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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है
 

 

पक्षी और तारे

 

पक्षी जा रहे हैं और तारे आ रहे हैं


कुछ ही मिनटों पहले
मेरी घिसी हुई पैंट सूर्यास्त से धुल चुकी है


देर तक मेरे सामने जो मैदान है
वह ओझल होता रहा
मेरे चलने से उसकी धूल उठती रही


इतने नम बैंजनी दाने मेरी परछाईं में
गिरते बिखरते लगातार
कि जैसे मुझे आना ही नहीं चाहिए था
इस ओर।

(1990)
 

 

 


 

रंगरेज़


एक पुरानी कार रंगी जा रही है
छलकने तक रंगी जायेगी।

(1991)
 

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