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आलोकधन्वा की कविताएँ
 
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कविता-संग्रह
दुनिया रोज़ बनती है
नई कविताएँ
चेन्नई में कोयल
ओस
फूलों से भरी डाल
बारिश
सवाल ज़्यादा है
रात
उड़ानें
श्रृंगार
रेशमा
भूल
पाने की लड़ाई
मुलाक़ातें
आम के बाग़
गाय और बछड़ा
नन्ही बुलबुल के तराने

 

नाम

: आलोकधन्वा

जन्म

:  2 जुलाई,1948

शिक्षा

: स्वाध्याय

प्रकाशित कृतियाँ

: दुनिया रोज़ बनती है

पुरस्कार/सम्मान

: पहल सम्मान, नागार्जुन सम्मान, फ़िराक़ गोरखपुरी सम्मान, गिरिजा कुमार माथुर सम्मान-नई दिल्ली, प्रकाश जैन स्मृति सम्मान

संप्रति

: राइटर इन रेजीडेंस, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)

टेलीफोन

: 09931611041

ई-मेल

:

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चेन्नई में कोयल

चेन्नई में कोयल बोल रही है
जबकि
मई का महीना आया हुआ है
समुद्र के किनारे बसे इस शहर में

कोयल बोल रही है अपनी बोली
क्या हिंदी
और क्या तमिल
उतने ही मीठे बोल
जैसे अवध की अमराई में!

कोयल उस ऋतु को बचा
रही है
जिसे हम कम जानते हैं उससे!


ओस

शहर के बाहर का
यह इलाक़ा

ज़्यादा जुती हुई ज़मीन
खेती की

मिट्टी की क्यारियाँ हैं
दूर तक
इन क्यारियों में बीज
हाथ से बोये गए हैं

कुछ देर पहले ज़रा-ज़रा
पानी का छिड़काव किया गया है!

इन क्यारियों की मिट्टी नम है

खुले में दूर से ही दिखाई
दे रही शाम आ रही है

कई रातों की ओस मदद करेगी
बीज से अंकुर फूटने में!


फूलों से भरी डाल

दुनिया से मेरे जाने की बात
सामने आ रही है
ठंडी सादगी से

यह सब इसलिए
कि शरीर मेरा थोड़ा हिल गया है
मैं तैयार तो कतई नहीं हूँ
अभी मेरी उम्र ही क्या है!

इस उम्र में तो लोग
घोड़ों की सवारी सीखते हैं
तैर कर नदी पार करते हैं
पानी से भरा मशक
खींच लेते हैं कुएँ से बाहर!

इस उम्र में तो लोग
किसी नेक और कोमल स्त्री
के पीछे-पीछे रुसवाई उठाते हैं
फूलों से भरी डाल
झकझोर डालते हैं
उसके ऊपर!


बारिश

बारिश एक राह है
स्त्री तक जाने की

बरसता हुआ पानी
बहता है
जीवित और मृत मनृष्‍यों के बीच

बारिश
एक तरह की रात है

एक सुदूर और बाहरी चीज़
इतने लंबे समय के बाद
भी
शरीर से ज़्यादा
दिमाग़ भीगता है

कई बार
घर-बाहर एक होने लगता है!

बड़े जानवर
खड़े-खड़े भींगते हैं देर तक
आषाढ़ में
आसमान के नीचे
आदिम दिनों का कंपन
जगाते हैं

बारिश की आवाज़ में
शामिल है मेरी भी आवाज़!


सवाल ज़्यादा हैं

पुराने शहर उड़ना
चाहते हैं
लेकिन पंख उनके डूबते हैं
अक्सर खून के कीचड़ में!

मैं अभी भी
उनके चौराहों पर कभी
भाषण देता हूँ
जैसा कि मेरा काम रहा
वर्षों से
लेकिन मेरी अपनी ही आवाज़
अब
अजनबी लगती है

मैं अपने भीतर घिरता जा रहा हूँ

सवाल ज़्यादा हैं
और बात करने वाला
कोई-कोई ही मिलता है
हार बड़ी है मनुष्‍य होने की
फिर भी इतना सामान्य क्यों है जीवन?

 

रात

रात
रात
तारों भरी रात

मीर के सिरहाने
आहिस्ता बोलने की रात


उड़ानें

कवि मरते हैं
जैसे पक्षी मरते हैं
गोधूलि में ओझल होते हुए!

सिर्फ़ उड़ानें बची रह
जाती हैं

दुनिया में आते ही
क्यों हैं
जहाँ इंतज़ार बहुत
और साथ कम

स्त्रियाँ जब पुकारती हैं
अपने बच्चों को
उनकी याद आती है!

क्या एक ऐसी
दुनिया आ रही है
जहाँ कवि और पक्षी
फिर आएंगे ही नहीं!


श्रृंगार

तुम भीगी रेत पर
इस तरह चलती हो
अपनी पिंडलियों से ऊपर
साड़ी उठाकर
जैसे पानी में चल रही हो!

क्या तुम जान बूझ कर ऐसा
कर रही हो
क्या तुम श्रृंगार को
फिर से बसाना चाहती हो?


रेशमा

रेशमा हमारी क़ौम को
गाती हैं
किसी एक मुल्क को नहीं

जब वे गाती हैं
गंगा से सिंधु तक
लहरें उठती हैं

वे कहाँ ले जाती हैं
किन अधूरी,
असफल प्रेम-कथाओं
की वेदनाओं में

वे ऐसे जिस्म को
जगाती हैं
जो सदियों पीछे छूट गए
ख़ाक से उठाती हैं
आँसुओं और कलियों से

वे ऐसी उदासी
और कशमकश में डालती हैं
मन को वीराना भी करती हैं

कई बार समझ में नहीं
आता
दुनिया छूटने लगती है पीछे
कुछ करते नहीं बनता

कई बार
क़ौमों और मुल्कों से भी
बाहर ले जाती हैं
क्या वे फिर से मनुष्‍य को
बनजारा बनाना चाहती
हैं?

किनकी ज़रुरत है
वह अशांत प्रेम
जिसे वह गाती हैं!

मैं सुनता हूँ उन्हें
बार-बार

सुनता क्या हूँ
लौटता हूँ उनकी ओर
बार-बार
जो एक बार है
वह बदलता जाता है

उनकी आवाज़
ज़रा भीगी हुई है
वे क़रीब बुलाती हैं
हम जो रहते हैं
दूर-दूर!


भूल पाने की लड़ाई

उसे भूलने की लड़ाई
लड़ता रहता हूँ
यह लड़ाई भी
दूसरी कठिन लड़ाइयों जैसी है

दुर्गम पथ जाते हैं उस ओर

उसके साथ गुजारे
दिनों के भीतर से
उठती आती है जो प्रतिध्वनि
साथ-साथ जाएगी आजीवन

इस रास्ते पर कोई
बाहरी मदद पहुँच नहीं सकती

उसकी आकस्मिक वापसी की छायाएँ
लंबी होती जाती हैं
चाँद-तारों के नीचे

अभिशप्‍त और निर्जन हों जैसे
एक भुलाई जा रही स्त्री के प्यार
के सारे प्रसंग

उसके वे सभी रंग
जिनमें वह बेसुध
होती थी मेरे साथ
लगातार बिखरते रहते हैं
जैसे पहली बार
आज भी उसी तरह

मैं नहीं उन लोगों में
जो भुला पाते हैं प्यार की गई स्त्री को
और चैन से रहते हैं

उन दिनों मैं
एक अख़बार में कॉलम लिखता था
देर रात गए लिखता रहता था
मेज पर
वह कबकी सो चुकी होती
अगर वह अभी अचानक जग जाती
मुझे लिखने नहीं देती
सेहत की बात करते हुए
मुझे खींच लेती बिस्तर में
रोशनी गुल करते हुए

आधी नींद में वह बोलती रहती कुछ
कोई आधा वाक्य
कोई आधा शब्द
उसकी आवाज़ धीमी होती जाती
और हम सो जाते

सुबह जब मैं जगता
तो पाता कि
वह मुझे निहार रही है
मैं कहता
तुम मुझे इस तरह क्या देखती हो
इतनी सुबह
देखा तो है रोज़
वह कहती
तुम मुझसे ज़्यादा सुंदर हो
मैं कहता
यह भी कोई बात हुई

भोर से नम
मेरे छोटे घर में
वह काम करती हुई
किसी ओट में जाती
कभी सामने पड़ जाती

वह जितने दिन मेरे साथ रही
उससे ज़्यादा दिन हो गए
उसे गए!
 

मुलाक़ातें


अचानक तुम आ जाओ

इतनी रेलें चलती हैं
भारत में
कभी
कहीं से भी आ सकती हो
मेरे पास

कुछ दिन रहना इस घर में
जो उतना ही तुम्हारा भी है
तुम्हें देखने की प्यास है गहरी
तुम्हें सुनने की

कुछ दिन रहना
जैसे तुम गई नहीं कहीं

मेरे पास समय कम
होता जा रहा है
मेरी प्यारी दोस्त

घनी आबादी का देश मेरा
कितनी औरतें लौटती हैं
शाम होते ही
अपने-अपने घर
कई बार सचमुच लगता है
तुम उनमें ही कहीं
आ रही हो
वही दुबली देह
बारीक चारखाने की
सूती साड़ी
कंधे से झूलता
झालर वाला झोला
और पैरों में चप्पलें
मैं कहता जूते पहनो खिलाड़ियों वाले
भाग दौड़ में भरोसे के लायक

तुम्हें भी अपने काम में
ज़्यादा मन लगेगा
मुझसे फिर एक बार मिलकर
लौटने पर

दुख-सुख तो
आते जाते रहेंगे
सब कुछ पार्थिव है यहाँ
लेकिन मुलाक़ातें नहीं हैं
पार्थिव
इनकी ताज़गी
रहेगी यहीं
हवा में !
इनसे बनती हैं नई जगहें
एक बार और मिलने के बाद भी
एक बार और मिलने की इच्छा
पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी

 

आम के बाग़

आम के फले हुए पेड़ों
के बाग़ में
कब जाऊँगा?

मुझे पता है कि
अवध, दीघा और मालदह में
घने बाग़ हैं आम के
लेकिन अब कितने और
कहाँ कहाँ
अक्सर तो उनके उजड़ने की
ख़बरें आती रहती हैं।

बचपन की रेल यात्रा में
जगह जगह दिखाई देते थे
आम के बाग़
बीसवीं सदी में

भागलपुर से नाथनगर के
बीच रेल उन दिनों जाती थी
आम के बाग़ों के बीच
दिन में गुजरो
तब भी
रेल के डब्बे भर जाते
उनके अँधेरी हरियाली
और ख़ुशबू से

हरा और दूधिया मालदह
दशहरी, सफेदा
बागपत का रटौल
डंटी के पास लाली वाले
कपूर की गंध के बीजू आम

गूदेदार आम अलग
खाने के लिए
और रस से भरे चूसने के लिए
अलग
ठंढे पानी में भिगोकर

आम खाने और चूसने
के स्वाद से भरे हैं
मेरे भी मन प्राण

हरी धरती से अभिन्न होने में
हज़ार हज़ार चीज़ें
हाथ से तोड़कर खाने की सीधे
और आग पर पका कर भी

यह जो धरती है
मिट्टी की
जिसके ज़रा नीचे नमी
शुरू होने लगती है खोदते ही !

यह जो धरती
मेढक और झींगुर
के घर जिसके भीतर
मेढक और झींगुर की
आवाज़ों से रात में गूँजने वाली

यह जो धारण किये हुए है
सुदूर जन्म से ही मुझे
हम ने भी इसे संवारा है !

यह भी उतनी ही असुरक्षित
जितना हम मनुष्य इन दिनों

आम जैसे रसीले फल के लिए
भाषा कम पड़ रही है
मेरे पास

भारतवासी होने का सौभाग्य
तो आम से भी बनता है!

 

गाय और बछड़ा


एक भूरी गाय
अपने बछड़े के साथ
बछड़ा क़रीब एक दिन का होगा
घास के मैदान में
जो धूप से भरा है

बछड़ा भी भूरा ही है
लेकिन उसका नन्हा
गीला मुख
ज़रा सफेद

उसका पूरा शरीर ही गीला है
गाय उसे जीभ से चाट रही है

गाय थकी हुई है ज़रूर
प्रसव की पीड़ा से बाहर आई है
फिर भी
बछड़े को अपनी काली आँखों से
निहारती जाती है
और उसे चाटती जा रही है

बछड़े की आँखें उसकी माँ
से भी ज़्यादा काली हैं
अभी दुनिया की धूल से अछूती

बछड़ा खड़ा होने में लगा है
लेकिन
कमल के नाल जैसी कोमल
उसकी टाँगें
क्यों भला ले पायेंगी उसका भार !
वह आगे के पैरों से ज़ोर लगाता
है
उसके घुटने भी मुड़ रहे हैं
पहली पहली बार
ज़रा-सा उठने में गिरता
है कई बार घास पर
गाय और चरवाहा
दोनों उसे देखते हैं

सृष्टि के सबक हैं अपार
जिन्हें इस बछड़े को भी सीखना होगा
अभी तो वह आया ही है

मेरी शुभकामना
बछड़ा और उसकी माँ
दोनों की उम्र लम्बी हो

चरवाहा बछड़े को
अपनी गोद में लेकर
जा रहा है झोपड़ी में
गाय भी पीछे-पीछे दौड़ती
जा रही है।

 

नन्ही बुलबुल के तराने

एक नन्ही बुलबुल
गा रही है
इन घने गोल पेड़ों में
कहीं छुप छुप कर
गा रही है रह-रह कर

पल दो पल के लिए
अचानक चुप हो जाती है
तब और भी व्याकुलता
जगाती है
तरानों के बीच उसका मौन
कितना सुनाई देता है !

इन घने पेड़ों में वह
भीतर ही भीतर
छोटी छोटी उड़ानें भरती है
घनी टहनियों के
हरे पत्तों से
खूब हरे पत्तों के
झीने अँधेरें में
एक ज़रा कड़े पत्ते पर
वह टिक लेती है

जहाँ जहाँ पत्ते हिलते हैं
तराने उस ओर से आते हैं
वह तबीयत से गा रही है
अपने नए कंठ से
सुर को गीला करते हुए
अपनी चोंच को पूरा खोल कर

जितना हम आदमी उसे
सुनते है
आसपास के पेड़ों के पक्षी
उसे सुनते हैं ज़्यादा

नन्ही बुलबुल जब सुनती है
साथ के पक्षियों को गाते
तब तो और भी मिठास
घोलती है अपने नए सुर में

यह जो हो रहा है
इस विजन में पक्षीगान
मुझ यायावर को
अनायास ही श्रोता बनाते हुए

मैं भी गुनगुनाने को होता हूँ
पुरानी धुनें
वे जो भोर के डूबते तारों
जैसे गीत!

(शीर्ष पर वापस)

 

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