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आलोकधन्वा/
दुनिया रोज़ बनती है/ जनता
का आदमी(iii)
क्योंकि मेरी मुलाक़ात उनके बारूदख़ाने में आग की तरह घुसेगी। मैं
गहरे जल की आवाज़-सा उतर गया। उधर
युवा डोमों ने इस बात पर हड़ताल की
अक्सर कविता लिखते हुए मेरे घुटनों से
क्यों पूछा था एक सवाल मेरे पुराने पड़ोसी ने-
क्यों हर बार आम ज़िंदगी
के सवाल से
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