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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है/समुद्र और चाँद(ii)-पगडंडी
 

 

कहीं दिख नहीं रही थी
मेरी पुरानी कमीज़ के सिवा


देर तक वहाँ टिकना मुश्किल था
बम्बई के भीतर लौट।

(1990)
 

पगडंडी



वहाँ घने पेड़ हैं
उनमें पगडंडियाँ जाती हैं


ज़रा आगे ढलान शुरू होती है
जो उतरती है नदी के किनारे तक
वहाँ स्त्रियाँ हैं
घास काटती जाती हैं
आपस में बातें करते हुए
घने पेड़ों के बीच से ही उनकी
बातचीत सुनायी पड़ने लगती है।

(1996)

 

 


 

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