स्वयं से सम्बोधित
उस समय भी
जब बतिया रहे होते हैं हम
अपने आप से
तो क्यों नहीं बोलते हैं
केवल सच?
ऐसी स्थितियों में
जब नहीं होता भाषा का बन्धन
संवाद या संप्रेषण हेतु
शब्द और अर्थ से/कोई भी खिलवाड़
हो जाता है बेमानी
होते हैं केवल बिम्ब
स्मृतियों और इच्छाओं के
संवादरत भविष्य से
संप्रेषणीयता जिनकी
निर्भर होती है
वर्तमान की सघनता पर
व्याकुल मन की आँच में
बर्फ बन जाते हैं
सोर अनुत्तरित प्रश्न
और सभी अवांछित उत्तर
होते हैं जब
संवादरत हम अपने आप से
(शीर्ष पर वापस)
आवृत्ति
कमरे में फँसी गौरेया
उड़ती है, गिरती है, फिर उड़ती है
अर्थ की तलाश में शब्द
और अभिव्यक्ति के लिए
बेचैन नाद
गौरेय्या
टकराती है
दीवाल से, खिड़की के काँच से
पंखे से टकरा कर लहू-लूहान।
मरीचिका-सी
बाहरी उजाले की
कोई छोटी-सी फाँक
शायद कल्पना में ही कौंधती हो।
वह भरती है छलाँग
काश निकलती
सर्र.....
आकाश के शून्य और खुलेपन में
लौटती है गौरेय्या पृथ्वी की ओर
धरती के चुम्बक में।
लौटता है एक अमूर्त नाद
यहाँ वहाँ
शब्द
और अर्थ
आपस में टकराते
टक....टक....टक
गौरेय्या भटकती है
यहाँ, वहाँ
प्रश्न, प्रश्न और प्रश्न
लाल, पीले, उजले
हर रूप रंग धरे।
मन
खोजता कोई फाँक
कोई उत्तर
करने को सबको
निरुत्तर।
पीछे सीधे ओर सरल के
भागता है
बेदम हो हाँफता है
सड़कों, गलियों के ओर-छोर भुलावों में
माप बहुत दूरी
रह जाता है
वहीं का वहीं
पता नहीं लगता जाना
सम्भव नहीं हो पाता आना।
रचता है ऐसा चक्रव्यूह कौन
क्या अपनी ही अंतरात्मा का मौन?
विचित्र संरचना है
न द्वारों पर
न केन्द्र में
तैनात महारथी हैं
फिर चक्करदार गलियों की गुंजलकों में
चकरा-चकरा रह जाता है।
और फिर गलियों की क्या हस्ती है
फैला है यह तो
सीधी सपाट सड़कों तक।
जो लगता है,
जाती है शहरों से गाँवों तक
पर
आती है गाँवों से नगरों तक।
सपनों के आने के
मोहभंग कदमों के जाने के
सभ्यता से सभ्यता तक
या अभ्यता से असभ्यता तक
फैले ये रास्ते भी
बस दीखते ही सीधे हैं
वर्ना कहीं घूमते हैं
वर्तुलाकार
न कहीं से लाते हैं न कहीं पहुँचाते हैं
केवल उलझाते हैं
उसी चक्रव्यूह में फँसाते हैं
चक्रव्यूह
जो शायद है
या शायद है ही नहीं
परिधिविहीन है
अथवा अपरिमित।
शायद बड़ा धरती की गोलाई से
जीवन की हर छोटी-बड़ी अच्छाई-बुराई से
बाहर निकल नहीं पाता
हार मान रोता है
या ढीठ हो हँसता है
खींच रेखाएँ सरल
वृत के भीतर
चलता है उन पर
यहाँ से वहाँ
इठलाता है
हाथ हवा में लहराता है।
बाकी सबको बताता है-
निदान है सरल
उपचार है सम्भव
जब चाहूँगा
बता दूँगा
अभी थोड़ा व्यस्त हूँ
और कुछ बातें हैं
उनसे ही त्रस्त हूँ
बार-बार
घूम-घूम
लगती है हाथ वही
बाहर की चुप्पी
अन्तर का मौन
प्रश्नों को दिखाता लाल कपड़ा
पागल-सा पीछे दौड़ता
समूह हो, व्यक्ति हो, निजता हो
लौट आता है, उजाले का सारा सोच-विचार
गौरेय्या की तरह
धरती के चुम्बक की ओर
खींचता है यह पतनशील ठोस पथरीला अस्तित्व
शब्द और अर्थ से परे।
(शीर्ष पर वापस)
एक कठिन समय
समय द्वारा उठाए
प्रश्नों का उत्तर
न तो धरती ने दिया है
ने आसमान ने
वैसे भी माटी
कहाँ देती है जवाब
आसमान कब सुझाता है समाधान
फिर भी
ये जो कर सकते थे किया
धरती के धारण किया
बीज बना सारे प्रश्न
आसमान
गाहे-बेगाहे
रहा उन्हें सींचता
बीजों से फसलें
फसलों से विकसित बीज
विकसित बीजों से
ऐसे ही
चलता रहा
सिलसिला
प्रश्नों के साथ
जुड़ा था समय
जो रहा बदलता उनके साथ-साथ
और आ गया
आज का समय
यानी एक कठिन समय
(शीर्ष पर वापस)
न पढ़ते हुए कुछ भी
वह एक अच्छा दिन था
और वह एक अच्छी यात्रा
जनवरी के अपराह्न का सूरज
ठीक उतना ही गर्म था
जितनी माँ की गोद
उतना तेजस्वी
जितना पिता का चेहरा
रेल के डिब्बे की
खिड़की के ;जहाँ मैं बैठा थाद्ध
ऐन सामने स्वच्द निरभ्र आकश मार्ग से
एकदम अपने साथ-साथ
चलते रुकते
पाया मैंने उसे
आमने-सामने थे हम दोनों
और हमारे बीच में
दौड़ते भागते
गुजरते चले जा रहे थे
हरे-भरे खेत
बाग-बगीचे और गाँव
तालाब और टीले
पशुओं और पक्षियों के झुण्ड
बिजली के खम्भे और शीशम के वृक्ष
यानी वो सारी चीजें
जिन्हें हम रोज देखते और जानते हैं।
परन्तु उनके
हरे, भूरे, नीले, उजले रंगों पर
हल्की-सी एक/स्वर्णिम आभा
डाल दी थी सूर्य के प्रकाश ने
हो उठा था
सारा पार्थिव अपार्थिव
साधारण असाधारण
परिचित
अनजाना और रहस्यमय
अनूठा और अलौकिक
पता ही नहीं चला
कब और कैसे / सूरज ने ले लिया था
मेरे हित में / यह सुखद निर्णय
बड़े शौक से
खोली कविता की किताब
अब भी पड़ी थी हाथों में
अनपढ़ी
सूरज के रचे पल-पल परिवर्तित होते
जादू भरे उन दृश्यों को
मैं देखता रहा/निर्निमेष।
संध्या तक।
उस दिन / न मैंने कुछ पढ़ा
न सोचा।
पर वह एक अच्छा दिन था जो मैंने जीया
एक अच्छी यात्रा थी
जो मैंने कविता में की
(शीर्ष पर वापस)
छतरियाँ
समुद्रों के पार से
आयी हवाएँ
रूपान्तरित स्वयं को
वर्षा की बूँदों में
बरसती हैं जब हमारे सिरों पर
तो जानते हैं
उनके विरूद्ध हम
अपनी छतरियाँ
गौर से चीजों को
देखने-परखने वाले अवगत होते हैं भयावह सत्यों से
मसलन
छातों की
कमानियाँ जर्मन
और कपड़ा विलायती
जब सीख लेते हैं हम
पुर्जा-पुर्जा अलगा कर
जोड़ना दुबारा
तक कहीं जान पाते हैं
जिस टार्च के प्रकाश में
चलाते रहे हैं
अपना काम
लगी हुई हैं उसमें
आयातित बैटरियाँ
आज के दिन मेरे लिए
सबसे विस्मयकारी सूचना है-
सुबह जो आदमी मिला था
चौराहे पर
भीख का कटोरा लिए
वह एक खाते-पीते घर का बुजुर्ग है
(शीर्ष पर वापस)
संध्या का दिव्यलोक
घर जाने की
जल्दी में
जब तेजी से
कदम उठा रहे होते हैं आप
उस
पतली पगडण्डी पर
छपते निशानों और
दर्ज होती
पगध्वनि के साथ
तब देख सकते हैं
कुछ देर तक
धरती पर उतरने वाला
दिव्यालोक
असताचल मुखी
सूरज
जब रंगों को
रंगों से बदलता
लगा देता है
एक प्रदर्शनी
तक क्या आप चुन पाते हैं
अपनी प्रियतमा के लिए
कोई ओढ़नी या चुनरी
जब दिखाई पड़ता है गाँव का
धुँधला सिवान
छप्परों के बीच से उठते
धुएँ के बड़े-बड़े स्तूप
देख पाते हैं क्या
उनमें बनते-बिगड़ते विभिन्न आकार
ठिठक सोचते हैं क्षणांश
इतना कम धुँआ
क्यों उठता है कुछ टोलों से
लगते हैं
सजातीय
वे शीशम के अबोध
लम्बे ऊँचे वृक्ष
छायाएँ जिनकी
होती जाती हैं लम्बी
दिनांत में
साथ देने के लिए
बतियाने की ललक में
दौड़ता आया वो पहला तारा
उमग/उचक पंजों पर
पूछता है-
कहाँ/कौन
तो क्या आप उत्तर में
रह जाते हैं मौन
दीखती है जब पहली चमक
दीए या लालटेन की
अँधेरों के बीच
तो क्या आपके भीतर नहीं होती
प्रज्वलित कोई लौ
मन के कोनों को
करती आलोकित
किसी तरफ से आती
दूध धार की
मोहक... गर... गर... ध्वनि
खींचती है
तेज चाल को
और छोड़ देती है
किसी याद के
घने एकान्त में
पहुँचती है जब कानों तक
थकी बूढ़ी / रामचरितमानस / गाती आवाज
तो आता है याद
राम का वनवास
उभरता है बरसों घर से
बाहर रहने का
पश्चाताप
पोखर किनारे मन्दिर में
आरती की घंटी
किसी प्रौढ़ को भी
बना देती है शिशु
और तेजी से बढ़ते हैं कदम
सच, क्यों नहीं जान पाते
ये सब
जब लौट रहे होते हैं आप
जल्दी में घर
क्यों नहीं देख पाते
अपनी ही किसी विस्मृति में
संध्या का दिव्यालोक
(शीर्ष पर वापस)
मंजिलों से मुक्ति
गंतव्य को
रास्ते नहीं मानते
समाप्ति
ऐसा कोई समझौता
नहीं है उपलब्ध
न प्रमाण कि
हर रास्ता
पहुँचेगा
गंतव्य तक
और हर मंजिल
सदा रहेगी स्थिर
कितने अपरिचित हैं वो
रास्तों और गंतव्यों के इस खेल से
सोचते हैं
उन्हें ही प्राप्त हैं
राहें
और पड़ाव
कितनी-कितनी बार
देखा है
चलते-चलते
मार्ग आगे निकल आते हैं
गंतव्यों से भी
मंजिलें
फिर रास्तों में बदल जाती हैं
हर अन्तिम छोर
फिर से शुरू होता है
जीवन की तरह
अनन्त
कौन चुनता है
मार्ग?
कभी-कभी आदमी के आगे
वे स्वयं आ जाते हैं
और हम उन्हें ही
गंतव्यों के
सारथी समझ
गले लगा लेते हैं
रास्ते, गंतव्य, भटकन
हैं एक-दूसरे के लिए
क्योंकि भटकते हुए
वर्तुलाकार में
हम वहीं पहुँचते हैं
जहाँ से
शुरू हुए थे
और विफलता में अपनी
लज्जा
छुपाते और अधिक
अनावृत हो जाता है
सत्य
जो घटनाओं में
रूपाकार
किसी दूसरे अवसर की
कल्पना है
रचना में तो
अक्सर जाना पड़ता है
पीछे या आगे
समय के सतत सूत्रों में
कोई भी
ठिठकन नहीं है
मार्ग में
चल रहे हैं शब्द
अर्थ
और भीतर से
उमड़ती है कविता
जो कहानी या उपन्यास से भी परे
केवल सृजन है
शब्द भी सृजन हैं
और अर्थ
उससे भी अधिक
आविष्कार
पर उससे भी
महत्वपूर्ण है
निरन्तरता
चाहे धीमी या तेज
वह तेज ही होगी
हर भावी तेवर की तरह
वैसे गति, निरन्तरता
भटकन
गंतव्य
रास्ते
और यात्रा
हैं तो ये सब
मात्र शब्द
और शब्द
केवल चीख भर हो सकते हैं
तपश्चर्या से बाहर
भीतर का रास्ता
अनाम हो जाता है
हर अनाम
अन्त का संकेत है
ठीक सृजन और
संरचना की तरह
संप्रेषित
होने की प्रक्रिया में जिसे
बनना था एक विराट सत्य
बीच रूप में ही
छिन्न होता है
अविछिन्न होने के लिए
अब शब्दों का दोहन कर
फिर से अर्थ
अर्थों के भी अर्थ
निरर्थ हैं
ठीक इसी तरह
गंतव्य
जहाँ पहुँचकर
फिर लगता है
कुछ शेष है
(शीर्ष पर वापस)
सागर-मंथन
न भूतो
न भविष्यति
जैसी कोई घटना
नहीं है सागर-मंथन
यह नहीं है
अतीत का कोई ऐसा
सामूहिक अभियान
जिसे भविष्य दुहरा न सके
मिथक होते हुए भी
हैं कहीं इतिहास
सागर-मंथन
अभिशप्त अपने आपको दुहराने के लिए
नितान्त वैयक्तिक स्तर पर
एकांतिक रूप से
मंथन
उस सागर का
लहराता है जो
सबके भीतर
कभी ज्वार, कभी भाटा
सुखों का
दुचिंताओं का
विचारों का सागर
जिसे
जीवन, समय
परिस्थितियाँ और पूर्वाग्रह
मथते जाते हैं
निरंतर
रहना होता है
सदा सचेत
निजी सागर-मंथन के प्रति
वर्ना कभी-कभी
धर लिए जा सकते हो
ऐसी वस्तुओं को
रखने के अपराध में
जिनका लाइसेन्स
नहीं होगा तुम्हारे पास,
मसलन
स्वतंत्र विचार
सही सिद्धांत
या फिर एक निर्भय मन
बन सकते हो,
दूसरों की ईर्ष्या का पात्र
यूँ ही
मर सकते हो
असावधानी बरतते हुए
हलाहल के प्रति
मंथन से निकले
स्वर्ग और नर्क
तुम्हारे ही रहेंगे
जिन्हें एक-दूसरे से
बदलते रहोगे तुम
अपनी लक्ष्यहीन अनन्त यात्राओं में
सम्भावनाओं की धरती पर
सब कुछ सजा
खोल सकते हो तुम
एक डिपार्टमेंटल स्टोर
मंथन से उत्पन्न
दुस्तर फेनराशि
बना सकती है तुम्हें
कभी भी सफल व्यापारी
क्योंकि प्रत्येक ग्राहक
संतुष्ट नहीं होता जब तक
खरीद न ले वह ऐसा कुछ
जो उपलब्ध ही न हो
बिक्री के लिए
तुम्हारा यह
व्यक्तिगत सागर मंथन
कम नहीं
किसी मिथक से
यह तुम्हें
सारे अँधेरों समस्त भटकनों
के पार
पहुँचाएगा एक दिन
और अगस्त्य-सा
सोख लोगे तुम
दुश्चिंताओं का लहराता सागर
(शीर्ष पर वापस)
एक दिन
सुबह जागते ही
फड़फड़ाता हुआ
एक कबूतर आ बैठा
मेरे कन्धों पर और बोला-
मैं आज का दिन हूँ
मैं नहीं बता सकता / दिन और कविता
दोनों की शुरुआत में ही
कहाँ से आ गया कबूतर
फिर भी मैंने देखा उसकी ओर / किसी संदेशे के
अंदेसे में
संदेशे तो अब डाकिए लाते हैं
कबूतर तो केवल/फड़फड़ाते हुए
दिन बनकर आते हैं
मैंने सोचा-
कैसा दिन है
नहीं है जिसके पास कुछ भी
कहने के लिए
क्यों, तुम्हारे पास है क्या कुछ
उस दिन से कहने के लिए
पलट कर जबाव आया
(शीर्ष पर वापस)
शून्य का निर्माण
हवा और आग को
साथ ले
मिट्टी गूँथ
करता है निर्माण जब
महाशून्य
होता है अद्भुत वह क्षण
जन्म का
सपनों के पंख सजा
उड़ता समय
लगा डालता है,
कितने ही चक्कर
धरती और आकाश के बीच
घाटियों में
डोलते आकार
पहुँचते हैं
शिखरों तक
अदृश्य होने से पूर्व
यांत्रिकता की
बेजोड़ कसावट के बीच
पाते ही थोड़ी उर्वर भूमि
उग आती है कविता
भयभीत करती अभेद्य कवचों को
सुलझाती गुत्थियाँ
भीतरी रहस्यों की
शब्दातीत अनुभवों के
सहारे
अपने नन्हें हाथ हिला
विदा दे रही होती है
जब दूब वसंत को
कविता पहुँचती है वहाँ
तिरोहित होने से पूर्व
लौटा देती है
सब कुछ वापस महाशून्य को
पुनः निर्माण का
चमत्कार भरा सुख
देती है भोगने
(शीर्ष पर वापस)
ऋचाओं जैसे
इस सूखी झुलसी
त्वचा में भी
कर देता है पैदा
सिहरन
यह सोचना
कि जो हवा छू रही है मुझे
आई होगी तुम्हें भी छूकर
और तुम्हें पता भी नहीं
इस बात का
बावजूद सब कुछ के
एक हैं
तुम्हारे और मेरे
वे पर्वत शिखर
जिन्हें तुम छूती हो
नित्य दृष्टि से
और मैं
स्मृति में
उन शिखरों पर
जमा श्वेत हिम
कब गलकर गिर जाता है
तुम्हारी आँखों से
मैं जान भी नहीं पाता
परन्तु जानता हूँ-
ऐसा बहुत-कुछ
जो तुम सोचती हो
मैं नहीं जानता
जैसे कामना के
उस सिरे से
जो तुम्हारे पास है
उपजा वह भाव
जिसमें अंकित है तुम्हारा
निःशब्द चुम्बन
अथवा प्राणों की वह आग
जो अपनी दुलार भरी छुअन से
रोमांचित करती
हमारे भीतर उतर
ले जाती है वर्षों पीछे
तुम्हारे होंठों के
छुअन की
मादकता लिए गीत
पहुँचते हैं
समय के दूसरे छोर पर बैठे
मुझ तक
अपने अमरत्व में-
ऋचाओं जैसे
(शीर्ष पर वापस)
गोआ का चेहरा
मेरी डायरी के
कुछ पन्नों पर
फैला है समुद्र
ये वे दिन हैं
जब मैं समुद्र के पास गया था
उसे छुआ था
उसके साथ जिया था
उसे महसूस किया था
और उसके अन्दर घुस
निकाल लाया
खारे पानी से भींगे
कुछ पृष्ठ
बहुत दिनों बाद तक
सुखाता रहा था मैं जिन्हें
मैदानी हवाओं में
फेनिल लहरों से लेकर पानी तक के
स्पर्श से उत्तेजित मदमाते
नाचते गाते लोग
भरे पड़े हैं इन पृष्ठों में-
विदूषकों से रंगीन परिधानों में सुसज्जित
रंगीन लोग
भोंडे और अश्लील ढंग से
प्रसन्न लोग
जो न देखते हैं
न पहचानते हैं
सागर का तातत्य
या विक्षुब्ध लहरों का
सर पटकना बार-बार
पथरीले तटों पर
बहुत से रंग-बिरंगे फूल
इन पृष्ठों पर
सजे हैं
एक टहक पीला फूल
जो आ जाता था हर कहीं
मुझसे मिलने।
एक हल्का गुलाबी
खुशबू से भरपूर
मुस्कुराता फूल
जो सदा रहा मेरे साथ
जीवन को करता
वसंत-वसंत
आगे के बयान में
नाच-गाने
और खाने-पीने से बेहतर है कि
मैं आपको बताऊँ
उस चित्र की बात
चटख और हल्के
इन्द्रधनुषी रंगों के बीच
भूरे और मटमैले रंगों पर
सुनहरी रंग चढ़ा
बनाए गए उस चित्र की बात
जिसमें एक चेहरा
किसी बुढ़ाती औरत
या शायद
किसी जवान होती लड़की जैसा
विवाहिता अथवा कुमारी
ठीक पता नहीं चलता
आँखों में टँगी है किसी
चिर-कुमारी की खिसियाई-सी प्रतीक्षा
और होंठ ऐसे जो बस अभी
तुरंत सुनाने वाले हों-
कोई डिस्को नम्बर
या फिर एक लम्बा उदास गीत
यह चेहरा
डूबता है
डोना पाउला के प्रत्येक सूर्यास्त के
साथ
और उग आता है
प्रत्येक सूर्योदय के साथ
(शीर्ष पर वापस)