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उपन्यास |
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प्रतिज्ञा
अध्याय-17
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अध्याय-17
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दाननाथ जब अमृतराय के बँगले के पास पहुँचे तो सहसा उनके कदम रुक गए, हाते के अंदर जाते हुए लज्जा आई। अमृतराय अपने मन में क्या कहेंगे? उन्हें यही खयाल होगा
कि जब चारों तरफ ठोकरें खा चुके और किसी ने साथ न दिया, तो यहाँ दौड़े हैं, वह इसी संकोच में फाटक पर खड़े थे कि अमृतराय का बूढ़ा नौकर अंदर से आता दिखाई दिया।
दाननाथ के लिए अब वहाँ खड़ा रहना असंभव था। फाटक में दाखिल हुए। बूढ़ा इन्हें देखते ही झुक कर सलाम करता हुआ बोला - 'आओ भैया, बहुत दिनन माँ सुधि लिहेव। बाबू
रोज तुम्हार चर्चा कर-कर पछतात रहे। तुमका देखि के फूले न समैहें। मजे में तो रह्यो - जाए के बाबू से कह देई।'
यह कहता हुआ वह उल्टे पाँव बँगले की ओर चला। दाननाथ भी झेंपते हुए उनके पीछे-पीछे चले। अभी वह बरामदे में भी न पहुँच पाए थे कि अमृतराय अंदर से निकल आए और
टूट कर गले मिले।
दाननाथ ने कहा- 'तुम मुझसे बहुत नाराज होगे।'
अमृतराय ने दूसरी ओर ताकते हुए कहा - 'यह न पूछो दानू, कभी तुम्हारे ऊपर क्रोध आया है, कभी दया आई है। कभी दुःख हुआ है, कभी आश्चर्य हुआ है, कभी-कभी अपने
ऊपर भी क्रोध आया है। मनुष्य का हृदय कितना जटिल है इसका सबक मिल गया। तुम्हें इस समय यहाँ देख कर भी मुझे इतना आनंद नहीं हो रहा है, जितना होना चाहिए। संभव
है, यह भी तुम्हारा क्षणिक उद्गार ही हो। हाँ, तुम्हारे चरित्र पर मुझे कभी शंका नहीं हुई। रोज तरह-तरह की बातें सुनता था, पर एक क्षण के लिए भी मेरा मन
विचलित नहीं हुआ। यह तुमने क्या हिमाकत की कि कॉलेज से छुट्टी ले ली। छुट्टी कैंसिल करा लो और कल से कॉलेज जाना शुरू करो।'
दाननाथ ने इस बात का कुछ जवाब न दे कर कहा - 'तुम मुझे इतना बता दो कि तुमने मुझे क्षमा कर दिया या नहीं? मैंने तुम्हारे साथ बड़ी नीचता की है।'
अमृतराय ने मुस्करा कर कहा - 'संपत्ति पा कर नीच हो जाना स्वाभाविक है भाई, तुमने कोई अनोखी बात नहीं की। जब थोड़ा-सा धन पा कर लोग अपने को भूल जाते हैं, तो
तुम प्रेमा-जैसी साक्षात लक्ष्मी पा कर क्यों न भूल उठते!'
दाननाथ ने गंभीर भाव से कहा - 'यही तो मैंने सबसे बड़ी भूल की। मैं प्रेमा के योग्य न था।'
अमृतराय - 'जहाँ तक मैं समझता हूँ प्रेमा ने तुम्हें शिकायत का कोई अवसर न दिया होगा।'
दाननाथ - 'कभी नहीं, लेकिन न जाने क्यों शादी होते ही मैं शक्की हो गया। मुझे बात-बात पर संदेह होता था कि प्रेमा मन में मेरी उपेक्षा करती है। सच पूछो तो
मैंने उसको जलाने और रुलाने के लिए तुम्हारी निंदा शुरू की। मेरा दिल तुम्हारी तरफ से हमेशा साफ रहा।'
अमृतराय - 'मगर तुम्हारी यह चाल उल्टी पड़ी, क्यों? किसी चतुर आदमी से सलाह क्यों न ली। तुम मेरे यहाँ लगातार एक हफ्ते तक दस-ग्यारह बजे तक बैठते और मेरी
तारीफों के पुल बाँध देते, तो प्रेमा को मेरे नाम से चिढ़ हो जाती, मुझे यकीन है।'
दाननाथ - 'मैंने तुम्हारे ऊपर चंदे के रुपए हजम करने का इल्जाम लगाया, हालाँकि मैं कसम खाने को तैयार था कि वह सर्वथा मिथ्या है।'
अमृतराय - 'मैं जानता था।'
दाननाथ - 'मुझे तुम्हारे ऊपर यहाँ तक आक्षेप करने में संकोच न हुआ कि...'
अमृतराय - 'अच्छा चुप रहो भाई, जो कुछ किया अच्छा किया, इतना मैं तब भी जानता था कि अगर कोई मुझ पर वार करता तो तुम पहले सीना खोल कर खड़े हो जाते। चलो,
तुम्हें आश्रम की सैर कराऊँ।'
दाननाथ - 'चलूँगा, मगर मैं चाहता हूँ, पहले तुम मेरे दोनों कान पकड़ कर खूब जोर से खींचो और दो-चार थप्पड़ जोर-जोर से लगाओ।'
अमृतराय - 'इस वक्त तो नहीं, पर पहले कई बार जब तुमने शरारत की तो ऐसा क्रोध आया कि गोली मार दूँ, मगर फिर यही ख्याल आ जाता था कि इतनी बुराइयों पर भी औरों
से अच्छे हो। आओ चलो, तुम्हें आश्रम की सैर कराऊँ। आलोचना की दृष्टि से देखना। जो बात तुम्हें खटके, जहाँ सुधार की जरूरत हो, फौरन बताना।'
दाननाथ - 'पूर्णा भी तो यहीं आ गई है! उसने उस विषय में कुछ और बातें की?'
अमृतराय - 'अजी उसकी न पूछो, विचित्र स्त्री है। इतने दिन आए हुए, मगर अभी तक रोना नहीं बंद हुआ! अपने कमरे से निकलती ही नहीं। मैं खुद कई बार गया, कहा -
'जो काम तुम्हें सबसे अच्छा लगे, वह अपने जिम्मे लो, मगर हाँ या ना कुछ उसके मुँह से निकलती ही नहीं। औरतों से भी नहीं बोलती। खाना दूसरे-तीसरे वक्त बहुत
कहने से खा लिया। बस, मुँह ढाँपे पड़ी रहती है। मैं चाहता हूँ कि और स्त्रियाँ उसका सम्मान करें, उसे कोई अधिकार दे दूँ, किसी तरह उस पर प्रकट हो जाए कि एक
शोहदे की शरारत ने उसका बाल भी बाँका नहीं किया, उसकी इज्जत जितनी पहले थी, उतनी ही अब भी है, पर वह कुछ होने नहीं देती, तुम्हारा उससे परिचय है न?'
दाननाथ - 'बस दो-एक बार प्रेमा के साथ बैठे देखा है। इससे ज्यादा नहीं।'
अमृतराय - 'प्रेमा ही उसे ठीक करेगी। जब दोनों गले से मिल लेंगी और पूर्णा उससे अपना सारा वृत्तांत कह लेगी तब उसका चित्त शांत हो जाएगा। उसकी विवाह करने की
इच्छा हो, तो एक-से-एक धनी-मानी वर मिल सकते हैं। दो-चार आदमी तो मुझी से कह चुके हैं। मगर पूर्णा से कहते हुए डरता हूँ कि कहीं बुरा न मान जाए। प्रेमा उसे
ठीक कर लेगी। मैंने यदि सिंगल रहने का निश्चय न कर लिया होता और वह जाति-पाँति का बंधन तोड़ने पर तैयार हो जाती तो मैं भी उम्मीदवारों में होता।'
दाननाथ - 'उसके हसीन होने में तो कोई शक ही नहीं।'
अमृतराय - 'मुझे तो अच्छे-अच्छे घरों में ऐसी सुंदरियाँ नहीं नजर आतीं।'
दाननाथ - 'यार तुम रीझे हुए हो, फिर क्यों नहीं ब्याह कर लेते। सिंगल रहने का ख्याल छोड़ो। बुढ़ापे में परलोक की फिक्र कर लेना। मैंने भी तो यही नक्शा तैयार
कर लिया है। मेरी समझ में यह नहीं आता कि विवाह को लोग क्यों सार्वजनिक जीवन के लिए बाधक समझते हैं। अगर ईसा, शंकर और दयानंद अविवाहित थे, तो राम, कृष्ण,
शिव और विष्णु गृहस्थी के जुए में जकड़े हुए थे।'
अमृतराय ने हँस कर कहा - 'व्याख्यान पूरा कर दो न! अभी कुछ दिन हुए आप ब्रह्मचर्य के पीछे पड़े हुए थे। इसी को मनुष्य के जीवन का पूर्ण विकास कहते थे और आज
आप विवाह के वकील बने हुए हैं तकदीर अच्छी पा गए न!'
दाननाथ ने त्योरी चढ़ा कर कहा - 'मैंने कभी अविवाहित जीवन को आदर्श नहीं समझा। वह आदर्श हो ही कैसे सकता है? अस्वाभाविक वस्तु कभी आदर्श नहीं हो सकती।'
अमृतराय - 'अच्छा भाई, मैं ही भूल कर रहा हूँ। चलते हो कहीं? हाँ, आज तुम्हें शाम तक यहाँ रहना पड़ेगा। भोजन तैयार हो रहा है। भोजन करके जरा लेटेंगे, खूब
गप-शप करेंगे, फिर शाम को दरिया में बजरे का आनंद उठाएँगे। वहाँ से लौट कर फिर भोजन करेंगे, और तब तुम्हें छुट्टी मिल जाएगी। ईश्वर ने चाहा तो आज ही प्रेमा
देवी मुझे कोसने लगेंगी।'
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