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उपन्यास |
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प्रतिज्ञा
अध्याय-16
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शहर में घर-घर, गली-कूचे, जहाँ देखिए यही चर्चा थी! बाबू दाननाथ का नाम भी प्रसंग से लोगों की जबान पर आ जाता था। जो व्यक्ति कमलाप्रसाद की नाक का बाल -
आठों पहर का साथी हो, वह क्या इस कुचक्र से बिल्कुल अलग रह सकता है? कमलाप्रसाद तो खैर एक रईस का शौकीन लड़का था। उसके चरित्र की जाँच कठोर नियमों से न की जा
सकती थी। ऐसे लोग प्रायः दुर्व्यसनी होते ही हैं यह कोई नई बात न थी! कुछ दिन और पहले यदि कमलाप्रसाद के विषय में ऐसी चर्चा उठती, तो कोई उस पर ध्यान भी न
देता। ऐसे सैकड़ों कांड नित्य ही होते रहते हैं, कोई परवाह नहीं करता। नेताओं की मंडली में आ जाने के बाद हमारी बाजाब्ता जाँच होने लगती है। नेताओं के
रहन-सहन, आहार-व्यवहार सभी आलोचना के विषय हो जाते हैं। उनके चरित्र की जाँच आदर्श नियमों से की जाने लगती है। कमलाप्रसाद अभी तक नेताओं की उस श्रेणी में न
आया था, उसका जो कुछ सम्मान और प्रभाव था, वह दाननाथ जैसे विद्वान, प्रतिभाशाली, सच्चरित्र मनुष्यों से मेल-जोल के कारण था। वह पौधा न था, जो भूमि से जीवन
और बल पाता, वह बेल के समान वृक्ष पर चढ़नेवाला जीव था। उसमें जो कुछ प्रकाश था; वह केवल प्रतिबिंब था, अतएव उसके कृत्यों का दायित्व बहुत अंशों में उसके
मित्रों ही पर रखा जा रहा था और दाननाथ पर उसका निकटतम मित्र और संबंधी होने के कारण इस दायित्व का सबसे बड़ा भार था। 'अजी, सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं
यह कथन मुँह पर आए न आए, पर मन में सबके था।'
दो-चार दिन में दृष्टिकोण में एक विचित्र परिवर्तन हुआ। कुछ इस तरह की आलोचना होने लगी - कमलाप्रसाद बाबू का दोष नहीं - सीधे-सादे आदमी हैं। डोरी दूसरों ही
के हाथों में थी, दोषी टट्टी की आड़ से शिकार खेलते हैं। इस गरीब को उल्लू बना कर खुद मजे उड़ाते थे। फँसते तो गाबदी ही हैं, खिलाड़ी पहले फाँद कर पार निकल
जाते हैं। सारी कालिमा दानू के मुँह पर पुत गई।
दाननाथ को सचमुच ही घर से निकलना मुश्किल हो गया। वह जनता, जो उनके सामने आदर से सिर झुका देती थी, उन्हें आते देख कर रास्ते से हट जाती थी, उन्हें मंच पर
जाते देख कर जय-जयकार की ध्वनि से आकाश को प्रतिध्वनित कर देती थी, अब उनका मजाक उड़ाती थीं - उन पर फब्तियाँ कसती थी। कॉलेजों के लड़कों में भी आलोचना होने
लगी। उन्हें देख कर आपस में आँखें मटकाई जाने लगीं। क्लास में उनसे हास्यास्पद प्रश्न किए जाते। यहाँ तक कि एक दिन बरामदे में कई लड़कों के सामने चलते-चलते
सहसा उन्होंने पीछे फिर कर देखा, तो एक युवक को हाथ की चोंच बनाए पाया। युवक ने तुरंत ही हाथ नीचे कर लिया और कुछ लज्जित भी हो गया, पर दाननाथ को ऐसा आघात
पहुँचा कि अपने कमरे तक आना कठिन हो गया। कमरे में आ कर वह अर्द्ध-मूर्च्छा की दशा में कुर्सी पर गिर पड़े - अब वह एक क्षण भी यहाँ न ठहर सकते थे। उसी वक्त
छुट्टी के लिए पत्र लिखा और घर चले आए। प्रेमा ने उनका उतरा चेहरा देख कर पूछा - 'कैसा जी है? आज सवेरे ही कैसे छुट्टी हो गई?'
दाननाथ ने उदासीनता से कहा - 'छुट्टी नहीं, सिर में कुछ दर्द था, चला आया।' एक क्षण के बाद फिर बोले - 'मैंने आज तीन महीने की छुट्टी ले ली है। कुछ दिन आराम
करूँगा।'
प्रेमा ने हाथ-मुँह धोने के लिए पानी ला कर रखते हुए कहा - 'मैं तो कभी से चिल्ला रही हूँ कि कुछ दिनों की छुट्टी ले कर पहाड़ों की सैर करो। दिन-दिन घुले
जाते हो। जलवायु बदल जाने से अवश्य लाभ होगा।'
दाननाथ - 'तुम तो चलती ही नहीं, मुझे अकेले जाने को कहती हो।'
प्रेमा - 'मेरा जाना मुश्किल है। खर्च कितना बढ़ जाएगा। फिर मैं तो भली-चंगी हूँ। जिसके लिए अपना घर ही पहाड़ हो रहा हो, वह पहाड़ पर क्या करने जाए?'
दाननाथ - 'तो मुझे ही क्या हुआ है, अच्छा-खासा गैंडा बना हुआ हूँ। इतना तैयार तो कभी न था।'
प्रेमा - 'जरा आईने में सूरत देखो।'
दाननाथ - 'सूरत तो कम-से-कम सौ बार रोज देखता हूँ। मुझे तो कोई फर्क नहीं नजर आता।'
प्रेमा - 'नहीं, दिल्लगी नहीं, तुम इधर बहुत दुबले हो गए हो। तुम्हें खुद कमजोरी मालूम होती होगी, नहीं तुम भला छुट्टी लेते! छुट्टियों में तो तुमसे कॉलेज
गए बिना रहा न जाता था, तुम भला छुट्टी लेते! तीन महीने तुम कोई काम मत करो - न पढ़ो, न लिखो। बस, खूब घूमो और आराम से रहो। इन तीन महीनों के लिए मुझे अपना
डॉक्टर बना लो। मैं जिस तरह रखूँ उस तरह रहो।'
दाननाथ - 'ना भैया, तुम मुझे खिला-खिला कर कोतल बना दोगी।'
प्रेमा से आज तक दाननाथ ने एक बार भी अपनी बदनामी की चर्चा न की थी। जब एक बार निश्चय कर लिया कि अपनी ख्याति और मर्यादा को उसकी इच्छा पर बलिदान कर देंगे,
तो फिर उससे अपनी मर्म-वेदना क्या कहते। अंदर-ही-अंदर घुटते रहते थे। लोक-प्रशंसा प्रायः सभी को प्रिय होती है। दाननाथ के लिए यह जीवन का आधार थी, नक्कू बन
कर जीने से मर जाना उन्हें कहीं सुसाध्य था। प्रतिज्ञा का जो भवन उन्होंने बरसों में खड़ा किया था, वह पराई आग से जल कर भस्मीभूत हो गया था। इस भवन का वह
दो-चार शब्दों से फिर निर्माण कर सकते थे। केवल एक व्याख्यान किसी तांत्रिक के मंत्र की भाँति इस राख के ढेर को पुनर्जीवित कर सकता था, पर उनकी जबान बंद थी।
लोगों से मिलना-जुलना पहले ही छूट गया था, अब उन्होंने बाहर निकलना भी छोड़ दिया। दिन-भर पड़े-पड़े कुछ पढ़ा या सोचा करते। हृदय की चिंता उन्हें अंदर-ही-अंदर
घुलाए डालती थी। प्रेमा के बहुत आग्रह करने पर बाहर निकलते भी तो उस वक्त, जब अँधेरा हो जाता। किसी परिचित मनुष्य की सूरत देखते ही उनके प्राण से निकल जाते
थे।
एक दिन सुमित्रा आई। बहुत प्रसन्न थी। प्रेमा ने पूछा - 'अब तो भैया से लड़ाई नहीं करतीं?'
सुमित्रा हँस कर बोली - 'अब ठीक हो गए। बदनामी हुई तो क्या, पर ठीक रास्ते पर आ गए। अब सैर-सपाटा सब बंद है। घर से निकलते ही नहीं। लाला जी से तो बोलचाल बंद
है, अम्माँ जी बहुत कम बोलती हैं। बस, अपने कमरे में पड़े रहते हैं। अब तो जो कुछ हूँ, मैं हूँ। मैं ही प्राणेश्वरी हूँ, मैं ही जीवन-सुधा हूँ। मैं ही हृदय
की रानी हूँ। रोज नई-नई उपाधियाँ गढ़ी जाती हैं, नए-नए नाम दिए जाते हैं, मेरा तो अब जी ऊब जाता है। पहले यह इच्छा रहती थी कि यह मेरे पास बैठे रहें। अब यह
इच्छा होती है कि कुछ देर के लिए आँखों से दूर हो जाएँ। प्रेम जताने लगते हैं तो झुँझला उठती हूँ। मगर फिर भी पहले से कहीं अच्छी हूँ। कम-से-कम यह भय तो
नहीं है, मेरी चीज किसी और को मिल रही है। आगे के लिए भी अब यह भय न रहेगा, देहात जाने का हुक्म हो गया है।'
प्रेमा ने पूछा - 'कौन-कौन जाएगा?'
सुमित्रा - 'बस, हम दोनों। असल में लाला जी इन्हें यहाँ से हटा देना चाहते हैं, लेकिन यह तो अच्छा नहीं लगता कि अकेले देहात में जा कर रहें। मैंने भी उनके
साथ जाने का निश्चय कर लिया है। दो-चार दिन में चल देंगे। तुमसे मिलना तो चाहते हैं, पर मारे संकोच के न आते हैं, न बुलाते हैं। कहते हैं - "मैं उसके सामने
कैसे ताकूँगा?"'
प्रेमा - 'इसी संकोच के मारे मैं नहीं गई। भैया पछताते होते होंगे?'
सुमित्रा - 'पछताते तो नहीं, रोते हैं ऐसा रोते हैं, जैसे कोई लड़की मैके से विदा होते वक्त रोती है। सदा के लिए सबक मिल गया। मैं तो पूर्णा को पाऊँ तो उसके
चरण धो-धो कर पीऊँ। है बड़ी हिम्मत की औरत। एक बार उससे जा कर मिल क्यों नहीं आतीं?'
एकाएक दाननाथ हाथ में एक पत्र लिए लपके हुए आए और कुछ कहना चाहते थे कि सुमित्रा को देख कर ठिठक गए। फिर झेंपते हुए बोले - 'सुमित्रा देवी कब आईं? मुझे तो
खबर ही नहीं हुई।'
सुमित्रा ने मुस्करा कर कहा - 'आपने तो आना-जाना छोड़ दिया, पर हम तो नहीं छोड़ सकते।'
दाननाथ कुछ उत्तर देने ही को थे कि प्रेमा ने उनके मुखाभास से उनके मन का भाव ताड़ कर कहा - 'जाना-आना भला कहीं छूट सकता है, बहन इनका जी ही अच्छा नहीं रहा।'
सुमित्रा - 'हाँ, देख तो रही हूँ आधे भी नहीं रहे।'
दाननाथ ने प्रेमा को एक पत्र दिखा कर कहा - 'यह देखो, अमृतराय का यह एक लेख है।'
प्रेमा ने झपट कर पत्र ले लिया, फिर कुछ संयमित हो कर बोली - 'किस विषय पर है? वह तो लेख-वेख नहीं लिखते।'
दाननाथ - 'पढ़ लो न!'
प्रेमा - 'पढ़ लूँगी, पर है क्या? वही वनिता-भवन के संबंध में कुछ लिखा होगा।'
दाननाथ - 'मुझे गालियाँ दी हैं।'
प्रेमा को मानो बिच्छू ने डंक मारा। अविश्वास के भाव से बोली - 'तुम्हें गालियाँ भी दी हैं। तुम्हें! मैं उन्हें इससे बहुत ऊँचा समझती थी।'
दाननाथ - 'मैंने गालियाँ दी हैं, तो वह क्यों चुप रहते?'
प्रेमा - 'तुमने तो गालियाँ नहीं दी। मतभेद गाली नहीं है।'
दाननाथ - 'किसी को गाली देने में मजा आए तो?'
प्रेमा - 'तो मैं एक की सौ-सौ सुनाऊँगी! मैं उन्हें इतना नीच नहीं समझती थी, अब मालूम हुआ कि वह भी हमीं जैसे राग-द्वेष से भरे हुए मनुष्य हैं।'
दाननाथ - 'ऐसी चुन-चुन कर गालियाँ निकाली हैं कि मैं दंग रह गया।'
प्रेमा - 'अब इस बात का जिक्र ही न करो, मुझे दुःख होता है।'
दाननाथ ने मुस्करा कर कहा- 'जरा पढ़ तो लो, फिर बतलाओ कि इस पर क्या कार्रवाई की जाए? पटकनी दूँ या खोपड़ी सहलाऊँ।'
प्रेमा - 'तुम्हें दिल्लगी सूझती है और मुझे क्रोध आ रहा है। जी चाहता है, इसी वक्त कह दूँ कि तुम अब मेरी नजरों से गिर गए। और लोग चाहे तुमसे खुश हुए हों,
इस चाल से तुम्हें कुछ चंदे और मिल जाएँ लेकिन मेरी निगाहों में तुमने अपनी इज्जत खो दी।'
दाननाथ - 'तो चलो हम तुम दोनों साथ चलें। तुम जबान का तीर चलाना, मैं अपने हाथों की सफाई दिखाऊँगा।'
सुमित्रा - 'पहले लेख तो पढ़ लो। गालियाँ दी होतीं तो लाला यों बातें न करते। अमृतराय ऐसा आदमी ही नहीं है।'
प्रेमा ने सहमी हुई आँखों से लेख का शीर्षक देखा। पहला वाक्य पढ़ा तो चढ़ी हुई त्यौरियाँ ढल गईं, दूसरा वाक्य पढ़ते ही पत्र पर और झुक गई, तीसरे वाक्य पर उसका
कठोर मुख सरल हो गया, चौथे वाक्य पर होठों पर हास्य की रेखा प्रकट हुई, और पैरा समाप्त करते-करते उसका संपूर्ण बदन खिल उठा। फिर ऐसा जान पड़ा, मानो वह
वायुयान पर उड़ी जा रही है, सारी ज्ञानेंद्रियाँ मानो स्फूर्ति से भर उठी थीं। लेख के तीनों पैरे समाप्त करके उसने इस तरह साँस ली, मानो वह किसी कठिन परीक्षा
से निकल आई।
दाननाथ ने पूछा - 'पढ़ लिया? मार खाने का काम किया है न? चलती हो तो चलो मैं जा रहा हूँ।'
प्रेमा ने पत्र को तह करते हुए कहा - 'तुम जाओ, मैं न आऊँगी।'
'आज मुझे मालूम हुआ कि संसार में मेरा कोई सच्चा मित्र है, तो यही है। मैंने इसके साथ बड़ा अन्याय किया। आज क्षमा माँगूँगा।'
'अगर आज न जाओ तो अच्छा। वे समझेंगे खुशामद करने आए हैं।'
'नहीं प्रिये अब जी नहीं मानता। उनके गले से लिपट कर रोने को जी चाहता है।'
यह कहते हुए दाननाथ बाहर चले गए। सुमित्रा भी बूढ़ी अम्माँ के पास जा बैठी। प्रेमा की सुकीर्ति का बखान सुने बिना उसे कब चैन आ सकता था? प्रेमा ने उस लेख को
फिर पढ़ा। तब जा कर चारपाई पर लेट रही! उस लेख का एक-एक शब्द उसके दृष्टि-पट पर खिंचा हुआ था। मन में ऐसी-ऐसी कल्पनाएँ उठ रही थीं, जिन्हें वह चाहती थी कि न
उठें?
फिर उसके भावों ने एक विचित्र रूप धारण किया - अमृतराय ने यह लेख क्यों लिखा? उन्होंने अगर दाननाथ को सचमुच गाली दी होती, तो चाहे एक क्षण के लिए उन पर
क्रोध आता, पर कदाचित चित्त इतना अशांत न होता।
सहसा उसने पत्र को फाड़ कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया और पुर्जे खिड़की के बाहर फेंक दिए। जो पंख पक्षी को जाल के नीचे बिखरे हुए दानों की ओर ले आएँ उनका उखड़ जाना
ही अच्छा।
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