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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है
 

 

भूखा बच्चा


मैं उसका मस्तिष्क नहीं हूँ
मैं महज उस भूखे बच्चेस की आँत हूँ।

उस बच्चे की आत्मा गिर रही है ओस की तरह

जिस तरह बाँस के अँखुवे बंजर में तड़कते हुए ऊपर उठ रहे हैं
उस बच्चे का सिर हर सप्ताह हवा में ऊपर उठ रहा है
उस बच्चे के हाथ हर मिनट हवा में लम्बे हो रहे हैं
उस बच्चे की त्वचा कड़ी हो रही है
हर मिनट जैसे पत्तियाँ कड़ी हो रही हैं
और
उस बच्चे की पीठ चौड़ी हो रही है जैसे कि घास
और
घास हर मिनट पूरे वायुमंडल में प्रवेश कर रही है

लेकिन उस बच्चे के रक्त़संचार में
मैं सितुहा-भर धुँधला नमक भी नहीं हूँ

उस बच्चे के रक्तसंचार में
मैं केवल एक जलआकार हूँ
केवल एक जल उत्तेजना हूँ।

(1973)
 

शंख के बाहर


सूँढ़ जैसे लंबे इस शंख के भीतर गुज़र रहा हूँ
जल की कुल्हाड़ियाँ इसे चीर रही हैं और
मैं कुल्हाड़ियों को चीर रहा हूँ


शंख के बाहर माँ खड़ी है
कनपटी पर एक लम्बे बाघ की छाया लिये -
दहाड़ से माँ की त्वचा फट रही है और
नारियल की रस्सियों की तरह कठोर लहू बाहर आ रहा है
फिर भी वह केवल मेरे इंतज़ार में
अब तक माँ बनी हुई है कोई चीज़ कोई एकान्त नहीं हुई
माँ कभी भी एकांत नहीं हुई, जब से वह माँ हुई मेरी-
और मैं इस सूँढ़ जैसे शंख के भीतर गुज़र रहा हूँ !


धूप से जली भौंहें और शीत से लँगड़े हो गये पैर
असमय निधन लोहे के गोलों की तरह ठोस, हृदयहीन
चारों ओर निधन / बच्चों का निधन
दूध के बिना निधन / गेहूँ के बिना निधन
कौन रोकता है दूध को बच्चों तक आने में / गेहूँ को कौन रोकता है
बाहर निकालो इस आततायी को
 

शंख से बाहर पिता झुकते जा रहे हैं
मिट्टी की ओर रीढ़
 

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