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लोग ही चुनेंगे रंग-  ‘लाल्टू’


 


मैं तुझे खुद में शामिल करता हूँ
मेरी रातों में कही जा तू कविता

फैलता हुआ तुझे थामने स्थिर होता
लील लेता तुझे जब
धरती पर अनन्त दुखों का लावा पिघलता

बहुत दिनों के बाद तुझसे रूबरू होता हूँ.

मेरी उँगलियाँ बन्द पड़ी हैं
उन्हें खुलने से डर लगता है.
तू मेरे आकाश में है
आ तू मेरे सीने पे आ
मेरी उँगलियों को तेरा इन्तज़ार है
जीवन गीत के छींटों से मुझे गीला कर
तू आ कविता.

डर होता है छत गिरने का
भूकम्प आने का
डर न जाने क्या क्या होता.

प्रतिकृतियाँ जिनमें ढूँढते हैं
वे नक्षत्र और दूर हो चले
औरों की आँखों में जो दिखते हैं लिबास
कि वे मुझपे ही जड़े हैं डर होता.

आ तू मेरी उँगलियों से बरस
कि वे धरती को डर से मुक्त करें
पेड़ों को खिड़की से अन्दर हूँ खींच लाता.

(पश्यन्ती - 2001)
 

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