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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है
 

 

आसमान जैसी हवाएँ

 

समुद्र
तुम्हारे किनारे शरद के हैं


और तुम स्वयं समुद्र
सूर्य और नमक के हो


तुम्हारी आवाज़
आंदोलन और गहराई की है


और हवाएँ
जो कई देशों को पार करती हुई
तुम्हारे भीतर पहुँचती हैं
आसमान जैसी हैं


तुम्हें पार करने की इच्छा
अक्सर नहीं होती
भटक जाने का डर बना रहता है।

(1994)
 

रेल

 

हर भले आदमी की एक रेल होती है
जो माँ के घर की ओर जाती है


सीटी बजाती हुई
धुआँ उड़ाती हुई।

 

(1994)
 

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