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उपन्यास


प्रतिज्ञा
प्रेमचंद

 अध्याय-18

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दोनों मित्र आश्रम की सैर करने चले। अमृतराय ने नदी के किनारे असी-संगम के निकट पचास एकड़ जमीन ले ली थी। वहाँ रहते भी थे। अपना कैंटोमेंट वाला बँगला बेच डाला था। आश्रम ही के हाते में एक छोटा-सा मकान अपने लिए बनवा लिया था। आश्रम के द्वार पर के दोनों बाजुओं पर दो बड़े-बड़े कमरे थे। एक आश्रम का दफ्तर था और दूसरा आश्रम में बनी हुई चीजों का शो-रूम। दफ्तर में एक अधेड़ महिला बैठी हुई लिख रही थी। रजिस्टर आदि कायदे से आल्मारियों में चुने रखे थे इस समय अस्सी स्त्रियाँ थीं और बीस बालक। उनकी हाजिरी लिखी हुई थी। शो-रूम में सूत, उन, रेशम, सलमा-सितारे, मूँज आदि की सुंदर बेल-बूटेदार चीजें शीशे की दराजों में रखी हुई थीं। सिले हुए कपड़े भी अलगनियों पर लटक रहे थे। मिट्टी और लकड़ी के खिलौने, मोजे, बनियाइन, स्त्रियों ही के बनाए हुए चित्र अलग-अलग सजाए हुए थे। एक आलमारी में बनी हुई भाँति-भाँति की मिठाइयाँ चुनी हुई रखी थीं। आश्रम में उगे हुए पौधे गमलों में रखे हुए थे। कई दर्शक इस समय भी इन चीजों को देखभाल रहे थे, कुछ बिक्री भी हो रही थी। दो महिलाएँ ग्राहकों को चीजें दिखा रही थीं। यहाँ की रोजाना बिक्री सौ रुपए के लगभग थीं। मालूम हुआ कि संध्या समय ग्राहक अधिक आते हैं।

अब दोनों आदमी अंदर पहुँचे। एक विस्तृत चौकोर आँगन था, जिसके चारों तरफ बरामदा था। बरामदे ही में कमरों के द्वार थे। दूसरी मंजिल भी इसी नमूने की थी। नीचे के हिस्से में कार्यालय था। ऊपर के भाग में स्त्रियाँ रहती थीं। दस बजे का समय था। काम शुरू हो गया था। महिलाएँ अपने-अपने काम पर पहुँच गई थीं। कहीं सिलाई हो रही थी, कहीं मोजे, गुलूबंद आदि बुने जा रहे थे। कहीं मुरब्बे और अचार बन रहे थे। प्रत्येक विभाग एक योग्य महिला के अधीन था। आवश्यकतानुसार स्त्रियाँ उसकी सहायता करती थीं। इस भाँति उन्हें शिक्षा भी दी जा रही थी - आँगन में फल-पत्ते लगे हुए थे। कई स्त्रियाँ जमीन खोद रही थीं, कई पानी दे रही थीं। चारों तरफ चहल-पहल थी, कहीं शिथिलता, निरुत्साह या कलह का नाम न था।

दाननाथ ने पूछा - 'इतनी सुदक्ष स्त्रियाँ तुम्हें कहाँ मिल गईं?'

अमृतराय - 'कुछ अन्य प्रांतो से बुलाई गई हैं, कुछ बनाई गई हैं और कुछ ऐसी हैं जो नित्य नियम से आ कर सिखाती हैं और चार बजे चली जाती हैं। जज साहब मि. जोशी की धर्मपत्नी चित्रकला में निपुण हैं। वह आठ स्त्रियों की एक क्लास को दो घंटे रोज पढ़ाने आया करती हैं। मिसेज सक्सेना सिलाई के काम में चतुर हैं। वह प्रायः दिन-भर यहीं रहती हैं। तीन महिलाएँ पाठशाला में काम करती हैं। पहले मुझे संदेह होता था कि भले घर की रमणियाँ अपना समय यहाँ क्यों देने लगीं, लेकिन अब अनुभव हो रहा है कि उनमें सेवा का भाव पुरूषों से कहीं अधिक है। पर्दे का यहाँ पूर्ण बहिष्कार है। चलो, बगीचे की तरफ चलें। यह विभाग पूर्णा के अधिकार में है। मैंने समझा यहाँ उसके मनोरंजन के लिए काफी सामान मिलेगा, और खुली हवा में कुछ देर काम करने से उसका स्वास्थ्य भी ठीक हो जाएगा।'

बगीचा बहुत बड़ा न था। आम, अमरूद, लीची आदि की कलमें लगाई जा रही थीं। हाँ, फूलों के पौधे तैयार हो गए थे। बीच में एक हौज था और तीन-चार छोटी-छोटी लड़कियाँ हौज से पानी निकाल-निकाल कर क्यारियों में डाल रही थीं। हौज तक आने के लिए चारों ओर रविशें बनी हुई थीं। और हरेक रविश पर बेलों से ढँके हुए बाँसों के बुने हुए छोटे-छोटे फाटक थे। उसके साए में पत्थर की बेंचें रखी हुई थीं! पूर्णा इन्हीं बेंचों में से एक पर सिर झुकाए बैठी फूलों का एक गुलदस्ता बना रही थी। किसके लिए, यह कौन जान सकता है?

दोनों मित्रों की आहट पा कर पूर्णा उठ खड़ी हुई और गुलदस्ते को बेंच पर रख दिया।

अमृतराय ने पूछा - 'कैसी तबीयत है पूर्णा? यह देखो दाननाथ तुमसे मिलने आए हैं। बड़े उत्सुक हैं।'

पूर्णा ने सिर झुकाए हुए ही पूछा - 'प्रेमा बहन तो अच्छी तरह हैं। उनसे कह दीजिएगा, क्या मुझे भूल गईं या मुँह देखे भर की प्रीति थी? सुधि भी न ली कि मरी या जीती है।'

दाननाथ - 'वह तो कई बार तुमसे मिलने के लिए कहती थीं, पर संकोच के मारे न आ सकीं। तुमने गुलदस्ता तो बहुत सुंदर बनाया है।'

तीनों लड़कियाँ डोल छोड़-छोड़ कर आ खड़ी हुई थीं। यहाँ जो प्रशंसा मिल रही थी, उससे वे क्यों वंचित रहतीं। एक बोल उठी - 'देवी जी ने उस पीपल के पेड़ के नीचे एक मंदिर बनाया है, चलिए आपको दिखाएँ।'

पूर्णा - 'यह झूठ बोलती है। यहाँ मंदिर कहाँ है?'

बालिका - 'बनाया तो है, चलिए दिखा दूँ। वहीं रोज गुलदस्ते बना-बना कर ठाकुर जी को चढ़ाती हैं।'

अमृतराय ने बालिका का हाथ पकड़ कर कहा - 'कहाँ मंदिर बनाया है, चलो देखें।' तीनों बालिकाएँ आगे-आगे चलीं। उनके पीछे दोनों मित्र थे और सबके पीछे पूर्णा धीरे-धीरे चल रही थी।

दाननाथ ने अँग्रेजी में कहा - 'भक्ति मनुष्य का अंतिम आश्रय है।'

अमृतराय बोले - 'अब मुझे यहाँ एक मंदिर बनवाने की जरूरत मालूम हो रही है।'

बाग के उस सिरे पर एक पुराना वृक्ष था। उसके नीचे थोड़ी-सी जमीन लीप-पोत कर पूर्णा ने एक घरौंदा-सा बनाया था। वह फूल-पत्तों से खूब सजा था। इसी घरौंदे में केले के पत्तों से बने हुए सिंहासन पर कृष्ण की एक मूर्ति रखी थी। मूर्ति वही थी, जो बाजार में एक-एक पैसे की मिलती है, पर औरों के लिए वह चाहे मिट्टी की मूर्ति हो, पूर्णा के लिए यह अनंत जीवन का स्रोत, अखंड प्रेम का सागर, अपार भक्ति का भंडार थी। सिंहासन के सामने चीनी के पात्र में एक सुंदर गुलदस्ता रखा हुआ था उस अनाथिनी के हृदय से निकली हुई श्रद्धा की एक ज्योति-सी वहाँ छिटकी हुई थी, जिसने दोनों संशयवादियों का मस्तक भी एक क्षण के लिए नत कर दिया।

अमृतराय जरा देर किसी विचार में मग्न खड़े रहे। सहसा उनके नेत्र सजल हो गए, पुलकित कंठ से बोले - 'पूर्णा, तुम्हारी बदौलत आज हम लोगों को भी भक्ति की एक झलक मिल गई। अब हम नित्य कृष्ण भगवान के दर्शनों को आया करेंगे। उनकी पूजा का कौन-सा समय है?'

पूर्णा की मुखाकृति इस समय अवर्णनीय आभा से प्रदीप्त थी, और उसकी आँखें गहरी, शांत विहृलता से परिप्लावित हो रही थीं। बोली - 'मेरी पूजा का कोई समय नहीं है बाबू जी। जब हृदय में शूल उठता है, यहाँ चली आती हूँ और गोविंद के चरणों में बैठ कर रो लेती हूँ। कह नहीं सकती, बाबू जी यहाँ रोने से मुझे कितनी शांति मिलती है। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि गोविंद स्वयं मेरे आँसू पोंछते हैं। मुझे अपने चारों ओर अलौकिक सुगंध और प्रकाश का अनुभव होने लगता है। उनकी सहसा विकसित मूर्ति देखते ही मेरे चित्त में आशा और आनंद की हिलोरें-सी उठने लगती हैं। प्रेमा बहन कभी आएँगी, बाबू जी? उनसे कह दीजिएगा, उन्हें देखने के लिए मैं बहुत व्याकुल हो रही हूँ।'

दाननाथ ने आश्वासन दिया कि प्रेमा कल अवश्य आएगी! दोनों मित्र यहाँ से चले तो सहसा तीन बजने की आवाज आई। दाननाथ ने चौंक कर कहा - 'अरे! तीन बज गए। इतनी जल्द?'

अमृतराय - 'और तुमने अभी तक भोजन नहीं किया। मुझे भी याद न रहा।'

दाननाथ - 'चलो अच्छा ही हुआ तुम्हारा एक वक्त का खाना बच गया।'

अमृतराय - 'अजी मैंने तुम्हारी दावत की बड़ी-बड़ी तैयारियाँ की थीं। इतना खर्च किया गया और रसोइए ने खबर तक न दी।'

दाननाथ - 'हाँ साहब, आपके पचास से तो कम न बिगड़े होंगे। मैं बिना भोजन किए ही मानने को तैयार हूँ। है रसोइया भी होशियार। खूब सिखाया है।'

अमृतराय - 'होशियार नहीं पत्थर। दस बजे खिलाता, तो दो चपातियाँ खा कर उठ जाते। मुझे दावत करने का सस्ता यश मिल जाता। अब तो भूख खूब खुल गई है, थाली पर पिल पड़ोगे। इधर तो शिकायत यह कि देर की, उधर हानि यह कि दूने की खबर लोगे। मुझ पर तो दोहरी चपत पड़ गई।'

घर जा कर अमृतराय ने रसोइए को खूब डाँटा - 'तुमने क्यों इत्तला की कि भोजन तैयार है?'

रसोइए ने कहा - 'हुजूर बाबू साहब के साथ आश्रम में थे। मुझे डर लगता था कि आप खफा न हो जाएँ।

बात ठीक थी। अमृतराय रसोइए को कई बार मना कर चुके थे कि मैं जब किसी के साथ रहा करूँ, तो सिर पर मत सवार हो जाया करो। रसोइए का कोई दोष न था। बेचारे बहुत झेंपे। भोजन आया। दोनों मित्रों ने खाना शुरू किया। भोजन निरामिष था, पर बहुत ही स्वादिष्ट।

दाननाथ ने चुटकी ली - 'यह भोजन तो तुम-से ब्रह्मचारियों के लिए नहीं है। तुम्हारे लिए एक कटोरा दूध और दो चपातियाँ काफी हैं।'

अमृतराय - 'क्यों भाई?'

दाननाथ - 'तुम्हें स्वाद से क्या प्रयोजन?'

अमृतराय - 'जी नहीं, मैं तो उन ब्रह्माचारियों में नहीं हूँ। पुष्टिकारक और स्वादिष्ट भोजन को मैं मन और बुद्धि के लिए आवश्यक समझता हूँ। दुर्बल शरीर में स्वस्थ मन नहीं रह सकता! तारीफ जानदार घोड़े पर सवार होने में है! उसे इच्छानुसार दौड़ा सकते हो। मरियल घोड़े पर सवार हो कर अगर तुम गिरने से बच ही गए तो क्या बड़ा काम किया?'

भोजन करने के बाद दोनों मित्रों में आश्रम के संबंध में बड़ी देर तक बातें होती रहीं। आखिर शाम हुई और दोनों गंगा की सैर करने चले।

सांध्य समीर मंद गति से चल रहा था, और जरा हल्की-हल्की लहरों पर थिरकता हुआ चला जाता था। अमृतराय डाँड़ लिए बजरे को खे रहे थे और दाननाथ तख्ते पर पाँव फैलाए लेटे हुए थे। गंगादेवी भी सुनहले आभूषण पहने मधुर स्वरों में गा रही थीं। आश्रम का विशाल भवन सूर्यदेव के आशीर्वाद में नहाया हुआ खड़ा था।

दाननाथ कुछ देर तक लहरों से खेलने के बाद बोले - 'आखिर तुमने क्या निश्चय किया है?'

अमृतराय ने पूछा - 'किस विषय में?'

दाननाथ - 'यही अपनी शादी के विषय में।'

अमृतराय - 'मेरी शादी की चिंता में तुम क्यों पड़े हुए हो?'

दाननाथ - 'अजी, तुमने प्रतिज्ञा की थी, याद है। आखिर उसे तो पूरा करोगे?'

अमृतराय - 'मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर चुका।'

दाननाथ - 'झूठे हो।'

अमृतराय - 'नहीं, सच!'

दाननाथ - 'बिल्कुल झूठ! तुमने अपना विवाह कब किया?'

अमृतराय - 'कर चुका, सच कहता हूँ।'

दाननाथ ने कौतूहल से उनकी ओर देख कर कहा - 'क्या किसी को चुपके से घर में डाल लिया?'

अमृतराय - 'जी नहीं, खूब ढोल बजा कर किया और स्त्री भी ऐसी पाई, जिस पर सारा देश मोहित है?'

दाननाथ - 'अच्छा, तो कोई अप्सरा है?'

अमृतराय - 'जी हाँ, अप्सराओं से भी सुंदर?'

दाननाथ - 'अब मेरे हाथ से पिटोगे। साफ-साफ बताओ कब तक विवाह करने का इरादा है?'

अमृतराय - 'तुम मानते ही नहीं तो मैं क्या करूँ। मेरा विवाह हो गया है।'

दाननाथ - 'कहाँ हुआ?'

अमृतराय - 'यहीं बनारस में।'

दाननाथ - 'और स्त्री क्या आकाश में है, या तुम्हारे हृदय में?'

अमृतराय - 'जी नहीं, हमारे, तुम्हारे और संसार के सामने।'

दाननाथ - 'मैंने तो नहीं देखा?'

अमृतराय - 'अभी देखे चले आते हो और अब भी देख रहे हो।'

दाननाथ ने सोच कर कहा - 'कौन है? पूर्णा तो नहीं?'

अमृतराय - 'पूर्णा को मैं अपनी बहन समझता हूँ?'

दाननाथ - 'तो फिर कौन है? तुमने मुझे क्यों न दिखाया?'

अमृतराय - 'घंटों तक दिखाता रहा, अब और कैसे दिखाता। अब भी दिखा रहा हूँ वह देखो ऐसी सुंदरी तुमने और कहीं देखी है? मैं ऐसी-ऐसी और कई जानें उस पर भेंट कर सकता हूँ।'

दाननाथ ने आशय समझ कर कहा - 'अच्छा, अब समझा।'

अमृतराय - 'इसके साथ मेरा जीवन बड़े आनंद से कट जाएगा। यह एक पत्नीव्रत का समय है। बहु-विवाह के दिन गए।'

दाननाथ ने गंभीर भाव से कहा - 'मैं जानता कि तुम यों प्रतिज्ञा पूरी करोगे, तो मैं प्रेमा से हर्गिज विवाह न करता। फिर देखता कि तुम बच कर कैसे निकल जाते।'

अमृत के हाथ रुक गए। उन्हें डाँड़ चलाने की सुधि न रही। बोले - 'यह तुम्हें उसी वक्त समझ लेना चाहिए था, जब मैंने प्रेमा की उपासना छोड़ी। प्रेमा समझ गई थी। चाहे पूछ लेना।

पृथ्वी ने श्यामवेश धारण कर लिया था और बजरा लहरों पर थिरकता हुआ चला जाता था। उसी बजरे की भाँति अमृतराय का हृदय भी आंदोलित हो रहा था, दाननाथ निस्पंद बैठे हुए थे, मानो वज्राहत हो गए हों। सहसा उन्होंने कहा - 'भैया, तुमने मुझे धोखा दिया।'

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