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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है
 

 

रास्ते
 

 

घरों के भीतर से जाते थे हमारे रास्‍ते
इतने बड़े आँगन
हर ओर बरामदे ही बरामदे
जिनके दरवाज़े खुलते थे गली में
उधर से धूप आती थी दिन के अंत तक


और वे पेड़
जो छतों से घिरे हुए थे इस तरह कि
उन पेड़ों पर चढ़कर
किसी भी छत पर उतर जाते


थे जब हम बंदर से भी ज़्यादा  बंदर
बिल्ली से भी ज़्यादा बिल्ली

 
हम थे कल गलियों में
बिजली के पोल को
पत्थर से बजाते हुए।

(1996)
 

सूर्यास्त के आसमान

 


उतने सूर्यास्त के उतने आसमान
उनके उतने रंग
लंबी सड़कों पर शाम
धीरे बहुत धीरे छा रही शाम
होटलों के आसपास
खिली हुई रोशनी
लोगों की भीड़
दूर तक दिखाई देते उनके चेहरे
उनके कंधे जानी-पहचानी आवाज़ें


कभी लिखेंगे कवि इसी देश में
इन्हें भी घटनाओं की तरह।

(1996)
 


 

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