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लोग ही चुनेंगे रंग-  ‘लाल्टू’


 
अड्डे पर कविता

 

बस भूखी प्यासी अड्डे के पिछले हिस्से में आ गई है
लोग-बाग जल्दी से फारिग हो रहे हैं
परिवेश गद्य का मुझे है कविता की प्यास

बैठे बैठे हो रही बोरियत, याद आ रहे तीस साल पुराने डर
हालाँकि पापा मेरे नहीं दूसरी ओर बैठे बच्चे के उतरे हैं

सोचते सोचते दो चार पैसों के हिसाब में उलझा है मन
धत्तेरे की अचानक ही कहती है कविता
और मैं प्यार करता हूँ उसे

वापस आ रहे हैं लोग
बस चल पड़ी है
अड्डे पर कविता हाथ हिला रही है.

(प्रगतिशील वसुधा - 2005)

 

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