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उदास पानी
उपेंद्र कुमार
भाग-
2

भाग-1 भाग-2 भाग-3 भाग-4
     निवेदन
1. गुम हो गई है संसद
2. रति
3. हस्तिनापुर निर्णय नहीं करता
4. द्रौपदी और दुर्योधन
5. लौट आओ
6. राजगीर
7. एक अधूरी कविता सुनते हुए
8. अनन्त
9. पेड़ों के लिए
10. गौरेय्या और घर
11. सीमा रेखा
12. हमारे लिए
13. नदियों की स्मृति
14. अव्यक्त की विकलता
15. जो है यहाँ
16. व्यस्तताएँ
17. काल-अश्व
18. प्रतीक्षा में पहाड़
19. रखना खुले द्वार
20. पत्ते नीम के
21. जलावतन
22. उठो चलो मेरे साथ
23. स्वयं से सम्बोधित
24. आवृत्ति
25. एक कठिन समय
26. न पढ़ते हुए कुछ भी
27. छतरियाँ
28. संध्या का दिव्यालोक
29. मंजिलों से मुक्ति
30. सागर मंथन
31. एक दिन
32. शून्य का निर्माण
33. चाओं जैसे
34. गोआ का चेहरा

 
35. गोआ के पैर
36. पुनर्जन्म
37. पुश्तैनी मकान
38. रचना
39. फूल सा वो शहर
40. उसे ही बनना है समर्थ
41. अबूझ भुलावे
42. व्यतीत होता
43. कालजयी
44. बसीयत
45. पढ़ते हुए समय को
46. चुप नहीं है समय 

सीमा रेखा

एक हद को
एक दूसरी हद से
या
एक होने को
किसी दूसरे होने को
या
एक कुछ नहीं होने को
दूसरे कुछ नहीं होने से
पता नहीं किसको किससे
करती है अलग
ये सीमा रेखा
वर्जनाओं को अनुमति से
या आदेशों को सहमति से

और फिर
वहाँ क्या होता है
जहाँ होती है सीमा रेखा
और यदि कुछ नहीं होता वहाँ
तो फिर क्यों होती है वहाँ
सीमा रेखा
आतुर जिसके अतिक्रमण हेतु
सबका मन हमेशा

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हमारे लिए

सारे जोड़-घटाव
गुणा-भाग के बाद
जो बचता है शेष
वही होता है हासिल
अर्थात्
मिलेगा वही
जो बचा रहेगा
सब के बाद

पंगत के
उठ जाने के बाद
बही-खातों के समेट लिए जाने
के बाद
अख़बारों के
छप जाने के बाद
जब कर चुके होंगे
सब लोग हासिल
वो सब कुछ
जो बटोर सकते हैं
उनके हाथ
और मनाया जा रहा होगा जश्न
तब जो होगा शेष
वही होगा
हमारा हासिल
उसे हम गिनेंगे
बार-बार
और नहीं जान पाएँगे कभी
कि गिनने
और गिनकर सहेजने जैसा
कुछ भी तो नहीं था
वह
जो था
हमारा हासिल

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नदियों की स्मृति

स्मृतियाँ भी
होती हैं
नदियाँ
जब तब
जिन में डुबकी लगाना
सार्थक है
नदी-स्नान या
पीपल पर चल चढ़ाने-सा
विस्मृत होता जा रहा है
एक / आम रिवाज
मांगलिक अवसरों पर
नदियों को निमंत्रित करने का

बड़े भाई के विवाह का
निमन्त्रण-पत्र मैं स्वयं
देकर आया था गंगा को

यह भूलना कुछ यूँ है कि
नदियों की बातें
अब हम पूछने लगे हैं
संस्कारों की बजाय
भूगोल से
जिसे यह तक नहीं मालूम कि
नदियों के वंशज हैं
आदमी और वृक्ष

आदिम पुरखिनें
हमारी ये नदियाँ
जानती हैं हमारी व्यथा को
जानती हैं वे
वृक्षों को
उनकी कथा को

परन्तु हम तो भूल कर सब
बदलते समय में
व्यस्त हैं नदियों के खिलाफ
रचने में षड्यंत्र

नदियों की स्मृति आज भी
चाहती है सुनहरी कांति बाली
छवियाँ
क्योंकि उन्हीं से
उपजी है पवित्रता

(शीर्ष पर वापस)

अव्यक्त की विकलता

जब भी मैं
चलता हूँ
पर्वतों और बादलों के संग
होता हुआ आह्लादित
तो मेरे भीतर कहीं
साथ-साथ लगती है चलने
एक कविता

बनो, पक्षियों
फूलों, पौधों, पेड़ों
पानी, बर्फ और अनेक चीजों की
विशालता भव्यता और सुन्दरता की
बताती वो बातें
जो न मैंने कहीं
होती हैं पढ़ी
न कभी होती हैं सोची
दिखाती दृश्य
ऐसे अनेक
जो अन्यथा छूटे ही रहते
मेरी दृष्टि की पहुँच से

कविता-यात्रा
यह रहती है चलती
तब भी
रुक जाता हूँ जब मैं
अंगों की शिथिलता
यंत्रों की विफलता का मारा
किसी पहाड़ की ढलान
घाटी की गोदी
चोटी के समतल में
अपनी व्यग्रता में
उठाता हूँ कलम
बारम्बार
इस अंतः सलिला को
बाहर लाने को
सबको बताने को
अपने गूँगे आनन्द को
सबके साथ मिल-बाँट खान को

परन्तु होता है
जो भी व्यक्त
लगता है बहुत बोना, असमर्थ, कांति-हीन
उन दिव्य अनुभूतियों के समक्ष
मैं खीझ-खीझ उठता हूँ
अपने पर
भाषा-सामर्थ्य और शब्द-ज्ञान पर
हो विवश
फिर-फिर
खोजता हूँ
नई भाषा, नया व्याकरण
नया शब्द-कोष

हे ईश्वर
यदि दोनों ही थी अनुभूति
तो फिर दी क्यों नहीं अभिव्यक्ति

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जो है यहाँ

ये जो विचार है
क्या देगा जन्म
किसी सरोकार को
या यूँ ही गुजर जाएगा
बिन बरसे बादल की तरह

डर है
आशंका उसकी
जो हो भी सकता है
और नहीं भी
परन्तु डर
तो हो जाता है
और फिर बना रहता है
कुछ यूँ कि
होती है चिंता
डर की
बस डर की
वह अनजाना-सा डर
जो अकरण ही
बचपन में
बैठ गया कुंडली मार पेट के गड्ढे में
करता रहा है यात्राएँ साथ-साथ
जब चाहता है
उठा लेता है फन
बादल जो बरसता नहीं
है दुःख
या चिंता
रहता है वहीं
आकाश में टँगा

पोशाकें बदल
बन-ठनकर चलने
बेफिक्र हँसी हँसने से
क्या हो जाता है बचाव?
उस सबसे
जो है यहाँ

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व्यस्तताएँ

हो गई हैं इकट्ठी
बहुत सारी व्यस्तताएँ
चलें
अपरिचित
निरापद जगह
और छोड़ आएँ
व्यस्तताएँ

मुक्त हो बोझ से
चल दें
कहीं भी
पानी में भीगने
बूंदों से पुलक कर मिलने
या मूसलाधार पर हँसते हुए
रुकें किसी कोने में
और कसकर थाम लें
एक दूसरे की हथेलियाँ

जब हम निकलेंगे
घूमने
तो हवा शीतल होगी

हल्की
पारदर्शी
चाँदनी
पिघली होगी
पगडंडियों पर
जो गुजर रही होगी
हमसे होकर

जब चल रहे होंगे
साथ-साथ
तुम्हारे पद-चिन्हों पर
उग आएँगी कोपलें
उन्हें हथेलियों के बीच रखूँगा मैं
छतनार वृक्ष बनने तक

फिर
अमृत बन
दूर तक फैलेगी छाया

चलो छोड़ आएँ अब
व्यस्तताएँ

(शीर्ष पर वापस)

काल-अश्व

सप्त वल्गाओं से
नियन्त्रित
दौड़ते रहते हैं सतत्
न थकते
न जीर्ण होते
अक्षय बलवान
हैं काल अश्व
बेगवान।

घूमते रहते हैं
सर्वत्र समस्त भुवनों में
चकित करते हुए
अनुष्ठानों को
ब्राह्मणों और प्राणियों को
अदृश्य देवताओं को
आगामी भविष्य को
अभिमंत्रित करते हुए

यह काल
अपनी सात नाभियों की धुरी में
अमृत कलश लिए देखता है-
प्रमाण स्वरूप
रचने और रचे जाने के बीच
अपने इन घोडों, बछेड़ों को
जो अबोध निरन्तरता में
विद्युत गति से
दीखते हैं दौड़ते
चतुर्दिक
रौंदते गुजरते हैं
काल-अश्व
अतीत, वर्तमान और भविष्य को
अंकित करते
अपने पदचिह्नों को
प्रतिचिह्न के रूप में
चित्रित करते
निरन्तर....।

हो नहीं पाता
सवार इन पर कोई
न मरा हुआ इतिहास
और न हर क्षण मरता वर्तमान

प्रयत्नशील
आरूढ़ हो पाने की कामना में
जुड़ते हैं
उम्मीदों भरे
हाथ हमारे
आकाश की ओर
प्रार्थना की मुद्रा में
जब भी होती है
फसल भरपूर
होते हैं पीले हाथ बिटिया के
हरी होती है कोख
लाता है डाकिया मनीऑर्डर
लौटते हैं परदेशी
सुलझ जाते हैं विवाद
और हमक
अश्वारोहण की प्रतीक्षा में
झेलने लगते हैं वर्तमान

परन्तु सहसा बगल से
निकल दौड़ता
चलता जाता है एक और
अश्व
और उस पर
सवार हैं
इच्छाएँ
सभी रंगीन
कामनाएँ
सवार हैं सदियों से
तमाम अश्वों पर
चारों ओर से
अब वैसा ही
दीख रहा है
काल अश्व का
गुज़रना।
अवसाद के अन्धेरे में
नहीं होता कोई विजेता
वहाँ अपनी पराजय
और ध्वंस के मलबे में
कोई जान भी नहीं पाता
कि कर गया कब
अंकित काल-अश्व
टापों के चिह्न
समय सीने पर

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प्रतीक्षा में पहाड़

कितना गलत
जानते हैं हम
पहाड़ों के विषय में
जैसे सर्दी-गर्मी के मौसम का
नहीं होता उन पर कुछ भी असर

बेचारे
बरसात से गीले
अपने कपड़े सुखा भी नहीं पाते
कि सिर पर आ धमकती हैं सर्दियाँ
सूखने लगता है
शरीर का हरा खून
पड़ जाते हैं चेहरे सफेद
पसरता है चतुर्दिक
साँय-साँय सन्नाटा
डूब जाते हैं पहाड़
चिर प्रतीक्षा में
निस्तब्ध

माघ के
सूरज को ताप
होती है दूर अकड़न
हाथ-पाँव की
दौड़ना शुरू होता है शिराओं में
पुनः हरा रक्त
हथेलियों से चेहरा पोंछ
फिर सारी ठंड ढँक देते हैं पहाड़
आकाश में बादल बना
परन्तु करते हैं धन्यवाद ईश्वर का
तपते मैदान
बारिश के लिए

कितना गलत
जानते हैं हम
पहाड़ों के विषय में
मसलन पहाड़ होते हैं केवल पहाड़

कितना कुछ करते हैं
पालते हैं पूरा का पूरा कुटुम्ब
गाँव से गाँव अपनी गोद में
बुलाते हैं बच्चों को
गर्मियों में मित्रों सहित
मायके आयी नदियों को
करते हैं विदा बरसात में
भेजते हैं फलों-फलों के उपहार
दूर-दराज के मित्रों को
जो जाते हैं भूल
धन्यवाद करना पहाड़ों का

कितना गलत
जानते हैं हम
पहाड़ों के विषय में

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रखना खुले द्वार

वातायान द्वार
लगते हैं करने बन्द
न होने पर
ऋतुओं के थोड़ा भी
मनोनुकूल
या तेज होते ही हवा की गति तनिक-सी भी
जाते हैं बैठ बन्दी बने
गृह-कारा में निश्चिंत
वायु के तरंगायित कम्पनों
तथा मौसम के इंगितों से
कर अलग स्वयं को

चली होती है हवा
आकाशों के भी
ऊपर वाले आकाशों से
सूक्ष्तम कम्पनों की तरंगें ले
पेड़ों ने, पत्तों ने
झूम-झूम कितना कुछ कहा होता है उसमें
फूलों ने उसे कितना दुलराया
पक्षियों ने उसे कितना फड़फड़ाया
और सूरज तथा बादलों ने
जोन क्या-क्या भरा होता है उसमें।
और यह सब साथ ले
तेज-तेज चलती हुई
जब आती है वो
पास हमारे
तो बैठे होते हैं हम
बन्द कर अपने मन-द्वार
चुम्बकीय आकर्षण में आबद्ध
नृत्यरत पृथ्वी
और सूर्य के
मृदुल संकेतों पर
कर नित नूतन शृंगार
रिक्षा मानिति प्रकृति को
रंग उसे अपने रंग में
स्वयं की सफलता पर
उत्साहित, किंचित उत्तेजित-सा
नाचता, इठलाता
ऐसे ही जब मौसम भी
आता है पास हमारे
तो होते हैं बैठे हम
बन्द दरवाजों खिड़कियों से पीछे
असम्पृक्त

नहीं ज्ञात
किस सर्प के
ललचाने पर
कर लिया
अविष्कृत
और फिर
परम्परा के उत्तराधिकार में
पाते रहे
ये द्वार, ये गवाक्ष।
रहे ढूँढ़ते
नए-नए रास्ते
इनके उपयोग के।
बनते गए पाषाण
अंशों में
धीरे-धीरे।
किसी अनिश्चित अपरिचित
राम के आगमन तथा प्रज्ञा स्पर्श हेतु
प्रतीक्षारत रहने से तो होगा बेहतर
कि हर कोई सुने
हवा के प्रत्येक कम्पन को
करे प्रयत्न समझने का
उसमें निहित सन्देशों को
जो हो सकता है कुछ भी
अर्थहीन
अथवा विभिनन सृष्टियों के
अगम्य रहस्यों से
आविष्ट इतना
कि न हो पाए सम्प्रेषित
अविष्कृत शब्दार्थों से
परिचित ध्वनियों से।
जोन हुए त्यों की सीमा के भीत
यदि हर कोई सुने
शताब्दियों के
समस्त द्वारों को खोल
नहीं मानते हुए
परिचित ध्वनियों
शब्दों उनके अर्थों को
समझ की लक्ष्मण रेखा
और वो सब कुछ
जो जाए समझ की परिपूर्णता की परिधि में
उसे भी करे अविष्कृत

मंत्रों की भाँति
उचारे
मिलाए उन्हें
मिलाए उन्हें
खुले द्वारों, वातायनों से
आए इंगितों, संकेतों के साथ
बिना किए उन्हें
आन्दोलित या विचलित
गूँज की अनुगूँज की तरह
ताकि हवा फिर बहे
जा निकले बाहर
मौसमों के बीच
पेडों की ओर
जो सम्भव है
खड़े हों
या रहे हों झूम
निभाते हुए भूमिका अपनी
प्रकृति के निर्देशन में
रहे हों गा
स्वर मिला
बादलों तथा आकाशगंगा के संग

वहीं तो
मिलेगी हवा मौसम से
बताएगी
निष्प्रयोजन प्रयासों के रहस्य
द्वारों के खुलने का समाचार
मनाएगी
प्रज्ञा मुक्ति का पर्व
और बहला कर
ले आएगी
मौसम को
हम सबके बीच
ताकि मिलकर दोनों
कर सकें शुरू अपना काम
जो भी पाषाण-खंड
हों विद्यमान
हों वे अतीत या वर्तमान
चुन-चुन कर उन्हें
दे पहुँचा
भविष्य के भी पार
बस खुले रखना द्वार...

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पत्ते नीम के

हवा चली
ठनके पत्ते
हरे नहीं
बादामी
नीम के
झरने से पहले

बगल में उगे पेड़ ने
झुक कर मेरी तरफ
बढ़ाए थे टहनियों के हाथ
हरे पत्तों की
सँवलाई छाँह के नीचे
निपटाए थे बहुत से काम
बढ़ने लगी थी
परस्परता

हरे पत्ते गर्मियों में
झुलाते थे पंखा
और सर्दियों में
गुनगुनी धूप
छनकर आती थी मुझ तक

झर-झर शोर मचाती
परिहास में डोलती
टहनियाँ
बढ़-बढ़ कर घेरती थी
फूलों से
निम्बोरियों से
फूटती सुगन्ध ने
कितनी ही बार बुलाया
और हर बार वही सुगन्ध
प्रमुदित करती थी
कविताओं को

लिखा है भविष्य
इन हरे पत्तों पर
जो पतझर में
पीले से बादामी होते
जमीन पर
गिरते ही रहते हैं

अगले पतझर में भी
पीले पत्तो
तुम आना
मैं तुम्हें दूँगा समय को

(शीर्ष पर वापस)

जलावतन

बेगाने शहर को
हर ठोकर
उस अगले पड़ाव की
हादसा भरी घटना है
जो एक अमानुष होने की यात्रा है।

तपिश कायम रहे
बहते लहू की
इसीलिए
ईंधन बन जल रहा हूँ मैं
अब न करो मुझसे
मेरे गाँव की चर्चा

गाँव
जहाँ होता था मैं
गामा, कुश्ती लड़ते हुए
पेले, खेलते हुए
कपड़ों के लत्तों से बनी फुटबाल
कृष्ण कन्हैया
माई के फटे गँधाते आँचल के नीचे
कथरी पर सोते हुए
लाल बहादुर
बापू से डाँट सुन
पढ़ने जाते हुए
जो रह गया है
यादगार बन
कभी न खत्म होने वाले कर्ज का
लाठियों, कट्ठों, फूटते सिरों, गंधाती लाशों का
कुवांरियों के
अन्तिम समर्पण का
त्रासद वृत्तान्त

अब तो रह गया है
गाँव
जतन से सहेजकर रखी हुई
एक सुन्दर पुरानी तस्वीर
आ गिरा है लद्द से
जिस पर
वक्त का थूका हुआ बलगम

ईंधन बना
जानता हूँ
जब भी अभाव होता है
महानगर में
जलावन की खातिर
झोंक दिया जाता है
कोई एक गाँव
और पैशाचिक नृत्य में
रौंदते हैं
सब कुछ जनतंत्र की
चिता पर उत्सव मनाने।

अपने ही घाव से बहते
लहू को
कुत्ते की तरह
चाटने का भी
होता है एक सुख
जलावन बनने के सुख जैसा ही
बुने जा सकते हैं
स्वप्न
प्रतिहिंसा और दुराशा से भी

ईंधन बन जलता में
सही समय और सही हाथों में
ले सकता हूँ आकार
मशाल का
पर
राख बनने से पहले
धरती की गोद में समाने से पहले
प्रमुदित हो सकता हूँ
रोम को जलते देख
नीरो की जगह न बैठाओ मुझे
मैं जलते हुए
ठीक हूँ
गाँव के विकल्प में

(शीर्ष पर वापस)

उठा चलो मेरे साथ

क्या टकटकी लगाए हो
असाधारण की तरफ
तोड़ो इसे
उठो चलो मेरे साथ

जो मिलना है
साधारण से मिलेगा
जो खिलना है
धरती से खिलेगा
भूलो साधारण को साधारण समझना
सीखो साधारण को भी
असाधारण ढंग से जीना

देखो हर विशेष आया है
अविशेष से
दुनियाँ की समस्त क्रान्तियाँ जन्मी हैं भूख से

(शीर्ष पर वापस)



 

 

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