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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है
 

 

जंक्शन

 


आह जंक्श‍न !
रेलें जहाँ देर तक रुकती  हैं
बाक़ी सफ़र के लिए पानी लेती हैं


मैं ढूँढता हूँ वहाँ
अपने पुराने हमसफ़र।


(1994)
 

 

 

 

 

शरद की रातें

 


शरद की रातें
इतनी हल्की और खुली
जैसे पूरी की पूरी शाम शामें हों सुबह तक


जैसे इन शामों की रातें होंगी
किसी और मौसम में।


(1992)
 

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