हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

 

उदास पानी
उपेंद्र कुमार
भाग-1

भाग-1 भाग-2 भाग-3 भाग-4
     निवेदन
1. गुम हो गई है संसद
2. रति
3. हस्तिनापुर निर्णय नहीं करता
4. द्रौपदी और दुर्योधन
5. लौट आओ
6. राजगीर
7. एक अधूरी कविता सुनते हुए
8. अनन्त
9. पेड़ों के लिए
10. गौरेय्या और घर
11. सीमा रेखा
12. हमारे लिए
13. नदियों की स्मृति
14. अव्यक्त की विकलता
15. जो है यहाँ
16. व्यस्तताएँ
17. काल-अश्व
18. प्रतीक्षा में पहाड़
19. रखना खुले द्वार
20. पत्ते नीम के
21. जलावतन
22. उठो चलो मेरे साथ
23. स्वयं से सम्बोधित
24. आवृत्ति
25. एक कठिन समय
26. न पढ़ते हुए कुछ भी
27. छतरियाँ
28. संध्या का दिव्यालोक
29. मंजिलों से मुक्ति
30. सागर मंथन
31. एक दिन
32. शून्य का निर्माण
33. चाओं जैसे
34. गोआ का चेहरा

 
35. गोआ के पैर
36. पुनर्जन्म
37. पुश्तैनी मकान
38. रचना
39. फूल सा वो शहर
40. उसे ही बनना है समर्थ
41. अबूझ भुलावे
42. व्यतीत होता
43. कालजयी
44. बसीयत
45. पढ़ते हुए समय को
46. चुप नहीं है समय 

निवेदन

       बीसवीं शताब्दी की विमर्शवादी काव्य-हलचलों के बीच लिखी कुछ चुनी कविताएँ पाठकों और अध्येताओं के लिए प्रस्तुत हैं। इनके चयन में कई समर्थ कवियों के परामर्श का सहयोग मिला है। क्यों, कैसे ये कविताएँ चुन ली गई? इसका सीधा उत्तर यही है कि ये चुन ली गई। कविताओं को देखने का काम आँखों की बजाय भीतर से कोई दृष्टि करती है जिसे कभी हृदय और कभी मस्तिष्क कहा जाता है। उससे भी पुराने ज़माने में उसे ज़िगर से निकली हुई चीज़ माना जाता था। आज कहना कठिन है कि हृदय और मस्तिष्क का इसमें कितना हाथ है। हाथ है जरूर। वह कौन-सी दृष्टि का हाथ है? सहज में दूसरा उत्तर कठिन है। असहज ढंग से कहा जाएगा कि वह देखना अन्तर्दृष्टि से जुड़ा है। बड़े कवियों के पास यही अन्तर्दृष्टि होती है। चयन की सारी प्रक्रिया उन्हीं लोगों द्वारा सम्पन्न हुई है। मैं तो मात्र लेखक हूँ।
        मैं भी आपके साथ में कविताएँ पढ़ता हूँ तो खुद एक पाठक बन जाता हूँ। पढ़ते वक्त किसी दूसरे की कविता पढ़ने का अनुभव होता है। एक पाठक की तरह वे याद का हिस्सा बनने लगती हैं।
       उन तमाम सर्जकों के प्रति आभार सहित जिनसे सब कुछ पाया है। ऐसा पाना जिसे खोना कभी न होगा।

-उपेन्द्र कुमार

‘अथर्वा’
15, पार्क स्ट्रीट,
नई दिल्ली-110001

गुम हो गई है संसद
(लंबी कविता)
कथा प्रवाह को
तोड़ते हुए
सदियों पहले के समय से
आवाज अपनी जोड़ते हुए
मैं बोल पड़ना चाहता हूँ
क्यों जूझ रहे हो व्यर्थ कर्ण
कीचड़ में धंसे रथ चक्र के साथ
तुम तो बहुत पहले ही
हार चुके हो युद्ध

हार गए थे तुम
उसी दिन जब
उस व्यवस्था से मिलाया तुमने हाथ
जिसने बहाया था कभी तुम्हें
नदी को धार के साथ
या फिर हारे थे उस समय जब
लगे थे खड़े होने
दानवीर होने के
खोखले दर्प के साथ
नदियों के किनारे
साथ वालों से बित्ता भर ऊपर
उठाए हुए सर

पक्ष या विपक्ष में
कहीं भी खड़े होने से
तो अच्छा था कि
तुम कवच-कुण्डल संभाले
उन रास्तों पर चलते
जो बचपन से थे
देखे भाले

कहीं मिल बैठते साथ
एकलव्य, शिखंडी, शकुनि
घटोत्कच और विदुर के
अपनी-अपनी व्यथाओं, विह्वलताओं को
कहते-सुनते एक-दूसरे से
सब के दुख-सुख
बँटते
साथ मिला, रस्सी-सा
और तान देते उसे
समय और सच के खूँटों के बीच
देखते फिर कहाँ होता धर्म
और कहाँ होता युद्धद्य
कृष्ण भी आते पास तुम्हीं लोगों के
गाने को गीता।

पर नहीं हो पाता है
कुछ भी
बदलाव नहीं आता है कोई
चलती रहती है कथा
वही की वही

सच में
कहाँ हैं वो रास्ते
गुज़रते नहीं जो
जंगलों से होकर
कब लिखी गई वो कविता
हुई नहीं जो अरण्य रोदन

झुण्ड
बिचौलियों के
मँडराते हैं साथ गिद्धों के
शिकार के साथ करके बलात्कार
बनाई जाती है भाषा वयस्क
नहीं होता जिसके लिए कोई अन्तर
किसी वेश्या से
पूछने में उसकी पसन्द, या
देने में चुनने का अधिकार
किसी भूखे पेट को

भेड़ियों का जुलूस गुज़रता है
लालच से चमकती आँखें लिए
हिंसक जबड़ों में सुन्दर शब्द सजाए
प्रजातंत्र की जय गोहराता

और हालात हैं कि
बच्चे जैसे बिछुड़े मेले में
स्वार्थ के रेले-पेले में
गए हैं बिछुड़
जन और तंत्र
अब रौशनी है, रौनक है
आतिशबाजी है
पर तंत्र नहीं राजी है
मेले से बाहर जाने को,
जन को लिवा लाने को,
पीढ़ियों का विश्वास और भरोसा
खो जाता है क्षणों में
और कहीं भी रहने बैठने को
तैयार हो जाता है आदमी
तटस्थ आँखों से देखता
पसलियों की ओर बढ़ते चाकू को

लहू-लुहान लाशें
सपनों की
सदाशयता
मनुष्यता की
आकर गिरती है
धड़ाधड़ वहीं
जहाँ हुआ था तय
प्रजातंत्र के ताजमहल की
नींव का खुदना

लगता है अभी वक़्त नहीं हुआ
ताजमहल बनाने का
वैसे भी पहचान सही वक़्त और
सही चीजों की गई है खो
जब से अन्धा इतिहास
लगाया गया है पाठ्यक्रमों में
भूख की कक्षा में हो रही है कोशिश
सिवा रोटी के हर चीज पढ़ाने की

और भी कोशिशें जारी हैं
जैसे
खड़े होकर मूतते आदमी के
धार्मिक संस्कार जानने की
उसके प्रमाण पत्रों के सहारे.....
विस्फारित नेत्रों से
देखती हे कविता कि
बनाया जा रहा है उसे असमर्थ
तीर को तीर
और तमंचा को कहने से तमंचा
जेल को जेल
और घर को कहने से घर

भुक्खड़ पेट के नंगेपन को
निरर्थक शब्दों से ढँकने की
अश्लील साजिश से
अफनाकर
बमकते हुए
वह उठा लेना चाहती है बन्दूक
और गाना चाहती है गोलियों के गीत
धमाकों और धुएँ के बीच
पहचान खोते रिश्तों
के अन्दर से खींच लाना चाहती है
उस आदमी को
जिसमें फूलों और तितलियों की
पहचान बाकी हो
और जो एक दुधमुँही किलकारी पर
हो जाए न्योछावर
बिना किए चिन्ता
अपनी फटी कमीज या
इस बात की
कि घटती रोटियों के बीच
आ गया है एक और नया हिस्सेदार

पर एक पाएगी क्या
कविता ऐसा चमत्कार
काफी नहीं है केवल
चाहना और कहना
कहाँ हैं?
ऐसे सधे हाथ
ऐसे विलक्षण माथ
ऐसे बाँके औजार
ऐसे मेहनती कामगार
कहाँ हैं.....
और फिर कविता की ओर
आता ही है कौन
सब देखते हैं टी.वी.
रहते हैं मौन

कोई नया नहीं है यह मौन
यह सन्नाटा
जो छाया है, छा जाता है अक्सर
होता है जब भी
द्रोपदी का चीर हरण
द्रोण का वध
या भीष्म का भूमि शयन
कटे पड़े की थुन्ही पर
बैठी चिड़िया
गा रही है या करती है रूदन
पहचान इसकी
खो देता है समाज जब
धोखे का एक महल
यातना के अनगिनत तहख़ानों के साथ
करती है तैयार सत्ता तब
हर युवा चेहररा
रक्त और कीचड़ में सना
करता है प्रतिवाद
नपुंसक क्रोध से निकल
गूँजती है करुण चीत्कार
कोई विशेष अर्थ नहीं
रह जाता तब
बच्चों के बस्ता दबाए
स्कूल जाने में
बच्चियों के गुड्डा-गुड्डियों से
मन बहलाने में

अकाल की नैतिकता का
पहला पाठ शुरू होता है क्रूरता से
और अन्त अयथार्थ स्वर्ग के
अश्लील सुखों के आश्वासनों में
काफिले सत्ता के गुज़रते रहते हैं
इन्हीं आश्वासनों के पुलों को
रौंदते हुए
कठुआये चेहरों को
बिछाते हुए लाशें
शिनाख्त जिनकी हो नहीं पाती
पुलिस की जाँच
और चीरघर के सारे मजाक के बाद भी

पेड़ों और पत्तियों
के सारे विरोधों के बावजूद
न तो मौसम
और न जंगल
तैयार हैं अपहृत साँसें लौटा
अपने रंग-ढंग बदलने को
थकी-सी धरती
जाकर लेट जाती है
दूर कहीं क्षितिज पर
काले आसमान के साथ
वनस्पतियाँ
उल्टा लटकने की तैयारी में
बहलाती फुसलाती हैं
तारों को
जिन्होंने सूरज और चाँद से
डरना छोड़ दिया है कब का

बढ़ता चला जा रहा है
कुर्सी का पेट
बहाल किया है उसने
अभी हाल ही में
छिनार राजनीति को
अपनी सेवा में
किताबों से साठ-गाँठ कर जो
गढ़ रही है नित नए नारे
कुर्सी की तरफदारी में
गनीमत है कि
जिन पर लिखने जाने थे ये नारे
उठा ले गए हैं
कुछ कंकाल वे दीवारें
लेकिन कब तक.....

कब तक
खै़र मनाएगी बकरे की माँ
चाकू, चाकू है और गोश्त, गोश्त
बहुत पुराना है
दोनों का सम्बन्ध
और उतना ही पुराना चला आ रहा है
ये सिलसिला
हाँ सच में
तुम्हारे पास खोने के लिए
अपनी गरदनों के अलावा कुछ भी तो नहीं

केवल शब्दों के सही चुनाव
और व्याकरण के अनुशासन
तक ही सीमित मत करो
कलम के चमत्कार
गढ़ने दो उसे कुछ नए आकार
क्योंकि
उम्मीद तो हर हाल में
बची रहती है
उसे बचाए रखना पड़ता है
अत्याचारों और चमत्कारों के बाहर
अलगी पीढ़ी के लिए
चाहे जितना भी तिरस्कृत होता रहे जीवन
भ्रूण हत्या के पाप से
बचना है इन्सानियत को
वादा है भालों और तलवारों का
वे बचाए रखेंगी
पृथ्वी पर इन्सानियत को

वैसे अजनबी होने की
शुरुआत तो हो गई थी
उसी दन
जब हमने तलाशी थी
अलग-अलग जगहें
अपनी बची हुई रोटियों को रखने के लिए

अब तो नई पहचान बनाने को
सोचे हुए नारे हैं
गढ़े हुए गीत हैं
हँसुए का गीत
रेडियो का गीत
हथौड़े का गीत
टीवी का गीत
पकी फसलों का गीत
उजड़े गाँवों का गीत
सड़कों का गीत
जूते का गीत
और सबसे ऊपर
जूतमपैजार का संगीत

संगीत देता है उत्साह, उमंग
संगीत देता है शक्ति, सबको
नंगे खुले सीनों को
बन्दूक थामे हाथों को
ज्यादा किसको
यह तो ठक-ठक करते बूटों की
तफ़तीस ही
कर पाएगी तय
पर मौत तो होती है मौत
और हत्यारे होते हैं हत्यारे
परिभाषा बदल जाए हत्या की
तो क्या पहचान भी बदलेगी हत्यारों की

अकाल, भुखमरी
और संक्रामक रोगों में हुई मौतों
से शायद ज्यादा
सभ्य और संस्कारवान होती हैं
साम्प्रदायिक दंगों, आजगनी, लूटपाट
और हिंसक मुठभेडों में हुई मौतें
इसी अनुपात में हो गए हैं
हत्यारे भी सभ्य
फेंक कर हथियार पुराने
ओढ़ लिए हैं विचार नए
नहीं रह गया है अब उनका
चेहरा जल्लादी
हँसते मुसकाते
फूल से खिले चेहरे वाले
हत्यारे जी आइए, आइए स्वागत है आपका
हम लाएँगे बन्दूकें
हम बनाएँगे बम
हम चलाएँगे गोलियाँ
फेकेंगे बम
एक दूसरे पर
होली के रंगों की तरह
मनाएँगे नरसंहार का आदिम उत्सव
आओ, नए विचारों के उद्घोषक
नई कालिमा, नए अन्धकार के भगीरथ
आओ हमारे बीच
फेंको स्वर्णिम जाल
ताकि महसूस कर सके
हर आदमी
अपने को जिम्मेदार
उन तमाम अनकिए गुनाहों के लिए
जो मन्दिर
और खेत के बीच
हुए हैं कभी-न-कभी
और भूल जाए वो वादा जो
हर बच्चा माँ से करता है
फेंक दे वो वचन जो
हर पिता अपने बेटे को देता है।

ये हत्यारे जो
तरह-तरह के रूप रंग धर
तरह-तरह की बोलियाँ लेकर
हर दिशा से आते हैं
इनका हथियार बनने से पहले
सावधान होना
जरूरी है हर किसी का
इन फरेबी सौदागरों का
शिकार होने से पहले ही
होशियार होना जरूरी है
वर्ना ये चला देंगे तुम्हीं को
तुम्हारे विरुद्ध
बना लंेगे अपना काम
तुम्हारी कटी गरदनों के नाम
लड़ लेंगे अगला चुनाव
और प्रतिनिधि बन तुम्हारे चल देंगे
कहीं दूर देश
इसलिए आगाह किया जाता है
हर खास व आम को
रहे सावधान वो अपने बाप से
रहे सावधान वो अपने आप से
अब कहीं जाकर
हुई है पूरी जनगणना
कितनी-कितनी मुश्किलों को पार कर
फिर भी कटे हुए हाथों की संख्या
नहीं गई है घटाई
और बड़ा हो या छोटा
हर पेट माना गया है एक ईकाई
होना है इसी आधार पर मतदान
मतपत्रों की पेटियाँ गई हैं सजाई
पर मना है उनके पास जाना
समझ-बूझ और विचारों के साथ
हाँ बम बन्दूक आदि
रख सकते हैं पास

अब देखो हुआ वही
जो होता है अक्सर
बहुत संभलकर रखी चीज
हो जाती है गुम
वक्त जरूरत पर तलाशते फिरो हर
सम्भावित-असम्भावित स्थान
एक बार फिर बार-बार
नहीं मिलती तो नहीं ही मिलती है पर
अब देखिए न
ये तो हर है
हद की भी है हद
कि ऐन वक़्त पर
गुम हो गई है संसद।

(शीर्ष पर वापस)

रति

तुम्हारे नहीं आने की
व्यग्रता, और
आ जाने की
समग्रता
के बीच
अन्धेरे पुल पर खडे़
अनुमान के
वलयों, वृत्तों के बीच
डूबता-उतराता हूँ

परोसी भोग्यता को
बर्बरता से
चींथता
भीतर तक अतृप्त
पारदर्शी तुम
हवा में घुलकर
बनती हो गीत
लिखा गया था जो कभी
छातियों, नितम्बों की युगलबन्दी में।

किसी अंधेरी गुफा में
चरम परितृप्ति की कल्पनाएँ बिखरती हैं
तभी
गिरती है बर्फ
किरणें
सूरज चाँद की
आपस में उलझ
बना लेती हैं गुच्छे
जिनसे हम रहते हैं
तन्मय आबद्ध
परन्तु अन्त के बहुत पहले आरम्भ के बहुत नजदीक ही
फिसल जाती हो तुम
मैं खोजता डुबकियाँ लेता हूँ।

संतुष्टि से भरी मुस्कान
तृप्त आँखों से उड़ेल मेरे अंगों पर
परछाईं और देह की सीमा रेखा पर
डोलती तुम
रोमावलियों
केशगुच्छों की अतल गहराइयों से
बरसाती बिजली के कोड़े
छोड़ती असंख्य आलोक विशिख
खनकती
हो उठती हो विभोर।

अंगुलियों की बरसती बूँदें
सर्दी की ठिठुरन, गर्मी की तपन
के बीच तने मौसम में अटकी देखती हैं
निर्निमेष नीचे फैला सारा विस्तार
किसी हिमखंड-सा
धीरे-धीरे गल कर गुम होता

चमदागड़-सा उल्टा लटका हुआ सुख
चिंचियाता उड़ता है
किसी निशाचरी देह गंध में तृप्त होने
नाभी के गहरे वृत्त में
जहाँ से शुरू होती हैं
ढलान, गहराइयाँ
समतल पठार, पर्वतीय ऊँचाइयाँ।
कुंडली मारे चमकीला सर्प जागता है
लहराता है
लपलपाती जिह्वा
चाटती ओस
अंगारे चबाती
करती है विष-वमन अमृत कलशों में
चढ़ता है ज़हर तेज ओर तेज
अपनी सारी तपिश और तड़प के साथ
सनसनाता हुआ नसों में
कोड़े की तरह फटकारता
रात के बिस्तर में पड़ी
प्रसन्नता में उछलती तुम
सौंप देती हो नदी देह
मेरे हाथों को
पाटों की तरह अपने बीच से वे
देते हैं तुम्हें बहने
किनारों तक आती हैं
अंगूर गुच्छों से लदी बलें
और टहनियाँ प्यासे वृक्षों की।

ऊर्ध्वमुखी प्राण
आदिम लय में नृत्य करते
समेटते हैं प्रकाश पुंज
करते हैं तिरोहित
सारी सृष्टि को
धरती के अन्तरतम में।

नदी को पारदर्शी स्वच्छता
तल पर पड़े पत्थर।
विस्तृत बालुका राशि
हो जाती है
जलते रेगिस्तान-सी
खड़ी जिसके बीच तुम
तलुवे जलाती
ढँकती लज्जा आवरणों से
अपनी नग्नता

फैला देता हूँ
मकड़जाले
तरह-तरह के
ढँकते हैं वे जितना
करते हैं उतना ही निर्वस्त्र
सिहरती है त्वचा
मकड़ियों के चलने से
और वे बुनती ही जाती हैं
ढँकने को तुम्हें
घिनौने ढंग से आकर्षक
मकड़-जाले
और पहुँचते-पहुचते संगम तक
हो जाती है सरस्वती गुम
फिर वहीं
इन्द्रधनुषी पुल पर टंगा मैं
सुनता हूँ रुदन
तृप्ति की अतृप्ति से जन्मे
क्षोभ का
जिसे धारण नहीं किया गर्भ में कभी

रुदन, हाँ
कल्पना पुष्पों का रुदन
उजाले से अँधेरे को
वेदनासिक्त वीथियों में
फिर से पुत जाता है काला रंग
सारे इन्द्रधनुषों पर
उन्हीं हाथों
जिनसे रची जाती है कविता

(शीर्ष पर वापस)

हस्तिनापुर निर्णय नहीं करता

अनिर्णय में जीवित है
हस्तिनापुर
लोग मुँह लटकाए
पक्षधर और तटस्थ
प्रतीक्षा में हो गए
जड़

कुछ पहले ही
कूदे थे दोनों पक्ष
दोनों पक्ष चाहते थे
निर्णय हो

लम्बी बहस के बाद
निर्णय न हो सका
हाथ मलता कर्ण
और प्रतिपक्षी सभी
थे उद्विग्न

कम से कम
निर्णय के साथ
लौटने पर तृप्ति तो है।
अतृप्त लोग जड़ हो गए।
स्तम्भित
अपवाद हो सकते थे
लौटने वाले

हस्तिनापुर से
कोई नहीं लौटता शायद कभी निर्णय हो
शायद कभी नहीं

(शीर्ष पर वापस)

द्रौपदी और दुर्योधन

फिर एक बार
घूम रही है द्रौपदी
इन्द्रप्रस्थ के
नए भव्य प्रासादों में

चढ़ती है सीढ़ियाँ
नहीं पहुँच पाती कहीं
उतरती है सीढ़ियाँ
नहीं पहुँच पाती कहीं

बन्द है गवाक्ष
बाहर का कुछ नहीं दीखता
द्रौपदी खोलती है गवाक्ष
नहीं दीखता भीतर का भी कुछ

न कहीं जाती है
न कहीं आती है द्रौपदी
बस तेज़-तेज़ चलती है
जाने किधर से किधर

तेज़-तेज़ चलती
द्रौपदी
गिर पड़ती है
महल के
उसी पोखर में
जहाँ कभी गिरा था दुर्योधन
पूरी तरह
उस पानी से कभी
नहीं निकल पाती है
दुर्योधन की ही तरह
द्रौपदी

(शीर्ष पर वापस)

लौट आओ

हम सब
लगातार
बन्द होठों के बीच
रहत हैं चीखते
लौट आओ

नीरवता में
आवाज़ देते हैं हम
धूप और बरसात की
मार सह
बदरंग हुए मौसमों को
लौट आओ
ढहती मुंडेरों
पर चढ़
पुकारते रहते हैं
चुपचाप
जवानों और बच्चों को
लौट आओ

लौट आओ
बन्द दरवाजों और खिड़कियों के बीच
जहाँ रखी है हमने
कुछ स्मृतियाँ
और हवा

(शीर्ष पर वापस)

राजगीर

राजगृह में थे
गर्म जल के सोते
घने जंगल, पत्थर और पहाड़

राजगृह में अक्सर/आते थे युद्ध
देते थे प्रवचन
ठहरते थे/कई-कई दिन

अभी भी हैं
बचे-बचे कुछ/जंगल, पहाड़
सोते गर्म पानी के

आते हैं चर्म-रोगी और
बौद्ध पर्यटक/बनवाते है
चौड़ी सड़कें
भव्य शान्ति-स्तूप
देखने आते हैं/और पर्यटक

नहीं आता इतिहास/अब यहाँ

छू नहीं पाता/पत्थरों को
कोई प्रवचन

(शीर्ष पर वापस)

एक अधूरी कविता सुनते हुए

एक नदी
जिसे जाना था समुद्र तक
अचानक ठहर गई
और बैठ मेरे सामने
सुनाने लगी कविता

दूर बजते
सितार, वायलिन या बाँसुरी
अथवा शाम घर लौटते बैलों की
घंटियों के स्वर-सा
मधुर/कुछ-कुछ रुकता
धीरे-धीरे पास आता-सा
उस कुँआरी नदी की कुँआरी कविता के शब्द
फैलने लगे थे

नदी में नहाते लोग
नदी किनारे बैठ
मेरे साथ
सुनने लगे नदी को
नदी के उस गीत को
जिसे सुनना था नदी ने समुद्र को
जिसमें थे
कितने ही अधूरे सपने
अधूरी इच्छाएँ/और अधूरे चित्र
जो तटों ने, नावों ने, पक्षियों ने
बादलों ने, बरसती बूँदों ने
उसके जल में प्रवाहित दीपों और पुष्पों ने
उस तेज भागती नदी के मन में जगाइ थीं
उसके वक्ष पर उकेरे थे
और वही तेज भागती नदी
बैठी थी मेरे सामने
सुनाती हुई कविता
कितनी-कितनी अधूरी चीजों की

मैं मंत्रकीलित / भावविभोर
आँखों में आँखें डाले
आत्मविस्मृत, मुग्ध, सुन रहा था
एक अधूरी कविता

जो धीरे-धीरे
मेरे अभ्यन्तर को पूरी तरह भरती
समाती प्राणों की रिक्तता में
बदलती/नफरत को
निश्छल निरुद्देश्य-रागात्मकता।
पाशविकता को
संगीतात्मक सृजनशीलता को
बनती जा रही थी सम्पूर्णता की नदी

एक नदी
जो बैठी नहीं थी मेरे सामने
सुनाती अधूरी कविता
वरन् वह रही थी मेरे अन्दर
समस्त अधूरेपन को
बहाकर ले जाती हुई

(शीर्ष पर वापस)

अनन्त

उड़ रहे हैं अनेक पक्षी
अजान दिशाओं की ओर
और उन्हीं के पीछे
मैं भी वैसे ही
अनन्त में उड़ रहा हूँ।

कहाँ है गंतव्य
क्या खोजने जा रहे हैं।
बिना रुके
फिर लौट आते हैं
अपने नीडों में
और मैं
वहीं रहता हूँ अनन्त में भटकता।
वे अपने पंखों से उड़ते हैं।
थकते हैं।
मैं बिना थके उड़ता हूँ।
प्रयोजनहीन।

बस मैं
वहीं हूँ जहाँ सोच-विचार नहीं
केवल अनन्त है।

(शीर्ष पर वापस)

पेडों के लिए

रहते हैं पेड़
समान रूप से प्रफुल्लित
भीड़ और एकान्त में
क्योंकि सन्नाटा भी है
नाद/शून्य के अकर्म का

अस्तित्व
भौतिकता के दलदल में
विलीन होने से पहले
जिस भाषा में/देता है
अपना बयान

उसी में तो बतियाते हैं
धूप और आसमान
बरसता से/ताकि बची रहे वह

कितना अच्छा है
कम से कम बोल-चाल में ही सही
वह बची तो है

क्योंकि भविष्य में
वही आएगी काम
जब पड़ेगा भेजना हमें
पेड़ों को/निमन्त्रण-पत्र

(शीर्ष पर वापस)

गौरेया और घर

सुबह होते ही
फिर आ जाती है गौरेया

बज रही है घर की घंटी

अब न पूछना
बजा सकती है गौरेया घंटी
हम तुम बजा सकते हैं जब
तब गौरेया भी बजा सकती है, मेरे
घर की यानी,
कविता के घर की घंटी-
बजाती है रह-रह
हर मौसम में कविता के घर की घंटी

पिछले दिन कविता के घर बैठे-बैठे
मैंने ही टाला था-
कल आना और सच में ही
आ धमकी
कल यानी
कविता रचने के कल में
ओह भगवान
क्या करूँ
तुम्हारे घरों में
जब वह आती है
तो क्यों नहीं कहते हो तुम-

गौरेया रानी, शुभ है तुम्हारा आना
जहाँ मन करे, लगा लो घोंसला

इधर के ओसारे में
या इधर दालान में

पर कविता के घर में
गौरेया ने
जैसे ही
बिखेरे
टूटे कटे तिनके
नीड़ पूरा हो गया
हाँ पूरा

निकल कविता से बाहर
गौरेया ने फैलाए पंख
और एक बयानी-सी
स्मृति में छप गई
कविता की तरह

(शीर्ष पर वापस)



 

 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.