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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है/सफ़ेद रात(ii)
 

 

पूरे चाँद की इस शहरी रात में
किसलिए आ रही है याद
जंगल की रात ?


छत से झाँकता हूँ नीचे
आधी रात बिखर रही है


दूर-दूर तक चाँद की रोशनी


सबसे अधिक खींचते हैं फ़ुटपाथ
ख़ाली खुले आधी रात के बाद के फ़ुटपाथ
जैसे आँगन छाये रहे मुझमें बचपन से ही
और खुली छतें बुलाती रहीं रात होते ही
कहीं भी रहूँ


क्या है चाँद के उजाले में
इस बिखरती हुई आधी रात में
एक असहायता
जो मुझे कुचलती है और एक उम्मीद
जो तकलीफ़ जैसी है


शहर में इस तरह बसे
कि परिवार का टूटना ही उसकी बुनियाद हो जैसे
न पुरखे साथ आये न गाँव न जंगल न जानवर
शहर में बसने का क्याँ मतलब है
शहर में ही खत्म हो जाना ?
एक विशाल शरणार्थी शिविर के दृश्य
 

हर कहीं उनके भविष्यहीन तम्बू
हम कैसे सफ़र में शामिल हैं
कि हमारी शक्ल आज भी विस्थापितों जैसी
सिर्फ़ कहने के लिए कोई अपना शहर है
कोई अपना घर है
इसके भीतर भी हम भटकते रहते हैं


लखनऊ में बहुत कम बच रहा है लखनऊ
इलाहाबाद में बहुत कम इलाहाबाद
कानपुर और बनारस और पटना और अलीगढ़
अब इन्हीं शहरों में
कई तरह की हिंसा कई तरह के बाज़ार
कई तरह के सौदाई
इनके भीतर इनके आसपास
इनसे बहुत दूर बंबई हैदराबाद अमृतसर
और श्रीनगर तक
हिंसा
और हिंसा की तैयारी
और हिंसा की ताक़त


बहस नहीं चल पाती
हत्याएँ होती हैं
फिर जो बहस चलती है
उसका भी अंत हत्याओं में होता है
भारत में जन्म लेने का
मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था
(जारी)
 

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