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आलोकधन्वा/
दुनिया रोज़ बनती है/जनता
का आदमी(i)
जनता का आदमी
जबकिं ऐसा करते हुए मेरी कविता जगह-जगह से जल जाती है जब
कविता के वर्जित प्रदेश में
भाषा और लय के बिना, केवल अर्थ में-
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