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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है/भागी हुई लड़कियाँ(iv)-जिलाधीश
 

 

अपनी हैसियत, अपनी ताक़त से ?
तुम उठा लाये एक ही बार में
एक स्त्री की तमाम रातें
जिसके निधन के बाद की भी रातें !
 

तुम नहीं रोये पृथ्वी पर एक बार भी
किसी स्त्री के सीने से लगकर
 

सिर्फ़ आज की रात रूक जाओ
तुम से नहीं कहा किसी स्त्री ने
 

सिर्फ़ आज की रात रुक जाओ
कितनी-कितनी बार कहा कितनी
स्त्रियों ने दुनिया भर में
समुद्र के तमाम दरवाज़ों तक दौड़ती हुई आयीं वे
सिर्फ़ आज की रात रूक जाओ
और दुनिया जब तक रहेगी
सिर्फ़ आज की रात भी रहेगी।


(1988)
 

ज़िलाधीश



तुम एक पिछड़े हुए वक्ता हो।
 

तुम एक ऐसे विरोध की भाषा में बोलते हो
जैसे राजाओं का विरोध कर रहे हो !
एक ऐसे समय की भाषा
जब संसद का जन्म नहीं हुआ था !
 

तुम क्या सोचते हो
संसद ने विरोध की भाषा और सामग्री को
वैसा ही रहने दिया
जैसी वह राजाओं के ज़माने में थी ?
 

यह जो आदमी
मेज़ की दूसरी ओर सुन रहा है तुम्हें
कितने क़रीब से और ध्यान से
यह राजा नहीं है ज़िलाधीश है !
 

यह ज़िलाधीश है
जो राजाओं से आम तौर पर
बहु ज्यादा शिक्षित है
राजाओं से ज्यादा तत्पर और संलग्न !
 

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