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उदास पानी
उपेंद्र कुमार
भाग-4

भाग-1 भाग-2 भाग-3 भाग-4
     निवेदन
1. गुम हो गई है संसद
2. रति
3. हस्तिनापुर निर्णय नहीं करता
4. द्रौपदी और दुर्योधन
5. लौट आओ
6. राजगीर
7. एक अधूरी कविता सुनते हुए
8. अनन्त
9. पेड़ों के लिए
10. गौरेय्या और घर
11. सीमा रेखा
12. हमारे लिए
13. नदियों की स्मृति
14. अव्यक्त की विकलता
15. जो है यहाँ
16. व्यस्तताएँ
17. काल-अश्व
18. प्रतीक्षा में पहाड़
19. रखना खुले द्वार
20. पत्ते नीम के
21. जलावतन
22. उठो चलो मेरे साथ
23. स्वयं से सम्बोधित
24. आवृत्ति
25. एक कठिन समय
26. न पढ़ते हुए कुछ भी
27. छतरियाँ
28. संध्या का दिव्यालोक
29. मंजिलों से मुक्ति
30. सागर मंथन
31. एक दिन
32. शून्य का निर्माण
33. चाओं जैसे
34. गोआ का चेहरा

 
35. गोआ के पैर
36. पुनर्जन्म
37. पुश्तैनी मकान
38. रचना
39. फूल सा वो शहर
40. उसे ही बनना है समर्थ
41. अबूझ भुलावे
42. व्यतीत होता
43. कालजयी
44. बसीयत
45. पढ़ते हुए समय को
46. चुप नहीं है समय 


गोआ के पैर

डोना पाउला का
सूर्यास्त देखना एक लोकप्रिय स्थानीय
आदत भी है
और पर्यटक की विवशता भी।
विभिन्न कथाएँ
कपोल-कल्पित या वास्तविक
सुखान्त-या दुखान्त
जुड़ी हैं सूर्यास्त से
और इसके जादू भरे
रहस्यमय आकाश से
गुजरता सूरज
लाल-पीला हो
हाँफने लगता है
सूर्यास्त तक

चौंकन्ने हो जाते हैं सब
एक पल में ही
एकदम सावधान मुद्रा में
वास्को की तरफ खड़े जहाज
राजभवन की पहाड़ी
और लगातार चक्कर काटता
लाइट हाउस का प्रकाश
सब कुछ
सूर्यास्त से ठीक पहले
स्वागत में
ठंडे और मीठे पानी से भरे
मंगल-कलश ले
चल देती है
माण्डवी
तप्त सागर सतह के ऊपर
करने छिड़काव

धुल जाता है
सारा वातावरण
राजपथ-सा स्वच्छ निर्मल
आकाश कर देता है शुरू
बनाना बिखराना
इन्द्रधनुषी रंगों और
उनके अलग-अलग शेड्स की
झंडियाँ
लाल, पीली, हरी, नीली,
नारंगी और बैंगनी
और..... और.....
समेट कर जिन्हें
जतन से सहेजते जाते हैं
गोआवासी
अपने कार्निवाल
में इस्तेमाल के लिए

सागर
क्षितिज के पास
आकाश की ओर देखता
पसार देता है भुजाएँ
अनन्त तक
सारी तैयारियाँ पूरी हो गईं देख
तेजी से उतरता है
सूरज क्षितिज पर
और फिर धीरे-धीरे
समेट लेता है
उसे अपनी गोद में
सागर

उत्सव समाप्ति पर
सूर्य विहीन आकाश में
उभर आती हैं
रोशनी की दरारें
दिखाई देने लगते हैं
अचानक
बिवाई फटे पैर-
गोआ के

(शीर्ष पर वापस)

पुनर्जन्म

पुनर्जन्म
प्रमाण और अधूरी यात्राओं का
परन्तु
नहीं होता पुनर्जन्मित
पर्यायवाची नहीं हो सकता
मोक्ष का

जैसे समय
जो सतत् है
उसे न जन्मना है
न समाप्त होना
उसकी यात्रा
पूरी न होते हुए भी
कहीं नहीं जा सकती अधूरी
वैसे कितनी संतोषजनक है
अवधारणा
पुनर्जन्म की
कोई क्लेश नहीं
अधूरी यात्राओं का
कोई दुःख नहीं
अधूरे छोड़े गए कामों का
जब आना है फिर-फिर
और उठाना है वह सब कुछ
जहाँ जो छोड़ा था वहीं से
तो फिर क्या पूरा
और क्या अधूरा

अच्छा है
बची रहे कुछ प्यास
तुम्हारी चाह
बहुत-सी चीजों की आस

(शीर्ष पर वापस)

पुश्तैनी मकान

इस बार जब गाँव गया
तो देखा-थोड़ा और ढह गया था
मेरा पुश्तैनी मकान

आने की खबर सुन
लोग मिलने आए
पता नहीं किससे
मैं सामने पड़ा/तो मुझी से कहा
मरम्मत नहीं हुई
तो गिर जाएगा
जल्दी ही किसी दिन
पूरा का पूरा मकान शायद इसी बरसात में

गरमी के दिन थे
बरसात की बात से
ठंडक मिली/अच्छा लगा
यह सोचकर भी
कि मुक्त होने वाला है शीघ्र ही
धरती का वह टुकड़ा
जिसकी छाती पर
नींब एक ऐड़ियाँ धसा
नाखून गड़ा
खड़ा है मेरा
पुश्तैनी मकान

(शीर्ष पर वापस)

रचना

जब भी शुरू होती है
यात्रा-शून्य से
ऊपर यो नीचे
उतरते या फलांगते
मेरे भीतर
उसी तरह करती है यात्रा
कविता

चट्टान से
फूटते फूल पौधे
विकसते पहाड़ / छूते हैं आसमान
शिखरों के शिखर
बर्फ से लदे
और घाटियों में
वन पाखी की आवाज
फैलती ही जाती है
औधड़ सुन्दरता की तरह

जिसे न कभी देखा, न सोचा
दृश्य अकल्पित
फिर से बिठाना पड़ता है जिन्हें
धरती पर
उगते फूल की तरह
जैसे यह कविता
यात्रा में चलती ही रहती है
रुक-रुक कर/चट्टान से लड़
चोरी से पराजित हो सोच में
पहुँचती है शिखर पर अमोल-सी
हर बार
उठाता हूँ कलम
पर शब्द नहीं
चित्रित होती है/एक नदी
लहरों के नर्तन में
फिर बन जाती है बसन्त

मैं जब भी
देखता हूं सोच को
बिम्बों में
तभी क्षुब्ध हो/छोड़ता हूँ भाषा
और लौटता हूँ
लय में जहाँ राग का
अनुरागमय रूप है

विफलता के / आलोक में
खोजता हूँ अभिव्यक्ति
मिली है अनुभूति
तो क्यों नहीं मिली बोध की पूर्णता
इसीलिए कविता में
विग्रहरत हूँ
शून्य में रचता हूँ सृष्टि
कविता की,
कविता के अपूरित / भविष्य की

जाने दो अहंकार
अगर वह सृजन है/तो उससे परे
वह कुछ भी नहीं है

(शीर्ष पर वापस)

फूल सा वो शहर

जब मैं लौटा
अपने पुराने शहर तो वह
स्वागत में खिल उठा
फूल-सा

पूछा इतने दिन कहाँ रहे
क्या करते रहे। बताया
यहाँ गया, वहाँ गया
ये देखा, वो किया
फलाँ-फलाँ को पटका
फलाँ-फलाँ से झटका
ये खरीदा, वो बेचा
ये जुटाया, वो सहेजा
बस बातें और बातें
और फिर नई बातें

सुनते-सुनते अकबकाकर
पूछा मुझे बीच में ही टोककर
मेरे लिए क्या लाए
अपनी नवअर्जित वाक्-पटुता दिखाई
दाँत चमकाए
आँखें नचाईं
बोला
मैं अपने आपको जो लाया हूँ
तुम्हारे लिए

यह सुनते ही अचकचाकर कहा मेरे पुराने शहर ने
तुम तो यहाँ थे ही।
फिर तुम्हारे जाने का
क्या हुआ मतलब?
और देखो न इस बीच
प्रतीक्षा से ऊब
मौसमों की सारी खुशबुएँ जेबों में भर
अनजान राहों पर चली गई
तुम्हारी पहचान
और पेड़ उदासियाँ लपेट
सो गए अपरिचय में।

इतना बना
मेरा पुराना शहर
मेरे स्वागत में झर गया
किसी फूल-सा।

(शीर्ष पर वापस)

उसे ही बनाना है समर्थ

उपस्थिति की निरंतरता से
अभ्यस्त
हो जाते हैं
कि पहचानते हैं
हवा को
जब वह हो जाती है तुम
पानी को
जब वह सूख चुका होता है

टूटती है
आश्वस्ति हमारी
केवल
निरंतरता की
किसी अनुपस्थिति से

कविता भी
क्षण भर को
कौंधती है
जब वह लगी होती है
लगातार
बदलने की कोशिश में
और गुजर रही होती है
चीजों के आर-पार
जब कविता
दीखती नहीं है
तब किसी सूप में
फटक रही होती है
शब्दों के कचरे को
उड़ कर अर्थहीन
सार्थक बच रहते हैं
जटिल प्रक्रिया में
ताकि
बन सकें
समर्थ

समर्थ शब्द ही
उछाल सकते हैं
कुछ प्रश्न
मुस्कुराते हुए
संकेतों से

आखिर
शब्दों के साथ-साथ
प्रश्नों को भी बनना है
समर्थ
अर्थ के लिए

(शीर्ष पर वापस)

अबूझ भुलावे

मेरे
कहीं होने
और दीखने में
होती है
एक असहज असमानता
जो करती है निर्भर
मन की चंचलता
या चित् की स्थिरता पर

हवा ही तरह
बहा हूँ मैं
जब भी कभी
बन्द खिड़कियों, दरवाजों की
फाँकों से
जाने कितने ही
मूल्यावान
धराऊ और जड़ाऊ शब्दों के
चोरी हो जाने की
शिकायतें
करवाई गई हैं दर्ज

कचहरी में खड़ी
भीड़ की ओर
उछाले गए
मेरे प्रश्न
कर दिए गए हैं जमा-रजिस्टरों में
शिकायतों की पुष्टि के प्रमाण स्वरूप
जीवन को
किरणों की तीखी धार से
काटते-छीलते
मैंने जब भी चमकाए
खोज-खोज
घूरे पर फेंके
या कीचड़ में फँसे शब्द
तो हड़प लिए गए वे
बीच रास्ते में-
कविता और मैं
इस सारी प्रक्रिया में
भकुआए से खड़े हैं
देते हुए परस्पर सांत्वना
अबूझ समीकरणों के
हल हो जाने की
प्रतीक्षा में.....

(शीर्ष पर वापस)

व्यतीत होता

जंगल से लड़कियाँ काट
जब बना रहा होता है वर्तमान
एक सुन्दर-सा पालना
भविष्य के लिए
तो अतीत
लगा होता है सदा साथ उसके
समझाता और
सावधान करता

सदियों को चीर
बहती इस नदी का क्या भरोसा?
आवश्यक नहीं
गंगा की तरह जब यह बहाए अपने पुत्र धारा में
तो वे प्राप्त कर लें
मुक्ति

निर्माण में ध्वस्त
अतीत और वर्तमान भी
नहीं जानते
लहरों पर हिलता-डोलता
कहाँ तक जाएगा
किसी सदी के स्तन भर कर
तन जाएँगे
वात्सल्य-दुग्ध से
और हाथ बढ़ा
मध्य धार से
खींच लेगी
पालना

नहीं जानते हुए
कुछ भी ठीक-ठीक
संभावित दृश्यों के आनन्द में
हैं मग्न
लयबद्ध क्रम में
उठते-गिरते हैं हाथ
होंठ गुनगुनाते हैं लोरी
साथ बैठा अतीत
सिर हिलाता है
गीत की टेक पर
पुलकित होता है
सोच
संग्रहालय में रखा
पालना बनेगा पहचान
भविष्य वापस मुड़
देखेगा मुझे
काम समेट
औजार संभाल
दौड़ पड़ता है
हाथ-मुँह धोने
नदी तीर
अतीत
बनता व्यतीत
होता वर्तमान

(शीर्ष पर वापस)

कालजयी

ओ मेरे पूर्वज,
अनादि, अनन्त और अविजित
काल की निरन्तर प्रवाहमान धाराओं में बहकर
बहुत कुछ तुम्हारा
आया है, आता है, पास मेरे

तुम्हारे लिए हुए अनेक क्षण
ठीक वैसे के वैसे ही
बहते हुए आते हैं मेरे पास
मैं इस प्रवाह से अपनी अंजुरी भरता हूँ
आचमन करता हूँ
और फिर पाता हूँ
तुम्हारे क्षणों के साथ, मेरे कुछ क्षण मिलकर
बहते जा रहे हैं, प्रवाह के साथ, आगे ओर आगे
पता नहीं कौन-कौन लोग
अपनी अंजुरी भरेंगे, आचमन करेंगे
हर तरफ बिखरी इस भीड़ और शोर के बावजूद, ओ, मनु
सृष्टि के आरम्भ का
एकान्त और अकेलापन जो तुमने जिया था
मुझ तक आता है, मेरे चारों ओर मँडराता है, पसरता है

तुम्हारा प्रसाद समझ
अंजुरी में भरता हूँ
मैं भी उसे जीता हूँ
पर इस संक्रमण युग में
समझ नहीं पाता, कालजयी क्या है
सृष्टि के आरम्भ का वह अकेलापन
या
तुम्हारा उसे जीना

(शीर्ष पर वापस)

वसीयत

नई चीजों की तरह
नव वर्ष पर
जमा हो जाती हैं
सुन्दर जिल्दवाली
नई चमचमाती डायरियाँ भी

दे जाते हैं,
मित्र, शुभचिंतक।
मैं भी उसी क्रम में
आगे सरका देता हूँ
ठीक उसी भाव से
शायद कोई काम सध सके।

फिर हो लेता हूँ व्यस्त
वर्षों पुरानी अपनी
उस प्रिय डायरी के संग
जो थी कभी/नई नकोर
जैसे वसंत की भोर
डगमगाते पैरों से चलती
चाँद-सूरज लेने को मचलती
अबोध मुस्कानों से सजी
परियों, तितलियों, फूलों के चित्रों से भरी
अब तो
धीरे-धीरे / हो चली है वो मैली
कहीं-कहीं से तो / लगी है फटने
फिर भी
पहाड़ी झरने-सी है निरंतरता
नियमितता सूरज सी
हर सुबह
सामने मेरे
स्वचालित ढंग से
कर देती है प्रस्तुत एक नया पन्ना

हर रंग हर भाव के चित्र
इन पन्नों पर / मैंने हैं उकेरे
कहीं छूट गए हैं पृष्ठ कोरे
उन पर दर्ज हैं
घटनाएँ जिन्हें सिर्फ मैं देख सकता हूँ
तरतीब से।

कहीं पन्नों पर
हल्के से रंग हैं/कहीं तेज
कहीं आदमी/कहीं जानवर
कहीं फटा आसमान
और ऐसे ही / मैं पढ़ लेता हूँ
उनके पीले पड़ते वर्ण में
अपना अतीत

कभी किसी रेगिस्तान, जंगल
या अंधेरी, सुरंग से गुजरते
अगर तुम भी इन्हें देख सको
तो पढ़ लोगे
जिन्हें मैं पढ़ता हूँ
बिना शब्दों
आकृतियों के।

(शीर्ष पर वापस)

पढ़ते हुए समय को

चाहे वह
एक सिसकी हो
हल्की-सी
अथवा निःशब्द ढुलकते अश्रु-कण
बाँसुरी की स्वर-लहरी
अथवा हों कविता के तैरते हुए शब्द
देती है प्रकृति सबका उत्तर-
बदलते हुए मौसमों
गुनगुनाती हुई हवा
तूफान सैलाब और भूकंपों से
पढ़ते हुए समय को
अकेला नहीं होता
कोई चेहरा
पिघलती हुई
स्मृतियों में

जब झर रहे होते हैं
फूल निःशब्द चाट
रही होती है गाय
बछड़े को
पावन स्पर्शों की
वैसी ही रातों में
उतरते हैं देवदूत
बुहारने धरती
उस क्षण बदलते होते हैं
विज्ञान के गणितीय सिळांत
शून्य में हमारे जुड़ते ही
बनने लगते हैं पूर्णांक
जो बढ़ते हैं
बनते पिरामिड से
और यह निर्माण
फैल जाता है
सदियों तक
नदियों के पवित्र जल-सा

(शीर्ष पर वापस)

चुप नहीं है समय

स्वयं ही तो तुम
उलझे थे
संख्याओं के इस खेल में
अपने ही हाथों तो
फेंके थे पासे तुमने युधिष्ठिर
अब संख्याओं को
सिळान्तों के चीर-हरण हेतु
उद्यत देख
क्यों हो रहे हो अधीर

क्या नहीं था ज्ञात तुम्हें
कि ऐसे खेलों में
हों कोई भी नियम
कुछ भी हों शर्तें

दाँव पर लगा हो कुछ भी
हारेगा वही
होगा जो सही

राम-पुरुष होकर
फिर क्यों स्वीकारी
वह गलती
करता आया है जो
हर युग में
आम आदमी

अनेक काल खंडों के
अनेकानेक प्रसंगों में
संख्याओं ने
उठाए हैं
प्रश्नों के ध्वज

अनगिनत
मनोरंजक शतरंजी प्रश्न
जो सिद्धांतों को घेर
करते हैं विजयोत्सव का
झूमर नृत्य
गाते हुए
तरह-तरह के गीत

प्रश्न जो पूछते हैं
संख्या बड़ी है
पाँच की अथवा सौ की
कितना सरल है चुनना
अकेले कृष्ण की तुलना में
चौदह अक्षौहिणी सेना को

अथवा
कितने सहस्त्र हाथी, घोड़े और सैनिक
महारथी, रथी और अर्ळरथी
होते हैं काफी
जीतने को एक महाभारत

अनवरत
चलता जाता है यह नृत्य
अविराम
गूँजते रहते हैं ये गीत
जब तक सिळान्त
अपनी भुजाएँ उठा
मुठ्ठियाँ खोल
करते नहीं है मुक्त
कुछ प्रयंलकर झंझावात, उठाते नहीं सुदर्शन
छोड़ते नहीं वे अग्नि-बाण
जो ले जाते हैं उड़ा
तिमिर भेद
संख्याओं का काला जादू
या फिर
देख नहीं लेता विभीषण
‘रावुन रथी’ के सम्मुख डटे
‘विरथ रघुवीरा’ के
‘जेहि जय होई सो स्यंदन’
का आना
डूब जाता है
जिसके पहियों की घरघर ध्वनि में
असंख्य संख्याओं का
डरावना कोलाहल

हर बार की तरह
फिर एक बार
उतर आए हैं हम
संख्याओं के खेल पर
उठाए जाने लगे हैं
सारे प्रश्न
दिए जाने लगे हैं
सारे समाधान
संख्याओं के संदर्भ में
किस सम्प्रदाय की संख्या में
कौन सी बिरादरी की संख्या
जोड़ने पर बनेगा बहुमत
कौन सी दी जाएं घटा
तो हो जायेगा अल्पमत
किस दहाई की होगी कौन सी तिहाई
संसद में
रस्सा तुड़ा
बगटुट भाग जाने के लिए
पड़ेगी कितनी लोठियों की जरूरत
लोगों की पेटियों से खदेड़
घरों में घुसेड़ देने के लिए
चाहिए होंगी कितनी बन्दूकें
किसी लोकतंत्र को
भ्रष्टाचार के गर्त में डुबोने के लिए
काफी होंगे कितने बम

होते हैं उपस्थित
चार्वाक के वंशज
आएँ
सम्मिलित हों
लालसा-लोलुप नृत्य में

मूल्यों के ये व्यापारी
करते हैं घोषित
गलत था सारा अतीत
कौटिल्य का अर्थशास्त्र
महज एक धोखा है
और सारे पंडित महात्मा
मात्र अव्यावहारिक स्वप्नदर्शी
मुँह फाड़े भौचक
पाते हैं सब
कि अब यहाँ
नहीं है कोई राष्ट्र
नहीं है कोई देश
है तो है
केवल एक बाजार
सौदागरों के स्वागत में
हिमालय से कन्याकुमारी तक फैला हुआ
जिसमें लोग नहीं रहते
रहती हैं संख्याएँ
इकाइयाँ और उनकी विभिन्न दहाइयाँ
रहते हैं विभिन्न उपभोक्ता समूह
अलगाए गए एक दूसरे से
अनैतिक, आर्थिक, मानदंडों पर
निहित, व्यापारिक, स्वार्थों द्वारा

आकर्षक विज्ञापनों की
रंगीन झंडियाँ लगाए
गुज़रते हैं जुलूस
आयातित प्रशंसा के प्रमाणपत्र ढोते
तटस्थ आँखों से
देखते हैं उदासीन लोग
जिन्हें महाकाय कम्प्यूटर
निगल जाते हैं
विवरण और संख्याओं के रूप में

कविता
दौड़ती है
हाथ हिलाते
पर गुज़रता जाता है जुलूस
उसकी समस्त अकुलाहट के बीच से

चतुर ऐय्यारों के बनाए
रंगीन तिलिस्मों के बीच
व्याकुल हो घूमती है
पर आवाज़ कविता की
पहुँच नहीं पाती
जंगल के हाशिए पर खडे़
सिद्धांतों तक
खो जाते हैं उसके शब्द
भूख और भीख के बीच की खाई में
जहाँ भाषा व्यस्त है
चाटुकारिता के
नए व्याकरण-निर्माण में
और हो नहीं पा रहा है निर्णय
कि चाँद, सूरज और हवा का
समान रूप से उपलब्ध होना
सबके लिए
उनकी मजबूरी है
या महानता

निर्णायक
कर गए हैं प्रस्थान
बगलों में दबाए वे किताबें
जिनके पृ ष्ठों में
तितलियाँ नहीं
दबी हैं केवल मक्खियाँ
प्रमाण स्वरूप
मौसमों की बर्बरता के

नचिकेता
खड़ा यम-द्वार पर
है विचारमग्न
सत्य को भी सिद्ध करने हेतु
जहाँ आवश्यक है प्रमाण
वहाँ ले कौन से समाधान
लौटेगा वह वापस
कुछ सार्थकता भी होगी क्या
मृत्यु के रहस्यों के अनावरण की
जीवन ही जहाँ
नित्य नए ढंग से
हो रहा है तिरस्कृत

बुरी तरह पस्त हो
तटस्थ बनती जा रही
कौम की मानसिकता
अपने यथार्थ
और व्यावहारिक नैतिकता के मानदण्डों पर
गढ़ रही है नए मूल्य
या मूल्यों के अवमूल्यन के
नए समीकरण

विश्व-व्यापकता
होती नहीं है प्रमाण
औचित्य का
परन्तु भ्रष्टाचार की सफलता से
ललचाए सभासद
इसी व्यापकता का तर्क
चाहते हैं तान देना
ढाल की तरह
अंतरात्मा की धिक्कारों के समक्ष
अंधेरी सुरंग में उतरने से पहले

गेंद की तरह
ज़िम्मेदारियों को
एक दूसरे की तरफ उछालते हुए
पारदर्शी निर्लज्जता से भरी
बयानबाजी
होती है जन-प्रतिनिधियों की सभा में
और लोगों के मुँह में पड़ते ही
चीनी का स्वाद
हो उठता है कसैला

गणित की कक्षा में
लगाया जाने लगता है
हिसाब
देश की सोच पर चढ़ी
बकाया ऋण की राशि का
विश्व बैंक की ब्याज की दर्रों
के आधार पर

छिनाल राजनीति के साथ
लम्बे सहवास से
हो गए हैं
एड्स ग्रसित बुळिजीवी
जो फड़फड़ाते अखबार
और लड़खड़ाते पेट के बीच
तनी रस्सी पर
नटों की दक्षता के साथ
हैं प्रदर्शनरत
अर्थव्यवस्था के विश्वीकरण
और मलाई के निजीकरण
के समर्थन में
उनकी माँग है
कि गर्भाशयों
और गुदाज़ जाँघों पर
नहीं लगाना चाहिए
कोई भी सम्पत्ति कर

चुनाव आयोग के सर्कस का
पालतू शेर
पा खुला पिंजरा
अपनी पहचान खोजने
निकल भागा है
पूँछ फटकारता, दहाड़ता
राजधानी के जंगल का राजा बनने।
राज्याभिषेक के समारोह का
बनने
चश्मदीद गवाह
तालियाँ बजाते
इकट्ठे हो गए हैं हिजड़े
जो समर्थ सभासदों की तलाश में
एकत्र समुदाय में हर एक की
पूँछ उठा देखते हैं
और निराशा से हिला देते हैं सिर

घोड़ा क्यों अड़ा
पान क्यों सड़ा
फेरा नहीं गया था की तर्ज पर
सारी समस्याओं
उलझनों, विफलताओं का
ले सरल समाधान
बहुरूपिए खड़े हैं
बताते हुए
मूल कारण है विस्फोट जनसंख्या का
उनकी महत्वाकांक्षाओं का
उपभोक्ताओं का
उनकी इच्छाओं का
और इस तरह
एक बार फिर
कर दी गई है खड़ीं
सबके सामने संख्याएँ
लो अब निबटो इनसे
इन उछलती-कूदती
नाचती-गाती
करोड़ों करोड़ संख्याओं से

कविता
अपसंस्कृति के दौर में
धैर्य के साथ
प्रेरित करने को है प्रयत्नशील
कि आदमी करे प्रज्ज्वलित
वैश्वानर अपने क्रोध का
बनाए पर्वताकार
अपनी ऊब को
चिढ़ और असंगता से
बाहर निकल
करे मुक्त कुछ प्रलयंकर झंझावात
जो ले जाएँ उड़ा
कर दें नष्ट
संख्याओं का काला जादू
ताकि
भेज सके वह
जय-घोष का निमंत्रण-पत्र
अलाव के गिर्द बैठे
बूढ़े इतिहास से बोध कथाएँ सुनते
सिद्धांतों को

(शीर्ष पर वापस)



 

 

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