मॉस्को
बहुत दिन हुए तुम दोनों को पत्र लिखे। तुम दोनों की सम्मिलित चुप्पी से
अनुमान होता है कि वे युगल पत्र मुक्ति को प्राप्त हो चुके हैं। ऐसी विनष्टि
भारतीय डाकखानों में आजकल हुआ ही करती है, इसीलिए शंका होती है। इसी वजह से
आजकल चिट्ठी लिखने को जी नहीं चाहता। कम से कम तुम लोगों की तरफ से उत्तर न
मिलने पर मैं चुप रह जाता हूँ। निःशब्द रात्रि के प्रहर लंबे मालूम होने लगते
हैं -- उसी तरह 'निःचिट्ठी' का समय भी कल्पना में बहुत लंबा हो जाता है। इसी से
रह-रह कर ऐसा मालूम होने लगता है, मानो लोकांतर-प्राप्ति हुई हो। मानो समय की
गति बदल गई है -- घड़ी बजती है लंबे तालों पर। द्रौपदी के चीर-हरण की तरह मेरा
देश जाने का समय जितना खिंचता जाता है, उतना ही अनंत हो कर वह बढ़ता ही चला
जाता है। जिस दिन लौटूँगा, उस दिन तो निश्चित ही लौटूँगा -- आज का दिन जैसे
बिल्कुल निकट है, वह दिन भी उसी तरह निकट आएगा, यही सोच कर सांत्वना पाने की
कोशिश कर रहा हूँ।
खैर कोई बात नहीं, फिलहाल रूस आया हूँ -- न आता तो इस जन्म की तीर्थयात्रा
बिल्कुल अधूरी ही रह जाती। यहाँ इन लोगों ने जैसा काम किया है, उस पर भले-बुरे
का विचार करने से पहले ही मुँह से निकल पड़ता है -- कैसा असंभव साहस है।
'सनातन' नाम का जो पदार्थ है, वह मनुष्य की नस-नस में मन और प्राणों के साथ
हजार-हजार बन कर जकड़ गया है -- उसकी कितनी दिशाओं में कितने महल हैं, कितने
दरवाजों पर कितने पहरे लग रहे हैं, कितने युगों से कितना टैक्स वसूल करके उसका
खजाना पहाड़ बन गया है -- इन लोगों ने उसे एकदम जड़ से उखाड़ फेंका है, इनके मन
में भय, चिंता, संशय कुछ भी नहीं। सनातन की गद्दी झाड़ फेंकी है, नए के लिए
एकदम नया आसन बिछा दिया है। पश्चिम महादेश विज्ञान के बूते पर दुःसाध्य को साध
कर दिखाता है, देख कर मन तारीफ कर उठता है, मगर यहाँ जो विशाल कार्य चल रहा है,
उसे देख कर मैं सबसे ज्यादा विस्मित हुआ हूँ। अगर सिर्फ एक भीषण परिवर्तन या
नष्ट-भ्रष्ट का मामला होता, तो उससे कुछ आश्चर्य न होता, क्योंकि नेस्तनाबूद
करने की शक्ति इनमें काफी से ज्यादा है, मगर यहाँ देखता हूँ कि ये लोग
बहुदूरव्यापी एक खेत बना कर एक नई ही दुनिया बनाने में कमर कसके जुट पड़े हैं।
देर सही नहीं जाती, क्योंकि दुनिया भर में इन्हें प्रतिकूलता ही प्रतिकूलता
दिखाई दे रही है, सभी इनके विरोधी हैं -- जितनी जल्द हो सके, इन्हें अपने पैरों
पर खड़ा होना ही होगा। हाथों-हाथ प्रमाणित कर देना है कि ये जो कुछ चाहते हैं,
वह उनकी भूल नहीं है, 'हजार वर्ष' के विरुद्ध 'दस-पंद्रह' वर्ष को लड़ कर जीतना
ही है -- प्रतिज्ञा जो की है। अन्य देशों की तुलना में इनका आर्थिक बल बहुत ही
थोड़ा है; हाँ, प्रतिज्ञा का जोर दुर्द्धर्ष है।
यह जो क्रांति हुई है, उसे रूस मे ही होना था -- इसके लिए वह बाट जोह रही
थी। तैयारियाँ बहुत दिनों से हो रही थीं। प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध सभी तरह के लोगों
ने कितने समय से प्राण दिए हैं, असह्य दुख सहे हैं। संसार में विप्लव के कारण
बहुत दूर तक व्यापक रहते हैं, परंतु किसी न किसी जगह वे घनीभूत हो उठते हैं,
समस्त शरीर का रक्त दूषित होने पर भी कहीं एक कमजोर स्थान पर फोड़ा हो कर लाल
हो उठता ही है। जिनके पास धन है, जिनके हाथ में शक्ति है, उनके हाथों से निर्धन
और अशक्तों ने इसी रूप में असह्य अत्याचार सहे हैं। दोनों पक्षों का वही
अत्यधिक असाम्य अंत में प्रलय के बीच में से गुजर कर इस रूस में ही प्रतिकार
करने पर उतारू है।
एक दिन फ्रांसीसी विद्रोह हुआ था इसी असाम्य की ताड़ना से। उस दिन वहाँ के
पीड़ित समझ गए थे कि इस असाम्य का अपमान और दुख विश्वव्यापी है, इसीलिए उस दिन
के विप्लव में साम्य, भ्रातृत्व और स्वातंत्र्य की वाणी स्वदेश की लकीर पार कर
बाहर भी ध्वनित हो उठी थी, पर वह टिकी नहीं। इनके यहाँ की क्रांति की वाणी भी
विश्वव्यापी है। आज संसार में कम से कम इस देश के लोग तो ऐसे हैं, जो स्वजाति
के स्वार्थ पर ही समस्त मानव-समाजक स्वार्थ सोच रहे हैं। यह वाणी स्थायी रूप से
टिक सकेगी या नहीं, कोई कह नहीं सकता, परंतु स्वजाति की समस्या समस्त मानव जाति
की समस्या के अंतर्गत है, इसे मानना ही होगा।
इस युग में विश्व इतिहास की रंगभूमि का पर्दा उठ गया है। अब तक मानो भीतर ही
भीतर रिहर्सल हो रहा था - थोड़ा-थोड़ा करके अलग-अलग कमरों में। प्रत्येक देश के
चारों तरफ चहारदीवारी थी। बाहर से आने-जाने का रास्ता बिल्कुल था ही नहीं, सो
बात नहीं, परंतु विभागों में बँटे हुए मानव संसार का जो चेहरा देखा है, आज उसे
नहीं देखता। उस दिन दिखाई दे रहा था एक-एक पेड़, आज देख रहा हूँ अरण्य। मानव
समाज में यदि भार-सामंस्य का अभाव हो गया हो, तो वह आज दिखाई दे रहा है संसार
के इस पार से ले कर उस पार तक। इस तरह विशाल रूप में दिखाई देना कोई कम बात
नहीं है।
टोक्यो में जब कोरिया के एक युवक से पूछा था कि तुम्हें कष्ट किस बात का है,
तो उसने कहा था, 'हमारे कंधों पर महाजनों का राज्य सवार है, हम उनके मुनाफे के
वाहन हैं।' मैंने पूछा, 'किसी भी कारण से हो, जब कि तुम लोग कमजोर हो, तो यह
भार तुम अपने बूते पर कैसे झाड़ फेंक सकते हो?' उसने कहा, 'निरुपाय पराधीन
जातियाँ तो आज दुनिया भर में फैली हुई हैं, दुख उन सबको एक साथ मिला देगा। जो
धनी हैं, जो शक्ति-संपन्न हैं, वे अपने-अपने लोहे के संदूकों और सिंहासनों के
चारों तरफ अलग खड़े रहेंगे, वे कभी मिल ही नहीं सकेंगे। कोरिया को बल है --
अपने दुख का बल।'
दुखी आज समस्त मानव जाति की रंगभूमि पर अपने को विराट रूप में देख रहा है,
यह बड़ी बात है। पहले अपने को अलग देख रहा था, इसी से किसी भी प्रकार अपने
शक्तिरूप को नहीं देख सका था -- भाग्य के भरोसे सब कुछ सहता रहता था। आज अत्यंत
निरुपाय भी कम से कम उस स्वर्ग राज्य की कल्पना कर सकता है, जहाँ दुखी का दुख
दूर होता है, अपमानित का अपमान दूर होता है, यही कारण है कि संसार भर के
दुखजीवी आज जाग उठे हैं -- उन्हें अपनी स्थिति का ज्ञान हो गया है।
जो शक्तिमान है, आज जिस शक्ति की प्रेरणा ने, दुखियों में संचालित हो कर,
उन्हें चंचल बना दिया है, बलशाली उसे बाहर से दबा देना चाहते हैं -- उसके दूतों
को घर में घुसने नहीं देते, गला घोंटे दे रहे हैं। परंतु वास्तव में जिससे
उन्हें सबसे अधिक डरना चाहिए था, वह है दुखी का दुख। पर उसी की ये हमेशा से
अवज्ञा करते आए हैं और अब यह उनकी आदत पड़ गई है। अपने लाभ के लिए उस दुख को ये
बढ़ाए ही जाते हैं, जरा भी नहीं डरते, अभागे किसान को दुर्भिक्ष के कवल में
ठूँस कर दो-तीन सौ प्रतिशत का मुनाफा उठाने में इनका हृदय नहीं काँपता, क्योंकि
उस मुनाफे को ही ये शक्ति समझते हैं। परंतु मानव समाज के लिए सभी तरह की अति
में विपत्ति है, उसे बाहर से कभी भी दबाया नहीं जा सकता। अति शक्ति अति अशक्ति
के विरुद्ध हमेशा अपने को बढ़ाए हुए नहीं चल सकती। क्षमताशाली यदि अपनी शक्ति
के मद में उन्मत्त न रहता, तो वह सबसे ज्यादा डरता इसी असाम्य की ज्यादती से,
क्योंकि असामंस्य मात्र ही विश्वविधि के विरुद्ध है।
मॉस्को से जब निमंत्रण मिला, तब तक बोलशेविकों के सम्बन्ध में मेरे हृदय में
कोई स्पष्ट धारणा नहीं थी। उनके विषय में बराबर उलटी ही बातें सुनता आया था,
क्योंकि प्रारंभ में उनकी जो साधना थी, वह जबरदस्ती की थी। मगर अब एक बात देखने
में आई, वह यह कि इनके प्रति यूरोप में जो विरुद्धता थी, वह अब क्षीण होती जा
रही है। मैं रूस जा रहा हूँ, सुन कर बहुतों ने मुझे उत्साहित किया है। यहाँ तक
कि एक अंग्रेज के मुँह से भी इनकी प्रशंसा सुनी है। बहुतों ने कहा है कि ये एक
अति आश्चर्यजनक परीक्षा में लगे हुए हैं।
और बहुतों ने मुझे डराया भी था, पर डराने का मुख्य विषय था आराम की कमी।
कहते थे, खाना-पीना सब ऐसा मामूली दर्जे का है कि मुझसे वह सहा नहीं जाएगा।
इनके सिवा ऐसा बात भी बहुतों ने कही थी कि मुझे ये लोग जो कुछ दिखाएँगे, उसका
अधिकांश बनावटी होगा। यह तो मानना ही पड़ेगा कि मेरी उमर में मुझ जैसे शरीरवाले
का रूस में भ्रमण करना दुःसाहस है, परंतु संसार में जहाँ सबसे बढ़ कर ऐतिहासिक
यज्ञ का अनुष्ठान हो रहा हो, वहाँ निमंत्रण पा कर भी न जाना मेरे लिए अक्षम्य
होता।
इसके सिवा, मेरे कानों में कोरिया के उस युवक की बात गूँज रही थी। मन ही मन
सोच रहा था कि धन-शक्ति में दुर्जेय पाश्चात्य सभ्यता के प्रांगण-द्वार पर रूस
आज समस्त पाश्चात्य महादेशों के भृकुटि-कुटिल कटाक्ष की उपेक्षा कर निर्धनों के
लिए आसन जमा कर शक्ति की साधना करने बैठा है। उसे देखने के लिए मैं न जाऊँगा,
तो कौन जाएगा? ये शक्तिशाली की शक्ति को, धनवान के धन को खतरे में डाल देना
चाहते हैं, इसमें हमें डर किस बात का? हम क्यों बिगड़ें? हमारी शक्ति ही कितनी
है, धन ही कितना है? हम तो संसार के निरन्न-भूखे-निःसहायों में से हैं।
यदि कोई कहे कि दुर्बलों की शक्ति को जगाने के लिए ही वे कटिबद्ध हुए हैं,
तो हम किस मुँह से कहें कि उनकी परछाईं से दूर रहो? सम्भव है, वे भूलते भी हों,
पर उनके विपक्षी भूल नहीं करते, यह कौन कह सकता है? किंतु आज तो मनुष्य का
निस्तार नहीं। कारण, शक्तिमान की शक्ति अत्यन्त प्रबल हो उठी है -- अब तक भूलोक
उत्तप्त हो उठा था, आज आकाश को अति पापों ने कलुषित कर दिया है, निरुपाय आज
अत्यंत ही निरुपाय है -- समस्त सुयोग-सुविधाएँ आज मानव समाज के एक ओर पुंजीभूत
हैं, दूसरी ओर सर्वत्र अनंत निःसहायता ही नजर आ रही है।
इसके कुछ दिन पहले से ही ढाका के अत्याचार की बात मेरे मन में उधेड़-बुन
मचाए हुए थी। कैसी अमानुषिक निष्ठुरता थी वह, पर इंग्लैंड के अखबारों में उस
जैसी कोई खबर नहीं छपी, जब कि यहाँ किसी मोटर दुर्घटना में दो-एक आदमी मर जाने
पर उसकी खबर देश के इस छोर से उस छोर तक फैल जाती है। मगर हमारा धन-प्राण-मान
तो बहुत ही सस्ता हो गया है। जो इतने सस्ते हैं, उनके विषय में कभी न्याय या
सुविचार हो ही नहीं सकता।
हमारी फरियाद संसार के कानों तक पहुँच ही नहीं सकती, सारी राहें बंद हैं। और
मजा यह कि हमारे विरुद्ध संसारव्यापी प्रचार करने के उपाय इनके हाथ में पूरे
तौर पर है। आज कमजोर जातियों के लिए यह भी एक बड़ी भारी ग्लानि की बात है,
क्योंकि आज जमाना ऐसा है कि जनश्रुतियाँ-अफवाहें तक सारी दुनिया में फैल जाती
हैं, वाक्य-चालना के यंत्र तो सब शक्तिमान जाति के हाथ में हैं, और वे बदनामी
और अपयश की ओट में अशक्त जातियों को विलुप्त रखना चाहते हैं। संसार के सामने यह
बात काफी तौर से प्रचारित है कि हम हिंदू-मुसलमान आपस में मार-काट करते ही रहते
हैं, इसलिए...इत्यादि। मगर यूरोप में भी तो किसी दिन सांप्रदायिक मार-काट होती
थी -- वह गई किस तरह? केवल एक शिक्षा के प्रचार से उसका लोप हुआ है। हमारे देश
में भी उसी उपाय से सांप्रदायिक झगड़ों का लोप हो सकता था, मगर अंग्रेजी शासन
को यहाँ सौ वर्ष से भी अधिक हो गए, पर पाँच फीसद आदमियों के भाग्य में ही
शिक्षा जुटी, और वह भी शिक्षा नहीं, शिक्षा की विडंबना मात्र है।
अवज्ञा के कारणों को दूर करने की कोशिश न करके लोगों के सामने यह साबित करना
कि हम अवज्ञा के ही योग्य हैं, यह हमारी अशक्ति का सबसे बड़ा टैक्स है। मनुष्य
की समस्त समस्याओं के समाधानों की जड़ है सुशिक्षा। हमारे देश में उसका रास्ता
ही बन्द है। कारण, 'कानून और व्यवस्था' ने और किसी उपकार के लिए जगह नहीं रखी,
खजाना बिल्कुल खाली है। मैंने देश के कामों में शिक्षा के काम को श्रेष्ठ मान
लिया था -- जनजागरण को आत्म-शक्ति पर भरोसा रखने की शिक्षा देने के लिए अब तक
मैंने अपनी सारी सामर्थ्य लगा देने की कोशिश की है। इसके लिए सरकार की अनुकूलता
को भी मैंने ठुकराया नहीं, और साथ ही कुछ आशा भी रखी है, मगर तुम तो जानते ही
हो, कितना फल मिला है। समझ चुका हूँ, यह होने का नहीं। हमारा पाप जबरदस्त है,
हम अशक्त हैं।
इसीलिए जब सुना कि रूस में सर्वसाधारण की शिक्षा शून्य अंक से एकदम बड़े
अंकों में बढ़ गई, तब मन ही मन निश्चय कर लिया कि रुग्ण शरीर भले ही और भी
रुग्ण हो जाए, पर रूस तो जाना ही होगा। ये लोग समझ गए हैं कि अशक्त को शक्ति
देने का एकमात्र उपाय है शिक्षा -- अन्न, स्वास्थ्य, शांति सब कुछ इसी पर
निर्भर है। कोरे 'लॉ एंड ऑर्डर' से न तो पेट भरता है, न मन। और तुर्रा यह कि
उसके दाम चुकाने में सर्वस्व बिक गया।
आधुनिक भारत की आब-हवा में पला हूँ, इसी से अब तक मेरी इस दृढ़ धारणा के लिए
कि लगभग तीस करोड़ मूर्खों को विद्या दान करना असम्भव ही समझो, शायद सिवा अपने
दुर्भाग्य के और किसी को दोष नहीं दिया जा सकता। जब सुना कि यहाँ किसानों और
मजदूरों में शिक्षा का प्रचार बड़ी तेजी से हो रहा है, मैंने सोचा कि वह शिक्षा
मामूली होगी -- जरा-सा पढ़-लिख लेने और जोड़-बाकी कर लेने भर की, सिर्फ गिनने
में ही उसका गौरव है, पर क्या इतना थोड़ा है! हमारे देश में इतना ही हो जाता,
तो राजा को आशीर्वाद दे कर देश लौट आता। परंतु यहाँ देखा कि खूब अच्छी शिक्षा
है -- आदमी को आदमी बना देने लायक, नोट रट कर एम.ए. पास करने की-सी नहीं।
परंतु ये सब बातें और जरा विस्तार से लिखना चाहता हूँ, आज तो अब समय नहीं
रहा। आज ही शाम को बर्लिन की ओर रवाना होना है। उसके बाद तीन अक्टूबर को
अटलांटिक पर यात्रा करूँगा -- मियाद कितने दिन की, सो आज भी निश्चित नहीं कह
सकता।
मगर शरीर और मन हामी नहीं भरते -- फिर भी अबकी इस मौके को छोड़ने की हिम्मत
नहीं पड़ती -- अगर कुछ बटोर कर ला सका, तो जिंदगी के जो कुछ दिन बाकी हैं,
उनमें आराम कर सकूँगा। नहीं तो, दिन पर दिन मूल धन खा कर अंत में बत्ती बुझा कर
विदा लेना, यह भी बुरा प्लान नहीं है - थोड़ा-सा उच्छिष्ट बिखेर जाने से जगह
गंदी हो जाएगी। पूँजी ज्यों-ज्यों घटती जाती है, त्यों-त्यों मनुष्य की आंतरिक
दुर्बलता प्रकट होती जाती है -- उतनी ही शिथिलता, झगड़ा-टंटा, एक-दूसरे के
विरुद्ध कानाफूसी बढ़ती जाती है। उदारता अधिकतर भरे पेट पर निर्भर होती है।
जहाँ कहीं यथार्थ सिद्धि का चेहरा दिखाई देता है, वहीं देखते हैं कि वह सिर्फ
रुपये दे कर बाजार में खरीदने की वस्तु नहीं -- दरिद्रता का खेत ही सोने की वह
फसल देता है। यहाँ की शिक्षा व्यवस्था में जैसा अथक उद्यम, जैसा साहस, जैसी
बुद्धि-शक्ति और जैसा आत्मोत्सर्ग देखा, उसका थोड़ा अंश भी अगर हममें होता तो
कृतार्थ हो जाता। आंतरिक शक्ति और अकृत्रिम उत्साह जितना कम होता है, रुपए की
खोज भी उतनी ही अधिक करनी पड़ती है।
25 सितंबर, 1930 |