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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है
 

 

सात सौ साल पुराना छंद

 

पृथ्वी घूमती हुई गयी किस ओर
कि सेब में फूल आने लगे


छोटे-छोटे शहरों के चाँद
अलग-अलग याद आये
बारिश से ऊपर उठते हुए उनका क़रार


घास की पत्तियों में ठहर गयी बूँदें
बिखरने लगीं तमाम नींद में

 
धूप उतरी नींबू में


पहला प्यार जब राख हो गया
ख़ुद को बचाया उस साँवली नृत्य शिक्षिका ने
दंगे के ख़िलाफ़ दिखी वह प्रभातफेरी में फिर
शरीर और समुदाय एक हुआ


लंबी छुट्टी बीच में हीं ख़त्म कर
लौटी वह फिर काम पर
आयी अपनी छात्राओं के बीच
अभ्यास कराने सात सौ साल पुराने छंद का।

(1994)
 

समुद्र और चाँद
 

जब समुद्र उठ रहा था चाँद की ओर
पश्चिम भारत के अंतिम किनारे पर
उस शाम मैंने उसे देखा


और चाँद
ट्राम के पहिए जितना बड़ा
और वह शहर कलकत्ता बहुत दूर
जहाँ ट्राम चलती है


समुद्र उठ रहा था चाँद की ओर
उस तरह सिर्फ़ घोड़े ही उठ सकते हैं
जैसे वे दिखते ही तब हैं
जब वे दौड़ते हैं


समुद्र उठ रहा था चाँद की ओर
मैं बिलकुल पास ही खड़ा था
एक ऐसा अकेलापन एक तनाव
रोने की भी इच्छा हुई
लेकिन रुलाई फूटी नहीं


और किस तरह रात आ रही थी
उतनी ऊँची लहरों में
(...जारी)
 

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