हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

 


 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है
 

 

विस्मय तरबूज़ की तरह

 

तब वह ज़्यादा बड़ा दिखाई देने लगा
जब मैं उसके किनारों से वापस आया


वे स्त्रियाँ अब अधिक दिखाई देती हैं
जिन्होंने बचपन में मुझे चूमा


वे जानवर
जो सुदूर धूप में मेरे साथ खेलते थे
और उन्हें इन्तज़ार करना नहीं आता था


और वे पहले छाते
बादल जिनसे बहुत क़रीब थे


समुद्र मुझे ले चला उस दोपहर में
जब पुकारना भी नहीं आता था
जब रोना ही पुकारना था


जहाँ विस्मय
तरबूज़ की तरह
जितना हरा उतना ही लाल।

(1990)
 

थियेटर

 

पार्क की बेंच का
कोई अंत नहीं है
वह सिर्फ़ टिकी भर है पार्क में
जब कि मौजूदगी है उसकी शहर के बाहर तक


पुल की रोशनियों का
कहीं अंत नहीं हैं
मेरी रातें उनसे भरी हैं
मुझे तो मृत्यु के सामने भी
वे याद आयेंगी


लंबी चोंच वाला छोटा पक्षी कठफोड़वा
मुश्किल से दिखाई पड़ा मुझे
दो-तीन बार
पिछले दस-‍बारह वर्षों में


वह फिर दिखाई देगा
इस बार थियेटर में


थियेटर का कोई अंत नहीं है
थियेटर किसी एक इमारत का नाम नहीं है।

(1996)
 

                           <<रास्ते, सूर्यास्त के आसमान<<                            सूची                  >>पक्षी और तारे, रंगरेज़>>

 

 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.