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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है/शंख के बाहर(ii)- भागी हुई लड़कियाँ(i)
 

 

अब उनकी सीधी कमर कभी नहीं देख सकूंगा
कविता में भी नहीं
माँड़ पीते-पीते, मकई खाते-खाते
पिता सन्ना टे से भर गये केवल
जगमगाते हुए चावल के साथ पिता के शब्दों को भी ले गया ज़मींदार !
मैं कवि हूँ ? क्या मैं सचमुच कवि हूँ ?
या महज़ काग़ज काटने वाला एक चाक़ू हूँ या
अख़बार से ढँका हुआ मैदान हूँ मैं कोई ?
शंख के बाहर बारूद के हथियार खड़े हैं।
और
हथियार के चारों ओर लोग हल चला रहे हैं।


(1973)

भागी हुई लड़कियाँ
 


एक

घर की ज़ंजीरें
कितना ज़्यादा दिखाई पड़ती हैं
जब घर से कोई लड़की भागती है


क्या उस रात की याद आ रही है
जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी
जब भी कोई लड़की घर से भागती थी?
बारिश से घिरे वे पत्थर के लैम्पपोस्ट
सिर्फ़ आँखों की बेचैनी दिखाने-भर उनकी रोशनी?


और वे तमाम गाने रजतपर्दों पर दीवानगी के
आज अपने ही घर में सच निकले !


क्या तुम यह सोचते थे कि
वे गाने सिर्फ़ अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए
रचे गये थे ?
और वह खतरनाक अभिनय
लैला के ध्वंस का
जो मंच से अटूट उठता हुआ
दर्शकों की निजी ज़िदगियों में फैल जाता था?
 

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