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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है
 

 

अपनी बात

 


कितने दिनों से रात आ रही है
जा रही है पृथ्‍वी पर
फिर भी इसे देखना
इसमें होना एक अनोखा काम लगता है


मतलब कि मैं
अपनी बात कर रहा हूँ।


 (1996)

 

 

 

 

 


 

सफ़ेद रात

 

पुराने शहर की इस छत पर
पूरे चाँद की रात
याद आ रही है वर्षों पहले की
जंगल की एक रात


जब चाँद के नीचे
जंगल पुकार रहे थे जंगल को
और बारहसिंगे
पीछे छूट गये बारहसिंगों को

निर्जन मोड़ पर ऊँची झा‍डियों में
ओझल होते हुए


क्या वे सब अभी तक बचे हुए हैं
पीली मिट्टी के रास्ते और खरहे
महोगनी के घने पेड़
तेज़ महक वाली कड़ी घास
देर तक गो‍धूलि ओस
रखवारे की झोपड़ी और
उसके ऊपर सात तारे

(...जारी)


 

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