सोवियत शासन के प्रथम परिचय ने मेरे मन को खास तौर से आकर्षित किया है, यह
मैं पहले ही कह चुका हूँ। इसके कई विशेष कारण हैं और वे आलोचना के योग्य हैं।
रूस की जिस तसवीर ने मेरे हृदय में मूर्ति धारण की है, उसके पीछे भारत की
दुर्गति का काला परदा पटक रहा है, हमारी इस दुर्गति के मूल में जो इतिहास है,
उससे हम एक तत्व पर पहुँच सकते हैं, और उस तत्व पर गहरा विचार करने से आलोच्य
विषय में मेरे क्या भाव हैं, यह सहज ही समझा जा सकता है।
भारतवर्ष में मुस्लिम शासन के विस्तार के भीतर जो आकांक्षा थी, वह थी
राज-महिमा की प्राप्ति। उस जमाने में हमेशा राज्य को ले कर युद्ध हुआ करते थे,
और उसकी जड़ में थी राज्य करने की इच्छा। किसी जमाने में ग्रीस का सम्राट
सिकंदर धूमकेतु की अग्निशिखा-सी चमकती हुई पूँछ की तरह अपनी सेना को ले कर जो
विदेश के आकाश में विचरण करता हुआ अपना मार्ग साफ करता रहा था, वह सिर्फ अपना
प्रताप फैलाने के लिए ही। रोम सम्राटों की भी यही प्रवृत्ति थी। फिनिश लोग
समुद्रों के किनारे-किनारे वाणिज्य करते रहे, पर राज्य की छीना-झपटी से वे दूर
ही रहे।
एक दिन यूरोप के वणिकों के जहाज जब पू्र्व महादेश के घाटों पर आ-आ कर जमा
होने लगे, तब के संसार में मानव समाज के इतिहास में एक नया अध्याय क्रमशः प्रकट
होने लगा, क्षात्र युग चला गया, वैश्य युग ने पदार्पण किया। इस युग में वणिकों
का दल विदेशों में पहुँच कर वहाँ के बाजारों के पिछवाड़े में अपना राज्य स्थापन
करने लगा। मुख्यतः वे मुनाफे के अंकों को बढ़ाना चाहते थे -- वीर बन कर सम्मान
प्राप्त करना उनका लक्ष्य न था। इस काम के लिए उन्होंने अनेक तरह के कुटिल
हथकंडों से काम लिया और उसके लिए वे जरा भी लज्जित नहीं थे। कारण, वे चाहते थे
सिद्धि --कीर्ति से उन्हें कोई मतलब नहीं था।
उस समय भारतवर्ष अपने विपुल ऐश्वर्य के लिए संसार में प्रसिद्ध था, इस बात
की घोषणा उस जमाने के विदेशी ऐतिहासिक गण बार-बार कर गए हैं। यहाँ तक कि स्वयं
क्लाइव ने कहा है -- 'भारतवर्ष की समृद्धि के विषय में जब विचार करता हूँ तो
मैं अपने अपहरण-नैपुण्य के संयम से आप ही विस्मित हो जाता हूँ।' इतना विपुल
धन-ऐश्वर्य, यह कभी भी सहज में नहीं हो सकता -- भारतवर्ष ने इसे स्वयं ही
उत्पन्न किया था। तब विदेश से आ कर जो यहाँ के राज्यासन पर बैठे थे, उन्होंने
इस धन-ऐश्वर्य का भोग किया, पर इसे नष्ट नहीं किया। अर्थात वे भोगी थे, किंतु
वणिक न थे।
उसके बाद वाणिज्य के मार्ग को सुगम करने के लिए विदेशी वणिकों ने अपने
कारोबार की गद्दी पर राज्य का तख्त बिठाया। समय उनके अनुकूल था। तब मुगल राज्य
में घुन लगना शुरू हो गया था, मरहठे और सिख मुगल साम्राज्य की मजबूत जंजीर की
कड़ियों को काटने में लगे हुए थे। इतने में अंगरेजों का हाथ लगते ही वह
छिन्न-भिन्न हो कर ध्वंस रास्ते पर चला गया।
और भी प्राचीन काल में जब राज-गौरव के लोलुप इस देश में राज्य करते थे, तब
यहाँ अत्याचार, अन्याय और अव्यवस्था थी ही नहीं, यह बात नहीं कही जा सकती, मगर
फिर भी वे थे इस देश के ही अंग। उनके पैने नाखूनों से देश के शरीर पर जो दाग या
घाव-से पड़ गए थे, सिर्फ चमड़े पर ही थे, रक्तपात भी काफी हुआ था, मगर उससे
अस्थि-बंधन ढीले नहीं हुए। धन-उत्पादन के विचित्र कार्य उस समय ज्यों के त्यों
चल रहे थे, यहाँ तक कि नवाबों-बादशाहों की तरफ से भी उनमें सहारा मिला था। अगर
ऐसा न होता, तो यहाँ विदेशी वणिकों की भीड़ इतनी न जमने पाती -- मरुभूमि में
टिड्डियों का क्या काम?
उसके बाद भारत में वाणिज्य और साम्राज्य के अशुभ संगम-काल में वणिक राजा देश
के धन-कल्पतरु की जड़ को किस तरह खोदने लगे, इसका इतिहास सैकड़ों बार कहा हुआ
और अत्यन्त कर्णकटु है, परंतु पुराना होने से उसे विस्मृति के ढकने से ढका नहीं
जा सकता। इस देश की वर्तमान असह्य दरिद्रता की भूमिका तो वहीं से है। भारतवर्ष
किसी दिन धन-महिमा में सर्वोपरि था, परंतु उसकी वह महिमा न जाने किस वाहन पर
बैठ कर द्वीपांतर को चली गई -- अगर हम इस बात को भूल जाएँ, तो संसार की आधुनिक
राजनीति की प्रेरणाशक्ति बल-वीर्य का अभिमान नहीं है, वह है धन का लोभ, और इस
तत्व को हमें याद रखना चाहिए। राजगौरव के साथ प्रजा का एक मानसिक संबंध रहता
है, किंतु धन-लोभ के साथ वह रह ही नहीं सकता। धन निर्मम है, निर्दय है,
निर्वैयक्तिक है। जो मुर्गियाँ सोने के अंडे देती है, लोभ सिर्फ उसके अंडों को
ही टोकरी में उठा ले जाता हो, सो बात नहीं, वह मुर्गी तक को जिबह कर डालता है।
वणिक राज के लोभ ने भारत की धन उत्पादकारी विचित्र शक्ति को ही पंगु कर दिया
है। बची है सिर्फ कृषि, नहीं तो कच्चे माल का पाना उनके लिए बंद हो जाता और
विदेशी माल के बाजार में हमारी मूल्य देने की शक्ति बिलकुल ही नष्ट हो जाती।
भारत की रोजमर्रा की जीविका इस अत्यंत क्षीण वृंत पर अवलंबित है। यह बात मान
लेते हैं कि उस जमाने में जिस निपुणता और जिन तरीकों से हाथ का काम चलता था और
कारीगर लोग जिससे अपनी गुजर करते थे, मशीनरी की प्रतियोगिता में वे अब अपने आप
निष्क्रिय हो गए हैं, इसलिए प्रजा की रक्षा के लिए यह बहुत ही आवश्यक था कि हर
तरह से उन्हें यंत्र-कुशल बना दिया जाए। जान बचाने के लिए सभी देशों में आज यह
उद्योग प्रबल है। जापान ने थोड़े ही समय के अन्दर धन के यंत्र-वाहन को अपने
काबू में कर लिया है। अगर वह ऐसा न करता तो 'यंत्र-संपन्न यूरोप' के षड्यन्त्र
से वह धन और प्राण, दोनों से ही हाथ धो बैठता। हमारे भाग्य में वह भी नहीं बदा
था, क्योंकि लोभ ईर्ष्यालु होता है। उस जबरदस्त लोभ के मारे हमारे धन-प्राण
सूखे जा रहे हैं, उसके बदले राजा हमें सांत्वना देने के लिए कहते हैं, 'अब जो
धन-प्राण थोड़ा-बहुत बाकी बचा है, उसकी रक्षा के लिए कानून और चौकीदारों की
व्यवस्था का भार हम पर रहा। सो हम अपने अन्न-वस्त्र और विद्या-बुद्धि को गिरवी
रख कर मौत के किनारे खड़े हुए चौकीदारों की वर्दी का खर्च जुटा रहे हैं। यह जो
घातक उपेक्षा या उदासीनता है, इसकी जड़ में है लोभ। सब तरह की ज्ञान शक्ति और
कर्म शक्ति का जहाँ झरना या पीठस्थान है, वहाँ बहुत नीचे खड़े हुए अब तक हम
मुँह बाए ऊपर ही की ओर देखते आ रहे हैं, और उस ऊर्ध्वलोक से बराबर यही आकाशवाणी
सुनते आ रहे हैं -- 'तुम्हारी शक्ति यदि क्षय हो रही है, तो तुम्हें डर किस बात
का। हमारे पास शक्ति है, हम तुम्हारी रक्षा करेंगे।''
जिसके साथ लोभ का संबंध है, उससे मनुष्य मतलब साधता है, कभी भी उसका सम्मान
नहीं करता। और जिसका सम्मान नहीं करता, उसकी माँग को वह जहाँ तक बनता है, छोटा
बनाए रखता है। अंत में वह असम्मानित मनुष्य इतना ज्यादा सस्ता हो जाता है कि
उसके बड़े से बड़े अभाव में भी थोड़ा-सा खर्च करना उनको खटकने लगता है, जो
बराबर उससे अपना मतलब गाँठते रहे हैं। हमारे प्राण और मनुष्यत्व की रक्षा के
लिए कितना कम दिया जाता है, इस बात को सभी जानते हैं। खाने के लिए अन्न नहीं,
जानने के लिए विद्या नहीं, इलाज के लिए वैद्य नहीं, पीने के लिए पानी निकालना
पड़ता है कीच छान कर, फिर भी हमारे चारों तरफ चौकीदारों का जमघट है, और है मोटी
तनख्वाह पानेवाले अफसरों की भीड़, जिनका वेतन गल्फ स्ट्रीम की तरह सब चला जाता
है ब्रिटिश द्वीप के शीत निवारण के लिए और अंत में उनकी पेंशन चुकानी पड़ती है
हमें अपनी अंत्येष्टि क्रिया के खर्च में से। इसका एकमात्र कारण है -- लोभ अंधा
है, लोभ निष्ठुर है। भारत भारतेश्वरों के लोभ की सामग्री है फिर भी कठिन वेदना
की अवस्था में भी, इस बात को मैं कभी अस्वीकार न करूँगा कि अंग्रेजों के स्वभाव
में उदारता नहीं है, विदेशी शासन कार्य में अन्य यूरोपियनों का व्यवहार
अंग्रेजों से भी कृपण और निष्ठुर है। अंग्रेज जाति और उसकी शासन नीति के संबंध
में वचन और आचरण से हम जैसा विरोध प्रकट करते हैं, और किसी जाति के शासनकर्ताओं
के संबंध में वैसा करना संभव न होता, और यदि होता भी तो उसकी दंड नीति और भी
बढ़ कर असह्य होती, खास यूरोप में, यहाँ तक कि अमेरिका में भी, इसके प्रमाणों
का अभाव नहीं है। प्रकाश्य रूप से विद्रोह की घोषणा करते समय भी, राजपुरुषों
द्वारा पीड़ित किए जाने पर हम सब विस्मय करते हैं, तब प्रमाणित हो जाता है कि
अंग्रेज जाति के प्रति हमारी मूढ़ श्रद्धा मार खाते-खाते भी मरना नहीं चाहती।
अपने देशी राजा या जमींदारों से हमें और भी कम आशा है।
इंग्लैंड में रहते समय एक बात पर मैंने लक्ष्य किया है कि भारत में दिए गए
दंडों के विषय में ग्लानिजनक कोई समाचार वहाँ के अखबारों में नहीं पहुँच पाते।
इसका एकमात्र कारण यह नहीं है कि वे डरते हैं कि कहीं यूरोप या अमेरिका में
उनकी निंदा न होने लगे। वास्तव में कड़े अंग्रेज शासनकर्ता अपनी ही जाति की
शुभबुद्धि से डरते हैं। अंग्रेजों के लिए छाती ठोंक कर यह कहना कि 'अच्छा किया
है, ठीक किया है, जरूरत थी जबरदस्ती करने की' सहज नहीं है। कारण, अंग्रेजों में
उदार हृदय मौजूद हैं। भारत के संबंध में सच्ची बातें बहुत कम अंग्रेज जानते
हैं। वे अपने को धिक्कारें तो किस बात पर, उसके कारण तो उन तक पहुँचते ही नहीं।
यह सच है कि जिसने भारत का नमक बहुत दिनों तक खाया है, उसका अंग्रेजी यकृत और
हृदय कलुषित हो गया है, फिर भी दुर्भाग्य से वे ही हमारे 'अथॉरिटी' हैं।
भारत में वर्तमान आंदोलन के समय जो दमन चक्र चलाया गया है, उसके विषय में
हमारे भाग्य-विधाताओं का कहना है कि वह बहुत ही मामूली था। इस बात को मानने के
लिए हम बिलकुल तैयार नहीं हैं, किंतु अतीत और वर्तमान शासन नीति में तुलना करने
से उनकी बात को अत्युक्ति नहीं कहा जा सकता। हमने मार खाई है, अन्यायपूर्ण मार
भी काफी खाई है, और सबसे बढ़ कर कलंक की बात है गुप्त मार, उसकी भी कमी कभी
नहीं रही। यह भी कहना पड़ेगा कि अधिकांश मौकों पर महात्म्य उनका है, जिन्होंने
मार खाई है, जिन्होंने मारा है, उन्होंने अपना सम्मान ही खोया है परंतु साधारण
राज्य शासन नीति के आदर्श के अनुसार हमारी मार की मात्रा अवश्य ही बहुत कम कही
जा सकती है। खासकर जबकि हमसे उनका रक्त का कोई संबंध नहीं था, और दूसरे, समस्त
भारतवर्ष को 'जलियाँवाला बाग' बना डालना बाहुबल की दृष्टि से उनके लिए कोई
असंभव बात नहीं थी। अमेरिका की समग्र नीग्रो जातियुक्त राज्य से अपना संबंध
त्यागने के लिए स्पर्धापूर्वक आंदोलन करने में जुट जाती, तो कैसे वीभत्स रूप से
खून की नदियाँ बहतीं, इस वर्तमान शांति की अवस्था में भी उसका अनुमान करने में
ज्यादा कल्पना-शक्ति की जरूरत नहीं पड़ेगी। इसके सिवा इटली आदि में जो हुआ है,
उस विषय में आलोचना करना ही व्यर्थ है।
परंतु इससे सांत्वना नहीं मिलती। जो मार लाठी के सिरे पर है, वह मार दो दिन
बाद थक जाती है, यहाँ तक कि क्रमशः उसका स्वयं लज्जित होना कोई असंभव बात नहीं।
परंतु जो मार भीतर ही भीतर अपना काम करती रहती है, वह तो ज्यों की त्यों बनी
रहती है, उसका लोप होता ही नहीं। समस्त जाति को उसने भीतर ही भीतर कंगाल कर
दिया है, शताब्दियाँ बीत गईं, उसकी गति रुकी नहीं। क्रोध की मार रुकती है, पर
लोभ की मार का अंत नहीं।
'टाइम्स' के साहित्यिक सप्लीमेंट में देखा था, लेखक ने लिखा है, 'भारत में
दरिद्रता का मूल कारण है वहाँ के लोगों का बिना विचारे विवाह करना और उससे अधिक
प्रजा का उत्पन्न होना।' इसका भीतरी भाव यह है कि देश के बाहर से जो शोषण कार्य
चल रहा है, वह इतना दुःसह न होता, यदि थोड़े अनाज से थोड़े-से आदमी हँड़िया
पोंछ-पोंछ कर अपनी गुजर कर लेते। सुनते हैं, इंग्लैंड में सन 1871 से ले कर
1921 तक 66 फी सदी आदमियों की वृद्धि हुई है। भारत में पचास वर्ष की
प्रजावृद्धि का औसत 33 फीसदी है। फिर एक ही मुहूर्त की यात्रा में पृथक फल
क्यों हुआ? इससे मालूम होता है कि मूल कारण जनवृद्धि नहीं, बल्कि मूल कारण
जीविका का अभाव है। इसका मूल कहाँ है?
जो देश पर शासन करते हैं और जो प्रजा उनके द्वारा शासित होती है, दोनों का
भाग्य यदि एक-सा हो, तो कम से कम खाने-पहनने के विषय में शिकायत नहीं हो सकती।
अर्थात सुभिक्ष और दुर्भिक्ष में दोनों ही लगभग समान ही भाग लेते हैं। परंतु
जहाँ कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष के बीच महालोभ और महासमुद्र का व्यवधान है, वहाँ
अमावस्या की और विद्या, स्वास्थ्य, सम्मान और संपदा की कंजूसी दूर नहीं हो
सकती, और उस पर भी मजा यह कि निशीथ के चौकीदारों के हाथ में सर्चलाइट का आयोजन
बढ़ता ही जाता है। इस बात पर विचार करने के लिए आंकड़ों की बहुत ज्यादा
नुक्ताचीनी की जरूरत नहीं पड़ती कि आज एक सौ साठ वर्ष से भारत के भाग्य में सब
विषयों में दरिद्रता और ब्रिटेन के भाग्य में सब विषयों में ऐश्वर्य ही ऐश्वर्य
भोग करना बदा है। इसका यदि एक पूरा चित्र अंकित करना चाहूँ, तो बंगाल में जो
किसान सन उत्पन्न करते हैं और सुदूर डंडी (स्कॉटलैंड) में जो उसका मुनाफा उठाते
हैं, दोनों की जीवन-यात्रा का दृश्य पास-पास रख कर देखना पड़ेगा। दोनों में
संबंध है लोभ का और विच्छेद है भोग का। यह भेद डेढ़ सौ वर्ष से बढ़ता ही रहा,
घटा नहीं।
जब से यांत्रिक उपायों से अर्थोपार्जन को बहु-गुना बढ़ाने का रास्ता खुल
गया, तब से मध्य युग का वीर धर्म (शिवलरी) वणिक धर्म में परिणत हो गया। इस भीषण
वैश्य युग की प्रथम सूचना मिली समुदाय के द्वारा विश्व पृथ्वी के आविष्कार के
साथ-साथ। वैश्व युग की आदिम भूमिका है दस्यु वृत्ति में। दास-हरण और धन-हरण की
वीभत्सता से धरित्री उस दिन रो उठी थी। यह निष्ठुर व्यवसाय विशेषतः परदेश में
अधिक चलता था। थोड़े ही दिन हुए, स्पेनवालों ने मेक्सिको में जा कर सिर्फ सोने
की खानें ही नहीं हड़पीं, बल्कि वहाँ की सारी सभ्यता को खून से मिटा डाला। उस
रक्त-मेघ की आँधी पश्चिम से भिन्न-भिन्न झोंकों में भारत में आने लगी। उसका
इतिहास कहना अनावश्यक है। धन-संपदा का स्रोत पूर्व दिशा से पश्चिम की ओर मुड़ा।
उसके बाद से पृथ्वी पर कुबेर का सिंहासन स्थायी बन गया। विज्ञान ने घोषणा कर
दी कि यंत्र का नियम ही विश्व का नियम है, बाह्य सिद्धि-लाभ के अतिरिक्त कोई
नित्य सत्य नहीं है। प्रतियोगिता की उग्रता सर्वव्यापी होने लगी, दस्यु वृत्ति
को भद्रवेश में सम्मान मिलने लगा। लोभ के प्रकट और गुप्त रास्तों से कारखानों
में, खानों में और बड़ी-बड़ी खेतियों में छद्मनामधारी दास वृत्ति, मिथ्याचार और
निर्दयता कैसी हिंसक बन गई है, इस विषय में जो लोग रुपया कमाते हैं और जो लोग
उन्हें उस काम में मदद देते हैं अर्थात धनी और मजदूरों में बहुत दिनों से विरोध
चल रहा है। मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है समाज। लोभ ही उस धर्म का सबसे बड़ा
घातक है। इस युग में एकमात्र लोभ ही मनुष्य के समाज को झकझोर कर उसके संबंध
बंधनों को शिथिल और विच्छिन्न करता जा रहा है।
एक देश में एक ही जाति के भीतर यह निर्मम धनार्जन का लोभ जो भेद खड़ा कर
देता है, उसमें दुख चाहे जितना भी हो, परंतु फिर भी वहाँ सुयोग का दरवाजा सबके
लिए समान रूप से खुला रहता है। शक्ति में पार्थक्य हो सकता है, पर अधिकार में
रोक नहीं है। धन की चक्की में आज जो वहाँ पीसा जा रहा है, कल ही वह पीसनेवाला
बन सकता है। सिर्फ इतना ही नहीं, बल्कि वहाँ जो धनियों के पास धन इकट्ठा होता
है, अनेक प्रकारों से देश के सभी लोगों में उसका कुछ न कुछ अंश अपने आप ही बँट
जाता है। व्यक्तिगत संपत्ति पर जातीय संपत्ति का भार कुछ न कुछ रहता ही है।
सर्वसाधारण के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन तथा अनेक तरह के हितकर कार्य --
इन सब के लिए काफी रुपयों की जरूरत होती है, और देश की इन समस्त विचित्र माँगों
को चाहे इच्छा से हो या अनिच्छा से, लक्ष्यता हो चाहे अलक्ष्यता -- धनी लोग
पूरा करते ही रहते हैं।
परंतु भारत के जिस धन से विदेशी वणिक या राज-कर्मचारी धनी होते हैं, उसका कम
से कम उच्छिष्ट -- जो नहीं के बराबर होता है -- भारत के हिस्से में पड़ता है।
सन पैदा करनेवाले किसानों की शिक्षा और स्वास्थ्य का अभाव प्यासे चातक की तरह
मुँह बाए पड़ा रहता है, विदेश को जानेवाले मुनाफे में से उसे कुछ भी नहीं
मिलता। जो कुछ गया, वह बिलकुल गया -- उसमें से कुछ लौट नहीं सकता। सन की खेती
और उसमें से मुनाफा उठाने के लिए ही गाँव के तालाब दूषित किए जाते हैं, किंतु
फिर भी असह्य जल कष्ट को दूर करने में विदेशी महाजनों की भरी जेब में से एक पाई
भी नहीं निकलती। यदि पानी की व्यवस्था की भी गई, तो उसका सारा खर्च टैक्स के
रूप में उन्ही वणिकों द्वारा चूसे जाने वाले गरीब भूखे किसानों को ही देना
पड़ता है। सर्वसाधारण को शिक्षा देने के लिए राजकोष में रुपए नहीं हैं। क्यों
नहीं हैं? इसका मुख्य कारण है, काफी रुपया भारत को संपूर्णतः त्याग कर बाहर चला
जाता है। यह है लोभ का रुपया, जिससे अपना रुपया भी पूरी तरह से दूसरे का हो
जाता है, अर्थात पानी सूखता है इस पार के तालाब का और बादल हो कर उसकी वर्षा
होती है उस पार के देशों में। उस देश के अस्पतालों और विद्यालयों के लिए यह
अभागा, अशिक्षित, अस्वस्थ, मुमुर्षु भारतवर्ष हमेशा अप्रत्यक्ष रूप से रसद
जुटाता आ रहा है।
देशवासियों की शारीरिक और मानसिक अवस्था का चरम दुख-दृश्य बहुत दिनों से
अपनी आँखों से देखता आ रहा हूँ। दरिद्रता से मनुष्य सिर्फ मरता ही नहीं, बल्कि
अपने को अवज्ञा के योग्य बना लेता है, इसीलिए जान साइमन ने कहा है :
इन ऑवर व्यू द मोस्ट फ़ॉर्मिडेबिल ऑफ़ द इविल्स फ्राम व्हिच इंडिया इज
सफ़रिंग हैव देअर रूट्स इन सोशल एंड इकोनॉमिक कस्टम्स ऑफ़ लाँग स्टैंडिंग व्हिच
कैन ओनली बी रेमीडीड बाइ द ऐक्शन ऑफ़ द इंडियन पीपुल्स देमसेल्व्स।
यह अवज्ञा की बात है। भारत की आवश्यकताओं पर वे जिस आदर्श से विचार कर रहे
हैं, वह उनका अपना आदर्श नहीं है। अधिक से अधिक धन-संपत्ति उपार्जन करने के लिए
जैसी शिक्षा, जैसी सुविधाएँ, जैसी स्वाधीनता उन्हें प्राप्त है, जिन सुविधाओं
से उनकी जीवन-यात्रा का आदर्श ज्ञान-क्रम, भोग आदि अनेक दिशाओं से काफी पुष्ट
हो चुका है, जीर्ण वस्त्र, शीर्ण शरीर, रोग-क्लांत, शिक्षा-वंचित भारत के लिए
वैसी शिक्षा, वैसी स्वाधीनता और वैसी सुविधाओं के आदर्श को वे कल्पना में भी
नहीं लाते, बल्कि वे तो यह चाहते हैं कि हम किसी तरह अपनी संख्या वृद्धि को रोक
कर दिन काटें और खर्च घटाएँ और अपनी आजीविका का गला घोंट कर उनकी जीविका का जो
बढ़ा हुआ आदर्श है, उसका भारी बोझ हमेशा ढोते रहें, जिससे वह ज्यों का त्यों
बना रहे। इससे ज्यादा कुछ विचारने की जरूरत नहीं है, अतएव इलाज की पूरी
जिम्मेदारी हमारे ही हाथ में है, जिन लोगों ने इलाज को दुःसाध्य कर डाला है,
उनके लिए विशेष कुछ करने को नहीं है।
मनुष्य और विधाता के विरुद्ध इन सब अभियोगों को स्थगित रख कर ही मैं अंतरंग
दृष्टि से अपने निर्जीव गाँवों में प्राण संचार करने के लिए अपनी अत्यंत
क्षुद्र शक्ति का कुछ दिनों से प्रयोग कर रहा हूँ। इस कार्य में सरकार की
अनुकूलता की मैंने उपेक्षा नहीं की, बल्कि उसकी मैंने इच्छा ही की है। परंतु
कुछ फल नहीं मिला। कारण, वहाँ दर्द नहीं है, सहानुभूति नहीं है। और दर्द होना
संभव भी नहीं। कारण, हमारी अक्षमता ने, हमारी हर तरह की दुर्दशा ने हमारी माँग
को बहुत कमजोर बना दिया है। देश के किसी भी यथार्थतः करने योग्य कार्य में
सरकार के साथ हमारे कार्यकर्ता का उचित सहयोग-संबंध हो, यह मुझे तो असंभव-सा
मालूम होता है। इसलिए यही तय रहा कि चौकीदारों की वर्दी का खर्च पूरा करके
हमारे पास जितनी भी कौड़ियाँ बचें, उनसे जो काम हो सकता है, उतना ही काम करें।
मैं ऐसे समय में रूस गया था, जब कि भारत के राजकीय लोभ और उससे उत्पन्न
असह्य उदासीनता के रूप ने मेरे हृदय में निराशा का अंधकार फैला रखा था। यूरोप
के अन्यान्य देशों में ऐश्वर्य का काफी आडंबर देखा है। वह इतना अधिक ऊँचा है कि
ईर्ष्या भी उसकी ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकती। रूस में भोग का वैसा समारोह बिलकुल
नहीं, शायद इसीलिए उसका भीतरी स्वरूप देखना सहज था।
भारतवर्ष जिससे बिलकुल ही वंचित है, यहाँ उसी के आयोजन को सर्वव्यापी बनाने
का प्रबल प्रयास हो रहा है, और उसे मैंने अपनी आँखों से देखा है। कहना न होगा
कि मैंने अपनी उस बहुत दिनों की भूखी दृष्टि से सब देखा है। पश्चिम महादेश के
अन्य किसी भी स्वाधिकार-सौभाग्यशाली देशवासी की दृष्टि में यह दृश्य कैसा
लगेगा, इस बात पर ठीक-ठीक विचार करना मेरे लिए संभव नहीं। अतीत में भारत का
कितना धन ब्रिटिश द्वीप को रवाना हो गया है और वर्तमान में नाना प्रणालियों से
प्रति वर्ष कितना जा रहा है, इस विषय में आँकड़ा-संबंधी तर्क मैं नहीं करना
चाहता। परंतु मैं तो स्पष्ट देख रहा हूँ और बहुत-से अंग्रेज भी इस इस बात को
स्वीकार करते हैं कि हमारे देश का शरीर रक्तहीन हो गया है और उसका हृदय बिलकुल
दब गया है, जीवन में न तो आनंद है, न सुख, हम भीतर-बाहर सब तरह से मर रहे हैं,
और इसका मूल कारण यह है कि भारतवासी स्वयं ही मर्मगत अपराध के साथ संश्लिष्ट
हैं, अर्थात कोई भी गवर्नमेंट इसका प्रतिकार करने में अत्यंत असमर्थ है, इस बात
को हम कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे।
इस बात को मैं हमेशा ही महसूस करता आया हूँ कि भारत के साथ जिन विदेशी
शासनकर्ताओं का केवल स्वार्थ का ही संबंध प्रबल है और दर्द या सहानुभूति का
संबंध है ही नहीं, वह गवर्नमेंट अपनी गरज से ही प्रबल शक्ति के द्वारा विधि और
व्यवस्था की रक्षा करने में उत्साहित है, परंतु जिन विषयों में केवल हमारी ही
गरज है, उन विषयों में हमें देश की तन-मन-धन, सब तरह से रक्षा करनी होगी,
क्योंकि वहाँ यथोचित शक्ति प्रयोग करने में यह गवर्नमेंट उदासीन रहेगी। अर्थात
इन विषयों में विदेशी शासक अपने देश के लिए जितने प्रयत्नशील हैं, वहाँ से उनकी
जितनी सहानुभूति और संवेदना है, हमारे देश के लिए उसका सौवाँ अंश भी नहीं है।
मगर फिर भी हमारे धन और प्राण उन्हीं के हाथ में है, और जिन उपायों और उपादानों
से हम विनाश से अपनी रक्षा कर सकते हैं, वे हमारे हाथ में नहीं हैं।
यहाँ तक कि यदि यह बात सच हो कि समाजिक नियमों के विषय में अपनी मूढ़तावश हम
मरने बैठे हैं, तो वह मूढ़ता जिस शिक्षा और जिस उत्साह के द्वारा दूर हो सकती
है, वह शिक्षा भी उसी विदेशी गवर्नमेंट के ही राजकोष और राज-इच्छा पर निर्भर
है। देश-व्यापी अशिक्षाजनित विपत्ति दूर करने के उपाय या तरीके केवल कमीशन की
सलाह-मात्र से नहीं प्राप्त किए जा सकते -- इस विषय में सरकार को उतना ही तत्पर
होना चाहिए, जितना कि ब्रिटेन-द्वीप की समस्या होने पर ब्रिटिश गवर्नमेंट होती।
साइमन कमीशन से हमारा यह प्रश्न है कि यदि बात सच है कि भारत की अज्ञान-अशिक्षा
के अंदर ही इतना बड़ा मृत्युशूल लगा रह कर अब तक रक्तपात कर रहा है, तो आज एक
सौ साठ वर्ष से ब्रिटिश शासन रहते हुए भी वह कुछ अंशों में दूर क्यों नहीं हुआ?
कमीशन ने क्या कभी सांख्य-तथ्य के द्वारा इस बात का हिसाब लगाया है कि पुलिस की
डंडेबाजी के लिए ब्रिटिश सरकार जितना खर्च करती है, उसकी तुलना में देश को
शिक्षित करने में इस लंबे समय में कितना खर्च किया गया है? वास्तव में बात यह
है कि दूर देश के रहनेवाले धनी शासकों के लिए पुलिस को डंडा सौंपे बिना काम
नहीं चल सकता। रही भारतवासियों की बात, तो जिनके सिर की खोपड़ी उस लाठी के
वशीभूत है, उनकी शिक्षा के लिए व्यय का विधान शताब्दियों मुलतवी रखने से भी काम
चल सकता है।
रूस में पैर धरते ही सबसे पहले मेरी दृष्टि पड़ी किसानों और मजदूरों पर, जो
आज से सिर्फ आठ वर्ष पहले भारतीय सर्वसाधारण की तरह ही निःसहाय, निरन्न,
निरक्षर और अत्याचारों से पी़ड़ित थे और अनेक विषयों में जिनका दुखभार हमसे भी
ज्यादा था, उनमें ही आज शिक्षा का प्रचार इन थोड़े ही वर्षों में इतना अधिक हो
गया है कि डेढ़ सौ वर्ष में भी हमारे देश में उच्च श्रेणी के लोगों में उतना
नहीं हुआ। हम अपने दरिद्राणां मनोरथः स्वदेश की शिक्षा के संबंध में जिस दुराशा
का चित्र मरीचिका के पट पर भी नहीं खींच सकते, यहाँ उसका प्रत्यक्ष रूप
दिग्दिगंत तक विस्तृत देखा।
मैं अपने से बार-बार यह प्रश्न करता हूँ कि इतना बड़ा आश्चर्यजनक कार्य हुआ
तो हुआ कैसे? हृदय में इसका उत्तर मुझे यों मिला है कि वहाँ लोभ की बाधा कहीं
नहीं है, इसीलिए हुआ। इस बात को विचारने में कहीं भी खटका नहीं होता कि शिक्षा
के द्वारा सभी मनुष्य यथोचित शक्तिमान हो जाएँगे। दूर एशिया के
तुर्कमेनिस्तान-वासी प्रजाओं को भी पूरी तौर से शिक्षा देने में इनको जरा भी
खटका नहीं, बल्कि प्रबल आग्रह है। वे सिर्फ रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख करके
उदासीन हो कर नहीं बैठे कि तुर्कमेनिस्तान-वासियों के दुख-कष्टों के कारण
उन्हीं की सामाजिक रूढ़ियों में मौजूद हैं।
कोचिन-चायना में शिक्षा विस्तार के बारे में सुना है कि किसी फ्रांसीसी
पांडित्य- व्यवसायी ने कहा है कि भारत में अंग्रेजों ने देशी लोगों को
(भारतीयों को) शिक्षा दे कर जो भूल की है, फ्रांस वैसी भूल वहाँ न कर बैठे। यह
बात माननी ही पड़ेगी कि अंग्रेजों के चरित्र में ऐसा एक महत्व है, जिसके लिए
विदेशी शासन नीति में वे कुछ-कुछ गलतियाँ कर ही बैठते हैं, शासन की गफ बुनावट
में कहीं-कहीं सूत टूट ही जाता है, नहीं तो प्रतिवाद के लिए हमारी जबान खुलने
में शायद और भी एकाध शताब्दी की देर हो जाती।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि शिक्षा के अभाव से ही अशक्ति या
असामर्थ्य अटल बनी रहती है। अतएव अशिक्षा पुलिस के डंडों से कम बलवान नहीं है,
मालूम होता है, लॉर्ड कर्जन ने इस बात को कुछ-कुछ महसूस किया था। शिक्षा देने
के संबंध में उक्त फ्रांसीसी पांडित्य-व्यवसायी अपने देश की आवश्यकताओं या
स्वार्थ का जिस आदर्श से विचार करते हैं, शासित देश की आवश्यकताओं पर उस आदर्श
से विचार नहीं करते। इसका एकमात्र कारण है लोभ। जो लोभ के वाहन हैं, उनके
मनुष्यत्व की वास्तविकता लोभी के लिए अस्पष्ट है, उनकी माँग को हम स्वभावतः ही
कुछ नहीं समझते। जिनके साथ भारत के शासन संबंध हैं, उनके सामने भारत आज डेढ़ सौ
वर्ष से छोटा है -- नाचीज है। इसीलिए उसकी मर्मगत आवश्यकताओं पर ऊपरवालों का
उपेक्षा भाव दूर नहीं हुआ। हम क्या खाते हैं, किस पानी से हमारी प्यास मिट सकती
है, कैसी गहरी अशिक्षा से हमारा चित्त अंधकारपूर्ण है -- इन बातों पर आज तक
अच्छी तरह उनकी दृष्टि नहीं गई। क्योंकि, उनके लिए यही मुख्य बात है कि हम ही
उनकी आवश्यकीय वस्तु हैं, और हमारे लिए भी जीवन संबंधी आवश्यकताएँ हो सकती हैं,
यह बात उनके लिए फालतू है। इसके सिवा हम इतने नाचीज, इतने तुच्छ बने हुए हैं कि
हमारी आवश्यकताओं का सम्मान करना उनके लिए असंभव है। भारत की जैसी कठिन समस्या
है, जिससे कि हम अब तक तन-मन-धन से मर रहे हैं, ऐसी पाश्चात्य देशों में कहीं
भी नहीं है। वह समस्या यह है कि भारत का समस्त स्वत्व दो भागों में बाँट दिया
गया है और सत्यानाशी विभाग के मूल में है लोभ। इसीलिए रूस में आ कर जब इस लोभ
को तिरस्कृत होते देखा, तो उससे मुझे इतना गहरा आनंद हुआ, उतना शायद दूसरे को न
होता। फिर भी मूल बात को मन से अलग नहीं कर सकता, वह यह कि आज जो केवल भारत में
ही नहीं, बल्कि सारे संसार में ही किसी न किसी बड़ी विपत्ति का जाल बिछा दिखाई
देता है, जिसकी प्रेरणा है लोभ। यदि किसी को कोई भय है तो उस लोभ का ही है,
संशय है तो उस लोभ का है, अस्त्र-शस्त्रों की जितनी भी तैयारियाँ हैं, जितना भी
मिथ्याचरण और निष्ठुर राजनीति है, सब लोभ के लिए।
और एक तर्क का विषय है डिक्टेटरशिप यानी राजकीय कार्यों में अधिनायक तंत्र
का झगड़ा। किसी भी विषय में अधिनायकत्व को मैं स्वयं पसंद नहीं करता। हानि या
दंड के भय को आगे रख कर अथवा भाषा तथा हाव-भाव या व्यवहार में जिद पकड़ कर अपने
मत के प्रचार के रास्ते को बिलकुल साफ करने की चेष्टा मैं कभी भी अपने कार्य
क्षेत्र में नहीं कर सका। इसमें संदेह नहीं कि एकनायकत्व में विपत्तियाँ बहुत
हैं, उसकी क्रिया की एकतानता और नित्यता अनिश्चित है, चलानेवाले और चलनेवालों
के बीच इच्छा असंपूर्ण मेल होने के विद्रोह के कारण हमेशा बने ही रहेंगे, इसके
सिवा बलपूर्वक चलाए जाने का अभ्यास चित्त और चरित्र के बल को घटाता है, इसकी
सफलता एक ओर जहाँ बाहर से दो-चार फसलों से अंजलि भर देती है, वहीं दूसरी ओर
उसकी भीतरी जड़ को सुखा देती है।
जनता का भाग्य यदि उनकी सम्मिलित इच्छा के द्वारा ही न बने और न पनपे, तो यह
उसके लिए निरा पिंजड़ा बन जाता है, दाना-पानी वहाँ अच्छा भी मिल सकता है, पर
उसे घोंसला नहीं कहा जा सकता -- वहाँ रहते-रहते उसके पंखों में लकवा मार जाता
है। यह नायकत्व चाहे शास्त्रों में हो, चाहे गुरुओं में और चाहे राष्ट्र नेताओं
में, मनुष्यत्व को हानि पहुँचानेवाला ऐसा उपद्रव और कुछ हो ही नहीं सकता।
हमारे समाज में इस नपुंसकत्व की सृष्टि युगों से होती आई है और इसका फल
रोजमर्रा देखता आया हूँ। महात्मा जी ने जब कहा था कि विदेशी कपड़ा अपवित्र है,
तब मैंने इसका प्रतिवाद किया था, कहा था कि विदेशी कपड़ा आर्थिक दृष्टि से
हानिकर हो सकता है, पर अपवित्र नहीं हो सकता। परंतु हमें तो शास्त्र के आधार पर
चलनेवाले अंध चित्त को समझाना है, नहीं तो काम नहीं हो सकता -- मनुष्यत्व का
ऐसा चिरस्थायी अपमान और क्या हो सकता है? नायक-चालित देश इसी प्रकार मोहाच्छन्न
हुआ करता है -- एक जादूगर जहाँ विदा हुआ वहाँ दूसरा जादूगर आकर नया मंत्र बना
कर लोगों को मोह लेता है।
डिक्टेटरशिप एक आफत है, इस बात को मैं मानता हूँ, और उस आफत से आज रूस में
अनेक अत्याचार हो रहे हैं, इस बात पर भी मैं विश्वास करता हूँ। इसकी दुरर्थक
दिशा जबरदस्ती की दिशा है, वह पाप है। परंतु सदर्थक दिशा, जो कि शिक्षा की दिशा
है, जबरदस्ती से बिलकुल उलटी है।
देश को सौभाग्यशाली बनाने में साधारण जनता का हृदय सम्मिलित होना चाहिए, तभी
उसकी क्रिया सजीव और स्थायी होती है। अपने एकनायकत्व के लोभ में जो लुब्ध हैं,
अपने हृदय को छोड़ कर अन्य समस्त हृदयों को अशिक्षा के द्वारा जड़ बनाए रखना ही
उनकी अभिप्राय-सिद्धि का एकमात्र उपाय है। जार के राजत्व-काल में शिक्षा के
अभाव से जनता मोहाच्छन्न थी, उस पर सर्वव्यापी धर्ममूढ़ता ने अजगर की तरह उसके
चित्त को सैकड़ों लपेटों से जकड़ रखा था। उस मूढ़ता को सम्राट बड़ी आसानी से
अपने काम में लगा सकते थे। उस जमाने में यहूदियों के साथ ईसाइयों का और
मुसलमानों के साथ आरमीनियों का सब तरह का वीभत्स उपद्रव धर्म के नाम पर अनायास
ही हो सकता था। तब ज्ञान और धर्म के मोह से आत्मशक्ति-हीन शिथिल और कई भागों
में विभक्त देश बाहर के शत्रुओं के सामने सहज ही प्रभावित हो गया था। एकनायकत्व
के चिराधिपत्य के लिए ऐसी अनुकूल अवस्था और कोई भी नहीं हो सकती।
पहले जैसी रूस की अवस्था थी, वैसी अवस्था हमारे देश में बहुत दिनों से मौजूद
है। आज हमारा देश महात्मा जी के चालकत्व या नायकत्व के वश में हो गया है, कल वे
नहीं रहेंगे, तब इस नायकत्व के इच्छुक लोग उसी तरह अकस्मात दिखाई देते रहेंगे,
जिस तरह हमारे देश में धर्म-मोहितों के सामने नए-नए अवतार और गुरु जहाँ-तहाँ उठ
खड़े होते हैं। चीन देश में आज नायकत्व को लेकर कुछ सत्ता-लोभी जबरदस्तों में
निरंतर प्रबल संघर्ष चल रहा है। कारण, सर्वसाधारण में वह शिक्षा ही नहीं है,
जिससे वे अपनी सम्मिलित इच्छा के द्वारा देश का भाग्य स्वयं गढ़ सकें, इसीलिए
आज उनका सारा देश नष्ट-भ्रष्ट हुआ जा रहा है। हमारे देश में उस नायक पद को ले
कर तनातनी या छीना-झपटी न होगी, ऐसा तो मैं नहीं समझता। -तब घास की तरह
दलित-विदलित हो कर गरीब ही बेचारे मरेंगे। इसका बुरा परिणाम जो कुछ होगा, उसका
फल भुगतना पड़ेगा साधारण जनता को ही।
रूस में भी आजकल नायक का प्रबल शासन देखने में आ रहा है। परंतु इस शासन ने
अपने को चिरस्थायी बनाने का मार्ग नहीं पकड़ा। एक दिन वह मार्ग पकड़ा था जार के
शासन ने -- अशिक्षा और धर्ममोह से जनसाधारण के मन को प्रभावित करके और चाबुकों
से उनके पौरुष को शिथिल करके। फिलहाल रूस का शासन दंड निश्चल है, ऐसा मैं नहीं
समझता, किंतु शिक्षा प्रचार का उद्यम असाधारण है। इसका कारण यह है कि उसमें
व्यक्तिगत या दलगत किसी तरह का लोभ या सत्ता पाने की लालसा नहीं है। एक खास
अर्धनैतिक मत के अनुसार सर्वसाधारण को दीक्षित करके --जाति, वर्ण और श्रेणी का
किसी प्रकार का भेदभाव न रखते हुए -- सबको मनुष्य बना डालने की दुर्निवार इच्छा
इनमें अवश्य है। यदि वह न होती, तो फ्रांसीसी विद्वान की बात माननी पड़ती कि
शिक्षा देना एक भारी गलती है।
यह अर्थनैतिक मत पूरी तौर से स्वीकार है या नहीं, इस पर विचार करने का समय
अभी नहीं आया, क्योंकि यह मत अब तक मुख्यतः केवल पोथियों में बंद पड़ा था। ऐसे
बड़े क्षेत्र में इतने बड़े साहस के साथ उसे मुक्ति कभी नहीं मिली। जिस प्रबल
लोभ के कारण इस मत को शुरू से ही घातक बाधाओं का सामना करना पड़ा है, उस लोभ को
ही इन लोगों ने कठोरता के साथ हटा दिया है। परीक्षाओं के भीतर से परिवर्तन
होते-होते इस मत का कितना अंश कहाँ जा कर स्थायी होगा, इसका निश्चित् उत्तर अभी
कोई नहीं दे सकता। परंतु यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि रूस में
सर्वसाधारण प्रजा को इतने दिनों बाद जो शिक्षा अधिकता से और अनिवार्य रूप से
मिल रही है, उससे उनके मनुष्यत्व का उत्कर्ष और सम्मान स्थायी हो गया है।
वर्तमान रूस में निष्ठुर शासन की जनश्रुति हमेशा ही सुनने में आती है। हो
सकता है कि वह बात असंभव न हो। निष्ठुर शासन की धारा वहाँ हमेशा से बहती आई है,
सहसा उसका सर्वथा नाश न होना स्वाभाविक है। फिर भी वहाँ चित्रों से, सिनेमाओं
से, इतिहास की व्याख्याओं से पुराने जमाने के कठोर शासन और अत्याचारों को
सोवियत सरकार बराबर सबके सामने रख रही है। यह सरकार यदि स्वयं भी इस तरह के
निष्ठुर मार्ग पर चलती है, तो लोगों में निष्ठुर व्यवहार के प्रति इतनी अधिक
घृणा पैदा कर देना, और कुछ नहीं तो अद्भुत भूल जरूर है। सिराजुद्दौला की काल
कोठरी की नृशंसता को यदि सिनेमा आदि द्वारा सर्वत्र लज्जित किया जाता, तो उसके
सत्य के साथ ही साथ जलियाँवालाबाग के हत्याकांड को कम से कम मूर्खता कहने में
कोई दोष न होता, क्योंकि ऐसी दशा में विमुख अस्त्र अस्त्रधारी को ही लगेगा।
सोवियत रूस में कार्ल मार्क्स की अर्थनीति के कारण प्रजा की विचार-बुद्धि को
एक साँचे में ढालने का जबरदस्त प्रयत्न हो रहा है, और उस जिद के कारण इस विषय
स्वतंत्र आलोचना का रास्ता जोर के साथ रोक दिया गया है। इस अपवाद को मैं सत्य
समझता हूँ। कुछ दिन पहले यूरोप के महायुद्ध के समय इस तरह मुँह बंद करना और
गवर्नमेंट की नीति के विरुद्ध बोलनेवालों के मत स्वातंत्र्य को जेलखाने या
फाँसी के तख्ते पर चढ़ा कर उसका अंत कर देने की चेष्टा की गई थी।
जहाँ शीघ्र ही फल-प्राप्ति का लोभ अत्यन्त प्रबल है, वहीं राष्ट्रनायक
मनुष्य में मत-स्वातंत्र्य के अधिकार को स्वीकार नहीं करना चाहते। वे कहते हैं
कि ये सब बातें पीछे होंगी, फिलहाल काम सिद्ध करना चाहिए। रूस की अवस्था युद्ध
काल की अवस्था है, भीतर और बाहर सर्वत्र शत्रु मौजूद हैं। वहाँ की समस्त
आलोचनाओं को नष्ट कर देने के लिए आज चारों ओर छल-बल से काम लिया जा रहा है। इसी
से वे अपने निर्माण-कार्य की नींव को जहाँ तक हो, जल्दी पक्की कर लेना चाहते
हैं। और इसीलिए वे बल प्रयोग करने में हिचकिचाते नहीं हैं। परंतु मतलब चाहे
कितना ही जरूरी क्यों न हो, 'बल' हमेशा एकतरफा चीज है। उससे बिगड़ता ही है,
बनता नहीं। सृष्टि या गठन कार्य के लिए उपादान को अपने पक्ष में लाना ही होगा
-- मार-पीट कर नहीं, बल्कि उसे नियम को स्वीकार करने के लिए बाध्य करके।
रूस जिस काम में लगा हुआ है, वह काम युगांतर का मार्ग तैयार करना है, उसके
लिए पुराने विधि-विश्वासों की जड़ों को पहले की जमीन से उखाड़ फेंकना और
चिर-अभ्यस्त आरामों का तिरस्कार करना पड़ता है। ऐसा तोड़ फेंकने का उत्साह जिस
भँवर की सृष्टि करता है, उसके चक्कर में आ जाने पर मनुष्य को अपनी सत्ता का
अन्त नहीं मिलता, फिर तो उसकी स्पर्द्धा और हिम्मत बढ़ जाती है, मानव प्रकृति
की साधना करके उसे वश करने की आवश्यकता को वह भूल जाता है, समझता है कि उसके
आश्रम से जबरदस्ती छीन कर ले जाने से - सीता हरण जैसी घटना कर डालने से -- उसको
प्राप्त किया जा सकता है। उसके बाद लंका में भले ही आग लग जाए, उसकी चिंता।
पर्याप्त समय ले कर स्वभाव के साथ समझौता करने के लिए जिनके पास धर्य नहीं है,
वे उपद्रव में विश्वास रखते हैं, और अंत में वे ठोंक-पीट कर रात ही रात में जिस
चीज को गढ़ डालते हैं, उसके भरोसे काम नहीं चलता और न वह अधिक दिनों तक स्थायी
ही रहती है।
जहाँ आदमी तैयार नहीं हैं, जहाँ लोकमत तैयार नहीं हुआ है, वहाँ के उग्र
दंडनायकों पर मेरा विश्वास नहीं है। पहला कारण यह है कि अपने मत के विषय में
शुरू में ही पूरा विश्वास कर लेना सुबुद्धि नहीं है, उसे कार्य रूप में परिणत
करते-करते ही उसका परिचय मिलता है। उधर जो नेता धर्मतंत्र के समय शास्त्र
वाक्यों को नहीं मानते, इधर उन्हें ही देखता हूँ कि अर्थतंत्र के समय वे
शास्त्र मान कर अटल बने बैठे हैं। उस शास्त्र के साथ -- जैसे बनता है वैसे
टोंटी दबा कर, चोटी पकड़ कर -- मनुष्य को मिलाना चाहते हैं, फिर वे इस बात को
भूल भी जाते हैं कि 'मारपीट कर महरा पर बैठाओ भी, तो हुर्र नहीं होती' वह सभी
सत्य नहीं हो सकता। वास्तव में देखा जाए तो जहाँ जितनी ज्यादा जबरदस्ती होती
है, वहाँ उतना ही कम सत्य होता है।
यूरोप में जब ईसाई शास्त्र-वाक्यों पर लोगों का जबरदस्त विश्वास था, तब
मनुष्य के हाड़-गोड़ तोड़ कर, उसे जला कर, नोच कर, झकझोर कर धर्म की सत्यता
प्रमाणित करने की कोशिश चलती रहती थी। आज बोलशेविक मतवाद के विषय में उसके
विरोधी और समर्थक दोनों ही पक्ष उसी तरह की जबरदस्त सीनाजोरी की युक्तियों का
प्रयोग करते दिखाई देते हैं। दोनों ही पक्ष एक-दूसरे की यह शिकायत करते हुए पाए
जाते हैं कि मनुष्य के विचार-स्वातंत्र्य के अधिकार को दबाया जा रहा है। बीच
में पड़ी पश्चिम महादेश की मानव प्रकृति बेचारी आज दोनों ओर से पिसी जा रही है।
सोवियत रूस की लोक शिक्षा के संबंध में मेरा जो वक्तव्य है, वह मैं कह चुका।
इसके सिवा इस बात की भी आलोचना कर चुका हूँ कि यहाँ की राजनीति मुनाफा-लोलुपों
के लोभ से कलुषित नहीं है, और इसलिए उन्होंने रूस राष्ट्र के अंन्तर्गत अनेक
प्रकार की प्रजा को-जाति और वर्ण का किसी प्रकार भेदभाव न रख कर सबको समान
अधिकार और उत्कृष्ट शिक्षा की सुविधाएँ दे कर सम्मानित किया है। मैं ब्रिटिश
भारत की प्रजा हूँ, और इसलिए रूस के इस कार्य से मुझे इतना गहरा आनंद हुआ है।
अब मैं समझता हूँ कि एक अंतिम प्रश्न का उत्तर मुझे देना पड़ेगा। बोलशेविक
अर्थनीति के संबंध में मेरा क्या मत है, यह प्रश्न बहुत-से लोग मुझसे किया करते
हैं। मुझे डर इस बात का है कि भारतवर्ष हमेशा से शास्त्र-शासित और पंडा-चालित
देश रहा है, विदेश से आए हुए वचनों को एकदम से वेदवाक्य मान लेने की ओर ही
हमारे मुग्ध हृदय का झुकाव है। गुरुमंत्र के मोह से अपने को सँभालकर हमें कहना
चाहिए कि प्रयोग के द्वारा ही मत का विचार हो सकता है, अभी तक परीक्षा खत्म
नहीं हुई है। कोई भी मनुष्य-संबंधी मतवाद क्यों न हो, उसका मुख्य अंग है मानव
प्रकृति। इस मानव प्रकृति के साथ मतवाद का कहाँ तक सामंजस्य हो सकता है, इस
विषय में पक्का सिद्धांत होने में समय लगता है। तत्व को संपूर्णतः ग्रहण करने
के पहले कुछ ठहरना या समय देना पड़ता है। फिर भी उस विषय में आलोचना की जा सकती
है, वह सिर्फ लॉजिक या गणित पर ही नहीं, बल्कि मानव प्रकृति को सामने रख कर।
मनुष्य में दो दिशाएँ हैं -- प्रथमतः वह स्वतंत्र है; दूसरे, वह सबके साथ
संबंधयुक्त है। इनमें से एक को छोड़ देने पर जो बाकी बचे, वह अवास्तविक है। जब
किसी एक धुन में पड़ कर मनुष्य एक ही ओर एकांत रूप से लापता हो जाता है, और
अपना वजन नष्ट करके तरह-तरह की विपत्तियाँ लाता रहता है, तब सलाहकार आ कर संकट
को हलका करना चाहते हैं, कहते हैं कि दूसरी दिशा को एकदम छाँट कर निकाल दो।
व्यक्ति स्वातंत्र्य जब उत्कट स्वार्थ का रूप धारण करके समाज में तरह-तरह के
उपद्रव मचाता है, तब उपदेशक लोग कहते हैं -- 'स्वार्थ' से 'स्व' को एक ही बार
में गँड़ासे से उड़ा दो, तब सब ठीक हो जाएगा। इससे उपद्रव घट सकता है, मगर उसका
नाश नहीं हो सकता। लगाम टूट जाने पर घोड़ा गाड़ी को खंदक में डाल देता है --
इसलिए घोड़े को गोली से उड़ा दिया जाए तो फिर गाड़ी ठीक से चलेगी, ऐसा खयाल न
करके लगाम ठीक करने की चिंता करना ही बुद्धिमत्ता है।
शरीर से पृथक-पृथक अस्तित्व होने से ही मनुष्य छीना-झपटी किया करता है,
परंतु समस्त मनुष्यों को एक रस्सी में बाँध कर सारी पृथ्वी में उसे एक ही विपुल
कलेवर में लाने का प्रस्ताव करना -- यह बात तो किसी बल से गर्वित अर्थतात्विक
जार के मुख से ही शोभा देती है। विधाता की विधि को बिलकुल जड़ से उखाड़ फेंकने
की चेष्टा में जितना साहस है, उससे कहीं ज्यादा उसमें मूढ़ता की जरूरत पड़ती
है।
एक दिन ऐसा था, जब भारतवर्ष का समाज मुख्यतः ग्रामीण समाज था। इस तरह के
घनिष्ठ ग्राम्य समाज में व्यक्तिगत संपत्ति के साथ सामाजिक संपत्ति का सामंजस्य
होता था। लोक मत का ऐसा प्रभाव था कि धनी अपने धन को संपूर्णतः अपने भोग में
लगाने में अपना अगौरव समझते थे। समाज उसकी सहायता-सहानुभूति ग्रहण करता था, तभी
वह कृतार्थ होता था - अर्थात अग्रेजी में जिसे चैरिटी कहते हैं, उसमें वह बात
नहीं थी। धनी के लिए वहीं स्थान होता था, जहाँ निर्धन होते थे। उस समाज में
अपने स्थान और सम्मान की रक्षा करने के लिए धनी को अनेक परोक्ष प्रकारों से
बड़े-बड़े अंकों में टैक्स देना पड़ता था। गाँव में विशुद्ध जल, वैद्य, पंडित,
देवालय, नाटक, गान, कथा, कुआँ, बावड़ी, मार्ग आदि जो कुछ होता था, वह गाँव के
व्यक्तिगत अर्थ के समाजमुखी प्रवाह से ही होता था, राज कर से नहीं। इसमें
व्यक्तिगत स्वेच्छा और समाज की इच्छा दोनों ही मिल जाती थीं। इस तरह के
आदान-प्रदान राष्ट्रीय यंत्र से नहीं होते थे, किंतु मनुष्य की इच्छा से हुआ
करते थे, इसलिए इनमें धर्म साधना की क्रिया चलती थी, अर्थात इसमें केवल कानून
के चलने से बाहरी फल नहीं लगते थे, बल्कि अंतरंग में व्यक्तिगत उत्कर्ष होता
रहता था। यह व्यक्तिगत उत्कर्ष ही मानव समाज का स्थायी कल्याणमय सजीव आश्रय है।
वणिक संप्रदाय, धन को काम में लगा कर लाभ करना ही जिसका मुख्य व्यवसाय है,
समाज में पतित समझा जाता था, क्योंकि तब धन का अधिक सम्मान नहीं था और इसीलिए
धन और अधन का इतना बड़ा भेद भी तब नहीं था। धन अपने बड़े संचय के कारण समाज में
सम्मान नहीं पाता था, बल्कि अपने महान दायित्व को पूरा करके ही वह सम्मानित
होता था, नहीं तो वह लज्जित ही बना रहता था। अर्थात सम्मान धर्म का था, धन का
नहीं। इस सम्मान को समर्पण करते हुए किसी के आत्म-सम्मान की हानि नहीं होती थी।
अब वे दिन चले गए हैं, इसीलिए सामाजिक दायित्वहीन धन के प्रति असहिष्णुता के
लक्षण अनेक आकारों में दिखाई देते हैं। कारण, धन अब मनुष्य को अर्ध्य नहीं
चढ़ाता, बल्कि उसे अपमानित ही करता है।
यूरोपीय सभ्यता पहले से ही नगरों में पैर जमाने का रास्ता ढूँढ रही है।
नगरों में मनुष्यों को मौके बहुत मिलते हैं, पर संबंध बहुत संकुचित हो जाता है।
नगर बहुत बड़े होते हैं, मनुष्य वहाँ विक्षिप्त हो जाता है,
व्यक्ति-स्वातंत्र्य वहाँ अति मात्रा में होता है, प्रतियोगिता का आंदोलन भी
वहाँ प्रबल होता है। ऐश्वर्य वहाँ धनी और निर्धन के भेद को बढ़ा देता है और
चैरिटी के द्वारा जो कुछ संबंध मिलता है, उसमें न तो सांत्वना ही है और न
सम्मान ही। वहाँ जो धन के अधिकारी और धन के वाहन हैं, दोनों में आर्थिक संबंध
होता है, सामाजिक संबंध विकृत हो जाता है या टूट जाता है।
ऐसी अवस्था में यंत्र युग आया, लाभ के अंक बढ़ने लगे और हद से ज्यादा बढ़ने
लगे। यह मुनाफे की महामारी जब दुनिया भर में फैलने लगी, तब जो दूर के रहनेवाले
अनात्मीय थे, जो निर्धन थे, उनके लिए रास्ता ही बंद हो गया। चीन को अफीम खानी
पड़ी, भारत के पास अपना कहने को जो कुछ था, उसे उजाड़ कर देना पड़ा, अफ्रीका को
हमेशा कष्टों का सामना करना पड़ा और उसके कष्ट दिनोंदिन बढ़ने ही लगे। यह तो
हुई बाहर की बात। अब पश्चिम महादेश को लो, वहाँ भी धनी और निर्धन का भेद आज
अत्यंत कठोर हो गया है, जीवन यात्रा का आदर्श बहुमूल्य और उपकरण-बहुल होने से
--जीवन की आवश्यकताएँ अत्यंत बढ़ जाने से -- दोनों पक्षों का भेद अत्यंत तीव्र
हो कर आँखों के सामने पड़ता है। पुराने जमाने में कम से कम हमारे देश में,
ऐश्वर्य का आडंबर था। मुख्यतः सामाजिक दान और कर्म में, और अब है व्यक्तिगत भोग
में। यह हमें विस्मित करता है, आनंदित नहीं करता। इससे ईर्ष्या पैदा होती है,
प्रशंसा नहीं होती। सबसे बड़ी बात यह है कि उस समय समाज में धन का व्यवहार केवल
दाता की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं था, उस पर सामाजिक इच्छा का प्रबल प्रभाव था,
इसलिए दाता को नम्र हो कर दान करना पड़ता था, 'श्रद्धया देयं' -- यह बात कार्य
रूप में परिणत होती थी।
मतलब यह कि आजकल व्यक्तिगत धन-संचय धनी को प्रबल शक्ति का जो अधिकार देता
है, उससे सर्वसाधारण को सम्मान और आनंद नहीं मिल सकता। उसमें एक ओर असीम लोभ है
और दूसरी ओर गहरी ईर्ष्या, बीच में ही दुस्तर पार्थक्य। समाज में सहयोगिता की
अपेक्षा प्रतियोगिता हद से ज्यादा बढ़ गई है। यह प्रतियोगिता अपने देश में है
एक श्रेणी के साथ अन्य श्रेणी की, और बाहर एक देश के साथ दूसरे देश की। इससे
चारों ओर संशय हिंस्र चमक रहे हैं, उनकी तादाद घटाने में कोई भी किसी तरह समर्थ
नहीं हो रहा है। और जो परदेशी इस दूरस्थित भोग-राक्षस की क्षुधा मिटाने के काम
में लगे हुए हैं, उनकी रक्तहीन कृशता युगों से बढ़ती ही जाती है। जो अपने बल के
दर्प में यह बात कहते हैं कि इस बहु-विस्तृत कृशता में संसार की अशांति आ कर घर
नहीं बना सकती, कहना चाहिए कि वे अपनी मूर्खता के अंधकार में भटक रहे हैं। जो
हमेशा दुख ही दुख पा रहे हैं, वे अभागे ही दुख विधाता के भेजे हुए दूतों के
प्रधान सहायक हैं, उपवास-लंघनों में प्रलय की आग संचित हो रही है।
वर्तमान सभ्यता की इस अमानुषिक अवस्था में बोलशेविक नीति का अभ्युदय हुआ है।
वायुमंडल के एक अंश में तनुत्व उपस्थित होने पर आँधी जैसे बिजली-रूपी दाँत पीस
कर घातक मूर्तिधारण करके झपट कर आती है, यह भी वैसा ही कांड है। मानव समाज में
सामंजस्य जाता रहा है, इसीलिए इस अप्राकृतिक विप्लव का प्रादुर्भाव हुआ है।
समष्टि के प्रति व्यष्टि की उपेक्षा क्रमशः बढ़ती ही जा रही थी, इसी से समष्टि
की दुहाई दे कर आज व्यष्टि की बलि चढ़ाने का आत्मघाती प्रस्ताव उठ खड़ा हुआ है।
समुद्र तट पर अग्निगिरि का उपद्रव शुरू हुआ है, इसलिए समुद्र को ही एकमात्र
बंधु घोषित किया जा रहा है। तटहीन समुद्र का जब संपूर्ण परिचय मिलेगा, तब
किनारे पहुँचने के लिए फिर निहोरे करने पड़ेंगे। उस व्यष्टि-वर्जित समष्टि की
अवास्तवता को मनुष्य कभी सहन नहीं कर सकता। समाज के लोभ के दुर्गों को जीत कर
अपने कब्जे में लाना होगा। परंतु व्यक्ति की वैतरणी पार करके समाज की रक्षा कौन
कर सकता है? संभव है, वर्तमान रुग्ण युग में बोलशेविक नीति ही सुचिकित्सा हो,
परंतु चिकित्सा तो हमेशा नहीं चलाई जा सकती, वास्तव में डॉक्टर का शासन जिस दिन
दूर होगा, वही दिन रोगी के लिए शुभ दिन है।
हमारे देश में, हमारे गाँव-गाँव में धन उत्पादन और परिचालन के काम में समवाय
नीति की जय हो, यही मेरी कामना है। कारण, इस नीति में जो सहयोगिता है, उसमें
सहयोगियों की इच्छा का और उनके विचारों का तिरस्कार नहीं किया जाता, अतएव मानव
प्रकृति का सम्मान किया जाता है। उसे प्रकृति-विरुद्ध बना कर बल से काम लिया
जाए, तो वहाँ बल कुछ काम नहीं देगा।
इसके साथ ही एक बात खास तौर पर कहनी है, वह यह कि जब मैं चाहता हूँ कि हमारे
देश में गाँव जीवित हो उठें, तब इस बात को हरगिज नहीं चाहता कि हममें फिर से
ग्राम्यता या गँवारूपन आ जाए। ग्राम्यता एक ऐसा संस्कार है, जिसकी विद्या,
बुद्धि, विश्वास और कार्य का ग्राम-सीमा के बाहर से कुछ संबंध नहीं, अर्थात वह
ग्राम-सीमा में ही आबद्ध रहता है। वर्तमान युग की जो प्रकृति है, वह सिर्फ उससे
पृथक ही नहीं, बल्कि विरुद्ध है। वर्तमान युग में विद्या और बुद्धि की भूमिका
विश्वव्यापी है, यद्यपि उसके हृदय की अनुवेदना संपूर्णतः उतनी व्यापक नहीं हुई
है। गाँवों में ऐसा जीवन लाना होगा, जिसके उपादान तुच्छ और संकीर्ण न हों और
जिसके द्वारा मानव प्रकृति में कभी किसी भी तरह का ओछापन न आने पाए और न उस पर
अंधकार ही छा सके।
इंग्लैंड में एक दिन किसी ग्राम में एक किसान के घर गया था। देखा कि लंदन
जाने के लिए उस घर की स्त्रियों का चित्त चंचल हो रहा है। शहर के सब तरह के
ऐश्वर्यों की तुलना में गाँवों की पूँजी इतनी दीन-हीन है कि गाँववालों का चित्त
स्वभावतः ही सर्वदा शहर की ओर खिंचता रहता है। देश के भीतर रहते हुए भी गाँव
मानो निर्वासित से हो रहे हैं। रूस में दूसरी ही बात देखी। गाँवों के साथ शहरों
की जो प्रतिकूलता है, उसे हमेशा के लिए मिटा देने की कोशिश हो रही है। यह
उद्योग यदि अच्छी तरह सफल हुआ, तो शहर की अस्वाभाविक अतिवृद्धि दूर हो जाएगी।
देश की प्राणशक्ति और विचारशक्ति देश में सर्वत्र व्याप्त हो कर अपना काम कर
सकेगी।
हमारे देश के गाँव भी शहर और जूठन और बचे-खुचे से पेट भरनेवाले हो कर
मनुष्यत्व के पूर्ण सम्मान और संपदा के भोक्ता हों, यही मेरी कामना है। एकमात्र
समवाय पद्धति से ही गाँव अपनी सर्वाँगीण शक्ति को डूबते से बचा सकेंगे, ऐसा
मेरा विश्वास है। बड़े खेद का विषय है कि आज तक हमारे देश में समवाय पद्धति
सिर्फ रुपए उधार देने में ही थक कर एक जगह बैठ गई, यह तो महाजनी ग्राम्यता को
ही कुछ झाड़पोंछ कर साफ-सुथरा रूप दिया गया है -- सम्मिलित उद्योग से जीविका
उपार्जन और भोग के काम में वह नहीं लग सकी।
इसका मुख्य कारण यह है कि जिस शासन तंत्र के आधार पर नौकरशाही समवाय-नीति
हमारे देश में आविर्भूत हुई है, वह यंत्र अंधा-बहरा और उदासीन है। इसके सिवा,
लज्जा से सिर झुका कर शायद यह बात भी स्वीकार करने पड़ेगी कि चरित्र में जिस
गुण के होने पर संगठित होना सहज होता, हममें वह गुण नहीं है। जो कमजोर हैं,
परस्पर में उनका विश्वास भी कमजोर होता है। अपने पर अश्रद्धा ही दूसरों पर
अश्रद्धा की नींव है। जो बहुत समय से पराधीन हैं, उनका आत्मसम्मान जाता रहा है,
इसी से यह दुर्गति है। प्रभु श्रेणी के शासन को वे सिर झुकाए स्वीकार कर सकते
हैं, किंतु स्वश्रेणी का संचालन उनसे नहीं सहा जाता, स्वश्रेणी को धोखा देना और
उसके साथ निष्ठुर व्यवहार करना उनके लिए स्वाभाविक ही है।
रूसी कहानियों की पुस्कतें पढ़ने से मालूम हो सकता है कि वहाँ के लंबे अरसे
से सताए हुए किसानों की भी यही दशा है। कितना ही दुःसाध्य क्यों न हो, और कोई
रास्ता ही नहीं है, परस्पर की शक्ति और हृदय को सम्मिलित करने का लक्ष्य बना कर
प्रकृति का संशोधन करना ही पड़ेगा। यह काम समवाय पद्धति से कर्ज दे कर पूरा
नहीं हो सकता, एकत्र सहयोगी कार्य करा कर ग्रामवासियों के चित्त की एकता की ओर
उन्मुख करके ही हम गाँवों की रक्षा कर सकते हैं।
(रवींद्रनाथ टैगोर ने 1930 में सोवियत संघ की यात्रा की थी। इस यात्रा
के दौरान वे सोवियत संघ द्वारा जनसाधारण के उत्थान के लिए किए जा रहे प्रयत्नों
से बहुत प्रभावित हुए। साथ ही, वहाँ के अधिनायकवाद से उन्हें चिंता हुई। अपने
इन्हीं अनुभवों और विचारों को उन्होंने अपने मित्रों और संबंधियों को लिखे
पत्रों में व्यक्त किया। इन पत्रों का संग्रह बांग्ला में प्रकाशित हुआ, पर
उसके अंग्रेजी अनुवाद ' लेटर्स फ्रॉम रशिया ' को
प्रकाशित करने की अनुमति ब्रिटिश सरकार ने नहीं दी। बाद में इस पुस्तक का रूसी
अनुवाद भी प्रकाशित हुआ। इसमें उन अंशों को छोड़ दिया गया था, जिनमें तत्कालीन
रूस में चल रहे डिक्टेटरशिप की आलोचना थी।)
|