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लोग ही चुनेंगे रंग (काव्य संग्रह)  - लाल्टू

भूमिका

 

मन
हो इतने कुशल
गढ़ने न हों कृत्रिम अमूर्त्त कथानक
चढ़ना उतरना
बहना रेत होना
हँसना रोना इसलिए
कि ऐसा ही जीवन


पहली बार कविता संग्रह की भूमिका लिख रहा हूँ. पिछले दो संग्रहों में नहीं लिखा था.

कविता पर नया कुछ लिखने के लिए सचमुच मेरे पास कुछ नहीं है. पेशे से साहित्य से दूर होने की वजह से या अन्य कारणों से इस सवाल पर बहुत सोचने की गुंजाइश भी नहीं रही.

मेरी कोशिश है कि कविता में ईमानदार रहूँ. अक्सर हम पाते हैं कि निजी जीवन में हमारी प्रतिबद्धता सीमित है, पर कविता में वह मुखर है. जबकि होना चाहिए कि कविता में उतनी ही बात हो जितनी हम जीते हैं. प्रतिबद्धता स्वयं हमारे शब्दों में आती है. इसी तरह रूप पर ध्यान दिए बिना हम क्या लिख सकते हैं? हर सचेत कवि इन बातों को सोचता है. कविता एक तरह की सेल्फ-थिरेपी भी है. लिख कर सुकून मिलता है. यह सुख उसे भी चाहिए जो दुनिया को बुनियादी तौर पर बदलना चाहता है और इसके लिए संगठित प्रयासों के साथ जुड़ा है. मैंने ऐसे लोगों की ओर से कुछ कहने की कोशिश की है. मैं मानता हूँ कि हममें से हर कोई महामानव बनने की योग्यता रखता है. परिस्थितियाँ तय करती हैं कि हमारी साधारणता में से ही असाधारण की सृष्टि होती है या नहीं. हर कोई पहले एक साधारण मानव ही है और जिस्मानी और रूहानी दोनों किस्म की तकलीफें हमारी पहली परिभाषा हैं. हमारी विचारधारा स्वतः हमारी अभिव्यक्ति में आती है. इसके अलावा हमारी पीढ़ी की कविता में प्रेम विद्रोह बन कर सामने आया है. गहरे संकट के इस दौर में कविता में प्रेम की पुनर्प्रतिष्ठा होनी चाहिए.

संगत के अभाव से और समय के अभाव से कविता पर जितना काम करना चाहिए, उतना कर नहीं पाया हूँ, पर फिर भी कोशिश की है. अग्रज कवियों से सुना है कि जैसी भी कविताएँ लिखता हूँ, अपनी एक पहचान उनमें रख रहा हूँ. यह दीगर बात है कि साहित्यिक गोष्ठियों से दूर रहा हूँ, इसलिए चर्चा में कम रहा हूँ, पर पाठकों की एक छोटी भीड़ है, जिन्होंने समय समय पर मुझे प्रोत्साहित किया है. मेरे अपने प्रयोग हैं. मातृभाषा न होने की वजह से शुरुआती कमजोरियाँ थीं, जिनसे अब निकल चुका हूँ और जो विसंगतियाँ दिखती हैं, वे सचेत प्रयोग हैं, ठीक हैं या नहीं ये सुधी पाठक ही बतलाएँगे.

ये कविताएँ किसी विशेष थीम पर नहीं हैं. एक तरह से यह एक प्रतिनिधि संकलन है. प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित अपनी तीनेक सौ ऐसी कविताओं से जो अभी तक संग्रह में नहीं आई थीं, कुछ चुन लीं और फिर एक क्रम में सजा दिया. जो है सो है, आगे और संग्रह आएँगे - जो यहाँ नहीं है, उनमें होगा. अच्छी बात यह कि इस तरह एकत्रित सामग्री में मेरा कोई एक पक्ष नहीं, बल्कि धुँधला सही, पर सर्वांगीण जगत है.

कई भले लोगों को धन्यवाद कहना ज़रुरी है कि यह संग्रह सामने आ रहा है. साथी कवियों को धन्यवाद और खास तौर से चंडीगढ़ के मित्रों को धन्यवाद, जिनका अनन्त प्यार हमेशा मिलता रहा. भारतभूषण तिवारी ने बड़ी मेहनत से टेक्स्ट को देखा, त्रुटियाँ सुधारीं, और कविताओं को क्रम में सजाया. उसका आभार मैं कैसे चुकाऊँ! कुबेर दत्त जी ने स्नेह के साथ प्रकाशक तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया, यह खुशकिस्मती मेरी।
 

-लाल्टू; मार्च 2009, हैदराबाद.

 

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