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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम देशयात्राा खंड पीछे     आगे

बोहित भरे, चला लेइ रानी । दान माँगि सत देखै दानी॥

लोभ न कीजै, दीजै दानू । दान पुन्नि तें होइ कल्यानू॥

दरब दान देबै बिधिा कहा । दान मोख होइ, दु:ख न रहा॥

दान आहि सब दरब क जूरू । दान लाभ होइ बाँचे मूरू॥

दान करै रच्छा मँझ नीरा । दान खेइ कै लावै तीरा॥

दान करन दै दुइ जग तरा । रावन सँचा, अगिनि महँ जरा॥

दान मेरु बड़ि लागि अकासा । सैंति कुबेर मुए तेहि पासा॥

चालिस अंस दरब जहँ, एक अंस तहँ मोर।

नाहिं त जरै कि बूड़ै, की निसि मूसहिं चोर॥1॥

सुनि सो दान राजै रिसि मानी । केइ बौराएसि बौरे दानी॥

सोई पुरुष दरब जेइ सैंती । दरबहिं तै सुनु बातैं एती॥

दरब तँ गरब करै जे चाहा । दरब तें धारती सरग बेसाहा॥

दरब तें हाथ आव कबिलासू । दरब तें अछरी छाँड़ न पासू॥

दरब तें निरगुन होइ गुनवंता । दरब तें कुबुज होइ रूपबंता॥

दरब रहै भुइँ दिपै लिलारा । अस मन दरब देइ को पारा?॥

दरब तें धारम करम औ राजा । दरब तें सुध्द बुध्दि, बल गाजा॥

कहा समुद, रे लोभी! बैरी दरब, न झाँपु॥

भएउ न काहू आपन, मूँद पेटारी साँपु॥2॥

आधो समुद ते आए नाहीं । उठी बाउ ऑंधाी उतराहीं॥

लहरैं उठी समुद उलथाना । भूला पंथ, सरग नियराना॥

अदिन आइ जौ पहुँचै काऊ । पाहन उड़ै बहै सो बाऊ॥

बोहित चले जो चितउर ताके । भए कुपंथ, लंक दिसि हाँके॥

जो लेइ भार निबाहि न पारा । सो का गरब करै कँधाारा?॥

दरब भार सँग काहु न उठा । जेइ सैंता ताहीं सौं रुठा॥

गहे पखान पंखि नहिं उड़ै । 'मोर मोर' जो करै सो बुड़ै॥

दरब जो जानहिं आपना भूलहिं गरब मनाहिं।

जौ रे उठाइ न लेइ सके, बोरि चले जल माहिं॥3॥

केवट एक बिभीषन केरा । आव मच्छ कर करत अहेरा॥

लंका कर राकस अति कारा । आवैं चला होइ ऍंधिायारा॥

पाँच मूड़, दस बाहीं ताही । दहि भा साँव लंक जव दाही॥

धाुऑं उठै मुख साँस सँघाता । निकसै आगि कहै जौ बाता॥

फेंकरे मूँड़ चँवर जनु लाए । निकसि दाँत मुँह बाहर आए॥

देह रीछ कै, रीछ डेराई । देखत दिस्टि धााइ जनु खाई॥

राते नैन नियर जौ आवा । देखि भयावन सब डर खावा॥

धारती पायँ सरग सिर, जनहुँ सहस्राबाहु।

चाँद सूर औ नखत महँ, अस देखा जस राहु॥4॥

बोहित बहे, न मानहिं खेवा । राजहिं देखि हँसा मन देवा॥

बहुतै दिनहि बार भइदूजी । अजगर केरि आइ भुख पूजी॥

यह पदमावती बिभीषन पावा । जानहु आजु अजोधया छावा॥

जानहु रावन पाई सीता । लंका बसी राम कहँ जीता॥

मच्छ देखि जेसे बग आवा । टाइ टोइ भुइँ पाँव उठावा॥

आइ नियर होइ कीन्ह जोहारू । पूछा खेम कुसल बेवहारू॥

जो बिस्वासघात कर देवा । बड़ बिसवास करै कै सेवा॥

कहाँ, मीत! तुम भूलहु, औ आएहु केहि घाट?

हौं तुम्हार अस सेवक, लाइ देउँ तोहि बाट॥5॥

गाढ़ परे जिउ बाउर होई । जो भलि बात कहै भल सोई॥

राजै राकस नियर बोलावा । आगे कीन्ह, पंथ जनु पावा॥

करि बिस्वास राकसहि बोला । बोहित फेरु जाइ नहिं डोला॥

तू खेवक खेवकन्ह उपराहीं । बोहित तीर लाउ गहि बाहीं॥

ताहिं तें तीर घाट जौ पावौं । नौगिरिही तोड़र पहिरावौं॥

कुंडल स्रवन देउँ पहिराई । महरा कै सौंपौं महराई॥

तस मैं तोरि पुरावौं आसा । रकसाई कै रहै न बासा॥

राजै बीरा दीन्हा, नहिं जाना बिसबास॥

बग अपने भख कारन, होइ मच्छ कर दास॥6॥

राकस कहा गोसाईं विनाती । भल सवक राकस कै जाती॥

जहिया लंक दही श्रीरामा । सेव न छाँड़ा दहि भा सामा॥

अबहूँ सेव करौं सँग लागे । मनुष भुलाइ होउँ तेहि आगे॥

सेतुबंधा जहँ राघव बाँधाा । तहँवाँ चढ़ौं भार लेइ काँधाा॥

पै अब तुरत दान किछु पावौ । तुरत खेइ ओहि बाँधा चढ़ावौं॥

तुरत जो दान पानि हँसि दीजै । थोरै दान बहुत पुनि लीजै॥

सेव कराइ जौ दीजै दानू । दान नाहिं सेवा कर मानू॥

दिया बुझा, सत ना रहा, हुत निरमल जेहि रूप।

ऑंधाी बोहित उड़ाइ कै, लाइ कीन्ह ऍंधाकूप॥7॥

जहाँ समुद मझधाार मँड़ारू । फिरै पानि पातार दुआरू॥

फिरि फिरि पानि ठाँव ओहि मरै । फरि न निकसै जो तहँ परै॥

ओही ठाँव महिरावन पुरी । हलका तर जमकातर छुरी॥

ओही ठाँव महिरावन मारा । परे हाड़ जनु खरे पहारा॥

परी रीढ़ जो तेहि कै पीठी । सेतुबंधा अस आवै दीठी॥

राकस आइ तहाँ के जुरे । बोहित भँवर चक्र महँ परे॥

फिरै लगै बोहित तस आई । जस काहाँर धारि चाक फिराई॥

राजै कहा, रे राकस! जानि बूझ बौरासि।

सेतुबंधा यह देखै, कस न तहाँ लेइ जासि?॥8॥

'सेतुबंधा' सुनि राकस हँसा । जानहु सरग टूटि भुइँ खसा॥

को बाउर? बाउरतुम देखा । जो बाउर, भख लागि सरेखा॥

पाँखी जो बाउर घर माटी । जीभ बढ़ाइ भखै सब चाँटी॥

बाउर तुम जो भखै कहँ आने । तबहिं न समझै, पंथ भुलाने॥

महिरावन कै रीढ़ जा परी । कहहु सो सेतुबंधा, बुधिा छरी॥

यह तो आहि महिरावन पुरी । जहवाँ सरग नियर घर दुरी॥

अब पछिताहु दरब जस जोरा । कहहु सरग चढ़ि हाथ मरोरा॥

जो रे जियत महिरावन, लेत जगत कर भार॥

जो मरि हाड़ न लेइगा, अस होइ परा पहार॥9॥

बोहित भँवहिं भँवै सब पानी । नाचहिं राकस आस तुलानी॥

बूड़हिं हस्ती, घोर, मानवा । चहुँ दिस आइ जुरै मँसखवा॥

ततखन राजपंखि एकआवा । सिखर टूट जस डसन डोलावा॥

परा दिस्टि वह राकस खोटा । ताकेसि जैस हस्ति बड़ मोटा॥

आइ ओही राकस पर टूटा । गहि लेइ उड़ा, भँवर जल छूटा॥

बोहित टूट टूक सब भए । एहु न जाना कहँ चलि गए॥

भए राजा रानी दुह पाटा । दूनौं बहे चले दुइ बाटा॥

काया जीउ मिलाइ कै, मारि किए दुइ खंड।

तन रोवै धारती परा, जीउ चला बरम्हँड॥10॥

(1) जूरू=जोड़ना। सँचा=संचित किया। दान=दान से। सैंति=सहेजकर, संचित करके।

(2) सैंति=संचित किया। एती=इतनी। बेसाहा खरीदते हैं। कुबुज=कुबड़ा। दरब रहै...लिलारा=द्रव्य धारती में गड़ा रहता है और चमकता है माथा (असंगति का यह उदाहरण इस कहावत के रूप में भी प्रसिध्द है, 'गाड़ा है भँडार; बरत है लिलार')। देइ को पारा=कौन दे सकता है। मूँद=मूँदा हुआ, बंद।

(3) उतराहीं=उत्तार की हवा। अदिन=बुरा दिन। काऊ=कभी। मनाहिं=मन में

(4) सँघाता=संग। फेंकरे=नंगे, बिना टोपी या पगड़ी के (अवधाी)। चँवर जनु लाए=चँवर के से खड़े बाल लगाए हुए। चाँद, सूर, नखत= पदमावती, राजा और सखियाँ।

(5) देवा=देव, राक्षस (फारसी)। बग=बगला। लाइ देउँ तोहि बाट=तुझे रास्ते पर लगा दूँ।

(6) नौगिरिही=कलाई में पहनने का स्त्रिायों का एक गहना जो बहुत से दानों को गूँथकर बनाया जाता है। तोड़र=तोड़ा; कलाई में पहनने का गहना। महरा=मल्लाहों का सरदार। रकसाई=राक्षसपन। बासा=गंधा। बिसवास=विश्वासघात।

(7) जहिया=जब। पानि=हाथ से। हुत=था। जेहि=जिससे।

(8) मँड़ारू=दह, गङ्ढा। हलका=हिलोर, लहर। तर=नीचे। औरासि=बाबला होता है तू।

(9) जो बाउर...सरेखा=पागल भी अपना भक्ष्य ढूँढ़ने के लिए चतुर होता है। पाँखी=फतिंगा। घरमाटी=मिट्टी के घर में। छरी=छली गई, भ्रांत हुई।

(10) भवँहि=चक्कर खाते हैं। आस तुलसी=आशा जाती रही। मानवा=मनुष्य। डहन=डैना, पर।



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