो न माना। चपरासी ने कहा, 'आप इस पलीद को अंदर नहीं ले जा सकते।' बिशारत ने जवाब दिया, 'यह मेरा कुत्ता नहीं है'। चपरासी बोला, 'तो आप इसे दो घंटे से बांहों में लिए क्यों बैठे थे?' उसने एक ढेला उठा कर मारना चाहा तो कुत्ते ने झट पिंडली पकड़ ली। चपरासी चीखने लगा। बिशारत के मना करने पर उसने फौरन पिंडली छोड़ दी। शुक्रिया अदा करने के बजाय चपरासी कहने लगा, 'और आप इस पर भी कहते हैं कि कुत्ता मेरा नहीं है।' जब वो अंदर दाखिल हुआ तो कुत्ता भी उनके साथ घुस गया। रोकना तो बड़ी बात, चपरासी में इतना हौसला भी नहीं रहा कि टोक भी सके। उसके अंदर घुसते ही भूचाल आ गया। कमेटी के मेंबरों ने चीख-चीख कर छप्पर सर पर उठा लिया। लेकिन जब वो उनसे भी जियादा जोर से भौंका तो सब सहम कर अपनी-अपनी पिंडलियां गोद में ले कर बैठ गये। बिशारत ने कहा कि अगर आप हजरात बिल्कुल शांत और स्थिर हो जायें तो यह भी चुप हो जायेगा। इस पर एक साहब बोले आप इंटरव्यू में अपना कुत्ता लेकर क्यों आये हैं? बिशारत ने कसम खा कर कुत्ते से अपनी असंबद्धता प्रकट कि तो वही साहब बोले 'अगर आपका दावा है कि यह कुत्ता आपका नहीं है तो आप इसकी बुरी आदतों से इतने परिचित कैसे हैं?''

बिशारत इंटरव्यू के लिए अपनी जगह बैठ गये तो कुत्ता उनके पैरों से लग कर बैठ गया। उनका जी चाहा कि वो यूं ही बैठा रहे। अब वो नर्वस महसूस नहीं कर रहे थे, इंटरव्यू के दौरान दो बार मौलवी मज्जन ने बिशारत की किसी बात पर बड़ी तुच्छता से जोरदार कहकहा लगाया तो कुत्ता उनसे भी जियादा जोर से भौंकने लगा और वो सहम कर कहकहा बीच में ही स्विच ऑफ करके चुपके बैठ गये। बिशारत को कुत्ते पर बेतहाशा प्यार आया।

 

कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या ?

इंटरव्यू से पहले तहसीलदार ने गला साफ करके सबको खामोश किया तो ऐसा सन्नाटा छाया कि दीवार पर लटके हुए क्लाक की टिक-टिक और मौलवी मुजफ्फर के हांफने की आवाज साफ सुनायी देने लगी। फिर इंटरव्यू शुरू हुआ और सवालों की बौजर। इतने में क्लाक ने ग्यारह बजाये तो सब दोबारा खामोश हो गये। धीरजगंज में कुछ अर्से रहने के बाद बिशारत को मालूम हुआ कि देहात की तहजीब के मुताबिक जब क्लाक कुछ बजाता है तो सब खामोश और बाअदब हो कर सुनते और गिनते हैं कि गलत तो नहीं बजा रहा।

इंटरव्यू दोबारा शुरू हुआ तो जिस शख्स को चपरासी समझे थे, वो खाट की अदवायन पर आ कर बैठ गया। वो धार्मिक विषयों का मास्टर निकला जो उन दिनों उर्दू टीचर की जिम्मेदारी भी निभा रहा था। इंटरव्यू में सबसे जियादा धर-पटक उसी ने की। मौलवी मुजफ्फर और एक मैंबर ने भी, जो मुंसिफी अदालत से रिटायर्ड पेशकार थे, ऐंडे-बेंडे सवाल किये। तहसीलदार ने अलबत्ता छिपे-तौर पर मदद और तरफदारी की और सिफारिश की लाज रखी। चंद सवालात नक्ल किये जा रहे हैं। जिससे सवाल करने और जवाब देने वाले दोनों की योग्यता का अंदाजा हो जायेगा।

मौलवी मुजफ्फर : ('कुल्लियाते-मखमूर' पर चुमकारने के अंदाज से हाथ फेरते हुए) शेर कहने के फायदे बयान कीजिये।

बिशारत : (चेहरे पर ऐसा एक्सप्रेशन जैसे आउट आफ कोर्स सवाल पूछ लिया हो) शायरी... मेरा मतलब है, शेर... यानी उसका मकसद... बात दरअस्ल ये है कि... शौकिया...।

मौलवी मुजफ्फर : अच्छा खालिके बारी का कोई शेर सुनाइए।

बिशारत : खालिक-बारी सर्जनहार, वाहिद एक बिदा करतार।

पेशकार : आपके बाप, दादा और नाना किस विभाग में नौकर थे?

बिशारत : उन्होंने नौकरी नहीं की।

पेशकार : फिर आप कैसे नौकरी कर सकेंगे। चार पीढ़ियां एक के बाद एक अपना पित्ता मारें तो कहीं जा कर नौकरी की काबिलियत पैदा होती है।

बिशारत : (सीधेपन से) मेरा पित्ता आप्रेशन के जरिये निकाला जा चुका है।

धार्मिक शिक्षक : आप्रेशन का निशान दिखाइए।

तहसीलदार : आपने कभी बेंत का इस्तेमाल किया है?

बिशारत : जी नहीं।

तहसीलदार : कभी आप पर बेंत का इस्तेमाल हुआ है?

बिशारत : अक्सर।

तहसीलदार : तब आप डिसीप्लिन कायम कर सकेंगे।

पेशकार : अच्छा यह बताइए दुनिया गोल क्यों बनायी गयी है?

बिशारत : (पेशकार को ऐेसे देखते हैं जैसे चारों खाने चित्त होने पर पहलवान अपने प्रतिद्वंद्वी को देखता हैं...)

तहसीलदार : पेशकार साहब! इन्होंने उर्दू टीचर की दरख्वास्त दी है, भूगोल वालों के इंटरव्यू परसों होंगे।

धार्मिक शिक्षक : ब्लैक-बोर्ड पर अपनी राइटिंग का नमूना लिख कर दिखाइए।

पेशकार : दाढ़ी पर आपको क्या ऐतराज है?

बिशारत : कुछ नहीं।

पेशकार : फिर रखते क्यों नहीं?

धार्मिक शिक्षक : आपको चचा से जियादा मुहब्बत है या मामू से?

बिशारत : कभी गौर नहीं किया।

धार्मिक शिक्षक : अब कर लीजिए।

बिशारत : मेरे कोई चचा नहीं हैं।

धार्मिक शिक्षक : आपको नमाज आती है? अपने पिता के जनाजे की नमाज पढ़ कर दिखाइए।

बिशारत : वो जिंदा हैं।

धार्मिक शिक्षक : लाहौल विला कुव्वत, मैंने तो अंदाजा लगाया। तो फिर अपने दादा की पढ़ कर दिखाइए। या आप अभी उनकी कृपा से भी वंचित नहीं हुए हैं।

बिशारत : (भरी आवाज में) उनका इंतकाल हो गया है।

मौलवी मुजफ्फर : मुसद्दस हाली का कोई बंद सुनाइए।

बिशारत : मुसद्दस का तो कोई बंद इस वक्त याद नहीं आ रहा। हाली की ही मुनाजाते-बेवा के कुछ शेर पेश करता हूं।

तहसीलदार : अच्छा, अब अपना कोई पसंदीदा शेर सुनाइए जिसका विषय बेवा न हो।

बिशारत :

तोड़ डाले जोड़ सारे बांध कर बंदे-कफन

गोर की बगली से चित है पहलवां, कुछ भी नहीं

तहसीलदार : किसका शेर है?

बिशारत : जबान का शेर है।

तहसीलदार : ऐ सुब्हानल्ला! कुर्बान जाइए, कैसी-कैसी लफ्जी रिआयतें और कयामत के तलामजे बांधे हैं। तोड़ की टक्कर पे जोड़। एक तरफ बांधना दूसरी तरफ बंद। वाह! वाह! इसके बाद बगली कब्र और बगली दांव की तरफ खूबसूरत इशारा, फिर बगली दांव से पहलवान का चित होना। आखिर में चित पहलवान और चित मुर्दा और कुछ भी नहीं, कह के दुनिया की नश्वरता को तीन शब्दों में भुगता दिया। ढेर सारे अलंकारों को एक शेर में बंद कर देना चमत्कार नहीं तो और क्या है। ऐसा ठुका हुआ, इतना पुख्ता और इतना खराब शेर कोई उस्ताद ही कह सकता है।

मौलवी मुजफ्फर : आप सादगी पसंद करते हैं या दिखावा।

बिशारत : सादगी।

मौलवी मुजफ्फर : शादीशुदा हैं या छड़े दम।

बिशारत : जी, गैर शादीशुदा।

मौलवी मुजफ्फर : फिर आप इतनी सारी तन्ख्वाह का क्या करेंगे? यतीमखाने को कितना मासिक चंदा देंगे?

तहसीलदार : आपने शायरी कब शुरू की? अपना पहला शेर सुनाइए।

बिशारत :

है इंतजारे-दीद में लाशा उछल रहा

हालांकि कू-ए-यार अभी कितनी दूर है

तहसीलदार : वाह वा! 'हालांकि' का जवाब नहीं वल्लाह ऊसर जमीन में 'लाशा' ने जान डाल दी और 'इतनी दूर' में कुछ न कह कर कितना कुछ कह दिया।

बिशारत : आदाब बजा लाता हूं।

तहसीलदार : छोटी बहर में क्या कयामत का शेर निकाला है। शेर में शब्दों की मितव्ययिता के अलावा विचार की भी कृपणता पाई जाती है।

बिशारत : आदाब।

तहसीलदार : (कुत्ता भौंकने लगता है) मुआफ कीजिए, मैं आपके कुत्ते के भौंकने में खलल डाल रहा हूं। यह बताइये कि जिंदगी में आपकी क्या Ambition है?

बिशारत : यह नौकरी मिल जाये।

तहसीलदार : तो समझिये मिल गयी। कल सुब्ह अपना सामान बर्तन-भांडे ले आइएगा। साढ़े ग्यारह बजे मुझे आपकी Joining Report मिल जानी चाहिए। तन्ख्वाह आपकी चालीस रुपये माहवार होगी।

मौलवी मुजफ्फर चीखते और पैर पटकते रह गये कि सुनिये तो। ग्रेड पच्चीस रुपये का है, तहसीलदार ने उन्हें झिड़क कर खामोश कर दिया और फाइल पर अंग्रेजी में यह नोट लिखा कि इस उम्मीदवार में वो तमाम अच्छे गुण पाये जाते हैं जो किसी भी लायक और Ambitious नौजवान को एक कामयाब पटवारी या क्लास का टीचर बना सकते हैं, बशर्ते कि मुनासिब निगरानी और रहनुमाई मिले। मैं अपनी सारी व्यस्तताओं के बावजूद इसे अपना कुछ वक्त और ध्यान देने के लिए तैय्यार हूं। शुरू में मैंने इसे 100 में से 80 नंबर दिये थे मगर बाद में पांच नंबर सुलेख के बढ़ाये लेकिन पांच नंबर शायरी के काटने पड़े।

 

विशेष मूली और अच्छा - सा नाम

बिशारत ने दोपहर का खाना यतीमखाने के बजाय मौलवी बादल (इबादुल्ला) के यहां खाया जो इसी स्कूल में फारसी पढ़ाते थे। मक्खन में चुपड़ी हुई गरम रोटी के साथ आलू का भुरता और लहसुन की चटनी मजा दे गयी। मौलवी बादल ने अपनी आत्मीयता और सहयोग का यकीन दिलाते हुए कहा कि बरखुरदार! मैं तुम्हें खोंते रफू करना, आटा गूंधना और हर तरह का सालन पकाना सिखा दूंगा। खुदा की कसम! बीबी की जुरूरत ही महसूस न होगी। लगे हाथ उन्होंने मूली की भुजिया बनाने की जो तरकीब बतायी वो खासी पेचीदा और खतरनाक थी। इसलिए कि इसकी शुरुआत मूली के खेत में पौ फटने से पहले जाने से होती थी। उन्होंने हिदायत की कि देहात की तहजीब के खिलाफ लहलहाते खेत में तड़के मुंह उठाये न घुस जाओ, बल्कि मेंड़ पर पहले इस तरह खांसो-खंखारो जिस तरह बेकिवाड़ या टाट के परदे वाले पाखाने में दाखिल होने से पहले खंखारते हैं। इसके बाद यह हिदायत की कि टखने से एक बालिश्त ऊंचा लहंगा और हंसली से दो बालिश्त नीची चोली पहनने वाली खेत की मालकिन धापां से ताजा गदरायी हुई मूली की जगह और उसे तोड़ने की इजाजत कैसे ली जाये कि नजर देखने वाली पर न पड़े। यह भी इरशाद फरमाया कि चमगादड़ सब्जियां वायु खोलने वाली होती हैं। इससे उनका तात्पर्य उन पौधों से था जो अपने पैर आसमान की तरफ किये रहते हैं। जैसे गाजर, गोभी, शलगम। फिर उन्होंने पत्ते देख कर यह पहचानना बताया कि कौन-सी मूली तीखी फुफ्फुस निकलेगी और कौन-सी जड़ेली और मछेली। ऐसी तेजाबी कि खाने वाला खाते वक्त मुंह पीटता फिरे और खाने के बाद पेट पीटता फिरे और कोई ऐसी सुडौल चिकनी और मीठी कि बेतहाशा जी करे कि काश गज भर की होती। उन्होंने यह भी बताया कि कभी गलती से तेजाबी मूली उखाड़ लो तो फेंको मत। इसका अर्क निकाल कर ऊंट की खाल की कुप्पी में भर लो। चालीस दिन बाद जहां दाद या एक्जिमा हो वहां फुरैरी से लगाओ। अल्लाह ने चाहा तो खाल ऐसी आयेगी जैसी नवजात बच्चे की। कुछ अर्से बाद जैसे ही बिशारत ने अपने मामू की एक्जिमा की फुन्सियों पर इस अर्क की फुरेरी लगाई, तो बुजु्र्गवार बिल्कुल नवजात बच्चे की तरह चीखें मारने लगे।

बिशारत इंटरव्यू से फारिग हो कर प्रसन्नचित निकले तो कुत्ता उनके साथ नत्थी था। उन्होंने हलवाई से तीन पूरियां और रबड़ी खरीद कर उसे खिलाई। वो उनके साथ लगा-लगा मौलवी बादल के यहां गया। इंटरव्यू में आज जो चमत्कार उनके साथ हुआ उसे उन्होंने उसी के दम-कदम का जहूरा समझा। कानपुर वापस जाने के लिए वो बस में सवार होने आये तो वो उनसे पहले छलांग लगा कर बस में घुस गया, जिससे मुसाफिरों में पहले खलबली, फिर भगदड़ मच गयी। क्लीनर उसे इंजन स्टार्ट करने वाले हैंडिल से मारने दौड़ा तो उन्होंने लपक कर उसकी कलाई मरोड़ी। कुत्ता लारी की छत पर खड़ा उनके साथ कानपुर आया। ऐसे वफादार कुत्ते को कुत्ता कहते उन्हें शर्म आने लगी। उन्होंने उसी वक्त उसका नाम बदल कर लार्ड डलहौजी रखा, जो उस जनरल का नाम था जिससे मुकाबला करते हुए टीपू की मृत्यु हुई थी। कानपुर पहुंचकर उन्होंने पहली बार उस पर हाथ फेरा। उन्हें अंदाजा नहीं था कि कुत्ते का जिस्म इतना गर्म होता है। उस पर जगह-जगह लड़कों के पत्थरों से पड़े हुए जख्मों के निशान थे। उन्होंने उसके लिए एक खूबसूरत कालर और जंजीर खरीदी।

 

हुजूर फैज गंजूर तहसीलदार साहब

दूसरे दिन बिशारत अपनी सारी दुनिया टीन के ट्रंक में समेट कर धीरजगंज आ गये। ट्रंक पर उन्होंने एक पेंटर को चार आने दे कर अपना नाम, डिग्री, तख्ल्लुस सफेदे से पेंट करवा लिए। जो बड़ी कठिनाई से दो लाइनों में (बक्से की) समा पाये। यह ट्रंक उनकी पैदाइश से पहले का था, मगर उसमें चार लीवर वाला नया पीतली ताला डाल कर लाये थे। इसमें कपड़े इतने कम थे कि रास्ते भर, अंदर रखा हुआ मुरादाबादी लोटा ढोलक बजाता आया। इसके शोर मचाने की एक वज्ह यह भी हो सकती है कि उनके खजाने में यह ताजा कलई किया हुआ लोटा ही सबसे कीमती चीज था। अभी उन्होंने मुंह भी नहीं धोया था कि तहसीलदार का चपरासी एक लट्ठ और यह पैगाम ले कर आ धमका कि तहसीलदार साहब बहादुर ने याद फर्माया है। उन्होंने पूछा, 'अभी!' बोला 'और क्या! फौरन से पेश्तर! बिलमवाजा, असालतन' चपरासी के मुंह से यह मुंशियाना जबान सुन कर उन्हें हैरत हुई और खुशी भी, जो उस वक्त खत्म हुई जब उसने यह पैगाम लाने का इनाम, दोपहर का खाना और सफरखर्च इसी जबान में तलब किया। कहने लगा तहसील में यही दस्तूर है। बंदा तो चाकर है। जब तक वो इन इच्छाओं पर गौर करें, वो लट्ठ की चांदी की शाम को मुंह की भाप और अंगोछे से रगड़-रगड़ कर चमकाता रहा।

झुलसती, झुलसाती दोपहर में बिशारत डेढ़-दो मील पैदल चलकर हांपते-कांपते तहसीलदार के यहां पहुंचे तो वो दोपहर की नींद ले रहा था। एक-डेढ़ घंटे इंतजार के बाद वो अंदर बुलाये गये तो खस की टट्टी की महकती ठंडक जिस्म में उतरती चली गयी। लू से झुलसती हुई आंखों में एक दम ठंडी-ठंडी रौशनी-सी आ गयी। ऊपर छत से लटका हुआ झालरदार पंखा हाथी के कान की तरह हिल रहा था। फर्श पर बिछी चांदनी की उजली ठंडक उनकी जलती हुई हथेली को बहुत अच्छी लगी। जब इसकी तपिश से चांदनी गर्म हो जाती तो वो हथेली खिसका कर दूसरी जगह रख देते। तहसीलदार बड़े तपाक और प्यार से पेश आया। बर्फ में लगे हुए तरबूज की एक फांक और छिले हुए सिंघाड़े पेश करते हुए बोला, 'तो अब अपने कुछ शेर सुनाइए जो बेतुके न हों, छोटी बहर में न हों, वज्न और तहजीब से गिरे हुए न हों।' बिशारत शेर सुना कर दाद पा चुके तो उसने अपनी एक ताजा नज्म सुनायी।

वो अपनी रान खुजाये चला जा रहा था। टांगों पर मढ़े हुए चूड़ीदार पाजामे में न जाने कैसे एक भुनगा घुस गया था और वो ऊपर ही ऊपर चुटकी से मसलने की बार-बार कोशिश कर रहा था। कुछ देर बाद एक सुंदर कमसिन नौकरानी नाजो ताजा तोड़े हुए फालसों का शर्बत लाई। तहसीलदार कनखियों से बराबर बिशारत को देखता रहा कि नाजो को देख रहे हैं या नहीं। मोटी मलमल के सफेद कुरते में कयामत ढा रही थी। वो गिलास देने के लिए झुकी तो उसके बदन से जवान पसीने की महक आई और उनका हाथ उसके चांदी के बटनों के घुंघरुओं को छू गया। उसका आड़ा पाजामा रानों पर से कसा हुआ था और पैबंद के टांके दो-एक जगह इतने बिकसे हुए थे कि नीचे चमेली बदन खिलखिला रहा था। शरबत पी चुके तो तहसीलदार कहने लगा कि आज तो खैर आप थके हुए होंगे, कल से मेरे बच्चों को उर्दू पढ़ाने आइए। जरा खिलंदड़े हैं। तीसरे ने तो अभी कायदा शुरू ही किया है। बिशारत ने अनाकानी की तो एकाएक उसके तेवर बदल गये। लहजा कड़ा और कड़वा होने लगा। कहने लगा, जैसा कि आपको बखूबी मालूम था, है और हो जायेगा, आपकी अस्ल तन्ख्वाह पच्चीस रुपये ही है। मैंने जो स्वयं पंद्रह रुपये बढ़ाकर चालीस कर दिये तो दरअस्ल पांच रुपये फी बच्चा ट्यूशन थी, वरना मेरा दिमाग थोड़े ही खराब हुआ था कि कालेज के निकले हुए नये बछड़े को मुसलमानों की गाढ़ी कमाई के चंदे से पंद्रह रुपये की नज्र पेश करता। आखिर को ट्रस्टी की कुछ जिम्मेदारी होती है। आपको मालूम होना चाहिए कि खुद स्कूल के हैडमास्टर की तन्ख्वाह चालीस रुपये है और वो तो बी.ए., बी.टी. (अलीगढ़) सैकिंड डिवीजन है। अमरोहे का है मगर निहायत शरीफ सय्यद है। अलावा, आप की तरह 'सर मुंडवा के इश्किया शेर नहीं कहता।'

अंतिम सात शब्दों में उसने उनके व्यक्तित्व का खुलासा निकाल कर रख दिया और वो ढह गये। उन्होंने बड़ी विनम्रता से गिड़गिड़ा कर पूछा, 'क्या कोई Alternative बंदोबस्त नहीं हो सकता।' तहसीलदार चिढ़ावनी हंसी हंसा। कहने लगा, 'जुरूर हो सकता है। वो ऑल्टरनेटिव बंदोबस्त ये है कि आपकी तन्ख्वाह वही पच्चीस रुपये रहे और आप इसी में मेरे बच्चों को भी पढ़ायेंगे। आया खयाले-शरीफ में? बर्खुरदार, अभी आपने दुनिया नहीं देखी। मैं आपके हाथ में दो कबूतर देता हूं, आप यह तक तो बता नहीं सकते कि इनमें मादा कौन सी है?

उनके जी में तो बहुत आया कि पलट कर जवाब दें कि कोलंबस साहब, अगर इसी डिस्कवरी का नाम दुनिया देखना है, तो यह काम कबूतर कहीं बेहतर तरीके से अंजाम दे सकते हैं। इतने में तहसीलदार दो-तीन बार जोर-जोर से खांसा तो थोड़ी दूर एक कोने में दुबका धूल में अटा कानूनगो लपक कर बिशारत के पास आया और उनकी ठुड्डी में हाथ देते हुए कहने लगा, आप सरकार के सामने कैसी बचकानी बातें कर रहे हैं। यह इज्जत किसे नसीब होती है। सरकार झूठों भी इशारा कर दें तो लखनऊ यूनिवर्सिटी के सारे प्रोफेसर हाथ बांधे सर के बल चल कर आयें। सरकार को तीन बार डिप्टी कलेक्टरी ऑफर हो चुकी है मगर सरकार ने हर बार हिकारत से ठोकर मार दी कि मैं स्वार्थी हो जाऊं और डिप्टी कलेक्टर बन कर चला जाऊं तो तहसील धीरजगंज का स्टाफ और प्रजा कहेगी कि सरकार हमें बीच मंझधार में किस पर छोड़े जाते हो।

बिशारत स्तब्ध रह गये, मर्द ऐसे मौकों पर खून कर देते हैं और नामर्द खुदकुशी कर लेते हैं। उन्होंने यह सब कुछ नहीं किया, नौकरी की जो कत्ल और खुदकुशी दोनों से कहीं जियादा मुश्किल है।

 

यह रुत्ब - - बुलंद मिला जिसको मिल गया

तहसीलदार ने जनाने से अपने बेटों को बुलाया और उनसे कहा - चचाजान को आदाब करो। यह कल से तुम्हें पढ़ाने आयेंगे। बड़े और छोटे ने आदाब किया। मंझले ने दायें हाथ से ओक बनाया और झुक-झुक कर दो बार आदाब करने के बाद तीसरी बार झुका तो साथ ही मुंह भी चिढ़ाया।

अब तहसीलदार का मूड बदल चुका था। लड़के लाइन बना कर वापस चले गये तो वो बिशारत से कहने लगा 'परसों ज्योग्राफी की टीचर की जगह के लिए इंटरव्यू है। मैं आपको सैलेक्शन कमेटी का मेंबर बना रहा हूं। धार्मिक विषयों का टीचर इस लायक नहीं कि कमेटी का मेंबर रहे। मौली मज्जन को खबर कर दी जायेगी।' यह सुनते ही बिशारत को गुदगुदियां होने लगीं। उस वक्त कोई उन्हें वायसराय बना देता तब भी इतनी खुशी न होती। अब वो भी इंटरव्यू में अच्छे-अच्छों को खूब रगेदेंगे और पूछेंगे कि मियां तुम डिग्रियां बगल में दबाये अफलातून बने फिरते हो, जरा यह तो बताओ कि दुनिया गोल क्यों बनायी गयी है? बड़ा मजा आयेगा। यह इज्जत किसे नसीब होती है कि अकारण जलील होने के फौरन बाद दूसरों को अकारण जलील करके हिसाब बराबर कर दे। उनके घायल स्वाभिमान के सारे घाव पल भर में भर गये।

मारे खुशी के वो यह भी स्पष्ट करना भूल गये कि बंदा हर इंटरव्यू के बाद न आवाज लगायेगा, न घंटा बजायेगा। चलने लगे तो तहसीलदार ने मटमैले कानूनगो को आंखों से कुछ इशारा किया और उसने पंद्रह सेर गेहूं और एक हांडी गन्ने के रस की साथ कर दी। उसे यह भी हिदायत दी कि कल मास्टर साहब के घर जवासे की एक गाड़ी डलवा देना और बेगार में किसी पन्नीगर को भेज देना कि हाथों-हाथ टट्टी बना दे। उस जमाने में जो लोग खस की क्षमता नहीं रखते थे वो जवासे के कांटों की टट्टी पर सब्र करते थे और जो इस काबिल भी नहीं होते थे, वो खस की पंखिया पर कोरी ठिलिया का पानी छिड़क लेते। उसे झलते-झलते जब नींद का झोंका आता तो 'खसखाना-ओ-बर्फाब की ख्वाबनाक खुन्कियों' में उतरते चले जाते।

 

उर्दू टीचर के कर्मक्षेत्र से बाहर के दायित्व

अगले दिन बिल्कुल तड़के बिशारत अपनी ड्यूटी पर हाजिर हो गये। मौलवी मुजफ्फर ने उनसे ड्यूटी ज्वाइन करने की लिखित रिपोर्ट ली कि 'आज सुब्ह गुलाम ने नियमानुसार चार्ज संभाल लिया।' चार्ज बहुत धोके में डालने वाला शब्द है वरना हकीकत सिर्फ इतनी थी कि जो चीजें चार्ज में दी गयी थीं वो बगैर चार्ज के भी कुछ ऐसी असुरक्षित न थीं।

खादी का डस्टर - डेढ़ अदद, हाथ का पंखा - एक अदद, रजिस्टर हाजरी - एक अदद, मिट्टी की दवात - दो अदद। मौलवी मुजफ्फर ने ब्लैक बोर्ड का डस्टर उन्हें सौंपते हुए चेतावनी दी कि देखा गया है मास्टर साहिबान चाक के मुआमले में बहुत फुजूलखर्ची करते हैं, इसलिए स्कूल की कमेटी ने यह फैसला किया है कि आइंदा मास्टर साहिबान चाक खुद खरीद कर लायेंगे। खजूर के पंखे के बारे में भी उन्होंने सूचना दी कि गर्मियों में एक ही उपलब्ध कराया जायेगा। मास्टर बिल्कुल लापरवाह साबित हुए हैं। दो ही हफ्तों में सारी बुनाई उधड़ कर झंतूरे निकल आते हैं और अक्सर मास्टर साहिबान छुट्टी के दिन स्कूल का पंखा घर में इस्तेमाल करते हुए देखे गये हैं। कई तो इतने आरामतलब और काहिल हैं कि उसी की डंडी से लौंडों को मारते हैं, हालांकि दो कदम पर नीम का पेड़ बेकार खड़ा है। हां! मौलवी मुजफ्फर ने एक होल्डर (लकड़ी का निब वाला कलम) भी उनके चार्ज में दिया जो उनके पूर्ववर्तियों ने दातुन की तरह इस्तेमाल किया था। इसका आधे से अधिक हिस्सा चिंतन-मनन के समय लगातार दांतों में दबे रहने के कारण झड़ गया था। बिशारत को इस गलत इस्तेमाल पर बहुत गुस्सा आया कि वो अब इससे नाड़ा नहीं डाल सकते थे।

चार्ज पूरा होने के बाद बिशारत ने कोर्स की किताबें मांगीं तो मौलवी मुजफ्फर ने सूचना दी कि स्कूल कमेटी के रिजोल्यूशन नं. - 5, तारीख 3 फरवरी 1935 के अनुसार मास्टर को कोर्स की किताबें अपनी जेब से खरीद कर लानी होंगी। बिशारत ने जल कर पूछा 'सब' यानी कि पहली क्लास से लेकर आठवीं तक? फरमाया, 'तो क्या आपका खयाल है आप पहली क्लास के कायदे से आठवीं का इम्तहान दिलवा देंगे।'

मौलवी मुजफ्फर ने चलते-चलते यह भी सूचना दी कि स्कूल कमेटी फिजूल के खर्चे कम करने की गरज से ड्रिल मास्टर की पोस्ट खत्म कर रही है। खाली घंटों में आप पड़े-पड़े क्या करेंगे? स्टाफ-रूम ठाली मास्टरों के ऐंड़ने और लोटें लगाने के लिए नहीं है। खाली घंटों में ड्रिल करा दिया कीजिए, (पेट की तरफ इशारा करके) बादी भी छंट जायेगी। जवान आदमी को चाक-चौबंद रहना चाहिए। बिशारत ने विनम्र अस्वीकार से काम लेते हुए कहा 'मुझे ड्रिल नहीं आती।' बहुत मीठे और धीमे लहजे में उत्तर मिला, 'कोई बात नहीं, कोई भी मां के पेट से ड्रिल करता हुआ तो पैदा नहीं होता, किसी भी लड़के से कहिएगा, सिखा देगा। आप तो माशाअल्लाह से जहीन आदमी हैं। बहुत जल्द सीख जायेंगे। आप तो टीपू सुल्तान और स्पेन के जीतने वाले तारिक का नाम लेते हैं।'

बिशारत बड़ी मेहनत और लगन से उर्दू पढ़ा रहे थे कि दो ढाई हफ्ते बाद मौलवी मुजफ्फर ने अपने दफ्तर में तलब किया और फर्माया कि आप तो मुसलमान के बेटे हैं जैसा कि आपने दरख्वास्त में लिखा था। अब जल्दी से जनाजे की नमाज पढ़ाना और नियाज देना सीख लीजिए। वक्त, बेवक्त, जुरूरत पड़ती रहती है। नमाजे-जनाजा तो कोर्स में भी है। हमारे जमाने में तो स्कूल में शवस्नान भी कंपलसरी था। धार्मिक विषय के टीचर की बीबी पर बाराबंकी में जिन्न दोबारा सवार हो गया है। रातों को चारपाई उलट देता है। उसे उतारने जा रहा है। पिछले साल एक पड़ौसी का जबड़ा और दो दांत तोड़ कर आया था। उसकी जगह आपको काम करना होगा। जाहिर है! उस हरामखोर के बदले काम करने के लिए आसमान से फरिश्ते तो आने से रहे।

तीन-चार दिन का भुलावा दे कर मौलवी मुजफ्फर ने पूछा, 'बर्खुरदार, आप इतवार को क्या करते रहते हैं?' बिशारत ने जवाब दिया, 'कुछ नहीं।' फरमाया, 'तो यूं कहिए! केवल सांस लेते रहते हैं। यह तो बड़ी बुरी बात है। सर मुहम्मद इकबाल ने कहा है 'कभी ऐ नौजवां मुस्लिम तदब्बुर भी किया तूने,' जवान आदमी को इस तरह हाथ पर हाथ धरे बेकार नहीं बैठना चाहिए। जुमे को स्कूल की छुट्टी जल्दी हो जाती है। नमाज के बाद यतीमखाने की चिट्ठी-पत्री देख लीजिए। आप तो घर के आदमी हैं आप से क्या परदा, आपकी तनख्वाहें दरअस्ल यतीमखाने के चंदे से ही दी जाती हैं। तीन महीने से रुकी हुई हैं। मेरे पास इलाहदीन का चराग तो है नहीं। दरअस्ल यतीमों पर इतना खर्च नहीं आता, जितना आप हजरात पर। इतवार को यतीमखाने के चंदे के लिए अपनी साइकिल ले कर निकल जाया कीजिए। पुण्य कार्य भी है और आपको बेकारी की लानत से भी छुटकारा मिल जायेगा, सो अलग। आस-पास के देहात में अल्लाह के करम से मुसलमानों के काफी घर हैं। तलाश करने से खुदा मिल जाता है। चंदा देने वाले किस खेत की मूली हैं।'

बिशारत अभी सोच ही रहे थे कि चंदा देनेवाले को कैसे पहचानें और ढूंढ़ेंगे कि इतने में सर पर दूसरा बम गिरा। मौलवी मुजफ्फर ने कहा कि चंदे के अलावा आस-पास के देहात से सही यतीम भी तलाश कर लाने होंगे।

 

आइडियल यतीम का हुलिया

यतीम जमा करना बिशारत को चंदा जमा करने से भी मुश्किल नजर आया, इसलिए कि मौली मज्जन ने यह पख लगा दी कि यतीम तंदुरुस्त और मुस्टंडे न हों। सूरत से भी दीन, दरिद्र मालूम होने चाहिए। लंबे-चौड़े न हों, न इतने छोटे टुइयां कि चोंच में चुग्गा देना पड़े। न इतने ढऊ के ढऊ और पेटू कि रोटियों की थई-की-थई थूर जायें और डकार तक न लें, पर ऐसे गुलबदन भी नहीं कि गाल पर एक मच्छर का साया पड़ जाये तो शहजादा गुलफाम को मलेरिया हो जाये। फिर बुखार में दूध पिलाओ तो एक ही सांस में बाल्टी की बाल्टी डकोस जायें। बाजा-बाजा लौंडा टखने तक पोला होता है। लड़के बाहर से कमजोर मगर अंदर में बिल्कुल तंदुरुस्त होने चाहिए। न ऐसे नाजुक कि पानी भरने कुएं पर भेजो तो डोल के साथ खुद भी खिंचे कुएं के अंदर चले जा रहे हैं। भरा घड़ा सर पे रखते ही कत्थकों-नचनियों की तरह कमर लचका रहे हैं। रोज एक घड़ा तोड़ रहे हैं। जब देखो हराम की औलाद सुबूत में टूटे घड़े का मुंह लिए चले आ रहे हैं। अबे मुझे क्या दिखा रहा है! ये हंसली अपनी मय्या-बहना को पहना। छोटे कद और बीच की उम्र के हों। इतने बड़े और ढीठ न हों कि थप्पड़ मारो तो घंटे भर तक हाथ झनझनाता रहे और उन हरामियों का बाल भी बांका न हो। जाड़े में जियादा जाड़ा न लगता हो। यह नहीं कि जरा-सी सर्दी बढ़ जाये तो सारे कस्बे में कांपते, कंपकंपाते, किटकिटाते फिर रहे हैं और यतीमखाने को मुफ्त में बदनाम कर रहे हैं। यह जुरूर तसदीक कर लें कि रात को बिस्तर में पेशाब न करते हों। खानदान में ऐब और सर में लीखें न हों। उठान के बारे में मौली मज्जन ने स्पष्ट किया कि इतनी संतुलित बल्कि हल्की हो कि हर साल जूते और कपड़े तंग न हों। अंधे, काने, लूले, लंगड़े, गूंगे, बहरे न हों मगर लगते हों। लौंडे सुंदर हरगिज न हों, मुंह पर मुंहासे और नाक लंबी न हो। ऐसे लौंडे आगे चलकर लूती (जनखे, Gay) निकलते हैं। वो आइडियल यतीम का हुलिया बयान करने लगे तो बार-बार बिशारत की तरफ इस तरह देखते कि जैसे आर्टिस्ट पोट्रेट बनाते वक्त मॉडल का चेहरा देख-देख कर आउट लाइन उभारता है। वो बोलते रहे मगर बिशारत का ध्यान कहीं और था। उनके जह्न में एक-से-एक मनहूस तस्वीरें उभर रहीं थीं, जिसमें वो खुद को किसी तरह फिट नहीं कर पा रहे थे।

 

मसनवी मौलाना रूम और यतीमखाने का बैंड

पहला दृश्य : ट्रेन का गार्ड हरी झंडी हाथ में लिए सीटी बजा रहा है। छह-सात लड़के लपक कर चलती ट्रेन के थर्ड क्लास कंपार्टमेंट में चढ़ते हैं, जिससे अभी-अभी एक सुर्मा और शिलाजीत बेचने वाला उतरा है। सब नेकर पहने हुए हैं, सिर्फ एक लड़के की कमीज के बटन सलामत हैं, लेकिन आपस की लड़ाई में दुश्मन उसकी दाहिनी आस्तीन जड़ से नोच ले गया। किसी के पैर में जूता नहीं, लेकिन टोपी सब पहने हुए हैं। एक लड़के के हाथ में बड़ा-सा फ्रेम है जिसमें जिले के एक गुमनाम लीडर का सर्टिफिकेट जड़ा हुआ है। कंपार्टमेंट में घुसते ही लड़कों ने कोहिनियों और धक्कों से अपनी जगह बना ली। जैसे ही ट्रेन सिगनल से आगे निकली, सबसे बड़े लड़के ने रेजगारी से भरा हुआ टीन का गोलक झुनझुने की तरह बजाना शुरू किया। डिब्बे में खामोशी छा गयी। मांओं की गोद में रोते हुए बच्चे सहम कर दूध पीने लगे और दूध पीते हुए बच्चे दूध छोड़कर रोने लगे। मर्दों ने सामने बैठी औरतों को घूरना और उनके मियां ने ऊंघना छोड़ दिया। जब सब यात्री अपना-अपना काम रोक कर लड़के की तरफ देखने लगे तो उसने अपना गोलक-राज बंद किया। उसके साथियों ने अपने मुंह आसमान की तरफ कर लिए और आसमानी ताकतों से सीधा संबंध बना लेने के सुबूत में सबने एक साथ आंखों की पुतलियां इतनी ऊपर चढ़ा लीं कि सिर्फ सफेदी दिखायी देने लगी। फिर सब मिलकर इंतहाई मनहूस लय में कोरस गाने लगे।

हमारी भी फरियाद सुन लीजिए

हमारे भी इक रोज मां - बाप थे

थर्ड क्लास के डिब्बे में यतीम-खाने के जो लड़के घुसे उन सबकी आवाजें फट कर कभी की बालिग हो चुकी थीं, सिर्फ एक लड़के का कंठ नहीं फूटा था, यही लड़का चील जैसी आवाज में कोरस को लीड कर रहा था। उस जमाने में पेशावर से ट्रावनकोर और कलकत्ते से कराची तक रेल में सफर करने वाला कोई यात्री न होगा जो इस मनहूसियत से भरे गाने और इसकी घर बर्बाद कर देने वाली लय से अपरिचित हो। जब से उपमहाद्वीप में रेल और यतीमखाने आये हैं, यही एक धुन चल रही है। इसी तरह महाद्वीप के तीनों भाग हिंदुस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश में आदमियों से बेजार कोई शख्स मसनवी मौलाना रूम की ऐसी वाहियात मौलवियाना धुन कंपोज करके गया है कि पांच सौ साल से ऊपर गुजर गये, इसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। शेर को इस तरह नाक से गा कर सिर्फ वही मौलवी पढ़ सकता है जो गाने को वाकई हराम समझकर गाता हो। किसी शख्स को गाने, सूफीज्म, फारसी और मौलवी चारों से एक ही समय में नफरत करानी हो तो मसनवी के दो शेर इसी धुन में संवा दीजिये। 'सुना दीजिये' हमने इसलिए नहीं कहा कि ये लय सिर्फ ऐसे शख्स के गले से निकल सकती है जिसने जिंदगी में किसी ईरानी को फारसी बोलते न सुना हो और जिसके गले से मुफ्त की मुर्गी के अलावा कोई चीज न उतरी हो।

दूसरा दृश्य : यतीमखाने का बैंड बज रहा है। आगे-आगे सर को दायें बायें झुलाता बैंड मास्टर चल रहा है। जिस तरह पहलवान, फौज के जवान और कुछ लड़कियां सीना निकाल कर चलती हैं, उसी तरह ये पेट निकाल कर चल रहा है। कुछ लड़कों के हाथों में पीतल के भौंपूनुमा बाजे हैं जो जलेबी और Angry Young Man की तरह बल खाके अंत में बड़ी आंत की शक्ल में समाप्त होते हैं। यूं तो इन बाजों की टोंटी लड़कों ने अपने होठों से लगा रखी है, लेकिन उन्हें फूंकने, धौंकने का गरीबों में दम कहां। लिहाजा अधिकतर समय ढोल और बांसुरी ही बजती रहती है। कई बार बांसुरी की भी सांस उखड़ जाती है और अकेला ढोल सारे ऑरकेस्ट्रा के कर्तव्य पूरे करता है। मिर्जा कहते हैं कि ऐसा बैंड बाजा तो खुदा दुश्मन की शादी में भी न बजवाये। बैंड की उजाड़धुन भी सारे उपमहाद्वीप में एक ही थी, लेकिन हिंदुओं और मुसलमानों के बैंड में कुछ दिलचस्प अंतर थे। उदाहरण के लिए मुसलमान आमतौर पर मंजीरे नहीं बजाते थे और हिंदुओं के अनाथ आश्रम के बैंड में ढोल बजाने वाला इतनी मस्ती से घूम-घूम के ढोल नहीं पीटता था कि तुर्की टोपी का फुंदना हर चोट पर 360 डिग्री का चक्कर लगाये। हिंदू अनाथ लड़के फुंदने के बजाय अपनी अस्ली चोटियां इस्तेमाल करते थे। दूसरे, हिंदुओं में ये बैंड केवल अनाथ-आश्रम के यतीम बजाते थे। मुसलमानों में यतीम होने की शर्त नहीं थी। चुनांचे कराची के कई स्कूलों में हमने स्कूल बैंड को स्पोर्टस डे पर Marching Songs भी उसी धुन पर बजाते सुना है।

हमारे भी इक रोज मां-बाप थे

हमारे भी इक रोज मां-बाप थे

' कुछ इलाज इसका 'शहंशाहे-गजल' है कि नहीं?' इस लाइन (हमारे भी इक रोज मां-बाप थे) की खूबी ये है कि इसके सात लफ्ज चार टुकड़ों पर आधारित हैं और ये चारों ही कुंजी (चाबी) की हैसियत रखते हैं। हमारे भी / इकरोज / मां-बाप / थे। आप किसी भी टुकड़े पर जोर देकर पढ़ें, बेकसी और मनहूसियत का नयी पर्त उभरेगी। हद ये कि 'थे' भी पूरी लाइन के माने, दिशा, लहजा बदल के रख देगा। थे, ए, ए, ए! ऐसे चौमुखे मिसरे बड़े-बड़े शायरों को नसीब नहीं होते। अलबत्ता मेंहदी हसन अपनी गायकी से शेर के जिस लफ्ज को चाहें केंद्रीय बना देते हैं। इनमें जहां एक हजार खूबियां हैं वहां एक बुरी ये पड़ गयी है कि अक्सर अपनी शायरी की समझ का सुबूत देने के लिए शेर का कोई-सा लफ्ज, जिस पर उन्हें कुंजी की हैसियत होने का शक हो जाये, पकड़ के बैठ जाते हैं। अलाप रोक के श्रोताओं को नोटिस देते हैं कि अब जरा जिगर थाम के बैठो शब्दार्थ के खजाने का तिलिस्म दिखाता हूं। फिर आधा घंटा तक उस लफ्ज को भंभोड़ते हैं, उसे तरह-तरह से पटखियां देकर साबित करते हैं कि सारा अर्थ इस एक लफ्ज में बंद है। बाकी सारे लफ्ज केवल तबला बजाने के लिए हैं, यानी केवल शेर का वज्न पूरा करने और ठेका लगाने के लिए। मकसद ये जताना होता है कि मैं शेर समझ कर ही नहीं, समझा-समझा कर गा रहा हूं। उनकी देखा-देखी औरों ने खुद समझे बगैर ही समझा-समझा कर गाना शुरू कर दिया है।

होता ये है कि मेंहदी हसन कभी इस लफ्ज को खदेड़ते हुए राग और गजल की No-Man's Land में छोड़ आते हैं, और कभी 'कबड्डी-कबड्डी' कहते हुए उसे अपने पाले में ले आते हैं। फिर फ्री स्टाइल में उसके विभिन्न हिस्सों को अपनी ताकत और श्रोताओं की बर्दाश्त की हद तक तोड़ते, मरोड़ते और खींचते हैं। वो बेदम होके सांस छोड़ दे तो उसे फफेड़ने लगते हैं। अभी, लंबी सी गिटकरी के बाद, अजीब सा मुंह बनाये, उसे पपोल-पपोल के ये देख रहे थे और अपने ही मजे से आंखें बंद किये हुए थे। जरा सी देर में उसकी हड्डी तक चिचोड़ के तबलिए के सामने फेंक दी कि उस्ताद! आओ अब कुछ देर जुगलबंदी हो गये। कभी सीधे-साधे राग के अंग जी भर के झिंझोड़ने के बाद उसकी जती पे अपने कढ़े हुए रेशमी कुर्ते, जरी की वास्कट और हार्मोनियम समेत चढ़ जाते हैं। वो उठने की कोशिश करता है तो चूम-चाट के वापस लिटाल देते हैं।

चिमटे रहो सीने से अभी रात पड़ी है

और फिर वो दुलर्भ क्षण भी आता है जब ये राग भोगी उसके मुंह में अपनी जबान इस तरह रख देता है कि रागिनी चीख उठती है।

तुम अपनी जबां मेरे मुंह में रखे

जैसे पाताल से मेरी जां खींचते हो

अंत में, घंटों रगेदने के बाद उसे थप्पड़ मार के छोड़ देते हैं कि 'जा अबके छोड़ दिया, आइंदा यारों के सामने इस तरह न आइयो'

'जिसको हो दीनो-दिल अजीज मेरे गले में आये क्यों'

 

अच्छा ! आप उस लिहाज से कह रहे हैं

बिशारत की नियुक्ति तो उर्दू पढ़ाने के लिए हुई थी, मगर टीचरों की कमी के कारण उन्हें सभी विषय पढ़ाने पड़ते थे, सिवाय धार्मिक विषय के। जामा मस्जिद धीरजगंज के पेश-इमाम ने यह फत्वा दिया था कि जिस शख्स के घर में कुत्ता हो वो धर्मशास्त्र पढ़ाये तो पढ़नेवालों को आवश्यक रूप से स्नान करना पड़ेगा। बिशारत का गणित, ज्योमेट्री और अंग्रेजी बहुत कमजोर थी, लेकिन वो इस हैंडीकैप से जरा जो परेशान हुए हों। पढ़ाने के गुर उन्होंने मास्टर फाखिर हुसैन से सीखे थे। मास्टर फाखिर हुसैन का विषय तो इतिहास था लेकिन अक्सर उन्हें मास्टर मेंडीलाल की इंग्लिश की क्लास भी लेनी पड़ती थी। मास्टर मेंडीलाल का गुर्दा और ग्रामर दोनों जवाब दे चुके थे। अक्सर देखा गया था कि जिस दिन नवीं-दसवीं की ग्रामर की क्लास होती वो घर बैठ जाता। उसके गुर्दे में ग्रामर का दर्द उठता था। सब टीचर अपने विषय के अतिरिक्त दूसरा विषय पढ़ाने में कचियाते थे। मास्टर फाखिर हुसैन अकेले शिक्षक थे जो हर विषय पढ़ाने के लिए हर वक्त तैयार रहते, हालांकि उन्होंने बी.ए., वाया भटिंडा किया था मतलब ये कि पहले मुंशी फाजिल किया था। इंग्लिश ग्रामर उन्हें बिल्कुल नहीं आती थी। वो चाहते तो अंग्रेजी ग्रामर का घंटा हंस बोल कर या नसीहत करने में गुजार सकते थे लेकिन उनकी अंतरात्मा ऐसे समय नष्ट करने के कामों की अनुमति नहीं देती थी। दूसरे मास्टरों की तरह वो लड़कों को व्यस्त रखने के लिए इमला भी लिखवा सकते थे, मगर वो इस बहाने को अपनी विद्वत्ता का अपमान समझते थे, इसलिए जिस भारी पत्थर को सब चूम कर छोड़ देते वो उसे अपने गले में बांध कर ज्ञान के समुद्र में कूद पड़ते। पहले ग्रामर की अहमियत पर लैक्चर देते हुए यह बुनियादी नुक्ता बयान करते कि जैसे हमारी गायकी की बुनियाद तबले पर है, गुफ्तगू की बुनियाद गाली पर है, इसी तरह अंग्रेजी की बुनियाद ग्रामर पर है। अगर कमाल हासिल करना है तो बुनियाद मजबूत करो। मास्टर फाखिर हुसैन की अपनी अंग्रेजी, इमारत निर्माण का अद्भुत नमूना और संसार के सात आश्चर्यों में से एक थी, मतलब यह कि बगैर नींव के थी। कई जगह तो छत भी नहीं थी और जहां थी, उसे चमगादड़ की तरह अपने पैरों की अड़वाड़ से थाम रखा था। उस जमाने में अंग्रेजी भी उर्दू में ही पढ़ायी जाती थी, लिहाजा कुछ गिरती हुई दीवारों को उर्दू शेरों के पुश्ते थामे हुए थे। बहुत ही मंझे हुए और घिसे हुए मास्टर थे। कड़े-से-कड़े समय में आसानी से निकल जाते थे। मिसाल के तौर पर Parsing करवा रहे हैं। अपनी जानकारी में निहायत आसान सवाल से शुरुआत करते। ब्लैक बोर्ड पर 'टू गो' लिखते और लड़कों से पूछते, अच्छा बताओ यह क्या है? एक लड़का हाथ उठा कर जवाब देता, Simple Infinite! स्वीकार में गर्दन हिलाते हुए फर्माते, बिल्कुल ठीक, लेकिन देखते कि दूसरा उठा हुआ हाथ अभी नहीं गिरा। उससे पूछते, आपको क्या तकलीफ है? वो कहता, नहीं सर! Noun Infinite है। फर्माते अच्छा आप उस लिहाज से कह रहे हैं। अब क्या देखते हैं कि क्लास का सबसे जहीन लड़का अभी तक हाथ उठाये हुए है। उससे कहते, आपका सिगनल अभी तक डाउन नहीं हुआ। कहिए! कहिए! वो कहता, ये Gerundial Infinite है जो Reflexive Verb से अलग होता है, नेस्फील्ड ग्रामर में लिखा है। इस मौके पर मास्टर फाखिर हुसैन को पता चल जाता कि 'गहरे समंदरों में सफर कर रहे हैं हम।' लेकिन बहुत सहज और ज्ञानपूर्ण अंदाज में फर्माते अच्छा तो आप गोया इस लिहाज के कह रहे हैं। इतने में नजर उस लड़के के उठे हुए हाथ पर पड़ी जो एक कॉन्वेन्ट से आया था और फर-फर अंग्रेजी बोलता था। उससे पूछा, 'वेल! वेल! वेल!' उसने जवाब दिया, "Sir I am afraid, this is an Intransitive Verb" फर्माया, 'अच्छा! तो गोया आप उस लिहाज से कह रहे हैं' फिर I am afraid के मुहावरे से अपरिचित होने के कारण बहुत प्यार भरे अंदाज में पूछा, 'बेटे! इसमें डरने की क्या बात है?'

अक्सर फर्माते कि इंसान को ज्ञान की खोजबीन का दरवाजा हमेशा खुला रखना चाहिए। खुद उन्होंने सारी उम्र बारहदरी में गुजारी। अब ऐसे टीचर कहां जिनके अज्ञान पर भी प्यार आये।

 

सय्यद सय्यद लोग कहे हैं , सय्यद क्या तुम - सा होगा

अब इस रेखाचित्र में जलील होने के अलग-अलग शेड भरना हम आपकी विचार क्षमता पर छोड़ देते हैं। इन हालात में जैसा वक्त गुजर सकता था, गुजर रहा था। दिसंबर में स्कूल का सालाना जलसा होने वाला था जिसकी तैय्यारियां इतनी जोर-शोर से हो रही थीं कि मौली मज्जन को इतनी फुरसत भी न थी कि मास्टरों की तनख्वाहों की अदायगी तो दूर, इस विषय पर झूठ भी बोल सकें। दिसंबर का महीना सालाना कौमी जल्सों, मुर्गाबी के शिकार, बड़े दिन पर साहब लोगों को डालियां भेजने, पतंग उड़ाने, कुश्ते खाने और उनके नतीजों से मायूस होने का जमाना होता था। 30 नवम्बर को मौली मज्जन ने बिशारत को बुलवाया तो वो यह समझे कि शायद निजी रूप से एकांत में तन्ख्वाह देंगे ताकि और टीचरों को कानों-कान खबर न हो। मगर वो छूटते ही बोले 'आप अपने शेरों में पराई बहू-बेटियों के बारे में अपने मंसूबों का बयान करने के बजाय कौमी जज्बा क्यों नहीं उभारते। अपने मौलाना हाली पानीपती ने क्या कहा है ऐसी शायरी के बारे में? (चुटकी बजाते हुए) क्या है वो शेर? अमां! वही संडास वाली बात' बिशारत ने मरी-मरी आवाज में शेर पढ़ा

वो शेर और कसाइद का नापाक दफ्तर

उफूनत में संडास है जिससे बेहतर

 

उनकी बीबी और मौलाना हाली की साझी गलतियां

शेर सुनकर फर्माया, 'आपके हाथों में अल्लाह ने शेर गढ़ने का हुनर दिया है। इसे काम में लाइए, सालाना जलसे में यतीमों पर एक जोरदार नज्म लिखिए। मुस्लिम कौम में चेतना के अभाव, साइंस पर मुसलमानों के अहसानात, सर सय्यद की कुरबानियां, अंग्रेजी-साम्राज्य में अम्न-चैन का दौर-दौरा, चंदे की अहमीयत, तारिक द्वारा स्पेन की विजय और तहसीलदार साहब की क्षमता और अनुभव का जिक्र होना चाहिए। पहले मुझे सुना दीजिएगा। वक्त बहुत कम है।'

बिशारत ने कहा 'मुआफ कीजिएगा, मैं गजल का शायर हूं। गजल में यह विषय नहीं बांधे जा सकते।'

क्रोधित होकर बोले, 'मुआफ कीजिएगा, क्या गजल में सिर्फ पराई बहू-बेटियां बांधी जा सकती है? तो फिर सुनिए, पिछले साल जो उर्दू टीचर था वो डिसमिस इसी बात पर हुआ था। वो भी आपकी तरह शायरी करता था। मैंने कहा, इनआम बांटने के जलसे में बड़े-बड़े लोग आयेंगे। हर दानदाता और बड़े आदमी के आने पर पांच मिनट तक यतीमखाने का बैंड बजेगा। यतीमों की बुरी हालत और यतीमखाने के फायदे और खिदमत पर एक फड़कती हुई चीज हो जाये। तुम्हारी आवाज अच्छी है, गा कर पढ़ना। ऐन जलसे वाले दिन भिनभिनाता हुआ आया। कहने लगा, बहुत सर मारा, पर बात नहीं बनी। इन दिनों तबियत हाजिर नहीं है। मैंने कहा, अमां हद हो गयी। अब क्या हर चपड़कनात मुलाजिम की तबियत के लिए एक अलग रजिस्टर हाजिरी रखना पड़ेगा। कहने लगा, बहुत शर्मिंदा हूं। एक दूसरे शायर की नज्म, मौके के हिसाब से तरन्नुम से पढ़ दूंगा। मैंने कहा, चलो कोई बात नहीं, वो भी चलेगी। बाप रे बाप! उसने तो हद ही कर दी। भरे जलसे में मौलाना हाली पानीपती की मुनाजाते-बेवा (विधवा की ईश्वर से प्रार्थना) के बंद पढ़ डाले। डाइस पर मेरे पास ही खड़ा था। मैंने आंख से, कुहनी के टहूके से, खंखार के, बहुतेरे इशारे किये कि अल्लाह के बंदे! अब तो बस कर। हद ये कि मैंने दायें कूल्हे पर चुटकी काटी तो बायां भी मेरी तरफ करके खड़ा हो गया। स्कूल की बड़ी भद पिटी। सब मुंह पर रूमाल रखे हंसते रहे मगर वो आसमान की तरफ मुंह किये रांड-बेवाओं की जान को रोता रहा। एक मीरासी, जिसके जरिये मैंने कार्ड बंटवाये थे, ने मुझे बताया इस बेहया ने दो तीन सुर मालकोंस के भी लगा दिये। लोगों ने दिल-ही-दिल में कहा होगा कि मैं शायद मौलाना हाली की आड़ में विधवा आश्रम खोलने की जमीन तैयार कर रहा हूं। बाद को मैंने आड़े हाथों लिया तो कहने लगा, सब की किताबें खंगाल डालीं। यतीम पर कोई नज्म नहीं मिली। सितम ये है कि मीर तकी मीर, जो खुद बचपने में यतीम हो गये थे, ने मोहनी नाम की बिल्ली और कुतिया पर तो प्रशंसा में काव्य लिखे पर मासूम यतीमों पर फूटे मुंह से एक लाइन न कह के दी। इस तरह मिर्जा गालिब ने सेहरे के लिए, प्रशंसा में कसीदे लिखे। बेसनी रोटी, डोमनी की तारीफ में शेर कहे, दो कौड़ी की जली को सरे-पिस्ताने-परीजाद (परी के स्तन का अगला भाग) से भिड़ा दिया मगर यतीमों के बारे में एक शेर भी नहीं कहा। अब हर किताब से मायूस हो गया तो मुझे एक दम खयाल आया कि यतीमों और बेवाओं का चोली-दामन का साथ है। विषय एक और दुख साझा, सो गुलाम ने मुनाजाते-बेवा पढ़ दी। महान रचना है। तीन साल से आठवीं के इम्तहान में इस पर बराबर सवाल आ रहे हैं। चुनांचे मैंने भी गुलाम को उसकी महान रचना और चोली-दामन समेत खड़े-खड़े डिसमिस कर दिया। कुछ दिन बाद उस हरामखोर ने मेरे खिलाफ इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल से शिकायत की। उसमें ये भी लिक्खा है कि मैंने अपने नहाने के लिए पांच मर्तबा बाल्टी में पानी मंगवाया। सरासर झूठ बोला। मैंने पंद्रह-बीस बार मंगवाया था। घड़े में भर के छलकाता लाया था।

मौलवी मुजफ्फर की बुराइयां बिल्कुल स्पष्ट और अच्छाइयां आंखों से छुपी हुई थीं। वो बिशारत के अंदाजे और अंदेशे से जियादा जहीन और काइयां निकले। ऐसे ठूंठ जाहिल नहीं थे, जैसा दुश्मनों ने मशहूर कर रखा था। रहन-सहन में एक सादगी और सादगी में इक टेढ़। कानों और जबान के कच्चे, मगर धुन के पक्के थे। उन्हीं का हौसला था कि बारह साल से बगैर साधन के लश्तम-पश्तम स्कूल चला रहे थे। उसे चलाने के लिए उनकी निगाह में हर किस्म की धांधली उचित थी। स्कूल की हालत खराब बतायी जाती थी। आये दिन मास्टरों से दर्द भरी अपील की जाती थी कि आप दिल खोल कर चंदा और दान दें। पांच-छह महीने की नौकरी के दौरान उन्हें कुल साठ रुपये मिले थे, जो स्कूल एकाउंट की किताबों में कर्ज के तौर पर दिखाये गये थे। अब उन्हें तन्ख्वाह का तकाजा करते हुए भी डर लगता था कि कर्ज बढ़ता जा रहा था। इधर न मिली तन्ख्वाह की राशि बढ़ती जाती, उधर मौली मज्जन का लहजा रेशम और बातें लच्छेदार होती जातीं। बिशारत ने एक दिन दबे शब्दों में तकाजा किया तो कहने लगे, 'बेटे! मैं तुम्हारे बाप की तरह हूं मेरी समझ में नहीं आता तुम इस अकेली देह में इतने रुपयों का क्या करोगे? छड़े-छटांक आदमी हो। अकेले घर में बेतहाशा नकदी रखना जोखिम का काम है। रात को तुम्हारी तरफ से मुझे डर ही लगा रहता है। सुल्ताना डाकू ने तबाही मचा रखी है।' बहरहाल इस तकाजे का इतना असर जुरूर हुआ कि दूसरे दिन से उन्होंने उनके घर एक मटकी छाछ की भेजनी शुरू कर दी।

तहसीलदार ने कभी रुपये-पैसे से तो कोई बर्ताव नहीं किया, अलबत्ता एक दो गड्डी पालक या चने का साग, कभी हिरन की टांग, कभी एक घड़ा गन्ने का रस या दो-चार भेलियां गुड़ की साथ कर देता। ईद पर एक हांडी संडीले के लड्डुओं की और बकरईद पर एक नर बकरे का सर भी दिया। उतरती गर्मियों में चार तरबूज फटी बोरी में डलवा कर साथ कर दिये। हर कदम पर निकल-निकल पड़ते थे। एक को पकड़ते तो दूसरा लुढ़क कर किसी और राह पर बदचलन हो जाता। जब बारी-बारी सब तड़ख गये तो आधे रास्ते में ही बोरी एक प्याऊ के पास पटक कर चले आये। उनके बहते रस को एक प्यासा सांड, जो पंडित जुगल किशोर ने अपने पिताजी की याद में छोड़ा था, तब तक चाव और तल्लीनता से चाटता रहा जब तक एक अल्हड़ बछिया ने उसका ध्यान उत्तम से सर्वोत्तम की ओर भटका न दिया।

जनवरी की बारिश में उनके खस की टट्टियों के मकान का छप्पर टपकने लगा तो तहसीलदार ने दो गाड़ी पूले मुफ्त डलवा दिये और चार छप्पर बांधने वाले बेगार में पकड़ कर लगवा दिये। कस्बे के तमाम छप्पर बारिश धूप और धुएं से काले पड़ गये थे, अब सिर्फ उनका छप्पर सुनहरा था। बारिश के बाद चमकीली धूप निकलती तो उस पर किरन-किरन अशरफियों की बौजर होने लगती। इसके अलावा तहसीलदार ने लिहाफ के लिए बारीक धुनकी हुई रुई की एक बोरी और मुर्गाबी के परों का एक तकिया भी भेजा जिसके गिलाफ पर नाजो ने एक गुलाब का फूल काढ़ा था। (बिशारत इस तकिये पर उल्टे यानी पेट के बल सोते थे... फूल पर नाक और होंठ रख कर)

 

लार्ड वेलेजली

बिशारत ने एक बार यह शिकायत की कि मुझे रोजाना धूप में तीन कि.मी. पैदल चल कर आना पड़ता है तो तहसीलदार ने उसी वक्त एक खच्चर उनकी सवारी में लगाने का हुक्म दे दिया। ये अड़ियल खच्चर उसने नीलामी में आर्मी टांसपोर्ट से खरीदा था। अब बुढ़ापे में सिर्फ इस लायक रह गया था कि उद्दंड जाटों, बेगार से बचने वाले चमारों तथा लगान और मुफ्त दूध न देने वाले किसानों का मुंह काला करके इस पर कस्बे में गश्त लगवायी जाती थी। पीछे ढोल, ताशे और मंजीरे बजवाये जाते ताकि खच्चर बिदकता रहे। इस पर से गिर कर एक घसियारे की रीढ़ की हड्डी टूट गयी, जिसने मुफ्त में घास देने से अनाकानी की थी। इससे उसे पूरा फालिज हो गया। सवारी के बजाय बिशारत को पैदल चलना अधिक गौरवशाली और शांतिदायक लगा। यह जुरूर है कि लार्ड वेलेजली अगर साथ न होता तो तीन मील की दूरी बहुत खलती। वो रास्ते भर उससे बातें करते जाते, उसकी तरफ से जवाब और हुंकारा खुद ही भरते फिर जैसे ही नाजो का ध्यान आता सारी थकान दूर हो जाती। डग की लंबाई आप-ही-आप बढ़ जाती। वो तहसीलदार के नटखट लड़कों को उस समय तक पढ़ाते रहे जब तक वो वाकया न पेश आया जिसका जिक्र आगे आयेगा। कस्बे में वो मास्टर साहब कहलाते थे और इस हैसियत से उनकी हर जगह आवभगत होती थी। लोगों को तहसीलदार से सिफारिश करवानी होती तो लार्ड वेलेजली तक के लाड़ करते। वो रिश्वत की दूध जलेबी खा-खा कर इतना मोटा और काहिल हो गया था कि सिर्फ दुम हिलाता था। भौंकने में उसे आलस आने लगा था। उसका कोट ऐसा चमकने लगा था जैसा रेस के घोड़ों का होता है। कस्बे में वो लाट लिजलिजी कहलता था। जलने वाले अलबत्ता बिशारत को तहसीलदार का टीपू कहते थे। नाजो ने जाड़े में वेलेजली को अपनी सदरी काट-पीट के पहना दी तो लोग उतरन पर हाथ फेर-फेर के उसपे प्यार जताने लगे। मौली मज्जन की एक बुरी आदत थी कि मास्टर पढ़ा रहे होते तो दबे पांव, सीना ताने क्लास रूम में घुस जाते, यह देखने के लिए कि वो ठीक पढ़ा रहे हैं या नहीं। लेकिन बिशारत की क्लास में कभी नहीं आते थे इसलिए कि उनके दरवाजे पर वेलेजली पहरा देता रहता था।

परिचय बढ़ा और बिशारत शिकार में तहसीलदार के साथ रहने लगे तो वेलेजली तैर कर घायल मुर्गाबी पकड़ना सीख गया। तहसीलदार ने कई बार कहा यह कुत्ता मुझे दे दो, बिशारत हर बार अपनी तरफ इशारा करके टाल जाते कि यह गुलाम मय अपने कुत्ते के आपका खादिम है। आप कहां इसके हगने, मूतने की खखेड़ में पड़ेंगे। जिस दिन से तहसीलदार ने एक कीमती पट्टा लखनऊ से मंगवा कर उसे पहनाया तो उसकी गिनती शहर के मुसाहिबों में होने लगी और बिशारत शहर में इतराते फिरने लगे। उसके खानदानी होने में कोई शक न था। उसका पिता इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक जज का पाला हुआ प्वांइटर था जब वो इंग्लैंड जाने लगा तो अपने रीडर को बख्श गया। वेलेजली उसी की औलाद था, जो धीरजगंज में आकर यूं गली-गली खराब हो रहा था।

मौली मज्जन को वेलेजली जहर लगता था। फरमाते थे कि 'पहले तो कुत्ते की जात है और फिर इसे तो ऐसी ट्रेनिंग दी गयी है कि सिर्फ शरीफों को काटता है।' इसमें शक नहीं कि जब मौली मज्जन पे भौंकता तो बहुत ही प्यारा लगता था। अब वो वाकई इतना ट्रेंड हो गया था कि बिशारत हुक्म देते तो स्टाफ रूम से उनका रूलर मुंह में दबा कर ले आता। मौली मज्जन का बयान था कि उन्होंने अपनी आंखों से इस पलीद को हाजिरी रजिस्टर ले जाते देखा, लेकिन शायद तहसीलदार और रेबीज के डर से कुछ न बोले। एक चीनी विद्वान का कथन है कि कुत्ते पर खींच कर ढेला मारने से पहले यह जुरूर पता कर लो कि इसका मालिक कौन है।

 

टीचर लोग यतीमखाने को खा गये

धीरे-धीरे मौली मज्जन ने कर्ज से भी हाथ खेंच लिया और खुद भी खिंचे-खिंचे रहने लगे। एक दिन बिशारत चाक में लथपथ, डस्टर हाथ में लिए और रजिस्टर बगल में दबाये क्लास रूम से निकल रहे थे कि मौली मज्जन उन्हें आस्तीन पकड़कर अपने दफ्तर में ले गये और उल्टे सर हो गये। शायद 'हमला करने में पहल सबसे अच्छा बचाव है' वाली पालिसी पर अमल कर रहे थे। कहने लगे, 'बिशारत मियां एक मुद्दत से आपकी तन्ख्वाह चढ़ी हुई है और आपके कानों पर जूं नहीं रेंगती। स्कूल इस हालत में पहुंच गया। कुछ उपाय कीजिए। यतीमखाने के चंदे के मद से टीचरों की तन्ख्वाह दी जाती है। टीचर तो यतीमखाने को खा गये। डरता हूं, कहीं आप लोगों को यतीमों की आह न लग जाये।' बिशारत यह सुनते ही आपे से बाहर हो गये। कहने लगे, सात-आठ महीने होने को आये, कुल साठ-सत्तर रुपये मिले हैं। दो बार घर से मनीआर्डर मंगवा चुका हूं, अगर इस पर भी यतीमों की आह का अंदेशा है, तो अपनी नौकरी तह कर के रखिए' यह कह के उन्होंने वहीं चार्ज दे दिया। मतलब यह कि डस्टर और हाजिरी रजिस्टर मौली मज्जन को पकड़ा दिया।

मौली मज्जन ने एकदम पैंतरा बदला और डस्टर उनके चार्ज में वापस दे कर, हाथ झाड़ते हुए बोले, 'आप कैसी बातें कर रहे हैं। बरखुरदार! कसम है अल्लाह की! वो रकम जिसे आप अपने हिसाब से साठ-सत्तर बता रहे हैं, वो भी यतीमों का पेट काट कर जकात और सदके से निकाल कर पेश की थी। इसका आप यह बदला दे रहे हैं। सर सय्यद को भी आखिरी उम्र में ऐसे ही सदमे उठाने पड़े थे जिससे वो उठ न पाये थे। मैं सख्त आदमी हूं। खैर! सब्र से काम लीजिए। अल्लाह ने चाहा तो बकरा-ईद की खालों से सारा हिसाब बेबाक कर दूंगा। बर्खुरदार! ये आपका स्कूल है, आपका अपना यतीमखाना। मैं कोई अंधा नहीं हूं। आप जिस लगन से काम कर रहे हैं, वो अंधे को भी नजर आती है। आप जिंदगी में बहुत आगे जायेंगे। अगर इसी तरह काम करते रहे, अल्लाह ने चाहा तो बीस-पच्चीस बरस में इस स्कूल के हैड मास्टर हो जायेंगे। मैं ठहरा जाहिल आदमी, मैं तो हैडमास्टर बनने से रहा। स्कूल का हाल आपके सामने है। चंदा देने वालों की तादाद घट कर इतनी हो गयी कि सर सय्यद होते तो अपना सर पीट लेते। मगर आप सब अपना गुस्सा मुझी पर उतारते हैं। मैं अकेला क्या कर सकता हूं। अकेला चना भाड़ तो क्या खुद को भी नहीं फोड़ सकता। जुरूरत इस बात की है कि स्कूल और यतीमखाने को अमीरों, रईसों, तअल्लुकेदारों और आस-पास के शहरों में परिचित कराया जाये। लोगों को किसी बहाने बुलाया जाये। एक यतीम का चेहरा दिखाना हजार भाषणों और लाख इश्तहारों से जियादा असर रखता है। यकीन जानिए जबसे टीचरों की तन्ख्वाह रुकी है, मेरी नींदें उड़ गयी हैं। बराबर सलाह मशविरे कर रहा हूं। अल्लाह के लिए अपनी तन्ख्वाह की अदायगी की कोई तरकीब निकालिए। बहुत चिंतन-मनन के बाद अब आप ही के उपाय पर अमल करने का फैसला किया है। स्कूल की प्रसिद्धि के लिए एक शानदार मुशायरा होना बहुत जुरूरी है। लोग आज भी धीरजगंज को गांव समझते हैं। अभी कल ही एक पोस्टकार्ड मिला। पते में गांव धीरजगंज लिखा था। गांव धीरजगंज! खून खौलने लगा। लोग अर्से तक अलीगढ़ को भी गांव समझते रहे, जब तक कि वहां फिल्म नहीं आई और कार के एक्सीडेंट में पहला आदमी न मरा।

काम बांटने के सिलसिले में उन्होंने बिशारत के जिम्मे सिर्फ शायरों का लाना-ले जाना, ठहरने और खाने के बंदोबस्त, मुशायरे की पब्लिसिटी और मुशायरा-स्थल का इंतजाम दिया। बाकी काम वो अकेले कर लेंगे, जिससे अभिप्राय मुशायरे की अध्यक्षता था।

 

धीरजगंज का पहला और आखिरी मुशायरा

मुशायरे की तारीख तय हो गयी। धीरजगंज के आस-पास के लोगों को निमंत्रित करना, तरह की पंक्ति तय करना और शायरों का चयन करना, शायरों को कानपुर से आखिरी ट्रेन से लाना और मुशायरे के बाद पहली ट्रेन से दफा करना। मुशायरे से पहले और गजल पढ़ने तक उनकी मुफ्त खातिर किसी और से करवाना... इसी किस्म के कार्य जो सजा का दर्जा रखते थे, बिशारत के सुपुर्द किये गये। शायरों और उनके अपने आने-जाने का रेल और इक्के का किराया, शायरों का धीरजगंज में खाने और रहने का खर्च, पान सिगरेट इत्यादि के खर्च के लिए मौली मज्जन ने दस रुपये दिये और ताकीद की कि अंत में जो राशि बच जाये वो उनको मय रसीद मुशायरे के अगले दिन वापस कर दी जाये। उन्होंने सख्ती से यह भी हिदायत की कि शायरों को आठ आने का टिकिट खुद खरीद कर देना। नक्द किराया हरगिज न देना। बिशारत यह पूछने ही वाले थे कि शायरों के हाथ-खर्च और नजराने का क्या होगा कि मौली मज्जन ने स्वयं ही सवाल हल कर दिया। फरमाया कि शायरों से यतीमखाने और स्कूल के चंदे के लिए अपील जुरूर कीजिएगा। उन्हें शेर सुनाने में जरा भी शर्म नहीं आती तो आपको इस पुण्यकार्य में काहे की शर्म। अगर आपने फूहड़पन से काम न लिया तो हर शायर से कुछ न कुछ वसूल हो सकता है, मगर जो कुछ वसूल करना है मुशायरे से पहले ही धरवा लेना। गजल पढ़ने के बाद हरगिज काबू में नहीं आयेंगे। 'रात गयी, बात गयी' वाला मुआमला है और जो शायर ये कहे कि वो अठन्नी भी नहीं दे सकता तो उसे तो हमारे यतीमखाने में होना चाहिए। कानपुर में बेकार पड़ा क्या कर रहा है।

पाठक सोच रहे होंगे इन व्यवस्थाओं के संदर्भ में स्कूल के हैडमास्टर का कहीं जिक्र नहीं आया। इसका एक उचित कारण यह था कि हैडमास्टर को नौकरी पर रखते समय उन्होंने केवल एक शर्त लगाई थी - वो यह कि हैडमास्टर स्कूल के मुआमलों में बिल्कुल हस्तक्षेप नहीं करेंगे।

इस आत्मश्लाघा कहिए या अनुभवहीनता, बिशारत ने मुशायरे के लिए तरह की जो पंक्ति चुनी वो अपनी ही गजल से ली। इसका सबसे बड़ा फायदा तो यह नजर आया कि मुफ्त में प्रसिद्धि मिल जायेगी। दूसरे उन्हें मुशायरे के लिए अलग गजल पर माथापच्ची नहीं करनी पड़ेगी। यह सोच-सोच के उनके दिल में गुदगुदी होती रही कि अच्छे-अच्छे शायर उनकी पंक्ति पर गिरह लगायेंगे। बहुत जोर मारेंगे। घंटों काव्य-चिंतन में कभी पैर पटकेंगे, कभी दिल को, कभी सर को पकड़ेंगे और शेर होते ही एक-दूसरे को पकड़ के बैठ जायेंगे। उन्होंने अट्ठारह शायरों को सम्मिलित होने के लिए तैयार कर लिया, जिनमें जौहर चुगताई इलाहाबादी, काशिफ कानपुरी और नुशूर वाहिदी भी शामिल थे, जो इसलिए तैयार हो गये थे कि बिशारत की नौकरी का सवाल था। नुशूर वाहिदी और जौहर इलाहाबादी तो उन्हें पढ़ा भी चुके थे। उन दोनों को उन्होंने तरह नहीं दी बल्कि दूसरी गजल पढ़ने की प्रार्थना की। ऐसा लगता था कि उन्होंने बाकी शायरों के चयन में यह ध्यान रक्खा था कि कोई भी शायर ऐसा न हो जो उनसे बेहतर शेर कह सकता हो।

इन सब शायरों को दो इक्कों में बिठा कर वो कानपुर के रेलवे स्टेशन पर लाये। जिन पाठकों को दो इक्कों में अट्ठारह शायरों की बात में अतिशयोक्ति लगे, शायद उन्होंने न तो इक्के देखे हैं न शायर। यह तो कानपुर था वरना अलीगढ़ होता तो एक ही इक्का काफी था। पाठकों की आसानी के लिए हम इस लाजवाब सवारी का सरसरी वर्णन किये देते हैं। पहले गुस्ले-मय्यत के तख्ते को काट कर चौकोर और चौरस कर लें। फिर उसमें दो अलग साइज के बिल्कुल चौकोर पहिये इस भरोसे के साथ जोत दें कि इनके चलने से अलीगढ़ की सड़कें समतल हो जायेंगी और इस प्रक्रिया में ये खुद भी गोल हो जायेंगे। तख्ता सड़क के गड्ढों की ऊपरी सत्ह से छह, साढ़े छह फिट ऊंचा होना चाहिए ताकि सवारियों के लटके हुए पैरों और पैदल चलने वालों के सरों की सत्ह एक हो जाये। पहिये में सूरज की किरणों की शक्ल की जो लकड़ियां लगी होती हैं वो इतनी मजबूत होनी चाहिए कि नयी सवारी इन पर पांव रख कर तख्ते तक हाई जंप कर सके। पांव के धक्के से पहिये को स्टार्ट मिलेगा। इसके बाद तख्ते में दो बांसों के बम (इक्के और तांगों के आगे लगाये जाने वाली लकड़ी जिसमें घोड़ा जोता जाता है) लगा कर एक कमजोर घोड़े को लटका दें, जिसकी पसलियां दूर से ही गिनकर सवारियां संतोष कर लें कि पूरी हैं। लीजिए इक्का तैयार है।

निहारी, रसावल, जली और धुआं लगी खीर, मुहावरे, सावन के पकवान, अमराइयों में झूले, दाल, रेशमी दुलाई, गरारे, दोपल्ली टोपी, आल्हा-ऊदल और जबान के शेर की तरह इक्का भी यू.पी. की खास चीजों में गिना जाता है। हमारा खयाल है कि इक्के का अविष्कार किसी घोड़े ने किया होगा, इसीलिए इसके डिजाइन में इस बात का ध्यान रखा गया है कि घोड़े से अधिक सवारी को परेशानी उठानी पड़े। इक्के की विशेषता यह है कि अधिक सवारियों का बोझ घोड़े पर नहीं पड़ता बल्कि उन सवारियों पर पड़ता है जिनकी गोद में वो आ-आ कर बैठती है। जोश मलीहाबादी साहब ऐसे इक्कों के बारे में लिखते हैं कि, 'तमाम के तमाम इस कदर जलील हैं कि उन पर सिकंदर महान को भी बिठा दिया जाये तो वो भी किसी देहाती रंडी के भड़वे नजर आने लगेंगे।'

धीरजगंज के प्लेटफार्म को स्कूल के बच्चों ने रंग-बिरंगी झंडियों से इस तरह सजाया था जैसे फूहड़ मां बच्ची का मुंह धुलाये बगैर बालों में शोख रिबन बांध देती है। ट्रेन से उतरते ही हर शायर को गेंदे का हार पहना कर गुलाब का एक-एक फूल और औटते दूध का कांसे का गिलास पेश किया गया जिसे थामते ही वो बिलबिला कर पूछता था कि इसे कहां रक्खूं? स्वागत करने वालों ने पच्चीस मील और एक घंटे दूर, कानपुर से आने वालों से पूछा, 'सफर कैसा रहा! कानपुर का मौसम कैसा है! हाथ मुंह धो के तीन चार घंटे सो लें तो सफर की थकान उतर जायेगी।' प्रत्युत्तर में मेहमानों ने पूछा, 'यहां मगरिब (शाम की नमाज) किस वक्त होती है' धीरजगंज वाले तो मेहमाननवाजी के लिए मशहूर हैं; यहां की कौन सी चीज मशहूर है; क्या यहां के मुसलमान भी उतने ही बुरे हाल में हैं, जितने बाकी हिंदुस्तान के।' अट्ठारह शायर और पांच मिसरा उठाने वाले जो एक शायर अपने साथ लाया था, दो बजे की ट्रेन से धीरजगंज पहुंचे। ट्रेन पहुंचने से तीन घंटे पहले ही यतीमखाना शम्स-उल-इस्लाम का बैंड बजना शुरू हो गया था, लेकिन जैसे ही ट्रेन आ कर रुकी तो कभी ढोल, कभी बांसुरी, कभी हाथी की सूंड़ जैसा बाजा बंद हो जाता और कभी तीनों ही मौन हो जाते, सिर्फ बैंड मास्टर छड़ी हिलाता रह जाता। वो इस कारण कि इन बाजों को बजाने वाले बच्चों ने इससे पहले इंजन को इतने पास से नहीं देखा था। वो उसे देखने में इतने तल्लीन हो जाते कि बजाने की सुध ही न रहती, इंजन उनके इतने पास आ कर रुका था कि उसका एक-एक प्रभावी पुरजा दिखाई दे रहा था... सीटी बजाने वाला उपकरण, कोयला झोंकने वाला बेलचा, बॅायलर दहकते-चटखते कोयलों का ताप और अंग्रेजी दवाओं की बू जैसा भभकता झोंका। शोलों की आंच से ऐंग्लो इंडियन ड्राइवर का तमतमाता लाल चुकंदर चेहरा और कलाई पर गुदी नीली मेम, मुसलमान खलासी के सर पर बंधा हरा रूमाल और चेहरे पर कोयले की जेबरा धारियां, पहिये से जुड़ी हुई लंबी सलाख जो बिल्कुल उनके हाथ की तरह चलती जिसे वो आगे पीछे करते हुए छुक-छुक रेल चलाते थे, इंजन की टोंटी से उबलती, शोर मचाती स्टीम का चेहरे पर स्प्रे। इन बच्चों ने धुएं के मरगोलों को मटियाले से हल्का सुरमई, सुरमई से गाढ़ा-गाढ़ा काला होते देखा। गले में उसकी कड़वाहट उन्हें अच्छी लग रही थी। घुंघराले धुएं का काला अजगर फुफकारें मारता आखिरी डब्बे से भी आगे निकल कर अब आसमान की तरफ उठ रहा था। बैंड बजाने वाले बच्चे बिल्कुल चुप हो कर पास, बिल्कुल पास से इंजन की सीटी को बजता हुआ देखना चाहते थे। उनका बस चलता तो जाते समय अपनी आंखें वहीं छोड़ जाते। अगर उन बच्चों से बैंड बजवाना ही था तो ट्रेन बगैर इंजन के लानी चाहिए थी।

 

इन्हीं पत्थरों पे चल कर ...

अट्ठारह शायरों का जुलूस स्कूल के सामने से गुजरा तो एक रहकले से 18 तोपों की सलामी उतारी गयी। ये एक छोटी सी पंचायती तोप थी जो नार्मल हालात में पैदाइश और खत्नों के मौके पर चलाई जाती थी। चलते ही सारे कस्बे के कुत्ते, बच्चे, कव्वे, मुर्गियां और मोर कोरस में चिंघाड़ने लगे। बड़ी बूढ़ियों ने घबरा कर 'दीन जागे, कुफ्र भागे' कहा। खुद वो मिनी तोप भी अपने चलने पर इतनी आश्चर्यचकित और घबरायी हुई थी कि देर तक नाची-नाची फिरी। शायरों को खाते-पीते किसानों के घर ठहराया गया, जो अपने-अपने मेहमान को स्कूल से घर ले गये। एक किसान तो अपने हिस्से के मेहमान की सवारी के लिए टट्टू और रास्ते के लिए नारियल की गुड़गुड़ी भी लाया था। कस्बे में जो गिने-चुने संपन्न घराने थे, उनसे मौली मज्जन की नहीं बनती थी, इसलिए शायरों के ठहरने और खाने का बंदोबस्त किसानों और चौधरियों के यहां किया गया, जिसकी कल्पना ही शायरों की नींद उड़ाने के लिए काफी थी। शेरो-शायरी या नॉविलों में देहाती जिंदगी को रोमेंटिसाइज करके उसकी निश्छलता, सादगी, सब्र और प्राकृतिक सौंदर्य पर सर धुनना और धुनवाना और बात है लेकिन सचमुच किसी किसान के आधे पक्के या मिट्टी गारे के घर में ठहरना किसी शहरी इंटेलेक्चुअल के बस का रोग नहीं। किसान से मिलने से पहले उसके ढोर-डंगर, घी के फिंगर प्रिंट वाले धातु के गिलास, जिन हाथों से उपले पाथे उन्हीं हाथों से पकायी हुई रोटी, हल, दरांती, मिट्टी से खुरदुराये हुए हाथ, बातों में प्यार और प्याज की महक, मक्खन पिलाई हुई मूंछ... इस सबसे एक ही वक्त में गले मिलना पड़ता है।

 

इन्हीं पत्थरों पे चल कर अगर आ सको तो आओ

इस कस्बे के मुशायरे में, जो धीरजगंज का अंतिम यादगार मुशायरा साबित हुआ, बाहर के 18 शायरों के अलावा 33 स्थानीय तथा संबंधित शायर भी सम्मिलित होने के लिए बुलाये गये, या बिन बुलाये आये। बाहर से आने वालों में कुछ ऐसे भी थे जो इस लालच में आये थे कि नक्द न सही, गांव है; कुछ नहीं तो सब्जियां, फस्ल के मेवे, फल-फलवारी के टोकरे, पांच-छह मुर्गियों का झाबा तो मुशायरा कमेटी वाले जुरूर साथ कर देंगे। धीरजगंज में कुछ शरारती नौजवान ऐसे थे जिनके बारे में मशहूर था कि वो पास-पड़ोस के तीन-चार मुशायरे चौपट कर चुके हैं। उनके एक पुराने लंगोटिये थे जिन्होंने मैट्रिक में चार-पांच बार फेल होने और परीक्षकों की जत्रों के गुणों को पहचानने के अयोग्यता से तंग आकर चुंगी विभाग में नौकरी कर ली थी। इसमें इंद्रिय-दमन के अलावा इस बदनाम महकमे को सजा देना भी छुपा हुआ था। चुंगी के वातावरण को उन्होंने शायरी के लिए हद से जियादा उपयुक्त पाया। अपनी वर्तमान स्थिति से इतने संतुष्ट और आनंदित थे कि इसी पोस्ट से रिटायर होने के इच्छुक थे। अधिक संतान वाले थे और आशु कविता करते थे। जो शेरों के आने का क्रम था वही औलाद का भी, यानी कि दोनों के अवतरण का आरोप ऊपर वाले पर लगाते थे। आम-सा वाक्य भी उन पर कविता बन कर उतरता था। गद्य बोलने और लिखने में उन्हें उतनी ही उलझन होती थी जितनी एक आम आदमी को कविता लिखने में।

वो शायरी करते थे मगर मुशायरों से विरक्त और उदास थे। फरमाते थे, 'आज कल जिस तरह शेर कहा जाता है बिल्कुल उसी तरह दाद दी जाती है, यानी मतलब समझे बगैर। सही दाद देना तो दूर अब लोगों को ढंग से हूट करना भी नहीं आता। शेर मुशायरे में सुनने-सुनाने की चीज नहीं। एकांत में पढ़ने, समझने, सुनने और सहने की चीज है। शायरी किताब की शक्ल में हो तो लोग शायर का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मैं 'मीर' की किताब से एक-दो नहीं, सौ-दो सौ शेर ऐसे निकाल कर दिखा सकता हूं जो वो किसी मुशायरे में पढ़ देते तो इज्जत और पगड़ी ही नहीं, सर भी सलामत नहीं रहता। उन्हें 'मीर' के सिर्फ यही शेर याद थे। दूसरे उस्ताद शायरों के भी उन्होंने सिर्फ वही शेर याद कर रखे थे जिनमें कोई कमी या गलती थी। उन साहब से बिशारत पांच छह गजलें कहलवा कर ले आये और उन मुशायरा बिगाड़ नौजवानों में बांट दीं कि तुम भी पढ़ना। यह तरकीब काम कर गयी। देखा गया है कि जिस शायर को दूसरे नालायक शायरों से दाद लेने की उम्मीद हो वो उन्हें हूट नहीं करता। चोरियां बंद करने का आजमाया हुआ तरीका यह बताया गया है कि चोर को थानेदार बना दो। हमें इसमें इस फायदे के अलावा कि वो दूसरों को चोरी नहीं करने देगा एक फर्क और नजर आता है। वो ये कि पहले जो माल वो अंधेरी रातों में सेंध लगाकर बड़ी मुसीबतों से हासिल करता था, अब दिन-दहाड़े रिश्वत की शक्ल में थाने में धरवा लेगा।

इसी प्रोग्राम के तहत पांच ताजा गजलें हकीम अहसानुल्लाह 'तस्लीम' से इस वादे पर लिखवा कर लाये कि जाड़े में उनके कुश्तों के लिए पचास तिलेर, बीस तीतर, पांच हरियल और दो काजें नज्र करेंगे और बकराईद पर पांच खस्सी बकरे आधे दामों धीरजगंज से खरीदकर भिजवायेंगे। हकीम अहसानुल्लाह 'तस्लीम' मूलगंज की तवायफों के खास हकीम तो थे ही, गाने के लिए उन्हें फरमाइशी गजल भी लिखकर देते थे। किसी तवायफ के पैर भारी होते तो उसके लिए खास तौर से छोटी बह्र (छंद) में गजल कहते ताकि ठेका और ठुमका न लगाना पड़े। वैसे उस जमाने में तवायफें आमतौर पे दाग और फकीर, बहादुरशाह जफर का कलाम गाती थीं। हकीम साहब किसी तवायफ पर कृपालु होते तो मक्ते में उसका नाम डाल के गजल उसी को बख्श देते। कई तवायफें मसलन मुश्तरी, दुलारी, जोहरा प्रसिद्ध शायरों से गजल कहलवातीं और न सिर्फ गाने की बल्कि गजल कहने की भी दाद पातीं। हकीम 'तस्लीम' तवायफों के उच्चारण के दोष भी ठीक करते, बाकी चीजें ठीक होने से परे थीं मतलब ये कि वैसे दोष-सुधार चाहती थीं लेकिन सुधार से परे थीं। उस जमाने में तवायफों और उनके श्रद्धालुओं के दोष सुधारना अदबी फैशन में दाखिल था। वास्तव में ये समाजी से जियादा खुद सुधारक का ऐंद्रिक विषय होता था, जिसका Catharsis संभव हो न हो, उसका बयान लज्जत भरा था। गुनाह का जिक्र गुनाह से कहीं जियादा लजीज हो सकता है बशर्ते कि विस्तृत हो और बयान करनेवाला शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार से बूढ़ा हो। एमली जोला की Nana रुसवा की उमराव जान अदा, टोलार्ज ट्रेक और देगा (Degas) की तवायफों और चकलों की तस्वीरें शारीरिक वास्तविकता के सिलसिले की पहली कड़ी हैं, जबकि कारी सरफराज हुसैन की 'शाहिदे-राअना' से रंगीनी के एक दूसरे लजीज सिलसिले की शुरुआत होती है, जिसकी कड़ियां काजी अब्दुल गफ्फार के लैला के खत, गुलाम अब्बास की आनंदी की भरपूर सादगी और मंटों की प्रकट रूप में खुरदरी वास्तविकता लेकिन Inverted Romanticism से जा मिलती हैं। हमारे यहां तवायफ से संबंधित तमाम बचकाना आश्चर्यों, खुमगुमानियों, सुनी-सुनायी बातों और रोमांटिक सोचों... जिससे मिले, जहां से मिले, जिस कदर मिले... सबका बोझल अंबार इस तरह लगाया जाता है कि हर तरफ लफ्जों के तोता मैना फुदकते-चहकते दिखाई देते हैं। जिंदा तवायफ कहीं नजर नहीं आती। रोमेंटिक मलबे तले उसके घुंघरू की आवाज तक सुनाई नहीं देती, इस तवायफ की निर्माण सामग्री उठती जवानी के मुहासों भरे अधकचरे जजबात से ली गयी है, जिसकी महक रिसर्च स्कॉलरों की रगों में दौड़ती फिरती रौशनाई को मुद्दतों गरमाती रहेगी। इस इच्छा भरे शहर की तवायफ ने अपनी Chastity belt की चाबी दरिया में फेंक दी है और अब उसे किसी से... हद ये है कि खुद लेखक और अपने आप से भी कोई खतरा नहीं।

वो सर से है ता नाखुने-पा, नामे-खुदा, बर्फ

बात साठ-सत्तर साल पुरानी लगती है, मगर आज भी उतनी ही सच है। अलग-अलग तबकों के लोग तवायफ को जलील और नफरत के काबिल समझते थे, मगर साथ ही साथ उसकी चर्चा और चिंतन में एक लज्जत महसूस किये बिना नहीं रहते थे। समाज और तवायफ में सुधार के बहाने उसकी जिंदगी की तस्वीर बनाने में उनकी प्यास की संतुष्टि हो जाती थी। इस शताब्दी के पहले आधे भाग का साहित्य, विशेष रूप से फिक्शन, तवायफ के साथ इसी Love-hate यानी दुलार-दुत्कार के ओलते-बदलते संबंध का परिचायक है। उसने एक द्विअर्थी बयान-शैली को जन्म दिया। जिसमें बुरा-भला कहना भी मजे लेने का माध्यम बन जाता है। भोगे हुए यथार्थ के पर्दे में जितनी दाद तवायफ को उर्दू फिक्शन लिखने वालों से मिली उतनी अपने रात के ग्राहकों से भी न मिली होगी। अलबत्ता अंग्रेजी फिक्शन पिछले तीस बरसों में चर्चा के केंद्र का घूंघट उठाकर खुल्लमखुल्ला...।

 

किबला चूं पीर शुद

मूलगंज में वहीदन बाई के कोठे पर एक बुजुर्ग जो हिल-हिल कर सिल पर मसाला पीसते हुए देखे गये, उनके बारे में यार लोगों ने मशहूर कर रखा था कि तीस बरस पहले जुमे की नमाज के बाद वहीदन बाई के चाल-चलन के सुधार की नीयत से कोठे के जीने पर चढ़े थे, मगर उस वक्त इस छप्पन-छुरी की भरी जवानी थी। लिहाजा इनका मिशन बहुत तूल खींच गया।

कारे-जवां दराज है, अब मेरा इंतजार कर

वहीदन बाई जब फर्स्ट क्लास क्रिकेट से रिटायर हुई और गुनाहों से तौबा करने का तकल्लुफ किया, जिसके लायक अब वो वैसे भी नहीं रही थी तो किबला-आलम की दाढ़ी पेट तक आ गयी थी। अब वो उसकी बेटियों के बावर्ची-खाने का इंतजाम तथा गजलों और ग्राहकों के चयन में मदद देते थे। 1931 में वो हज को गयी तो ये नौ सौ चूहों के अकेले प्रतिनिधि की हैसियत से उसके साथ थे।

 

जो पैदा किसी घर में होती थी बेटी

हकीम अहसानुल्लाह 'तस्लीम' का दावा था कि उन्होंने इमामत, हकीमी और शायरी बुजुर्गों से पायी है। गर्व से कहते थे कि उनके दादा हकीम अहतिशाम हुसैन राअना की कन्नौज में इतनी बड़ी जमींदारी थी कि एक नक्शे में नहीं आती थी। अब नक्शे उनके कब्जे में और जमींदारी महाजन के कब्जे में थी। हकीम एहसानुल्लाह तसलीम रंगीनमिजाज रईसों का भी इलाज करते थे, फकत कारूरा (पेशाब) देखकर रईस का नाम बता देते और रईस की नब्ज पे उंगली रखते ही ये निशानदेही कर देते कि बीमारी के कीटाणु किस कोठे के आवारा और पले हुए हैं। ये समझ में आने वाली बात है कि किसी तवायफ के यहां लड़का पैदा हो जाये तो रोना पीटना मच जाता है। हकीम तसलीम के पास खानदानी डायरी में एक ऐसा नुस्खा था कि शर्तिया लड़की पैदा होती। यह एक भस्म थी जो तवायफ उस रात के राजा या विशेष अतिथि को चुपके से पान में डाल कर खिला देती। इस नुस्खे के ठीक होने की प्रसिद्धि इस कदर थी कि कानपुर में किसी गृहस्थ के भी लड़की पैदा होती तो वो मियां के सर हो जाती, हो न हो! तुम वहीं से पान खा कर आये थे। तवायफ कितनी भी हसीन हो उनकी नीयत सिर्फ उसके पैसों पर बिगड़ती थी। तवायफें उनसे बड़ी आस्था और श्रद्धा रखती थीं। कहने वाले तो यहां तक कहते थे कि उनके मरने का बड़ी बेचैनी से इंतजार कर रही हैं ताकि संगे-मरमर का मजार बनवायें और हर साल धूमधाम से उर्स मनायें।

 

भिक्षुओं की फेंटेसी

मूलगंज का जिक्र ऊपर की पंक्तियों और कानपुर से संबंधित दूसरे चित्रों में जगह-जगह बल्कि जगह-बेजगह आया है। इस मुहल्ले में तवायफें रहती थीं। लिहाजा थोड़ा-सा विनम्र स्पष्टीकरण आवश्यक है। ये बिशारत का पसंदीदा विषय है, जिससे हमारे पाठक पूरी तरह से परिचित हो चुके होंगे। वो हिरफिर के इसके वर्णन से अपनी संजीदा बातचीत में विघ्न डालते रहते हैं, हालांकि बिना संदेह वो हैं दूसरे ग्रुप के आदमी।

बाजार से गुजरा हूं खरीदार नहीं हूं

जैसे कई एलर्जिक लोगों को अचानक पित्ती उछल आती है, उसी तरह उनकी बातचीत में तवायफ... अवसर देखे न जगह... छम से आन खड़ी होती है। संयमी हैं, कभी के नाना-दादा बन गये, मगर तवायफ है कि किसी तरह उनके सिस्टम से निकलने के लिए राजी नहीं होती। एक बार हमने आड़े हाथों लिया। हमने कहा, हजरत! पुरानी कहानियों में हीरो और राक्षस की जान किसी तोते में अटकी होती है। कहने लगे, अरे साहब मेरी कहानी पर मिट्टी डालिए। ये देखिए कि आजकल की फिक्शन और फिल्मों में हीरों और हीरोइन से कौन से धर्मग्रंथ पढ़वाये जा रहे हैं। जिस सोच के मुताबिक पहले तवायफ कहानी में डाली जाती थी, अब इस काम के लिए शरीफ घराने की बहू-बेटियों को तकलीफ दी जाती है। पढ़ने वाले और फिल्म देखने वाले आज भी तवायफ को उस तरह उचक लेते हैं जैसे मरीज हकीमों के नुस्खे में से मुनक्का।

निवेदन किया, ये हकीमी उपमा तो तवायफ से भी जियादा Ancient है। कौन समझेगा? फरमाया तवायफ को समझने के लिए यूनानी हिकमत से परिचय जुरूरी है।

और बिशारत कुछ गलत नहीं कहते। शायद आज उस मनस्थिति का अंदाजा करना मुश्किल हो तवायफ उस डगमगाते हुए समाज के संपन्न वर्ग की इंद्रियों पर वर्जित सुख की तरह छायी हुई थी, और ये कुछ उस दौर से ही संबंधित नहीं। औरंगजेब के बारे में मशहूर है कि उसने दुनिया के सबसे पुराने पेशे को समाप्त करने के लिए एक फरमान जारी किया था कि एक निश्चित तारीख तक सारी तवायफें शादी कर लें, वरना उन सबको नाव में भरके यमुना में डूबो दिया जायेगा। अधिकतर तवायफें डूबने को हांडी-चूल्हे पर और मगरमच्छ के जबड़े को ऐसे लफंगों पर प्रमुखता देती थीं जो प्यार भी करते हैं तो इबादत की तरह, यानी बड़ी पाबंदी के साथ और बेदिली के साथ। बहुत-सी तवायफों ने इस धंधे को अलविदा कहकर निकाह कर लिए।

हो चुकीं गालिब बलाएं सब तमाम

एक अक्दे-नागहानी और है

अब जरा इसके दौ सौ बरस बाद की एक झलक 'तजकिरा-ए-गौसिया' में मुलाहिजा फरमायें। इसके लेखक मौलवी मुहम्मद इस्माईल मेरठी अपने श्रद्धास्पद पीरो-मुर्शिद (गुरु) के बारे में एक घटना लिखते हैं 'एक रोज आदेश हुआ, कि जब हम दिल्ली की जीनतुल-मस्जिद में ठहरे हुए थे, हमारे दोस्त कंबलपोश (यूसुफ खां कंबलपोश लेखक तारीखे-यूसुफी, अजायबाते-फिरंग जो उर्दू का पहला इंग्लैंड का यात्रा वर्णन है) ने हमारी दावत की। शाम की नमाज के बाद हमको लेकर चले। चांदनी चौक में पहुंच एक तवायफ के कोठे पर हमको बैठा दिया और आप चंपत हो गये। पहले तो हमने सोचा कि खाना इसी जगह पकवाया होगा, मगर मालूम हुआ कि यूं ही बिठा कर चल दिया है। हम बहुत घबराये भला ऐसी जगह कमबख्त क्यों लाया। दो घड़ी बात हंसता हुआ आया और कहने लगा मियां साहब! मैं आपकी भड़क मिटाने यहां बैठा गया था। बाद में अपने घर ले गया और खाना खिलाया।

याद रहे कि कंबलपोश एक आजाद और मनमौजी आदमी था, ये घटना उस समय की है जब पीरो-मुरशिद की सोहबत में उसका दिल बदल चुका था। सोचिये, जिसकी पतझड़ का ये रंग हो उसकी बहार कैसी रही होगी।

आखिर में, इस लतीफे के लगभग डेढ़ सौ साल बाद के एक नाखुनी निशान पे उचटती सी निगाह डालते चलें। जोश जैसा शब्दों का जादूगर, खानदानी, सुरुचिसंपन्न और नफासतपसंद शायर जब जीवन के स्वर्ग और असीमित सुख की तस्वीर खींचता है तो देखिए उसका कलम क्या गुल खिलाता है

' कूल्हे पे हाथ रख के थिरकने लगी हयात '

कूल्हे पे हाथ रख के थिरकने में कोई हरज नहीं, बशर्ते कूल्हा अपना ही हो। दूसरे, थिरकना पेशेवर काम हो शौकिया न हो। मतलब ये कि कोई कूल्हे पे हाथ रख के थिरकने लगे तो किसी को क्या एतराज हो सकता है, मगर इससे जात पहचानी जाती है।

तो खुदा आपका भला करे... और मुझे माफ करे... मूलगंज रंडियों का चकला था। उस जमाने में भी लोगों का चाल-चलन इतना ही खराब था, जितना अब है, मगर निगाह अभी उतनी खराब नहीं हुई थी कि तवायफों की बस्ती को आजकल की तरह 'बाजारे-हुस्न' कहने लगें। चकले को चकला ही कहते थे। दुनिया में कहीं और बदसूरत रंडियों के कोठों और बेडौल, बिहंगम जिस्म के साथ यौन रोग बेचने वालियों की चीकट कोठरियों को इस तरह ग्लैमराइज नहीं किया गया। 'बाजारे हुस्न' की रोमेंटिक उपमा आगे चलकर उन साहित्यकारों ने प्रचलित की जो कभी तुरंत उपलब्ध होने वाली औरतों की बकरमंडी के पास भी नहीं गुजरे थे, लेकिन निजी तजरुबा इतना आवश्यक भी नहीं। 'रियाज खैराबादी' सारी उम्र शराब की तारीफ में शेर कहते रहे, जब कि उनकी तरल पदार्थों की बदपरहेजी कभी शरबत और सिकंजबीं से आगे नहीं बढ़ी। दूर क्यों जायें, खुद हमारे समकालीन शायर मकतल, फांसी घाट, जल्लाद, और रस्सी के बारे में ललचाने वाली बातें करते रहे हैं। इसके लिए फांसी पे झूला हुआ होना जुरूरी नहीं। ऐश की दाद देने और रात की गलियों में चक्कर लगाने की हिम्मत या ताकत न हो तो 'हवस सीनों में छुप-छुप कर बना लेती है तस्वीरें' और सच तो ये है कि ऐसी ही तस्वीरों के रंग जियादा चोखे और लकीरें जियादा दिलकश होती हैं। क्यों? केवल इसलिए कि काल्पनिक होती हैं। अजंता और एलोरा की गुफाओं के Frescoes (भित्ति-चित्र) और मूर्तियां इसके क्लासिक उदाहरण हैं। कैसे भरे-पूरे बदन बनाये हैं बनाने वालों ने, और बनाने पर आये तो बनाते ही चले गये। मांसल मूर्ति बनाने चले तो हर Sensuous लकीर बल खाती, गदराती चली गयी। सीधी-सादी लकीरें आपको मुश्किल से ही दिखायी पड़ेंगी। हद ये कि नाक तक सीधी नहीं। भारी बदन की इन औरतों और अप्सराओं की मूर्तियां अपने मूर्तिकार के विचारों की चुगली खाती हैं। नारंगी की फांक जैसे होठ। बर्दाश्त से जियादा भरी-भरी छातियां जो खुद मूर्तिकार से भी संभाले नहीं संभलती। बाहर को निकले हुए भारी कूल्हे, जिन पर गागर रख दें तो हर कदम पर पानी, देखने वालों के दिल की तरह बांसों उछलता चला जाये। उन गोलाइयों के खमों के बीच बलखाती कमर और जैसे ज्वार भाटे में पीछे हटती लहर, फिर वो टांगें जिनकी उपमा के लिए संस्कृत शायर को केले तने का सहारा लेना पड़ा। इस मिलन से अपरिचित और अनुपलब्ध बदन को और उसकी इच्छा की सीमा तक Exaggerated लकीरों और खुल-खेलते उभारों को उन तरसे हुए ब्रह्मचारियों और भिक्षुओं ने बनाया और बनवाया है जिनपर भोग-विलास वर्जित था और जिन्होंने औरतों को सिर्फ फेंटेसी और सपने में देखा था और जब कभी सपने में वो इतने करीब आ जाती कि उसके बदन की आंच से अपने लहू में अलाव भड़क उठता तो फौरन आंख खुल जाती और वो हथेली से आंखें मलते हुए पथरीली चट्टानों पर अपने सपने लिखने शुरू कर देते।

 

वो सूरतगर कुछ ख्वाबों के

पश्चिम का सारा Porn और Erotic Art भिक्षुओं और त्यागियों की फेंटेसी के आगे बिल्कुल बचकाना और पतली छाछ लगता है। ऐसे छतनार बदन, इच्छाओं से निहाल स्वरूप और ध्यान-धूप में पके नारफल (तख्ती और छातियों के लिए पुरानी उर्दू में ये शब्द बहुत आम था।) सिर्फ और सिर्फ वो त्यागी और भिक्षु बना सकते थे जो अपनी-अपनी यशोधरा को सोता छोड़कर सच्चाई, निर्वाण की तलाश में निकले थे, पर सारी जिंदगी भीगी, सीली और अंधेरी गुफाओं में जहां सपने के सिवा कुछ दिखाई नहीं देता, पहाड़ का सीना काट कर अपना सपना यानी औरत बरामद करते रहे। बरस दो बरस की बात नहीं, इन ज्ञानियों ने पूरे एक हजार बरस इसी मिथुन कला में बिता दिये। फिर जब सारी चट्टानें खत्म हो गयीं और एक-एक पत्थर ने उनके जीवन-सपने का रूप धारण कर लिया तो वो निश्चिंत होकर अंधेरी गुफाओं से बाहर निकले तो देखा कि धर्म और सत्य का सूरज कभी का डूब चुका और बाहर अब उनके लिए जन्म-जन्म का अंधेरा ही अंधेरा है सो वो बाहर के अंधेरे और हा-हाकार से घबरा कर आंखों पर दोनों हाथ रखे फिर से भीतर के जाने पहचाने अंधेरे में चले गये।

सदियों रूप-स्वरूप और श्रृंगार-रस की भूल-भुलइयों में भटकने वाले तपस्वी तो मिट्टी थे, सो मिट्टी में जा मिले। उनके सपने बाकी रह गये। ऐसे ख्वाब देखने वाले, ऐसे भटकने और भटकाने वाले अब कहां आयेंगे।

कोई नहीं है अब ऐसा जहान में 'गालिब'

जो जागने को मिला देवे आके ख्वाब के साथ

देखिए बात से बात बल्कि खुराफात निकल आई मतलब ये कि बात हकीम एहसानुल्लाह 'तसलीम' से शुरू हुई औ कोठे-कोठे चढ़ती उतरती अजंता और एलोरा तक पहुंच गयी। क्या कीजिये हमारे बांके यार का बातचीत का यही ढंग है। चांद और सूरज की किरणों से चादर बुन के रख देते हैं।

हमने इस चैप्टर में उनके विचारों को यथासंभव उन्हीं के शब्दों और ध्यान को भटकाने वाले अंदाज में इकट्ठा कर दिया है। अपनी तरफ से कोई बढ़ोत्तरी नहीं की। वो अक्सर कहते हैं 'आप मेरे जमाने के घुटे-घुटे माहौल, पवित्र अभाव और इच्छाओं की पवित्रता का अंदाजा नहीं लगा सकते। आपके और मेरी उम्र में एक नस्ल का... बीस साल का... गैप है।'

सही कहते हैं। उनकी और हमारी नस्ल के बीच में तवायफ खड़ी है।

 

मुशायरा किसने लूटा

जौहर इलाहाबादी, काशिफ कानपुरी और नुशूर वाहिदी को छोड़कर बाकी स्थानीय और बाहरी शायरों को काव्य पाठ में आगे-पीछे पढ़वाने का मसअला बड़ा टेढ़ा निकला, क्योंकि सभी एक-दूसरे के बराबर थे और ऐसी बराबर की टक्कर थी कि यह कहना मुश्किल था कि उनमें कम बुरे शेर कौन कहता है ताकि उसको बाद में पढ़वाया जाये। इस समस्या का हल यह निकाला गया कि शायरों को अक्षरक्रम के उल्टी तरफ से पढ़वाया गया यानी पहले यावर नगीनवी को अपनी हूटिंग करवाने की दावत दी गयी। अक्षरक्रम के सीधी तरफ से पढ़वाने में ये मुश्किल थी उनके उस्ताद जौहर इलाहाबादी को उनसे भी पहले पढ़ना पड़ता।

मुशायरा स्थल पर एक अजब हड़बोंग मची थी। उम्मीद के विपरीत आस-पास के देहात से लोग झुंडों में आये। दरियां और पानी कम पड़ गया। सुनने में आया कि मौली मज्जन के दुश्मनों ने ये अफवाह फैलायी कि मुशायरा खत्म होने के बाद लड्डुओं, खजूर का प्रसाद और मलेरिया तथा रानीखेत (मुर्गियों की बीमारी) की दवा की पुड़ियां बटेंगी। एक देहाती अपनी दस बारह मुर्गियां झाबे में डाल के ले कर आया था कि सुब्ह तक बचने की उम्मीद नहीं थी। इसी तरह एक किसान अपनी जवान भैंस को नहला धुला कर बड़ी उम्मीदों से साथ लाया था, उसके कट्टे ही कट्टे होते थे, मादा बच्चा नहीं होता था। उसे किसी ने खबर दी थी कि शायरों के मेले में तवायफों वाले हकीम अहसानुल्लाह 'तस्लीम' आने वाले हैं। श्रोताओं की बहुसंख्या ऐसी थी जिन्होंने इससे पहले मुशायरा और शायर नहीं देखे थे। मुशायरा खासी देर से यानी दस बजे शुरू हुआ, जो देहात में दो बजे रात के बराबर होते हैं। जो नौजवान वॉलंटियर रौशनी के इंतिजाम के इंचार्ज थे, उन्होंने मारे जोश के छह बजे ही गैस की लालटेनें जला दीं जो नौ बजे तक अपनी बहारें दिखा कर बुझ गयीं। उनमें दोबारा तेल और हवा भरने और काम के दौरान आवारा लौंडों को उनकी शरारत और जुरूरत के मुताबिक बड़ी, और बड़ी गावदुम गाली देकर परे हटाने में एक घंटा लग गया। तहसीलदार को उसी दिन कलैक्टर ने बुला लिया था। उसकी अनुपस्थिति से लौंडों-लहाड़ियों को और शह मिली। रात के बारह बजे तक कुल सत्ताईस शायरों का भुगतान हुआ। मुशायरे के अध्यक्ष मौली मज्जन को किसी जालिम ने दाद का अनोखा तरीका सिखाया था। वो वाह वा! कहने के बजाय हर शेर पर मुकर्रर इरशाद (दुबारा पढ़िये) कहते थे, नतीजा सत्ताईस शायर चव्वन के बराबर हो गये। हूटिंग भी दो से गुणा हो गयी। कादिर बाराबंकवी के तो पहले शेर पर ही श्रोताओं ने तंबू सर पर उठा लिया। वो परेशान हो कर कहने लगा, 'हजरात! सुनिये तो! शेर पढ़ा है, गाली तो नहीं दी।' इस पर श्रोता और बेकाबू हो गये, मगर उसने हिम्मत नहीं हारी, बल्कि एक शख्स से बीड़ी मांग कर बड़े इत्मीनान से सुलगा ली और ऊंची आवाज में बोला, 'आप हजरात को जरा चैन आये तो अगला शेर पढ़ूं।' मिर्जा के अनुसार मुशायरों के इतिहास में यह पहला मुशायरा था जो श्रोताओं ने लूट लिया।

 

सागर जलौनवी

रात के बारह बजे थे, चारों ओर श्रोताओं का तूती बोल रहा था। मुशायरे के शोर से सहम कर गांव की सरहद पर गीदड़ों ने बोलना बंद कर दिया था। एक स्थानीय शायर खुद को हर शेर पर हूट करवा कर सर झुकाये जा रहा था कि एक साहब चांदनी पर चलते हुए मुशायरे के अध्यक्ष तक पहुंचे, दायें हाथ से आदाब किया और बायें हाथ से अपनी मटन-चाप मूंछ जो खिचड़ी हो चली थी, पर ताव देते रहे। उन्होंने प्रार्थना की कि मैं एक गरीब परदेसी हूं, मुझे भी शेर पढ़ने की इजाजत दी जाये। उन्होंने खबरदार किया कि अगर पढ़वाने में देर की गयी तो उनका दर्जा खुद-ब-खुद ऊंचा होता चला जायेगा और वो उस्तादों से पहलू मारने लगेंगे। उन्हें इजाजत दे दी गयी। उन्होंने खड़े हो कर दर्शकों को दायें, बायें और सामने घूम कर तीन-बार आदाब किया। उनकी क्रीम रंग की अचकन इतनी लंबी थी कि भरोसे से नहीं कहा जा सकता था कि उन्होंने पाजामा पहन रक्खा है या नहीं। काले मखमल की टोपी को जो भीड़-भड़क्के में सीधी हो गयी थी, उन्होंने उतार कर फूंक मारी और अधिक टेढ़े एंगिल से सर पर जमाया।

मुशायरे के दौरान यह साहब छटी लाइन में बैठे अजीब अंदाज से 'ऐ सुब्हानल्ला-सुब्हानअल्ला' कह कर दाद दे रहे थे। जब सब ताली बजाना बंद कर देते तो यह शुरू हो जाते और इस अंदाज में बजाते जैसे रोटी पका रहे हैं। फर्शी आदाब करने के बाद वो अपनी डायरी लाने के लिए अचकन इस तरह ऊपर उठाये अपनी जगह पर वापस गये जैसे कुछ औरतें भरी बरसात और चुभती नजरों की सहती-सहती बौछारों में, सिर्फ इतने गहरे पानी से बचने के लिए जिसमें चींटी भी न डूब सके, अपने पांयचे दो-दो बालिश्त ऊपर उठाये चलती हैं और देखने वाले कदम-कदम पे दुआ करते हैं कि 'इलाही ये घटा दो दिन तो बरसे'।

अपनी जगह से उन्होंने अपनी डायरी उठायी, जो दरअस्ल स्कूल का एक पुराना हाजिरी रजिस्टर था जिसमें इम्तिहान की पुरानी कापियों के खाली पन्नों पर लिखी हुई गजलें रखी थीं। उसे सीने से लगाये वो साहब वापस मुशायरे के अध्यक्ष के पास पहुंचे। हूटिंग किसी तरह बंद होने का नाम ही नहीं लेती थी। ऐसी हूटिंग नहीं देखी कि शायर के आने से पहले और शायर के जाने के बाद भी जोरों से जारी रहे। अपनी जेबी घड़ी एक बार बैठने से पहले और बैठने के बाद ध्यान से देखी। फिर उसे डमरू की तरह हिलाया और कान लगा कर देखा कि अब भी बंद है या धक्कमपेल से चल पड़ी है। जब फुरसत पायी तो श्रोताओं से बोले, 'हजरात! आपके चीखने से मेरे तो गले में खराश पड़ गयी है।'

इन साहब ने अध्यक्ष और श्रोताओं से कहा कि वे एक खास कारण से गैर-तरही गजल पढ़ने की इजाजत चाहते हैं, मगर कारण नहीं बताना चाहते। इस पर श्रोताओं ने शोर मचाया। हल्ला जियादा मचा तो उन साहब ने अपनी अचकन के बटन खोलते हुए गैर-तरही गजल पढ़ने का यह कारण बताया कि जो मिसरा 'तरह' दिया गया है उसमें 'सकता' (छंद दोष) पड़ता है, 'मरज' शब्द को 'फर्ज' के ढंग पर बांधा गया है। श्रोताओं की आखिरी पंक्ति से एक दाढ़ी वाले बुजुर्ग ने उठ कर न सिर्फ सहमति व्यक्त की बल्कि ये चिनगारी भी छोड़ी कि अलिफ (आ की ध्वनि को अ बांधना) भी गिरता है।

यह सुनना था कि शायरों पर अलिफ ऐसे गिरा जैसे फालिज गिरता है। सकते में आ गये। श्रोताओं ने आसमान, मिसरा-तरह और शायरों को अपने सींगों पर उठा लिया। एक हुल्लड़ मचा हुआ था। जौहर इलाहाबादी कुछ कहना चाहते थे मगर अब शायरों के कहने की बारी खत्म हो चुकी थी। फब्तियों, ठट्ठों और गालियों के सिवा कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। ऐसा स्थिति थी कि अगर उस समय जमीन फट जाती तो बिशारत स्वयं को, मय कानपुर के शायरों और मौलवी मज्जन को गावतकिये समेत उसमें समा जाने के लिए खुशी से ऑफर कर देते।

उस एतराज करने वाले शायर ने अपना उपनाम सागर जलौनवी बताया।

 

मुशायरा कैसे लूटा गया

लोग बड़ी देर से उकताये बैठे थे। सागर जलौनवी के धमाकेदार एतराज से ऊंघते मुशायरे में जान ही नहीं, तूफान आ गया। दो गैस की लालटेनों का तेल पंद्रह मिनट पहले खत्म हो चुका था। कुछ में वक्त पर हवा नहीं भरी गयी। वो फुस्स हो कर बुझ गयीं। सागर जलौनवी के एतराज के बाद किसी शरारती ने बाकी लालटेनों को झड़झड़ाया, जिससे उनके मेंटल झड़ गये और अंधेरा हो गया। अब मारपीट शुरू हुई, लेकिन ऐसा घुप्प अंधेरा था कि हाथ को शायर सुझाई नहीं दे रहा था इसलिए बेकसूर श्रोता पिट रहे थे। इतने में किसी ने आवाज लगाई, भाइयो! हटो! भागो! बचो! रंडियों वाले हकीम साहब की भैंस रस्सी तुड़ा गयी है। यह सुनते ही घमासान की भगदड़ पड़ी। अंधेरी रात में काली भैंस तो किसी को दिखायी नहीं दी लेकिन लाठियों से लैस मगर घबराये हुए देहातियों ने एक दूसरे को, भैंस समझ कर खूब धुनाई की। लेकिन आज तक यह समझ न आया कि चुराने वालों ने ऐसे घुप अंधेरे में नये जूते कैसे पहचान लिए और जूते की क्या, हर चीज जो चुरायी जा सकती थी चुरा ली गयी। पानों की चांदी की थाली, दर्जनों अंगोछे, सागर जलौनवी की दुगनी साइज की अचकन, जिसके नीचे कुरता या बनियान नहीं था। एक जाजम, तमाम चांदनियां, यतीमखाने के चंदे की संदूकची, उसका फौलादी ताला, यतीमखाने का काला बैनर, मुशायरे के अध्यक्ष का गाव-तकिया और आंखों पर लगा चश्मा, एक पटवारी के गले में लटकी हुई दांत कुरेदनी और कान का मैल निकालने की डोई, ख्वाजा कमरुद्दीन की जेब में पड़े आठ रुपये, इत्र में बसा रेशमी रूमाल और पड़ौसी की बीबी के नाम महकता खत (यही एक चीज थी जो दूसरे दिन बरामद हुई और इसकी नक्ल घर-घर बंटी), हद ये कि कोई बदतमीज उनकी टांगों में फंसे चूड़ीदार का रेशमी नाड़ा एक ही झटके में खींचकर ले गया। एक शख्स बुझा हुआ हंडा सर पर उठा के ले गया। माना कि अंधेरे में किसी ने सर पर ले जाते हुए तो नहीं देखा, मगर हंडा ले जाने का सिर्फ यही एक तरीका था। बीमार मुर्गियों के केवल कुछ पर पड़े रह गये। सागर जलौनवी का बयान था कि एक बदमाश ने उसकी मूंछ तक उखाड़ कर ले जाने की कोशिश की जिसे उसने यथा-समय अपनी चीख से नाकाम कर दिया। यानी इस बात की चिंता किये बिना कि उपयोगी है या नहीं, जिसका जिस चीज पर हाथ पड़ा उसे उठा कर, उतार कर, नोच कर, फाड़ कर, उखाड़ कर ले गया। हद यह कि तहसीलदार के पेशकार मुंशी बनवारी लाल माथुर के इस्तेमाल में आते डेंचर्स भी। केवल एक चीज ऐसी थी जिसे किसी ने हाथ नहीं लगाया। शायर अपनी डायरियां जिस जगह छोड़ कर भागे थे वो दूसरे दिन तक वहीं पड़ी रहीं।

बाहर से आये देहातियों ने यह समझकर कि शायद यह भी मुशायरे का हिस्सा है, मार-पीट और लूट-खसोट में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और बाद को बहुत दिन तक हर आये-गये से बड़े चाव से पूछते रहे कि अगला मुशायरा कब होगा।

 

कई पुश्तों की नालायकी का निचोड़

शायर जो भूचाल लाया बल्कि जिसने मुशायरा अपनी मूंछों पर उठा लिया, बिशारत का खानसामा निकला। पुरानी टोपी और उतरन की अचकन का तोहफा उसे पिछली ईद पर मिला था। राह चलतों को पकड़-पकड़ के अपना कलाम फरमाता। सुनने वाला दाद देता तो उसे खींच कर लिपटा लेता, और दाद न देता तो खुद आगे बढ़कर उससे लिपट जाता। अपने कलाम के दैवीय होने में उसे कोई शक न था। शक औरों को भी नहीं था क्योंकि केवल अक्ल या खाली-खूली इल्म के जोर से कोई शख्स ऐसे खराब शेर नहीं कह सकता। दो पंक्तियों में इतनी सारी गलतियां और झोल आसानी से सुमो देना दैवीय मदद के बगैर मुमकिन न था। काव्य चिंतन में अक्सर ये भी हुआ कि अभी पंक्ति पे ठीक से दूसरी पंक्ति भी नहीं लगी थी कि हंडिया धुआं देने लगी। सालन के भुट्टे लग गये। पांचवीं क्लास तक पढ़ाई की थी, जो उसकी निजी जुरूरत और बर्दाश्त से कहीं जियादा थी। वो अपनी संक्षिप्त-सी अंग्रेजी और ताजा शेर को रोक नहीं सकता था। अगर आप उससे दस मिनट भी बात करें तो उसे अंग्रेजी के जितने भी लफ्ज आते थे वो सब आप पर दाग देता। अपने को सागर साहब कहलवाता लेकिन घर में जब खानसामा का काम अंजाम दे रहा होता तो अपने नाम अब्दुल कय्यूम से पुकारा जाना पसंद करता। सागर कह के बुलायें तो बहुत बुरा मानता। कहता था, नौकरी में हाथ बेचा है, उपनाम नहीं बेचा। खानसामागिरी में भी शायराना तूल देने से बाज न आता। खुद को वाजिद अली शाह, अवध के नवाब का खानदानी खानसामा बताता था। कहता था, कि मैं फारसी में लिखी डेढ़ सौ साल पुरानी डायरी देख-देख कर खाना पकाता हूं। उसके हाथ का अस्वादिष्ट खाना दरअस्ल कई पुश्तों की जमा की गयी नालायकी का निचोड़ होता था।

 

मगर इसमें पड़ती है मेहनत जियादा

उसका दावा था कि मैं एक सौ एक किस्म के पुलाव पका सकता हूं और ऐसा गलत भी न था। बिशारत हर इतवार को पुलाव पकवाते थे। साल भर में कम से कम बावन बार जुरूर पकवाया होगा। हर बार एक अलग तरीके से खराब करता था। सिर्फ वो खाने ठीक पकाता था जिनको और खराब करना मामूली काबलियत रखने वाले आदमी के बस का काम नहीं। उदाहरण के तौर पर खिचड़ी, आलू का भुरता, लगी हुई खीर, रात भर की पकी देग, खिचड़ा, अरहर की दाल और मुतनजन जिसमें मीठे चावलों के साथ गोश्त और नींबू की खटाई डाली जाती है। फूहड़ औरतों की तरह खाने की तमाम खराबियों को मिर्च से और शायरी की खराबियों को तरन्नुम से दूर कर देता था। मीठा बिल्कुल नहीं पका सकता था, इसलिए कि इसमें मिर्च डालने का रिवाज नहीं। अक्सर चांदनी रातों में जियोग्राफी टीचर को उसी के बैंजो पर अपनी गजलें गा के सुनाता, जिन्हें सुनकर वो अपनी महबूबा को, जिसकी शादी मुरादाबाद में एक पीतल के पीकदान बनाने वाले से हो गयी थी, याद कर-कर के षणज में रोता था। गाने की जिस धुन का सागर ने बिना किसी प्यास के आविष्कार किया था उससे गिरने में बहुत मदद मिलती थी।

बिशारत ने एक दिन छेड़ा कि भई, तुम ऐसी मुश्किल जमीनों में ऐसे अच्छे शेर निकालते हो, फिर खानसामागिरी क्यों करते हो? कहने लगा आपने मेरे दिल की बात पूछ ली। अच्छा खाना पकाने के बाद जो रूह को खुशी मिलती है वो शेर के बाद नहीं मिलती। किस वास्ते कि खाना पकाने में वज्न का कहीं जियादा खयाल रखना पड़ता है। खाने वाले जिसे बुरा कह दे उसे बुरा मानना पड़ता है। खाना पकाने में मेहनत भी जियादा पड़ती है। इसीलिए तो आज तक किसी शायर ने बावर्ची का पेशा नहीं पकड़ा।

शायरी को सागर जलौनवी ने कभी जरिया-ए-इज्जत नहीं समझा, जिसका एक कारण ये था कि शायरी के कारण अक्सर उसकी बेइज्जती होती रहती थी। खाना पकाने में जितना दिमागदार था, शेर कहने में उतनी ही उदारता से काम लेता था। अक्सर बड़े खुले दिल से स्वीकार करता था कि 'गालिब' उर्दू में मुझसे बेहतर कह लेता था। 'मीर' को मुझसे कहीं जियादा तन्ख्वाह और दाद मिली। उदारता से इतना मानने के बाद ये जुरूर कहता, हुजूर वो जमाने और थे। उस्ताद सिर्फ शेर कहते और शार्गिदों की गजलें बनाते थे, कोई उनसे चपाती नहीं बनवाता था।

 

ये कौन हजरते -' आतिश ' का हमजबां निकला

इसमें कोई शक नहीं कि कई-कई शेर बड़े दमपुख्त निकलते थे। कुछ शेर तो वाकई ऐसे थे कि 'मीर' और 'आतिश' भी उन पर गर्व करते, जिसका एक कारण ये था कि ये उन्हीं के थे। खुद को एक विद्यार्थी और अपनी शायरी को दैवी अवतरण बताता था। चुनांचे एक अरसे तक तो उसके भक्त और शिष्यगण इसी खुशगुमानी में रहे कि चोरी नहीं अवतरण में साम्य हो गया है। रुदौली में अपनी ताजा गजल पढ़ रहा था कि किसी गुस्ताख ने भरे मुशायरे में टोक दिया कि ये तो नासिख का है। चोरी है चोरी! जरा जो घबराया हो। उल्टा मुस्कुराया, कहने लगा बिल्कुल गलत! आतिश का है।

फिर अपनी डायरी मुशायरे के अध्यक्ष की नाक के नीचे बढ़ाते हुए बोला 'हुजूर! देख लें, ये शेर डायरी में Inverted Commas में लिखा है और आगे आतिश का नाम भी लिख दिया है।' मुशायरे के अध्यक्ष ने इसकी पुष्टि की और एतराज करने वाला अपना-सा मुंह ले के रह गया।

सागर अपने छोड़े हुए वतन जालौन के कारण प्यार में छोटा सागर (जाम) कहलाता था, मगर वो खुद अपना रिश्ता शायरी के लखनऊ स्कूल से जोड़ता था और जबान के मामले में दिल्ली वालों और पंजाब वालों से बला का पक्षपात करता था, चुनांचे केवल लखनऊ के शायरों के कलाम से चोरी करता था।

 

तिरे कूचे से हम निकले

हंगामे के बाद किसी को मेहमान शायरों का होश न था। जिसके, जहां सींग समाये वहीं चला गया और जो खुद इस लायक न था उसे दूसरे अपने सींगों पर उठा ले गये। कुछ रात की हड़बोंग की शर्मिंदगी, कुछ रुपया न होने के कारण अव्यवस्था, बिशारत इस लायक न रहे कि शायरों को मुंह दिखा सकें। मौली मज्जन के दिये दस रुपये कभी के चटनी हो चुके थे बल्कि वो अपनी जेब के बहत्तर रुपये खर्च कर चुके थे और अब इतनी क्षमता न थी कि शायरों को वापसी का टिकिट दिलवा सकें। मुंह पर अंगोछा डाल कर छुपते-छुपाते धार्मिक-शिक्षा टीचर के खाली घर में गये। वेलेजली उनके साथ लगा था। ताला तोड़ कर घर में घुसे और दिन भर मुंह छुपाये पड़े रहे। तीसरे पहर वेलेजली को जंजीर उतार कर बाहर कर दिया कि बेटा जा, आज खुद ही घूम आ। बिफरे हुए कानपुर के शायरों का झुंड उनकी तलाश में घर-घर झांकता फिरा, आखिर थक हार-कर पैदल स्टेशन के लिए रवाना हुआ। सौ-दौ सौ कदम चले होंगे कि लोग साथ आते गये और बाकायदा जुलूस बन गया। कस्बे के तमाम अधनंगे बच्चे, एक पूरा नंगा पागल, म्यूनिस्पिल बोर्ड की हद में काटने वाले तमाम कुत्ते उन्हें स्टेशन छोड़ने गये। जुलूस के आखिर में एक साधू भभूत रमाये, भंग पिये और तीन कटखनी बत्तखें भी अकड़े हुई फौजियों की Ceremonial चाल यानी अपनी ही चाल--- Goose Step--- में चलती हुई साथ थीं। रास्ते में घरों में आटा गूंधती, सानी बनाती, रोते हुए बच्चे का मुंह दूध के ग्लैंड से बंद करती और लिपाई-पुताई करती औरतें अपना-अपना काम छोड़कर, सने हुए हाथों के तोते से बनाये जुलूस देखने खड़ी हो गयीं। एक बंदर वाला भी अपने बंदर और बंदरिया की रस्सी पकड़े ये तमाशा देखने खड़ा हो गया। बंदर और लड़के बार-बार तरह-तरह के मुंह बनाकर एक दूसरे पर खोंखियाते हुए लपकते थे। ये कहना मुश्किल था कि कौन किसकी नकल उतार रहा है।

आते वक्त जिन शायरों ने इस बात पर नाक-भौं चढ़ायी थी कि बैलगाड़ी में लाद कर लाया गया, अब इस बात से नाराज थे कि पैदल खदेड़े गये। चलती ट्रेन में चढ़ते वक्त हैरत कानपुरी एक कुली से ये कह गये कि उस कमीन (बिशारत) से कह देना, जरा धीरजगंज से बाहर निकले, तुझसे कानपुर में निबट लेंगे। सब शायरों ने अपनी जेब से वापसी के टिकिट खरीदे, सिवाय उस शायर के जो अपने साथ पांच मिसरे उठाने वाला लाया था। ये साहब अपने मिसरा उठाने वालों समेत आधे रास्ते में ही बिना टिकिट सफर करने के जुर्म में उतार लिए गये। प्लेटफार्म पर कुछ दर्दमंद मुसलमानों ने चंदा करके टिकिटचेकर को रिश्वत दी तब कहीं जा के छुटे। टिकिटचेकर मुसलमान था वरना कोई और होता तो छहों के हथकड़ी डलवा देता।

 

बात एक रात की

सिर्फ बेइज्जत हुए शायर नहीं, कानपुर की सारी शायर बिरादरी बिशारत के खून की प्यासी थी। उन शायरों ने बिशारत के खिलाफ इतना प्रोपेगंडा किया कि कुछ गद्य लेखक भी इनको कच्चा चबा जाने के लिए तैयार बैठे थे। कानपुर में हर जगह इस मुशायरे के चर्चे थे। धीरजगंज जाने वाले शायरों ने अपनी जिल्लत और परेशानी की दास्तानें बढ़ा-चढ़ाकर बयान कीं। वो अगर सच नहीं भी थीं तो सुनने वाले दिल से चाहते थे कि खुदा करे! सच हों कि वो इसी लायक थे। लोग कुरेद-कुरेद के विस्तार से सुनते थे। एक शिकायत हो तो बयान करें अब खाने को ही लीजिये, हर शायर को शिकायत थी कि रात का खाना हमें दिन-दहाड़े चार बजे उसी किसान के यहां खिलवाया गया जिसके यहां सुलवाया गया। जाहिर है किसान ने अलग किस्म का खाना खिलाया, चुनांचे जितनी किस्म के खाने थे उतनी ही किस्म की पेट की बीमारियों में शायरों ने खुद को उलझा पाया। हैरत कानपुरी ने शिकायत की कि मैंने नहाने के लिए गर्म पानी मांगा तो चौधराइन ने घूंघट उठा के मुझे सबसे पास के कुएं का रास्ता बता दिया। और ये भरोसा दिलाया कि उसमें से गर्मियों में ठंडा और सर्दियों में गर्म पानी निकलता है। चौधरी ने तो नहाने का कारण भी जानना चाहा (ये उस जमाने का बहुत आम और भौंडा मजाक था) और जब मैंने नहाये बगैर अचकन पहन ली और मुशायरे में जाने लगा तो चौधरी ने मेरी गोद में दो महीने का नंग-धड़ंग बेटा दे कर जबरदस्ती पुष्टि करनी चाही कि नवजात अपने बाप पर पड़ा है। मेरा क्या जाता था मैंने कह दिया हां और बड़े प्यार से बच्चे के सर पे हाथ फेरा जिससे बेचैन होके उसने मेरी अचकन पे पेशाब कर दिया। उसी अचकन को पहने-पहने मैंने लोकल शायरों को गले लगाया।

फिर कहा कि बंदा आबरू हथेली पे रखे एक बजे मुशायरे से लौटा, तीन बजे तक चारपायी के ऊपर खटमल और नीचे चूहे कुलेलें करते रहे। तीन बजते ही घर में 'सुब्ह हो गयी-सुब्ह हो गयी' का शोर मच गया। और ये शिकायत तो सबने की कि सुब्ह चार बजे हमें झिंझोड़-झिंझोड़ कर उठाया और एक-एक लोटा हाथ में पकड़ा के झड़बेरी की झाड़ियों के पीछे भेज दिया गया। हैरत कानपुरी ने प्रोटेस्ट किया तो उन्हें नवजात के पोतड़े के नीचे से एक चादर घसीट के पकड़ा दी गयी कि ऐसा ही है तो ये ओढ़ लेना। शायरों का दावा था कि उस दिन हमने गांव के मुर्गों को कच्ची नींद उठाकर अजानें दिलवा दीं।

कुछ ने शिकायत की हमें 'ठोस' नाश्ता नहीं दिया गया। निहार मुंह फुट भर लंबे ग्लास में छाछ पिलाकर विदा कर दिया। एक साहब कहने लगे कि उनकी खाट के पाये से बंधी हुई एक बकरी सारी रात मींगनी करती रही। मुंह अंधेरे उसी का दूध दुह के उन्हें पेश कर दिया गया। उनका खयाल था कि ये सुलूक तो कोई बकरी भी बर्दाश्त नहीं कर सकती। खरोश शाहजहांपुरी ने कहा कि उनके सिरहाने रात के ढाई बजे से चक्की चलनी शुरू हो गयी। चक्की पीसने वाली दोनों लड़कियां हंस-हंस के जो गीत गा रही थीं वो देवर-भावज और नंदोई-सलहज की छेड़-छाड़ से संबंधित था, जिससे उनकी नींद और नीयत में खलल पड़ा। एजाज अमरोही ने कहा कि भांति-भांति के परिंदों ने सुब्ह चार बजे से ही शोर मचाना शुरू कर दिया। ऐसे में कोई में शरीफ आदमी सो ही नहीं सकता। मजजूब मथरावी को शिकायत थी कि उन्हें कच्चे सहन में जामुन के पेड़ तले मच्छरों की छांव में सुलाया गया। पुरवा के हर चैन देने वाले झोंके के साथ रात भर उनके सर पर जामुनें टपकती रहीं। सुब्ह उठकर उन्होंने शिकायत की तो मकान मालिक के मैट्रिक फेल लौंडे ने कहा, गलत! जामुनें नहीं, फलेंदे थे। मैंने खुद लखनऊ वालों को फलेंदे कहते सुना है। मजजूब मथरावी के बयान के मुताबिक उनकी चारपायी के पास खूंटे से बंधी हुई भैंस रात-भर डकराती रही। तड़के एक बच्चा दिया जो सीधा उनकी छाती पे आ गिरता, अगर वो कमाल की फुरती से बीच में ही कैच न कर लेते। शैदा जारचवी ने अपनी बेइज्जती में भी अनूठेपन और गर्व का पहलू निकाल लिया। उन्होंने दावा किया कि जैसी बेमिसाल बेइज्जती उनकी हुई वैसी तो एशिया भर में कभी किसी शायर की नहीं हुई। राअना सीतापुरी सुम काकोरवी ने शगूफा छोड़ा जिस घर में मुझे सुलाया गया बल्कि रात-भर जगाया गया, उसमें एक जिद्दी बच्चा सारी रात मां के दूध और उसका बाप चर्चा के पहले विषय के लिए मचलता रहा। अखगर कानपुरी जांनशीन मायल देहलवी बोले कि उनका किसान मेजबान हर आध घंटे बाद उठ-उठकर उनसे पूछता रहा कि 'जनाबे-आली कोई तकलीफ तो नहीं, नींद तो ठीक आ रही है ना?' गरज कि जितने मुंह उनसे दुगनी तिगुनी शिकायतें। हर शायर इस तरह शिकायत कर रहा था जैसे कि उसके साथ किसी व्यवस्थित षड्यंत्र के तहत निजी जुल्म हुआ है। हालांकि हुआ-हवाया कुछ नहीं। हुआ सिर्फ ये कि उन शहरी शायरों ने देहात की जिंदगी को पहली बार... और वो भी चंद घंटों के लिए... जरा करीब से देख लिया और बिलबिला उठे। उन पर पहली बार खुला कि शहर से सिर्फ चंद मील की ओट में इंसान कैसे जीते हैं और अब उनकी समझ में ये नहीं आ रहा था कि यही कुछ है तो किसलिए जीते हैं।

 

सकते निकलवा लो

कुछ दिन बाद ये भी सुनने में आया कि जिन तरही पढ़ने वालों की बेइज्जती हुई थी उन्होंने तय किया कि आइंदा जब तक किसी उस्ताद के दीवान में खुद अपनी आंख से मिसरा-ए-तरह न देख लें, हरगिज-हरगिज उस जमीन में शेर नहीं निकालेंगे। उनमें से दो शायरों ने सागर जलौनवी से गजलें बनवानी शुरू कर दीं। इधर उस्ताद अखगर कानपुरी-जानशीन माइल देहलवी की दुकान खूब चमकी। उनके पास रोजाना दर्जनों शार्गिद आने लगे कि उन्होंने गजल में करेक्शन की एक खास विधा में स्पेशलाइज कर लिया था। वो सिर्फ सकते निकालते थे और इस तरह निकालते थे जैसे पहलवान लात मारकर कमर की चिक निकाल देते हैं या जिस तरह बारिश में भीगने से बान की अकड़ी हुई चारपाई पर मुहल्ले भर के लौंडों को कुदवा कर उसकी कान निकाल ली जाती है। इस तरह कान तो निकल जाती है, लेकिन लौंडों को परायी चारपायी पर कूदने का चस्का पड़ जाता है।

 

माई डियर मौलवी मज्जन

दिन तो जैसे-तैसे काटा लेकिन शाम पड़ते ही बिशारत एक करीबी गांव सटक गये। वहां अपने एक परिचित के यहां (जिसने कुछ महीने पहले एक यतीम तलाश करने में मदद दी थी) अंडरग्राउंड हो गये। अभी जूतों के फीते ठीक से खोले भी नहीं थे कि हर जानने वाले को अलग-अलग लोगों के जरिये, अपने गोपनीय भूमिगत स्थान की जानकारी भिजवायी। उन्होंने धीरजगंज में सवा साल रो-रो कर गुजारा था। देहात में वक्त भी बैलगाड़ी में बैठ जाता है। उन्हें अपनी सहनशक्ति पर आश्यर्च हुआ। नौकरी के सब रास्ते बंद नजर आयें तो असहनीय भी सहन हो जाता है। उत्तरी भारत में कोई स्कूल ऐसा नहीं बचा जिसका नाम उन्हें पता हो और उन्होंने वहां दरख्वास्त न भेजी हो। आसाम के एक मुस्लिम स्कूल में उन्हें जिम्नास्टिक मास्टर तक की नौकरी न मिली। चार-पांच जगह अपने खर्च पर जा कर इंटरव्यू में नाकाम हो चुके थे। हर असफलता के बाद उन्हें समाज में एक नयी खराबी नजर आती थी, जिसे सिर्फ रक्त-क्रांति से ही दूर किया जा सकता था। लेकिन जब कुछ दिन एक दोस्त की मेहरबानी से संडीला के हाईस्कूल में एप्वाइंटमेंट लेटर मिला तो अनायास मुस्कुराने लगे। दिल ने अनायास कहा कि मियां -

ऐसा कहां खराब जहाने-खराब है

दस-बारह बार खत पढ़ने और हर बार नयी खुशी अनुभव करने के बाद उन्होंने चार लाइन वाले कागज पर इस्तीफा लिख कर मौली मज्जन को भिजवा दिया। एक ही झटके में बेड़ी उतार फेंकी। इस्तीफा लिखते हुए वो आजादी के भक-से उड़ा देने वाले नशे में डूब गये अतः इस्तीफे की फ की टांग इ के पेट में घुस गयी। बी.ए. का रिजल्ट आने के बाद वो अंग्रेजी में अपने हस्ताक्षर की जलेबी-सी बनाने लगे थे। आज वो जलेबी, इमरती बन गयी। मौलवी मज्जन को चिट्ठी का विषय पढ़ने की थोड़ी भी जुरूरत नहीं थी कि चिट्ठी के हर स्वर से विद्रोह, हर व्यंजन से उद्दंडता और एक-एक लाइन से इस्तीफा टपक रहा था। बिशारत ने लिफाफे को हैरत और नफरत में थूक मिलाकर ऐसे चिपकाया जैसे मौलवी मज्जन के मुंह पर थूक रहे हों। दस्तखत करने के बाद सरकारी होल्डर के दो टुकड़े कर दिये। अपने अन्नदाता मौलवी सय्यद मुहम्मद मुजफ्फर को हुजूर फैज गंजूर लिखने की बजाय माई डियर मौलवी मज्जन लिखा तो वो कांटा जो सवा साल में उनके तलवे को छेदता हुआ तालू तक पहुंच चुका था, एक झटके से निकल गया। उन्हें इस बात पर हैरत थी कि वो सवा साल ऐसे फटीचर आदमी से इस तरह अपनी औकात खराब करवा रहे थे। उन्हें हो क्या गया था। मौलवी मज्जन को भी शायद इसका अहसास था। इसलिए कि जब बिशारत उन्हें खुदा के हवाले करने गये, मतलब ये कि खुदा हाफिज कहने गये तो उन्होंने हाथ तो मिलाया आंखें न मिला सके, जबकि बिशारत का ये हाल था कि 'आदाब अर्ज' भी इस तरह कहा कि लहजे में हजार गालियों का गुबार भरा था।

बिशारत ने बहुत सोचा। नाजो को तोहफे में देने के लिए उनके पास कुछ भी तो न था। जब कुछ समझ में न आया तो विदा के समय अपनी सोने की अंगूठी उतार कर उसे दे दी। उसने कहा, अल्लाह मैं इसका क्या करूंगी? फिर वो अपनी कोठरी में गयी और कुछ मिनट बाद वापस आई। उसने अंगूठी में अपने घुंघराले बालों की एक लट बांध कर उन्हें लौटा दी। वो दबी सिसकियों में रो रही थी।

 

तुम तो इतने भी नहीं जितना है कद तलवार का

संडीला हाईस्कूल में और तो सब कुछ ठीक था, लेकिन मैट्रिक में तीन चार प्रॉब्लम, लड़के उनसे भी उनमें तीन चार बरस बड़े निकले। ये लड़के जो हर क्लास में दो-दो तीन-तीन साल दम लेते हुए मैट्रिक तक पहुंचे थे, अपनी उम्र से इतना शर्मिंदा नहीं थे जितने कि खुद बिशारत। जैसे ही वो गोला जो इस क्लास में पांव रखते ही उनके हलक में फंस जाता था, घुला और स्कूल में उनके पैर जमे, उन्होंने अपने एक दोस्त से जो लखनऊ से ताजा-ताजा एलएल.बी. करके आया था, मौलवी मुजफ्फर को एक कानूनी नोटिस भिजवाया कि मेरे मुअक्किल की दस महीने की चढ़ी हुई तन्ख्वाह मनीआर्डर से भिजवा दीजिये वरना आपके खिलाफ कानूनी कारवाई की जायेगी।

इसके जवाब में दो हफ्ते बाद मौलवी मुजफ्फर की तरफ से उनके वकील का रजिस्टर्ड नोटिस आया कि मुशायरे के सिलसिले में जो रकम आपको समय-समय पर दी गयी, उसका हिसाब दिये बगैर आप फरार हो गये। आप इन पैसों में से अपने पैसे काट के बाकी मेरे मुअक्किल को भेज दीजिए। मुशायरे के खर्चों का विवरण अस्ल रसीद के साथ वापसी डाक से भेजें। शायरों को जो पेमेंट, भत्ता और सफर खर्च दिया गया उनकी रसीदें भी संलग्न करें और इसका कारण भी बतायें कि क्यों न आपके खिलाफ कानूनी कारवाई की जाये। इसके अतिरिक्त ये कि शायरों के स्वागत के समय आपने यतीमखाने के बैंड से अपनी एक गजल बजवायी, जिसके एक से जियादा शेर अश्लील थे और ये कि वज्न से गिरे हुए मिसरा-तरह देने से स्कूल की और धीरजगंज के लोगों की जो मानहानि हुई है और उनको जो नुकसान पहुंचा है उसका हर्जाना वुसूल करने का हक यतीमखाना कमेटी सुरक्षित रखती है। नोटिस में ये धमकी भी दी गयी थी कि अगर रकम वापस न की गयी तो गबन के केस के पूरे विवरण से संडीला स्कूल की व्यवस्थापक कमेटी और गवर्नमेंट के शिक्षा विभाग को सूचित कर दिया जायेगा।

नोटिस से तीन दिन पहले मौली मज्जन ने एक टीचर की जबानी बिशारत को कहला भेजा कि बरखुरदार! तुम अभी बच्चे हो। गुरु घंटाल से काहे को उलझते हो। अभी तो तुम्हारे गोलियां और गिल्ली डंडा खेलने और हमारी गोद में बैठकर ईदी मांगने के दिन हैं। अगर टक्कर ली तो परखचे उड़ा दूंगा।

 

आदमी का काटा कुत्ता

बिशारत का रहा सहा बचाव का लड़खड़ाता किला ढाने के लिए नोटिस के आखिरी पैराग्राफ में एक टाइमबम रख दिया। लिखा था कि जहां आपने शिक्षा विभाग को अपने नोटिस की नक्ल भेजी, वहां उसकी जानकारी में ये बात भी लानी चाहिए थी कि आपने अपने कुत्ते का नाम ब्रिटिश सरकार के गवर्नर जनरल को जलील करने की नीयत से लार्ड वेलेजली रखा। आपको बार-बार वार्निंग दी गयी मगर आप शासन के खिलाफ एक लैंडी कुत्ते के जरिये नफरत और बगावत को हवा देने पे तुले रहे। जिसकी गवाही देने को कस्बे का बच्चा-बच्चा तैयार है। आप अंग्रेज दुश्मनी के जुनून में अपने को गर्व से टीपू कहलवाते थे।

बिशारत सकते में आ गये। या अल्लाह क्या होगा। वो देर तक उदास और चिंतित बैठे रहे। वेलेजली उनके पैरों पर अपना सर रखे, आंखें मूंदे पड़ा था। थोड़ी-थोड़ी देर में आंखें खोल के उन्हें देख लेता था। उनका जी जरा हल्का हुआ तो वो देर तक उस पर हाथ फेरते रहे, प्यार से जियादा कृतज्ञ भाव से। उसके बदन का कोई हिस्सा ऐसा नहीं था जहां पत्थर की चोट का निशान न हो।

मौली मज्जन ने इस नोटिस की कॉपी सूचना देने के लिए उन तमाम शायरों को भेजी जो यादगार मुशायरे में आये थे। तीन-चार को छोड़ के सबके सब बिशारत के पीछे पड़ गये कि लाओ हमारे हिस्से की रकम। एक बुरा हाल शायर तो कोसनों पर उतर आया। कहने लगा, जो दूसरे शायर भाइयों के गले पर छुरी फेर के मुआवजा हड़प कर जाये, अल्लाह करे उसकी कब्र में कीड़े और शेर में सकते पड़ें। अब वो किस-किस को समझाने जाते कि मुशायरे की मद में उन्हें कुल दस रुपये दिये गये। एक दिलजले ने तो हद कर दी। इसी जमीन में उनकी हिजो (खिल्ली उड़ाने वाली शायरी) कहकर उनके भूतपूर्व खानसामा सागर जलौनवी के पास सुधारने के लिए भेजी, जो उस नमकहलाल ने ये कहके लौटा दी कि हम अवध के नवाब, जाने-आलम वाजिद अली शाह पिया, के खानदानी खानसामा हैं। हमारा उसूल है कि एक बार जिसका नमक खा लिया, उसके खिलाफ हमारी जबान और कलम से एक शब्द भी नहीं निकल सकता। चाहे वो कितना भी बड़ा गबन क्यों न कर ले।

तपिश डिबाइवी ने उड़ा दिया कि बिशारत के वालिद ने उसी पैसे से नया हार्मोनियम खरीदा है जिसकी आवाज दूसरे मुहल्ले तक सुनाई देती है।

इस साज के पर्दे में गबन बोल रहा है

बिशारत के उस्ताद जौहर इलाहाबादी ने खुल कर अमानत में खयानत का इल्जाम तो नहीं लगाया लेकिन उन्हें एक घंटे तक ईमानदारी पर लैक्चर देते रहे।

 

नसीहत में फजीहत

सच पूछिए तो उन्हें ईमानदारी का पहला पाठ जौहर इलाहाबादी ने ही पढ़ाया था। हमारा इशारा मौलवी मुहम्मद इस्माईल मेरठी की नज्म 'ईमानदार लड़का' की तरफ है। ये नज्म दरअस्ल एक ईमानदार लड़के की स्तुति है जो हमें भी पढ़ायी गयी थी। उसका किस्सा ये है कि उस लड़के ने पड़ौसी के खाली घर में ताजा-ताजा बेर डलिया में रखे देखे। खाने को बेतहाशा जी चाहा। लेकिन बड़ों की नसीहत और ईमानदारी की सोच बेर चुरा कर खाने की इच्छा पर हावी रही। बहादुर लड़के ने बेरों को छुआ तक नहीं। नज्म का समापन इस शेर पर होता है।

वाह-वा, शाबाश लड़के वाह-वा

तू जवां मर्दों से बाजी ले गया

हाय कैसे अच्छे जमाने और कैसे भले लोग थे कि चोरी और बुरी नीयत की मिसाल देने के लिए बेरों से अधिक कीमती, स्वादिष्ट चीज की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। खटमिट्ठे बेरों से अधिक बड़ी और बुरी Temptation हमारी दुखियारी नस्ल के लड़कों को उस काल में उपलब्ध न थी। एक दिन बैठे-बैठे हमें यूं ही ध्यान आया कि अगर अब हमें नयी पौध के लड़कों को नेकचलनी का उपदेश देना हो तो चोरी और बुरी नीयत का कौन-सा उदाहरण देंगे जिससे बात उनके दिल में उतर जाये। लीजिये एक मार्डन उदाहरण जिस पर हम ये कहानी खत्म करते हैं।

 

उदाहरण

ईमानदार लड़के ने अलमारी में ब्लू फिल्म और Cannabis के सिगरेट रखे देखे वो उन्हें अच्छी तरह पहचानता था। इसलिए कि कई बार ग्रामर स्कूल में अपनी क्लास के लड़कों के बस्तों में देख चुका था। उनके मजे का उसे खूब अंदाजा था, मगर वो इस वक्त अपने डैडी की नसीहत के नशे में था। इसलिए सूंघ कर छोड़ दिये।

 

स्पष्टीकरण

वास्तविकता में इसके तीन कारण थे। पहला, उसके डैडी की नसीहत थी कि कभी चोरी न करना। दूसरा, डैडी ने ये भी नसीहत की थी कि बेटा गंदी चीजों के पास न जाना। नजर हमेशा नीची रखना। सबसे बावला नशा आंख का नशा होता है और सबसे गंदा गुनाह आंख का गुनाह होता है चूंकि इसमें बुजदिली और नामर्दी भी शामिल होती है। कभी कोई बुरा विचार दिल में आ भी जाये तो फौरन अपने किसी बड़े या खानदान के किसी बुजुर्ग की सूरत को आंखों में बांध लेना। चुनांचे ईमानदार लड़के की आंखों के सामने इस वक्त अपने डैडी की सूरत थी और तीसरा कारण ये कि दोनों वर्जित चीजें उसके डैडी की अलमारी में रखी थीं।

वाह-वा, शाबाश लड़के वाह-वा!

तू बुजुर्गों से भी बाजी ले गया


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