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लोग ही चुनेंगे रंग-  ‘लाल्टू’


 
जीवन

 

जीवन-1


उसकी अठखेलियाँ टूटी पँखुड़ियों सी बिखरी हुईं
कुहासे के पार उसकी उँगलियाँ मन छू रहीं
जाड़े की धूप को अभी आना था
सुकून जो मिलना था उसमें थी बेचैनी
आसमान को नहीं होना था आसमान

यह ज़रूरी नहीं था कि खयाल आए उसका
अन्जाने में ही इधर-उधर हम
प्रवासी पाखी सा छोड़ दिया था किसी के पास
फिर भी खयाल आते बुरे अधिकतर

पहले उसकी मुस्कान थी या उसके शब्द
चुलबुली वह
जब वह गई कुहासा घना इतना कि खुद को देखना मुश्किल
सतरंगा बिखराव फैल रहा था तकलीफ की बारिश

इसके बाद टूटे नल से बहता पानी
खुला खाली आसमान
प्यार जा चुका था अपनी सतह छोड़
बची थी सतह की मुस्कान.

(प्रगतिशील वसुधा - 2005)



जीवन-2


सड़क रेंगती है उसने कहा और याद किया अपना शहर.
सड़क कुछ आगे कुछ पीछे निकल गई
उसने मूँगफली चबाई, सड़क ने छिलका देखा और ले गई.
टूटे छिलके पर उसका स्पर्श धुँधला हो रहा था
जैसे स्मृति में धुँधला हुआ अपना शहर.

अपने शहर में सड़कों को रेंगते नहीं देखा था, वहाँ मूँगफली के छिलके
होते पैरों की उँगलियों पर जब तक हवा न चलती.
रेंगती सड़क पर हवा थी निष्प्राण जितनी भूली हुई चिड़ियाँ.

हर कोई खोया हुआ. किसी को काम की, किसी को काम के दाम की,
अलग अलग थे तलाश में लोग सड़क पर.
धूप देखती पूछ लेती कभी स्मृति से कितनी जगह थी बची वहाँ.

एक दिन वह और सड़क एक दूसरे में विलीन हो गए, धूप उन पर बिछ गई
चिड़ियों ने गाए शोक-गीत.

(विपाशा - 1996)

 

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